Sunday 30 June 2013

एक पुस्तक ने संतरी को बनाया नोबेल विजेता

वर्नर हाइजनबर्ग जब 19 वर्ष के थे, तब वे एक पाठशाला में संतरी की डच्यूटी करते थे। उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी किंतु वे पढ़ने के शौकीन थे। इसलिए इधर-उधर से पुस्तकों की व्यवस्था कर अपना ज्ञानवर्धन किया करते थे।
एक दिन पाठशाला में काम के दौरान उन्हें मशहूर दार्शनिक प्लेटो की थिमेथस नामक पुस्तक मिली, जिसमें प्राचीन यूनान के परमाणु संबंधी सिद्धांत दिए हुए थे। इस पुस्तक को पढ़ते-पढ़ते वर्नर की भौतिकी में इतनी रुचि जागृत हो गई कि उन्होंने इस क्षेत्र में कुछ करने की ठान ली। वे निरंतर अध्ययन करते रहे और विभिन्न परीक्षाएं उत्तीर्ण करते रहे।
23 वर्ष की आयु में अपनी बेजोड़ प्रतिभा के बल पर वे गोटिंजेन में प्रोफेसर मैक्स प्लांक के सहायक के पद पर नियुक्त हो गए। इसके बाद तो उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपने जीवन के 24वें वसंत के बीतने तक वर्नर कोपेनहेगन के विश्वविद्यालय में लेक्चरर हो चुके थे। 26 वर्ष की आयु में वे लीपजिंग में प्रोफेसर के पद पर आसीन हो गए। 32 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते अपने पिछले छह-सात वर्षो के अनुसंधानों के आधार पर उन्हें भौतिक विज्ञान में असाधारण योगदान के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। इस प्रकार एक पुस्तक ने एक संतरी को मात्र कुछ वर्षो में नोबेल पुरस्कार विजेता बना दिया।
सार यह है कि पुस्तकों से अच्छा मित्र और कोई नहीं होता। पुस्तकें व्यक्ति का न केवल ज्ञानवर्धन करती हैं बल्कि उनकी रुचि के अनुकूल उचित मार्गदर्शन कर उसे लक्ष्य तक पहुंचाने का महत कार्य भी करती हैं।

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