Tuesday 25 June 2013

पैंतीस प्रतिशत बुक लवर्स लैपटॉप पर


गूगल ने इलेक्ट्रॉनिक बुक स्टोर की दुनिया में कदम रखते हुए अमेजन को जोरदार टक्कर दी है। गूगल पर पढ़ी जा सकने वाली मुफ्त किताबों के कारण भी विवाद हुआ। लेकिन गूगल का कहना है कि इससे ज्यादा लोग किताबें पढ़ सकेंगे। गूगल की प्रवक्ता जेनी होर्नुंग का कहना है, हमें विश्वास है कि यह दुनिया का सबसे बड़ा ई-बुक पुस्तकालय होगा। मुफ्त पढ़ी जा सकने वाली किताबों को मिला कर इनकी कुल संख्या तीस लाख से ज्यादा है। मैकमिलन, रैन्डम हाउस, साइमन एंड शूस्टर जैसे मशहूर प्रकाशकों की हजारों डिजिटल किताबें ई-बुक स्टोर में बेची जाएँगी।
गूगल ई-बुक्स इंटरनेट क्लाउड पर ऑनलाइन रखी जाएँगी और वेब से जुड़े किसी भी कंप्यूटटर या फिर एप्पल के आईफोन, आईपैड, आई पॉड टच और ऐसे स्मार्ट फोन्स जिस पर गूगल के एन्ड्रॉइड सॉफ्टवेयर हो, उन पर पढ़ी जा सकेंगी। ई-बुक्स पर बेची गई किताबें सोनी रीडर, बार्नेस और नोबल के नूक सहित दूसरे ई-रीडर पर पढ़ी जा सकेंगी लेकिन अमेजन के किंडल पर नहीं। गूगल का मानना है कि अधिकतर लोग लॉग इन करके किताबें ऑनलाइन पढ़ना पसंद करेंगे और इसके लिए वे जो भी गेजेट आसानी से उपलब्ध होगा उसका इस्तेमाल करेंगे। ठीक उसी तरह से जैसे वह वेब पर जी-मेल अकाउंट चेक करते हैं।
हॉर्नुंग का कहना है, आप एक किसी भी किताब को क्लाउड की एक लायब्रेरी में जमा कर के रख सकेंगे और गूगल अकांउट के जरिए कहीं से भी उस किताब को पढ़ सकेंगे।
गूगल बुक्स के इंजीनियरिंग डायरेक्टर जेम्स क्रॉफर्ड का कहना है, मुझे विश्वास है कि आने वाले सालों में हम किसी भी बुक स्टोर से सिर्फ ई-बुक्स ही खरीदेंगे, उन्हें वर्चुअल रैक में रखेंगे और किसी भी डिवाइस पर उसे पढ़ेंगे। अभी उस सपने की शुरुआत है। स्वतंत्र बुक स्टोर पॉवेल, ऑनलाइन बुक शॉप एलिब्रिस और अमेरिकी पुस्तक विक्रेता संघ गूगल के लॉन्चिंग डे पार्टनर्स हैं जो गूगल की डिजिटल किताबें बेचेंगे। ई-बुक स्टोर न्यूयॉर्क टाइम्स के बेस्ट सेलर उपन्यासों से लेकर तकनीकी पुस्तकों तक सब कुछ उपलब्ध हो सकेगा और इसके वर्चुअल पन्नों पर ग्रॉफिक्स भी आसानी से देखे जा सकेंगे। जहाँ तक कीमतों का सवाल है, ई-बुक्स स्टोर की किताबें बाजार के हिसाब से होंगी जबकि कई फ्री किताबें पहले ही गूगल पर उपलब्ध हैं। गूगल पुस्तक प्रेमियों की सोशल वेबसाइट गुड रीड्स के साथ हाथ मिलाएगा ताकि ऐसा नेटवर्क बने जहाँ लोग आसानी से ऑनलाइन ई-बुक्स खरीद सकें। होर्नुंग ने बताया कि विचार कुछ ऐसा है कि आप अपनी पसंद के विक्रेता से पुस्तक खरीदें और आपके पास जो डिवाइस मौजूद है उस पर उसे जहाँ चाहे वहाँ पढ़ें। गूगल के साथ फिलहाल चार हजार प्रकाशक हैं।
2004 में गूगल बुक्स प्रजेक्ट शुरू होने के बाद से गूगल ने सौ देशों से, चार सौ भाषाओं में करीब डेढ़ करोड़ किताबें डिजिलाइस की हैं। हालाँकि इस पर विवाद भी हुआ। लेखकों और प्रकाशकों ने गूगल के किताबें डिजिटलाइज करने पर आपत्ति उठाई थी। जिन किताबों का कॉपीराइट है या फिर जिनके लेखकों का कोई अता पता नहीं है ऐसी किताबें ई-बुक स्टोर पर नहीं बेची जाएँगी। एक शोध के मुताबिक अमेरिका में ई-बुक डिवास का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या इस साल के आखिर तक एक करोड़ से ज्यादा हो जाएगी। और 2015 तक 2 करोड़ 94 लाख अनुमानित है। फॉरेस्टर सर्वे के मुताबिक ई-बुक पढ़ने वाले लोगों में 35 फीसदी लोग लैपटॉप पर किताब पढ़ते हैं, 32 फीसदी अमेजन के किंडल पर और 15 फीसदी लोग एप्पल के आई फोन पर पढ़ते हैं। (myhindiforum.com से साभार)

नई कल्पनाओं की मां होती हैं किताबें


पुस्तक प्रेमी अक्सर इस बात की चर्चा करते है कि किस प्रकार कोई किताब उनके जीवन में परिवर्तन लाने वाली सिद्ध हो जाती है। किताबें पाठकों के सामने एक नई दुनिया खोल देती है और इसी के साथ वे मस्तिष्क की सोचने-विचारने व कल्पनाशक्ति की वृद्धि में सहायक सिद्ध होती है। पत्रकार विजेता शंकर राव कहती है, ''पढ़ने से बुद्धिमत्ता में वृद्धि होती है। किताबें आपको अधिक ज्ञानी तथा आत्मविश्वास से परिपूर्ण बनाती हैं।'' उन्हीं की तरह एक दूसरी पुस्तक प्रेमी महिला नंदिनी श्रीनिवास की स्वीकारोक्ति है, ''मैं पढ़ना पसंद करती हूं और मैंने घर पर एक छोटा सा पुस्तकालय बना रखा है। मेरे लिए अध्ययन सांस लेने जितना महत्वपूर्ण है।'' यह सत्य है कि अध्ययन आपकी दुनियादारी का दायरा बढ़ाता है। यह जीवन को नई दृष्टि से देखने के अवसर प्रदान करता है और आपके मस्तिष्क को कल्पना के नये आयामों तक ले जाता है।
कैसे चुनें किताबें
अध्ययन का अर्थ यह नहीं है कि कुछ भी पढ़ डाला जाए। यह मस्तिष्क के लिए आहार के समान होता है, इसीलिए इसे भी शारीरिक आहार की तरह गुणवत्तापूर्ण होना चाहिए। ऐसी पुस्तकों का चयन करे, जो आपके जीवन को प्रभावित करने की क्षमता रखती हों अथवा कम से कम इनसे आपको कुछ सीखने को मिले। अगर आप पुराने साहित्य में रुचि रखती है, तो शुरुआत के लिए मुंशी प्रेमचंद अथवा इंग्लिश में जेन ऑस्टन श्रेष्ठ सिद्ध हो सकते है। यदि आपकी रुचि कविता में है, तो प्रेमपूर्ण कविताएं इस दिशा में अच्छी शुरुआत होंगी। यदि आपकी रुचि समकालीन साहित्य में है, तब तो आपके सामने बहुत सारे विकल्प है। नजदीकी पुस्तक विक्रेता के पास आप हिंदी साहित्य से जुड़ी पत्रिकाओं से लेकर समकालीन साहित्यकारों की रचनाओं का विशाल संग्रह प्राप्त कर सकती है।
यदि आप पुस्तकों के संदर्भ में कुछ सुझाव प्राप्त करना चाहती है, तो नजदीकी पुस्तकालय में जाइए। अधिसंख्य पुस्तकालयों में पाठकों की पसंद तथा पुस्तकालयाध्यक्ष द्वारा संस्तुत की गई बेहतरीन पुस्तकों की सूची प्रदर्शित की जाती है। पुस्तकालय कर्मचारियों को इस बात का बखूबी अंदाज होता है कि कौन सी पुस्तकें अधिक लोकप्रिय है और किस वजह से? पुरस्कृत पुस्तकें आपको स्वत: ही अपनी ओर आकर्षित करती है। इसी के साथ ही विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित पुस्तक चर्चा स्तंभ भी आपकी सहायता कर सकते है। इनमें प्रकाशित पुस्तक की संक्षिप्त झलक आपको इस बात का अंदाजा दे देती है कि पुस्तक का स्तर क्या है?
किताबों के संसार में हर एक व्यक्ति की रुचि के अनुसार सामग्री उपस्थित है। यदि आप गंभीर साहित्यिक लेखन पढ़ने में रुचि नहीं रखती है तो यात्रा, पोषण, आत्मविकास, प्रेमकथाएं अथवा आध्यात्मिकता से संबंधित पुस्तकों को चुन सकती है। कुल मिलाकर बात यह है कि ऐसी पुस्तकों को चुनें, जिनसे आपको संतुष्टि का आभास हो और वे आपकी अंतदर्ृष्टि को विकसित करने में सहायक सिद्ध हों। कई प्रतिष्ठित पुस्तक प्रकाशक अपनी पुस्तकों का सूची पत्र तैयार करते है। यदि आप किसी पुस्तक विक्रेता की दुकान पर अपना नाम दर्ज करवा दें, तो यह सूची पत्र डाक द्वारा आपके पते पर भेज दिये जाते है। इसकी सहायता से आप अपने मन की पुस्तकों का चयन कर सकती है।
अध्ययन के लाभ
यह सर्वसिद्ध तथ्य है कि अध्ययन आपकी भावनात्मक बुद्धिमत्ता में सुनिश्चित तौर पर वृद्धि करता है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक डैनियल गोलमैन के अनुसार भावनात्मक बुद्धिमत्ता पांच गुणों जागरूकता, भावनाओं पर नियंत्रण, आत्मप्रेरण, समानुभूति तथा लोकव्यवहार का सम्मिश्रण है। पुस्तकें हमें विभिन्न किस्म के लोगों, व्यवहारों तथा अनुभवों से परिचित कराती है, जो वास्तविक जीवन से उत्पन्न होते है। पुस्तकें इस बात में हमारी सहायता करती है कि दूसरे किस प्रकार सोचते है? किसी उपन्यास में पात्रों की मनोदशा का विश्लेषण करते हुए पाठक दूसरों की भावनाओं से परिचित होने लगता है और कभी-कभी तो इनमें उसे अपना प्रतिबिंब दिखाई देने लगता है। इस प्रक्रिया से भावनात्मक बुद्धिमत्ता में वृद्धि होती है।
एक युवा मां दीप्ति राजपुरिया का कहना है, ''प्रत्येक अभिभावक को पुस्तकें पढ़ने की आदत डालनी चाहिए। मेरे बच्चों ने छोटी उम्र से ही पुस्तकों को पलटना शुरू कर दिया था, क्योंकि वे ऐसा करके अपनी मां जैसा दिखना चाहते थे। लगभग प्रत्येक शाम को मैं टेलीविजन देखने की जगह कोई अच्छी पुस्तक पढ़ना पसंद करती हूं। मेरे बच्चों ने भी मुझसे यह आदत सीख ली है। मेरा मानना है कि अभिभावकों को बच्चों के सामने खुद को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करना होता है जिससे वे अच्छी आदतें सीख सकें।''
नई दिल्ली के एक स्कूल में हेड लाइब्रेरियन के रूप में कार्यरत मिताली बाजपेयी का कहना है, ''मेरा मानना है कि अध्ययन आपके सामने नए अवसर और विचारों को प्रस्तुत करता है। यह न केवल आपको दूसरों की भावनाओं को समझने का अवसर देता है, बल्कि कई बार आपकी उग्र अथवा उपेक्षित भावनात्मक स्थिति को भी शांत करता है। इस दुनिया में कई महान पुरुष और स्त्रियां हुए है और यह दुर्लभ सी बात है कि आप इन सभी से मिल सकें। हां, पुस्तकें इस बात का रास्ता खोलती है कि आप इन महान विचारकों से परिचित हो सकें और उनसे कुछ सीख सकें। यदि आप पुस्तकों से दूरी रखती है तो निश्चित मानिए ज्ञान आपसे दूरी बना लेगा।''
यह वास्तविकता है कि तकनीक के दौर में लोगों की पुस्तकों से दूरी बढ़ गई है। सेलफोन, केबल टी.वी. और इंटरनेट ने हमें कुंद बुद्धि और मशीनों पर निर्भर इंसान बना दिया है। हर समय चलती-फिरती तस्वीरों के कारण इंसान की कल्पनाशीलता समाप्त होती जा रही है। इसके विपरीत जब आप कोई पुस्तक पढ़ती है, तब आपका दिमाग तेजी से काम करने लगता है। नई-नई कल्पनाएं जन्म लेती है, तार्किक क्षमता बढ़ती है और आप तथ्यों को अपनी स्वतंत्र कसौटी पर कस पाती है। मनुष्य को दूसरे पशुओं से बेहतर इसीलिए माना गया था, क्योंकि वह मस्तिष्क का ऊपर बताए गए तरीकों से प्रयोग कर सकता था। क्या 21 वीं शताब्दी में मनुष्य का मस्तिष्क मशीनों का गुलाम हो जाएगा अथवा उसकी कल्पनाशीलता और बढ़ेगी, इस प्रश्न का उत्तर केवल इस बात में छिपा है कि इस आलेख को पढ़ने के बाद आपका हाथ रिमोट उठाने के लिए बढ़ता है अथवा किसी अच्छी किताब को उठाने के लिए (myhindiforum.com से साभार)

किताबों के भविष्य की चिंता


पुस्तकें अपनी पहचान और महत्व को खोती जा रहीं हैं । पढ़ने की संस्कृति विलुप्त हो रही है । फिर दौड़भाग भरी जिंदगी में टीवी, इंटरनेट, फेसबुक और ईबुक जैसे माध्यमों ने किताबों की प्रासंगिकता को खत्म कर दिया है। किताबें जनता के बजट से बाहर हो चुकी हैं । ऐसे में कुछ कठिन सवाल हर बार उठते हैं । पुस्तक मेले और बड़ी साहित्यिक गोष्ठियों में ये प्रश्न और भी मारक रूप से सामने आते हैं। चिंता व्यक्त की जाती है, शोक मनाया जाता है। सबका एक ही सवाल आखिर किताबों का भविष्य क्या है ? इस तरह के प्रश्नों पर कई तरह के मत सामने आते हैं।
प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी किताबों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं । वे कहते हैं कि यह बुक रीडिंग का नहीं स्क्रीन रीडिंग का युग है। इसका यह अर्थ नहीं है कि रीडिंग के पुराने रूपों का खात्मा हो जाएगा।किंतु यह सच है कि स्क्रीन रीडिंग से पुस्तक, पत्र-पत्रिका आदि के पाठक घटेंगे। यह रीडिंग का प्रमुख रूप हो जाएगा। पुरानी रीडिंग के रूप वैसे ही बचे रह जाएंगे जैसे अभी भी राजा बचे रह गए हैं। एकदम शक्तिहीन। पुस्तक का भी यही हाल होगा।
जब लोग 6-8 घंटे स्क्रीन पर पढ़ेंगे या काम करेंगे तो पुस्तक वगैरह पढ़ने के लिए उनके पास समय ही कहां होगा! बच्चों के बीच धैर्य कम होता चला जाएगा।इस समूची प्रक्रिया को इनफोटेनमेंट के कारण और भी गंभीर खतरा पैदा हो गया है। अब टीवी देखते समय हम सोचते नहीं हैं, सिर्फ देखते हैं। बच्चे किताब पढ़ें इसके लिए उन्हें शिक्षित करना बेहद मुश्किल होता जा रहा है।
लेकिन आईआईएमसी की लाइब्रेरियन प्रतिभा शर्मा के विचार कुछ भिन्न हैं । उनका मानना है कि किताबों का क्रेज कभी कम नहीं हो सकता। जिन्हें पुस्तकों में दिलचस्पी है वे किताब पढ़े बिना संतुष्ट नहीं होते भले ही किताब में लिखी बात अन्य मीडिया के माध्यम से वे जान चुके हों।
शायद इन्हीं विचारों को पुष्ट करने के लिये वे अपने कार्यकाल के पहले ही वर्ष संस्थान में पुस्तक मेले का एक सफल आयोजन करती हैं । इसके पीछे वे एक अलग तरह का कारण बताती हैं । वे कहती हैं ज़माना बदल गया है आज के छात्र लाइब्रेरियन या अध्यापक द्वार चुनी हुई या कहें थोपी हुई किताबों से संतुष्ट नहीं है । वैश्वीकरण के दौर में उनकी पसंद में जबर्दस्त बदलाव आया है । उनके चुनाव करने की क्षमता भी विकसित हुी है ।
इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैने इस मेले का आयोजन करवाया । यहां छात्रों और अध्यापकों को अपने पसंद की किताबों को अपने लाइब्रेरी के लिये चयन का अधिकार दिया गया है। यह एक नई परंपरा है आशा है यह छात्रों को भी पसंद आयेगी ।
प्रोफेसर आनंद प्रधान का मानना है कि यह एक बेहतरीन पहल है। किताबें हमारे जीवन का एक नया दरवाजा खोलती हैं । किताबें तो दुनिया की खिड़की होती हैं। पुस्तक प्रदर्शनी का उद्देश्य ही होता है पढ़ने लिखने की संस्कृति को प्रोत्साहन देना । उनका मानना है कि वैश्वीकरण के इस दौर में किताबें भी ग्लोबल हो रही हैं । दुनिया के बड़े बड़े प्रकाशक भारत आ रहें हैं । भारतीय प्रकाशक भी देश की सीमाओं को लांघने लगे हैं।
किताबों के भविष्य उज्ज्वल है।
लेखक एवं व्यंगकार यशवंत कोठारी कहते हैं कि भइया किताबें कितनी भी मंहगी क्यों न हो जायें मेरे झोले में पत्र पत्रिकाओं के अलावा किताबें हमेशा रहती हैं। हर पुस्तक मेले में जाता हूं। किताबें उलटता हूं, पलटता हूं, कभी कभी कुछ अंश वहीं पर पढ़ लेता हूं या फोटोकॉपी करा लेता हूं, मगर पुस्तक खरीदना हर तरह से मुश्किल होता जा रहा है।
वास्तव में हर किताब एक मशाल है। एक क्रान्ति है, ऐसा किसी ने कहा था। किताब व्यक्ति के अन्दर की नमी को सोखती है। थके हुए आदमी को पल दो पल का सुकून देती है, किताबें। हारे हुए आदमी को उत्साह, उमंग और उल्लास देती है किताबें। वे जीने का सलीका सिखाने का प्रयास करती है। सूचना, विचार दृष्टिकोण, दस्तावेज़, प्यार, घृणा, यथार्थ, रोमांस, स्मृतियाँ, कल्पना, सब कुछ तो देती हैं किताबें मगर कोई किताब तक पहुँचे तब न।
पुस्तकें हमारे जीवन का सच्चा दर्पण हैं। वे हमारे व्यक्तित्व, समाज, देश, प्रदेश को सजाती है, सँवारती है, हमें संस्कार देती है । किसी व्यक्ति की किताबों का संकलन देखकर ही आप उसके व्यक्तित्व का अंदाजा लगा सकते हैं। कहते हैं कि किताबें ही आदमी की सच्ची दोस्त होती हैं और दोस्तों से ही आदमी की पहचान भी। अतः किताबों के भविष्य पर शंका करने से बेहतर है कि हम उनसे दोस्ती बढ़ायें उन्हे अपना हमराही बनायें । कहते हैं न कि मित्र हमेशा आपके पास आपकी मदद के लिये नहीं रह सकतें हैं लेकिन किताबें और उनसे मिलने वाला ज्ञान परदेश और वीरानें के अकेलेपन में भी आपकी सच्ची मार्गदर्शक और मित्र होती हैं ।
अंत में कुछ विद्वानों के कथन से पुस्तकों की महत्ता को परिभाषित किया जा सकता है --
थोमस ए केम्पिस कहते हैं-"बुद्धिमानो की रचनाये ही एकमात्र ऐसी अक्षय निधि हैं जिन्हें हमारी संतति विनिष्ट नहीं कर सकती. मैंने प्रत्येक स्थान पर विश्राम खोजा, किन्तु वह एकांत कोने में बैठ कर पुस्तक पढ़ने के अतिरिक्त कहीं प्राप्त न हो सका."
क्लाईव का कथन है कि " मानव जाति ने जो कुछ किया, सोचा और पाया है, वह पुस्तकों के जादू भरे पृष्ठों में सुरक्षित हैं".
वहीं बाल गंगा धर तिलक ने कहा था " मैं नरक में भी पुस्तकों का स्वागत करूँगा क्यूंकि जहाँ ये रहती हैं वहां अपने आप ही स्वर्ग हो जाता है". (myhindiforum.com से साभार)

बुक लवर्स

        रीडर और बुक्स के बीच दूरियां पनप रही हैं। रीडर बिजी और किताबें महंगी। न बुकशॉप जाने का वक्त, न इतनी महंगी किताबें खरीदने की इच्छा। दूरियां बढ़ती रहीं, जब तक कि इंटरनेट ने दस्तक न दे दी। अब लोग किताबों की तरफ लौट रहे हैं। ई-कॉमर्स पोर्टलों ने किताबें खरीदना बहुत आसान बना दिया है। कई पोर्टल आ गए हैं तो उनमें होड़ भी मची है - सस्ती दरों पर अच्छी किताबें मुहैया कराने की, और वह भी लॉन्च के फौरन बाद।
इंडियाटाइम्स uread.com के सहयोग से इंटरनेट पर किताबें बेचने की सर्विस चला रहा है। इसकी खासियत है, कई किताबों पर मिल रहे डिस्काउंट। कई किताबों पर 40 फीसदी तक डिस्काउंट मिल जाता है। इंडियाटाइम्स एक और स्कीम चलाता है, जिसके तहत लोग 500 रुपये सालाना जमा कराकर साल भर 25 फीसदी डिस्काउंट पर किताबें खरीद सकते हैं। ऊपर से 750 रुपये की किताबें उपहार में दी जाती हैं। यहां किताबों का चुनाव लगभग दो दर्जन कैटेगरी के बीच से या फिर ब्रैंड्स के आधार पर किया जा सकता है।
flipcart.com : फ्लिपकार्ट पर करीब दो दर्जन कैटिगरी में किताबें उपलब्ध हैं। इस पर कई अनूठी सुविधाएं हैं, जैसे कम्प्लीट कलेक्शन ऑर्डर करना (हैरी पॉटर जैसे मामलों में, जहां एक ही सीरीज में कई किताबें आती हैं), लॉन्च होने जा रही किताबों के लिए पहले से ऑर्डर करना, आधी कीमत पर मिलने वाली किताबें वगैरह। नई-नई लॉन्च हुई किताबों और बुकर प्राइज विनर्स के लिए अलग सेक्शन हैं। डिलिवरी फ्री है।
avbooksindia.com : यहां करीब 30 कैटिगरी में किताबें मौजूद हैं, जिन्हें अलग-अलग विषयों के हिसाब से ढूंढकर ऑर्डर किया जा सकता है। खरीदी गई किताबों को रजिस्टर्ड मेल या एयरमेल से फ्री भेजा जाता है। नई किताबें अलग-से दिखाई जाती हैं और पहले से मौजूद किताबों को सर्च करने की अच्छी सुविधा है। किताबों पर सीमित डिस्काउंट भी उपलब्ध हैं।
books.rediff.com : इंडियाटाइम्स की ही तरह भारत के इस एक और बड़े इंटरनेट पोर्टल पर किताबों का भारी-भरकम स्टोर मौजूद है, जिसमें करीब 35 लाख किताबें बताई जाती हैं। करीब 40 हजार लेखकों की किताबें 500 कैटिगरी में उपलब्ध हैं। इन्हें विषयों, किताबों के नामों और लेखकों के नामों से सर्च किया जा सकता है। जहां तक डिस्काउंट का सवाल है, वह यहां दिखाई नहीं दिया। अलबत्ता, किताबों को डाक से फ्री भेजा जाता है और डिलिवरी पर पेमेंट करने की भी सुविधा है।
simplybooks.in : यूं तो यह एक नया पोर्टल है लेकिन पूरी तरह किताबों से संबंधित होने के नाते इसने बुक लवर्स के बीच जगह बना ली है। यहां किताबों की सैकड़ों कैटिगरी मौजूद हैं, और बहुत-सी किताबों पर 25 फीसदी डिस्काउंट भी मिल जाता है। अलग-से मौजूद डिस्काउंट सेक्शन में यह थोड़ा ज्यादा भी हो सकता है। नई रिलीज और बेस्टसेलर्स पर भी अलग सेक्शन मौजूद हैं, ताकि ट्रेंडी किताबें ज्यादा ढूंढनी न पड़ें। कुरियर के जरिए देश भर में फ्री शिपिंग की सुविधा है। (myhindiforum.com से साभार)

किताबें ही प्रजा, किताबें ही राजा

         हमारे आसपास बिखरी हैं किताबें। नई किताबें..पुरानी किताबें..। अच्छी किताबें..बुरी किताबें..। बड़ों की किताबें..बच्चों की किताबें..। किताबों का साम्राज्य है..किताबों का शासन है..। किताबें ही प्रजा हैं..किताबें ही राजा हैं..। किताबों की सड़क है और किताबों की ही इमारत है.। वाह, कितना सुखद स्वप्न है यह, या फिर एक कोरी कल्पना..। आज के इंटरनेट युग में किताबों का ऐसा संसार कहां? किताबें तो अब किताबों की बातें बन चुकी हैं। हमारे पास इतना समय ही कहां कि इस इंटरनेट की दुनिया से बाहर आएं और किताबों के पन्ने पलटें। हम तो रच-बस गए हैं इंटरनेट के मायाजाल में। फंस गए हैं जानकारियों के ऐसे चक्रव्यूह में, जहां से बाहर निकलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन लगता है। सबकी खबर है हमें, केवल स्वयं को छोड़कर। आओ किताबों की इस खत्म होती दुनिया में मन की किताब खोलें और उस किताब में एक नाम जोड़ें विश्वास का..आत्म-अनुशासन का..आत्मसम्मान का..स्वाभिमान का..। आओ शुरुआत करें और प्रयास करें मन की एक नई किताब लिखने का। आज की पीढ़ी का मानो किताबों से नाता ही टूट गया। हर बात के लिए उनके पास ‘गूगल बाबा’ हैं ना! एक यही ‘बाबा’ हैं, जो हमें हर जगह हमेशा ले जाने को तैयार हैं। इसके बिना तो आज किसी भी ज्ञान की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती।
युवाओं के हाथों में किताब तो है, पर उसे वे ऐसे देखते हैं मानो कोई अजूबा हो। छोटे-छोटे नोट्स से ही उनका काम चलता है। अच्छा भी है शायद, अब किसी पोथी से उनका वास्ता ही नहीं पड़ता। पोथी देखकर वे बिदकने लगेंगे। हमारे पास ज्ञान के लिए ‘गूगल बाबा’ हैं, यह सच है। पर इनके दिए ज्ञान को हम कब तक अपने दिमाग में रखते हैं? ‘गूगल बाबा’ के ज्ञान से केवल परीक्षा ही दी जा सकती है। पर हमारे पूर्वजों ने जो ज्ञान दिया है, वह तो जीवन की परीक्षा में पास होने के लिए दिया है, जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए दिया है। आज उनके दिए ज्ञान का उपयोग कम से कम हो पा रहा है।
शोध बताते हैं कि ‘गूगल बाबा’ की शरण में रहने वालों की स्मृति कमजोर होने लगी है। आखिर कहां जाएंगे कमजोर याददाश्त लेकर हम सभी? सब कुछ है ‘गूगल बाबा’ के पास। पर शायद नहीं है, तो मां का ममत्व, पिता का दुलार, बहन का अपनापा या फिर प्रेमी या प्रेयसी का प्यार। हम जब मुसीबत में होते हैं, तब चाहकर भी ‘गूगल बाबा’ हमारे सिर पर हाथ नहीं फेर सकते। हमारे आंसू नहीं पोंछ सकते। हमें सांत्वना नहीं दे सकते। ‘बाबा’ हमें ज्ञानी तो बना सकते हैं, पर एक प्यारा-सा बेटा, समझदार भाई, प्यारे-से पापा, अच्छा पति नहीं बना सकते। इसलिए कहता हूं ‘बाबा’ को घर के आंगन तक तो ले आओ, पर घर के अंदर घुसने न दो। अगर ये घर पर आ गए, तो समझो हम सब अपनों से दूर हो जाएंगे, हम गैरों से घिर जाएंगे। यहां सब कुछ तो होगा, पर कोई अपना न होगा। कैसे रहोगे फिर उस घर में?
किताबों से दोस्ती करो। ये हमारी सबसे अच्छी दोस्त हैं। हमारे सुख-दुख में यही काम आएंगी। जब ये हमसे बातें करेंगी, तो हमें ऐसा लगेगा, जैसे मां हमें दुलार रही हैं, पिता प्यार से सिर पर हाथ फेर रहे हैं, बहना और दीदी हमसे चुहल कर रही हैं। अपनापे और प्यार का समुद्र लहराने लगेगा। किताबें हमसे कुछ कहने के लिए आतुर हंै। वह दिन बहुत ही यादगार होगा, जब यही किताबें तुमसे ज्ञान प्राप्त करेंगी। हम सब गर्व से कह उठेंगे कि किताबों जैसा कोई नहीं। तो हो जाओ तैयार पढ़ने के लिए एक किताब प्यारी-सी। (myhindiforum.com से साभार)

साधारण - सा जीवन : असाधारण किताबें


सोपान जोशी

युद्ध की हिंसा से तो जोसेफ बच गए पर अपनी अंतरआत्मा से नहीं। उन्हें ये मंजूर नहीं था कि उनकी कमाई से वसूले कर का इस्तेमाल अमेरिकी सरकार युद्ध के लिए करे। उन्होंने गरीबी में रहने का प्रण लिया ताकि उन्हें सरकार को कर चुकाना ही न पड़े। सिर पर स्लेट पत्थर की छत और पांव के नीचे अपने ही मल-मूत्र से बनी जमीन! जोसेफ जेंकिन्स का बस ही तो है संक्षिप्त परिचय। श्री जोसेफ ने पन्द्रह साल पहले एक पुस्तक लिखी थी ‘द स्लेट रूफ बाइबल’। 17 साल पहले लिखी थी ‘द ह्यूमन्योर हैंडबुक’। दोनों किताबों ने हजारों लोगों को प्रभावित किया है, प्रेरणा दी है। वे दूसरों को बताते नहीं हैं कि उनकी नीति क्या होनी चाहिए, उन्हें अपना जीवन कैसे जीना चाहिए। वे खुद ही वैसा जीवन जीते हैं और अपने जीवन की कथा सहज और सरल आवाज में बताते जाते हैं।
जोसेफ जेंकिन्स की अहिंसक यात्रा एक युद्ध से ही शुरू हुई थी। उनके पिता अमेरिकी सेना में काम करते थे। दूसरे विश्व युद्ध के बाद वे जर्मनी में तैनात थे। वहीं श्री जोसेफ का जन्म सन् 1952 में हुआ था। सेना की नौकरी। हर कभी पिताजी का तबादला हो जाता। बालक जोसेफ हर साल-दो-साल में खुद को एक नए शहर में पाता, नए लोगों के बीच, नए संस्कारों में। होश संभालने के साथ जोसेफ को अमेरिका के विएतनाम पर हमले और कई साल से चल रहे युद्ध का भास होने लगा था। अमेरिकी सरकार स्कूल की पढ़ाई पढ़कर निकले हजारों किशोरों को लोकतंत्र की लड़ाई लड़ने अनिवार्य या कहें जबरन सैनिक सेवा में विएतनाम भेज रही थी। जोसेफ कहते हैं वह युद्ध अमेरिकी सामूहिक पागलपन था। उस युद्ध की वजह से कई लाख लोग अपनी जान गंवा बैठे थे। कई लाख एकड़ जमीन ‘एजेंट ऑरेंज’ नाम के जहर से बर्बाद की गई और उस जहर की वजह से आज भी विएतनाम में कई बच्चे पैदाइशी अपंग और मंदबुद्धि हैं। वह युद्ध बहुत बड़ा झूठ और अन्याय था और अमेरिकी समाज ने आज तक उसके लिए जिम्मेदार लोगों को सजा नहीं दी है।
18 साल की उमर होने पर जोसेफ की भी नौबत आनी थी सेना में भर्ती होने की। वे पेंसिलवेनियां राज्य में डॉक्टरी की शुरुआती पढ़ाई कर रहे थे और साल था सन् 1972 । एक दिन कॉलेज की कैंटीन में उन्हें एक अनजान आदमी ने जोसेफ से बस एक फार्म भरवाया और युद्ध के लिए उसे जबरन भर्ती से बचा लिया। लेकिन अगले ही साल सरकार ने इस नियम को खारिज कर दिया। इस तरह जोसेफ बाल-बाल बचे थे विएतनाम युद्ध से। वे आज भी उस अंजान फरिश्ते का आभार मानते हैं।
युद्ध की हिंसा से तो जोसेफ बच गए पर अपनी अंतरआत्मा से नहीं। उन्हें ये मंजूर नहीं था कि उनकी कमाई से वसूले कर का इस्तेमाल अमेरिकी सरकार युद्ध के लिए करे। उन्होंने गरीबी में रहने का प्रण लिया ताकि उन्हें सरकार को कर चुकाना ही न पड़े। वे कहते हैं कि इस घटना के 40 साल बाद आज भी अमेरिकी सरकार अपने नागरिकों से वसूल किए गए कर से निर्दोष लोगों को मारने वाले युद्ध अफगानिस्तान और ईराक में लड़ रही है।
अपने ही देश अमेरिका से उखड़े, चिढ़े हुए वे यात्रा पर पड़ौसी देश मेक्सिको की ओर निकल पड़े, यह समझने कि वहां जीवन काट सकेंगे या नहीं। छह महीने बाद ही वे वापस अपने घर पेंसिलवेनियां के एक छोटे से कस्बे में लौट आए। पेशे की डॉक्टरी करने के लिए स्नातकोत्तर पढ़ाई नहीं करने का निर्णय तो वे पहले ही ले चुके थे। एक परिचित ने उनके सामने प्रस्ताव रखा कि वे गांव में 212 एकड़ की उनकी जमीन संभाल लें। वीरान पड़ी जमीन पर रहने के लिए एक टूटा-फूटा घर तो था पर उसकी मरम्मत जरूरी थी। उस साल जोसेफ ने गर्मी में एक बड़ा बगीचा लगाया। इस जमीन से एक साल में ही उनका दाना-पानी उठ आया था।
इसी दौरान श्री जोसेफ के पास छतों की मरम्मत करने के प्रस्ताव आने लगे। यह काम उन्होंने 16 साल की उमर में ही सीख लिया था, स्कूल की एक छुट्टी के दौरान। साल था 1968 और उनके पड़ौस के एक घर में सीमेंट का बना पक्का आंगन तोड़ कर मलवा हटाने की जरूरत थी। युवक जोसेफ अपना जेब खर्च कमाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने हथौड़ा संभाला और देखते-देखते काम पूरा कर दिया। घर की मालकिन उनकी मेहनत से बहुत प्रभावित हुईं। उनके पिता थे पीट ओडरे, जिनका जमा-जमाया और प्रसिद्ध कारोबार था छत बनाने का। बेटी ने अपने पिता को बताया इस मेहनती युवक के बारे में।
उन्होंने जोसेफ को अपने साथ रख लिया और उन्हें काम सिखाने लगे। इस दौरान जोसेफ ने अमेरिकी घरों में लगने वाली तरह-तरह की छतें बहुत करीब से देखीं और उन पर काम भी किया। उन्होंने पाया कि छत बनाने में इस्तेमाल होने वाला ज्यादातर माल पर्यावरण को दूषित तो करता ही था, ज्यादा समय चलता भी नहीं था। जैसे डामर या एसबेस्टस। इनसे कई तरह के रोग होने का खतरा भी रहता है। इन चीजों से काम करना जोसेफ को कतई नहीं भाया।
फिर वे याद करते हैं वह दिन जब उन्होंने पहली बार स्लेट पत्थर से ढली एक छत देखी। जी हां, वही स्लेट का पत्थर, जिससे एक समय लिखने की पट्टी बनती थी। यूरोप और अमेरिका में बहुत पहले से कई जगह स्लेट पत्थर और कवेलू से छतें बनती रही हैं। हमारे देश के भी अनेक पहाड़ी हिस्सों में स्लेट पत्थर की खदानें हैं और उनसे निकली स्लेटों का यहां भी वैसा ही सुंदर उपयोग होता रहा है। स्लेट के टुकड़े सालों साल जमे रहते हैं और उनकी छत बहुत लंबी चलती हैं। एक छत से निकाल कर स्लेट पत्थरों को दूसरी छत पर लगाना भी सरल होता है। पीढ़ियां चली जाती हैं, स्लेट पत्थर वही रहता है, वहीं रहता है! शायद इसलिए विज्ञापन और नएपन की लकदक में चलने वाली हमारी खरीद-फेंक की नई दुनिया को ऐसा टिकाऊ पदार्थ पसंद नहीं आता।
स्लेट के कई गुण तो जोसेफ को बहुत बाद में समझ आए, पहले तो उन्हें यही दिखा कि इस पत्थर से बनी छतें दूसरी चीजों से बनी छत से कहीं ज्यादा सुंदर दिखती हैं। वे कहते हैं स्लेट के सौंदर्य का उन पर ऐसा जादू हुआ कि उसी दिन तय किया कि जब कभी अपना घर बनाएंगे उसमें छत स्लेट की ही ढालेंगे। ये मौका उन्हें 11 साल बाद सन् 1969 में मिला, कुछ पुराने घरों से निकाली हुई स्लेटों से। इस बीच बहुत कुछ और भी हुआ। उन्हें छत का काम सिखाने वाले पीट ओडरे चाहते थे इस मेहनती युवक को तैयार कर उसे अपना कारोबार सौंपना। पर दो साल छुट्टियों में उनका साथ देकर सन् 1970 में जोसेफ डॉक्टरी की पढ़ाई पढ़ने विश्वविद्यालय चले गए। वहां कॉलेज की फीस जुटाने के लिए उन्होंने घरों की मरम्मत करने का एक छोटा-सा कारोबार चलाया। फिर वे विएतनाम जाते-जाते बचे और कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद गरीबी में रहने का प्रण ले बैठे।
वापस सन् 1975 में घर आए तो उनके शहर के लोग उस मेहनती युवक को भूले नहीं थे जो कारीगर पीट ओडरे का शागिर्द था। उनके पास स्लेट की छतें ठीक करने का काम आने लगा। जल्दी ही उनके पैर जम गए और उनका कारोबार चल निकला। सन् 1979 में उन्होंने सात एकड़ जमीन खरीदी और उस पर अपना घर बनाया, स्लेट की छत वाला। लेकिन पूर्वोत्तर अमेरिका की बर्फीली ठंड में ये कारोबार रुक जाता है। तो उस दौरान श्री जोसेफ ने लिखना शुरू कर दिया। लिखा भी किस पर? स्लेट की छत पर।
इस किताब के छपने के बाद श्री जोसेफ के काम की खूब शोहरत फैली और उनके पास पुरानी तरह की स्लेटेट छत बनवाने और सुधरवाने का ढेर सारा काम आने लगा। उन्होंने सन् 2005 में छतों का काम करने वाले कारीगरों का एक सामाजिक संगठन भी बनाया। आज यह खूब फल-फूल रहा है।
पांच साल के शोध के बाद सन् 1997 में उन्होंने अपनी किताब ‘द स्लेट रूफ बाइबल’ खुद ही छापी। लिखने की दुनिया में वे नए थे इसलिए उसमें कमियां भी रह गईं थीं। अपने लिखे की मरम्मत करके उस किताब का दूसरा संस्करण सन् 2002 में छापा। तब से अब तक इसकी 20,000 प्रतियां बिक चुकीं हैं और इसका इंटरनेट संस्करण तो और भी चला है। इस किताब के छपने के बाद श्री जोसेफ के काम की खूब शोहरत फैली और उनके पास पुरानी तरह की स्लेट छत बनवाने और सुधरवाने का ढेर सारा काम आने लगा। उन्होंने सन् 2005 में छतों का काम करने वाले कारीगरों का एक सामाजिक संगठन भी बनाया। आज यह खूब फल-फूल रहा है। संगठन एक पत्रिका भी निकालता है पारंपरिक छत बनाने पर। यह परंपरा खत्म होती जा रही थी। जोसेफ के काम से इसे संबल मिला है, स्लेट का उपयोग बढ़ा है। गरीबी में रहने का प्रण और डॉक्टरी की पढ़ाई छोड़ने वाले इस सिरफिरे को आज, 60 साल की उमर में एक सफल व्यक्ति माना जाता है।
अपनी जीवन यात्रा की बात करते हुए जोसेफ डॉक्टरी की पढ़ाई की निर्थकता की बात करते हैं। कहते हैं- ”प्री-मेडिकल पढ़ाई में हमें खान-पान और स्वास्थ्य के संबंध पर कुछ भी नहीं पढ़ाया गया। मैं इतना अनाड़ी था कि मुझे तो पता भी नहीं था कि इन दोनों का कोई संबंध है।“ कॉलेज से पास होने के बाद उन्होंने खुद से इस विषय पर पढ़ाई की और इससे आकर्षित होते चले गए। अपना भोजन उन्होंने खुद उगाना और पकाना शुरु किया। यह काम आज भी रोज होता है। हर रोज उन्हें कुछ नई और उपयोगी बातें समझ आती हैं। वे कहते हैं कि कॉलेज की पढ़ाई में उन्हें यह सब कभी समझ नहीं आया। तरह-तरह की जड़ी बूटियों के प्रयोग से उनके उपयोग भी समझ में आने लगे।
एक और यात्रा रही है जोसेफ की। उसकी शुरूआत हुई थी सन् 1975 में, जब वे डॉक्टरी शिक्षा छोड़ 212 एकड़ के खेत पर एक साल रहे। टूटे-फूटे घर को तो उन्होंने रहने लायक बना लिया था पर यह पहली दफा था कि वे ऐसे घर में रह रहे थे जिसके शौचालय में पाइप से आता पानी नहीं था। वे शौच जाते बाहर बने झोपड़ीनुमा शौचालय में, जिसमें एक गड्ढा भर था। चाहे कोई भी समय हो, मौसम कितना भी खराब हो, बारिश हो, बर्फबारी हो। गड्ढे में उनका रोज मुकाबला होता कई तरह के कीड़ों से। ततैया, मकड़ी, मक्खी और ढेर-सी दुर्गंध से। इसका समाधान उन्होंने निकाला एक ढक्कनयुक्त चीनी मिट्टी के एक कमोड से। इसे खराब मौसम में घर के भीतर रखा जा सकता था। जब कमोड भर जाता तब उसे बाहर ले जाकर खाली कर देते लेकिन घर के भीतर बदबू आती थी। उसका उपाय भी पास ही मिला। खेत पर लकड़ी चीरने से निकला ढेर सारा बुरादा पड़ा था। जोसेफ ने पाया कि लकड़ी के बुरादे को ऊपर डालने से दुर्गंध चली जाती थी। इस तरह से ग्रामवास का उनका पहला साल बीत गया।
उनके अगले घर में भी पानी और बिजली की कोई व्यवस्था नहीं थी। कोई नल नहीं, पाइप नहीं। वहां उन्होंने एक प्लास्टिक के डिब्बे को शौचालय बना दिया और वही लकड़ी के बुरादे का इस्तेमाल करने लगे। लेकिन समय-समय पर डब्बा खाली करने के लिए उस घर के बाहर कोई गड्ढे वाला शौचालय भी नहीं था। गर्मी के मौसम में जोसेफ ने पास की जमीन पर बगीचा लगाया था और तीन और बगीचे लगाने का सोच रहे थे। इसके लिए पत्ते वगैरह सड़ा कर खाद बनाने के लिए उन्होंने एक ढेर लगा रखा था। कोई और समाधान था नहीं तो डब्बे की टट्टी और पेशाब को भी वे इसी ढेर में डालने लगे। वे कहते हैं उन्हें कुछ ठीक से पता नहीं था। केवल सामने जो मुश्किल आई, उसका व्यवहारिक हल खोज रहे थे।
यह बात सन् 1977 की है। तब से आज तक श्री जोसेफ हर साल बगीचा भी लगाते हैं और उसमें जो खाद डालते हैं, वह उनके मल से तैयार होती है।
उनके बगीचे में कई तरह की फसलें लगती हैं, कई तरह का खानपान उनसे बनता है। खाद शब्द का खाद्य से संबंध उन्हें इन 35 सालों के प्रयोगों से बखूबी समझ में आ गया है। वे आज विशेषज्ञ माने जाते हैं खाद के। उस खाद के जिसने कई सदियों से हमारे खेत उपजाऊ रखे हैं, लेकिन जिसे हमारे दूषित शब्दकोश में ‘जैविक खाद’ जैसी अटपटी संज्ञा दी जाती है।
इस जानकारी को जोसेफ ने और बढ़ाना चाहा विश्वविद्यालय में जाकर। उन्हें विज्ञान की बुनियादी समझ तो थी ही। दुनिया भर के वैज्ञानिक शोध को वे कॉलेज की लाइब्रेरी के जरिए पढ़ सकते थे। इस जानकारी का उपयोग उन्होंने अपने प्रयोगों में किया ही था। सन् 1990 के दशक की शुरुआत तक उनका स्लेट छत का कारोबार अच्छा चल चुका था। तब वे ‘द स्लेट रूफ बाइबल’ लिखने की तैयारी में थे।
फिर वैज्ञानिक शोध ठीक हो भी तो उस पर ध्यान कौन देता है? वे बताते हैं कि 1950 और 1980 के दशक में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने टट्टी पेशाब से खाद बनाने पर बहुत बढ़िया शोध करवाया था। पर किताबी ज्ञान का कोई मतलब नहीं होता जब तक उसे व्यवहार में न लाया जाए। इस सब शोध को बारीकी से समझ कर उसे सरल शैली में वे लिखते गए। शुचिता, स्वास्थ्य, शरीर, पानी, जीवाणु और रोगाणु, भूजल, प्रदूषण, जमीन की उर्वरता, हर जटिल से जटिल विषय को सरल अंदाज में समझाते गए। लेकिन ऐसी किताब को कोई प्रकाशक छापना नहीं चाहता था। श्री जोसेफ ने अपनी किताब की 600 प्रतियां खुद ही छापीं 1995 में। उन्हें उम्मीद नहीं कि इतनी प्रतियां भी बिक सकेंगी।
नतीजा था ‘द ह्यूमन्योर हैंडबुक’ जिसके तीन संस्करणों की 60,000 प्रतियां आज तक बिक चुकी हैं। दुनिया की 15 भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है।
दुनिया भर के पुरस्कार, प्रशंसा और प्रेम साथ में। कई सौ पाठकों ने धन्यवाद की चिट्ठियां लिखी हैं। किताब खुद लेखक के जीवन से निकली है इसलिए बोझिल प्रवचन से वह मुक्त है। कई विद्वानों ने कहा है कि भगवद्गीता भी हमारे यहां इतनी लोकप्रिय इसलिए है क्योंकि वह कर्मक्षेत्रा के बीच से निकली बात है, और ऐसी बात का प्रभाव स्थूल पोथियों से ज्यादा होता है। जोसेफ कहते हैं कि लोग पीने योग्य पानी में शौच निपटते हैं, जबकि पानी की कमी के बारे में सब जानते हैं। किताब व्यावहारिक तरीके बताती है सूखे शौचालय बनाने के, जिनसे हमारा मल-मूत्र बजाए पानी को दूषित करने के जमीन को उपजाऊ बनाता है।
अपनी बात को वे कभी किसी सरकारी और अकादमिक तामझाम में नहीं फंसने देते हैं। उनकी कतई ऐसी रुचि नहीं है कि सरकारें उनके लिखे अनुसार अपनी नीति बदलें या उनके विचारों पर रातों-रात क्रांति हो जाए। उनका आग्रह हमेशा व्यावहारिक रहता है। कोई भी एक विचार में सारे समाधान नहीं मिल सकते और उनके बनाए सूखे शौचालय हर किसी के काम के नहीं हैं, ऐसा वे कहते हैं। लेकिन साथ ही यह भी कहते हैं कि पीने के पानी से चलने वाले फ्लश के शौचालय दुनिया के हर हिस्से में काम नहीं कर सकते हैं। इसे चलाने जितना पानी और बिजली हमारे पास है ही नहीं। किन मलमूत्र तो सब जगह मिलता है। और उससे खाद बनाने, उससे खाद्य बनाने के लिए न पानी चाहिए, न बिजली।(Hindi.indiawaterportal.org से साभार)

इसी महीने की चर्चित किताबें


किताबों के शौकीनों को जून के महीने में अगर किसी खास किताब को पढ़ने का मन है तो ये पांच किताबें पढ़ें, जो हाल ही में पब्लिश हुई हैं, हर किताब एक अलग फील्‍ड से है, हां इस महीने रोमेंटिक नॉवेल की कमी सी है मार्केट में…लेकिन सच मानिए इन किताबों का भी एक क्‍लास है, इनकी खास शैली ही इन्‍हे आपको राइटर का फैन होने पर मजबूर कर देती है। तो आइए जानते है उन पांच किताबों के बारे में -
ए गारलैंड ऑफ मैमोरीज : यह किताब प्रसिद्ध लेखक रस्किन बॉण्‍ड ने लिखी है। इस किताब में उन्‍होने दून में बिताए अपने बचपन के दिनों का वर्णन किया है। किताब को रस्किन जी के 79 वें जन्‍मदिन के अवसर पर यानि 19 मई 2013 को प्रदर्शित किया गया था। किताब में दून की सुंदर यादें वाकई में अपना बना देती है।
ट्रोजन हॉर्स : इस किताब को बेहद दिमाग लगाकर, परखकर मार्क रसिनोविच ने लिखा है। पूरी किताब में साइबर वर्ल्‍ड के बारे में बात हुई है। लेखक ने दुनिया को साइबर क्राइम के बारे में किताब के माध्‍यम से आगाह किया है। साइबर दुनिया के विस्‍तार के साथ इसे एक खतरनाक हथियार के रूप में अपनाने की सम्‍भावनाएं भी बढ़ गई है जिसे इस बुक में बखूबी स्‍पष्‍ट कर दिया गया है।
गुड नाइट एंड गुड लक : कुसुमांजली रविन्‍द्रनाथ ने वाकई बेहद बखूबी से संग जेनेरशन की बच्‍चे पालने की जद्दोजहद को समझा है और इस किताब में लिखा है। 299 रूझ की इस किताब में एक मां और उसके बच्‍चे की कहानी है। दिल को छू लेने वाली इस किताब में आधुनिक पीढी द्वारा बच्‍चों को पालने के पहले साल की मिथ और सच के बारे में बताया गया है।
  हॉफ ए रूपिज स्‍टोरी : इस किताब के लेखक गुलजार है और शायद इतना बता देना ही काफी होगा। मई के आखिर सप्‍ताह में पब्लिश हुई इस किताब की मार्केट में धूम है। इस बुक में गुलजार ने एक सुसाइड बॉम्‍बर की कहानी सामने रखी है जो प्रधान मिनिस्‍टर को उडाने की साजिश करता है। किताब का अनुवाद सुन्‍जॉय शेखर ने किया है।
द टेस्‍ट ऑफ माई लाइफ : युवराज सिंह ने अपनी जिन्‍दगी के सबसे संघर्ष भरे समय को इस किताब में लिखा है। किताब में कैंसर के दौर के बाद उभरने और फिर से सामान्‍य जीवन होने की अवधि को बताया गया है। प्रेरणा के लिए इसे पढ़ना वाकई में अच्‍छा रहेगा, खाकर उन लोगों के लिए जो इस दौर से या उनके परिवार को कोई इस दौर से गुजर रहा है।

बच्चों के लिए बड़ों की किताबें



विजय मिश्र

समय-समय पर बहुत से प्रसिद्ध और महान लोगों ने बच्चों के लिए किताबें लिखी हैं, जो कि न सिर्फ बहुत ही ज्यादा चर्चित हुईं, बल्कि लोकप्रिय भी रहीं। इसी क्रम में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा उनके बच्चों के लिए लिखी किताब प्रकाशित हुई। इस किताब को बच्चों ने हाथों-हाथ लिया। इसी तरह से अनेक अन्य प्रसिद्ध लोगों ने भी बच्चों को अपने अनुभव और जिंदगी को कैसे जीया जाए, ये बातें बताने के लिए अनेक किताबें, लैटर और कविताएं लिखी हैं।
दोस्तो, अगर आप कोई नयी चीज सीखते हैं तो इसमें सबसे बड़ा हाथ बड़ों के गाइडेंस का ही होता है। ये बात अलग है कि वो कभी डांट के साथ मिलता है तो कभी पुचकार के साथ। देश-दुनिया के अनेक महान और प्रसिद्ध लोग बड़े होने के बावजूद अपने बचपन से जुड़ी मीठी यादें भुला नहीं पाते। अपने बचपन को याद करने और आगे आने वाली पीढ़ी को अपने जिंदगी भर मिले खट्टे-मीठे अनुभवों से वाकिफ करवाने के लिए अनुभवी लोग जिस चीज का सबसे ज्यादा सहारा लेते हैं वो हैं किताबें, लैटर और कविताएं। आपको ये जानकर हैरानी होगी कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू अपने अति व्यस्त कार्यक्रम से थोड़ी सी फुर्सत पाते थे तो अपनी लाडली बेटी इंदिरा को पत्र लिखा करते थे। पंडित नेहरू के ये पत्र ही थे, जिन्होंने इंदिरा को इतना सशक्त बना दिया कि बड़ी से बड़ी दिक्कतों का सामना करने में उनको तनिक भी मुश्किल नहीं आयी।
इसी तरह से रवीन्द्र नाथ ठाकुर की किताबें भी पढ़ने में आप सबको बहुत ही मजा आएगा और जोश भी। रवीन्द्र नाथ की किताबें बच्चों का मनोरंजन करने के साथ ही उनका मार्गदर्शन भी करती हैं। इनकी सबसे प्रसिद्ध कहानी ‘काबुलीवाला’ है, जिसमें कि एक काबुलीवाला ‘रहमत’ नाम का चरित्र है और दूसरी छोटी बच्ची ‘मनी’ है। इस कहानी को पढ़ते-पढ़ते आप अपनी भावुकता को रोक नहीं पाएंगे। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे अब्दुल कलाम बच्चों से विशेष लगाव रखते हैं। कलाम इस बात के लिए हमेशा तैयार रहते हैं कि बच्चे उनसे सवाल पूछें और वो उनको जवाब देकर संतुष्ट कर सकें। यहां तक कि जब वो राष्ट्रपति पद पर थे तो भी जगह-जगह जाकर बच्चों से मिला करते थे। आज भी उनसे सवाल पूछने और बात करने के लिए बच्चों के पत्रों का ढेर उनके घर पर लगा रहता है।
एक पत्र के जरिए ही सोनीपत के एक बच्चे ने उनसे सवाल किया था कि आप इतना व्यस्त रहते हुए भी हम लोगों के लिए टाइम कैसे निकाल लेते हैं तो इसके जवाब में पूर्व राष्ट्रपति कलाम ने उत्तर लिखा, ‘मेरे अंदर हमेशा कुछ नया जानने की इच्छा रहती है, जिससे मैं अपने काम को ठीक तरीके से कर पाता हूं और मैं कोशिश करता हूं कि अगर कोई और भी खासकर वो जो देश का भविष्य हैं, किसी प्रश्न का सही उत्तर मुझसे पा सकें तो शायद मैं इस देश को अपना कुछ योगदान दे सकूं।’ ऐसी कलाम न जाने कितनी चिठ्ठियां आप लोगों के लिए लिखते रहते हैं, कभी जवाब के रूप में तो कभी सार्वजनिक पत्र के रूप में।
प्रसिद्ध गीतकार गुलजार ने भी बच्चों के लिए बोस्की के कप्तान चाचा नाम से एक किताब लिखी है। गुलजार अपनी बेटी मेघना को प्यार से बोस्की कहते हैं। इस किताब के जरिए गुलजार बच्चों को एक ऐसे किरदार ‘कप्तान चाचा’ से रू-ब-रू करवाते हैं, जो कि ऊपर से जितना सख्त तो अंदर से उतना ही नम्र है। कार्टून देखने में मजा तो आता है, लेकिन कभी टाइम मिले तो इन किताबों को अपनी आस-पड़ोस की लाइब्रेरी में तलाश कर जरूर पढ़ना। यकीनन कार्टून देखने से ज्यादा मजा इन किताबों व कहानियों को पढ़ने में आएगा।
बुक्स  फॉर यू
कुत्ते की कहानी : प्रेमचंद
अब्बू खां की बकरी : डॉ. जाकिर हुसैन (पूर्व राष्ट्रपति)
बजरंगी-नौरंगी : अमृतलाल नागर
पहाड़ चढ़े गजनंदनलाल : विष्णु प्रभाकर
बोस्की के कप्तान चाचा : गुलजार
बिना हाड़-मांस के आदमी : मोहन राकेश
वापसी : भीष्म साहनी
बड़ा कौन है : हजारी प्रसाद द्विवेदी
कमलेश्वर के बाल नाटक : कमलेश्वर
कोहकाफ का बंदी : लेव तोलस्तोय
लाखी : अंतोन चेखव
बहादुर टॉम : मार्क ट्वेन
कब्बू रानी : विजयदान देथा

69 सालों के बाद लाइब्रेरी में वापस लौटी एक किताब


एस्टोनिया की राजधानी टाल्लिन की सेट्रल लाइब्रेरी में एक पाठक ने 69 सालों के बाद एक किताब वापस लौटाई। लाइब्रेरी ने कभी उम्मीद भी नहीं कि थी कि कोई पाठक 69 साल पहले ली गई किताब वापस लौटाने आएगा। फ्रांस के प्रसिद्ध लेखक एमिली जोला के समकक्ष माने जाने वाले एस्टोनिया के प्रसिद्ध लेखक एडवर्ड विल्डे की 1896 मे प्रकाशित हुई किताब ‘कुलमाले माल्ले’ को वह पाठक सात मार्च 1944 को लाइब्रेरी से लिया था।

.... और नाजियों ने फूंक दी बीस हजार किताबें



           जर्मनी में नाजियों ने 10 मई 1933 को उन लेखकों की किताबें जलाईं थीं, जिन्हें वे नापसंद करते थे. और उनकी मदद की थी छात्रों ने. जो किताबें जला रहे थे, कुछ साल बाद वे इंसानों को जला रहे थे. 80 साल पहले की वह शाम. बर्लिन में ओपेरा स्क्वायर पर 70,000 लोगों की भीड़ जमा थी. छात्र वहां ट्रकों में भर कर 20,000 से ज्यादा किताबें लाए थे. ये किताबें जर्मनी के प्रसिद्ध लेखकों हाइनरिष मान, एरिष मारिया रिमार्क या योआखिम रिंगेलनात्स की थी. हिटलर की नाजी पार्टी के छात्र नेता हर्बर्ट गुटयार ने नफरत से भरा भाषण दिया, "हमने अपनी कार्रवाई जर्मनहीन भावना के खिलाफ शुरू की है. मैं सारी जर्मनहीन चीजें आग को भेंट करता हूं." 23 वर्षीय गुटयार के सामने आग जल रही थी, जिसमें हजारों किताबें डाल दी गईं. वह पहला था जिसने किताबें आग में डालनी शुरू की.
           कई शहरों में इस तरह के दृश्य 10 मई 1933 को जर्मनी के दूसरे शहरों में भी दिखाई दिए. सभी जर्मन शहरों में जहां विश्वविद्यालय थे, छात्रों ने उन लेखकों की किताबें जलाईं जो उनके विचारों के अनुरूप नहीं थी. इस दिन के हफ्तों पहले से वे नापसंद लेखकों और पत्रकारों की किताबें सरकारी और दूसरी लाइब्रेरियों से ले जा रहे थे. उनके विचार में इन किताबों में जर्मन भावना नहीं थी या उनके लेखक नाजियों के दुश्मन थे. उनमें खासकर समाजवादी, शांतिवादी और यहूदी लेखक शामिल थे. नाजी छात्रों को किसी विरोध का डर नहीं था. लाइब्रेरी के कर्मचारी और बहुत से प्रोफेसर इस खुली चोरी को बर्दाश्त कर रहे थे, भले ही उन्होंने उसका समर्थन न किया हो.
जर्मन छात्रों ने किताबें जलाईं
जनवरी 1933 में नाजियों के सत्ता में आने के बाद आडोल्फ हिटलर को तानाशाही अधिकार दे दिए गए थे. अब जर्मनों के विचारों के लिए लड़ाई शुरू हुई. जर्मन छात्र संघ ने अप्रैल 1933 में नारा दिया, "राज्य पर कब्जा हुआ, कॉलेजों पर अभी नहीं. वैचारिक एसए आया, झंडा बुलंद करो." छात्रों के प्रतिनिधियों के इस संगठन ने उसके बाद जर्मनहीन भावना के खिलाफ अभियान छेड़ा, जिसकी समाप्ति 10 मई को किताबों को जलाने के रूप में हुई. इस अभियान में नाजी पार्टी के नेता शामिल नहीं थे. छात्रों ने खुद इसकी योजना बनाई और उसे अंजाम दिया.
जलती देखी अपनी किताब
बर्लिन के केंद्र में ओपेरा स्क्वायर पर किताबों को जलाना छात्र संघ के अभियान का केंद्रीय आयोजन था. इसका सीधा प्रसारण रेडियो पर किया गया और उसकी खबर इस तरह जर्मन ड्रॉइंगरूमों तक पहुंची. बहुत से छात्र नाजी संगठन एसए और एसएस के वर्दियों में आए. अपनी बर्बरता के कारण ये संगठन बाद में काफी कुख्यात हुए. नियमित अंतराल पर नारा लगाया जाता और चुनिंदा छात्र कुछ कुछ समय बाद किताबों को आग की बलि चढ़ाते. दूसरा नारा था, "नैतिक पतन और गिरावट के खिलाफ. परिवार में अनुशासन और नैतिकता के लिए. मैं हाइनरिष मान, ऐर्न्स्ट ग्लेजर और एरिष केस्टनर की किताबें आग की भेंट करता हूं." और यही एरिष केस्टनर, एमिल और कुछ जासूस जैसी बच्चों की किताबों के अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लेखक हैं, उस दिन बर्लिन में ओपेरा स्क्वायर पर मौजूद थे और दर्दनाक घटना के गवाह बने.
बाद में उन्होंने लिखा, "मैं यूनिवर्सिटी के सामने खड़ा था, एसए की यूनिफॉर्म पहने छात्रों के बीच, देखा कि हमारी किताबों को आग में फेंका जा रहा है." उन्होंने इस घटना पर टिप्पणी की, "यह घृणित था." किताबें जलाने के समय यूनिवर्सिटी के बहुत से प्रोफेसर भी मौजूद थे.
विदेशों में नाराजगी
किताबें जलती रहीं. मध्य रात्रि में वहां पर योसेफ गोएबेल्स पहुंचा, नाजी सरकार का प्रोपेगैंडा मंत्री और जर्मन विद्या का पीएचडी. उसने वहां इकट्ठी भीड़ और रेडियो के जरिए घर में बैठे लोगों को संबोधित किया, "जर्मनी के पुरुषों और स्त्रियों, अतिरंजित यहूदी बौद्धिकता का काल बीत चुका. और जर्मन क्रांति की सफलता ने जर्मन रास्ते को साफ कर दिया है." गोएबेल्स ने इस बात का अहसास नहीं होने दिया कि वह छात्रों द्वारा खुद आयोजित मुहिम पर कितना संदेह करता था. उसे और हिटलर को नाजी आंदोलन पर नियंत्रण खोने का डर सता रहा था.
लेकिन सिर्फ यही कारण नहीं था कि हिटलर ने इसके बाद अपने समर्थनों को शांत करने की कोशिश की. विदेशों में किताबों को जलाने की भारी निंदा हुई थी. अमेरिकी पत्रिका न्यूजवीक ने इसे "किताबों का होलोकॉस्ट"  कहा. जिन लेखकों की किताबों जलाईं गईं उनमें शामिल कवि हाइनरिष हाइने ने 1821 में लिखा था, "जहां लोग किताबें जलाते हैं, अंत मे वहां इंसानों को भी जलाते हैं." हाइने के शब्द भयानक तरीके से भविष्वाणी से साबित हुए. कुछ ही साल बाद जर्मनी में यहूदियों का नरसंहार शुरू हुआ, जिसे आज होलोकॉस्ट के रूप में जाना जाता है.
जर्मनी में 1933 के बाद बुद्धिजीवियों और कलाकारों का पलायन शुरू हो गया. विदेशों में कवियों और विचारकों का देश कहे जाने वाले जर्मनी ने अपनी बड़ी प्रतिभाओं को देश छोड़कर भागने को मजबूर कर दिया. लेखक थोमास मान, एरिष मारिया रिमार्क और लियोन फॉएष्टवांगर और उनके जैसे बहुत से बड़े बुद्धिजीवी एक के बाद एक नाजी जर्मनी छोड़कर चले गए. उनमें से कुछ नाजियों के खिलाफ सक्रिय रहे. नोबेल पुरस्कार जीतने वाले थोमास मान ने दूसरे विश्व युद्ध में बीबीसी के जरिए जर्मन जनता को संबोधित किया, "यह एक चेतावनी वाली आवाज है, आपको चेतावनी देना एकमात्र सेवा है जो एक जर्मन आज आपके लिए कर सकता है."
जो देश छोड़कर नहीं गया, उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जैसे एरिष कैस्टनर. 1934 तक 3000 से ज्यादा किताबों को सेंसर कर दिया गया था. जर्मनों के बहुमत ने, जिनमें बहुत से बुद्धिजीवी और प्रोफेसर भी शामिल थे, किताबों को जलाने और सेंसरशिप पर चुप्पी साधे रखी, उसका विरोध नहीं किया. कुछ ने तो उसका स्वागत भी किया. मई 1933 का एक और कड़वा सबक यह है कि सबसे ज्यादा छात्र ही जर्मन वैचारिक दुनिया को चुप कराने का कारण बने। ( फॉन लुप्के/एमजे/ आभा मोंढे)

किताबें छोड़ टैबलेट बने युवाओं के साथी


      जूही पांडेय

       एक फ्रांसिसी दार्शनिक ने म्रत्यु शैया पर कहा था, ‘जो कुछ हम जानते हैं वह बहुत थोड़ा है, जो नहीं जानते वह बहुत अधिक है।‘ किताबों की दुनिया हमारे लिए उस अजाने संसार के दरवाजे खोलती है, जिसे हम एक जीवन में प्राप्त नहीं कर सकते। प्रत्येक विद्धान, मनीषी यही कहता है कि मैं तो एक विद्यार्थी मात्र हूं। किताबें ही यह विनम्रता का बोध पैदा करती हैं और मनुष्य को महामानव बनाती हैं।
      हिंदी के प्रसिद्ध कहानीकार निर्मल वर्मा ने कुछ ऐसे बयां किया था, किताब बिना कुछ बोले, चुपचाप आसपास की जिंदगी से हमारा रिश्ता बदल देती है। किताब पढ़ने के बाद मैं वैसा नहीं रहता हूं, जैसा कि किताब पढ़ने से पहले था और न ही दुनिया पहले जैसी रह जाती है, कुछ कहीं न कहीं बदल जाता है।
         इंग्लैंड की प्रसिद्ध लेखिका वर्जीनिया वुल्फ ने एक उपन्यास में लिखा है, मरने पर जब पुस्तक प्रेमी सेंट पीटर के पास गये, तो उन्होंने पूछा कि इन लोगों ने जीवन में क्या-क्या काम किये हैं? इन्हें स्वर्ग में भेजें या नरक में? उन्होंने यह भी पूछा कि ये लोग कौन हैं, जो किताबों का गट्ठर उठाये हुए चले आ रहे हैं? जब सेंट पीटर को यह बताया गया कि ये किताबों के भक्त हैं, तो उन्होंने कहा- इनसे कुछ मत पूछो- इन्होंने वो पा लिया है, जो स्वर्ग इन्हें दे सकता था।
         बीत रहे हैं दिन सतरंगी केवल ख्वाबों में,
         चलो मुश्किलें का हल ढूंढे खुली किताबों में।
      कुछ ऐसी ही होती है किताबें जो कभी ज्ञान बढ़ाती है तो कभी सच्ची मार्गदर्शक बनकर मुश्किलों का हल ढूंढती है। पढ़ना किसे अच्छा नहीं लगता। बचपन में स्कूल से आरंभ हुई पढाई जीवन के अंत तक चलती है। व्यस्त होती जिंदगी में लोग खास तौर पर युवा, किताबों के बजाय कंप्यूटर और टेबलेट को साथी मानने लगे हैं। जो ज्ञान उन्हें नई किताब की खुशबू से मिलती थी उसे अब कंप्यूटर के रंग बिरंगी अक्षरों में ढूंढते हैं।
      पुस्तकें न सिर्फ ज्ञान देती हैं। बल्कि कला, संस्कृति और लोक जीवन की सभ्यताओं से भी अवगत कराती हैं। ऐसे में पुस्तकों के प्रति लोगों में रुचि उत्पन्न करने के लिए ही हर वर्ष विश्व पुस्तक दिवस मनाया जाता है। यूनेस्को ने 1995 में हर वर्ष विश्व पुस्तक दिवस मनाने का निर्णय लिया था। धीरे-धीरे यह हर देश में व्यापक होता चला गया। आज के समय में इस दिवस की अहमियत और बढ़ गई है। इस दिन को कॉपीराइट डे के रूप में भी मनाया जाता है। कुल मिलाकर देखा जाये तो अगर लोग सोचते हैं कि आने वाले समय में किताबों का कोई मोल नहीं रह जायेगा, तो वो गलत हैं, क्‍योंकि कंप्‍यूटर, टैबलेट और लैपटॉप ज्ञान के सागर को संजो कर तो रख सकते हैं, लेकिन मनुष्‍य के दिमाग से जितने अच्‍छे तार किताबें जोड़ सकती हैं, ये वस्‍तुएं नहीं जोड़ सकतीं।

मोबाइल में किताबें


ये तो सुना-देखा है कि देश के कई राज्यों में 'मोबाइल लाइब्रेरी वैन' देश-विदेश के मशहूर लेखकों और कवियों की किताबों का खजाना उपलब्ध करा रही हैं लेकिन अब इलेक्ट्रॉनिक माध्यम पर पढ़ने वालों की संख्या बढ़ने के साथ ही टैबलेट कम्‍प्यूटर, मांग पर छपाई तकनीक और ई-बुक्स काफी प्रचलित होने लगी हैं। पुस्तक मेलों में ई-बुक प्रकाशक, डेवलपर और सामग्री प्रदाता अपनी ई-बुक्स का प्रदर्शन करने लगे हैं। अंग्रेजी में पहले से ही उपलब्ध कुछ प्रकाशन अब मातृभाषाओं में भी उपलब्ध हैं और वे डिजीटल मंच पर भी पहुंच बना रहे हैं। मोबाइल और टैबलेट के लिए ई-बुक और ई-मैग्‍जीन एप्लीकेशन, रॉकस्टैंड अपने पाठकों के लिए ई-बुक संग्रह पेश कर रहे हैं। यह व्यवस्था उन पाठकों को भी आकर्षित कर रही है, जो विभिन्न भाषाओं जैसे हिंदी, गुजराती और मराठी में पाठ्य सामग्री चाहते हैं। जल्द ही 18 भाषाओं में क्षेत्रीय सामग्री पेश करने की तैयारी है। यह एप्लीकेशन एंड्रॉयड फोन पर मुफ्त में डाउनलोड किया जा सकता है। रॉक एएसएपी के डिजीटल प्रमुख ऋषि एम झा कहते हैं, हमारी एप्लीकेशन से डाउनलोड की गई कोई किताब आपके पास हमेशा रहेगी। इंटरनेट की उपलब्धता न होने पर भी आप इस डाउनलोड किताब को पढ़ सकते हैं। इस एप्लीकेशन में नाइट रीडिंग मोड, विभिन्न फोंट आकार जैसे कई विशेष फीचर भी हैं। अगर आप पढ़ते हुए थक जाते हैं तो यह एप्लीकेशन आपके लिए इसे पढ़ता भी है। कंपनी ने प्रमुख प्रकाशन समूहों के साथ हाल ही में गठजोड़ भी किया है। इस गठजोड़ के साथ ही रॉकस्टैंड ने इन प्रकाशकों की एक हजार से भी ज्यादा किताबें शामिल की हैं। ये किताबें हिंदी, अंग्रेजी और कई क्षेत्रीय भाषाओं में हैं। इनमें से कुछ प्रसिद्ध किताबें डायमंड कॉमिक्स के चाचा चौधरी, बिल्लू और पिंकी, राजकमल प्रकाशन का उपन्यास तामस, भगतसिंह को फांसी, चित्रलेखा आदि शामिल हैं। कंपनी का कहना है कि वह सरकार से आकाश टैबलेट में उनका एप्लीकेशन लगाने के लिए बात कर रही है।

बम संकर टन गनेस


बम संकर टन गनेस : पिकुलियर है जो है सो कि उ कहते हैं न कि नय आम त अमचूरे सही, ओइसेहीं नय किताब त टाइटिले सही हो गया मामला । मार हल्ला गुदाल कि बम संकर टन गनेस काहे है टाइटिल, कोई कह रहा है सूटेबुल नहीं है, कोई इसी को गर्दा बताए हुए है । मने किताब पढ़ने के पहिले टाइटिले पर माथा फोड़ौव्वल । बाकी टइटिलवे पर चर्चा करना है त स्टाइलिस्टिक्स माने शैली विज्ञान के हिसाब देखिए न भाई । ‘बम संकर टन गनेस’ का कोई दुसरा टाइटिल भी हो सकता था जैसे राकेस सिंघ कहिन ‘तरियानी छपरा’ । अउर भी नाम सब रहा होगा लेखक के दिमाग में लेकिन ‘बम संकर टन गनेस’ जैसा गंजेड़ी नारा जेतना सॉलिड ढंग से तरियानी छपरा का हुलिया बताता है, बता सकेगा कोई ओर ? माने कि नाम पहढ़े औ समझ गए कि छपरिया माल होगा भरपूर । इ जो रजिस्टर है माइकल हैलिडे के हिसाब से, उ खाली संस्किरतिए नहीं बता रहा है, तरियानी छपरा का एटीट्यूड भी बता रहा है । विकास उकास बोल के जो मिटिंग सिटिंग होते रहता है उसका भी पेट का बात बकार कर दे रहा है । दुनिया चाहे जिधर जाए, तरियानी बम संकर टन गनेस है, मस्त है एकदम जो है सो कि । एही बतवा पर तो राकेस सिंघ गर्दा उड़ा दिए ।
हमारे बिहार के साथ क्या हुआ कि रेणु जी ठहरे कवि दृष्टि वाले लेखक, अलबत्त संवेदनसील प्रानी । बहुत ममता के साथ लिखे पुरैनिया का कथा । इधर रामवृक्ष बेनीपुरी हुए बेनीपुर में, उ भी बहुत प्रेम से रेखाचित्र खीचे । अच्छा, गोदान का सिमरी बेलारी भी नानिहरे-ददिहर है हिन्दी वाला सब के लिए । बस क्या हुआ कि गांव का नाम आए बस ले कन्ना रोहट मचा दे सब एक लाइन से । ग्राम्य जीवन पर दू चार गो कविता उविता भी है एकदम सेंटी टाइप । बस जैसेहीं गांव का नाम आया कि सेंटी हुए जा रहे हैं, नास्टैल्जिया में तैर रहे हैं । अच्छा, रेणु को गीत नाद खूब आता था, ढेर बारहमासा, चैता, समदाउन जानते थे तो लिखे । रेणु जैसा लिख दिए, उ सोइटर का डिजाइन हो गया । कॉपी कर कर के ढेंगरा दिया उसको सब । उसके बाद जो तनी मनी लिखाया होगा कुछ कुछ, फिर तो पच्छिमे का हवा चल गया । उ तो कहिए दलित साहित्य आया कि गांव जवार पर बात होने लगा नहीं तो लग रहा था खाली दिल्लिए-बंबई-कलकत्ता में लोग रह रहा है, बाकी जगह मुरदघट्टी है । गांव पर संस्मरण टाइप भी लिखाया है, ए गो तो एम एन श्रीनिवास लिखे यादों से रचा गांव, ए गो और बिसनाथ तिरपाठी लिखे नंगातलाई का गांव । बम संकर टन गनेस का टाइटल पढ़ के किताब उलटिएगा ना त राकेस सिंघ के परिचय के बगल में परफेसर साहीद अमीन बताए हैं इ सब किताब के बारे में ।

अच्छा धरफराइए मत, अस्थीर से गप कीजिए, राकेस सिंघ बहुत धरफड़ा दिए हैं पहलेही ।

हां तो क्या हुआ कि जैसेहीं किताब का नाम पढ़े, कहे – अरे साला, इ तो सॉलिड माल बुझा रहा है । सेंटी, कवि टाइप नहीं न लगा इसीलिए । गांव पर लिखता है कोई तो करेजा काटने लगता है न, मारे जीवन, स्मृति, शैशव, स्नेह । अ राकेस सिंघ क्या किए हैं कि एकदम नॉर्मल हैं, कंट्रोल किए हुए हैं । थोड़ा लजाता भी है आदमी । जैसे क्या देखिएगा हमारे तरफ कि लाइन कटेगा तो रात भर बैठ के पत्नी को पंखा होकेंगे, दू बजे उठ के पोल से लग्घी लगा के पंखा चलवाएंगे लेकिन आइ लव यू नहीं बोलेंगे । समझने वाला समझिए न जाता है हो । अब यहां हे तरियानी, मातृभूमि टाइप गप नहीं है उतना लेकिन तीन पेज में सुकरिया किए है सब को, किकलू बेटू से लेके डिट्टु, सिंटू, खदन भैया सब्भे को । भुटकुनो का नाम छपाइस है । जो कहिए, बहुत प्रेम से किताब लिखिन राकेस सिंघ । यहां तो इ हाल है कि घर मीठापुर में रहे कि दानापुर-फतुहा में, बोलता है सब पटना । अइसे में तरियानी छपरा का इतिहास-पुरान बजाप्ते सिवहर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपूर के साथ लिखे हैं पूरा, इस बात पर बोलिए एक बार जोर से बम संकर टन गनेस ।

सबसे पहले खोलिएगा न तो महमूद फ़ारुक़ी ए गो पेश-ए-लफ्ज़ लिखे हैं । नहीं समझे, वही जो दास्तानगोई करते हैं, 1857 पर एगो किताब लिखे हैं, पढ़िएगा कभी । गजब स्टैंडर उर्दू में लिखे हैं पेस लफ्ज, वर्ड उर्ड नहीं बुझाएगा कुछ कुछ लेकिन समझ जाइएगा क्या कह रहे हैं । उसके बाद जो है सो कि राकेस सिंघ बैटिंग किए है जम के, स्लॉग ओभर में खूब छक्का-चौका उड़ाए हैं ।

लेकिन वही न है कि सोन त कान नय, कान त सोन नय । भरपूर कच्चा माल सपलाई किया तरियानी छपरा लेकिन उसको ठीक से समेटने नहीं सके । असल हुआ क्या कि गिरिजानंदन सिंह का खिस्सा तो बज्जिका में जैसे था डिट्टो लिख दिए राकेस लेकिन जब अपने गप करने लगे तो बुझा गया कि ओरिजनल छपरिया नहीं, माइग्रेंट छपरिया बोल रहा है । पूरा मैं-तुम टाइप सुद्ध हिंदी । रेणु के यहां याद पारिए रेणु कै बार बोले हैं, पूरा मैला आंचल का कथा कहने वाला सूत्रधार मेरीगंज का ही आदमी है, लेखक तेखक नहीं है । लेकिन बम संकर में मामला जरा दूसरा हो गया है ।

असल में कोनो विधा नहीं है इसमें । क्या है कि रियल लाइफ में जैसे होता है उसको डिट्टो लिख दिए हैं राकेस । जैसे मान लीजिए आप उतरे तरियानी छपरा तो राकेस आपको रिसीभ करने आए । फिर आप दू चार दिन रहिएगा तो तरियानी घुमाएंगे पूरा । यहां वही बात है, आंख से देखा के नहीं, किताब में पढ़ा के घुमा रहे हैं राकेस । सिनेमा का टेकनीक है, कैमरा घूम रहा है, नैरेटर बता रहा है- इ देखिए अनुपिया, इ है दूरा, इ है बगीचा, इधर इस्कूल, उधर तरियानी चौक, अवधेश सिंह का बजार । मतलब आप पाहुन के तरह चल रहे हैं साथ में, राकेस आपको घुमा रहे हैं । लेकिन इस घुमाने में अंतर क्या है कि डिट्टु, सिंटू नहीं न घुमा रहा है । राजू भैया के साथ घुमिएगा तो उ बेचारे अपने दिल्ली से आते हैं कभी कभी, राजू घिरस हैं और आप सोचिएगा कि एक्के एक खिस्सा गप बताएं तो नहीं न चलेगा । उ अपने दर्शक हैं, घरबइया को जेतना पता रहता है, कर कुटुम कहां से जानेगा उतना । अब जो बाहर चल गया उ कुटुमे न हुआ । अच्छा राजू घिरस बच्चा में रहे जेतना दिन, उसके बाद बाहरे बाहर । पुरनियां में पढ़े, फिर मुजफ्फरपूर, उसके बाद दिल्ली । होस्टलिया बुतरु पंदरह दिन के छुट्टी में आता है तो अइसेहीं दुलार बनल रहता है । उसको क्या मालूम भीतरे भीतर केतना पालटिक्स होता है । ओतना छौ पांच नहीं न है, जो है सब सीधा सपट्टा बता दिए । अब आप चाहिएगा कि चौकड़ी जमा के रस ले लेके तरियानी का खिस्सा सुनें तो राजू घिरस को कहिए उपनियास लिखेंगे । नहीं तो रहते अस्थीर से महीना दू महीना तब देखते, एतना हड़बड़ी में राजू घिरस घुमा दिए सब जगह उ कम है क्या । फिर खनखन कीजिएगा कि बिसनाथ जो बिस्कोहर का खिस्सा सुनाए थे वैसा… बिसनाथ बिस्कोहर नहीं न घुमाए हो, लख्खा बुआ, बल्दी बनिया, जनदुलारी इन्हीं लोग का खिस्सा कहे । आराम से रुक रुक के, पूरा चरित्र चित्रण के साथ, इतिहास बताते हुए चले इसलिए आपको याद रह गया । बिस्कोहर रहना हुआ न बहुत दिन इसीलिए । तरियानी बहुत दिन बाद आए हैं न इसलिए पहले न्यूज ले लीजिएगा तब न विस्तार से कथा सुनिएगा । केतना आदमी मरा-हेराया, बियाह-गौना, सराध-मुंडन हुआ, मकान-दोकान बना यही सब न बताता है पहले आदमी । इ जानने के बाद बीच में राजू घिरस अपने टाइम के तरियानी को भी याद करते चलते हैं और अभी के तरियानी से तुलना भी । आप पहड़िएगा तो लगेगा एकदम ऑडीनरी बात बोल रहे हैं लेकिन ओतना ऑडीनरी है नहीं, डेप्थ है बहुत । खाली याद करना और घूमना-देखना नहीं हैं । देगची में भात सिझा कि नहीं इसके लिए खाली एक दाना चावल निकाल के, दबा के देखा जाता है । उसी से बुझा जाता है । इसी तरह तरियानी सिर्फ चावल का एक दाना है जो देस का दूसरा तरियानी जैसा जो गांव सब है, उसका भी कथा है ।

जरा सिरियसली गप करते हैं, तब तक एक राउंड खैनी-सुरती-बीड़ी-तिरंगा-शिखर हो जाए । उसके बाद एकां एकी एनेलायीसिस  होगा ।

गांव-घर, जात-पात, समय-समाज

देखिए, सबसे पहला सवाल तो यही उठता है कि बम संकर टन गनेस को क्यों पढ़ना चाहिए ? शीर्षक जितना प्रभावशाली है, अध्यायों के नाम जितने रोचक हैं, कंटेंट इतना रचनात्मक नहीं है । यह सवाल भाषा का या रूपवादी होने या सौंदर्यशास्त्र का नहीं है, सवाल है अभिव्यक्ति का । एक औसत कृति और किसी नायाब रचना में फर्क सिर्फ संतुलित होने और मुकम्मल होने का होता है । अखबारी लेखन, ब्लॉग में शॉर्टकट से काम चलाया जा सकता है लेकिन जब एक समाज की कथा कहने बैठेंगे तो मेहनत करनी होगी । बम संकर किसी उपन्यास के लिए लिए गए उस नोट्स की तरह है जिसमें एक महान कृति के बीज तो हैं लेकिन उसे गढ़ा नहीं गया । शायद लिखते वक्त राकेश ने ये सब सोचा नहीं होगा । ये एक अनायास शुरु हुई रचना है, नॉस्टैल्जिया से निकल कर यथार्थ से दो दो हाथ करती हुई  । पहले प्रूफ जैसी, जिसे कसे हुए संपादन की जरूरत है, वाक्यों की चूलें कसने की जरूरत है, वर्तनी की गलतियां सुधारना बाकी है और भी बहुत कुछ ।

हालांकि अपरिष्कृत होना भी एक तरह से अच्छा ही हुआ । एक गांव की कथा में ही यथार्थ के कई रूप सामने आ गए हैं । इसमें जातियों के बदलते समीकरण हैं, धर्म है, तकनीक है, हिंसा है, माओवाद है । इसे समाजशास्त्रीय अध्ययन कहें, एथनोग्राफी कहें, जीवित इतिहास कहें, सारे विकल्प खुले हैं । यह बड़ी बात है कि साहित्यिकता का दावा न करते हुए भी इस किताब ने नीरस समाजशास्त्रीय ब्यौरों के उलट स्मृति आख्यान की शैली में सामाजिक बदलावों की गहराई से छानबीन की है ।

असल में बम संकर को समझना एक संस्कृति को समझना है । जिसे वाचिक परंपरा कहते हैं वह इतिहास को इसी तरह बरतती है । व्यक्तियों, परिवारों, समूहों के किसी एक की कथा कहते कहते अचानक किसी दूसरे की कथा आ जाती है । हर पात्र कथा में अपने इतिहास के साथ प्रवेश करता है । भारतीय आख्यान इसी शैली में लिखे गए । भारतीय लोकमानस में यही शैली प्रचलित है । यह संवाद का तरीका है । जैसे परभरनियों की बात हो रही है और मंजूआ का जिक्र आया तो अब आपको मंजूआ के शादी-गौने का पूर वृतांत सुनना होगा फिर कथा आगे बढ़ेगी । आप राह चल रहे है, नवल डॉक्टर का घर दिखा तो नवल डॉक्टर के मारे जाने का इतिहास भी आपको बताया जाएगा । इसलिए पूरी किताब में सैकड़ों लोग हैं, सैकड़ों लोगों का हाल चाल लिखा है, उनके साथ हुई घटनाएं-दुर्घटनाएं लिखी हैं ।

राकेश का बोलना भी एक खास रजिस्टर के अंतर्गत आता है । बिहार के गांवों, कस्बों में पढ़े लिखे या बाहर रह रहे लोगों का एक खास तरीका है बातचीत का । काफी कुछ यहां आया है लेकिन हिन्दी के टिपिकल लेखन के प्रभाव से राकेश खुद को मुक्त नहीं कर सके हैं इसलिए किंतु, परंतु, यद्यपि, इत्यादि कितनी आसानी से आपके कहे का गुड़ होबर कर सकते हैं, इस ओर उन्होंने ध्यान नहीं दिया है ।

फिर भी यह एक नया प्रयोग है कहने की शैली, ब्यौरे, घटनाएं सबके स्तर पर । यूं कहिए कि साहित्यिक लेखन के अंतर्गत जिस तरह लिखा जाता है उसके उलट यह वाचिक को लिपिबद्ध किए जाने जैसा है । इस वजह से विधा को लेकर तरह तरह के सवाल उठ रहे हैं । कई बाते हैं मसलन ये कि लेखक की टिप्पणियां जिनमें विश्लेषण है, वो गैरजरूरी हैं । अनुपिया, शंकर मंडल, खोपीवाली, कैलाश जैसे चरित्र खुद ही उस व्यवस्था की असलियत बयान करते हैं, लेखक का सामाजिक विश्लेषण उन्हें कमजोर बनाता है । इस चुनौती से निबटना मुश्किल होता है । सीधी बात है कि या तो आप जाति व्यवस्था पर लेख लिखें, विश्लेषण करें, शोध पत्र लिखें । अगर आप ये सब नहीं कर के रचनात्मक ढंग से अपनी यादों को लिख रहे हैं, अपने गांव के बारे में बता रहे हैं तो उस मुहावरे में बात कीजिए । जाति का विश्लेषण करते वक्त यह मुश्किलें सामने आती हैं । दलित चरित्रों के लिए जिस सम्मान के साथ ‘आप’ का प्रयोग हुआ है, उसके साथ उनके पुराने नाम जैसे ‘अनुपिया’ भी साथ चल रहे हैं । उनका नाम शायद अनूपा होगा, विवरण नहीं दिया गया है । जाहिर है यहां राजू घिरस उस पैराडाइम शिफ्ट को प्रतिबिंबित कर रहे हैं जो दलित विमर्श ने पैदा किया है । इसलिए घिरस लेखक की निगाह जन-मजदूर की ओर टिकी हुई है, टिकी ही नहीं हुई है बल्कि राजू घिरस तरियानी की जमीन पर जन-मजदूरों के पक्ष में खड़े होकर बात कर रहे हैं । इसका स्वागत किया जाना चाहिए खासकर तब जब साहित्य की राजनीति ने दलितों की स्थिति के बारे में लिखने को नेपथ्य में डाल कर सारा विवाद दलित-गैरदलित मुद्दे पर केंद्रित कर दिया है ।

माफ कीजिएगा, बात हो रही थी बम संकर को पढ़ने की । बहुत सारे कमजोर मजबूत बिंदुओं के साथ यह किताब भारी किल्लत में बरसे पानी की तरह है । बाल्टी, डोलची, गिलास जो है सब में पानी भर लेने की तत्परता की तरह भूमंडलीकरण, नव उदारवाद, माओवाद, विकास, गांव की राजनीतिक अर्थव्यवस्था, धर्म, ठेकेदारी, रंगदारी, गुंडागर्दी का इतिहास, जातियों के समीकरण, चुनाव सब का विश्लेषण करने के लिए उपलब्ध एक प्रामाणिक दस्तावेज की तरह । और ये किताब की सबसे बड़ी खूबी है कि जाने अनजाने यह उन जटिल बिंदुओं को छूती चलती है । बिहार की राजनीति, हिंसा युग का सूत्रपात, माओवाद, दलित जातियों की स्थिति  और वो संस्कृति जहां ‘गंडसटऊल गप’, विचित्र ‘मोबाइल यूजर मैनुअल’ ‘बहानचोद-मतारी के’ एकसाथ मौजूद हैं । उत्तर बिहार के एक पिछड़े गांव की ये अजीबोगरीब दास्तान इस लिहाज से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है । इसलिए जरूरी है कि अभिव्यक्ति, विधा, नॉस्टैल्जिया जैसे मुद्दों से थोड़ा आगे बढ़ कर उन बुनियादी बदलावों पर बात की जाए जिनका जमीनी स्तर पर कोई ठोस लिखित प्रमाण नहीं था ।

तरियानी छपरा का राजनीतिक अर्थशास्त्र

तरियानी छपरा का राजनीतिक अर्थशास्त्र जब बदलता है तो कैसे रिश्ते बदल जाते हैं, परंपराएं टूटती हैं, घिरस और मजदूर का संबंध बदल जाता है, यह सब देखा जा सकता है । जब तक तरियानी के भूमिहीन दलित आर्थिक रूप से अपने घिरस के ऊपर निर्भर थे, उनके बच्चे मोटरी-गठरी पहुंचाने, चरवाही करने में लगे रहे और घिरस के बच्चे श्री फुल्गेन मध्य विद्यालय में पढ़ते रहे । इसलिए आरक्षण को लेकर हो रही तमाम राजनीति के बावजूद तरियानी के दलित इस कड़वे सच को सामने लाते हैं कि एक खास तबके को ही आरक्षण जैसी सुविधाओं का फायदा मिला । खासकर उन्हें जो गांव के इस राजनीतिक आर्थशास्त्र से अलग कमाने चले गए या जहां जिनके पास जमीन आई या शहरों में रहे । इसलिए तरियानी के दलित युवाओं में आरक्षण पाने की योग्यता तक पहुंचने का संघर्ष भी तब शुरु होता है जब उनके परिवार के लोग गांव छोड़ कर मजदूरी करने बाहर जाते हैं और नगद आमदनी का एक स्रोत बनता है ।

“ अनुपिया के तीनों बेटों का परिवार अलग-अलग हो गया है । आंगन भी तीन हो गए हैं । असर्फी के छह बेटों में से दो तीन कमाने के लिए बाहर जाने लगे हैं । चौथे नंबर का बेटा श्री रामजानकी उच्च विद्यालय, तरियानी छपरा से मैट्रिक पास करने के बाद तरियानी चौक पर ठाकुर जुगुल किशोर सिंह महाविद्यालय में इंटर की पढ़ाई कर रहा है । वह अपने परिवार का पहला व्यक्ति है जिसने जाति प्रमाणपत्र के आधार पर नौकरी पाने का सपना देखना शुरू कर दिया है ।“ (अनुपिया, पृ 39)

इसलिए जाति के बंधन किसी सामाजिक चमत्कार या उंची जातियों के हृदय परिवर्तन से नहीं, इस बदले हुए अर्थशास्त्र से ढीले हुए । मनीऑर्डर पर टिकी अर्थव्यवस्था ने गांवों में हर घर को चापाकल की सुविधा दी और घिरस के घरों की पनभरनियां विदा हो गईं ।

तरियानी अभी विकास की उस अवस्था तक नहीं पहुंचा है जहां उंची जातियां जमीन छोड़ कर जीविका के दूसरे साधनों पर निर्भर हो गई हों । नौकरीपेशा होते हुए भी उनका जमीन से बराबर संपर्क बना हुआ है । इसे एक तरह का संक्रमण काल कह सकते हैं । इस स्थिति में धानुक टोली के लोग राजपूत घिरस के बटाईदार तो हैं लेकिन बटाईदारों को जमीन बेचने की शुरुआत तरियानी छपरा में नहीं हुई है । संपन्नता का मतलब है दाल-भात-तरकारी, इससे इतर सवर्ण अभाव में ही सही लेकिन पेट भर पाने  की हालत में हैं और दलित मजदूरी में नाममात्र का अनाज पाकर भूखों मरने को अभिशप्त । सवर्ण जहां दुकानें खोलने, ठेकेदारी करने के कामों में लगे हैं वहीं दलित बाहर मजदूरी कर के कमा रहे हैं ।

इस स्थिति में होने के कारण ही सवर्णों में गांव से दाल-चावल-सब्जी लाकर खाने का रिवाज कायम है, सामान ही नहीं बनाने वाले भी ।

“नव-शहरीकरण के दौर में गांव से अनाज, दूध और सब्जी लाकर शहर में पकाने का रिवाज ही शुरू नहीं हुआ बल्कि पकाने वाले भी गांव से लाए जाने लगे । निश्चिक रूप से ये खाना पकाने वाले या बच्चा खेलाने वाले स्वजातीय नही थे, न बाभन थे । थे वैसे गरीब जिनका ‘पानी चलता’ था ।” (बम संकर टन गनेस, पृ 102)

दलित और पानी चलने वाली जातियां तरियानी के इस संक्रमण काल में रह रही हैं जहां “कई बार साबित हो चुका है कि राजपूतों के वोट के दम पर पंचायत की मुखियागिरी तक मुमकिन नहीं है, विधानसभा तो बहुत बड़ी चीज है ।” (डाकपिन साहेब, पृ 58)

लेकिन वोट बैंक समझे जाने वाले दलितों के वोट की ठेकेदारी जरूर मुमकिन है तरियानी छपरा में गांव के दबंग राजपूतों द्वारा । इसलिए नेता वोट के ठेकेदारों पर ज्यादा समय खर्च करते हैं और ये ठेकेदार ही तय करते हैं कि किसे जीतना चाहिए । बिहार की राजनीति में दबंगों का उदय जाति के  वर्चस्व को बनाए रखने के लिए ही नहीं, उस कठिन प्रतिस्पर्धा से भी उपजा जो चुनावी राजनीति में मध्यम जातियों द्वारा दी जा रही थी । इसलिए जातिवार दबंगों की बड़ी फसल तैयार हुई जो अपनी अपनी जाति को मानसिक रूप से आश्वस्त करने और सुरक्षा का अहसास कराने के काम आते रहे ।

इसलिए राणा रणधीर सिंह का चुनाव जीतना तरियानी के राजपूतों के लिए विकास का मसला नहीं है, वह राजपूतों के शक्ति प्रदर्शन के लिए जरूरी है ।

“रणधीर दबंग है । कलक्टर-एसपी, सबके हेंकड़ी गुम हो जाता है उसके सामने । xxx राजपूत कैंडिडेट इस बार नहीं जीतेगा त राजपूत के लड़िका सs के बाहर-भीतर निकलना बंद हो जाएगा । राजपूत लोग के भविष्य खतरा में पड़ जाएगा ।” (भोट, पृ 190)

इसलिए अपना पक्ष चुन सकने वाले दलित दबंगई के बूते वोट डालने से वंचित किए जाते हैं । सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में वंचित दलितों को डॉ. अंबेडकर के प्रयासों से जो राजनीतिक अधिकार मिले, वो उसका भी प्रयोग करने की हालत में नहीं है । हालांकि तरियानी के बहुजन दलितों से उलट स्थिति में हैं । उन्होंने वोट बारगेनिंग सीख ली है, इसलिए उनपर प्रत्याशियों का स्नेह बना रहता है और उनके वोट महत्तवपूर्ण भूमिका निभाते हैं ।

“गोअरटोली के वोट चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाते हैं, इसलिए उस मौसम में प्रत्याशियों का इस पर विशेष ‘स्नेह’ बना रहता है ।” (जो है सो कि, पृ 22)

बिहार की राजनीति में मध्यम जातियों की इस मजबूत स्थिति की वजह का लेखक ने गहराई से विश्लेषण नहीं किया है, न ही तरियानी के अर्थशास्त्र में उनकी चर्चा होती है लेकिन इतना तो जाहिर है कि राजपूतों के गढ़ में संख्या में बराबर होने के बावजूद दलित जो हासिल नहीं कर पाए हैं, वो यादवों ने हासिल किया है । इसलिए भी क्योंकि वहां “जन-मजदूर आ सर-सोलकन के जौरे खाने का टाइम नहीं आया है अभी ।” (ई दिल्ली थोड़े है, पृ 150)

फिर भी चीजें बदल रही हैं । दलित बाहर कमा रहे हैं और गांव में रह रहे परिवारों के पास नगद पैसे आ रहे हैं, वे अधिया पर खेती कर रहे हैं और ठेकेदारी, डिलरई में भी उतर रहे हैं । आजादी के बाद के भारत में खासकर नई उदारवादी दौर में जहां भी दलित आर्थिक रूप से मजबूत हुए हैं, वे हिंसा का शिकार बन रहे हैं और राष्ट्रीय मानचित्र पर अदृश्य तरियानी छपरा में यह काम हो रहा है । यहां जमीन विवाद का मुद्दा मुख्य मुद्दा नहीं है क्योंकि जमीनें सवर्णों के पास हैं और थोडी बहुत बटाईदारी के बावजूद दलित भूमिहीन हैं । विवाद उनके उन क्षेत्रों में प्रवेश को लेकर है जो सवर्णों के वर्चस्व का क्षेत्र माना जाता है । पैसे के बाहरी स्रोतों ने उन्हें जन मजदूर से बटाईदारी की अवस्था तक पहुंचाया है लेकिन दबंग माने जाने वाले ठेकेदारी और डिलरई के कारोबार में आने के दुस्साहस ने जाति के तनावों को बारूद के ढेर पर रख दिया है । इसलिए गांव में बहाल ‘सामान्य’ अवस्था असामान्य हो रही है ।

तरियानी छपरा की असामान्य स्थिति का राजनीतिक अर्थशास्त्र से जितना लेना देना है, उससे ज्यादा दूसरे कारकों से । ये दूसरे कारक जरा संवेदनशील किस्म के हैं, इन पर भी एक राउंड ।

किताब की भूमिका में राकेश ने बम संकर टन गनेस की सटीक परिभाषा दी है- “वर्तमान का ताज़ा-तरीन इतिहास ! एकदम टटका ! बम संकर टन गनेस !” टटका इतिहास कुछ यूं है-

मल्लाह और दुसाध बहुल डोरा टोला के बारे में आजकल सुनने में आता है, “मोआबाद के अड्डा हई डोरा । मार मिटिंग-सिटिंग होईत रहई छई । बड़का-बड़का माओबादी सs रहई छई डोरा पर ।”(जो है सो कि, पृ 16)  मध्य बिहार के भोजपुर, जहानाबाद जैसे क्षेत्रों की तरह उत्तर बिहार में नक्सली संघर्ष की जमीन कभी बहुत मजबूत नहीं रही । लिबरेशन और पार्टी युनिटी के प्रभाव क्षेत्र से दूर उत्तर बिहार के अति पिछड़े इलाके जो साल में तीन महीने बाढ़ की वजह से दुनिया से कटे रहते हैं, सरकारी रेकॉर्ड में अति संवेदनशील घोषित हैं । माओवाद प्रभावित इलाका होने की बात कुछ वैसी ही रहस्यात्मक है जैसी पीपल का जिन्न । रहस्य की यह स्थिति इकलौते तरियानी में नहीं है, राष्ट्रीय स्तर पर माओवाद को लेकर जिस तरह की अस्पष्टता और रहस्य का माहौल है, वही हाल तरियानी का भी है । राकेश ने इस रहस्य को छिन्न भिन्न करने की ज्यादा कोशिश भी नहीं की है । इसलिए तरियानी छपरा में पार्टी बंद का आह्वान करती है, पर्चे मिलते हैं लेकिन पार्टी कौन सी है, उसका काम क्या है, उसका तरियानी छपरा में आगमन कैसे हुआ, ये सब अदृश्य है । बिग ब्रदर इज वाचिंग यू की तर्ज पर मोआबाद की गिरफ्त में रह रही तरियानी छपरा की दलित बस्तियां (यह भी सुनी सुनाई बात ही है) और उनसे इतर की जनता को किसी डरावने साये की तरह एक रहस्य का अनुमान तो है लेकिन ठीक ठीक जानकारी नहीं । कम से कम बम संकर पढ़ कर तो ये पता लगाना मुश्किल है ।

रहस्य का आलम ये है कि “दस बारह सालों से इलाके को माओवाद का गढ़ बन जाना बताया जा रहा है । यह भी कि तरियानी छपरा हिट लिस्ट में है । तरियानी छपरा और आसपास के कुछ मुसहर और चमार लड़के-लड़कियां खतरनाक माओवादी घोषित कर सीतामढ़ी जेल में कैद हैं ।” (हनुमान मंदिर, पृ 171)

टुकड़ों टुकड़ों में दी गई इन जानकारियों का अध्ययन अपने आप में दिलचस्प है । तरियानी छपरा में अफवाह के रूप में फैली हुई ये बातें भारतीय राज्य के दावों और आंतरिक आतंकवाद की व्याख्याओं को समझने में मदद करती हैं कि कैसे विकास से कोसों दूर, पिछड़े इलाके माओवाद प्रभावित हैं और दलित बच्चे खतरनाक माओवादी । समझ का आलम ये है कि इलाके के एकमात्र सीपीआई समर्थक परिवार राम इकबाल के बेटे को चुनाव के दौरान पुलिस ने माओवादी मान कर घंटो थाने में बिठाए रखा । तरियानी के जागरूक दलित सामाजिक कार्यकर्ता सत्यनारायण राम को लेकर भी मतभेद है । छपरियों का एक दल उन्हें बहुजन समाज पार्टी का कार्यकर्ता बताता है तो एक तबका तरियानी छपरा का पहला माओवादी ।

तरियानी छपरा की इस नई परिघटना के कारणों की पड़ताल राकेश ने मध्य बिहार के सशस्त्र संघर्ष से जोड़ कर की है लेकिन वो ये कहीं नहीं बताते कि लिबरेशन, पार्टी युनिटी या एमसीसी में से कौन से गुट ने उत्तर बिहार का रुख किया । पीपल्स वार और एमसीसी के विलय के बाद नव गठित सीपाआई (माओवादी) के कार्यक्षेत्र या प्रभाव का कहीं जिक्र नहीं है । ऐसे में उत्तर बिहार के दलितों और माओवाद के संबंध पर अंधेरा बरकरार रहता है । प्रामाणिक तथ्य या शोध के अभाव में रणवीर सेना के नरसंहारों का असर तरियानी छपरा तक होने को इन घटनाओं का कारण मानना भी संदेह के घेरे में है । फिर, तरियानी में प्रचलित कुछ बातें भी चौंकाने वाली हैं मसलन “न कोनो काम हऊ त माओबादी बन जो, राइफल आ दस हजार रुपइया महीना मिलतऊ ।” (हिंसा युग, पृ 209)

तरियानी में खुल कर हुई सवर्ण-दलित हिंसा के कारण जितने अज्ञात हैं उतने ही हर हत्या के बाद पर्चे मिलने के भी । हिंसा की घटनाओं का माओवाद से सामंजस्य बिठाने की कोशिशें भी कुछ इसी तरह की हैं ।

माओवाद के रहस्यमय आवरण से तरियानी छपरा पर्दा हटाने की बजाय उसे और उलझा देता है । लेखक ने जिन घटनाओं का टुकड़ों में विवरण दिया है वे गंभीर विवेचन की नहीं तो कम से कम थोड़े और शोध की अपेक्षा रखती थीं । खासकर माओवाद से दलितों के संबंध को लेकर ।

इन सबके बावजूद तरियानी का टटका इतिहास इसी रहस्य से बुना हुआ है । वहां माओवाद को लेकर अटकलें और अफवाहें हैं, डर का माहौल है । तरियानी के लोगों को आंख से देखने और पता करने की जरूरत भी नहीं है, सरकार ने उन्हें बता दिया है । उसी तरह जैसे देश में भड़कने वाली हिंसा और वाम का मतलब सरकार बताती रहती है ।

दास्तान-ए-रंगबाजी उर्फ नलकटुआ पुराण

बम संकर ने रंगबाजी युगीन बिहार की संस्कृति की बारीकियों पर बहुत विस्तार से प्रकाश डाला है, इतना कि पैस्टिच हजार वाट के बल्ब जितने झक-झक कर रहे हैं । विशाल भारद्वाज और अनुराग कश्यप के अतिरंजित सिनेमा के बरक्स यह ज्यादा ठोस और प्रामाणिक छवि है जिसमें ठेकेदारी, डिलरई ही नहीं, उसके साथ पनपी पूरी संस्कृति का दिलचस्प वर्णन है । बुलेट, राजदूत, हीरो होंडा, बसें और ठेकेदारी 80-90 और उसके बाद के बिहार को परिभाषित करने की कुंजियों की तरह इस्तेमाल की जा सकती हैं । भ्रष्टाचार के मारे हमेशा हलकान रहने वाले राज्य परिवहन निगम का भट्ठा बैठने के बाद इस व्यवसाय पर दबंग किस्म के ठेकेदार, डीलर या बाहुबलियों का प्रभुत्व कायम हुआ और बसें परिवहन के साधन से ज्यादा उस दबंग संस्कृति का प्रतीक बनीं । दबंग संस्कृति के विकास की प्रक्रिया का राकेश ने विस्तार से वर्णन किया है ।

“उन दिनों बिहार में ठेकेदारी करने वालों के कंधों पर सफेद अंगोछे बहुत फबते थे । xxx ठेकेदारों के बुलेट को सलाम कर गौरवान्वित महसूस होने वाली पीढ़ी भी पनप चुकी थी । बेशक, किसी एक का नाम लेकर ठेकेदारी होती थी, परंतु ठेकेदारों का मुकम्मल ग्रुप होता था । उनके पास प्रशासनिक शस्त्रागारों की अपेक्षा ज्यादा असरदार और आधुनिक असलहे होते थे । जिनके परिचालन और रख रखाव के लिए उनके पास वैसे लड़कों का दस्ता होता था, जो नाक और ऊपरी होंठ के बीच के सख्त होते रोएं पर उंगलियां फेर कर खुश हुआ करते थे । जिनमें से कुछ शार्प शूटर बन जाते थे और कुछ हो जाते थे माहिर रणनीतिज्ञ । थोड़े समय बाद वे बाजार-उजार में रंगदारी टैक्स वसूलना भी शुरु कर देते थे ।” (जो है सो कि, पृ 18)

शार्प शूटरों की इस फसल नें बिहार में कई प्रकार के कामों में अविस्मरणीय भूमिका निभाई । रंगदारी के अपने मूल धंधे के अलावा अपहरण, टेंडर वार, दुश्मनी, बूथ कैप्चरिंग, चुनावी हिंसा सभी कार्यों में तत्परता से सहयोग दिया । कमर में कटुआ खोंस कर चलने का फैशन जो अभी तक बरकरार है और हीरो होंडा छिनाई, फिरौती वसूली के नए व्यवसायों को उर्जा प्रदान कर रहा है, उस सामंती और हिंसक बिहार का चेहरा है जहां विमर्श और कानून की भाषा नहीं चलती । इसलिए शार्प शूटरों को पालना अस्तित्व का प्रश्न बन जाता है । लठैतों की परंपरा तो पहले भी बिहार में रही है लेकिन बाहुबली नेताओं के चुनाव जीतने और संगठित दबंगई की शुरुआत के बाद ही हिंसा और हत्याओं का सिलसिला शुरु हुआ । इन हत्याओं के बाद माओवाद की भूमिका के बारे में अटकलें लगाने का दौर भी चलता रहा । हालांकि इन दोनों परिघटनाओं को अलगाया जाना जरूरी था क्योंकि चुनावी राजनीति में शक्ति प्रदर्शन करने वाले बाहुबली नेताओं द्वारा पोषित हथियारबंद युवाओं की फौज का का सांस्कृतिक इतिहास माओवादी हिंसा से अलग रहा है । दुश्मनी की वजहें रंगदारी न देना, आपसी गैंगवार, दूसरे ठेकेदार को टेंडर मिल जाने से लेकर बेवजह हत्या तक के कामों के प्रोपराइटर ऐसे गुट रहते थे । नेताओं का वरदहस्त प्राप्त इन अपराधी गुटों और माओवादियों द्वारा की गई हत्या जिसमें पुलिस का मुखबिर होने या सामंत, बुर्जुआ होने जैसे कारण शामिल रहा करते थे, अंतर है जिसे स्पष्ट करने की जरूरत थी ।

बोलेरो और शार्पशूटरधारी सत्तासीन राजनीतिज्ञों की हिंसा ने शौर्य और पराक्रम को बिहार की संस्कृति के संदर्भ में नए सिरे से परिभाषित किया । रंगबाज होना सम्मान की बात होने लगी । इस संस्कृति के चमकदार प्रतीक बुलेट, इंगलिस (भाषा नहीं शराब) और गाली को भी पुरानी संस्कृति की लंपट परिभाषा के उलट भारी इज्जत मिली । यह सब किया उसी उच्च वर्ग और जाति के समाज ने जो एक तरफ इन्हें शराफत के लिए खतरा बताता रहा और दूसरी तरफ इनकी मदद लेता रहा ।

लेकिन इन सबसे इतर यह ऐसी संस्कृति थी जिसने भयानक असुरक्षा बोध पैदा किया । दलितों, औरतों और उन सभी के लिए जो दबंग नहीं थे या दबंगों से रिश्ते नहीं रखते थे, यह कल्पनीय डर में जीने का काल था जिसमें कानून जैसी चीज को धता बताते हुए जी खोल कर अपराध किए गए ।

यह दबंग संस्कृति, मर्दानगी के बॉलीवुडीय आदर्शों से ओत-प्रोत थी जिसमें मुख्य भूमिका घर-परिवार के माहौल की होती थी । इससे टकराने का साहस अखबार पढने वाले ड्राइवर रामप्रवेश सहनी जैसे अपवाद ही कर सकते थे जिनके बारे में प्रचलित था कि उनका माओवादियों में उठना-बैठना है ।

“गड़ी तेल से चलता है, पानी से नहीं । पइसा देना होगा । पइसा जेबी में नहीं है तो उतर जाइए बस से । फोकट का सेवा इहां नहीं होता है । आ रंगबाजी कर रहे हैं त जान जाइए कि आपसे बड़का रंगबाज हम अपने हैं ।” आपसे बड़का रंगबाज हम अपने हैं, बिहार की संस्कृति बन चुका है । जममानस या मास साइकि इससे निर्धारित होती है । उबल पड़ने और फट पड़ने को तैयार मानसिकता का सटीक उदाहरण । यह सिर्फ तरियानी छपरा तक सीमित नहीं है, गांव, शहर हर जगह गैंगवार, मार-पीट, कई बार सिर्फ खौफ के लिए और ज्यादातर इसलिए ताकि दबदबा बना रहे । दबदबे की सामाजिक स्वीकार्यता ने हिंसा और मर्दवाद के मजबूत गठजोड़ को नया जीवन दिया । ऐसे दर्जनों प्रसंग किताब में हैं जो इस संस्कृति को दर्शाते हैं, चाहे वो लौंडा नाच हो या बात बात में गोली मारने की प्रवृत्ति । इस संस्कृति को और गहराई से देखना हो तो बम संकर टन गनेस के एक स्त्रीवादी पाठ की जरूरत पड़ेगी । रंगबाजी-नलकटुआ संस्कृति का उद्गम स्थल भी तो आखिर वही सामंती, पितृसत्तात्मक मानसिकता है जो ‘सर्वत्र’ प्रकट हुई है ।

तरियानी छपरा की लड़कियां

जो भी हो, जानते तो तरियानी छपरा को हम राजू घिरस की नजर से ही हैं । जितना राजू घिरस ने देखा-जाना उतना ही और उस हिसाब से तरियानी छपरा आश्चर्यजनक रूप से पुरुष प्रधान नजर आता है जबकि लेखक के अनुसार “गांव में औरतों की संख्या मर्दों की अपेक्षा कम से कम डेढ़ गुना ज्यादा होगी”।

हाल ये है कि पुराने की तो बात छोड़िए, प्रेम का कखग सीखने को आतुर नए रंगरूट भी संभावित प्रेयसी को ‘छौंड़ी’ संबोधित करते हैं । ‘छौंड़ी’ बज्जिका में वही अर्थ रखती है जो हिंदी में लौंडिया या छोकरी । तरियानी के पुरुषों को इसे बदलने की जरूरत मालूम नहीं होती । उन्हें पता है कि ‘आप’ और ‘तुम’ का प्रयोग कहां करना है । इसलिए अनुपिया, एतबारी देवी जैसी दलित स्त्रियों के लिए सचेत रूप से आप का प्रयोग करते हुए और उनकी सुंदरता का वर्णन करते हुए भी (जो निश्चय ही माइग्रेंट छपरिया की पहचान है) असल छपरियों का मानस छुपता नहीं । दिल्ली कमाने गए सोवंश को वहां की लौगर छौंरी के सिवा और कुछ अच्छा नहीं लगता । यहां छपरा के हाईस्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों का हाल ये है कि- “किसी लड़के की ‘हिम्मत’ नहीं होती थी हमारी बहनों से ‘बात’ करने की भी ।” (जो है सो कि, पृ 20) इन बहनों का हाईस्कूलोपरांत कॉलेजीय जीवन नाम लिखवाने और परीक्षा देने के बाद जिस तरह बीतता है उसका वर्णन लेखक के शब्दों में-

“अनीता दीदी और सुषमा दीदी अपने अपने ससुराल में परिवार संभाल रही हैं । सुबोध भैया की बेटी साधना भी ससुराल में खुशी खुशी रह रही है ।”

पूरी किताब में भले घर की शरीफ लड़कियां ससुराल में घर संभाल रही हैं, उनकी शादी हो रही है या शादी की बात चल रही है या फिर भाई के लिए सामा चकेवा और झिझिया खेल रही हैं । लेखक को दुख है कि मिथिला और तिरहुत में खेला जाने वाला सामा चकेवा जैसा खूबसूरत खेल तरियानी छपरा में नहीं खेला जाता । खेला भी जाए तो क्या फर्क पड़ेगा, लफा-सुटिंग तो बदस्तूर जारी रहेगी । आपसी सहमति से बनाए गए शारीरिक संबंध यानी लफा-सुटिंग के अलावे जबरन बनाए गए संबंधों का विवरण नहीं दिया गया है ।

तरियानी छपरा की बड़ी आधी आबादी में मात्र एक औरत ने वकालत की पढ़ाई की और वह कीर्तिमान आज तक सुरक्षित है । लेकिन इससे ज्यादा आश्चर्यजनक उम्रदराज बुआ का बुढ़ापे में डीलरई का कारोबार करना है । उसी तरह बच्चा दर्जी की बहन हैं जो श्रृंगार प्रसाधन बेचती हैं । मुखिया चुनाव लड़ने वाली दलित महिला एतबारी देवी के परिवार की स्थिति अपने आप में पूरा विमर्श है ।

“एतबारी छपरा के जागरूक नागरिकों में से एक हैं । कर्मठ और संवेदनशील ! उन्हें तरियानी छपरा की वैसी प्रथम दलित मां होने का गौरव प्राप्त है जिनकी सारी संताने पढ़ी-लिखी हैं और जिनके बेटों ने आरक्षण का लाभ लेने की योग्यता ‘जीत’ ली है ।” (जो है सो कि, पृ 22)

इन अपवादों को छोड़ दें तो तरियानी की आम औरतें यानी गरीब पत्ता बुहारने वालियां जबर्दस्ती का शिकार होती हैं और तरियानी छपरा के पुरुष निर्द्वंद्व भाव से मां-बहन की गालियां बरसाते हैं ।

एक तरफ रिंगटोन गायब हो जाने पर मोबाइल वाइब्रेशन मोड में डाल कर थाली पर रखा जाता है तो दूसरी ओर कपिल सिंह जैसे लोगों की गालियां ‘तोरा मतरिया के बूर में लाठी न पेल देबऊ रे मरलाहा के समांग’ जिनमें रेप कल्चर की शिनाख्त की जा सकती है ।

नव उदारवादी नीतियों के बाद का टटका यानी ‘बम संकर टन गनेस’ तरियानी छपरा इसी तरह का है । भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण के बाद जो टेढ़ा-मेढ़ा सामाजिक परिवर्तन हुआ है, उसने भारतीय गांवों के चरित्र को कई खांचों में बांट दिया है और ये सभी खांचे आपस में हंसी खुशी निभा रहे हैं । इसलिए हर घर में बाइक है, डीटीएच है, मोबाइल फोन है, मनचाहे ब्रांड की शराब की सुविधा है लेकिन हिंसक गालियां भी हैं, दलितों को चमार-दुसाध कहने का प्रचलन भी है ।

भारतीय समाज की संरचना ने औपनिवेशिक काल के परिवर्तनों से लेकर भूमंडलीकरण के दौर तक अगर कोई चीज सुरक्षित रखी तो अपनी विषमताएं । इसलिए भयानक गर्मी में पसीने से तर दूल्हे सूट से लैस होने लगे हैं, शर्बत की जगह कोकाकोला-पेप्सी आ गया है, गीत गाने की जगह शारदा सिन्हा के कैसेटों ने ले ली है लेकिन मल्लिक का जूठन उठाना जारी है !

यह सच है कि तरियानी छपरा में इफरात में असलहे हैं, मंदिरों का फलता फूलता कारोबार है, माओवाद का रहस्य है, हत्या, अपहरण, हिंसा सबकुछ है लेकिन इतना होने के बावजूद ताश विश्वविद्यालय का प्रशिक्षण है, झाड़ा उतरान में सहायक तिरंगा-शिखर हैं, बोतू की सवारी करने वाले बच्चे हैं, प्रमोदिया को तरकारी-भात खिलाने वाले किसोरी बाबा हैं और बम संकर टन गनेस तो हैं ही छपरिए जो है सो कि ।
बाइ-दि-बे, बम संकर के बहाने बिहार की संस्कृति पर एक राउंड जोरदार बहस हो सकती है जो है सो कि । हम तो कहते हैं कि बिगिनर्स गाइड के तरह ‘नार्थ बिहार फॉर बिगिनर्स ’ का एक ठो चिप्पी सटबा देना चाहिए राकेस सिंघ को किताब के उप्पर अगले संस्करन से । बाकी तो आप पहड़ के जानिए जाइएगा, सब बात हम्हीं काहे बताएं ? कुछ ज्यादे ही गप नहीं हो गया ? हम तो अपना पारी पुरा लिए, अब आप अपना राउंड सुरु किजिए ।
(www.sarokar.net से साभार/शुभम)

....और चोरी हो गई थीं हैरी पॉटर की किताबें


लगभग एक दशक पहले ब्रिटेन में बहुचर्चित हैरी पॉटर की पाँचवीं किताब जिसका लम्बे समय से इन्तज़ार था, उसकी हज़ारों प्रतियाँ बाज़ार में आने से पहले ही एक गोदाम से चोरी हो गई थी. हैरी पॉटर एंड ऑर्डर ऑफ़ द फ़ॉनिक्स नामक नई किताब की प्रतियाँ एक सफ़ेद टीएनटी ट्रेलर में थीं जो मरसीसाईड में न्यूटन-ली-विलोस में खड़ा था. मरसीसाईड पुलिस का कहना था कि लॉरी के पास एक आदमी आया और ख़ुद को ये बता कर कि उसे ये सामान ले जाना है. वह आदमी बाद में लॉरी लेकर चंपत हो गया. कितनी किताबें चोरी हुई, शुरु में इस पर कुछ भ्रम के बाद मरसीसाईड पुलिस और प्रकाशक बलूम्सबरी ने इस बात की पुष्टि कर दी कि इसमें कुल 7,680 किताबें थीं जिनकी क़ीमत एक लाख तीस हज़ार पाउन्ड थी. पुलिस और प्रकाशकों ने लोगों को आगाह कर दिया था कि जो कोई भी इन किताबों को अब से और शनिवार के बीच बेचने या ख़रीदने की कोशिश करेगा उस पर क़ानूनी कार्रवाई की जाएगी. लेखिका जे के रॉलिंग इस बात की जानकारी थी और उन्हें समय समय पर सूचित किया जाता रहा. हैरी पॉटर एंड ऑर्डर ऑफ़ द फ़ॉनिक्स की ब्रिटन, अमरीका, केनेडा, ऑस्ट्रेलिया और कई अन्य देशों में शनिवार 21 जून 2003 को रात 1 बजे से बिक्री शुरु होने वाली थी. एसी उम्मीद थी कि इन किताबों को ख़रीदने के लिये पूरे ब्रिटन में आधी रात को ही खुलने वाली किताबों की दुकानों में लाखों प्रशंसकों की भीड़ शुक्रवार रात से ही जमा हो जायेगी. ये किताब लेखिका की पुरानी किताब “हैरी पॉटर एंड द गॉबलैट ऑफ़ फ़ायर” से एक तिहाई से अधिक लम्बी थीं. रॉलिंग और बलूम्सबरी ने इसके कथानक को भी पूरी तरह से गुप्त ही रखा था. आज़दा सुपर स्टोर के एक प्रवक्ता ने कहा कि ये किताबें उनके स्टोर में भी आनी थीं. उन्होंने कहा कि उन्होंने क़रीब पाँच लाख किताबों का ऑर्डर दिया था. प्रकाशक ने एक वक्तव्य जारी करके कहा, कि हमें उम्मीद है कि जो भी प्रशंसक इस किताब को पढ़ना चाहता है उसका मज़ा किरकिरा नहीं होगा.

किताब-उल-हिन्द


संपादक- मिथिलेश वामनकर

“मेरी पुस्तक तथ्यों का ऐतिहासक अभिलेख है मैं पाठकों के सम्मुख हिन्दुओं के सिद्धांत एकदम ठीक रूप में प्रस्तुत करूंगा और उनके संबंध में यूनानियों के वे सिद्धांत पेश करूँगा जो हिन्दू सिद्धान्तों से मिलते-जुलते हैं ताकि उन दोनों के बीच जो संबंध है वह उजागर हो सके….।”
    “अपने विषय का प्रतिपादन करने से पहले हमें इस संबंध में समुचित विचार करना होगा कि वह क्या बात है जो भारत संबंधी किसी भी विषय के मूल तक पहुंचने में विशेष रूप से कठिनाई उपस्थित करती है। इन कठिनाइयों का बोध या तो हमारे कार्य को आगे बढ़ाने में सुविधा प्रदान करेगा या यदि हमारे कार्य में कोई त्रुटि रह जाए तो उसका कारण सिद्ध होगा।”
    “पहली कठिनाई तो यह है कि वे हमसे हर उस बात में भिन्न हैं जिसमें हममें और अन्यजातियों में समानता है। पहले भाषा को ही लें…..यदि आप इस कठिनाई का समाधान करना चाहते हैं (यानी संस्कृत सीखना चाहते हैं) तो आपके लिए ऐसा करना आसान नहीं होता क्योंकि शब्द-भंडार तथा विभक्तियों दोनों ही दृष्टि से इसका क्षेत्र बहुत विस्तृत है।”
    “यही नहीं, भारतीय लेखक बहुत लापरवाह भी हैं और वे सही तथा सुसंबद्ध विवरण प्रस्तुत करने में परिश्रम नहीं करते….।
    दूसरी कठिनाई यह है कि वे धर्म में भी हमसे सर्वथा भिन्न हैं। कोई भी वस्तु जो किसी विदेशी की आग या पानी से छू जाए उसे वे अपवित्र मानते हैं…..।”
    “तीसरी बात यह कि वे सभी प्रकार के आचार-व्यवहार में…हमारी वेश-भूषा और हमारे रीति-रिवाजों से अलग हैं….।
    कुछ और भी कारण हैं…(यथा) उनके जातिगत चरित्र की विशेषताएं….।”
    “अतः यह है भारत की वस्तुस्थिति। यही कारण है कि अपने विषय में अपार रुचि होने के बावजूद मुझे उसमें पैठने में बड़ी मुश्किल पेश आई…और यह भी तब जबकि मैंने संस्कृति के ग्रंथ एकत्र करने के लिए परिश्रम या धन खर्च करने में कोई कसर नहीं उठा रखी।”
यदि लेखन-शैली की ओर ध्यान न दिया जाए, जो कुछ पुरानी है, तो उपर्युक्त पंक्तियों को भारत पर लिखी किसी विदेशी समाजशास्त्री की हाल ही की किसी पुस्तक की भूमिका के उद्धरण समझा जा सकता है। वास्तव में यह एक ऐसी पुस्तक के आरंभिक पृष्ठों से ली गई पंक्तियां हैं जिसका लेखक आज से एक हजार से कुछ अधिक वर्षों पहले जन्मा था। इनके लेखक के लिए यहां की संस्कृति बिल्कुल नई थी लेकिन उसने उस समझने और अपने यहां के लोगों के लिए सहानुभूति पूर्वक प्रस्तुत करने का ऐसी अवधारणा ईमानदारी के साथ प्रयत्न किया कि उसे ‘‘सबसे पहले वैज्ञानिक और किसी भी युग के एक महानतम भारतविद्’’ के नाम से अभिहित किया गया।1 इस पुस्तक का नाम है ‘किताब फ़ी तहफ़ूक़ मा लिल हिन्द मिन मक़ाला मक़्बूला फ़िल अक़्ल-औ-मरजूला’ जिसे आम तौर पर ‘किताब-उल-हिन्द’ कहा जाता है और उसका लेखक था अबू रेहान मुहम्मद इब्न-ए-अहमद जिसे ज़्यादातर लोग अल-बिरूनी के नाम से जानते हैं। एडवर्ड सी. सखाऊ  ‘किताब-उल-हिन्द’ के संपादक और अनुवादक हैं|
              अल बिरूनी का जन्म 973 ई. में ख़्वारिज़्म इलाके में हुआ था जिस पर उस समय तूरान और ईरान के सामानी वंश (874-999) का शासन था। ख़्वारिज़्म, आधुनिक ख़ीव जो उन्नीसवीं शताब्दी में मध्य एशिया में तुर्किस्तान का ख़ान राज्य था। यह अब  उज्बेकिस्तान  का एक भाग है।. यद्यपि अल-बिरूनी का जन्म ख़्वारिज्म में हुआ था तथापि उसके माता-पिता ईरानी मूल के थे और उन्हें उस स्थान पर परदेशी माना जाता, इसी कारण से उन्हें फ़ारसी उपनाम बिरूनी (बाहर के) दिया गया।  उसका जन्म नगर में नहीं बल्कि उपमहानगरीय क्षेत्र में हुआ था जिसके कारण उसे अल-बिरूनी की संज्ञा दी गई और आज वह अपने असली नाम के बजाय इसी नाम से जाना जाता है। ‘बिरूनी’ फ़ारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘बाहर का’; प्रस्तुत संदर्भ में इसका अभिप्राय ख़्वारिज़्म नामक नगर का सीमांत प्रदेश है।
               अल-बिरूनी के जीवन से संबंधित अरबी के कुछ प्राचीन ग्रंथों में यह उल्लेख मिलता है कि बिरून सिंध के एक शहर का नाम था और चूंकि वह उसी शहर में पैदा हुआ था इसलिए उसका नाम अल-बिरूनी पड़ा। लेकिन यह भ्रांत धारणा है जो शायद इस वजह से पैदा हुई होगी क्योंकि सिंद में निरून नामक एक नगर था और प्रतिलिपिक की गलती से उसे बिरून पढ़ लिया और फिर उसी स्थान को अल-बिरूनी का जन्म स्थान मान लिया गया।1 अल-बिरूनी की भारतीय संस्कृति में प्रखर रुचि को ही शायद उसके भारतीय मूल का परिचायक मान लिया गया।
                अल-बिरूनी ईरानी मूल का मुसलमान था। उसके आरंभिक जीवन और लालन-पालन के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है2 लेकिन लगता है उसे अपने बचपन में पढ़ने-लिखने के पर्याप्त अवसर मिले होंगे। स्वाध्याय में उसकी रुचि आजीवन बनी रही। इस संबंध में एक कथा है कि उस समय जबकि वह अपनी अंतिम सांसे ले रहा था और उसका एक मित्र उससे मिलने आया तो अल-बिरूनी ने उससे गणित संबंधी उसके समाधान के बारे में पूछा जिसका हवाला उस मित्र ने पहले कभी उसे दिया होगा। उसका मित्र हैरान हो गया और बोला, ‘ताज्जुब है कि तुम इस अवस्था में भी इन बातों के प्रति चिंतित हो।’’ अल-बिरूनी ने बड़ी मुश्किल से उसकी हैरानी दूर करते हुए कहा, ‘‘क्या मेरे लिए यह वांछनीय न होगा कि मैं निर्मेय का समाधान जाने बिना मर जान के बजाय उसे जान लूं और फिर दम तोड़ूं ? इस पर मित्र ने उसे इच्छित जानकारी दी और वह कमरे से बाहर निकला ही था कि उसने लोगों को अल-बिरूनी की मृत्यु पर विलाप करते सुना।
अल-बिरूनी एक महान भाषाविद् था और उसने अनेक पुस्तकें लिखी थीं। अपनी मातृभाषा ख़्वारिज़्मी के अलावा जो उत्तरी क्षेत्र की एक ईरानी बोली थी और जिस पर तुर्की भाषा का प्रबल प्रभाव था, वह इब्रानी, सीरियाई और संस्कृत का भी ज्ञाता था। यूनानी भाषा का उसे कोई प्रत्यक्ष ज्ञान तो न था लेकिन सारियाई और अरबी अनुवादों के माध्यम से उसने प्लेटो तथा अन्य यूनानी आचार्यों के ग्रंथों का अध्ययन किया था। जहां अब तक अरबी और फ़ारसी का संबंध है इस दोनों भाषाओं का उसे गहन ज्ञान था और उसने अधिकांश पुस्तकें जिनमें ‘किताब-उल-हिन्द’ शामिल है फ़ारसी ही में लिखी थीं क्योंकि वही उस युग की अंतर्राष्ट्रीय भाषा थी। उसी में समस्त सभ्य संसार के वैज्ञानिक ग्रंथ संगृहीत थे और वही विज्ञान तथा साहित्य की विभिन्न शाखाओं में उपलब्ध बहुमूल्य योगदानों का माध्यम थी।
             अल-बिरूनी का आरंभिक जीवन एक ऐसे युग में बीता था जिसके दौरान मध्य एशिया में बहुत तेजी के साथ और बड़े प्रचंड राजनीतिक परिवर्तन हुए थे और उनमें से कुछ परिवर्तनों का प्रभाव उसके जीवन और कृतियों पर भी पड़ा था।
                इसके पहले ख़्वारिज़्म के स्थानीय राजवंश—मैमूनी—के संरक्षण में ही रहा था जिसने 995 ई. के आसापस सामानियों की पराधीनता का जुआ उतार फेंका था। इसका अल-बिरूनी के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और वह ख़्वारिज़्म छोड़कर चला गया और कुछ समय तक जुरजन में (जो कैस्पियन सागर के दक्षिण-पूर्व क्षेत्र में स्थित था) शम्सुल माइली क़ाबूस बिन वास्मगीर के दरबार में रहा जिसे उसने अपना ‘आसार-उल-बाक़िया’ अन-इल-कुरुन-अल-खालिया1 समर्पित किया था जो उसने सबसे प्राचीन तथा अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथों में माना जाता है। लगता है कि 1017 में जब सुल्तान महमूद ग़ज़नवी ने (999-1030) ख़्वारिज़्म के राज्य पर आक्रमण करके उसे अपने राज्य में मिला लिया तो अल-बिरूनी ख़्वारिज़्म लौट आया। ख़्वारिज़्म के दरबार के प्रमुख व्यक्तियों में जिन्हें विजेता की राजधानी गजनी ले जाया गया था अल-बिरूनी भी था। उसके बाद वह अधिकतर ग़ज़नी में रहकर जीवकोपार्जन करता रहा और 440 हिं. (1048-1049)2 में 15 वर्ष की आयु में वहीं उसकी मृत्यु हुई।
              यह बात स्पष्ट नहीं है कि अल-बिरूनी की सुल्तान महमूद के दरबार में क्या स्थिति थी। शायद वह एक बंधक के रूप में था; लेकिन एक विद्वान के रूप में उसकी उपलब्धियों के कारण और विशेष रूप से एक खगोलशास्त्री तथा ज्योतिषी होने के नाते वह एक सम्मानित बंधक रहा होगा। लेकिन इसके बावजूद सुल्तान महमूद के साथ उसके संबंध बहुत निकट के तथा मैत्रीपूर्ण नहीं रहे। भारत पर उसकी विख्यात ग्रंथ सुल्तान महमूद के राज्यकाल में ही (1030) के आसपास) रचा गया था, किन्तु उसमें सुल्तान का कुछ ही प्रसंगों में उल्लेख मिलता है और वह भी बहुत संक्षेप में। इसके बिलकुल विपरीत महमूद के पुत्र सुल्तान मसूद (1030-1040) के प्रति उसका दृष्टिकोण सौहार्दपूर्ण था जिसे उसने अपनी महानतम कृति ‘अल-क़ानून अल-मसूदी फ़िल हइया-वलनुजूम’ समर्पित की थी और उसकी भूरि भूरि प्रशंसा की थी। अल-बिरूनी के जीवन का अंत भाग जो मसूद के दरबार में बीता था भौतिक समृद्धि और धन-संपत्ति से संपन्न रहा होगा।
              ग़ज़नी में उसके प्रवास का यही वह काल है जबसे उसकी भारत में और भारतवासियों के प्रति रुचि प्रारंभ हुई थी। जैसा कि हमें ज्ञात है खगोलविज्ञान, गणित और आयुर्विज्ञान पर भारत में लिखे गए अनेक प्रमुख ग्रन्थों का अरबी में अनुवाद बहुत पहले अब्बासी काल के आरंभ में ही हो चुका था। इसमें से कुछ अल-बिरूनी के पास भी रहे होंगे। यह बात स्वयं ‘किताब-उल-हिन्द’ से स्पष्ट हो जाती है जिसमें अल-बिरूनी ने संस्कृति की उन पांडुलिपियों का जो उसने देखी थीं और उनमें से कुछ नकलनवीसों की गलतियों आदि का उल्लेख किया है। अल-बिरूनी को अपने ग़ज़नी-प्रवास के दौरान भारत विषयक अध्ययन के लिए अधिक अवसर मिले होंगे।
              ग़ज़नी शहर पूर्वी क्षेत्र में इस्लाम का प्रमुख राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र था और उसने पड़ोसी देशों में जिनमें भारत भी शामिल है कुशल व्यक्तियों को आकर्षित किया होगा। उसमें अनेक भारतीय युद्धबंदी, कुशल शिल्प और विद्वान भी थे जो महमूद के भारत पर आक्रमण के बाद लाए गए होंगे। इसके अलावा पंजाब भी जिसमें हिन्दुओं का भारी बहुमत था, ग़ज़नवी साम्राज्य का ही एक अंग बन गया था। ग़ज़नी तथा भारत के कुछ अन्य नगरों में जहां वह गया होगा1 अल-बिरूनी का अनेक भारतीय विद्वानों और पंडितों से संपर्क हुआ होगा और जिनके साथ जैसा कि एस. के. चटर्जी ने संकेत दिया है उसने पश्चिमी पंजाब की बोली के माध्यम से जिसे अल-बिरूनी ने सीख लिया होगा या फ़ारसी के माध्यम से शास्त्रीय संबंध स्थापित किया होगा जिसे कुछ भारतीयों ने सीख लिया होगा।
              महिलाओं और पुरुषों ने कार्य की तलाश में प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के लिए व्यापारियों सैनिकों पुरोहितों और तीर्थयात्रियों के रूप में या फिर साहस की भावना से प्रेरित होकर यात्राएँ की हैं। वे जो किसी नए स्थान पर आते हैं अथवा बस जाते हैं निश्चित रूप से एक ऐसी दुनिया को समक्ष पाते हैं जो भूदृश्य या भौतिक परिवेश के संदर्भ में और साथ ही लोगों की प्रथाओं भाषाओं आस्था तथा व्यवहार में भिन्न होती है। इनमें से कुछ इन भिन्नताओं के अनुरूप ढल जाते हैं और अन्य जो कुछ हद तक विशिष्ट होते हैं इन्हें ध्यानपूर्वक अपने वृत्तांतों में लिख लेते हैं जिनमें असामान्य तथा उल्लेखनीय बातों को अधिक महत्व दिया जाता है।
             दुर्भाग्य से हमारे पास महिलाओं द्वारा छोड़े गए वृत्तांत लगभग न के बराबर हैं हालाँकि हम यह जानते हैं कि वे भी यात्राएँ करती थीं। सुरक्षित मिले वृत्तांत अपनी विषयवस्तु के संदर्भ में अलग-अलग प्रकार के होते हैं। कुछ दरबार की गतिविधियों से संबंधित होते हैं जबकि अन्य धार्मिक विषयों या स्थापत्य के तत्वों और स्मारकों पर केंद्रित होते हैं। उदाहरण के लिए पंद्रहवीं शताब्दी में विजयनगर शहर के सबसे महत्वपूर्ण विवरणों में से एक हेरात से आए एक राजनयिक अब्दुर रज्जाक समरकंदी से प्राप्त होता है। कई बार यात्री सुदूर क्षेत्रों में नहीं जाते हैं। उदाहरण के लिए मुगल साम्राज्य  में प्रशासनिक अधिकारी कभी-कभी साम्राज्य के भीतर ही भ्रमण करते थे और अपनी टिप्पणियाँ दर्ज करते थे। इनमें से कुछ अपने ही देश की लोकप्रिय प्रथाओं तथा जन-वार्ताओं और परंपराओं को समझना चाहते थे।
          हम यह देखेंगे कि उपमहाद्वीप में आए यात्रियों द्वारा दिए गए सामाजिक जीवन के विवरणों के अधययन से किस प्रकार हम अपने अतीत के विषय में ज्ञान बढ़ा सकते हैं। इसके लिए हम तीन व्यक्तियों के वृत्तांतों पर ध्यान देंगे: अल-बिरूनी जो ग्यारहवीं शताब्दी में उज्बेकिस्तान आया था इब्नबतूता ;चौदहवीं शताब्दी मोरक्को से तथा फांसीसी यात्री फांस्वा बर्नियर ;सत्रहवीं शताब्दी।

          ख्व़ारिज्म से पंजाब तक

         अल-बिरूनी का जन्म आधुनिक उज्बेकिस्तान में स्थित ख्व़ारिज्म में सन्‌ 973 में हुआ था। ख्व़ारिज्म शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र था और अल-बिरूनी ने उस समय उपलब्ध सबसे अच्छी शिक्षा प्राप्त की थी। वह कई भाषाओं का ज्ञाता था जिनमें सीरियाई फारसी हिब्रू तथा संस्कृत शामिल हैं। हालाँकि वह यूनानी भाषा का जानकार नहीं था पर फिर भी वह प्लेटो तथा अन्य यूनानी दार्शनिकों के कार्यों से पूरी तरह परिचित था जिन्हें उसने अरबी अनुवादों के माध्यम से पढ़ा था। सन्‌ 1017 ई- में ख्व़ारिज्म पर आक्रमण के पश्चात सुल्तान महमूद यहाँ के कई विद्वानों तथा कवियों को अपने साथ अपनी राजधानी गजनी ले गया। अल-बिरूनी भी उनमें से एक था। वह बंधक के रूप में ग्ज़ानी आया था पर धीरे-धीरे उसे यह शहर पसंद आने लगा और सत्तर वर्ष की आयु में अपनी मृत्यु तक उसने अपना बाकी जीवन यहीं बिताया। ग़जनी में ही अल-बिरूनी की भारत के प्रति रुचि विकसित हुई। यह कोई असामान्य बात नहीं थी। आठवीं शताब्दी से ही संस्कृत में रचित खगोल विज्ञान गणित और चिकित्सा संबंधी कार्यों का अरबी भाषा में अनुवाद होने लगा था। पंजाब के ग़जनवी साम्राज्य का हिस्सा बन जाने के बाद स्थानीय लोगों से हुए संपर्कों ने आपसी विश्वास और समझ का वातावरण बनाने में मदद की। अल-बिरूनी ने ब्राह्मण पुरोहितों तथा विद्वानों के साथ कई वर्ष बिताए और संस्कृत धर्म तथा दर्शन का ज्ञान प्राप्त किया। हालाँकि उसका यात्रा-कार्यक्रम स्पष्ट नहीं है फिर भी प्रतीत होता है कि उसने पंजाब और उत्तर भारत के कई हिस्सों की यात्रा की थी। उसके लिखने के समय यात्रा वृत्तांत अरबी साहित्य का एक मान्य हिस्सा बन चुके थे। ये वृत्तांत पश्चिम में सहारा रेगिस्तान से लेकर उत्तर में वोल्गा नदी तक फैले क्षेत्रों से संबंधित थे। इसलिए हालाँकि 1500 ई- से पहले भारत में अल-बिरूनी को कुछ ही लोगों ने पढ़ा होगा भारत से बाहर कई अन्य लोग संभवत: ऐसा कर चुके हैं।
               अरबी में लिखी गई अल-बिरूनी की कृति ‘किताब-उल-हिन्द’ की भाषा सरल और स्पष्ट है। यह एक विस्तृत ग्रंथ है जो धर्म और दर्शनत्योहारों खगोल-विज्ञान कीमिया रीति-रिवाजों तथा प्रथाओं सामाजिक जीवन भार-तौल तथा मापन विधियों मूर्तिकला कानून मापतंत्र विज्ञान आदि विषयों के आधार पर अस्सी अधयायों में विभाजित है। सामान्यत: ;हालाँकि हमेशा नहीं अल-बिरूनी ने प्रत्येक अधयाय में एक विशिष्ट शैली का प्रयोग किया जिसमें आरंभ में एक प्रश्न होता था फिर संस्कृतवादी परंपराओं पर आधारित वर्णन और अंत में अन्य संस्कृतियों के साथ एक तुलना। आज के कुछ विद्वानों का तर्क है कि इस लगभग ज्यामितीय संरचना जो अपनी स्पष्टता तथा पूर्वानुमेयता के लिए उल्लेखनीय है का एक मुख्य कारण अल-बिरूनी का गणित की ओर झुकाव था। अल-बिरूनी जिसने लेखन में भी अरबी भाषा का प्रयोग किया था ने संभवत: अपनी कृतियाँ उपमहाद्वीप के सीमांत क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए लिखी थीं।
                वह संस्कृत पाली तथा प्राकृत ग्रंथों के अरबी भाषा में अनुवादों तथा रूपांतरणों से परिचित था-इनमें दंतकथाओं से लेकर खगोल-विज्ञान और चिकित्सा संबंधी कृतियाँ सभी शामिल थीं। पर साथ ही इन ग्रंथों की लेखन-सामग्री शैली के विषय में उसका दृष्टिकोण आलोचनात्मक था और निश्चित रूप से वह उनमें सुधार करना चाहता था।

                इब्नबतूता का रिह्‌ला

            विश्व-यात्री इब्नबतूता द्वारा अरबी भाषा में लिखा गया उसका यात्रा वृत्तांत जिसे रिह्‌ला कहा जाता है चौदहवीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के विषय में बहुत ही प्रचुर तथा रोचक जानकारियाँ देता है। मोरक्को के इस यात्री का जन्म तैंजियर के सबसे सम्मानित तथा शिक्षित परिवारों में से एक जो इस्लामी कानून अथवा शरियत पर अपनी विशेषज्ञता के लिए प्रसिद्ध था में हुआ था। अपने परिवार की परंपरा के अनुसार इब्नबतूता ने कम उम्र में ही साहित्यिक तथा शास्त्ररूढ़ शिक्षा हासिल की। अपनी श्रेणी के अन्य सदस्यों के विपरीत इब्नबतूता पुस्तकों के स्थान पर यात्राओं से अर्जित अनुभव को ज्ञान का अधिक महत्वपूर्ण स्रोत मानता था। उसे यात्राएँ करने का बहुत शौक था और वह नए-नए देशों और लोगों के विषय में जानने के लिए दूर-दूर के क्षेत्रों तक गया। 1332-33 में भारत के लिए प्रस्थान करने से पहले वह मक्का की तीर्थ यात्राएँ और सीरिया इराक फारस यमन ओमान तथा पूर्वी आफ्रीका के कई तटीय व्यापारिक बंदरगाहों की यात्राएँ कर चुका था। मध्य एशिया के रास्ते होकर इब्नबतूता सन्‌ 1333 में स्थलमार्ग से सिधं पहुंचा। उसने दिल्ली के सुल्तान महुम्मद बिन तुगलक के बारे में सुना था और कला और साहित्य के एक दयाशील संरक्षक के रूप में उसकी ख्याति से आकर्षित हो बतूता ने मुल्तान और उच्छ के रास्ते होकर दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। सुल्तान ने विद्वता से प्रभावित कर उसे दिल्ली का  फाजी या न्यायाधीश नियुक्त कर दिया था।
                      वह इस पद पर कई वर्षों तक रहा पर फिर उसने विश्वास खो दिया और उसे कारागार में केद कर दिया गया। बाद में सुल्तान और उसके बीच की गलतफहमी दूर होने के बाद उसे राजकीय सेवा में पुनर्स्थापित किया गया और 1342 ई- में मंगोल शासक के पास सुल्तान के दूत के रूप में चीन जाने का आदेश दिया गया। अपनी नयी नियुक्ति के साथ इब्न बतूता मध्य भारत के रास्ते मालाबार तट की ओर बढ़ा। मालाबार से वह मालद्वीप गया जहाँ वह अठारह महीनों तक व्फ़ााजी के पद पर रहा पर अंतत: उसने श्रीलंका जाने का निश्चय किया। बाद में एक बार फिर वह मालाबार तट तथा मालद्वीप गया और चीन जाने के अपने कार्य को दोबारा शुरू करने से पहले वह बंगाल तथा असम भी गया। वह जहाज से सुमात्रा गया और सुमात्रा से एक अन्य जहाज से चीनी बंदरगाह नगर जायतुन ;जो आज क्वानझू के नाम से जाना जाता है गया। उसने व्यापक रूप से चीन में यात्रा की और वह बीजिंग तक गया लेकिन वहाँ लंबे समय तक नहीं ठहरा। 1347 में उसने वापस अपने घर जाने का निश्चय किया। चीन के विषय में उसके वृत्तांत की तुलना मार्कोपोलो जिसने तेरहवीं शताब्दी के अंत में वेनिस से चलकर चीन ;और भारत की भी की यात्रा की थी के वृत्तांत से की जाती है।
          इब्न बतूता ने नवीन संस्कृतियों लोगों आस्थाओं मान्यताओं आदि के विषय में अपने अभिमत को सावधानी तथा कुशलतापूर्वक दर्ज किया। हमें यह ध्यान में रखना होगा कि यह विश्व-यात्री चौदहवीं शताब्दी में यात्राएँ कर रहा था जब आज की तुलना में यात्रा करना अधिक कठिन तथा जोखिम भरा कार्य था। इब्न बतूता के अनुसार उसे मुल्तान से दिल्ली की यात्रा में चालीस और सिंध से दिल्ली की यात्रा में लगभग पचास दिन का समय लगा था। दौलताबाद से दिल्ली की दूरी चालीस जबकि ग्वालियर से दिल्ली की दूरी दस दिन में तय की जा सकती थी। यात्रा करना अधिक असुरक्षित भी था इब्न बतूता ने कई बार डाकुओं के समूहों द्वारा किए गए आक्रमण झेले थे। यहाँ तक कि वह अपने साथियों के साथ कारवाँ में चलना पसंद करता था पर इससे भी राजमार्गों के लुटेरों को रोका नहीं जा सका। मुल्तान से दिल्ली की यात्रा के दौरान उसके कारवाँ पर आक्रमण हुआ और उसके कई साथी यात्रियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा: जो जीवित बचे जिनमें इब्नबतूता भी शामिल था बुरी तरह से घायल हो गए थे।

                जिज्ञासाओं का उपभोग

                जैसाकि हमने देखा है कि इब्न बतूता एक हठीला यात्री था जिसने उत्तर पश्चिमी अफ़्रीका  में अपने निवास स्थान मोरक्को वापस जाने से पूर्व कई वर्ष उत्तरी अ़फीका पश्चिम एशिया मध्य एशिया के कुछ भाग हो सकता है वह रूस भी गया हो भारतीय उपमहाद्वीप तथा चीन की यात्रा की थी। जब वह वापस आया तो स्थानीय शासक ने निर्देश दिए कि उसकी कहानियों को दर्ज किया जाए।

              फांस्वा बर्नियर : एक विशिष्ट चिकित्सक

             लगभग 1500 ई- में भारत में पुर्तगालियों के आगमन के पश्चात उनमें से कई लोगों ने भारतीय सामाजिक रीति-रिवाजों तथा धार्मिक प्रथाओं के विषय में विस्तृत वृत्तांत लिखे। उनमें से कुछ चुनिंदा लोगों जैसे जेसुइट रॉबर्टो नोबिली ने तो भारतीय ग्रंथों को यूरोपीय भाषाओं में अनुवादित भी किया। सबसे प्रसिद्ध यूरोपीय लेखकों में एक नाम दुआर्ते बरबोसा का है जिसने दक्षिण भारत में व्यापार और समाज का एक विस्तृत विवरण लिखा। कालान्तर में 1600 ई- के बाद भारत में आने वाले डच अंग्रेज तथा फ़्रांसीसी यात्रियों की संख्या बढ़ने लगी थी। इनमें एक प्रसिद्ध नाम फ़्रांसीसी जौहरी ज्यौं-बैप्टिस्ट तैवर्नियर का था जिसने कम से कम छह बार भारत की यात्रा की। वह विशेष रूप से भारत की व्यापारिक स्थितियों से बहुत प्रभावित था और उसने भारत की तुलना ईरान और ऑटोमन साम्राज्य से की। इनमें से कई यात्री जैसे इतालवी चिकित्सक मनूकी कभी भी यूरोप वापस नहीं गए और भारत में ही बस गए। फ़्रांस का रहने वाला फ़्रांस्वा बर्नियर एक चिकित्सक राजनीतिक दार्शनिक तथा एक इतिहासकार था। कई और लोगों की तरह ही वह मुगल साम्राज्य में अवसरों की तलाश में आया था। वह 1656 से 1668 तक भारत में बारह वर्ष तक रहा और मुगल दरबार से नजदीकी रूप से जुड़ा रहा-पहले सम्राट शाहजहाँ के ज्येष्ठ पुत्र दारा शिकोह के चिकित्सक के रूप में और बाद में मुगल दरबार के एक आर्मीनियाई अमीर दानिशमंद ख्ना के साथ एक बुद्धिजीवी तथा वैज्ञानिक के रूप में।

                      पूर्व और पश्चिम की तुलना

                बर्नियर ने देश के कई भागों की यात्रा की और जो देखा उसके विषय में विवरण लिखे। वह सामान्यत: भारत में जो देखता था उसकी तुलना यूरोपीय स्थिति से करता था। उसने अपनी प्रमुख कृति को फ़्रांस के शासक लुई षप्ट को समर्पित किया था और उसके कई अन्य कार्य प्रभावशाली आधिकारियों और मंत्रियों को पत्रों के रूप में लिखे गए थे। लगभग प्रत्येक दृष्टांत में बर्नियर ने भारत की स्थिति को यूरोप में हुए विकास की तुलना में दयनीय बताया। जैसाकि हम देखेंगे उसका आकलन हमेशा सटीक नहीं था फिर भी जब उसके कार्य प्रकाशित हुए तो बर्नियर के वृत्तांत अत्यधिक प्रसिद्ध हुए। बर्नियर के कार्य फ़्रांस में 1670-71 में प्रकाशित हुए थे और अगले पाँच वर्षों के भीतर ही अंग्रेजी डच जर्मन तथा इतालवी भाषाओं में इनका अनुवाद हो गया। 1670 और 1725 के बीच उसका वृत्तंात फ़्रांसीसी में आठ बार पुनर्मुद्रित हो चुका था और 1684 तक यह तीन बार अंग्रेजी में पुनर्मुद्रित हुआ था। यह अरबी और फ़ारसी वृत्तांतों जिनका प्रसार हस्तलिपियों के रूप में होता था और जो 1800 से पहले सामान्यत: प्रकाशित नहीं होते थे के पूरी तरह विपरीत था।

           एक अपरिचित संसार की समझ : अल-बिरूनी तथा संस्कृतवादी परंपरा

            जैसा कि हमने देखा है यात्रियों ने उपमहाद्वीप में जो भी देखा,सामान्यत: उसकी तुलना उन्होंने उन प्रथाओं से की जिनसे वे परिचित थे। प्रत्येक यात्री ने जो देखा उसे समझने के लिए एक अलग विधि अपनाई। उदाहरण के लिए अल-बिरूनी अपने लिए निर्धार्रित उद्देश्य में निहित समस्याओं से परिचित था। उसने कई अवरोधो की चर्चा की है जो उसके अनुसार समझ में बाधक थे। इनमें से पहला अवरोध भाषा थी। उसके अनुसार संस्कृत अरबी और फारसी से इतनी भिन्न थी कि विचारों और सिद्धांतों को एक भाषा से दूसरी में अनुवादित करना आसान नहीं था। उसके द्वारा वर्णित दूसरा अवरोध धार्मिक अवस्था और प्रथा में भिन्नता थी। उसके अनुसार तीसरा अवरोध अभिमान था। यहाँ रोचक बात यह है कि इन समस्याओं की जानकारी होने पर भी अल-बिरूनी लगभग पूरी तरह से ब्राह्मणों द्वारा रचित कृतियों पर आश्रित रहा। उसने भारतीय समाज को समझने के लिए अकसर वेदों पुराणों भगवद्गीता पतंजलि की कॄतियों तथा मनुस्मृति आदि से अंश उद्धृत किए।

                अल-बिरूनी का जाति व्यवस्था का विवरण

             अल-बिरूनी ने अन्य समुदायों में प्रतिरूपों की खोज के माध्यम से जाति व्यवस्था को समझने और व्याख्या करने का प्रयास किया। उसने लिखा कि प्राचीन फारस में चार सामाजिक वर्गों को मान्यता थी: घुड़सवार और शासक वर्ग भिक्षु आनुष्ठानिक पुरोहित तथा चिकित्सक खगोल शास्त्री तथा अन्य वैज्ञानिक और अंत में कृषक तथा शिल्पकार। दूसरे शब्दों में वह यह दिखाना चाहता था कि ये सामाजिक वर्ग केवल भारत तक ही सीमित नहीं थे। इसके साथ ही उसने यह दर्शाया कि इस्लाम में सभी लोगों को समान माना जाता था और उनमें भिन्नताएँ केवल धार्मिकता के पालन में थीं। जाति व्यवस्था के संबंध में ब्राह्मणवादी व्याख्या को मानने के बावजूद अल-बिरूनी ने अपवित्रता की मान्यता को अस्वीकार किया। उसने लिखा कि हर वह वस्तु जो अपवित्र हो जाती है अपनी पवित्रता की मूल स्थिति को पुन: प्राप्त करने का प्रयास करती है और सफल होती है। सूर्य हवा को स्वच्छ करता है और समुद्र में नमक पानी को नहीं होता तो पृथ्वी पर जीवन असंभव होता।
उसके अनुसार जाति व्यवस्था में सन्निहित अपवित्रता की अवधारणा प्रकृति के नियमों के विरुद्ध थी। जैसाकि हमने देखा है जाति व्यवस्था के विषय में अल-बिरूनी का विवरण उसके नियामक संस्कृत ग्रंथों के अधययन से पूरी तरह से गहनता से प्रभावित था। इन ग्रंथों में ब्राह्मणों के दृष्टिकोण से जाति व्यवस्था को संचालित करने वाले नियमों का प्रतिपादन किया गया था। लेकिन वास्तविक जीवन में यह व्यवस्था इतनी भी कड़ी नहीं थी। उदाहरण के लिए अंत्यज ;शाब्दिक रूप में व्यवस्था से परेद्ध नामक श्रेणियों से सामान्यतया यह अपेक्षा की जाती थी कि वे किसानों और जमींदारों के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध करें। दूसरे शब्दों में हालाँकि ये अक्सर सामाजिक प्रताड़ना का शिकार होते थे फिर भी इन्हें आर्र्थिक तंत्र में शामिल किया जाता था।

                   इब्न बतूता तथा अनजाने को जानने की उत्कंठा

               जब चौदहवीं शताब्दी में इब्न बतूता दिल्ली आया था उस समय तक पूरा उपमहाद्वीप एक ऐसे वैश्विक संचार तंत्र का हिस्सा बन चुका था जो पूर्व में चीन से लेकर पश्चिम में उत्तर-पश्चिमी अफ़्रीका तथा यूरोप तक फैला हुआ था। जैसाकि हमने देखा है इब्नबतूता ने स्वयं इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर यात्राएँ की पवित्र पूजास्थलों को देखा विद्वान लोगों तथा शासकों के साथ समय बिताया कई बार काजी के पद पर रहा तथा शहरी केन्द्रों की विश्ववादी संस्कृति का उपभोग किया जहाँ अरबी फारसी तुर्की तथा अन्य भाषाएँ बोलने वाले लोग विचारों सूचनाओं तथा उपाख्यानों का आदान-प्रदान करते थे। इनमें अपनी धर्मनिष्ठता के लिए प्रसिद्ध लोगों की ऐसे राजाओं जो निर्दयी तथा दयावान दोनों हो सकते थे की तथा समान्य पुरुषों और महिलाओं तथा उनके जीवन की कहानियाँ सम्मिलित थीं जो भी कुछ अपरिचित था उसे विशेष रूप से रेखांकित किया जाता था। ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता था कि श्रोता अथवा पाठक सुदूर पर सुगम्य देशों के वृत्तांतों से पूरी तरह प्रभावित हो सकें।

                  नारियल तथा पान

              इब्नबतूता की चित्रण की विजयों के कुछ बेहतरीन उदाहरण उन तरीकों में मिलते हैं जिनसे वह नारियल और पान दो ऐसी वानस्पतिक उपज जिनसे उसके पाठक पूरी तरह से अपरिचित थे का वर्णन करता है।

                इब्नबतूता और भारतीय शहर
       
            इब्नबतूता ने उपमहाद्वीप के शहरों को उन लोगों के लिए व्यापक अवसरों से भरपूर पाया जिनके पास आवश्यक इच्छा साधन तथा कौशल था। ये शहर घनी आबादी वाले तथा समृद्ध थे सिवाय कभी-कभी युद्धों तथा अभियानों से होने वाले विधवंस के। इब्नबतूता के वृत्तांत से ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकांश शहरों में भीड़-भाड़ वाली सड़कें तथा चमक-दमक वाले और रंगीन बाजार थे जो विविध प्रकार की वस्तुओं से भरे रहते थे। इब्नबतूता दिल्ली को एक बड़ा शहर विशाल आबादी वाला तथा भारत में सबसे बड़ा बताता है। दौलताबाद ;महाराष्ट्र में भी कम नहीं था और आकार में दिल्ली को चुनौती देता था। बाजार मात्र आर्थिक विनिमय के स्थान ही नहीं थे बल्कि ये सामाजिक तथा आथिक गतिविधयों के केंद्र भी थे। अधिकांश बाजारों में एक मस्जिद तथा एक मं दिर होता था और उनमें से कम से कम कुछ में तो नर्तकों संगीतकारों तथा गायकों के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए स्थान भी चिन्हित थे।
               हालाँकि इब्नबतूता की शहरों की समृद्धि का वर्णन करने में अधिक रुचि नहीं थी इतिहासकारों ने उसके वृत्तांत का प्रयोग यह तर्क देने में किया है कि शहर अपनी सम्पत्ति का एक बड़ा भाग गाँवों से अधिशेष के अधिग्रहण से प्राप्त करते थे। इब्नबतूता ने पाया कि भारतीय कृषि के इतना अधिक उत्पादनकारी होने का कारण मिट्टी का उपजाऊ…पन था जो किसानों के लिए वर्ष में दो फसलें उगाना संभव करता था। उसने यह भी ध्यान दिया कि उपमहाद्धीप व्यापार तथा वाणिज्य के अंतर एशियाई तंत्रों से भली-भाँति जुड़ा हुआ था। भारतीय माल की मध्य तथा दक्षिण-पूर्व एशिया दोनों में बहुत माँग थी जिससे शिल्पकारों तथा व्यापारियों को भारी मुनाफ़ा होता था। भारतीय कपड़ों विशेषरूप से सूती कपड़ा महीन मलमल रेशम जरी तथा साटन की अत्यधिक माँग थी। इब्न बतूता हमें बताता है कि महीन मलमल की कई किस्में इतनी अधिक मँहगी थीं कि उन्हें अमीर वर्ग के तथा बहुत धनाढ्‌य लोग ही पहन सकते थे।

               संचार की एक अनूठी प्रणाली

            व्यापारियों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य विशेष उपाय करता था। लगभग सभी व्यापारिक मार्गों पर सराय तथा विश्राम गृह स्थापित किए गए थे। इब्न बतूता डाक प्रणाली की कार्यकुशलता देखकर चकित हुआ। इससे व्यापारियों के लिए न केवल लंबी दूरी तक सूचना भेजना और उधार प्रेषित करना संभव हुआ बल्कि अल्प सूचना पर माल भेजना भी। डाक प्रणाली इतनी कुशल थी कि जहाँ ंसंध से दिल्ली की यात्रा में पचास दिन लगते थे वहीं गुप्तचरों की खबरें सुलतान तक इस डाक व्यवस्था के माध्यम से मात्र पाँच दिनों में पहुँच जाती थीं।

                बर्नियर तथा अविकसित पूर्व

            जहाँ इब्न बतूता ने हर उस चीज का वर्णन करने का निश्चय किया जिसने उसे अपने अनूठेपन के कारण प्रभावित और उत्सुक किया वहीं बर्नियर  एक भिन्न बुद्धिजीवी परंपरा से संबंधित था। उसने भारत में जो भी देखा वह उसकी सामान्य रूप से यूरोप और विशेष रूप से फ़्रांस में व्याप्त स्थितियों से तुलना तथा भिन्नता को उजागर करने के प्रति अधिक चिंतित था विशेष रूप से वे स्थितियाँ जिन्हें उसने अवसादकारी पाया। उसका विचार नीति-निर्माताओं तथा बुद्धिजीवी वर्ग को प्रभावित करने का था ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे ऐसे निर्णय ले सकें जिन्हें वह ‘‘सही’’ मानता था। बर्नियर  के ग्रंथ टै्रवल्स इन द मुगल एम्पायर अपने गहन प्रेक्षण आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि तथा गहन ¯चतन के लिए उल्लेखनीय है। उसके वृत्तांत में की गई
                चर्चाओं में मुगलो के इतिहास को एक प्रकार के वैश्विक ढाँचे में स्थापित करने का प्रयास किया गया है। वह निरंतर मुगलकालीन भारत की तुलना तत्कालीन यूरोप से करता रहा सामान्यतया यूरोप की श्रेष्ठता को रेखांकित करते हुए। उसका भारत का चित्रण द्वि-विपरीतता के नमूने पर आधारित है जहाँ भारत को यूरोप के प्रतिलोम के रूप में दिखाया गया है या फिर यूरोप का ‘‘विपरीत’’ जैसा कि कुछ इतिहासकार परिभाषित करते हैं। उसने जो भिन्नताएँ महसूस कीं उन्हें भी पदानुक्रम के अनुसार क्रमबद्ध किया जिससे भारत पश्चिमी दुनिया को निम्न कोटि का प्रतीत हो।

                भूमि स्वामित्व का प्रश्न

            बर्नियर  के अनुसार भारत और यूरोप के बीच मूल भिन्नताओं में से एक भारत में निजी भूस्वामित्व का अभाव था। उसका निजी स्वामित्व के गुणों में दृढ़ विश्वास था और उसने भूमि पर राजकीय स्वामित्व को राज्य तथा उसके निवासियों दोनों के लिए हानिकारक माना। उसे यह लगा कि मुगल साम्राज्य में सम्राट सारी भूमि का स्वामी था जो इसे अपने अमीरों के बीच बाँटता था और इसके अर्थव्यवस्था और समाज के लिए अनर्थकारी परिणाम होते थे। इस प्रकार का अवबोधन बर्नियर  तक ही सीमित नहीं था बल्कि सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी के अधिकांश यात्रियों के वृत्तांतों में मिलता है। राजकीय भूस्वामित्व के कारण बर्नियर  तर्क देता है भूधारक अपने बच्चों को भूमि नहीं दे सकते थे। इसलिए वे उत्पादन के स्तर को बनाए रखने और उसमें बढ़ोत्तरी के लिए दूरगामी निवेश के प्रति उदासीन थे।
                इस प्रकार निजी भूस्वामित्व के अभाव ने ‘‘बेहतर’’ भूधारकों के वर्ग के उदय ;जैसा कि पश्चिमी यूरोप में को रोका जो भूमि के रखरखाव व बेहतरी के प्रति सजग रहते। इसी के चलते कृषि का समान रूप से विनाश किसानों का असीम उत्पीड़न तथा समाज के सभी वर्गों के जीवन स्तर में अनवरत पतन की स्थिति उत्पन्न हुई है सिवाय शासक वर्ग के। इसी के विस्तार के रूप में बर्नियर  भारतीय समाज को दरिद्र लोगों के समरूप जनसमूह से बना वर्णित करता है जो एक बहुत अमीर तथा शक्तिशाली शासक वर्ग जो अल्पसंख्यक होते हैं के द्वारा अधिन बनाया जाता है। गरीबों में सबसे गरीब तथा अमीरों में सबसे अमीर व्यक्ति के बीच नाममात्र को भी कोई सामाजिक समूह या वर्ग नहीं था। बर्नियर  बहुत विश्वास से कहता है भारत में मध्य की स्थिति के लोग नहीं है। तो बर्नियर  ने मुगल साम्राज्य को इस रूप में देखा इसका राजा भिखारियों और क्रुर लोगों का राजा था इसके शहर और नगर विनष्ट तथा खराब हवा से दूषित थे और इसके खेत झाड़ीदार तथा घातक दलदल से भरे हुए थे और इसका मात्र एक ही कारण था राजकीय भूस्वामित्व। आश्चर्य की बात यह है कि एक भी सरकारी मुगल दस्तावेज यह इंगित नहीं करता कि राज्य ही भूमि का एकमात्र स्वामी था। उदाहरण के लिए सोलहवीं शताब्दी में अकबर के काल का सरकारी इतिहासकार अबुल  फजल भूम राजस्व को ‘राजत्व का पारिश्रमिक’ बताता है जो राजा द्वारा अपनी प्रजा को सुरक्षा प्रदान करने के बदले की गई माँग प्रतीत होती है न कि अपने स्वामित्व वाली भूमि पर लगान। ऐसा संभव है कि यूरोपीय यात्री ऐसी माँगों को लगान मानते थे क्योंकि भूमि राजस्व की माँग अकसर बहुत अधिक होती थी। लेकिन असल में यह न तो लगान था न ही भूमिकर बल्कि उपज पर लगने वाला कर था।
                बर्नियर  के विवरणों ने अठारहवीं शताब्दी से पश्चिमी विचारकों को प्रभावित किया। उदाहरण के लिए फांसीसी दार्शनिक मॉन्टेस्क्यू ने उसके वृत्तांत का प्रयोग प्राच्य निरंकुशवाद के सिद्धांत को विकसित करने में किया जिसके अनुसार एशिया ;प्राच्य अथवा पूर्व में शासक अपनी प्रजा के ई…पर निर्बाध प्रभुत्व का उपभोग करते थे जिसे दासता और गरीबी की स्थितियों में रखा जाता था। इस तर्क का आधार यह था कि सारी भूमि पर राजा का स्वामित्व होता था तथा निजी सम्पत्ति अस्तित्व में नहीं थी। इस दृष्टिकोण के अनुसार राजा और उसके अमीर वर्ग को छोड़ प्रत्येक व्यक्ति मुश्किल से गुजर-बसर कर पाता था। उन्नीसवीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स ने इस विचार को एशियाई उत्पादन शैली के सिद्धांत के रूप में और आगे बढ़ाया।
              उसने यह तर्क दिया कि भारत ;तथा अन्य एशियाई देशों में उपनिवेशवाद से पहले अधििशेष का अधििग्रहण राज्य द्वारा होता था। इससे एक ऐसे समाज का उद्भव हुआ जो बड़ी संख्या में स्वायत्त तथा ;आंतरिक रूप सेद्ध समतावादी ग्रामीण समुदायों से बना था। इन ग्रामीण समुदायों पर राजकीय दरबार का नियंत्रण होता था और जब तक अधिशेष की आपूर्ति निर्विघ्न रूप से जारी रहती थी इनकी स्वायत्तता का सम्मान किया जाता था। यह एक निष्क्रय प्रणाली मानी जाती थी। परंतु  ग्रामीण समाज का यह चित्रण सच्चाई से बहुत दूर था। बल्कि सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में ग्रामीण समाज में चारित्रिक रूप से बड़े पैमाने पर सामाजिक और आर्थिक विभेद था। एक ओर बड़े जमींदार थे जो भूमि पर उच्चाधिकारों का उपभोग करते थे और दूसरी ओर अस्पृश्य भूमिविहीन श्रमिक ;बलाहार। इन दोनों के बीच में बड़ा किसान था जो किराए के श्रम का प्रयोग करता था और माल उत्पादन में संलग्न रहता था साथ ही अपेक्षाकॄत छोटे किसान भी थे जो मुश्किल से ही निर्वहन लायक उत्पादन कर पाते थे।

                 एक अधिक जटिल सामाजिक सच्चाई

                 हालाँकि मुगल राज्य को निरंकुश रूप देने की तन्मयता स्पष्ट है लेकिन उसके विवरण कभी-कभी एक अधिक जटिल सामाजिक सच्चाई की ओर इशारा करते हैं। उदाहरण के लिए वह कहता है कि शिल्पकारों के पास अपने उत्पादों को बेहतर बनाने का कोई प्रोत्साहन नहीं था क्योंकि मुनाफे का अधिग्रहण राज्य द्वारा कर लिया जाता था। इसलिए उत्पादन हर जगह पतनोन्मुख था। साथ ही वह यह भी मानता है कि पूरे विश्व से बड़ी मात्रा में बहुमूल्य धातुएँ भारत में आती थीं क्योंकि उत्पादों का सोने और चाँदी के बदले निर्यात होता था। वह एक समृद्ध व्यापारिक समुदाय जो लंबी दूरी के विनिमय से संलग्न था के अस्तित्व को भी रेखांकित करता है। सत्रहवीं शताब्दी में जनसंख्या का लगभग पंद्रह प्रतिशत भाग नगरों में रहता था। यह औसतन उसी समय पश्चिमी यूरोप की नगरीय जनसंख्या के अनुपात से अधिक था। इतने पर भी बर्नियर मुगलकालीन शहरों को शिविर नगर कहता है जिससे उसका आशय उन नगरों से था जो अपने अस्तित्व और बने रहने के लिए राजकीय शिविर पर निर्भर थे। उसका विश्वास था कि ये राजकीय दरबार के आगमन के साथ अस्तित्व में आते थे और इसके कहीं और चले जाने के बाद तेजी से पतनोन्मुख हो जाते थे। उसने यह भी सुझाया कि इनकी सामाजिक और आर्थिक नीव व्यवहार्य नहीं होती थी और ये राजकीय प्रश्रय पर आश्रित रहते थे।
भूस्वामित्व के प्रश्न की तरह ही बर्नियर एक अतिसरलीकृत चित्रण प्रस्तुत कर रहा था। वास्तव में सभी प्रकार के नगर अस्तित्व में थे: उत्पादन केंद्र व्यापारिक नगर बंदरगाह नगर धार्मिक केंद्र तीर्थ स्थान आदि। इनका अस्तित्व समृद्ध व्यापारिक समुदायों तथा व्यवसायिक वर्गों के अस्तित्व का सूचक है। व्यापारी अक्सर मजबूत सामुदायिक अथवा बंधुत्व के संबंधों से जुड़े होते थे और अपनी जाति तथा व्यावसायिक संस्थाओं के माध्यम से संगठित रहते थे। पश्चिमी भारत में ऐसे समूहों को महाजन कहा जाता था और उनके मुखिया को सेठ। अहमदाबाद जैसे शहरी केंद्रों में सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय के मुखिया द्वारा होता था जिसे नगर सेठ कहा जाता था। अन्य शहरी समूहों में व्यावसायिक वर्ग जैसे चिकित्सक ;हकीम अथवा वैद्य अधयापक ;पंडित या मुल्ला अधिवक्ता ;वकील चित्रकार वास्तुविद संगीतकार सुलेखक आदि सम्मिलित थे। जहाँ कई राजकीय प्रश्रय पर आश्रित थे कई अन्य संरक्षकों या भीड़भाड़  वाले बाजार में आम लोगों की सेवा द्वारा जीवनयापन करते थे।

                 महिलाएँ : दासियाँ सती तथा श्रमिक

               जिन यात्रियों ने अपने लिखित वृत्तांत छोड़े वे सामान्यतया पुरुष थे जिन्हें उपमहाद्वीप में महिलाओं की स्थिति का विषय रुचिकर और कभी-कभी जिज्ञासापूर्ण लगता था। कभी-कभी वे सामाजिक पक्षपात को सामान्य परिस्थिति मान लेते थे। उदाहरण के लिए बाजारों में दास किसी भी अन्य वस्तु की तरह खुले आम बेचे जाते थे और नियमित रूप से भेंटस्वरूप दिए जाते थे। जब इब्नबतूता सिंध पहुँचा तो उसने सुल्तान मुहम्मद बिन तुग्ल़क के लिए भेंटस्वरूप घोड़े ऊँट तथा दास खरीदे। जब वह मुल्तान पहुँचा तो उसने गवर्नर को किशमिश के बादाम के साथ एक दास और घोड़ा भेंट के रूप में दिए। इब्नबतूता बताता है कि मुहम्मद बिन तुग्ल़ाक नसीरुद्दीन नामक धर्मोपदेशक के प्रवचन से इतना प्रसन्न हुआ कि उसे एक लाख टके ;मुद्रा तथा दो सौ दास दे दिए।
              इब्नबतूता के विवरण से प्रतीत होता है कि दासों में काफी विभेद था। सुल्तान की सेवा में कार्यरत कुछ दासियाँ संगीत और गायन में निपुण थीं और इब्नबतूता सुल्तान की बहन की शादी के अवसर पर उनके प्रदर्शन से खूब आनंदित हुआ। सुल्तान अपने अमीरों पर नजर रखने के लिए दासियों को भी नियुक्त करता था। दासों को सामान्यत: घरेलू श्रम के लिए ही इस्तेमाल किया जाता था और इब्नबतूता ने इनकी सेवाओं को पालकी या डोले में पुरुषों और महिलाओं को ले जाने में विशेष रूप से अपरिहार्य पाया। दासों की कीमत विशेष रूप से उन दासियों की जिनकी आवश्यकता घरेलू श्रम के लिए थी बहुत कम होती थी और अधिकांश परिवार जो उन्हें रख पाने में समर्थ थे कम से कम एक या दो को तो रखते ही थे।
                 सभी समकालीन यूरोपीय यात्रियों तथा लेखकों के लिए महिलाओं से किया जाने वाला बर्ताव अकसर पश्चिमी तथा पूर्वी समाजों के बीच भिन्नता का एक महत्वपूर्ण संकेतक माना जाता था। इसलिए यह आश्चर्यजनक बात नहीं है कि बर्नियर ने सती प्रथा को विस्तृत विवरण के लिए चुना। उसने लिखा कि हालाँकि कुछ महिलाएँ प्रसन्नता से मृत्यु को गले लगा लेती थीं अन्य को मरने के लिए बाध्य किया जाता था। लेकिन महिलाओं का जीवन सती प्रथा के अलावा कई और चीजों के चारों ओर घूमता था। उनका श्रम कृषि तथा कृषि के अलावा होने वाले उत्पादन दोनों में महत्वपूर्ण था। व्यापारिक परिवारों से आने वाली महिलाएँ व्यापारिक गतिविधियों में हिस्सा लेती थीं यहाँ तक कि कभी-कभी वाणिज्यिक विवादों को अदालत के सामने भी ले जाती थीं। अत: यह असंभाव्य लगता है कि महिलाओं को उनके घरों के खास स्थानों तक परिसीमित कर रखा जाता था। (विकी पीडिया)