Sunday 1 March 2015

'नाक' ऊंची नहीं रखने का...

मैंने आज पंजाब के होशियारपुर ज़िले के जसबीर सिंह के बारे में एक रिपोर्ट पढ़ी। वह चौदह वर्षों तक होशियारपुर के गवर्नमेंट कॉलेज में विज्ञान पढ़ाने के बाद सिडनी (ऑस्ट्रेलिया) चले गये। वहां उन्हें हाईस्कूल तक के बच्चों को पढ़ाने का मौक़ा मिला, लेकिन काम छोड़ दिया। अकाउंटिंग का काम करने लगे। वहां भी उनके जूनियर को प्रोमोट कर सीनियर बना दिया गया तो वह नौकरी भी छोड़ कर सन 2012 से वह टैक्सी चला रहे हैं, क्योंकि आस्ट्रेलिया में (हिंदुस्तानी बाबू साहबों की तरह) 'नाक' ऊंची रखने का सवाल नहीं, हर काम की इज़्ज़त होती है। और यही सबसे अच्छी बात है। प्रोफ़ेसर साहब टैक्सी चलाकर भी खूब खुश रहते हैं। ऑस्ट्रेलिया के हर शहर में ज़्यादातर टैक्सी चालक पंजाब, हरियाणा और आंध्र प्रदेश के हैं, जो वहां कोई न कोई कोर्स करने पहुंचे थे और टैक्सी चलाने लगे। (मेरे गांव में एक बाबू साहब थे, दोपहर में दो-तीन लोटा गन्ने का रस पीने के बाद दांत खोदते हुए घर से बाहर निकलते थे, ताकि लोग जानें कि वह रस पीकर नहीं, भर पेट भोजन किए हैं, वरना 'नाक' कट जायेगी। इसी तरह इस देश में कथित वामपंथियों और प्रगतिशील लेखक संघ के फर्जी धुरंधरों की नाक जाती है, बात बात पर।)

गरीबों की होली/जयप्रकाश त्रिपाठी

बिना जंग के जैसे सीने में गोली, गरीबों की होली, गरीबों की होली।
इधर से सलाखें, उधर से सलाखें, सुबकते सुबकते हुईं लाल आंखें,
सिलेंडर मिलेगा तो गुझिया बनेगी,
रखे रह गए ताख पर झोला-झोली,
गरीबों की होली, गरीबों की होली...

न हलुआ, न पूरी, मुकद्दर सननही, थके पांव दोनो, फटी-चीथ पनही,
लिये हाथ में अपने झाड़ू या तसला, सुनाये किसे जोंक-जीवन का मसला,
न कुनबा, न साथी-संघाती, न टोली,
बीना आग-राखी, बिना रंग-रोली,
गरीबों की होली, गरीबों की होली...

न मखमल का कुर्ता, न मोती, न हीरा, रटे रात-दिन बस कबीरा-कबीरा,
रहा देखता सिर्फ सपने पुराने, नहीं जान पाया मनौती के माने,
मुआ फाग बोले अमीरो की बोली,
ये दिन, कांध जैसे कहारों की डोली,
गरीबों की होली, गरीबों की होली...
('जग के सब दुखियारे रस्ते मेरे हैं' से उद्धृत)