Sunday 28 December 2014

युद्ध और प्रेम की कविताई

तुम्हारी हँसी मुझे आज़ाद करती है, मुझे पंख देती है, मुझसे मेरा अकेलापन छीन लेती है, नोच देती है मेरी सलाखों को...... (युद्ध और प्रेम की कविताओं के महागायक मिगेल एरनानदेस की पंक्तियां)
मुस्कुराओ मेरी तरफ़, कि मैं जा रहा हूँ
वहाँ, जहाँ हमेशा से हो तुम सब,
जो धान की बालियों और पुलियों से ढँक देते हो हम पर थूकने वालों के मुँह,
जो मेरे साथ खेतों, मचानों, लुहारखाने, भट्ठी में
दिन-ब-दिन नोंच फेंकते हो पसीने के मुकुट।
मैं अपने-आपको मुक्त करता हूँ मन्दिरों से:
मुस्कुराओ मेरी तरफ़
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जैतून चुनने वाले ख़येन के आन्दालूसियो, अभिमानी जैतून चुनने वालो
आत्मा की गहराई से मुझे बताओ
किसने बड़ा किया इन जैतून के पेड़ों को
ख़येन के आन्दालूसियो, न पैसे ने, न मालिक ने और न ही निरा शून्य ने
बल्कि मौन मिट्टी, मेहनत और पसीने ने
शुद्ध पानी और ग्रहों के साथ मिलकर
तुम तीनों ने दी है ख़ूबसूरती इसके घुमावदार तनों को
ख़येन के आन्दालूसियो, अभिमानी जैतून चुनने वालो
आत्मा की गहराई से मुझे बताओे
किसने दूध पिलाया जैतून के पेड़ों को।
न जाने जैतून की कितनी सदियाँ, बँधे हुए हाथ-पाँव
दिन-ब-दिन, रात-दर-रात अपने बोझ तले दबाती हैं तुम्हारी हड्डियों को!
ख़येन के आन्दालूसियो, अभिमानी जैतून चुनने वालो,
मेरी आत्मा पूछती है: किसके, किसके हैं ये जैतून के पेड़?
ख़येन, अपने चन्द्रिका पत्थरों से पूरे आक्रोश में उठो
कि कोई भी गुलाम नहीं रहेगा, न तुम न तुम्हारे जैतून के बागीचे
तेल की पारदर्शिता और उसकी महक के बीच
तुम्हारी मुक्ति है पर्वतों की मुक्ति में ।
(ख़येन स्पेन के आन्दालूसिया क्षेत्र का एक शहर, जैतून के तेल का वैश्विक केन्द्र : रचना 'आह्वान' से साभार)

भारत में एण्टीबायोटिक दवाओं के इस्तेमाल में 62 प्रतिशत बढ़ोतरी

एक ताज़ा अध्ययन के मुताबिक़ भारत दुनिया में रोगाणु-रोधी (एण्टीबायोटिक) दवाओं का सबसे अधिक इस्तेमाल करने वाले देशों में से एक के रूप में उभरकर सामने आया है। 2000-2010 के दशक में भारत में इन दवाओं के इस्तेमाल में 62 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है जबकि इसी अरसे में संसार के लिए यह दर 36 प्रतिशत रही है। भारत में हर व्यक्ति एक साल में रोगाणु-रोधी दवाओं की औसत 11 गोलियाँ खा रहा है; मगर ज़मीनी स्तर पर जो हालात हैं, उन्हें देखकर यह आँकड़ा काफ़ी कम लग रहा है। रोगाणु-रोधी दवाएँ खाने में चीन का नम्बर भी भारत के पीछे आता है। वैसे एक अमेरिकी नागरिक एक साल में रोगाणु-रोधी दवाओं की 22 गोलियाँ खाता है, परन्तु वहाँ कुल आबादी कम होने के कारण कुल खपत भारत और चीन से कम है।
रोगाणु-रोधी दवाओं की खपत में बढ़ोत्तरी मुख्य रूप से इस कारण नहीं हो रही कि लोगों की सेहत-सुविधाओं तक पहुँच पहले से ज़्यादा हो गयी है। अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि इस बढ़ोत्तरी का मुख्य कारण दवाओं का बिना-ज़रूरत तथा ग़ैर-वैज्ञानिक इस्तेमाल है। दरअसल, ये दवाएँ एक ख़ास किस्म के रोगाणुओं – बैक्टीरिया के कारण होने वाली बीमारियों (जैसेकि पेचिश, दस्त के कई मामले, टाइफ़ाइड, चमड़ी, फेफड़ों तथा ख़ून के कई इंफ़ैक्शन आदि) में ही ज़रूरी तथा कारगर होती हैं। मगर सारे इंफ़ैक्शन बैक्टीरिया के कारण नहीं होते, बल्कि आधे से ज़्यादा इंफ़ैक्शन (जैसे आम सर्दी-जुकाम, दस्त के आधे से ज़्यादा मामले, बहुत से बुखार जैसे डेंगू, चिकनगुनिया तथा अन्य अनेक वायरल बुखार आदि) एक अलग किस्म के रोगाणु – वायरस की वजह से होते हैं जिनके ऊपर न तो रोगाणु-रोधी दवाओं का कोई असर ही होता है और न ही इन इंफ़ैक्शन में इन दवाओं की कोई ज़रूरत ही होती है। मगर आमतौर पर यही देखा जाता है कि इन सब बीमारियों में, बिना यह देखे कि कारण बैक्टीरिया है या वायरस, एण्टीबायोटिक्स का इस्तेमाल हो रहा है। इससे एक तरफ़ तो आर्थिक नुक़सान होता है, तो दूसरी तरफ़ इन दवाओं के बेकार हो जाने का ख़तरा खड़ा हो गया है, क्योंकि इन दवाओं के अन्धाधुँध इस्तेमाल के चलते बैक्टीरिया की बड़ी संख्या ने इन दवाओं को प्रभावहीन करने के तरीक़े विकसित कर लिये हैं।
मसले के आर्थिक पक्ष की बात करें। भारत जैसे देश में यहाँ दो-तिहाई आबादी को समय पर दवाई नहीं मिलती, बड़ी संख्या में लोगों को सेहत ठीक रखने के लिए ज़रूरी भोजन तक नहीं मिलता, किसी मरीज़ को मेडिकल सुविधा मिल सकेगी या नहीं, इस बात पर निर्भर करता है कि वह दवाई ख़रीद पायेगा या नहीं। ऐसे में बिना ज़रूरत के दवाएँ देना, ख़ासकर मेडिकल विज्ञान के दृष्टिकोण से इतनी अहम तथा जीवन-रक्षक दवाएँ, वैज्ञानिक पक्ष से तो ग़लत हैं ही, साथ ही मानवता के प्रति अपराध भी है। यह सीधा-सीधा आम इंसान की जेब पर झपटमारी है, ऊपर से दवाओं के बुरे प्रभावों के कारण मरीज़ को जो नुक़सान झेलना पड़ सकता है, वह अलग है। इसके अलावा बिना ज़रूरत के इस्तेमाल होने से मानवीय श्रम तथा प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी होती है, वह अलग है। लेकिन आम इंसान की लूट और मानवीय श्रम तथा प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी में ही दवा-कम्पनियों से लेकर डॉक्टरों तक के लम्बे मुनाफ़ाखोरी के नेटवर्क की मोटी कमाई सम्भव है।
दवा-कम्पनी के लिए दवाओं का उत्पादन मुनाफ़े के लिए है, वह हर साल बिक्री के पहले से ज़्यादा “ऊँचे टारगेट” तय करके चलती है और अपने “टारगेट” को पूरा करने के लिए अपने उत्पादों के प्रचार हेतु “विज्ञापनबाज़ों” (जिनको कम्पनियाँ ‘मेडिकल रिप्रेजेण्टेटिव’ के अंग्रेज़ी नाम के पीछे छुपाती हैं) की बड़ी फ़ौज भर्ती करती है। थोक व्यापारी तथा कैमिस्ट अपने ऐजण्ट अलग से रखते हैं जिनका काम “फ़ील्ड” में जाकर हिस्सेदारियाँ तय करते हुए बिक्री श्रृंखला बनाना होता है। इस चेन की अन्तिम कड़ी हैं डॉक्टर, जिनके बारे में जितना कम लिखा जाये, अच्छा है। आम निजी क्लीनिकों, अस्पतालों, नर्सिंग होमों आदि की बात ही क्या करनी, मेडिकल कॉलेजों तक में रोगाणु-रोधी दवाओं के इस्तेमाल के लिए लाजिमी दिशा-निर्देशों की जिस तरह से धज्जियाँ उड़ायी जाती हैं, आम इंसान सोच भी नहीं सकता। मरीज़ों को रोगाणु-रोधी दवाओं के महँगे-महँगे टीके इसलिए नहीं लगते कि मरीज़ को उनकी हमेशा ज़रूरत ही होती है, बल्कि इसलिए भी लगते हैं कि वार्ड के “डॉक्टरों” को अपना “टारगेट” पूरा करना होता है। ग़ैर-ज़रूरी होना एक बात है, ग़ैर-वैज्ञानिक होना दूसरी बात है अर्थात “टारगेट” पूरा करने के चक्कर में यह भी नहीं देखा जाता कि मरीज़ को दी जा रही दवा बीमारी का कारण बन रहे बैक्टीरिया को कण्ट्रोल करने के लिए सही चुनाव है भी या नहीं, क्योंकि चुनाव का आधार बैक्टीरिया की किस्म, मरीज़ का हित है ही नहीं। ऐसे सीनियर डॉक्टर भी देखने को मिलते हैं जो टीकों की शीशियाँ तक सँभालकर रखते हैं ताकि कैमिस्ट तथा कम्पनी हिसाब-किताब में ‘गड़बड़ी’ न कर सके। अकेले डॉक्टर ही नहीं है जो ग़ैर-ज़रूरी इस्तेमाल के कारण हैं, झोला-छाप डॉक्टर, कैमिस्ट इसका बड़ा कारण हैं। कई रोगाणु-रोधी दवाओं की औक़ात तो अब टाफ़ियों जितनी भी नहीं रही, हर गली-मुहल्ले के नुक्कड़ में बैठा कैमिस्ट या झोला-छाप डॉक्टर इन दवाओं की मुट्ठी भर-भर आम लोगों को खिला रहा है जिसको नज़रसानी के नीचे लाना मौजूदा प्रबन्ध में असम्भव है।
आर्थिक नुक़सान के अलावा जो दीर्घकालिक और बड़ा नुक़सान समूची मानवता को झेलना पड़ सकता है और कुछ हद तक पहले ही झेलना पड़ रहा है, वह है रोगाणु-रोधी दवाइयों का बेअसर सिद्ध होना। कई रोगाणु-रोधी दवाएँ तो पहले ही नकारा हो चुकी हैं, कइयों की क्षमता कम हो गयी है और कइयों का दायरा सिमट गया है। दवा-रोधी टीबी (क्षयरोग) का सामने आना इसका एक उदाहरण है। टाइफ़ाइड के इलाज में इस्तेमाल होने वाली कई दवाएँ अब इस काम के लायक नहीं रहीं। भारत में अगर सबसे ज़्यादा ग़ैर-ज़रूरी रोगाणु-रोधी दवाएँ लिखी जाती हैं तो यह हर बुखार को टाइफ़ाइड घोषित करके लिखी जाती हैं। टाइफ़ाइड के लिए आम इस्तेमाल होने वाली दवा ‘सिप्रोफ्लोक्सासिन’ तथा इसी श्रेणी की अन्य दवाओं (जो संयोग से सबसे ज़्यादा लिखी जाने वाली रोगाणु-रोधी दवाओं में से एक है) की कारगर-क्षमता अब इसी वजह से कम होती जा रही है। टाइफ़ाइड के लिए कुछ और दवाएँ जैसे ‘सिफ़िगजम (जीफ़ी), सैफ्फ़ट्रेगजोन’ आदि जो टाइफ़ाइड के कुछ ख़ास मामलों के लिए जैसे बच्चों में, गर्भवती औरतों में, ‘सिप्रोफ्लोक्सासिन-रोधी टाइफ़ाइड के इलाज में इस्तेमाल के लिए रिजर्व हैं, अब हर किस्म के बुखार के लिए यहाँ तक कि सिफ़िगजम तो सर्दी-जुकाम के लिए भी लिखी जा रही हैं। यहाँ तक कि झोला-छाप डॉक्टर, कैमिस्ट जिनको रोगाणु-रोधी दवाओं की हरेक श्रेणी तथा हरेक दवा के विशेष इस्तेमाल के पीछे वैज्ञानिक कारण बिलकुल भी पता नहीं होते, वे भी बेहद ऊँचे दर्जे की रोगाणु-रोधी दवाएँ भण्डारे की जलेबियों जैसे बाँटते हैं। नतीजा जो सामने आ रहा है, बहुत डरावना है क्योंकि मानवता को एक बार फिर बिना रोगाणु-रोधी दवाओं के युग में जाना पड़ सकता है।
इस नतीजे को वैज्ञानिक पहचानते भी हैं और देख भी रहे हैं, चेतावनियाँ भी दे रहे हैं। सरकारें भी इसे कण्ट्रोल में लाने का ख़ूब हल्ला-गुल्ला करती हैं, मगर असलियत यह है कि निजी मुनाफ़े पर आधारित मौजूदा पूँजीवादी प्रबन्ध के रहते इसे कण्ट्रोल करना सम्भव नहीं है। सबसे पहले तो दवा-कम्पनियों के मुनाफ़े को क़ाबू में करने की औक़ात किसी सरकार की नहीं है और सरकारों की मंशा भी नहीं है क्योंकि ख़ुद सरकारें पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी ही तो होती हैं और उसका वजूद ही पूँजीपतियों के मुनाफ़े को बनाये रखने, और बढ़ाने के लिए है। किसी भी सरकार या चुनावी राजनीतिक दल का इस प्रक्रिया को रोकने में कोई हित भी नहीं है। अगर सरकारों को मानवता का ज़रा भी ख़याल होता तो वह दवाओं के समूचे उत्पादन को निजी हाथों से छीनकर अपने हाथों में लेती तथा दवाइयों की बिक्री में से हर तरह के व्यापारी-एजेण्टों को बाहर कर सीधा लोगों तक सप्लाई चेन बनातीं, मगर यहाँ तो गंगा ही उल्टी बहती है। भारत की सरकारों ने रोगाणु-रोधी दवाएँ बनाने वाली सरकारी फ़ैक्टरियों को कब का बन्द करवा दिया है, मोदी सरकार ने दवाओं की क़ीमतों को भी हर तरह के सरकारी कण्ट्रोल से “आज़ाद” कर दिया है। जब कम्पनियों के मुनाफ़े को कण्ट्रोल करना सम्भव ही नहीं है तो बाक़ी सारी बयानबाज़ी खोखली है। किसी मन्त्री, नेता, नौकरशाह का ऐसा बयान कि कम्पनी के विज्ञापनकर्ता अब डॉक्टरों को ड्यूटी के समय नहीं मिलेंगे, अक्सर ही पढ़ने को मिल जायेगा, मगर इनसे कोई पूछे कि डॉक्टर के घर पर कौन सी मिलिट्री प्लाटून बैठी रहती है कि कम्पनी का एजेण्ट डॉक्टर को उसके घर जाकर नहीं मिल सकता। अगर घर में सीसीटीवी कैमरे भी लगा दिये जायेंगे तो ऐसी “बिज़नेस मीटिंगों” के लिए यह दुनिया छोटी नहीं पड़ जाती। रही बात आम लोगों को शिक्षित करने की, यह काम सरकार तथा डॉक्टर ही कर सकते हैं। सरकार करेगी ही नहीं और डॉक्टरों के पास “समय” कहाँ है। मरीज़ देखने के वक़्त कोई डॉक्टर ऐसा करेगा नहीं क्योंकि इससे तय समय में देखे जाने वाले मरीज़ों की संख्या कम हो जायेगी। लिहाज़ा इससे ओपीडी से होने वाली कमाई भी कम होगी, फिर क्यों कोई ऐसा करेगा, आखि़र कमाई के लिए है वह “सख़्त मेहनत करके” डॉक्टर बना है! अपने काम के बाद लोगों में प्रचार करना, इसकी बहुसंख्या डॉक्टरों से उम्मीद करना चिड़ी का दूध लेके आने के बराबर है। रोगाणु-रोधी दवाओं का ग़ैर-ज़रूरी इस्तेमाल कम करने में आधुनिक टेस्ट, स्कैन अहम भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन एक काम के टेस्टों का उपलब्धता का दायरा बहुत सीमित है, अगर टेस्ट उपलब्ध है तो टेस्टों के लिए होती मोटी वसूली भी एक रुकावट बन जाती है। ऊपर से टेस्टों/स्कैनों का अपना एक “बिज़नेस” है, जिसकी कहानी दवाओं की कहानी से ज़्यादा अलग नहीं है। कुल मिलाकर नतीजा यह निकलता है कि आप कोई भी रास्ता पकड़ेंगे, वह आपको मौजूदा पूँजीवादी प्रबन्ध के द्वार छोड़ जायेगा। इसलिए अगर विज्ञान को मानवता की सेवा में सच्चे अर्थों में लगाना है तो इस पूँजीवादी प्रबन्ध को नष्ट करना ही होगा। निजी सम्पति के ऊपर टिके इस सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को किनारे लगाना होगा; यह बात किये बिना किसी भी और ढंग-तरीक़े की बात करना या तो एक बच्चे की बेसमझ इच्छा हो सकती है, या फिर आम लोगों से छल-कपट।

Saturday 27 December 2014

बिल ब्राइसन का एक इंटरव्यू / डगलस शुल्ज़


(कबाड़खाना से साभार अशोक पांडेय की प्रस्तुति)

बिल ब्राइसन का मैं फैन हूँ. आज से दो साल पहले उनका एक इंटरव्यू मैंने इस ब्लॉग पर पोस्ट किया था. उसी को दोबारा से पेश कर रहा हूँ - (अशोक पांडेय)

स्टैनफोर्ड के सालाना यात्रा सम्भाषण सत्र 2001 के विशिष्ट मेहमान के तौर पर बिल ब्राइसन अपने लेखन और यात्राओं के बारे में अपने ढाई हज़ार प्रशंसकों से बात करने को लंदन पधारे थे. डगलस शुल्ज़ द्वारा लिए गए इस साक्षात्कार की पूरी ट्रान्सक्रिप्ट प्रस्तुत है –

परिचय
ज़ाहिर है, बात घिसी पिटी है कि हमारे मेहमानों का परिचय दिए जाने की ज़रुरत नहीं पड़ती, लेकिन आप में से जो भी तुरंत किसी और नक्षत्र से यहाँ पहुँच कर इस रात इस हॉल में आ पहुंचे हैं उनकी जानकारी के लिए मैं पुष्टि कर सकता हूँ कि हमारे वक्ता जनाब बिल ब्राइसन इस ग्रह के सबसे पसंदीदा यात्रावृत्त लेखक हैं.
यह न सिर्फ उनकी छः यात्रा-पुस्तकों की स्तब्धकारी बिक्री है जिसने उन्हें यह सम्मान दिया है, तथ्य यह भी है कि उनकी किताबें इतनी सुगम्य, सचेतन और सबसे ऊपर आश्चर्यजनक रूप से मजाकिया हैं. यात्रावृत्तों में उनका वही स्थान है जो पाकविद्या में डेलिया स्मिथ और बच्चों की किताबों में जे. के. राउलिंग का. दूसरे शब्दों में कहूं तो वे सर्वश्रेष्ठ हैं.
आप लोगों में जो चौकस हैं उन्होंने गौर किया होगा कि हालाँकि हमने इस का प्रचार एक यात्रा सम्भाषण के रूप में किया था, बिल किसी स्क्रीन के सामने तीखी नोंक वाली छड़ी लिए नहीं खड़े हैं. इसके बजाय हमारी योजना यह है कि बिल और मैं करीब एक घंटे आपस में गपशप करेंगे और यह दिखाने की कोशिश करेंगे कि दो हज़ार लोग हमारी बातें नहीं सुन रहे हैं, और बीच बीच में मैं बिल से अपनी किताबों से कुछ हिस्से पढ़कर सुनाने का निवेदन भी करूंगा ताकि सिर्फ मुझे ही न बोलना पड़े. और आखिर में हम कुछ समय आपके उन प्रश्नों के लिए रखेंगे जिन्हें पूछने से मैं रह गया होऊं.
बिल ब्राइसन - ... और उस के बाद मैं एक ड्रिंक के लिए जा रहा हूँ!
जब मैंने बिल को इस प्लान के बारे में बताया था कि वे मेरे हर सवाल का जवाब हाँ या न में देंगे ताकि आपको मेरी मदद करनी पड़े, बिल ने मुझ से इस का वायदा किया था.

ठीक है बिल, मैं बिलकुल शुरू से शुरू करने जा रहा हूँ, जैसे पार्किन्संस करती है, देस मोइनेस, आयोवा में आपके बचपन से. क्या आपका बचपन सुखी था?
दर असल हाँ. मेरा बचपन बेहद सुखी था. मेरे ख्याल से इसका बड़ा हिस्सा इस बात पर निर्भर था कि मैं पचास के दशक में बड़ा हुआ. अमेरिका में पचास के दशक में बड़ा होना एक तरह से स्वर्णयुग में जीने जैसा था. अभी एक दिन मैं सोच रह था कि उन दिनों में ऐसा क्या ख़ास था, तो वह महान आशावाद का समय था. युद्ध बीत चुका था,अर्थव्यवस्था चढ़ाव पर थी. स्पष्टतः अमेरिका उस तरह की बहाली नहीं करनी पडी जैसे यूरोप के लोगों को करनी पडी सो जब अमेरिका युद्ध से बाहर आया तो उसकी स्थिति बहुत मज़बूत थी और उसके सारे उद्योग तब भी सुरक्षित थे. बस हमने टैंक बनाने बंद कर दिए और टेलीविजन और फ्रिज बनाना चालू कर दिया. सो यह अमेरिका में एक महान विकास का दौर था.
लेकिन वह उस वक्त भी एक ख़ासा सादगीभरा समय था. दो लेन वाले राजमार्गों का समय. और मेरे ख्याल से तब प्रवृत्तियाँ भी फ़र्क़ थीं. आयोवा, जहां मैं बड़ा हुआ, वहां लोग एक ख़ास अंदाज़ में लातीफागोई करते थे जैसा अब नहीं करते, और वे उसकी कद्र करते थे, जिस तरह मैं समझता हूँ ब्रिटिश लोग अब भी करते हैं. हाज़िरजवाबी और ठठ्ठे और इस तरह की चीज़ें.

अब क्यों नहीं करते?
मेरे ख्याल से लोग अब पैसा कमाने और ज़िन्दगी में आगे बढ़ने में ही संतुष्ट हो चुके हैं, और अमेरिका में हाज़िरजवाबी एक तरह की बाधा बन चुकी है. मिसाल के लिए मैं सचमुच सोचता हूँ कि अगर मैं किसी ब्रिटिश कम्पनी में काम कर रहा होता तो मेरे बारे में इस तरह बातें होतीं – “अरे डग, सही बन्दा है यार. क्या चीज़ है. ऑफिस के बाद उसके साथ एक एक बीयर खींचने का मज़ा अलग है,” लेकिन अमेरिकी कम्पनी में यह इस तरह होगा – “डग का पता नहीं. मुझे नहीं मालूम वो इस प्रोग्राम में हमारे साथ है भी या नहीं. और वो उतना सीरियस भी नहीं है.” और मुझे लगता है यह कितने शर्म की बात है.
जब मैं बच्चा था, खूब हंसी ठठ्ठा हुआ करता था. मेरे पिताजी शब्दों के साथ खेलने में माहिर थे.

तो अब हमें पता लग रहा है कि आप में वो बात आई कहाँ से! क्या आपके बचपन में ऐसे कोई संकेत थे कि आप बड़े होकर यात्रावृत्त लेखक बनने वाले हैं? मिसाल के लिए क्या आप कसम खाकर कहेंगे कि अपनी हाईस्कूल ईयर बुक में आपने लिखा था कि आप दुनिया के सर्वप्रिय यात्रावृत्त लेखक बनने जा रहे हैं?
नहीं, मैंने यात्रावृत्त लेखक बनने की कभी सोची ही नहीं और मैं अपने आप को अब भी यात्रावृत्त लेखक नहीं समझता.
मैं तो एक आदमी हूँ जो किताबें लिखता है. मैंने अपने को हमेशा किराये में ली गयी एक कलम समझा है, जो इस बात पर खुश है कि लोग मुझे लिखने के एवज में पैसा देंगे. बस यह हुआ कि मैं यात्राओं की दिशा में निकल पड़ा. मैंने ‘द लॉस्ट कंटीनेंट’ लिखी जो तकनीकी रूप से एक यात्रावृत्त है पर मैंने उसे एक संस्मरण की तरह अधिक देखा. वह अमेरिका में बड़े होने के बारे में थी. मैंने उसे कभी भी यात्रावृत्तों की श्रृंखला की शुरुआत के तौर पर नहीं देखा,लेकिन हुआ यह कि उस पर अच्छी बातें कही गईं और प्रकाशकों ने मुझे उत्साहित किया कि मैं उसी धारा में चलता जाऊं और यात्रावृत्त लिखूं. शुरू में मैं और तरह की किताबें भी लिख रहा था, जैसे कि भाषा पर. वो हाशिये में चली गईं लेकिन मुझे उम्मीद है मैं उन तक वापस लौटूंगा.

क्या आपको काफी पहले पता चल गया था कि आप लेखक बनने वाले हैं?
मुझे पता था कि संभवतः मैं किसी न किसी तरह से शब्दों के साथ काम करने वाला हूं. अंग्रेज़ी इकलौती चीज़ थी जिसमें मैं ठीकठाक था और हमारा पुश्तैनी अखबार हमारा पुश्तैनी धंधा था. मेरे माता-पिता दोनों स्थानीय अखबार के लिए काम करते थे. मेरा भाए जो मुझसे नौ साल बड़ा और इस लिहाज़ से मेरे जीवन में एक स्थानापन्न वयस्क था, भी स्थानीय अखबारों में काम करता था. सो रात को खाने की मेज़ पर यही बातें होती थीं और मुझे किसी और चीज़ का ख़याल ही नहीं आया. तय था कि मैं कोई न्यूक्लियर साइंटिस्ट या जानवरों का डाक्टर नहीं बनने जा रहा था. मुझे अपने बिलकुल शुरुआती क्षणों से बस पता था कि मैं शब्दों के साथ काम करूंगा.

मेरा दूसरा सवाल यह है कि आप ने देस मोइनेस छोड़ क्यों दिया? ‘द लॉस्ट कंटीनेंट’ की विख्यात शुरुआती पंक्तियों को उद्धृत करें तो –
“जब आप देस मोइनेस के रहनेवाले होते हैं तो आप या तो इस तथ्य को बिना कोई सवाल किये स्वीकार कर लेते हैं और बॉबी नाम की किसी लडकी के साथ शादी कर के फायरस्टोन फैक्ट्री में नौकरी पाकर हमेशा हमेशा के लिए वहीं रहें या आप अपना लड़कपन लम्बे समय तक इस बात का रोना रोते हुए गुजारें कि यह क्या कूड़ा जगह है और आप इस जगह को छोड़ कर जाने तक का इंतज़ार नहीं कर सकते और तब आप बॉबी नाम की किसी लडकी के साथ शादी कर के फायरस्टोन फैक्ट्री में नौकरी पाकर हमेशा हमेशा के लिए वहीं रहें.”

उस नियति से आप कैसे बच सके?
मैं, बस ऐसे ही चला आया. और यह वाक़ई अजीब था क्योंकि सारे हाईस्कूल भर जैसा कि मेरे ख्याल से उस समय हाईस्कूल में सारे ही लोग कहा करते थे “हे भगवान, मैं ग्रेजुएट होकर यहाँ से बाहर जाने का इंतज़ार नहीं कर सकता.” और जब ऐसा हो गया हो मैं निकल पड़ा और मैंने यह तक सोचा कि हर कोई मेरे साथ आ रहा है मगर सारे वहीं रहे और सब ने फायरस्टोन फैक्ट्री में नौकरी पा ली.
मैं बाहर निकलने का इंतज़ार नहीं कर सकता था क्योंकि देस मोइनेस इस कदर हैबतनाक था, लेकिन मुझे हमेशा यह सघन होश रहता था कि मैं बड़ा हो रहा हूँ और असल संसार कहीं और है. अपने बचपन के शुरुआती दिनों से ही मैं ‘नेशनल जियोग्राफ़िक’ की तस्वीरें देखकर बहुत प्रभावित होता था. हर जगह इतनी अच्छी और इतनी दिलचस्प और भरपूर और सुन्दर दिखती थी और ऐसा लगता था कि लोग काफी रोमांचक जीवन जी रहे हैं और मैं भी बाहर निकलकर वैसा थोड़ा कुछ करना चाहता था. सो जैसे ही मुझे मौका मिला मैं निकल आया और संयोगवश यहाँ पहुँच गया. ब्रिटेन में.

आप ने यहाँ ब्रिटेन में पत्रकारिता का काम किया और तब आपके जीवन में वह महत्वपूर्ण क्षण आया था जब आप नौकरी छोड़कर अपने बच्चों के साथ उत्तरी यॉर्कशायर जा बसे थे और वह भी उन तीन हज़ार पाउंड्स की हिम्मत पर जो आपको एक किताब लिखने के लिए मिलने वाले थे, और उसके बाद आप अपने बच्चों की परवरिश के अलावा ‘द लॉस्ट कंटीनेंट’ लिखने को यात्रा पर निकलने वाले थे. यह सुनना ही डरावना लगता है?
मेरे लिए भी वह डरावना ही था और इस का पूरा श्रेय मेरी पत्नी को जाता है कि मैं वैसा कर सका. हुआ ये कि मैं फ्लीट स्ट्रीट में काम कर रहा था और अखबारों में उपसंपादक के तौर पर मेरा करियर खासा सुखद था. एक बार छुट्टियों में हम यॉर्कशायर गए हुए थे और मेरे ख्याल से मैं रोज़ के काम पर आने-जाने के क्रम से सामान्य से कहीं ज्यादा उकताया हुआ था. रोज़ गाड़ी लेकर लंदन में प्रवेश करने और वहां से बाहर निकलने से मैं ऊब चुका था और मैं लिखना भी चाहता था. यह मेरी हमेशा से ख्वाहिश रही थी कि मैं लिख कर अपना पेट पालूँ. यॉर्कशायर से वापस आते समय मैं कुछ ज्यादा ही झींकता रहा होऊँगा क्योंकि वापस काम पर जाने के बाद एक दिन मेरी पत्नी ने मुझे फोन किया, जो वह आम तौर पर नहीं करती और बोली – “मैं तुम्हें यह बताना चाहती हूँ कि मैंने मकान को बिक्री के लिए बाज़ार में लगा दिया है.” और मैंने कहा – “तुम ने क्या ...?” तो वह बोली “और बड़ी बात यह है कि कुछ लोग कल उसे देखने आ रहे हैं.” तो उन लोगों ने  अगले दिन आकर मुंहमांगी कीमत अदा की और मकान खरीद लिया, तो एक तरह से मुझे जबरन ऐसा करने को धकेला गया. मैं भयाक्रांत था क्योंकि वयस्क होने के बाद से कभी भी मैं बगैर तनख्वाह के नहीं रहा था.

आपकी किताब का विचार वापस अमेरिका जाकर वहां की छोटी छोटी जगहों की यात्रा करने का था और नतीजे में जो सामने आया वह ‘द लॉस्ट कंटीनेंट’ था. आप के यात्रा लेखन में बार बार आने वाली इस चीज़ ने मुझे बहुत मुग्ध किया है कि आप एक साथ आउटसाइडर भी हो जाते दीखते हैं और इनसाइडर भी. इस मामले में आप एक अमेरिकी थे जो वापस जाकर अमेरिका के बारे में लिखने जा रहा था. जब आप अपने घर के बारे में लिख रहे थे तब क्या आप को किसी आउटसाइडर जैसा महसूस हुआ था?
मेरे ख्याल से मुझे एक हद तक हमेशा ऐसा लगता रहा. बाकी और लोगों से कहीं ज्यादा मैं असल में आयोवा से बाहर निकला कर कहीं और बस जाना चाहता था. मुझे बस यह लगता था कि मैं दूसरों की तरह उसके भीतर ठीक से फिट नहीं हो पाता था. तब मैं यहाँ आया और मैंने पाया कि एक विदेशी के रूप में ब्रिटेन में रहना कितना आह्लादकारी होता है. यह एक बेहतरीन स्थिति होती है. जब सब कुछ ठीक ठाक चल रहा हो तो आप आगे बढ़कर समारोहों वगैरह में हिस्सेदारी कर सकते हैं और हर चीज़ बहुत अच्छी होती है. और जब सब कुछ ठीक न चल रहा हो, जो यहाँ के मामले में पूरी तरह एक परिकल्पित स्थिति होती है, जैसे कि मान लीजिये आपकी राष्ट्रीय फ़ुटबाल टीम जर्मनी से हार गयी तो आप पीछे खड़े रहते हुए कह सकते हैं कि क्या शर्म की बात है.

तो जब आप ब्रिटेन में बीस साल रहने के बाद ‘नोट्स फ्रॉम अ स्मॉल आइलैंड’ लिखने जा रहे थे क्या ब्रिटेन में तब भी आप अपने को एक आउटसाइडर महसूस करते थे?
मैं यहाँ हमेशा बहुत सुकून से रहा हूँ. यहाँ आकर मुझे बहुत जल्दी ही घर जैसा लगने लगा था और मैं यहाँ वाकई बस गया और खुश था. विदेशी होना मेरी खुसूसियत थी. मैं एक अमेरिकी हूँ. मैं हमेशा था भी और यही मेरा पहचान चिन्ह था और एक तरह से अच्छा था. मैंने उसका बड़ा लुत्फ़ उठाया. इस आप कुछ अलग और ख़ास बन जाते हैं. मेरे लिए यह समस्या तब बनी जब मैं वापस अमेरिका गया और मेरे पास अचानक यह विशिष्टता नहीं रही थी. वहां जो मैं था एक अमेरिकी था जिसकी आवाज़ मजेदार सी थी और लोगों को सही सही पता ही नहीं रहता था कि वे मेरे बारे में किस तरह सोचा करें.

‘नोट्स फ्रॉम अ स्मॉल आइलैंड’ के बाद आप वापस अमेरिका चले गए और मैं जानता हूँ कि ऐसा करना आपके लिए कोई आसान सांस्कृतिक फ़ैसला नहीं रहा था. सच यह है कि आपने एक दफा कहा था कि आप जीवन में तीन काम नहीं कर सकते – पहला, आप टेलीफोन कम्पनी को हरा नहीं सकते, दूसरा आप किसी वेटर की निगाह में तब तक नहीं आ सकते जब तक कि वह आपको देखने को तैयार न हो और तीसरा यह कि आप कभी घर वापस नहीं जा सकते. तो क्या आप वापस घर जा पाए?
बहुत मुश्किल था. मेरी उम्मीदों से कहीं ज्यादा मुश्किल. मैंने सोचा था कि मैं बस वहां जा रहा हूँ जो मेरे लिए बहुत परिचित था, लेकिन दिक्कतें तमाम तरह की थीं. पहली यह कि मैं काफी लम्बे समय से बाहर रह रहा था, और मैं अपनी कई आदतों और सोचने के तरीकों में ‘अँगरेज़’ बन चुका था. सो यह एक बड़ी समस्या थी. और अमेरिका भी बहुत बदल गया था. और आख़िरी यह कि मैं वयस्क होने के बाद अमेरिका में रहा ही नहीं था; मैं हमेशा किसी न किसी का बच्चा रहा था. सो वे सारी चीज़ें जो आप बड़े होने पर ही करते हैं – पेंशन लेना, चीज़ें गिरवी रखना वगैरह, वे सब मैंने ब्रिटेन में की थीं. अमेरिका में मेरे पिताजी ने यह सब किया था. सो मैं अपने ही देश में एक तरह से असहाय था. मुझे किसी हार्डवेयर स्टोर में सामान तक मांगना नहीं आता था. मुझे चीज़ों के नाम याद ही नहीं रह गए थे. मेरे वार्तालाप अक्षरशः इस तरह के हुआ करते थे – “मुझे थोड़ी सी वो अजीब सी चीज़ चाहिए जिनसे दीवारों के छेड़ भरे जाते हैं.” मेरी पत्नी के देश के लोग उसे ‘पौलीफीलिया’ कहते हैं, वहां वे उसे ‘स्पेकल’ कहते थे. बचपन से ही इतनी अंतरंगता से परिचित ऐसी जगह पर अलग-थलग पड़ जाना बेहद अटपटा था.
मुझे इस बात की भी आदत पद गयी थी कि यहाँ ब्रिटेन में आप बात बात पर लतीफे गढ़ सकते हैं पर अमेरिका में ऐसा करना बहुत खतरनाक होता. इस बारे में मैंने अपनी एक किताब में लिखा है. एक बार मैं बोस्टन में कस्टम और इमीग्रेशन से गुज़र रहा था तो वहां पर मौजूद आदमी ने मुझ से पूछा “कोई फल या सब्जियां?” तो मैंने जवाब दिया “ठीक है, चार किलो आलू दे दीजिये.” उस वक्त मुझे ऐसा लगा था कि वह मुझे दबोच कर फर्श से चिपका देने वाला था.
आपने अक्सर अमेरिका में एक अलग तरह के सेन्स ऑफ़ आइरनी की बात की है. मिसाल के लिए मुझे आपके उस पड़ोसी का वो किस्सा बहुत पसंद आया था जो अपने बगीचे में एक पेड़ काट रहा था और उसे अपनी कार की छत पर लाद रहा था ...
हाँ, एक तूफ़ान में उसके बगीचे में एक पेड़ गिर गया था और एक दिन घर के बाहर आकर मैंने देखा कि वह पेड़ को छोटे हिस्सों में काट कर उसे निबटाने की नीयत से अपनी कार की छत पर लाद रहा था. पेड़ खासा झाड़ीदार था और कार के अगल बगल झूल रहा था. मैंने बिना सोचे जल्दीबाजी में कह दिया – ‘अच्छा तो आप कार को छिपाकर ले जा रहे हैं” और उसने मुझे देख कर कहा “नहीं, नहीं. रक रात तूफ़ान में यह पेड़ गिर गया था.” सो यह ऐसे ही चलता रहा. ऐसी घटनाएं होती रहीं. मैं पाता था कि मैं उन सज्जन के साथ खूब लतीफेबाजी कर रहा हूँ. एक दफा मुझे एक हवाई यात्रा का दुस्वप्न सरीखा अनुभव हुआ – फ्लाईट छूट गयी वगैरह वगैरह, तो उन साहब ने मुझ से पूछा “आप किस कम्पनी के साथ यात्रा कर रहे थे?” तो मैंने जवाब दिया “पता नहीं सारी ही कम्पनी अजनबी थी.” इस बात से उसे बहुत असुविधा हुई.

आपको अमेरिका वापस गए हुए पांच साल हो चुके हैं. ब्रिटेन के बारे में आपके आउटसाइडर का नजरिया अब क्या है? क्या आप संपर्क में रहते हैं?
मैं हर साल छः या सात बार वापस आता हूँ. जितना भी परिस्थियां अनुमति दें. अब लन्दन में हमारे पास एक फ़्लैट है, सो हम एक परिवार के तौर पर आया करते हैं और मैं संपर्क बनाए रखता हूँ. मैं अब भी टेलीफोन पर बहुत सारे लोगों के साथ बात करता हूँ और घटनाओं के बारे में जानकारियाँ लेता रहता हूँ. सो ब्रिटेन विदेश नहीं बना है.

वे ब्रिटिश जड़ें कितनी स्थाई हैं? मिसाल के लिए क्या आप यह जान सके कि लोगों देश को गणराज्य बनाने के लिए अच्छा समर्थन देते हैं?
अफ़सोस, देश को गणराज्य बनाने के लिए अच्छा समर्थन तो ख़ास अच्छा नहीं है. मेरा मानना है कि उनकी स्थिति खासी असुविधापूर्ण है, वे लम्बे समय तक ब्रिटेन का उपनिवेश रहे थे और वे जैसे भी हैं पिछले पचास सालों से एक अलग पहचान बनाने में लगे हैं और उसमें समय लगता है. ऐसा करना मुश्किल होता है पर वे लोग धीरे धीरे वहां पहुँच रहे हैं. मेरा ख्याल है ओलिम्पिक्स ने काफी मदद की. वह एक आखिरी कदम था जिसे लिया ही जाना था ताकि एक मुक्त आत्मनिर्भर समाज के रूप में उनकी पहचान बने और उनके भीतर वह आत्मविश्वास आए.
ऑस्ट्रेलिया में बच गई ब्रिटिश विशिष्टताओं में एक क्रिकेट है. ऑस्ट्रेलिया में रेडियो पर क्रिकेट कमेंट्री सुनने पर ‘डाउन अंडर’ में एक बढ़िया टुकड़ा है जिसे हम बिल से पढ़कर सुनाने को कहेंगे.
एक और चीज़ जिसने आपको बाँधा वह भौतिक तौर पर अपने अलग थलग पड़े होने के कारण ऑस्ट्रेलियाई महाद्वीप की उल्लेखनीय जैव और वन्य विविधता है. आपने किताब में ऐसी ऐसी और इतनी सारी प्रजातियों को दर्ज किया है जिन्हें इस ग्रह पर और कहीं नहीं पाया जाता.
हाँ, और हर वक़्त नई नई प्रजातियाँ खोजी जा रही हैं. वे जानते ही नहीं वहां और क्या क्या है. ऑस्ट्रेलिया के बारे में एक और शानदार बात यह है कि यह अब भी एक न खोजा गया मुल्क है. मुझे संख्या ठीक से याद नहीं लेकिन कोइ एक लाख कीट पतंगों की प्रजातियाँ वहां ऐसी हैं जिनका किसी वैज्ञानिक ने न निरीक्षण किया है, न उन्हें कोई नाम दिया गया है न उनका कोई कैटलोग तैयार हुआ है. यही बात वनस्पतियों के बारे में सच है. इस तरह की करीब पचास हज़ार प्रजातियाँ हैं. ऐसी ऐसी चीज़ें भी हैं जो कैंसर का इलाज कर सकती हैं. संभावनाएं अविश्वसनीय हैं. कोई भी असल में नहीं जानता वहां क्या क्या है.
और वह एक ऐसा देश है जिसके ढंग से नक्शे तक नहीं बनाए गए हैं.
बमुश्किल. ऑस्ट्रेलिया के नक़्शे वैसे तो बनाए जा चुके हैं जैसे हवाई जहाज़ से लैंडस्केप के काफी नज़दीक से गुजरते वक्त दीखते हैं पर वास्तविक ज़मीनी स्तर पर एक विशाल भूखंड के नक़्शे अभी बनने बाकी हैं. आप एक ऐसी जगह के बारे में बात कर रहे हैं जो संयुक्त राज्य अमेरिका महाद्वीप यानी निचले ४८ राज्यों जितना बड़ा है और जिसकी आबादी न्यूयॉर्क जितनी है. उसका इतना सारा हिस्सा अभी खाली पड़ा है. आप ऑस्ट्रेलियामें ऐसी जगहों पर भी अपने को पा सकते हैं जहां आप सड़क किनारे खड़े होकर एक तरफ देखें तो संभवतः अगले फुटपाथ को देखने आपको १५०० किलोमीटर आगे जाना पड़े. मुझे यह सब बहुत अचरजकारी लगता है.

मुझे ऑस्ट्रेलिया के तटीय इलाकों से काफी दूर के इलाकों के शुरुआती खोजियों के किस्से बहुत पसंद हैं. वो कहानी क्या थी अपना खुद का मूत्र पीने के बारे में? या किसी दूसरे का?
नहीं, मेरा अपना नहीं!
होता यह था कि खोजी लोग ऑस्ट्रेलिया जाया करते थे और चूंकि उनमें से ज़्यादातर ब्रिटेन और आयरलैंड जैसे मुलायम और समशीतोष्ण देशों से जाते थे, उन्हें कतई पता नहीं होता था कि वे जा कहाँ रहे हैं, न तो वहां के आकार के बारे में उन्हें बहुत मालूमात होते थे न वहां के पर्यावरण की मुश्किलों के. उनके जीवन की किसी भी चीज़ ने उन्हें इस के लिए तैयार नहीं किया होता था. सो वे समूचे महाद्वीप को आरपार कर लेने के बड़े मंसूबों के साथ सफ़र शुरू करते थे जो आज के मोटरगाड़ियों के ज़माने में भी ख़ासा बड़ा काम होता है.सो उन्नीसवीं शताब्दी में ऐसा करना बेहद मुश्किल होता था और निरपवाद रूप से उन सब का सामना ऐसी परिस्थितियों से होता था जब उनके पास पीने को पानी की एक बूँद तक नहीं होती थी और उन्हें अपना या अपने घोड़े का मूत्र पीने को विवश होना पड़ता था. ऐसा आम तौर पर उल्टा असर करने वाला होता है क्योंकि मूत्र में उपस्थित लवण प्यास को और बढ़ा दिया करते थे. ऐसा मैंने पढ़ा है – कभी जांचकर नहीं देखा.

कुछ समय के लिए आपका एक साथी भी था – आपका दोस्त एलन – जो आपके साथ कुछ समय के लिए आया था और जिसे आप ऑस्ट्रेलिया में उसके साथ घट सकने वाली हैबतनाक बातों की कहानियाँ सुनाकर डराया करते थे. क्या आप एलन के साथ क्वींसलैंड वाला हिस्सा पढ़कर सुनाएंगे?
उस हिस्से की पृष्ठभूमि समझाना चाहूँगा पहले. मैं क्वींसलैंड के उत्तरी विषुवतीय इलाके में हूँ एक बीच पर टहलता हुआ और मेरे साथ मेरे ब्रिटिश दोस्त एलन शेर्विन है जो कुछ दिन मेरे साथ घूमने के लिए पहुंचा है. तब तक मैं इस तथ्य से भली भाँती परिचित हो चुका था कि सैद्धांतिक रूप से हालांकि जानवर बहुत खतरनाक होते हैं, वास्तविकता में वे नहीं होते, लेकिन एलन को यह मालूम नहीं था और यह सब उसके लिए नया था. और मैं स्वीकार करना चाहूँगा कि मैंने उसके इस अज्ञान का फायदा उठाया. आपको यह भी पता होना चाहिए कि वह क्वींसलैंड में बॉक्स जेलीफिश का सीज़न था. बॉक्स जेलीफिश अंडे देने के लिए इन दिनों भीतरी तटों तक आया करती थीं और यह भी कि यह धरती पर सबसे ज़हरीली प्रजातियों में एक होती है.

आपने ऑस्ट्रेलिया को एक भाग्यशाली देश कहा है, लेकिन जो एक हिस्सा इस तस्वीर में फिट नहीं बैठता वह वहां के आदिवासियों का कष्ट है. आधुनिक समाज में इन आदिवासियों की स्थिति को लेकर आपने जो आंकड़े उद्धृत किये हैं वे तबाहकुन हैं और ऐसा लगता ही कि इसके लिए सतही उत्तर यही दिया जाता है कि बीसवीं सदी और आदिवासी आपस में मेल नहीं खाते. आपकी किताब में सबसे दुखी करने वाला हिस्सा वह है जिसमें आप इन दो संसारों के बीच की खाई पाटने के लिए की जा रही सोशल इंजीनियरिंग का वर्णन करते हैं. क्या आप हमें थोड़े से में बता सकेंगे कि वह प्रयोग क्या था और उन तथाकथित “चुरा ली गयी पीढ़ियों” का क्या हुआ?
उसे ही “चुरा ली गयी पीढ़ियाँ” कहा जाता था और यह सारे ऑस्ट्रेलिया में सबको मालूम है और सभी को उस की वजह से बेहद ग्लानि महसूस होती है.
जैसा कि आप कह रहे हैं यह सोशल इंजीनियरिंग की एक प्रक्रिया थी जिसे सदी के शुरू में लागू किया गया और हाल के समय तक यानी साठ के दशक तक चालू थी. आदिवासी बच्चों को उनके माँ-बाप से अलग कर के – हालांकि इसके पीछे भलमनसाहत की भावना होती थी - सरकारी स्कूलों – एक तरह के सरकारी अनाथालयों में ले जाया जाता था – या शहरों में रह रहे शहरी यूरोपियनों को गोद दे दिया जाता था ताकि वे गरीबी और अज्ञान के चक्र से बाहर आ सकें. इस नीति को इन लोगों के मोक्ष की तरह देखा गया जो मूलतः जंगली थे, कि उन्हें उनकी गरीबी से बाहर लाकर एक बेहतर वातावरण में रखा जाए. लेकिन सच यह था कि इस वजह से परिवार तबाह हो रहे थे. परिवार टूटते जा रहे थे. एक माता-पिता के तौर पर आप को कैसा लगेगा अगर एक दिन आपके घर के बाहर आकर एक सरकारी वैन रुके और उसमें से लोग उतर कर आपसे कहें “माफ़ कीजिये, हम आपके चार बच्चों को ले जा रहे हैं. हम उन्हें आपसे दूर ले जा रहे हैं. इसमें आप कोई भी विरोध नहीं कर सकते. किसी बच्चे को जन्म देने वाला आदिवासी अपने बच्चे का कानूनी अभिभावक नहीं था - यह सरकार का काम था. सरकार के पास बच्चे को उठा ले जाने की कानूनी अनुमति थी. इस मामले की सुनवाई के लिए कोर्ट कचहरी जैसा भी कुछ नहीं था. सरकार अपने “बच्चों” की कस्टडी खुद ले सकती थी, जैसा की उस समय का कानून कहता था. वे बच्चों को उठा ले जाते थे. आप कल्पना कीजिये इस से बच्चों पर क्या असर पड़ा होगा. आप कल्पना कीजिये इस से माता-पिताओं पर क्या असर पड़ा होगा. कुछ मामलों में यह कई सालों तक चलता रहा. कभी कभी एक ही परिवार के चार बच्चे देश के चार बिलकुल अलग-अलग हिस्सों में पहुंचा दिए जाते थे. तो आप के देश में छेद दिए गए परिवार थे. आप ने हर तरह की समस्या जैसे अपने बच्चों से बिछड़ गए माता-पिताओं की आत्महत्या और अल्कोहोलिज्म के लिए ज़मीनी काम तो कर ही दिया था. और उन बच्चों के लिए नई जगहों पर खुद को ढालने की समस्या? – किस कदर गहरे ट्रौमा से गुजरना पड़ता था उन्हें. कभी कभी तो वे चार और पांच की आयु में उठा लिए जाते थे.
क्या उन्हें उठाये जाने के बाद किसी तरह का आपसी संपर्क हो पाता था?
नहीं, क्योंकि माना जाता था कि ऐसा करना एक कदम पीछे हटना होगा. इसे परोपकार की भावना से किया गया कार्य कहा जाता था. लेकिन जिस तरह से उसका कार्यान्वयन होता था वह खौफनाक था. मुल्क उस बात की कीमत आज भी चुका रहा है क्योंकि इस सारे तमाशे ने आदिवासियों और सरकार के लिए उनकी भावनाओं के बीच बड़ी खाई बना दी थी. बहुट से परिवार तहस नहस हुए और अल्कोहोलिज्म का एक भयानक चक्र शुरू हो गया
तो वर्तमान एकीकरण नीति को लेकर आप क्या सोचते हैं?
ज़ाहिर है, अब वे जो कर रहे हैं उसमें विवेक का इस्तेमाल ज्यादा होता है. यह अब भी एक बड़ी समस्या है. सामाजिक अभाव के किसी भी इंडैक्स में आदिवासी हमेशा सबसे नीचे आते हैं. अगर आप गिरफ्तारियों, नशीली दवाओं, गरीबी, स्वास्थ्य, शिशु मृत्यु जैसी चीज़ों के आंकड़े देखें तो तो वे सबसे नीचे होते हैं. साफ़ है उन्हें बेहतर जीवन देने के लिए बहुत कुछ और किया जाना है. इस समस्या का सबसे बड़ा हिस्सा यह है कि उनमें से अधिकतर सुदूर इलाकों में रहते हैं. सो उनके पास शिक्षा और रोज़गार के वैसे अवसर नहीं हैं जैसे उन्हें शहरों में रहते हुए मिलते. यह एक्बहुत बड़ी समस्या है और कोई भी आज तक किसी ठोस समाधान के साथ आगे नहीं आया.
ओलिम्पिक्स की बात करते हैं. आप सिडनी मॉर्निंग हैरल्ड और द टाइम्स के लिए रिपोर्टिंग करने ओलिम्पिक्स में मौजूद थे. दर असल मैंने आप का लिखा तलवारबाजी और टेबल टेनिस जैसे कम चर्चित खेलों पर लिखा हुआ एक टुकड़ा पढ़ा था. मुझे बताया गया है कि वहां कुछ लोग थे जो टेबल टेनिस में आप से बेहतर थे?
मैं उन सारे ‘अल्पसंख्यक’ खेलों को देखने गया लेकिन कोई भी मुझे भाया नहीं. जैसे तलवारबाजी - सिर्फ ‘क्लिक क्लिक क्लिक’ और हो गया. फिर वे आराम करते हैं. दोबारा गार्ड लिया और ‘क्लिक क्लिक क्लिक’ और फिर हो गया. आप बस सोचते रह जाते हैं “ये खेल है क्या चीज़ यार?” मुझे वह बेहद उबाऊ लगा और मैंने जूडो पर ध्यान लगाया. वह भी ऐसा ही था. अब ये दो बन्दे हैं लगातार एक दुसरे के गिर्द चक्कर लगा रहे हैं जैसे कि दूसरे के जाने बिना उसकी कमीज़ उतार देने की जुगत में लगे हुए हैं. मैंने सोचा – ‘ये है क्या? मेरी समझ में कुछ नहीं आया.” फिर मैं टेबल टेनिस पर गया जो मेरी समझ में आ गया क्योंकि मैं उसे खेल चुका था – ओलिम्पिक के स्तर पर नहीं – पर मेरी समझ में आता था वह. मेरी समझ में आया कि ये लोग उस सब से कहीं आगे पहुँच चुके लोग हैं जिसका मैं सपना देख सकता हूँ. मुझे बड़ा खराब लग रहा था कि मैं तलवारबाजों की कला की तारीफ करने लायक न था. वे मेरी समझ में इस वजह से नहीं आटे थे कि वे इस कदर शानदार थे, इस कदर फुर्तीले कि मैं देख ही नहीं पा रहा था कि वे कर क्या रहे थे.
तलवारबाजी को लोकप्रिय बनाने के लिए आपके पास कुछ विचार थे ...
हाँ, कुछ सुझाव थे. मुझे लगा कि आप सरप्राइज़ अटैक जैसे दाँवों को प्रोत्साहित कर सकते थे . मुझे लगा कि ऐसा अच्छा रहेगा. मुझे यह विचार भी भाया कि एक खिलाड़ी पारंपरिक तलवार लिए हो और दूसरा बरछी. सबसे प्रिय मुझे यह विचार लगा कि दोनों ही की आँखों पर पट्टी बाँध दी जाए और दोनों को  थोड़ा गोल गोल घुमाकर अचानक एक दूसरे की तरफ धकेल दिया जाए. इस से खेल लम्बा खींचेगा ...
खासी गंभीर खेल पत्रकारिता है जनाब! ... खैर. ‘डाउन अंडर’ में आपके एक वाक्य ने मुझे हैरत में डाला था जब आपने तनिक निराशा के साथ कहा था कि आज के समय में यात्रा का बड़ा हिस्सा चीज़ों को देख लेना होता है, जब तक कि वे बची हुई हैं. कौन सी चीज़ गायब हो रही है?
स्पष्टतः दुनिया में आप जहां भी जाएं हर जगह एक सी में बदल रही है, और यह मुझे हतोत्साहित करने वाला लगता है. अमेरिका के किसी भी शहर में अगर आपने कॉफ़ी पीनी है तो स्टारबक्स कप हर जगह मिलता है. दुनिया का मैक्डोनाल्डीकरण. और ऐसा हर जगह और और ज्यादा होता दीखता है. यह सिर्फ अमेरिकी फिनोमेना नहीं है – बॉडी शॉप और एनी संस्थाएं भी इस में सहयोग कर रही हैं, जैसा कि व्यावसायिक संसार के साथ होना ही होता है, अमेरिका पथप्रदर्शक है. यह भी हतोत्साहित करने वाला है. जब मैं एलिस स्प्रिंग्स पहुंचा तो मुझे बहुत निराशा हुई थी. मैं डार्विन से हज़ार किलोमीटर गाड़ी चलाकर इस खाली रेगिस्तान में पहुंचा था. में होटल के कमरे में घुसा और जैसे ही मैंने परदे खोले सड़क के उस पर के-मार्ट दिख गया. मैं इतनी दूर के-मार्ट देखने नहीं आया था.
आप ने एलिस स्प्रिंग्स को ऐसे समुदाय के तौर पर वर्णित किया है जो एक ज़माने में सुदूर होने की वजह से विख्यात था और अब वहां हज़ारों लोग सिर्फ यह देखने आते हैं कि अब वह कितना सुदूर नहीं रह गया है. यह आधुनिक यात्रा की एक विडम्बना है कि आप किसी ख़ास जगह को ढूंढते हैं, जो इस वजह से भी ख़ास है कि काफी दूर है और वहां पहुँचने के लिए काफी मशक्कत करनी होती है और यह कि आप भी ख़ास होने जा रहे हैं क्योंकि आपने वहां पहुँचने के लिए मशक्कत की है और जब आप वहां पहुँचते हैं आप पाते हैं कि वहां आप ही जैसी सोच वाले असंख्य लोग जमा हैं और यही नहीं वह जगह आपका इंतज़ार कर रही है. यह सब दर असल आपके स्वागत के लिए तैयार किया गया होता है. जब आप एलिस स्प्रिंग्स जैसी जगह पहुँचते हैं जहां बाकी असंख्य लोग भी उसी वजह से पहुंचे हैं तो क्या आपको निराशा होती है?
माफ़ कीजिये, क्या मैं एक बात कह सकता हूँ. क्या हम लोग एक ड्रिंक के लिए अभी जाएंगे या नहीं?
बस पांच मिनट! आप सवाल का जवाब दे दीजिये.
मैं निराश हुआ था. इस से कोई बचाव भी नहीं था. मेरी उम्मीदें काफी ज्यादा थीं. एलिस स्प्रिंग्स टिम्बकटू किस्म की जगह है. बाहर से आने वाले ज़्यादातर लोग इस बारे में जानते ही नहीं सो आप अपने दिमाग में कुछ छवियों का निर्माण करने लगते हैं. मैंने सोचा था कि वह कोई धूलभर गायों वाला शहर होगा जहां पोस्टों से घोड़े बंधे हुए होंगे वगैरह. वहां जाकर मैं पाता हूँ कि वह बिलकुल आधुनिक नगर है जो मेलबर्न या ऐसे ही किसी महानगर से सटा हुआ उपनगर भी हो सकता था. इस लिहाज़ से मैं निराश हुआ था. पर असल में वह अच्छा था. एलिस स्प्रिंग्स में कुछ भी गलत नहीं. बस वह उतना एक्ज़ोटिक नहीं था जैसे मैंने सोच रखा था
यह कह चुकने के बाद भी, यात्रा करने से हतोत्साहित होने के बजाय, ‘डाउन अंडर’ के आखीर में मुझे ऐसा लगा कि आप वापस वहां जाना चाहेंगे. कि अभी वहां बहुत कुछ है जिसे आपने देखना बाकी है. यह कहता हुआ मैं खोटेपन का प्रदर्शन कर रहा हूँ पर क्या आप वाकई निराश हुए थे क्योंकि ‘डाउन अंडर’ खत्म करने के बाद मुझे ऑस्ट्रेलिया जाने की प्रेरणा मिलने लगी थी और मैं उन सब जगहों पर जाना चाहता था जिनके बारे में आपने बताया है. सो मैं तो बेशर्मी से हर किसी को ‘डाउन अंडर’ पढने की सिफारिश करूंगा क्योंकि यह श्रेष्ठतम कोटि का यात्रावृत्त है क्योंकि इस को पढ़कर आप का मनोरंजन होता है, आप बहुत कुछ सीखते हैं, और यह आपको यात्रा करने की प्रेरणा भी देता है.
फिलहाल मैं बिल को मुक्त करता हूँ.

एक स्त्री और एक पुरुष / अदूनिस

“कौन हो तुम?”
“निर्वासित कर दिया गया मसखरा समझ लो,
समय और शैतान के कबीले का एक बेटा.”
“क्या तुम थे जिसने सुलझाया था मेरी देह को?”
“बस यूं ही गुज़रते हुए.”
“तुम्हें क्या हासिल हुआ?”
“मेरी मृत्यु.”
“क्या इसीलिये तुम हड़बड़ी में रहते थे नहाने और तैयार होने को?
जब तुम निर्वस्त्र लेटे रहते थे, मैंने अपना चेहरा पढ़ा था तुम्हारे चेहरे में.
मैं तुम्हारी आँखों में सूरज और छाँव थी,
सूरज और छाँव. मैंने तुम्हें कंठस्थ कर लेने दिया अपने अपने आप को
जैसे एक छिपा हुआ आदमी करता है.”
“तुम जानती थीं मैं तुम्हें देखा करता था?”
“लेकिन तुमने मेरे बारे में क्या जाना?
क्या अब तुम मुझे समझते हो?”
“नहीं.”
“क्या मैं तुम्हें खुश कर सकी, क्या बना सकी तुम्हें कम भयभीत?”
“हाँ.”
“तो क्या मुझे नहीं जानते तुम?”
“नहीं. तुम जानती हो?”

वरिष्ठ/अजंता देव

वे वरिष्ठ हैं, जैसे मुर्गी अंडे से
पानी मछली से और बन्दर मनुष्य से,
उनके हाथों में है वरिष्ठता सूची, जिसमें दर्ज हैं तारीख़ें और कुछ ब्यौरे
जैसे अपरान्ह पूर्वान्ह आदि,
उन्होंने हर काम मुझसे पहले किया है
मैंने बहुत बाद में दिखाया है घटियापन
बाद में की हैं मूर्खताएं, बहुत बाद में बोला है झूठ
हथियार डाले हैं बहुत बाद में मैंने
वे पृथ्वी पर आये हैं मुझसे पहले और जाएंगे भी शायद
जब झर जाते हैं पुराने पत्ते, तब कहीं निकलती हैं कोंपलें
जो और सुन्दर बनाती हैं दृश्य अगले बसंत का।

Thursday 25 December 2014

विश्व पुस्तक मेले की पदचाप और वर्ष 2013-14 की कुछ किताबें

विश्व पुस्तक मेले की पदचाप अभी से सुनायी देने लगी है। इस बार मेला 14 फरवरी 2015 से शुरू होने वाला है। तय है, ऐसे में रचनाकारों और सुधी पाठकों के मन में पुस्तक चयन की जिज्ञासा भी हिलोरें ले रही होंगी। वर्ष 2013-14 का सिंहावलोकन कर लें तो तस्वीर कुछ साफ-साफ सी दिख जाती है। रचनात्मक श्रेष्ठता को लेकर कोई सीधा पैमाना नहीं, फिर भी विद्वान विश्लेषकों के चयन-क्रम को भरोसे का मान कर चलें तो वर्ष 2014 के कविता संग्रहों पर लाल्टू लिखते हैं -
'' हिंदी में अच्छे स्तर की कविताएँ खूब लिखी जा रही हैं। वर्ष 2014 में करीब पंद्रह कविता-संग्रह मेरे पास आए हैं। ज़ाहिर है यह सीमित संख्या है और सिर्फ़ इनके आधार पर पूरे कविता परिदृश्य पर कहना कठिन है। इनमें कुछ तो वरिष्ठ रचनाकारों की हैं - केदारनाथ सिंह : 'सृष्टि पर पहरा (राजकमल)', नन्दकिशोर आचार्य की किताबें 'मृत्यु शर्मिंदा है ख़ुद' और 'मुरझाने को खिलाते हुए' (सूर्य प्रकाशन, बीकानेर), दिवंगत कवि वेणु गोपाल की अप्रकाशित कविताओं का संग्रह 'और ज़्यादा सपने (दख़ल)', शरद कोकास : 'हमसे तो बेहतर हैं रंग (दख़ल)', मोहन डहेरिया : 'इस घर में रहना एक कला है (दख़ल)', सुधीर रंजन सिंह : 'मोक्षधरा (राजकमल)' और हरिओम राजोरिया: 'नागरिक मत (दख़ल)'. बाकी सभी युवा कवियों के संग्रह हैं. इस वर्ष सिर्फ़ एक स्त्री कवि का संग्रह मुझे मिला है, प्रसून प्रसाद : 'जंगल जो दरवाज़े पर शुरू होता है' (सतलुज)'।
'' केदार की किताब पर तो क्या कहें, उन्हें इस साल ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है। ताज़ा संग्रह में मुझे सबसे ज़्यादा 'भोजपुरी' शार्षक कविता ने प्रभावित किया। आज जब भाषाएँ विलुप्त होती जा रही हैं, अनोखे ढंग से केदार ने मातृभाषा के लिए कहा है, '...क्रियाएँ खेतों से...संज्ञाएँ पगडंडियों से...बिजली की कौध और महुए की टपक ने ..दी थीं..ध्वनियाँ'। नन्दकिशोर जी की कविताओं में सघनता होती है। दोनों संग्रह एकांत में बैठ पढ़ने की माँग करते हैं। इसके विपरीत वेणुगोपाल की कविताएँ अपने अपेक्षित तेवर के साथ हमारे सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप करती हैं। पर साथ ही कुछ कविताएँ अंदर की ओर झाँकती भी हैं। 'फूलों में क़ैद कवि' कविता में वे कहते हैं - 'वह यह तो जानता है कि दीवारें कैसे तोड़ी जा सकती हैं/ लेकिन फूलों के आगे वह लाचार है।' शरद कोकास, मोहन डहेरिया, सुधीर रंजन सिंह और हरिओम राजोरिया पिछली सदी के आखिरी दशकों में उभरे प्रतिबद्ध कवियों में से हैं और उनके ताज़ा संग्रहों के विविध रंग की कविताओं में उसी की झलक है।
'' युवाओं में चुनकर नाम लेना ग़लत होगा क्योंकि विविध होते हुए भी कमोबेश एक स्तर की कविताएँ कई युवा कवि लिख रहे हैं। मेरे पास मौजूद संग्रहों में कुछ उल्लेखनीय हैं, दख़ल प्रकाशन से शिरीष मौर्य: 'दन्तकथा और अन्य कविताएँ', अशोक कुमार पाण्डेय: 'प्रलय में लय जितना', तुषार धवल : 'ये आवाज़ें कुछ कहना चाहती हैं', जसम की प्रकाशित मृत्युंजय की 'स्याह हाशिए'। इन सब की कविताओं में कई तरह की बेचैनी है। यह बेचैनी कविता रचने की और सार्थक कुछ कह पाने की भी है। प्रसून की कविताओं में अलग ढंग की परिपक्वता है जो आगे के लिए उम्मीद जगाती हैं। समकालीन सामाजिक मुद्दों के अलावा अपने परिवेश के प्रति खास संवेदनशीलता इनकी कविताओं में हैं। कहना न होगा कि ये अपनी उम्र में पिछली पीढ़ियों से अधिक पढ़े-लिखे और सचेत दिखते हैं।
'' हिंदी कविता में जनपक्ष मुखर रहा है, इसलिए कइयों को लगता है कि साफबयानी न हो तो कविता सार्थक नहीं है। इस वजह से शब्दों का अतिरेक होना और प्रयोगों से परहेज आम बात है, जबकि प्रयोगधर्मी होना और नए अंदाज़ की तलाश कविता-कर्म की शर्त है। अक्सर समकालीन प्रसंग को सीधे-सीधे कह देने को ही लोग कविता मान लेते हैं। ऐसी कविता रेटरिक में आगे हो सकती है, पर यह सोचना चाहिए कि वह पिछली पीढ़ियों से किस मायने में अलग है। जीवन में अपने विचारों के पक्ष में सक्रिय होना ज़रूरी है, कविता में बयान करके बच निकलना तो बेईमानी है। इन बातों को मैं अपने लिए सबसे पहले कह रहा हूँ। दूसरे कवि सहमत नहीं भी हो सकते हैं।
विष्णु खरे, उदय प्रकाश, निर्मला जैन, कात्यायनी, अपूर्वानंद, बद्री नारायण, चंद्र भूषण, अनिल यादव, बजरंग बिहारी तिवारी, रंगनाथ सिंह की दृष्टि से वर्ष 2013 की उल्लेखनीय किताबें रही हैं - नए युग में शत्रु/मंगलेश, विभास/यतींद्र, समय स्वप्न/सविता सिंह  मोनालिसा की आँखें/सुमन केशरी, सृष्टि पर पहरा/केदारनाथ सिंह, जितने लोग उतने प्रेम/लीलाधर जगूड़ी, समकालीन परिदृश्य में स्त्रीवादी कविता/ओमलता, मानुषखोर/गंगा प्रसाद विमल, अर्धवृत्त/मुद्राराक्षस, चूड़ी बाज़ार में लड़की/कृष्ण कुमार, जाति और वर्ग- एक मार्क्सवादी दृष्टिकोण/रंगनायकम्मा, भारतीय दलित आंदोलन का इतिहास/मोहनदास नैमिशराय, गंगा स्नान करने चलोगे/विश्वानाथ त्रिपाठी, एक क़स्बे के नोट्स/ नीलेश रघुवंशी, सम्पूर्ण कहानियाँ/मंज़ूर एहतेशाम, सृष्टि पर पहरा/केदारनाथ सिंह, स्त्री वग्ग/ऋतुराज, नये युग में शत्रु/मंगलेश डबराल, धरती अधखिला फूल है/एकान्त श्रीवास्तव, जितने लोग, उतने प्रेम/लाधर जगूड़ी, यात्रा में कविताएं/विष्णुचंद्र शर्मा, कोट के बाज़ू पर बटन/पवन करण, विभास/यतींद्र मिश्र, प्रोफ़ाइल/कमलेश, मनु को बनाती मनई/ज्ञानेंद्रपति, चूड़ी बाजार में लड़की/कृष्ण कुमार, 'सूरदास', रीतिकाव्य/नंद किशोर नवल, हिंदी रंगमंच की लोक धारा/जावेद अख़्तर ख़ान, भारतीय नवजागरण और समकालीन सन्दर्भ/कर्मेंदु शिशिर, दलित साहित्य: अनुभव, संघर्ष एवं यथार्थ/ओमप्रकाश वाल्मीकि, समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध/अनिता भारती, प्रेमचंद और दलित विवाद/सुधीर प्रताप सिंह, शब्द और देशकाल/कुंवर नारायण, वे हमें बदल रहे हैं/बलवंत कौर, निराशा में भी सामर्थ्य/पंकज चतुर्वेदी, हिंदी में समाचार/अरविन्द दास, केंद्र में कहानी/राकेश बिहारी, विज्ञान का क्रमिक विकास/रामदास चौधरी, दर दर गंगे/अभय मिश्र, पंकज रामेंदु, बम संकर टन गनेस/राकेश कुमार सिंह, हिंदी सराय: अस्त्राखान वाया येरेवान/पुरुषोत्तम अग्रवाल, मशेर का संसार/रमण सिन्हा, मेरी यादों का पहाड़/देवेंद्र मेवाड़ी, ऑस्कर अवार्ड्स: यह कठपुतली कौन नचावे/रामजी तिवारी, मस्तूलों के इर्द गिर्द/विमल चंद्र पांडेय, मोनिका कुमार की अनछपी कविताएं, सूखी हवा की आवाज़/भूपिंदर बराड़, सेप्पुकु/विनोद भारद्वाज, सुनो चारुशीला/नरेश सक्सेना।

नाजिम हिकमत की अन्तिम कविता

(चित्र : अपनी पत्नी पिराये के साथ एक भावपूर्ण मुद्रा में नाज़िम हिकमत )
क्या मेरे शव को ले जाया जायेगा नीचे अपने आँगन से ?
तुम कैसे उतारोगे मेरे ताबूत को तीन मंजिल नीचे ?
लिफ्ट में वह समाएगा नहीं
और सीढियां बहुत संकरी हैं
आँगन में होगी थोडी सी धूप
और होंगे कबूतर और बच्चों की चील-पों
फर्श हो सकता है चमकता हो बारिश में
और कूड़े-दान पड़े हों इधर-उधर बिखरे
अगर यहाँ की रीतियों के अनुसार मैं यहाँ से गया
चेहरा आसमान की ओर खुला हुआ
कोई कबूतर मुझ पर बीट कर सकता है
जो कि एक शगुन है
बैंड-बाजा यहाँ पहुंचे न पहुंचे
बच्चे ज़रूर आयेगे मेरे पास, मेरे निकट
बच्चों को पसंद हैं शव-यात्राएं
जब निकलेगा मेरा शव
तो किचन की खिड़की मुझे ताकती होगी
बालकनी में सूखते कपड़े
हिलते हुए करेंगे मुझे बिदा
मैं यहाँ खुश था
कल्पनातीत खुशी थी मेरे पास
मित्रो ! तुम सब जियो लम्बी उम्र
और जीवन पर्यन्त रहो सुखी.

Tuesday 23 December 2014

एक खाली कोख / एलिसन सोलोमन

मैंने नहीं देखी कोई कविता
मासिकधर्म की बदसूरती के बारे में
वैसे ऋतुचक्र चमत्‍कारिक होते हैं
चंद्रमा की चाल नियंत्रित रखती हैं हमारी जिंदगियां
रक्तिम लाल फूलों के सुंदर अवशेष
वे हमारे स्‍त्रीत्‍व की निशानियां हैं
हमारी शक्ति
कुदरत के साथ हमारा पक्‍का रिश्‍ता
मैंने कभी नहीं देखी कोई कविता
जो बताती हो उस उत्‍सुक इंतज़ार को
ना पाने की नहीं
बस रक्तिम निशान पाने की
बारंबार फिर से
यह जानते हुए कि मासिकधर्म
चमत्‍कारिक नहीं हैं
गहरे लाल फूल सिर्फ निशानी हैं
एक खाली कोख की
मैंने कभी नहीं पढ़ी कोई कविता
जो बताती हो कि
मासिकधर्म एक मानसिक अवस्‍था है
यह कि एक खाली कोख भी
बहुत खूबसूरत होती है
जब मैं देखती हूं ये कविताएं
मैं जान जाती हूं कि
बांझ स्‍त्री भी लिखती है कविताएं.

Monday 22 December 2014

मैंने मलाला को उड़ने दिया, पर नहीं काटे / जियाउद्दीन युसुफजई

पितृसत्तात्मक समाजों और आदिवासी समाजों में आमतौर पर पिता को बेटों से जाना जाता है। लेकिन मैं उन कुछ पिताओं में से हूं, जो अपनी बेटी से जाने जाते हैं और मुझे इस बात पर गर्व है।
मलाला ने 2007 में शिक्षा के लिए अपना अभियान शुरू किया। अपने अधिकारों के लिए खड़ी हुई। जब उसके प्रयासों को 2011 में सम्मानित किया गया और जब उसे राष्ट्रीय युवा शांति पुरस्कार दिया गया, तब वह अपने मुल्‍क की सबसे मशहूर शख्‍सीयत हो गयी। उससे पहले, वो मेरी बेटी थी, लेकिन अब मैं उसका पिता हूं। देवियो और सज्जनो, अगर हम मानव इतिहास पर नज़र डालें, तो नारी की कहानी अन्याय, असमानता, हिंसा और शोषण की कहानी है। जैसा कि आप देखते हैं, पुरुष प्रधान समाजों में, शुरू से ही, जब एक लड़की जन्म लेती है, उसका जन्म मनाया नहीं जाता। उसका स्वागत नहीं किया जाता। न तो पिता के द्वारा और न ही मां के द्वारा। पड़ोसी आते हैं और मां के साथ हमदर्दी जताते हैं और कोई भी पिता को बधाई नहीं देता। एक मां बहुत असहज महसूस करती है एक लड़की को जन्म दे कर। जब वो पहली बार एक लड़की को जन्म देती है, उसकी पहली बेटी, वो दुखी होती है। जब वो दूसरी बेटी को जन्म देती है, वो भयभीत हो जाती है। और एक पुत्र की आशा में, जब वो तीसरी बेटी को जन्म देती है, तब वो खुद को एक अपराधी की तरह महसूस करती है।
न सिर्फ मां को भुगतना पड़ता है बल्कि वह बच्‍ची, एक नवजात बच्ची, जब बड़ी हो जाती है, वह भी सहती है। पांच साल की उम्र में, जब उसे स्‍कूल जाना चाहिए, वो घर पर रहती है और उसके भाइयों का स्कूल में दाखिला करा दिया जाता है। 12 साल की उम्र तक, किसी तरह वो एक अच्छा जीवन बिताती है। वो मस्ती कर सकती है। दोस्तों के साथ सड़कों पर खेल सकती है। गलियों में घूम सकती है तितली की तरह। लेकिन जब वो किशोरावस्था में प्रवेश करती है, जब वो 13 साल की हो जाती है। तब उसे एक पुरुष के बिना घर से बाहर निकलने से मना कर दिया जाता है। उसे घर की चारदीवारी तक सीमित कर दिया जाता है। वो अब एक स्वतंत्र व्यक्ति नहीं रहती। अपने पिता और भाइयों और परिवार के लिए वो तथाकथित सम्मान का पर्याय बन जाती है और अगर वो उस तथाकथित सम्मान का उल्लंघन करती है, तो उसकी हत्या भी की जा सकती है।
ये तथाकथित सम्मान न सिर्फ एक लड़की के जीवन पर असर डालता है बल्कि परिवार के पुरुषों की जिंदगी को भी प्रभावित करता है। मैं सात बहनों और एक भाई के एक परिवार को जानता हूं। भाई खाड़ी देशों में जाकर बस जाता है, जिससे वो अपनी सात बहनों और माता पिता के लिए रोज़ी रोटी कमा सके। क्योंकि वो ऐसा सोचता है कि यह बहुत ही अपमानजनक होगा, अगर उसकी बहनें कोई कौशल सीख जाएं और घर से बाहर जाकर कुछ कमाने लगें। तो ये भाई अपने जीवन के सुख और अपनी बहनों की खुशियों को इस तथाकथित सम्मान के लिए बलिदान कर देता है।
पुरुष प्रधान समाजों का एक और आदर्श है, जिसे आज्ञाकारिता कहा जाता है। एक अच्छी लड़की उसको माना जाता है जो बहुत शांत, बहुत विनीत और बहुत विनम्र हो। यही मापदंड है। एक आदर्श अच्छी लड़की को बहुत ही शांत होना चाहिए। उसे चुप रहना चाहिए और उसे अपने माता पिता और बड़ों के फैसलों को स्वीकार कर लेना चाहिए, भले ही उसे वह पसंद न हों। अगर उसकी शादी किसी ऐसे आदमी से होती है, जिसे वो पसंद नहीं करती या फिर अगर उसकी शादी किसी बूढ़े आदमी से होती है, उसे स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि वो नहीं चाहती कि उसे अवज्ञाकारी करार दिया जाए। अगर उसकी शादी बहुत छोटी उम्र में करा दी जाती है, उसे स्वीकार करना पड़ेगा, नहीं तो उसे अवज्ञाकारी कहा जाएगा। अंत में क्या होता है? किसी कवयित्री के लफ्ज़ों में, उसकी शादी होती है, फिर सम्भोग और फिर वो जन्म देती है, और भी बेटों और बेटियों को। और ये स्थिति की विडंबना है कि यही मां, फिर अपनी बेटियों को वही आज्ञाकारिता और बेटों को वही सम्मान का पाठ पढ़ाती है… और यह कुचक्र चलता चला जाता है।
देवियो और सज्जनो, लाखों स्त्रियों की इस दुर्दशा को बदला जा सकता है, अगर हम अपनी सोच को बदलें। विकासशील देशों के आदिवासी और पुरुष प्रधान समाजों की सामाजिक जड़ताओं को तोड़ सकें। अपने राज्यों में भेदभावपूर्ण कानूनों की उन व्यवस्थाओं को ख़त्म कर सकें, जो महिलाओं के मूलभूत मानव अधिकारों के खिलाफ जाते हैं।
प्रिय भाइयो और बहनो, जब मलाला का जन्म हुआ था, मेरा विश्वास कीजिए, मुझे नवजात बच्चे पसंद नहीं हैं, पर जब मैं गया और मैंने उसकी आंखों में देखा, मेरा विश्वास कीजिए, मैंने अत्यंत सम्मानित महसूस किया। उसके पैदा होने के काफी समय पहले मैंने उसका नाम सोचा था और मैं अफगानिस्तान की एक वीर महान स्वतंत्रता सेनानी से प्रभावित था। उनका नाम था मलालाई ऑफ़ मैवंद। मैंने उनके नाम से अपनी बेटी का नाम रख दिया। मलाला के जन्म के कुछ दिन बाद, मेरी बेटी के जन्म के बाद, मेरे भाई आये। एक वंश-वृक्ष साथ लाये। युसुफजई परिवार का वंश-वृक्ष। जब मैंने उस वंश-वृक्ष को देखा, तो उसमें तीन सौ साल पुराने पूर्वजों का भी जिक्र था। पर जब मैंने ध्यान दिया, तो सभी पुरुष थे। और मैंने अपनी कलम उठायी, अपने नाम से एक रेखा खींची… और लिखा, “मलाला”।
जब मलाला थोड़ी बड़ी हुई, साढ़े चार साल की, मैंने उसे अपने स्कूल में भर्ती कराया। आप ये सोच रहे होंगे कि मैंने एक लड़की को स्कूल में प्रवेश कराने के बारे में उल्लेख क्यों किया? हां, मुझे इसका जिक्र करना चाहिए। कनाडा, अमेरिका और कई विकसित देशों में ये भले ही कोई बड़ी बात न हो, लेकिन गरीब देशों में, पुरुष प्रधान समाजों में, आदिवासी समाजों में ये एक लड़की की जिंदगी का बहुत बड़ा दिन होता है। एक स्कूल में नामांकन का मतलब है, उसकी पहचान और उसके नाम को मान्यता मिलना। एक स्कूल में दाखिले का मतलब है कि उसने अपने सपनों और आकांक्षाओं की दुनिया में प्रवेश किया है, जहां वह भविष्य के लिए अपनी क्षमताओं का पता लगा सकती हैं। मेरी पांच बहनें हैं और उनमें से एक भी स्कूल नहीं जा सकीं। आपको आश्चर्य होगा, दो हफ्ते पहले, जब मैं कनाडा का वीजा फार्म भर रहा था और मैं फार्म में परिवार खंड को भर रहा था, मुझे अपनी कुछ बहनों के कुलनाम याद नहीं आये। उसका कारण ये था कि मैंने कभी भी अपनी बहनों का नाम किसी भी दस्तावेज पर लिखा हुआ नहीं देखा है। यही वजह है कि मैंने अपनी बेटी को महत्व दिया। जो मेरे पिता मेरी बहनों और अपनी बेटियों को नहीं दे सके, मैंने सोचा कि मुझे ये बदलना चाहिए।
मै अपनी बेटी की अक्लमंदी और प्रतिभा की सराहना करता था। मैंने उसे प्रोत्साहित किया कि जब मेरे दोस्त आयें तो वो मेरे साथ बैठे। मैंने उसे प्रोत्साहित किया कि विभिन्न बैठकों में वो मेरे साथ चले। और ये सभी अच्छे संस्कार, मैंने उसके व्यक्तित्व में विकसित करने की कोशिश की। और यह केवल मलाला के साथ ही नहीं था। मैंने ये सभी अच्छे संस्कार, अपने स्कूल में, छात्रों और छात्राओं को भी दिये। मैंने अपनी लड़कियों को सिखाया, मैंने अपनी छात्राओं को सिखाया कि वो आज्ञाकारिता का पाठ भुला दें। मैंने अपने छात्रों को सिखाया कि वो तथाकथित झूठे सम्मान का पाठ भुला दें।
प्रिय भाइयो और बहनो, हम महिलाओं के अधिक अधिकारों के लिए प्रयास कर रहे थे और हम संघर्ष कर रहे थे कि समाज में महिलाओं को अधिक से अधिक स्थान मिल सके। लेकिन हम एक नयी घटना के पार आये। यह मानव अधिकारों के लिए और विशेष रूप से महिलाओं के अधिकारों के लिए घातक थी। उसको तालिबान-निर्माण कहा गया। इसका मतलब है – महिलाओं की भागीदारी का पूरा निषेध, सभी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों से। सैकड़ों स्कूल नष्ट कर दिये गये। लड़कियों के स्कूल जाने पर रोक लगा दी गयी। महिलाओं को बुर्का पहनने के लिए मजबूर किया गया और उनके बाजार जाने पर रोक लगा दी गयी। संगीतकारों को खामोश कर दिया गया, लड़कियों पर कोड़े बरसाये गये और गायकों को मार दिया गया। लाखों पीड़ित थे। लेकिन कुछ ने आवाज़ उठायी और ये सबसे डरावनी बात होती थी जब आपके आसपास सभी ऐसे लोग हों जो मारते हों और कोड़े लगाते हों, और आप अपने अधिकारों के लिए बोलो। यह वास्तव में सबसे डरावनी बात है।
दस साल की उम्र में मलाला खड़ी हुई। वह अपने शिक्षा के अधिकार के लिए खड़ी हुई। उसने बीबीसी ब्लॉग के लिए एक डायरी लिखी। उसने न्यूयॉर्क टाइम्स वृत्तचित्रों के लिए खुद को नामांकित किया। उसने हर-संभव मंच से बात की और उसकी आवाज सबसे शक्तिशाली आवाज थी। वह दुनिया भर में एक तेज की तरह फैल गयी। यही कारण था कि तालिबान उसके अभियान को बर्दाश्त नहीं कर सका और 9 अक्टूबर 2012 को, उसे बिंदु रिक्त सीमा से सिर में गोली मार दी गयी।
यह मेरे और मेरे परिवार के लिए प्रलय का दिन था। दुनिया एक बड़े ब्लैक होल जैसी लगने लगी। जब मेरी बेटी जिंदगी और मौत के कगार पर थी, मैंने अपनी पत्नी से धीरे से पूछा, “क्या मुझे उस सब का दोषी माना जाना चाहिए, जो हमारी बेटी के साथ हुआ?”
उन्होंने अचानक मुझसे कहा, “कृपया अपने आप को दोषी न ठहराएं। आप सही कारण के लिए खड़े हुए। आपने अपना जीवन दांव पे लगा दिया – सच्चाई के लिए, शांति के लिए, शिक्षा के लिए… और आपकी बेटी आपसे प्रेरित हो गयी और आपके साथ शामिल हो गयी। आप दोनों सही रास्ते पर चल रहे थे और ईश्वर उसकी रक्षा करेंगे।”
ये कुछ शब्द मेरे लिए बहुत मायने रखते हैं और मैंने फिर कभी ये प्रश्न नहीं पूछा।
जब मलाला अस्पताल में थी और गंभीर पीड़ा से गुज़र रही थी और उसको तेज सिर दर्द होता था, क्योंकि उसके चेहरे की नस कट गयी थी, मुझे एक अंधेरी छाया दिखाई पड़ती थी अपनी पत्नी के चेहरे पर। लेकिन मेरी बेटी ने कभी शिकायत नहीं की। वो कहती थी, “मैं अपनी टेढ़ी मुस्कान और अपने चेहरे की अकड़न के साथ ठीक हूं। मैं ठीक हो जाऊंगी। चिंता मत करिए।” वो हमारा धीरज थी और उसने हमें सांत्वना दी।
प्रिय भाइयो और बहनो, हमने उससे सीखा कि सबसे कठिन समय में भी कैसे मजबूत बना जाए और मुझे आपको यह बताते हुए ख़ुशी होगी कि बच्चों और महिलाओं के अधिकारों के लिए एक आदर्श होने के बावजूद वह किसी भी 16 साल की लड़की की तरह है। होमवर्क अधूरा रह जाने पर वो रोती है। वो अपने भाइयों के साथ झगड़ती है और मैं इस बात से बहुत खुश हूं।
लोग मुझसे पूछते हैं, मेरे पालन पोषण में ऐसा क्या विशेष है जिसने मलाला को इतना निर्भीक, इतना साहसी, इतना मुखर और इतना संतुलित बना दिया? मैं उनसे कहता हूं, मुझसे ये मत पूछो कि मैंने क्या किया। मुझसे ये पूछो कि मैंने क्या नहीं किया। मैंने उसके पर नहीं काटे, बस इतना ही।
http://mohallalive.com/2014/12/23/ziauddin-yousafzai-my-daughter-malala/

अमेरिकी कवि वाल्ट ह्विटमैन / अनुवाद लाल्टू

मैं देह का कवि हूँ और मैं आत्मा का कवि हूँ,
स्वर्ग के सुख मेरे पास हैं और नर्क की पीड़ाएँ मेरे साथ हैं,
सुखों को मैं बुनता हूँ और उन्हें बढ़ाता हूँ, दुःखों कों नई भाषा में बदल देता हूँ।
 मैं उतना ही स्त्री का कवि हूँ जितना कि पुरुष का,
और मैं कहता हूँ कि स्त्री होना पुरुष होने जैसा ही गरिमामय है,
और मैं कहता हूँ कि मानव की माँ से बड़ा कुछ नहीं होता।
 मैं संवृद्धि या गौरव के गीत गाता हूँ,
बहुत हो चुका बचना बचाना,
मैं दिखलाता हूँ कि आकार महज परिवर्तन है।
 तुम क्या औरों से आगे बढ़ गए हो? राष्ट्रपति हो क्या?
यह छोटी बातें हैं, सब आते ही आते रहेंगे और गुज़र जाएँगे।
 मैं वह हूँ जो नाजुक और बढ़ती रातों के साथ चलता हूँ,
 रात के शिथिल आगोश में धरती और समंदर को मैं पुकारता हूँ।
और पास आ, ओ खुले सीने वाली रात – और पास आ
जिजीविषा बढ़ाती चुंबकीय रात!
दख्खिनी हवाओं वाली रात – थोड़े से बड़े तारों वाली रात!
अब तक जगी रात – ऐ नंगी पागल गर्मियों की रात।
 ऐ ठंडी साँसों वाली विशाल धरती, मुस्करा!
ऊँघते और पिघलते पेड़ों वाली धरती!
बीते सूर्यास्त वाली धरती - धुंध भरे पर्वत शिखरों वाली धरती!
काँच सी चमकती हल्की नीली पूर्णिमा की चाँदनी वाली धरती!
नदी के ज्वार की चमक और छाया वाली धरती!
मेरे लिए साफ चमक उठते धूमिल बादलों वाली धरती!
सुदूर को आगोश में लेने वाली धरती - खिलते सेवों की गाढ़ी सुगंध वाली
धरती!
मुस्करा कि तेरा आशिक आया है।
 ऐ अखूट दानी, तूने मुझे प्यार दिया है - इसलिए मैं भी तुझे प्यार देता हूँ!
 ओ अवाच्य अगाध प्रेम!

बुत हमको कहें काफ़िर / प्रियंवद

कुछ दिन पहले हलीम मुस्लिम कॉलेज से 'दास्तान' पर शम्सुर्रहमान फ़ारूकी साहब का व्याख्यान सुन कर निकला तो मन उदास था। इससे पहले की शाम जब एक दोस्त को बताया था तो उसने सहज रूप से पूछा था, 'दूसरे पाकिस्तान जाओगे?' अब सामान्यत: मध्य या उच्च मध्य वर्ग के हिन्दू इसी तरह बोलते हैं। बोलते नहीं, तो सोचते हैं।
बहुत दिन बाद इस पुराने घने मुस्लिम इलाके में आया था। पहले बहुत आता था इसलिये कि वहां एक दूसरे से सटे तीन टॉकीज थे। 'रूपम' 'नारायण' और 'सत्यम' (नामों पर ध्यान दें)। वहाँ बीसियों फिल्म देखी थीं। तभी उन मुहल्लों की सड़कों पर घूमा था। मामूली रेस्त्रां में बासी सामोसे, टमाटर की चटनी के नाम पर कद्दू की लाल रंग की चटनी, ठंडी पकौडिय़ां, काली कड़वी चाय पी थी। हलीम मुस्लिम कॉलेज के मैदान से ही हमारे मशहूर क्रिकेट क्लब की पराजय गाथा शुरू हुयी थी। ज़फ़र नाम के लड़के को मैं गेंद फेंक रहा था। नौ रन पर उसका कैच छूटा, उसने फिर सैकड़ा मारा था और आठ विकेट भी लिये थे। हमें बाद में पता चला था कि वह 'रणजी' खेलता है। उस पराजय के बाद हमारे आत्मविश्वास को बहुत धक्का लगा था। इस और कुछ दूसरे कारणों से, हमारा क्रिकेट क्लब बिखरता चला गया था। 'स्मगलिंग' के बाजार का सबसे बड़ा केन्द्र भी वही मुस्लिम इलाका था। 'इम्पोर्टेड' चीजें तब 'स्टेटस सिब्बल' होती थीं। बम्बई के अपराध जगत का मुख्य काम तब स्मगलिंग था। हाजी मस्तान, यूसुफ पटेल, सुकुर नारायण बखिया, वरदराजन मशहूर नाम थे। ब्लू फिल्म, सोनी का म्यूजिक सिस्टम, विदेशी परफ्यूम, विदेशी सिगरेट सब कुछ उस इलाके में मिलता था। शहर की अपराधी दुनिया के बड़े नाम भी वहां थे। वहां की एक सड़क तो 'खूनी सड़क' के नाम से ही जानी जाती थी। एक ही परिवार के बीच 39 कत्ल हो चुके थे। वहाँ पर तीसरे लड़के के पास हथियार होता था। चारों तरफ गरीबी, अशिक्षा, गंदगी थी। पुरपेच गलियों में नालियों के ऊपर खटोलों पर बैठे बलगम उगलते बूढ़े, बुर्कों में लिपटी औरतें, कमजोर बीमार बच्चे, खिड़कियों पर लटकते टाट के पर्दे, भट्ठियों पर चढ़ी काली पेंदी वाली देगचियाँ, उर्दू के साइन बोर्ड, सब उस इलाके की खास पहचान था। यह सब था, फिर भी कोई उसे दूसरा पाकिस्तान नहीं कहता था। वह भी तब, जब देश का बटवारा होने के बाद हम सिर्फ बीस साल ही आगे निकले थे। वह भयानक कालखंड बहुत से लोगों की यादों में अभी ताजा था और उसकी कड़वाहट बची थी, जो एक दूसरे के लिए नफरत पैदा करने को काफी थी। इसके अलावा न आज जैसी आधुनिकता थी, न शिक्षा, न तकनीक, न रोशनख्याली, न तरक्की, न जदीदियत, फिर भी कहीं न कहीं इतनी समझ थी, इतनी चेतना, इतना इतिहास बोध था, या साथ रहने की इतनी आदत थी, कि सब हमारे अपने, इस मुल्क के ही हिस्से थे, इसी हिन्दुस्तान के, किसी पाकिस्तान के नहीं।
व्याख्यान काफी देर से शुरू हुआ था। ख़ान फ़ारूक़ ने मुझे प्रिंसिपल के कमरे में बैठा दिया था। वहां और भी बहुत से लोग थे। आते जा रहे थे। वे अध्यापक थे, अदीब थे, सुनने वाले थे, फ़ारूकी साहब के मद्दाह थे। मैं एक ओर चुपचाप बैठा था। न कोई मुझे जानता था, न मैं किसी को। इन्तज़ार के उस लम्बे दौर में दिमाग में यही सब घूमने लगा था। अपनी जिन्दगी में शामिल मुसलमान, उर्दू ज़बान से इश्क, इतिहास, मुस्लिम बस्तियाँ... सब अलग अलग शक्लों में 'फेड इन' - 'फेड आउट' करते रहे। जो बात सबसे ज्यादा हैरान परेशान और उदास कर रही थी, वह दो अनदेखी सी सरहदें थीं जो अब मुहल्लों के बीच तक खिंच गयी थीं, न सुलझती सी दिखती गांठे थीं, बहुत सारी बेबसी और इससे पैदा होते बहुत सारे सवाल थे। आज मन की ये सलवटें खोलना चाहता हूँ, पर बात ज़रा नाजुक है, थोड़ी उलझी हुई भी, इसलिये न समझे जाने या गलत समझे जाने के पूरे खतरे हैं। चिराग़ की ज़रा सी रगड़ से 'जिन्न' की तरह कोई भी वहशत नमूदार हो सकती है, फिर भी...।
'मुसलमान' को जानने की शुरूआत घर से हुई थी। किसी मुसलमान के आने पर माँ अलग से बर्तन निकालती थी। बाद में उन्हें आग से जला कर 'शुद्ध' भी करती थी। पिता का इन बातों से कोई ताल्लुक नहीं था। वह शायद जानते भी न हों कि ऊपर यह सब होता है। तब घर के सामने की पार्क में 'शाखा' लगती थी। उस पार्क में 'गोल इमारत' और आसपास रहने वाले हम लड़कों का साम्राज्य था। हमारा पूरा दिन उसी पार्क में बीतता था। वहीं सारे खेल होते थे। शाखा में आसपास के मुहल्लों में रहने वाले लड़के भी आते थे। जवान अधेड़ और बूढ़े भी। खाकी निकर, सफेद कमीज, टोपी, लाठी। निश्चित समय पर केसरिया डंडा लगा कर वे ध्वज प्रणाम करते उसके बाद दूसरे कार्यक्रम होते थे। शाखा में आने वालों लड़कों से भी हमारी दोस्ती थी, पर दूर वाली। वे हमें शाखा में आने के लिये कहते थे। वे मध्य और उच्च मध्यवर्ग के थे। उनकी बातों में मिठास होती थी। बातचीत का तरीका बेहद विनम्र और शालीन था। वे पढऩे में तेज थे। हमारे विषयों में हमें हर तरह की मदद करने का आश्वासन देते थे। वहां कहीं, कुछ गलत नहीं था। खेल, अच्छी बातें, व्यायाम, भद्र लड़के, अनुशासन था। कोई अभद्रता, गाली गलौज या स्तर से गिरी बात नहीं थी। फिर भी हम नहीं जाते थे।
एक दिन 'शाखा' के दौरान ही हमारा एक मित्र श्याम, जो उनका परिचित नहीं था, 'ध्वज प्रणाम' के बाद उनके खेलों में शामिल हो गया। खेल खत्म होने के बाद उनके प्रमुख ने श्याम का स्वागत किया और नाम पूछा - 'मुश्ताक', श्याम ने कहा - सन्नाटा छा गया। शाखा खत्म होने का समय था। सब चले गए। श्याम भी हंसता हुआ हमारे बीच लौट आया। उसी ने फिर पूरा किस्सा सुनाया।
हमें तब कोई समझ नहीं थी कि यह सब क्या है, क्यों होता है? हमें किसी ने कभी कुछ बताया भी नहीं थी। हमें बस इतना पता था कि ये लोग मुसलमानों को पसन्द नहीं करते। मजा आएगा, बस यही सोच कर श्याम ने यह किया था। यह हिम्मत भी वह इसलिए कर पाया था कि वास्तव में तो वह एक हिन्दू ही था, इसलिये कहीं न कहीं उनके बीच का होने का भाव उसे आश्वस्ति दे रहा था। निरापद बना रहा था। यदि मुसलमान होता तो वह यह जुर्रत कभी नहीं करता।
'शाखा' की ही एक और घटना हुई। राजेश्वर कृष्णन हमारा दक्षिण भारतीय मित्र है। पारम्परिक, निष्ठावान हिन्दू परिवार था। उसके पितामहों में एक को बनारस के राजा दो सौ साल पहले दक्षिण से पुरोहित के रूप में लाए थे। बनारस के दक्षिण भारतीयों के मुहल्ले में गंगा किनारे आज भी उसका वह पुश्तैनी घर है जो उन्होंने तब उन्हें रहने के लिये दिया था। उसकी मां निष्ठावान हिन्दू थी। 'शाखा' में तय हुआ कि शरद पूर्णिमा के अगले दिन सबको चांदनी में रखी खीर खिलाई जाएगी। राजेश्वर ने अपनी माँ को बताया कि वह शाम को खीर खाने शाखा जाएगा। आज राजेश्वर इंग्लैंड में है। बड़ा सर्जन है। पहले वर्षों लखनऊ में रहा है। वहां अपना घर है। साल में दो बार कुछ दिन लखनऊ आ कर रहता है। आज भी भीगी आँखों से बताता है कि मेरी माँ ने पूछा था 'क्यों जाओगे?'
''खीर मिलेगी''
'वहाँ गए तो टाँगें तोड़ दूँगी' मां ने कहा था। वह बताता है, मैंने मां से बहस की कि क्या बुराई है? प्रसाद की खीर है। प्रसाद तो घर में, मन्दिरों में सब जगह खाते हैं। फिर वहां खेल भी होगें। पर उसका एक ही उत्तर था 'नहीं जाना है।' राजेश्वर की पत्नी अंग्रेज़ है। बहुत साल लखनऊ में रही है। आज राजेश्वर को अपनी माँ की बात समझ में आती है। खासतौर से तब जब उसकी पत्नी लखनऊ की सड़कों पर निकलती है। बाद में बच्चों के बड़े होने पर वह इंग्लैंड चला गया। उसके बच्चे शक्ल से अंग्रेज़ लगते हैं। बहुत अच्छी हिन्दी बोलते हैं। बेटी का नाम रोहिणी है। वे भी साल में एक बार लखनऊ आते हैं। पत्नी आती रहती है। शायद वे सब न डरते हों, पर उसके साथ होने पर राजेश्वर डरता है। ट्रेन में, सड़कों पर, भीड़ में, मेलों में, जुलूस में, उसी तरह जिस तरह तमिलों द्वारा राजीव गांधी की हत्या के बाद उसे सलाह दी गयी थी कि घर के बाहर 'डॉ. कृष्णन' की नेम प्लेट हटा ले, क्योंकि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिक्खों के साथ जो हुआ, सबने देखा था। उसने भी कानपुर में देखा था। तब कानपुर में 72 सिक्खों की हत्या हुई थी और दिल्ली के बाद सिक्खों की हत्या करने के मामले में दूसरा शहर कानपुर था। वह उसी तरह डरता है जिस तरह बाबरी मस्जिद गिरने के बाद डरा था, और जो मुसलमानों के साथ हुआ था और जिसे उसने देखा था। वह उसी तरह डरता है, जिस तरह उड़ीसा में ग्राहम स्टेन्स को जलाने और चर्च फूंके जाने के बाद डरा था। 'नस्ल की श्रेष्ठता', 'धर्म की उच्चता', 'विशिष्ट होने का बोध', 'अन्य से घृणा', 'सांस्कृतिक गौरव', 'राष्ट्रवादी उन्माद', धर्म-शक्ति का प्रदर्शन, कर्मकांड सब उसे डराते हैं, किसी भी धर्म, देश, जाति के हों।
'शाखा' के दिन हमारे बचपन के दिन थे। हमने कभी दूसरा पाकिस्तान ऐसा शब्द नहीं सुना था। हमारे घर पारम्परिक रूप से धार्मिक थे, पर हमें किसी ने नहीं बताया था कि 'हिन्दू' क्या होता है, 'मुसलमान क्या होता है?' सब कुछ सहज रूप से हमारे सामने से गुजरता रहता था। हम तक आता था। हम उसी से सब कुछ ग्रहण करते चलते थे। सब्जी मंडी से सुबह पिता के साथ लौटता, तो 'शहर कांग्रेस कमेटी' मुख्यालय 'तिलक हाल' में दुबले पतले हमीद खाँ को शांत भाव से चुपचाप अकेले चर्खा कातते रोज देखता था। पिता से उनकी दुआ सलाम होती थी। कानपुर की इकबाल लाइब्रेरी, उर्दू की सबसे पुरानी और बड़ी लाइब्रेरी है। नय्यर साहब का परिवार इसके संस्थापकों में था। नय्यर साहब वकील थे। बचपन में उन्हें अक्सर देखता था। कचहरी से लौटते समय घर आ जाते थे। छोटा कद था, पेट कुछ ज्यादा बाहर निकला था। उस पर सफेद पैंट बमुश्किल तमाम रूकती थी। उस पर काला कोट। सबसे दिलचस्प, सर पर अंग्रेजों वाला गोल, खाकी रंग का हैट था। नय्यर साहब का मदन नाम के व्यक्ति से किसी बात पर विवाद हुआ। हालांकि वह खुद वकील थे पर दोनों ने पिता को पंच बनाया। महीनों दोनों आते थे। बहस ...तर्क ...दस्तावेज ...सबूत ....गवाह सब चलता रहा। आज लोग नहीं जानते, पर तब विवाद में पंच का निर्णय महत्वपूर्ण और वैधानिक था। कोर्ट जाने से पहले लोग किसी को पंच बनाकर झगड़ा निपटा लेते थे। पंच पर दोनों को विश्वास होता था। पंच का निर्णय कानूनी मान्यता रखता था। आज भी रखता है, पर लोगों ने पंच व्यवस्था पर विश्वास छोड़ दिया है। पिता कई विवादों में पंच बने थे।
खैर... उस दौरान नय्यर साहब को खूब देखा। दूसरा पक्ष पंडित मदन थे। वैसे वे व्यापारी थे पर 'रामायणी' भी थे। अक्सर 'रामचरित मानस' की व्याख्याएं करते थे। बहुत अच्छे स्वरों में चौपाई, दोहे पढ़ते थे। मैंने उन्हें घर पर कई बार सुना था। मानस की एक व्याख्या आज भी याद है जिसमें रावण अहंकार, राम आत्मा, रावण के भाई, अन्य दुर्गुण थे। सीता, हनुमान, भरत आदि भी मनुष्य की विभिन्न प्रवत्तियां थीं। पूरी रामचरितमानस अध्यात्म के स्तर पर विवेचित थी।
एक ओर इकबाल लाईब्रेरी के नय्यर साहब, दूसरी ओर रामायणी पंडित मदन। विवाद का फैसला पता नहीं क्या हुआ। बाद के दिनों में नय्यर साहब की बहन शहर के सबसे प्रसिद्ध और सम्मानित 'नगर महापालिका गल्र्स इंटर कॉलेज, सिविल लाइंस' की प्रधानाध्यापिका हुयीं। सब उन्हें 'आपा जान' कहते थे। पाठक कल्पना करें कि मेरी दो बहनों की शादी में पिता ने पूरा गल्र्स कॉलेज और गल्र्स हॉस्टल ले लिया था। कॉलेज में हम, यानी लड़की वाले रूके थे, हॉस्टल में बराती। वहीं दावत, शादी, भंडार, बारात, बिदा सब हुआ था। ऐसा इसलिये संभव हुआ था कि प्रिंसिपल आपा जान थी। पिता के पास हर साल लोग बच्चों के एडमिशन की सिफारिश के लिये आते थे। लड़कियों को वह आपाजान के नाम एक चिट लिख देते थे। एडमिशन हो जाता था।
वही पतंगबाजी के दिन भी थे। पतंग की दुकान 'बिसातखाने' की गलियों में थी। ये गलियां आगे जा कर घनी और संकरी होती हुई 'रोटी वाली गली' में मिल जाती थीं। रोटी वाली गली रूमाली रोटियों, कबाब और रंडियों (उस समय यही शब्द प्रचलित था। बचपन में इसे सुनते थे, इसलिये इस लेख की पूरी असहमति के बावजूद, यहां इसका प्रयोग एक अनिवार्य विवशता है - लेखक इसके लिये क्षमाप्रार्थी है।) के लिये मशहूर थी। नूरे यानी नूर आलम की पतंग की दुकान यहीं थी। वह दोपहर के बाद अपने घर के बाहर चबूतरे पर कुछ पतंगे, लटाई, सद्दी, मांझा रख कर बैठ जाता था। मैं हर तीसरे चौथे दिन वहां जाता था। नूरे की उंगलियाँ आगे से गोल और गली हुई थीं। उन्हीं उंगलियों पर मांझे का 'चव्वा' करते हुए वह बताता था कि उसके पुरखे लखनऊ के चौक में रहते थे और वाजिद अली शाह के लिये मांझा बनाते थे।
लखनऊ के चौक में मेरा ननिहाल था। लखनऊ के चौक को ऐसे नहीं समझा जा सकता, जब तक कि उसकी गलियों से न गुजरें। उस लखनऊ की ज़िंन्दगी, कला, तहज़ीब या तो चौक से शुरू होती थी या वहीं पनाह पाती थी। आज कोई इसे एक ख्वाब की तरह समझना चाहे, तो 'गुजिश्ता लखनऊ' (अब्दुल हलीम, 'शरर') 'उमरावजान' (हादी रूसवा) और 'ये कोठेवालियाँ' (अमृतलाल नागर) पढ़ सकता है।
'गोल दरवाज़े' के अंदर जाते ही चौक की मशहूर मुख्य सड़क शुरू हो जाती है। तब चांदी का वरक पीटने वालों की नन्ही हथौडिय़ों की आवाजें सुनायी देती थीं। बंधी हुई लय में उठती गिरती यह आवाज घुंघरूओं से कुछ ज्यादा और मंदिरों की घंटियों से कुछ कम होती थी। सड़क पर नीचे दुकानें, ऊपर मकानों के छज्जे थे। इन्हीं छज्जों से कई बार मैंने ताजिए निकलते देखे थे। हिन्दू ताजिए उसी तरह देखते थे जिस तरह मुसलमान दशहरे में राम की सवारी। मेरी नानी का घर ठेठ चौक के अंदरूनी हिस्से में था। उस मुख्य सड़क से फूलों वाली गली के और आगे जा कर एक रास्ता बाएं हाथ पर, बहुत पतली, ऊपर की चढ़ाई वाली गली में जाता था। उसके अंदर घुसने के कुछ कदम बाद ही मकान शुरू होते थे। ये मकान दुमंजिले थे। गली के बाएं हाथ पर शुरू के तीन मकान हिन्दुओं के थे। दाएं हाथ पर मुसलमानों के। गली इतनी पतली थी कि दोनों तरफ के मकानों की खिड़कियों से हाथ बढ़ाकर सामान लिया जा सकता था, पर ये खिड़कियां बंद ही रहती थीं, अलबत्ता कभी-कभी तब खुलती थीं जब गर्मियों की दोपहर में कोई फेरीवाला टोकरी में फालसे, करेंदे, लोकाट, कसेरू रख कर आवाज देता हुआ निकलता था।
हिन्दुओं के घर अंदर से मिले हुए थे। छोटी खिड़कियों से होकर एक से दूसरे घर में जाया जाता था। यह व्यवस्था इसलिये थी कि औरतों को एक घर से दूसरे घर जाने के लिये गली में न जाना पड़े। मुसलमानों के घरों की खिड़कियों पर पर्दे पड़े रहते थे। उनके दरवाजे गली से अंदर को फूटती शाखों के अन्धेरों में थे। इन आठ दस मकानों के बाद यह गली आगे पूरी तरह मुसलमानों की बस्ती में मिल जाती थी। यहां मस्जिद थी, मदरसा था, मकतब था, हकीम था, गोश्त की दुकान थी। खास तरह की जीवन शैली, पोशाक, मकान, लोग थे। पहले मेरी हर साल की गर्मियां वहीं बीतती थीं। तब नूरे की बातें याद आती थीं। वापस लौटते समय चौक की दुकान से पतंगें, लटाई लेकर लौटता। जब दूसरों की पतंगें काटता, तब गर्व से कहता कि यह मांझा उसी दुकान का है जो वाजिद अली शाह के लिये मांझा बनाती थी। इसी चौक में अमृतलाल नागर रहते थे।
एम.ए के दिनों में भी कभी उमरावजान 'अदा' पढ़ी थी। संस्कृत साहित्य में भी वेश्याओं की एक विराट, विविध दुनिया पढ़ चुका था। संसार की किसी प्राचीन भाषा के साहित्य में वेश्या-जीवन का या समाज में वेश्याओं की स्वीकृति का इतना विपुल, प्रामाणिक चित्रण नहीं है, जितना संस्कृत में। 'कुट्टनीमतम'  'चर्तुभाणी' पढ़ कर तब बहुत हैरान हुआ था। यह एक ऐसी भारतीय संस्कृति थी जिस पर सबने चुप्पी साध ली थी, सिवाय हमारे कुछ महान इतिहासकारों और विद्वानों के। वासुदेवशरण अग्रवाल, डॉ. मोतीचंद्र व पांडुरंग वामन काणे के नाम हिन्दी के आत्ममुग्ध लेखक के लिए अपरिचित ही होंगे।
वेश्याओं का जीवन बहुत कौतुक रचता था। रोमांचित करता था। 'आम्रपाली', 'बसंतसेना', या 'एसपाशिया' 'फ्रीनी', 'द्योतमा' के साथ 'उमराव जान' का भी जादू जुड़ गया था। लिहाजा शोध के लिये इन्हीं को विषय के रूप में चुन लिया। 'ये कोठेवालियाँ' में नागर जी ने प्रस्तावना में लिखा है, ''सन् 1950 में राष्ट्रपति देशरत्न राजेन्द्र प्रसाद ने यह इच्छा प्रकट की थी कि, वेश्याओं से भेंट करके कोई व्यक्ति उनके सुख दुख का हाल लिखे।'' वे स्वयं ही इस सम्बन्ध में कुछ लिखना चाहते थे, परन्तु अवकाशाभाव के कारण ऐसा न कर सके। यह काम फिर नागर जी ने तभी हाथ में लिया था। मेरा शोध का विषय विश्वविद्यालय में समिति के सामने था। तब कुलपति नीनान अब्राहम ने उसे फेंकते हुए कहा था 'कानपुर यूनिवर्सिटी वेश्याओं पर रिसर्च करने नहीं दे सकती।' यह 74 या 75 का साल था मेरे एक गुरु समिति में थे। एक जिद और सम्मान की बात बना कर उनके पूरी तरह अडऩे के बाद मेरा विषय स्वीकृत हुआ। मैंने वेश्या की जगह शब्द 'रूपाजीवा' रखा था। इसी पर उन्होंने बहस की थी कि यह वेश्याओं से अलग बात है। बाकायदा शब्दकोश मंगाया गया था।
'ये कोठेवालियाँ' में वेश्याओं के जीवन की बहुत आन्तरिक सूचनाएँ हैं। बाई, जान, बेगम, नवाब के लकब वाली औरतों के बहुत से साक्षात्कार है। आज हम नहीं समझ सकते, पर तब इन औरतों का अपना एक बिल्कुल अलग और बहुत विशिष्ट जगत था। सामाजिक स्थितियाँ, जीवन, सुख-दुख, बोली-बानी सब अलग थे। ग़ज़ल और संगीत को तो जैसे इन्होंने ही अपने कोठों में जीवित रखा था। उस पुस्तक में लखनऊ और आसपास की वेश्याओं के बीच बराबर की टक्कर में कानपुर की वेश्याओं का भी जिक्र था। वे अधिकांश मुसलमान थीं। कानपुर का 'तलाक मोहाल' या 'बेगमगंज' अपनी बात खुद कह देता है। उस पुस्तक में बहुत सी अन्य पुस्तकों का भी जिक्र था। उन्हें पढऩा चाहता था, पर उनके प्रकाशकों के नाम नहीं थे। सोचा लखनऊ जाकर नागर जी से मिल लूँ। संभव है उनके पास कहीं कोई सूची हो या फिर कुछ ऐसी जानकारियाँ मिल जाएँ जिनसे वे किताबें उपलब्ध हो जाएँ। मैंने लखनऊ में अपने मामा से कहा कि नागर जी से मिलना है। हमारी लखनऊ मिल के मैनजरनुमा व्यक्ति गुलाबचंद घर जैसे ही थे। मामा ने उनके साथ नागर जी के घर भेज दिया। गुलाबचंद को सब 'गुलब्बो' कहते थे। नागरजी भी। 'कैसे हो गुलब्बो?' उन्होंने पूछा था।
चौक क्या, लखनऊ में ही नागर जी किंवदन्ति की तरह थे। लखनऊ उन्हें अपनी शान मानता था। बहुत कम ऐसा होता है जब कोई शहर किसी लेखक के नाम से जाना जाए। लखनऊ में ऐसा ही था। नागर जी का घर भी अपने आप में किंवदन्ति था। बड़ा-सा फाटक, फिर आँगन, उसके बाद नागर जी का बड़ा, खुला हुआ बेतरतीब कमरा, कमरे में बड़ा तख्त। कमरे में चारों ओर किताबें। तख्त पर नागर जी की दुनिया भी कितनी थी? पान, ठहाके, भांग, मस्ती और दुर्लभ बतरस। हम तख्त पर बैठ गए। मैं क्या, मेरी हस्ती क्या? अलबत्ता गुलब्बो से उनके पुराने सम्बन्ध थे मैंने किताबों के प्रकाशकों के नाम न दिए जाने की ओर संकेत किया। उन्होंने मेरा विषय सुना। अपनी गल्ती को माना। मेरे इस अनुरोध पर, कि अगले संस्करण में प्रकाशकों के नाम जोड़ दें, जिससे कि इस विषय में काम करने वालों को असुविधा न हो, उन्होंने तब ठहाका लगा कर कहा था 'बूढ़ा तोता राम राम नहीं करता।'
फिल्म देखने का चस्का लग चुका था। कयामत कि वहां भी जादू जगाने वाली हीरोइनें मुसलमान थीं। मीना कुमारी, मधुबाला, नरगिस, सुरैय्या, शकीला, श्यामा (खुर्शीद), वहीदा रहमान, निम्मी, सायरा बानो। मुगले आज़म के अलावा चौदहवीं का चाँद, मेरे महबूब, बहू बेगम, जहाँआरा, नूरजहाँ, गज़ाल, पाकीजा, मेरे हुजूर, पालकी, मेहबूब की मेंहदी, उमरावजान, रजिया सुल्तान, नसीम, गर्म हवा, सलीम लगड़े पे मत रो, मम्मो, जख्म, फ़िज़ा ऐसी बहुत सी फिल्में बनी और चलीं। इनमें मुस्लिम समाजों की दुनिया थी। उनके सवाल थे। संगीत और गायकों को तो पूरा-पूरा ही मुसलमानों ने बचा कर रखा था जो आज हम तक आया है। तब काले, तवे ऐसे रिकार्ड खूब चलते थे। उन्हीं का जमाना था। मलिका पुखराज, बेगम अख्तर, मेंहदी हसन का जादू मेरे सर पर चढ़ा हुआ था। मलिका पुखराज की गायी हफीज़ जालन्धारी की यादगार नज़्म 'अभी तो मैं जवान हूँ', हर दूसरे तीसरे दिन सुनता था। वह तवील और मुश्किल नज़्म आज भी मुझे पूरी याद है और मैं उसी तरन्नुम में सुना सकता हूँ। बेगम अख्तर के भी कई रिकार्ड थे। गर्मियों की दोपहर के सन्नाटे में वह रेशम रेशम होती आवाज धंसती चली जाती थी,
दूर है मंजिल राहें मुश्किल आलम है तन्हाई का
आज मुझे अहसास हुआ है अपनी शिकस्तावाई का,
हमने ज़िया हुस्न को बख्शी उसका तो कोई ज़िक्र नहीं
घर घर में चर्चा है लेकिन आज तेरी रानाई का
अहले हवस अब पछताते हैं डूब के बहरे गम में शकील
पहले न था इन बेचारों को अन्दाज़ा गहराई का।
गज़ल को लोकप्रिय बनाने और घर-घर पहुँचाने की शुरुआत मेंहदी हसन से हुयी थी। बाद में जगजीत सिंह ने उसे उरूज पर पहुंचाया। फैज ने 'गुलों में रंग भरे, बाद नौबहार चले' से अच्छी गज़ल दूसरी नहीं लिखी और मेंहदी हसन ने इससे ज्यादा अच्छा कभी कुछ गाया नहीं। शुरूआती दिनों में मेंहदी हसन कानपुर आये थे। मंच पर गा रहे थे। सुबह होने वाली थी। थके हुए से मेंहदी हसन खत्म करते उठे और जाने लगे। आगे की कुर्सी से एक आदमी उठा और ललकारती हुई तेज़ आवाज़ में बोला -
'मेंहदी हसन'
मेंहदी हसन ने घूम कर देखा। लहकते हुए, दुलारती आवाज में उसने कहा,
'आज जाने की ज़िद न करो।'
रुकने की गुहार तो बहुत देखी सुनीं थीं, पर ललकार के साथ मनुहार पहली बार देखी थी। मेंहदी हसन हंसते हुए बैठ गए थे। कुछ और सुनाया उन्होंने। यह कानपुर का अपना रंग था। मेंहदी हसन के कार्यक्रम में वह आदमी मामूली नहीं था, इसलिए कि वहां कुछ भी मामूली नहीं था। न फैज, न मेंहदी हसन, न वह तारों भरी दम तोड़ती रात, न ठंडी सुबुक हवा और न ही कानपुर की वह गंगाजमनी ज़िंन्दगी, जो रात भर चलने वाले उन मुशायरों में सबसे साफ दिखती थी जिनका संचालन कुँवर महेन्द्र सिंह बेदी करते थे, या तो रात भर चलने वाले उन कवि सम्म्लनों में दिखती थी जिनका संचालन उमाकांत मालवीय करते थे और अक्सर ही दोनों पहलू ब पहलू शाना ब शाना और कई बार साझा होते थे। जीवन में कहीं कुछ अलग नहीं था। हिन्दू मुसलमान ताने बाने की तरह गुंथे बुने थे।
इन सबके बीच ख्वाहिशों और जुनून की उमर भी आ गयी। ख्वाहिशों के हजार रंग थे, जुनून के मैयार अलग अलग थे। तीन ख्वाहिशें बड़ी थीं। पहली, किसी बंगाली लड़की से दोतरफा मुहब्बत, दूसरी, किसी मुसलमान लड़की से दोतरफा मुहब्बत, तीसरी उर्दू सीखना। तीनों में कोई बेवजह नहीं थी। इनके ठोस कारण थे। पहली ख्वाहिश बंगला साहित्य पढऩे के बाद पैदा हुई थी। बंगाल का काला जादू किसी और के लिये नहीं, बंगाली लड़कियों के लिये कहा जाता था। लम्बे घन काले केश, बड़ी-बड़ी काली आँखें और लुनाई लिये सांवला रंग। बंगला साहित्य ने इसे काले जादू के पाश में ढकेला और दुर्गा पूजा के पंडालों में सुर्खरू होने तक इसे परवान चढ़ाया।
मैं उसे ही कृष्ण कली कहता हूँ
कलूटी कहते हैं जिसे गांव के लोग
मैंने उसकी हिरनी जैसी काली आँखें देखी हैं
खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में बंगला देश में फौजी दमन करने वाले जनरल टिक्का खाँ से अपनी मुलाकात के किस्से में एक शेर लिखा है जो उन्हें बंगालियों के विरोध में टिक्का खाँ ने सुनाया था -
शौक-ए-तूल-ओ-पेच इस जुल्मतकदे में है अगर
बंगाली की बात सुन और बंगालन के बाल देख
बंगाली सांवलापन दक्षिण के सांवलेपन से अलग है। इसमें लावण्य (नमक) है... एक चमक है... जैसे कि लौ खाल के नीचे थरथरा रही है। रंग में जितना नमक है जबान में उतनी ही मिठास है। उसमें कठोर उच्चारण वाले वर्ण नहीं हैं।
निर्विवाद रूप से धरती पर सबसे सुन्दर स्त्रियाँ ईरान से ले कर तुर्की की ज़मीन तक हैं। बचपन में चन्दामामा के पृष्ठों पर फैला बगदाद हमेशा दिखता था। उसके हर अंक में बगदाद की एक न एक कहानी ज़रूर होती थी। उसमें पृष्ठों के कोनों पर छोटे वर्गाकार चित्र बने होते थे। उनमें आधे चेहरे को पारदर्शी नकाब से ढंकी लड़कियों के चित्र कौतूहल पैदा करते थे। खलीफा हाँरू रसीद, अलीबाबा, अलादीन, सिंदबाद जहाजी, मरजीना, हातिमताई, रूस्तम सोहराब, अरब के रेगिस्तान, ऊंट सब अपने लगते थे। उर्दू जबान की खास शीरीनी, रानाई, पुख्तगी, लबो-लहज़ा, बातचीत का बेहद सुसंस्कृत तरीका एक सुखद विशिष्टता देता था। यह सब किसी लड़की में सबसे अच्छे रूप में होगा, इसका एक महज़ तख़य्युल था। यही दूसरी ख्वाहिश का कारण था।
इसी ने उर्दू सीखने की तीसरी ख्वाहिश को जन्म दिया। यही एक ख्वाहिश थी जिसे पूरा करना पूरी तरह अपने इख़्तियार में था। लिहाजा एक उस्ताद की तलाश शुरू की। कयामत यह कि उर्दू सिखाने वाले उस्ताद कोई मुसलमान नहीं, हिन्दू मिले, और वह भी उच्च कुल के ठाकुर जो सीधे राणा प्रताप के वंशजों से अपने को जोड़ते थे। मुगलों के खिलाफ लडऩे वाली दो तलवारें याद के तौर पर अभी तक उस खानदान में चली आ रही थीं। इस उस्ताद की बेटी से मुहब्बत और दूसरे अवांतर प्रसंगों को छोड़कर मुद्दे की बात इतनी ही है कि कुछ ही दिनों में ठीक-ठाक उर्दू सीख ली। सिर्फ अभ्यास करते रहना बचा था जिससे उसमें हर तरह की तराश आती रहे।
मैं अपने कवि मित्रों को हमेशा यह कहकर नाराज कर देता हूँ कि जिसने भी एक बार उर्दू शाइरी पढ़ ली उसे कभी हिन्दी कविता अच्छी नहीं लगेगी। भारतेन्दु से लेकर अविनाश मिश्र और दिनकर कुमार तक। कारण यह कि उर्दू के मुकाबले, बनारस के ब्राह्मणों द्वारा एक नकली भाषा गढ़ी गयी जो लोक की भाषा कभी नहीं थी। उसका कभी अपना स्वतंत्र, नैसर्गिक, सहज विकास नहीं हुआ था। छायावाद से अज्ञेय के 'तार सप्तक' तक, हिन्दी कविता की भाषा जन की भाषा नहीं थी। छायावाद में कृत्रिम शब्दों का भारीपन, असम्प्रेषणीयता और भाषा के आवरण को सजाने की सारी चेष्टाएं हैं, तो पहले 'तार सप्तक' में आयातित विदेशी प्रभाव से आप्लावित सप्रयास आरोपित जटिलता है। रसविहीन, निर्जीव, सम्प्रेषणीयता है। (इन शब्दों को ही देखें) यह हिन्दी भाषा के साहित्य और इतिहास के अधिकारी विद्वान बताएंगे कि छायावाद की 50 वर्षों की लहर में प्रकाशित होने वाले दो सौ कवियों में कितने बचे हैं और 'तार सप्तकों' की श्रृंखला के कितने? अलबत्ता पिछले तीन सौ सालों की उर्दू में वली दकनी, नज़ीर अकबरावादी, मीर, ग़ालिब, जोश, जिगर, इक़बाल, दाग़, हफ़ीज जालंधरी, मख्दूम, मज़ाज, फैज़, ज़फ़िराक, साहिर क़ैफी लोगों की जबानों पर जिन्दा हैं। बात बात में उन्हें उद्धृत किया जाता है। उर्दू जबान की जिस मिठास और रवानी की बात की गयी है, वह उसमें लोक शामिल होता गया। उसके शब्द आते चले गए। गंगा जमना के दो आबे में पली बढ़ी यह ज़बान, दुनिया की सबसे शानदार और जानदार जबानों में इसलिये है कि इसे किसी और ने नहीं, दरगाहों, मंदिरों, मस्जिदों, गलियों, बाजारों, मेलों ने गढ़ा था। वली दकनी से शुरू हो कर आज तक। (कम अज़ कम पाकिस्तान में) यह बिना मुरझाये चली आयी है।
तुझ लब की सिफत लाले बदख्शा सूं कहूँगा
जादू हैं तेरे नैन ग़ज़ाला सूं कहूँगा
देख लेता है वह पहले चारसू अच्छी तरह
चुपके से फिर पूछता है मीर तू अच्छी तरह
यह सिर्फ एक बार पढ़ या सुन लेने के बाद याद रह जाने वाली ज़बान और कविता थी। हिन्दी में इस भाषा को बाकायदा कोशिश करके सौ साल पहले खारिज कर दिया गया था।
हालांकि हिन्दी गीतों के मंच पर इसे जिंदा रखा गया। वहां गीत की शक्ल में लय, छंद, गेयता, रस, जीवन बचा था। हजारों सुनने वाले पूरी रात सुनते थे। दिनकर और बच्चन से लेकर भारत भूषण, माहेश्वर, किशन सरोज से होती हुयी आज भी कानपुर के कई गीतकारों तक कमोबेश यह भाषा बची हुई है। यह देखना रोचक है कि हमारी आधुनिक कविता के लगभग सारे बड़े नामों ने शुरू में गीत लिखे हैं। पर वे अब इसे स्वीकारते नहीं छुपाते हैं। वे सार्वजनिक रूप से गीत का समर्थन नहीं करते, पर हो सकता है अकेले में गुनगनाते हों। उनके अंदर डर बैठा दिया गया है, और यह डर बैठाया है बनारस की ही तरह वामपंथ के अपने ब्राह्मणों ने, जिन्होंने प्रेम रस, लय, छंद कल्पनाशीलता, गीत को न जाने किन-किन क्रांतिकारी शब्दावलियों के हथियारों से साहित्य और जीवन से बहिष्कृत करके एकांत में ढकेला और उसकी हत्या कर दी। वामपंथ के प्रचंड तुमुलनाद और शिक्षा व साहित्यिक सत्ता के विभिन्न या कि समस्त शक्ति केन्द्रों पर वामपंथियों के नियन्त्रण के कारण कविता में रस और लोक भाषा होने को निरंतर हेय बताया गया। सम्प्रेषणीयता दुर्गुण और जटिलता प्रगतिशीलता बन गयी। इस बिन्दु पर कलावादी और वामपंथी एक थे, क्योंकि दोनों के प्रेरणास्रोत, रचनात्मक उद्गम स्थल विदेशों में थे। थोड़ा बहुत जो कुछ हरा-भरा इधर-उधर बचा रह गया, उसे हिन्दी अध्यापकों की महान विवेचनाओं और पाठ्य पुस्तकों में संकलित सूखी ठठरियों जैसी रचनाओं ने 'गोड़' दिया। आज लोक इस हिन्दी भाषा, हिन्दी कविता से पूरी तरह कट गया है। इसे सिद्ध करने के लिये कहीं जाने की जरूरत नहीं है। हम अपने आसपास देखें तो हम सब जिन्दगी में गाहे-बगाहे, मौके बे मौके, चार छ शेर या कोई दोहा चौपाई बोल देते हैं। आधुनिक हिन्दी कविता की पंक्तियाँ कोई उद्धृत नहीं करता, सिवाय उन अध्यापकों और छात्रों के, जो कई सालों पहले जरूरत के मुताबिक बनाये गए नोट्स को इस्तेमाल करते रहने के कारण उन्हें कंठस्थ कर चुके हैं। बाकी... हमारी न मानें तो दिल्ली की आज की सजी हुई साहित्यिक मंडी को देखें, हिन्दी के बारे में सोचें, और पाकीजा का 'दुपट्टा छिनने वाले गाना' सुनें, बात खुद बोलेगी, बात ही भेद खोलेगी कि दुपट्टा छीनने वाला सिपाही, रंगरेज, बजाज कौन है, ...हमें क्या करना है?
तो ...जीवन में मुसलमान सब जगह थे पर दूसरा पाकिस्तान कहीं नहीं था। सन् 80 में हमारे कारखानों में मजदूरों की चालीस दिन की बेहद संगठित और आक्रामक हड़ताल हुयी। वे मजदूर आंदोलन और ट्रेड यूनियन के सक्रिय और उत्तेजक दिन थे। कलकत्ता, बम्बई और कानपुर इसके बहुत बड़े गढ़ थे। ट्रेड यूनियन के नेताओं का प्रभाव और वर्चस्व आतंक जैसा बन गया था। प्रत्येक राजनैतिक दल का अपना मजदूर संगठन था। हमारी मुठभेड़, इंटक (कांग्रेस का मजदूर संगठन) के बड़े नेताओं से हुयी थी। कारखाने के गेट का मोर्चा मैंने सम्हाला था। शफ़ीक खान हमारे फोरमैन/इलेक्ट्रीशियन थे। अकेले वही थे जिन्होंने चालीस दिन हमारा साथ दिया। मैं घर से उन्हें उठाता था और वापसी में घर के दरवाजे पर छोड़ता था। मेरी कार के साथ मजदूर साइकिल दौड़ाते चलते थे, कि कहीं कुछ देर के लिये भी शफ़ीक मियाँ अकेले मिल जाएं। कार में मेरे साथ 'कट्टा' लिया एक सुन्दर मासूम सा दिखता, छोटा-सा लड़का बैठता था। मेरे पिता ने उसे साथ लगा दिया था। बाद में, शादी के कुछ दिन पहले ही गैंगवार में बम से उसकी एक टाँग उड़ गयी। उसकी सगाई हो चुकी थी। लड़की को घर वालों ने समझाया पर वह नहीं मानी। उसका एक ही सवाल था, बाद में यह होता तो आप क्या कहते? इसका उत्तर किसी के पास नहीं था। उसने उसी से शादी की। बहुत जीदारी थी लड़के में एक टाँग से साइकिल चलाकर वह वैष्णव दैवी जाता था। तीसरी मंजिल पर गैस से भरा सिंलिडर चढ़ा देता था। कुछ समय पहले ही उसकी मृत्यु हुयी शफ़ीक मियां को मजदूर कभी छू नहीं पाए। अनवारूलहक मेरा सन् 61 मॉडल का लैम्ब्रेटा बनाता था। मैंने प्यार से लैम्ब्रैटा का नाम 'उन्फुवाने शबाब' (चढ़ती जवानी) रखा था। यह नाम मेरे सब मित्र जानते हैं। सबने उसे चलाया है। मैंने उसे बहुत आखरी सालों तक चलाया, जब तक कि उसके पुर्जे मिलना बंद नहीं हो गए। अनवारूलहक साल में सिर्फ एक बार ईद से पहले पैसे लेने आते थे। हसन घर में पुताई करता था। हम घर की चाबियाँ उसे सौंप कर चले जाते थे। बहुत धीरे धीरे, किसी संगीत वाद्य को बजाने की तरह वह दीवारों को, दरवाजों को सजाता था। उससे काम जल्दी खत्म करने को कहो तो काम छोड़ देता था। इनमें से अब कोई जीवित नहीं है।
इस सबके बीच जाजमऊ की चमड़े की टैनरियों में भी जाना होता रहा। कच्चे चमड़े के पहाड़ों के बीच लोग काम करते थे। जाजमऊ की पूरी बस्ती मुसलमानों की है। चमड़े की पचासों टैनरियां हैं। गोल्फ़ क्लब से जाजमऊ की सड़क पर घूमते ही चमड़े की खास गंध आने लगती है। सड़क के किनारे चमड़े की छीलन पड़ी रहती थी। भैंसा गाड़ी पर लदी, पानी टपकती, कच्चे चमड़े की कतारें गुजरती थीं। टैनरी की गालियों से क्रोमियम निकल कर गंगा को गंदा करता था। पूरे इलाके में तहमद पहने, टोपी लगाए, ताबीज बांधे आदमी, बुर्का पहने या लपेटे औरतें, टाट के पर्दे, भट्ठी पर चढ़ी अल्यूमिनयम की काली पेंदी वाले बर्तन, टी.बी. के मरीज, नंगधड़ंग सड़क पर घूमते बच्चे, मदरसा, मस्जिद, बकरियाँ, मुर्गी, कच्चे पक्के मकान दिखते थे। चमड़े के व्यवसाय पर पूरा नियंत्रण मुसलमानों का था। चमड़े का सलेक्शन (यह बहुत महत्वपूर्ण होता था) करने के लिए एक टैनरी से दूसरी टैनरी तरह-तरह के जानवरों के चमड़ों के ढेर देखते घूमते थे। जूतों के कारीगर भी ज्यादातर मुसलमान थे। उनके घर और छोटे-मोटे सिलाई और लास्टिंग के कारखाने भी घनी मुस्लिम बस्तियों में थे। बड़े कारखाने भी थे। इनमें कोई कायदा कानून नहीं होता था। कभी कोई सरकारी आदमी निरीक्षण के लिये, कर वसूलने के लिये वहां जाने का साहस नहीं करता था। इन बस्तियों का किसी भी तरह का कोई सही आंकड़ा किसी सरकार के पास नहीं है। देश की जनगणना हो, या कोई नीति बनाना या योजना क्रियान्वित करना या किसी और तरह की गणना, कोई भी आंकड़ा सही है इस पर विश्वास करना मुश्किल है। न कोई मतदाता सूची, न शिक्षा, न गरीबी रेखा न देश की प्रगति विकास का कोई आंकड़ा। इन गलियों, गलियों के मकानों के अन्दर के बंटे हिस्सों के अन्दर कोई धूप, रोशनी, ताजी हवा नहीं जाती। वहाँ देश की किसी प्रगति, किसी सरकारी अधिकारी का पहुंचना पूरी तरह संदिग्ध है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट इस देश के मुसलमानों की एक बड़ी सच्चाई है।
'दूसरे पाकिस्तान' का पहला अहसास बाबरी मस्जिद गिराए जाने के कुछ दिनों बाद हुआ था। एक रात, एक मित्र के घर से निकल रहे थे। उसके बगीचे के बाहर के दरवाजे पर लगे नल पर अन्धेरे में झुका हुआ कोई पानी पी रहा था। दूरी थोड़ी ज्यादा थी, इसलिए सिर्फ इतना ही समझ में आया कि कोई दरवाज़े पर है। हममें से किसी ने तेज अवाज़ में पूछा 'कौन है?'
वह आदमी हड़बड़ा कर सीधा हो गया। उसकी आवाज आयी 'मुसलमान हूँ।'
मेरी नसों का खून जम गया। उस दिन पहली बार लगा कि यतीमखाने के चौराहे से बाँए घूमते ही जो बस्ती शुरू होती है, अब वहाँ न दिखायी देने वाली एक सरहद है, जिसके इधर और उधर दो अलग कौमें, दो अलग मजहब और शायद, दो मुल्क भी हैं। यदि कानपुर शहर में मुसलमान बस्ती के चारों ओर एक दीवार बनायी जाए, तो वह बस्ती एक अलग इलाके या किले में तब्दील हो जाएगी। वहां कुछ मिला जुला नहीं है सिवाय उन सरहदों के।
जिस दिन बाबरी मस्जिद गिरायी गयी, हस्बेमामूल उस दोपहर हम 'मैटिनी शो' देखने जा रहे थे। पान की दुकान के लड़के ने बताया कि अयोध्या में कुछ हो रहा है। हमने कोई ध्यान नहीं दिया। हम आश्वस्त थे कि लोकतांत्रिक मुल्क में, एक चुनी हुई कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी संभालने वाली सरकार में, क्या हो सकता था? शाम को जब टॉकीज के बाहर निकले तब तक शहर में हल्की सनसनी फैल चुकी थी। बाद में बाबरी मस्जिद गिराए जाने का पता चला।
अगली शाम या शायद उसके बाद वाली शाम तक शहर का पूरा माहौल बिगड़ चुका था। कुछ शोर शराबा सुनकर मैं छत पर गया। वहाँ गोलियों की आवाजें सुनायी दे रही थी। किसी मस्जिद के लाउडस्पीकर से मैंने मुल्ला की या किसी और व्यक्ति की आवाज़ सुनी जो पुलिस को चेतावनी दे रहा था कि वह अपनी गलत हरकतों से बाज आए वर्ना कुछ हो जाएगा। वह मुसलमानों को भी सावधान कर रहा था। डर, परेशानी, घबराहट और बेबसी से भरी आशंकाओं से उसकी आवाज़ काँप रही थी। पुलिस शायद गोलियाँ चलाती अन्दर घुस रही थी। उस पर भी छतों या गली के मोड़ों से हमला हो रहा था। शहर के हिस्सों में कुछ लोग मरे और कफ्र्यू लग रहा।
हिन्दू बस्तियों की गलियों के अन्दर कफ्र्यू का कोई ज़्यादा मतलब नहीं होता। वहां सब घरों के बाहर घूमते हैं, बातें करते हैं, सड़क तक चले आते हैं। ज़रूरत का सब सामान मिल जाता है। मुस्लिम बस्तियों की गलियों में इसका अर्थ दूसरा होता है। वहीं खिड़कियों से झाँकने तक की इजाजत नहीं होती। पानी, दूध, अखबार, दवा तक को सब तरस जाते हैं। वे पुलिस को पूरी तरह साम्प्रदायिक मानते हैं, और जो वह है भी, इसलिए उस पर हमले करते हैं। कानपुर का कफ्र्यू तभी शांत होता है जब सेना आती है। सेना पर उन्हें पूरा विश्वास है। सिर्फ एक सैनिक पूरी सड़क पर नियंत्रण कर लेता है। गलियों को नियन्त्रण में ले लेता है। उस पर कभी कोई हमला नहीं करता। वे उस देश और अपने रक्षक के रूप में स्वीकार करते हैं। पुलिस को कभी नहीं।
दंगा ख़त्म हुआ, कफ्र्यू भी। सामान्यत: हिन्दुओं में इस घटना को इस तरह देखा गया था कि ढाँचा गिरा दिया, अच्छा किया। हमेशा के लिए झगड़ा खत्म हुआ। पर मुसलमान हैरानकुन और डरा हुआ था। आज़ाद हिन्दुस्तान की यह ऐसी घटना थी जिस पर उसे यकीन नहीं हो रहा था। देश बंटवारे के समय उसे हर तरह का आश्वासन दिया गया था। इसी विश्वास पर उसने यह मुल्क नहीं छोड़ा था। इसके नेताओं, जम्हूरियत, कानून, न्याय पर उसे विश्वास था। इसका भी कि न तो उसे दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाएगा, न उसकी इबादतगाहों, उसके धर्म, उसकी ज़िन्दगी को कहीं से, किसी भी तरह कमतर समझा जाएगा या उसमें सीधे सीधे दखल दिया जाएगा। वह डरा हुआ और ठगा हुआ महसूस कर रहा था। इस ढाँचे के गिरने से वह सशंकित हो गया था। हिन्दू संगठन, दल उसे और डरा रहे थे। अपनी विजयी हुँकार में आगे के लिये अब मथुरा और काशी के नाम भी जोड़ रहे थे। मन्दिरों और मस्जिदों की मिली जुली दीवारों को गिराने का मतलब था दो अलग बस्तियों, दो अलग सरहदों दो अलग कौमों के सिद्धान्त को स्वीकृति। जो समझा था, मिला जुला था, गंगा जमनी था, चाहे ज़बान, चाहे कला, चाहे संस्कृति, उस सबको अस्वीकारना था। इस घटना केबाद बड़े स्तर पर स्वतंत्र भारत में इतिहास का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पाठ किया जा रहा था।
इसके बाद कुछ फ़र्क साफ़ तौर पर दिखने लगे थे। हिन्दू मुसलमान बस्तियों में जाने से बचने लगा। मुसलमान हिन्दू बस्तियों से निकलता था, उनसे व्यापार करता था पर चुप रहता था। मन की बात नहीं बोलता था। लोग जैसे ग़ैर के सामने घर की बात नहीं करते, कुछ उसी तरह का व्यवहार करने लगा था। चमड़े और जूते की वजह से मेरा ताल्लुक ऊपरी और बिल्कुल नीचे, दोनों ही वर्गों के मुसलमानों से था। कभी मैं उनसे कुरआन, अयोध्या, अरब या उनकी रवायतों के बारे में कोई बात करता या भारत की राजनीति या उनके किसी मसले पर बात करना चाहता, तो वह कुशलता से सधा हुआ, तटस्थ दिखने जैसा व्यवहार करते, अलबत्ता मेरे पास ही कभी नमाज का वक्त हो जाता, तो दोजानू हो कर नमाज़ जरूर पढ़ लेते।
हिन्दुओं की इस उग्र आक्रमकता के पीछे कोई वाज़िब तर्क नहीं था। इतिहास की दी गयी गलत जानकारी, नफरत की विरासत और बहुसंख्यक होने के कारण एक वर्चस्ववादी अधिकार बोध था, जो महान संस्कृति या कि नस्ल जैसी बासी और अवैज्ञानिक अवधारणाओं की चाशनी में डूबा था। संविधान, न्याय, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, चुनी हुई सरकार, कानून, पुलिस इन सबसे ऊपर आस्था के महत्व का तर्क दिया जा रहा था। हमारा मुल्क, हमारा धर्म, हमारे पूजा स्थल, हमारे देवी देवता, हमारे अधिकार जैसे बातों में साफ दिखता जाता था कि इस 'हम' में कौन शामिल नहीं है, कौन 'अन्य' हैं। ये सब बातें हर तरह के कुतर्कों के साथ की जाती थीं। सबसे सामान्य तर्क था कि उनको उनका मुल्क दे दिया, अब यहाँ क्यों? अब अगर रहना है तो हमसे दबकर, हमारे तरीके से रहना होगा, वर्ना अपने मुल्क जाओ, इन कुतर्कों में न किसी तरह का इतिहास का ज्ञान था, न सामाजिक बुनावट का, न कोई आधुनिकता थी, न प्रगतिशीलता, न वैज्ञानिक चेतना, न वैश्विक मूल्य बोध, न सांस्कृतिक विरासत की समझ, न लोकतंत्र पर आस्था, न अपने दयनीय वर्तमान की समस्याओं का ज्ञान, न कोई वृहद परिप्रेक्ष्य। सबसे बड़ी बात कि हिन्दू धर्म के नाम पर जो बातें की जाती थीं, वो कभी उसकी रही ही नहीं। वे एक सर्वाधिक उदार, वैविध्यपूर्ण, मानवीय, कलात्मक धर्म को अपनी जाहिली में विकृत कर रहे थे। यह सब सिर्फ एक 'विकलांग उन्माद' था। एक अलक्षित असंभव उद्देश्य, जो पिछली लगभग एक सदी से 'राष्ट्र' और 'धर्म' के नाम पर भीड़ के सामने ताना जा रहा था। बीन से डरे हुए साँप को मुग्ध होकर नाचता हुआ बताने का प्रयास था। नतीजे में एक भीड़ हुंकार भर रही थी। 'अभी तो यह अंगड़ाई है, आगे और लड़ाई है।' हिन्दू बहुसंख्यक के पास अपने वही तर्क थे जो किसी भी बहुसंख्यक के पास हमेशा होते हैं। मुसलमान (ईसाई भी) अल्पसंख्यक के पास अपने डर थे जो हमेशा अल्पसंख्यकों के पास होते हैं। बहुसंख्यक एक 'सांस्कृतिक राष्ट्र' के स्वप्न में जीता है और अल्पसंख्यक फैलते हुए 'घेटो' में बदल जाता है। गंदगी, घुटन, अशिक्षा और अपने धर्म की गलत व्याख्याओं की बीच अपनी परम्पराओं, अपने प्रतीकों में ही शरण, सुरक्षा पाने के कारण उनसे और मजबूती से चिपकता जाता है। नतीजे में एक न दिखने वाली चुप, घृणा और हिंसा दोनों के बीच तनी रहती है, जो किसी विवशता या कुछ अज्ञात भय के कारण शांत बनी रहती है।
अपने समय में मात्र 'साक्षी' की तरह रहना कठिन होता है। यह अक्सर दुविधा और दुख देता है। पक्षधरता में यह संकट नहीं है। वहाँ आवेग, चेतना और लक्ष्य विवेक को ढंक लेते हैं, शान्ति और शरण देते हैं। 'साक्षी' होकर देखने पर ही इतिहास, सृजनात्मकता, सामाजिक गतिशीलता समझ में आती है। तट पर खड़े होकर ही जल का प्रवाह दिखता है, नदी में डुबकी लगाकर जल में रहने पर नहीं। मेरे साथ यही हो रहा था। मैं चीजों में 'साक्षी' की तरह शामिल था और इसलिए समझ रहा था कि अब वर्तमान से मुसलमानों को अलग नहीं किया जा सकता। कोई कोशिश भी की गयी तो सब कुछ दरहम बरहम हो जाएगा। अगर मुसलमानों के रेशों को अलग किया गया संस्कृति की चातर चिथड़ों में बदल जाएगी। समाज अब सिर्फ समरसता में ही गतिशील हो सकता था, संघर्ष में नहीं, खासतौर से 20 प्रतिशत मुसलमानों के साथ मिली जुली बस्तियों, जबानों, व्यापार, परम्पराओं और त्योहारों के साथ। मैं मित्रों को ये बातें बताता, खासतौर से शनिवार की शाम को अपने घर की बैठकों में। पर उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। उनके पास तर्क से ज्यादा भावनाएं थीं, अस्पष्ट विचार थे। वे उनकी पुष्टि चाहते थे, विरोध नहीं। लिहाजा मैं कभी सायास और अक्सर ही अनायास, हर बात में मुसलमानों के पक्ष में बोलने लगा। मुझे लगता था सिर्फ इसी तरह मैं एक भटकी हुई मानसिकता का विरोध कर सकता था। वास्तव में यह पक्षधरता से ज्यादा उनका विरोध करने का तरीका था। मैंने मुसलमानों के पक्ष में बहुत से तथ्य और तर्क जुटा लिये थे। स्थापित चीजों का खंडन या उन्हें ध्वस्त करना मेरी आदत बन गयी थी। जब वे महमूद ग़ज़नवी की बात करते, तो मैं बताता उसका सेनापति कमल था। जब तैमूर लंग की बात करते, मैं बताता कि उसकी आत्मकथा दुनिया की श्रेष्ठ किताबों में है। जब वे बाबर की बात करते तब मैं पूछता कि किसने उसको बुलाया था और किसने उसे धोखा दिया जिसकी वजह से वह दिल्ली से लौटा नहीं और आगे बढ़ गया? जब औरंगजेब की बात करते तो बताता था मुगल वंश में सबसे ज्यादा हिन्दू मनसबदार उसके समय में थे और अपनी खुशी और मर्जी से थे। जब वे राणा प्रताप की बात करते तो मैं बताता कि उनका सेनापति मुसलमान था और हल्दीघाटी से भागने में पठानों ने सबसे ज्यादा लाशें गिरायी थीं। मैं बताता कि शिवाजी, लक्ष्मीबाई, महादजी सिंधिया के तोपची मुसलमान थे। पूछता कि जब शिवाजी औरंगजेब की कैद से भागे तो उनकी जगह पलंग पर कौन लेटा था? वाइसराय मेयो का कत्ल करने वाले शेर अली का नाम कोई क्यों नहीं जानता जबकि मामूली इंस्पेक्टरों का कत्ल करने वाले इतिहास में प्रशंसा के पात्र बनाए जाते हैं? इन सबमें इतिहास मेरी मदद करता था। यह कुछ और नहीं सिर्फ एक भयानक बेचैनी थी। बेबसी और छटपटाहट थी। एक 'साक्षी' का द्वन्द्व, दुविधा, संकट था। इतिहास से खिलवाड़, अभिव्यक्ति और रचनात्मकता पर गहराते संकट के बादल और भविष्य में किसी मजबूत भारत की जगह अन्दर से छोटे-छोटे द्वीपों में बदलते हुए देश को देखने की विवशता थी।
दूसरी ओर मुसलमानों की स्थिति बहुत जटिल थी। वहां सिवाय सैकड़ों साल पुराने ठहराव के कुछ और नहीं था। वे गले तक अशिक्षा, गरीबी, धर्मान्धता, मुल्लाओं के नियन्त्रण में जीवन को निर्देशित करने वाली उनकी मोनोलिथिक व्याख्याओं के चंगुल में थे। यह शिकंजा बहुत मजबूत है। यह बात बहुत हैरान करती है कि मुसलमानों के जगत में कोई बड़े परिवर्तन हुए ही नहीं। किसी तरह का कोई पुनर्जागरण, कोई सामाजिक क्रान्ति, धर्म के विघटन, शंकाएं, प्रश्न, बहसें, राजनैतिक नेतृत्व... ऐसा कुछ घटित नहीं हुआ। विज्ञान, प्रगति, विकास का सबसे कम प्रवेश यहां है। यहां की बंद खिड़कियाँ सिर्फ धूप, रोशनी, ताजी हवा ही नहीं रोकतीं, बीनाई समय के साथ हमकदमी और आत्मा की चमक भी रोकती है। अकबर, दारा शिकोह, शाह वलीउल्लाह, जमालुद्दीन अफगानी या जिन्ना या खान अब्दुल गफ्फ़ार खां या वामपंथी विचार, साहित्य तक कई बार संभावनाएं बनीं कि किसी बड़ी चेतना की लहर इनमें कोई बड़ा परिवर्तन ले आये, पर देश के बंटवारे ने और फिर बाबरी मस्जिद ने सिद्ध कर दिया कि दूसरी जकडऩें बहुत मज़बूत होती हैं। वे आसानी से उंगलियाँ ढीली नहीं करतीं।
ईद के दो दिन बाद 'टर्र' का मेला होता है। मुझे नहीं पता कि यह सिर्फ कानपुर में होता है या दूसरी जगह भी। लगभग इसी तरह का गंगा मेला होली के लगभग छह दिन बाद होता है। यह सिर्फ कानपुर की अपनी परम्परा है। मैं 'टर्र' के मेले में पहले भी दो तीन बार गया था। इस साल फिर गया। मेला लगभग एक किलोमीटर लम्बी सड़क पर होता है। इसका एक सिरा मुस्लिम इलाके से शुरू होता है और दूसरा सिरा हिन्दू मुहल्ले में ख़त्म होता है। मैं एक सिरे से दूसरे सिरे तक गया। जिसे भी मुस्लिम समाज की दहला देने वाली क्रूर और नंगी सच्चाई देखनी हो, उसे एक बार इस मेले में ज़रूर आना चाहिये। पूरी सड़क दुकानों और इन्सानों से भरी थी, उनमें 80 प्रतिशत दस से बीस साल के बच्चे, लड़के थे। वे झुण्ड में थे। वे सब कुपोषित, बीमार और कमजोर थे। सब एक से दिखते थे। उभरी हड्डियाँ, धंसा पेट। सब पारम्परिक कपड़े पहने थे। टोपी, पायजामा, कुरता, पैरों में रबर की सस्ती चप्पल। 20 प्रतिशत में भी 95 प्रतिशत औरतें थीं। शेष पुरुष। औरतों के साथ कई छोटे बच्चे थे। बहुतों की गोद में भी थे। वे बच्चे भी बीमार, कमजोर थे। औरतें भी कुपोषित, एनिमिक थीं। सस्ता मेकअप, फुटपाथों पर बिकने वाले सस्ते, चमकदार कपड़े, नकली गहने। खाने पीने की दुकानें सबसे ज्यादा थी। वे सब नालियों या गंदगी के ढेर के ऊपर या उसके आसपास बनी थीं। इनमें मिठाई, शर्बत, चाट, पकौड़ी थी। इनके ठेले भी थे। फल, खजूर, कुल्फी, फालूदा सिंवई भी थी। सब पर मक्खियां थीं। सब सस्ती चाशनी, बाजार के सस्ते रंगों से बनी थीं। खाने वालों में औरतें, बच्चे सबसे ज्यादा थे। वे उनकी खुशी के पल थे। वे सब खा रहे थे, हंस रहे थे, घूम रहे थे। झूलों पर झूल रहे थे। वहां कोई उच्च, उच्च मध्य या मध्य वर्ग का मुसलमान नहीं था। न स्त्री न पुरुष और लगभग बच्चे भी नहीं। यह गरीबी, अशिक्षा, अज्ञानता, कुपोषण बीमारी के धागों से बनी ऐसा सामाजिक बुनावट थी, जो इतनी शिद्दत से इस तरह तो नहीं दिखती पर 'टर्र' के मेले में जैसे अचानक नमूदार हो गयी थी और यह हिन्दुस्तान की लगभग 20 प्रतिशत मुस्लिम आबादी के लगभग 80 प्रतिशत मुसलमानों का सच था। और वह केवल हमारे शहर का नहीं पूरे मुल्क का, हमारे अपने हिन्दुस्तान का सच था, और ये उनके सबसे सम्पन्न, सबसे खुशी वाले त्योहार ईद के तीन दिन बाद का सबसे खुशनुमा दिन था, जिसका वे साल भर इन्तज़ार करते थे। इसमें अगर दलित, आदिवासी, किसान, मजदूर, झुग्गी झोपडिय़ों की आबादी, रोजन्दारी पर काम करने वालों को भी जोड़ लें तो फिर जो हिन्दुस्तान की आबादी बचेगी, और जितनी बचेगी, जो हिन्दुस्तान बचेगा, वह किसका होगा? किसका है वह विकसित, गतिशील दुनिया की ताकत बनने वाला हिन्दुस्तान? शायद उनका, जो गुडग़ांव के 'साइबर हब' में दिखते है? यदि ईश्वर की बदनीयती या अन्याय देखना हो या धरती के इन्सानों के सच को देखना हो, तो 'टर्र' के मेले से 'साइबर हब' के मेले की एक यात्रा सब दिखा देगी।
इसके बरअक्स होली के बाद 'गंगा मेले' का दृश्य बिल्कुल दूसरा होता है। शाम 4 बजे तक चलने वाला मेला मुख्य रूप से गंगा के सरसैय्या घाट जाने वाली सड़क पर लगता है। बहुत पुलिस रहती है। पूरी यातायात व्यवस्था बदली जाती है। घाट जाने वाली सड़क से पहले सैकड़ों मोटर साइकिलें, कारें और दूसरे वाहन खड़े रहते हैं। हँसते मुस्कराते, समृद्ध लोग होते हैं। पूरी सड़क पर तम्बू लगे होते हैं। ये व्यापारी संगठनों के, जातियों के, राजनैतिक दलों के होते हैं। इन तम्बुओं में इन समुदाय, जाति, धर्मों के लोग जमा होकर होली मिलते हैं। प्रशासन का तम्बू भी होता है। डी.एम. भी उपस्थित रहते हैं। इन तम्बुओं के बाद घाट से पहले छोटे बड़े मंदिरों में भव्य शृंगार होता है। फूल, गंध, गुलाल होता है। उत्सव जैसा उल्लास और माहौल होता है। परम्परा के रूप में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व शायर शहर क़ाजी या उलेमा करते हैं। वे डी.एम. से मिलते हैं। दोनों मेले का फर्क बहुत साफ है। दोनों मेले हिन्दू और मुसलमानों के दो सबसे बड़े त्यौहारों के बाद होते हैं।
बाबरी मस्जिद की घटना के फौरन बाद एक फर्क आया था, जो शायद अब हमेशा ही बना रहेगा, वह मुसलमानों की खामोशी और चुप्पी है। वह बढ़ी है। यह आसानी से जल्दी और दूर से नहीं दिखती। शहर के सबसे खराब, बदहाल इलाकों में एक चमनगंज में जमीनों के दाम आज भी बहुत ज्यादा हैं क्योंकि मुसलमान अपने को अपनी बस्ती में सुरक्षित समझता है। जिनके पास पैसा है या बहुत पैसा है, वे शहर के अन्दर हिन्दुओं की बस्तियों के बीच रहते भी हैं, तो अकेले नहीं। कुछ लोग मिलकर, छोटी हुई तो पूरी इमारत ही खरीद कर साथ रहते हैं। यदि उनके अकेले मकान हैं, तो उनकी खिड़कियां बंद रहती हैं। दरवाज़े मजबूत लोहे के, ऊँचे, आसानी से पार न किए जाने वाले और न तोड़े जा सकने वाले होते हैं। सेहत के प्रति बढ़ती जागरूकता या बीमारियों के कारण अब नानाराव पार्क में सुबह की सैर के लिये मुसलमान आने लगे हैं। आदमी भी, औरतें भी। हिन्दू पूरी बेशर्मी और जहालत के साथ पेड़ के ताजे, खिले फूल तोड़ता है, मुसलमान ज़मीन पर गिरे फूल उठाता है। हिन्दू मोबाईल पर तेज आवाज में भजन, प्रार्थनाएं सुनता है, मुसलमान इयर फोन लगाकर। हिन्दू बच्चे सूखे तालाब में क्रिकेट खेलते हैं, मदरसे के मुसलमान बच्चे किनारे बैठ कर उन्हें खेलते देखते हैं। हिन्दू बरगद के नीचे 'बैंकुठधाम' बना कर कीर्तन कथा करने लगता है, मुसलमान इकट्ठा होकर कुरआन पर बात नहीं करता। हिन्दू व्यायाम करता है, वंदे मातरम कहता है, राधे राधे, हरिओम के अभिवादन करता है, मुसलमान पड़ों के बीच के रास्तों पर चुपचाप बेगाना सा पास से निकल जाता है। वह झुंड बनाकर नकली हंसी नहीं हंसता, जोर जोर से ठहाके लगा कर बातें नहीं करता। कोशिश करके कोई हिन्दुओं की मंडली में शामिल भी होता है तो तो चार दिन बाद फिर अकेले दिखने लगता है। मुसलमान की बढ़ती तादाद देखकर हिन्दूओं के झुंड बैचेन हैं कि किसी दिन पार्क में सिर्फ वही न दिखने लगें, तो मुसलमानों को डर है कि बाबा रामदेव की योग कक्षायें, 'बैंकुठधाम' के बढ़ते कीर्तन, शाखा जैसे व्यायाम, सत्संग उनके घूमने आने पर दबाव न बनाने लगें। उनके इलाके में फुटपाथ नहीं हैं, सड़क नहीं है, पेड़ नहीं है, धूप रोशनी नहीं, ताजी हवा नहीं है। बीमारियों में सुबह की सैर बहुत जरूरी है। लड़कियाँ भी आती हैं। अपना शरीर ठीक रखना चाहती हैं। पर वे बैडमिंटन नहीं खेल सकतीं, दौड़ नहीं सकतीं, चारों ओर हाथ घुमा कर व्यायाम नहीं कर सकतीं। उनकी पोशाक, उनकी सरहदें, उन्हें यह सब नहीं करने देगीं। उनके पुरुष, मौलवी, मुल्ला भी नहीं करने देंगे। उनकी किताबों की हिदायतें नहीं करने देंगी। हमारे केसरिया झंडे, हमारे हुंकारते अभिवादन नहीं करने देंगे। उनके मुहल्ले के लंफगे और हमारे लटूरे लड़के नहीं करने देंगे।
गलत इतिहासबोध, धार्मिक कट्टरता, अलगाव दोनों तरफ बढ़ रहा है। पहले जब गर्मियों में छत पर पानी छिड़कर कर सोते थे, और हवा नहीं चलने पर सात तरह के विकलांगों से हवा चलाने की प्रार्थना करते थे, और अक्सर सुबह आंख खुलने पर सिरहाने बंदर को बैठा पाते थे, तब सुबह अज़ान की सिर्फ एक आवाज़ सुनायी पड़ती थी। अब सुबह छत पर जाने पर अज़ान की पचासों आवाजें चारों ओर सुनायी देती हैं। दस साल पहले कानपुर में कोई गणेश पूजा के बारे में जानता भी नहीं था। आज गणेश पूजा में लगभग 250 प्रतिमाएं गलियों, नुक्कड़ों, सड़कों के मन्दिरों के साथ सजती हैं। लाऊडस्पीकर, कीर्तन, प्रसाद चढ़ावा एक अलग वातावरण रचता है। विसर्जन के लिये जाती प्रतिमाओं के साथ गुलाल रंगे लड़कों के चेहरों के जुलूस डराने वाली उपस्थिति दर्ज कराते हैं। अचानक यह उत्सव, मुफ्त दी जाती प्रतिमाएं, पंडाल, लड़कों के अन्दर पैदा की जाती धार्मिकता की पूरी कहानी अलग है। यही दुर्गा पूजा के उत्सवों में होने लगा है। पहले सार्वजनिक रूप से सिर्फ बंगालियों के भव्य पंडाल और मूर्तियां सिर्फ पांच या सात जगह सजते थे। सामान्य रूप से सामान्य हिन्दुओं को पता भी नहीं होता था। वे उसमें जाते भी नहीं थे। आज उन पंडालों में बंगालियों से ज्यादा हिन्दुओं की भीड़ होती है। गलियों, नुक्कड़ों के मंदिरों पर देवी प्रतिमा सजती हैं। रात भर जागरण होते हैं। विसर्जन होता है। बंगालियों से ज़्यादा गैर बंगाली अब हिन्दू प्रतिमाएं विसर्जित करते हैं। किसी भी पेड़ के नीचे, निर्जन या खुली जगह में रोज जन्म लेते नए देवता हैं तो कुकुरमुत्तों की तरह उगते पुजारी। मुहर्रम के जुलूस भी ज्यादा लम्बे, ज्यादा उन्मादी, ज्यादा आवेगपूर्ण हो रहे हैं। ताज़ियों की संख्या और भव्यता में बहुत इजाफा हुआ है। कर्बला जाने वाले ताजियों के पीछे बहुत भीड़ जाती हैं। शब बरात की रात मुसलमानों की भीड़ का बाहर निकलना और इतनी व्यापकता में लड़कों का हुड़दंगें मचाते घूमना चौंकाता है। यह देखना बहुत महत्वपूर्ण है कि यह सब कुछ, दोनों समाजों, धर्मों के मध्य, उच्च मध्य और उच्च वर्ग में है। निम्न वर्ग के हिन्दुओं और मुसलमानों में पारस्परिक साझा जीवनशैली अभी बची है। वहाँ भूख, गरीबी से लडऩे की जद्दोदजहद ज्यादा बड़ी है। ये मसले वहां के सामान्यत: नहीं है, या फिर आधुनिक शिक्षा, जीवन शैली, जागृति और वैश्विक बोध के युवाओं में नहीं हैं, पर ये दोनों ही वर्ग चीजों को नियन्त्रित नहीं करते। कहीं इनकी संख्या बहुत कम है, कहीं प्रभाव और कहीं इच्छा शक्ति।
धर्म का बढ़ाया जाता आवेग, उत्तेजना हमेशा एक उन्मादी, राष्ट्रवाद में समाहित किया जाता है। इसमें महान अतीत, महान पुस्तकें, महान संस्कृति, महान नायक जैसे तत्वों को जोड़कर एक संस्कृति, एक इतिहास गढ़ा जाता है। वास्तव में संस्कृति तभी बनती है जब धर्म, इतिहास और राष्ट्रवाद को एक कर दिया जाता है। यह भी बहुत साफ दिखने वाले तरीके से नहीं किया जाता। इस कोशिश पर कुछ और मुलम्मे चढ़ाएं जाते हैं। इसे कुछ आकर्षक शब्दों से अलंकृत किया जाता है। अन्य के लिये घृणा और हिंसा को जन्म देने वाले झूठे तथ्य और कुर्तक गढ़े जाते हैं। यह सब इतनी सावधानी से किया जाता है कि मनुष्य या कि नागरिक अपने सांस्कृतिक वर्चस्व के लिये अपनी स्वतंत्रता का त्याग करके किसी विचारधारा या व्यक्ति तक की गुलामी को तैयार हो जाता है। ऐसे गुलाम पैदा करना ही अन्तत: राज्य, धर्म, समाज और पूंजी का अन्तिम लक्ष्य होता है, जो उनकी अमानवीय सत्ता को भी विश्वास और श्रद्धा को साथ देखे। मुसोलिनी कहता था ''फ़ासिज्म, जो अपने को प्रतिक्रियावादी कहे जाने से नहीं डरता, खुद को स्वतंत्रता विरोधी कहलाए जाने से भी नहीं हिचकिचाता है।'' एक ढीली ढाली, निष्प्रभावी, अकर्मण्य, अस्थिर, लोकतांत्रिक व्यवस्था और सरकार, सत्ता केन्द्रों में बैठे लोगों को सबसे ज्यादा पसन्द है। जब तक वे इस व्यवस्था को लोकतंत्र का छद्म आवरण दे कर चला सकते हैं, चलाते हैं। इसकी महिमा को मंडित करते हैं। मतदाताओं को उनके अधिकार, उनकी शक्तियों, उनकी भूमिका की मरीचिका में डुबोए रखते हैं। जब यह व्यवस्था इतनी निकम्मी और भ्रष्ट हो जाती है, इतनी सड़ जाती है कि उनके हित साधने में भी असमर्थ हो जाती है, तब वे इसके आवरण में एक तानाशाही या तानाशाह लाते हैं। ध्यान देना ज़रूरी है कि तानाशाह हमेशा निकम्मे, भ्रष्ट, दम तोड़ते लोकतंत्र से जन्म लेता हैं। ऐसे ही मुसोलिनी आया था। ऐसे ही हिटलर आया था। वे अपने आप नहीं टपक पड़े थे। उन्हें पूरी रणनीति के साथ लाया गया था। हिटलर को लाने में उन सब राष्ट्रों, व्यक्तियों की बड़ी भूमिका थी जो बाद में उसके खिलाफ संगठित होकर लड़े। पहले सबने उससे संधियां की थीं या करने की कोशिश की थीं। मुल्कों के इतिहास यही हैं। उनके बनने बिगडऩे के इतिहास भी यही हैं। उनके बंटने या जुडऩे के इतिहास यही हैं। सद्दाम, ओसामा, गद्दाफी सब इन पूंजीवादी मुल्कों के प्रिय रहे थे, फिर अचानक ये 'मानवता विरोधी', 'तानाशाह' बताकर कत्ल कर दिए गए। जब तक ये उनका हित साधते रहे, दोषरहित थे। बाद में एक महान, लोकतांत्रिक, उदार, मानवतावादी दृष्टिकोण, व्यवस्था और विश्व के लिये संगठित होकर उनकी क्रूर हत्याएं कर दी गयीं।
(2)
रात गहरा रही है। उदासी और थकान भी। कुछ दिन पहले मकबूल साहब ने कहा था कि आँखें और कमजोर हो गयी हैं, नया चश्मा बनवा लीजिए। शायद वही थकान है। चश्मा उतार कर रख देता हूँ। सामने इमारत के पीछे से चाँद निकल रहा है। अभी वह ज़र्द है, रोशनी अफ़सुर्दा है। अभी यह गंगा के किनारे पूरा दिख रहा होगा। यह रोशनी अभी ययाति के टीले पर, जाजमऊ की टेनरियों के चमड़े के ढेरों पर, किनारे पड़ी उल्टी नावों की दरारों पर गिर रही होगी। अभी चाँद और उठेगा। तब यह रोशनी 'चमेली के मंडुए तले प्यार की आग में जलने वाले दो बदनों पर गिरेगी'। 'मन्दिरों के किवाड़ों, मयकदों की दरारों, मस्जिदों की मीनारों' पर गिरेगी। अभी चाँद और उठेगा। यह 'बेवा के शबाब' की तरह उठेगा। यह 'मुफ़लिस की जवानी' की तरह उठेगा। 'मुल्ला के अमामा बनिए की किताब' की तरह उठेगा। जैसे जैसे यह उठेगा इसकी रोशनी बढ़ेगी। ज़र्द में चमकदार होगी। किसी ज़ीने पर रुकेगी, किसी सीने पर रुकेगी।
अव्वले शब चाँद जहाँ ठहरा था
आज ठहरा है उसी ज़ीने पर
आओ सो जाओ मेरे सीने पर
रात गहरा रही है। उदासी और थकान भी। रंज़ो ग़म, दर्दों अलम, यास, तमन्ना, सोज़ो गुदाज, दिल में आठों का मेला लग चुका है। गहरे सन्नाटे में सुबह की ओर रेंगती रात की हर साँस, हर आहट सुनायी दे रही है। न परियाँ है, न नींद, न ख्वाब।
ये साँस लेती हुयी कायनात ये शबे-माह
ये पुरसुकूँ ये पुरअसरार ये उदास समाँ
ये नर्म-नर्म हवाओं के नीलगूँ झोंके
फ़ज़ा की ओट में मुर्दों की गुनगुनाहट हैं
ये रात मौत की बेरंग मुस्कराहट है
धुँआ-धुँआ से मनाज़िर तमाम नमदीदा
खुनुक धुँदलके की आँखें भी नीम-खाबीदां
सितारे हैं कि जहाँ पर है आँसुओं का कफ़न
हयात पर्दा-ए-शब में बदलती है पहलू
कुछ और जाग उठा आधी रात का जादू
ज़माना कितना लड़ाई को रह गया होगा
मेरे ख्याल में अब एक बज रहा होगा।
ऐसा कम होता है जब रमजान और नवरात्रि के कुछ दिन साथ पड़ जाते हैं, उस साल ऐसा ही हुआ था। सुबह कभी-कभी मैं पैदल घूमने की जगह साइकिल चलाता था। उस दिन साइकिल पर था। अन्धेरा खत्म ही हो रहा था। रोशनी फूटने वाली थी। परेड चौराहे पर सड़क के एक ओर लड़कियाँ नंगे पाँव, बाल खाले, माँ का जयकारा बोलती जा रही थीं। दूसरी ओर से सहरी के बाद मुसलमान लड़कों के झुंड सड़क पर निकल आए थे। दोनों के बीच सड़क का डिवाइडर था। एक ओर प्रार्थना थी दूसरी ओर नमाज। एक ओर प्रसाद था दूसरी ओर सहरी का खाना था, एक ओर माथे पर गोटे सजी चुनरी, नंगे पाँव, खुले बाल थे, दूसरी ओर छोटी जालीदार टोपी, पायजामा, कुर्ता था। एक ओर माँ दुर्गा थीं दूसरी ओर परवरदिगार अल्लाह था। मैं साइकिल पर चौराहे से निकला। बारह चौदह साल के दुबले पतले मुसलमान लड़के ने आवाज़ देकर मुझे रोका, 'चचा... बैठ जाऊँ? सुनहरी मस्जिद तक छोड़ देना' मैंने इशारा किया। वह पीछे कैरियर पर दोनों तरफ एक एक पैर लटकाकर बैठ गया। तभी एक लड़की वहाँ से हरे रंग के कपड़ें पहने गुजरी। लड़के ने उसे देखा और बोला - 'घर जाओ, नहीं तो बुक़रिया चर जाएगी।'
लड़की हंसी। लड़का हंसा। मैं भी हँसा और पैडल मारता हुआ सुनहरी मस्जिद की ओर चल दिया।
'रवीन्द्रनाथ', 'मखदूम', 'मजाज़', 'राही मासूम रज़ा' और 'फिराक' की शाइरी के कुछ अंश/पद लिये गए हैं। उनका उल्लेख लेख में इसलिए नहीं है कि लेख की लय न टूटे। शीर्षक अकबर इलाहाबादी की ग़ज़ल के शेर से लिया गया है। पूरा शेर इस तरह है -
सूरज में लगे धब्बा फितरत के करिश्में हैं
बुत हमकों कहें काफ़िर अल्लाह की मर्ज़ी है।
( 'पहल' में प्रकाशित, साभार प्रस्तुत)