Wednesday 22 April 2015

राजधानी में एक किसान की मौत पर कई बड़े सवाल / जयप्रकाश त्रिपाठी


आज दिल्ली में जंतर मंतर पर केंद्र सरकार के भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ आम आदमी पार्टी की रैली के दौरान दौसा (राजस्थान) का किसान गजेंद्र सिंह पेड़ पर फांसी से झूल गया। अपने पीछे छोड़े एक सुसाइड नोट में वह लिख गया कि 'दोस्तों, मैं किसान का बेटा हूं। मेरे पिताजी ने मुझे घर से निकाल दिया क्योंकि मेरी फसल बर्बाद हो गई। मेरे पास तीन बच्चे हैं....जय जवान, जय किसान, जय राजस्थान।' घटना के समय मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, आप के नेता संजय सिंह, कुमार विश्‍वास मौके पर मौजूद थे। राममनोहर लोहिया अस्पताल के मुताबिक उसको मृत अवस्था में अस्पताल ले जाया गया था। 


मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि आप के कार्यकर्ता दिल्ली पुलिस से किसान को बचाने के लिए अपील करते रहे लेकिन दिल्ली पुलिस के जवानों ने इस दिशा में कुछ नहीं किया। उसे पेड़ पर चढ़ने दिया। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि किसान और मजदूर घबराएं नहीं, हम उनके साथ खड़े हैं।
देश की राजधानी में सरेआम एक रैली के दौरान गजेंद्र सिंह की मौत अपने पीछे कई बड़े सवाल छोड़ गई है। यह सवाल केंद्र सरकार, दिल्ली सरकार, दिल्ली पुलिस, भाजपा, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस, इन सबको कठघरे में खड़ा करता है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश से शुरू होकर यह सवाल हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था तक जाता है। यह सवाल उस पूरे सिस्टम से है, जो एक तरफ मौसम की मार से निढाल किसानों की लाशें गिन रहा है, दूसरी तरफ किसी भी कीमत पर वह भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पारित कराने पर आमादा है, जो किसान से उसकी जमीन भी छीन सके।
जंतर मंतर की मौत उस गहरे षड्यंत्र के दुष्परिणाम के रूप में देखी जानी चाहिए, जो देश आजाद होने के बाद से लगातार इस देश के करोड़ो-करोड़ किसान-मजदूरों के साथ खेत-खलिहानों से कल-कारखानों तक हो रहा है। उस षड्यंत्र में सबसे बड़ी साझीदार कांग्रेस है, जिसने आज देश को इस मोकाम तक पहुंचा दिया है। उस षड्यंत्र में दूसरी सबसे बड़ी भागीदार मजदूर-किसान विरोधी भाजपा है, जिसकी इस समय केंद्र में सरकार है। इन दोनो की आर्थिक नीतियां एक हैं। देश का आम बजट हो या एफडीआई जैसे मुद्दे, दोनो एक सिक्के के दो पहलू हैं। इन दोनो की प्राथमिकताएं कारपोरेट पूंजी की हिफाजत है।
उस षड्यंत्र के लिए उन्हें भी गैरजिम्मेदार नहीं माना जाना चाहिए जो पिछले साठ साल से इस देश में किसानों-मजदूरों की सियासत के नाम पर खूब मुस्टंड और हरे-भरे हो रहे हैं। इस षड्यंत्र से उस मीडिया को भी असंपृक्त नहीं माना जा सकता, जो स्वयं को भारतीय लोकतंत्र का चौथा सबसे बड़ा खैरख्वाह मानता है लेकिन खबरें छापते-छापते, अब पूरी बेशर्मी से सिर्फ खबरें बेचने लगा है।
कथित हरितक्रांतिवादी देश में ये सब-के-सब इसलिए जिम्मेदार हैं, क्योंकि इन सभी को बहुत अच्छी तरह से मालूम है कि भारत में विदर्भ, तेलंगाना से बुंदेलखंड तक क्यों हजारों किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। उस प्रदेश में सबसे ज्यादा किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, जिसके शासन की बागडोर धरतीपुत्र के पुत्र के हाथ में है। ये कैसा मजाक है कि 2014 में किसानों की आत्महत्या का ब्यौरा नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो जून महीने तक देगा। 31 मार्च 2013 तक के आंकड़े बताते हैं कि 1995 से अब तक 2,96 438 किसानों ने आत्महत्या की है हालांकि जानकार इस सरकारी आकंड़े को काफी कम बताते हैं। क़रीब पांच साल पहले कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने पंजाब में कुछ केस स्टडी के आधार पर किसान आत्महत्याओं की वजह जानने की कोशिश की थी। इसमें सबसे बड़ी वजह किसानों पर बढ़ता कर्ज़ और उनकी छोटी होती जोत बताई गई। इसके साथ ही मंडियों में बैठे साहूकारों द्वारा वसूली जाने वाली ब्याज की ऊंची दरें बताई गई थीं लेकिन वह रिपोर्ट भी सरकारी दफ़्तरों में दबकर रह गई। असल में खेती की बढ़ती लागत और कृषि उत्पादों की गिरती क़ीमत किसानों की निराशा की सबसे बड़ी वजह है, जिससे सरकारें बेखबर रहना चाहती हैं।
यह सच है कि इस व्यवस्था की जनद्रोही क्रूरताओं के चलते इससे पहले हजारों किसान आत्महत्याएं कर चुके हैं लेकिन अपने हालात से विक्षुब्ध एक युवा किसान का देश की राजधानी में इस तरह हुई मौत कोई यूं ही भुला दिया जाने वाला मामूली हादसा नहीं। घटना के समय वहां उस पार्टी के हजारों कार्यकर्ता मौजूद थे, जिसकी दिल्ली में सरकार है। उस मीडिया के दर्जनों रिपोर्टर मौजद थे, जो चौथा खंभा कहा जाता है। घटना उस स्थान पर हुई, जिससे कुछ कदम दूर देश की संसद है, जिसमें देश भर के जनप्रतिनिधियों का जमघट लगता है और जिसमें इस समय भाजपा सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पारित कराने पर पूरी तरह से आमादा है। कैसी बेशर्मी है कि वही पार्टी आज इस मौत पर बयान देती है कि जंतर मंतर पर मानवता की हत्या हुई। भाजपा प्रवक्ता संबित कहते हैं कि रैली क्या किसी आदमी की जान से ज्यादा जरूरी थी? तो क्या यही सवाल केंद्र की भाजपा सरकार से नहीं बनता कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश फिर तो किसान की जान से ज्यादा जरूरी है!

Saturday 18 April 2015

आर्थिक आत्‍मनिर्भरता के लिए दिल्‍ली में जुटे पत्रकार और कंटेंट जनरेटर

अंग्रेजी के सेंटीमेंटल कवि लार्ड टेनिसन की एक कविता है-
Wherefore bees of Ingland forge.
Many a weepans chain and scorge.-----
यह कविता उद्योगपतियों की ओर से की जा रही श्रमिकों की प्रताड़ना और मजदूरों की कर्मनिष्‍ठा पर आधारित है। कवि मजदूरों से कहता है-हे इंग्‍लैंड की मधुमक्खियों, उनके लिए शहद क्‍यों बनाती हो, जो तुम्‍हें कुचलने से गुरेज नहीं करते हैं। हे मजदूरों, आप उन कोड़ों और जंजीरों का निर्माण क्‍यों करते हो, जो कोड़े आप पर बरसाए जाते हैं और जिन जंजीरों में आपको जकड़ा जाता है।
इन्‍हीं कोड़ों और जंजीरों से छुटकारा पाने के लिए देश भर से पत्रकार और कंटेंट जनरेटर लोकप्रिय सोशल साइट भड़ास 4 मीडिया डॉट कॉम के मालिक यशवंत सिंह के बुलावे पर दिल्‍ली में जमा हुए और उर्दू घर में लोगों को बहुत कुछ सीखने को मिला। इस आयोजन से लोग अभिभूत थे और कुछ लोग तो यह भी कह रहे थे कि हमने अभी तक केवल सुना भर था कि इंटरनेट के जरिये ईमानदारी और सुकून की कमाई की जा सकती है, लेकिन उसे व्‍यावहारिक तौर पर देख भी लिया, वह भी मात्र 1100 रुपये के खर्च पर।
आयोजन की खास बात यह रही कि दीन दुनिया की फिक्र में लगे पत्रकार कभी अपने भविष्‍य के बारे में जहां सोच नहीं पाते थे और वर्षों से संपर्क से कटे हुए थे, वहीं एक दूसरे से मिल कर सकारात्‍मक ऊर्जा से भर गए। संपूर्ण कार्यक्रम से यह संदेश जरूर निकल कर आया-कुछ भी नहीं है मुश्किल अगर ठान लीजिए।
श्रीकांत सिंह के वॉल से

Monday 13 April 2015

ओम थानवी को 'बिहारी पुरस्कार'

 ‘जनसत्ता’ के संपादक एवं लेखक ओम थानवी को वर्ष 2014 का 24वां बिहारी पुरस्कार प्रदान किया जाएगा। के.के. बिड़ला फाउंडेशन के निदेशक सुरेश ऋतुपर्ण ने थानवी को उनकी यात्रा वृत्तांतपरक चर्चित पुस्तक ‘मुअनजोदड़ो’ के लिए यह पुरस्कार देने की घोषणा की है। इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष 2011 में हुआ था। थानवी को पुरस्कार के रूप में 1 लाख रुपए, प्रशस्ति पत्र और प्रतीक चिह्न प्रदान किया जाएगा। इससे पूर्व उन्हें शमशेर सम्मान, सार्क सम्मान, केंद्रीय हिंदी संस्थान सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। वह निरंतर लेखनरत रहते हुए वर्तमान में साहित्य, समाज, राजनीति, शिक्षा, पत्रकारिता आदि विषयों पर त्वरित टिप्पणियों के लिए हिंदी क्षेत्र में सुप्रसिद्ध हैं।
केके बिरला फाउंडेशन द्वारा स्थापित बिहारी पुरस्कार राजस्थान के हिन्दी या राजस्थानी भाषा के लेखकों को प्रदान किया जाता है। पिछले 10 वर्षों में प्रकाशित राजस्थानी लेखकों की कृतियों में से विजेता का चयन किया जाता है।  वर्ष 1991 में स्थापित पहला बिहारी पुरस्कार डॉ. जयसिंह नीरज को उनके काव्य संकलन ‘ढाणी का आदमी’ के लिए दिया गया था। ओम थानवी की एक अन्य चर्चित कृति है- 'अपने अपने अज्ञेय'।
ओम थानवी का जन्म 1 अगस्त 1957 को फलोदी, जोधपुर (राजस्थान) में हुआ था। वह नौ वर्षों (1980 से 1989) तक 'राजस्थान पत्रिका' में रहे। इसके बाद चंडीगढ़, फिर दिल्ली में संपादक बने। उन्होंने हिंदी की साहित्यिक तथा सांस्कृतिक इतवारी पत्रिका का भी सम्पादन किया है। ओम थानवी की साहित्य, कला, सिनेमा, पर्यावरण, पुरातत्त्व, स्थापत्य और यात्राओं में गहन रुचि है।
वह मेक्सिको, कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, इटली, स्पेन, स्विटजरलैंड, ऑस्ट्रिया, नीदरलैंड, फिनलैंड, स्वीडन, बेल्जियम, रोमानिया, थाईलैंड, आर्मेनिया, बेलारूस, चीन, ब्राजील, मलेशिया, सिंगापुर, गयाना, त्रिनिदाद एवं टोबेगो, सूरीनाम, श्रीलंका, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, तुर्की, ग्रीस और क्यूबा आदि अनेक देशों की यात्राएं कर चुके हैं। 

एक 'आदर्श मां' की लाइव रिपोर्टिंग

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में यह एक नए तरह की चर्चा सरगर्म हुई है। चर्चा है मिस्र की टीवी पत्रकार लामिया हामदीन का अपने बच्चे को लेकर रिपोर्टिंग करना। उनकी रिपोर्टिंग की तस्वीरें वायरल होने से ऑनलाइन सूचना माध्यमों पर इसे लेकर समर्थन और विरोध के रूप में तरह तरह की चर्चाएं बहस की शक्ल में सार्वजनिक रही हैं।
लामिया हामदीन के अपने बच्चे को लेकर रिपोर्टिंग करने का विरोध कर रहे लोगों का कहना है कि ये तरीका ठीक नहीं है। वे उनको नौकरी से निकालने तक की मांग कर रहे हैं। समर्थकों का कहना है कि लामिया आदर्श मां हैं। एक माँ का दर्द समझने के लिये दिल चाहिए, दिमाग नहीं। उन्होनें वही किया जो वक्त की जरूरत थी, "माँ तुझे सलाम"। उन्होंने उनकी तुलना इटली की नेता लीसिया रॉनज़्यूली से की है। लीसिया 2010 में अपनी बेटी को काम पर लेकर जाती थीं।
लामिया का कहना है कि एक कामकाजी मां होने के नाते उन्होंने वहीं किया जो उन्हें करना चाहिए था। उन्होंने कहा, 'मेरा बेटा बीमार था और मुझे कुछ ज्यादा देर काम करना था। ऐसे में वह उसे नर्सरी से अपने साथ लेकर आ गईं क्योंकि उसे और कहीं छोड़ना ठीक नहीं था।

Sunday 12 April 2015

दूरदर्शन में महिला कर्मियों का यौन शोषण

अब तो दूरदर्शन भी महिला कर्मियों के लिए सुरक्षित नहीं रहा। दूरदर्शन में सेवारत कई महिला कर्मियों का यौन उत्पीड़न किया जा चुका है। हाल ही में दूरदर्शन की उत्पीड़ित महिला कर्मियों की लिखित शिकायतों के बावजूद उन पर न तो महिला आयोग गंभीर है, न अन्य कोई वह जांच एजेंसी, जहां वे अपनी शिकायतें कर रही हैं। महिला बाल विकास मंत्रालय का इस मामले पर खामोशी साध लेना तो और भी आश्चर्यजनक है। ये हाल तो तब है, जबकि उन पीड़ित महिलाओं में से एक उसी आरएसएस के दूरदर्शन में प्रसार भारती मजदूर संगठन बीएमस की नेता हैं, जिसकी इस समय केंद्र में सरकार है। एक पीड़ित महिला कर्मी ने न्याय की गुहार लगाते हुए शिकायती पत्र में लिखा है कि क्या बलात्कार हो जाने के बाद ही कोई कार्रवाई होगी?
एक वरिष्ठ अधिकारी ने तो अपने अधीनस्थ महिला कर्मी से कहा कि तुम मेट्रो में रहने वाली तीस वर्ष की जवान हो, तुम ये भी नहीं जानती कि वरिष्ठ अफसर से कैसे पेश आया जाता है। दिल्ली की लड़कियां तो सब कुछ जानती हैं। महिला कर्मी की शिकायत है कि सिर्फ उसके साथ ही ऐसा नहीं, दूरदर्शन की कई महिलाओं के साथ इस तरह की हरकतें हो चुकी हैं।
दूरदर्शन में कार्यरत कई महिलाएं अपने अफसरों से डरी हुई हैं। एक पीड़िता महिला कर्मी ने साहस बटोर कर पुलिस में शिकायत भी कर दी है। एक अन्य महिला दूरदर्शन कर्मी को अपने विभागीय उच्चाधिकारियों से जब न्याय नहीं मिला तो उसने केंद्रीय महिला बाल विकास मंत्री मेनका गांधी और महिला आयोग को लिखित में बताया है कि उसके अफसर अपर महानिदेशक ने ऐसी शर्मनाक हरकत उससे की है कि उसे कहने में भी शर्म महसूस हो रही है। इसके बाद उस पीड़िता पर दबाव डालने के साथ ही परिजनों को शिकायत वापस लेने के लिए धमकाया गया। बताया जाता है कि उसका यौन उत्पीड़न किया गया है।
पता चला है कि इसी तरह आकाशवाणी भवन स्थित दूरदर्शन अभिलेखागार में कार्यरत एक अन्य महिला कर्मी ने प्रोग्राम एक्जिक्यूटिव पर यौन हरकतों का आरोप लगाया है। उसने इसकी लिखित शिकायत अपने विभाग के उच्चाधिकारियों के अलावा राष्ट्रीय महिला आयोग और महिला बाल विकास मंत्री से की है। आरोप है कि संबंध न बनाने पर प्रोग्राम एक्जिक्यूटिव ने उसे कई बार धमकियां भी दीं। उसकी फरियाद पर कोई कार्रवाई तो नहीं हुई। उल्टे उसे ही मंडी हाउस स्थित दूरदर्शन मुख्यालय में स्थानांतरित कर दिया गया। वहां भी उसे एक अफसर तंग करने लगा। इस दफ्तर में तैनात रहे एक अपर महानिदेशक पर भी एक महिला कर्मी ने पिछले वर्ष यौन शोषण का आरोप लगाया था। उस मामले में भी कोई कार्रवाई करने की बजाय अफसर को स्थानांतरित कर दिया गया था।
इन घटनाओं से पूर्व विशाखा गाइडलाइंस के आने के बाद भी दूरदर्शन की एक महिला पत्रकार द्वारा एक वरिष्ठ पद पर कार्यरत सहकर्मी पर यौन शोषण का आरोप लगाया जाना और उस पर दूरदर्शन के सर्वोच्च पद (डीजी-डीडी) पर एक महिला के आसीन होते हुए भी उसके द्वारा पीड़ित के आरोपों पर कार्रवाई न किया जाना एक खतरनाक कदम की ओर संकेत करता है। इसी तरह की अक्टूबर 2013 की एक घटना भी दूरदर्शन से ही संबंधित है। उस समय तो प्रसार भारती प्रबंधन ने यौन उत्पीडऩ के आरोपी दूरदर्शन के वरिष्ठ अधिकारी को निलंबित कर दिया था। अधिकारी की सहकर्मी ने उसके खिलाफ यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था। इसी तरह इंडिया टीवी की एंकर तनु शर्मा ने अपने अधिकारियों द्वारा उत्पीड़ित किए जाने, दफ्तर की गुटबाजी और फिर बिना कारण बताए बर्खास्त कर दिए जाने पर दफ्तर के सामने ही जहर खाकर खुदकुशी करने की कोशिश की थी।
डा. रीना मुखर्जी, तनु शर्मा प्रकरणों ने भी मीडिया कुपात्रों का भेद खोला था : प्रिंट मीडिया में भी हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। ‘द स्टेटसमैन’ की एक सीनियर रिपोर्टर रहीं डा. रीना मुखर्जी ने अखबार के ही तत्कालीन न्यूज कोआर्डिनेटर ईशान जोशी पर यौन शोषण का आरोप लगाया था, जिसके बाद इस मामले की निष्पक्ष जाँच कराए जाने के बजाय उन्हीं को नौकरी से निकाल दिया गया था।

Thursday 9 April 2015

घुमक्कड़ केदारनाथ पांडेय से राहुल सांकृत्यायन तक / जयप्रकाश त्रिपाठी

आज दिन राहुल सांकृत्यायन को याद करने का रहा। सुबह से अब फुर्सत। तो सोचा अपने ही जिला आजमगढ़ के, और अपने ही बगल के गांव के कनैला के थे बहुभाषाविद् त्रिपिटिकाचार्य तो कुछ ऐसी अपनी भी बता डालूं जो बहुतों को मालूम नहीं। हां, उन सहपाठियों को जरूर याद होंगी, जो उस दिन क्लास में मेरे सहित मौजूद थे। राहुल जी के गांव के ही थे पारसनाथ पांडेय, जो बारहवीं में हमारे क्लास टीचर थे। उनके पास कालेज ही नहीं, अपने पूरे गांव-जवार के बारे में एक-से-एक धांसू, पंचकूलाई, सुघर-सुघरी कहानियां थीं। घुमक्कड़ जिज्ञासु बचपन के नामधारी केदारनाथ पांडेय उर्फ राहुल सांकृत्यायन के बारे में ये सब भी उन्हीं का बताया-कहा है.....
तो गुरुवर पारसनाथ पांडेय ने केदारनाथ पांडेय के एक किशोर-घटनाक्रम को खूब रस ले-लेकर उस दिन हमे क्लास में कह सुनाया था -
....राहुल जी किशोरवय में ही गांव से परा (भाग) लिए थे। बड़ी खोज-ढूंढ मची महीनो। कहीं कोई अता-पता नहीं। वर्षों बाद लौटे तो पिता गोवर्धन पाण्डेय आगबबूला। हमारे बाबू (पारसनाथ के पिता) ने छेंकाछेंकी कर मामला बरजा (शांत कर) दिया। कई दिन तक बाप-बेटे में मुंहफुलौवल (नाराजगी) रही। तब तक केदारनाथ बाहर के मजे-सजे के साथ सब सीख-पढ़ आए थे, गांव में सयाने-सयाने बने डोल रहे थे लेकिन नया वाल नाम 'राहुल सांकृत्यायन' धारण नहीं किया था। ऊ सब बाद में हुआ।
.... एक दिन केदारनाथ का मन गांव से फिर उचटा (जैसे उस दिन क्लास में हम लोगों का उचट रहा था, तब वे बातें फालतू लगती थीं क्योंकि हमे कहां पता था कि हम किस बाणभट्ट की कथा सुन रहे हैं! अब गर्व होता है वे दिन याद कर)। सुबह-सुबह मुंह अंधेरे गोवर्धन चाचा (पारसनाथ चाचा कहते थे राहुल जी के पिता को) और केदारनाथ में जम के मुंहफचरी हुई। गोवर्धन चाचा ने कहा- जरा गांव से बाहर निकल के तो दिखा, टांगें तोड़ के हाथ में न दे दूं तो तेरी की। शादी-बियाह कर के उस दफा परा लिए ससुर, फिर अब कहां जा रहे हो, ऐं! ई जो घर में तोहार माई (केदारनाथ उर्फ राहुल की पत्नी) बइठलि हईं, इनके के खियायी-पहनाई (अर्थात घर में ये जो तुम्हारी मां (पत्नीको) बैठी है, उसको कौन खाना-कपड़ा देगा)। युवा केदारनाथ ने तपाक से छूटते ही पिता गोवर्धन से कहा - माई (मां) है तो पिता ही न खिलाए-पहनाएगा। खियावा-पहनावा माई के, हम तो चले अयोध्या....। बताते हैं, उस दिन के बाद बौद्धनामधारी केदारनाथ पांडेय उर्फ राहुल सांकृत्यायन फिर कभी अपने गांव कनैला (आजमगढ़) नहीं लौटे। हां, बताते हैं, श्रीलंका-प्रवास के दिनो में आजमगढ़ जरूर लौटे थे बूढ़े बरगद के नीचे पुरातात्विक खुदाई कराने के लिए।

Wednesday 8 April 2015

काम के घंटे हो अब चार, न्यूनतम मजदूरी हो अब चालीस हजार / अखिलेश चंद्र प्रभाकर


400 वर्षों के पूंजीवादी अनुभव बताते हैं कि उन्नत किस्म के तकनीकी और आधुनिक औद्योगिक विकास के बाबजूद; पूंजीवादी विश्व में तकरीबन रोजाना 80 करोड़ लोग भूखें पेट सोते हैं. तकरीबन 1 अरब लोग अब तक अनपढ़ हैं, लगभग 4 अरब लोग गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे है. 25 करोड़ बच्चे स्कूल जाने की बजाय रोजाना मजदूरी करते हैं. 10 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके सर पर छत नहीं है और पांच वर्ष से कम के 10 लाख बच्चे ऐसे हैं, जो प्रतिवर्ष कुपोषण, गरीबी या बिमारियों से मर जाते हैं. देश के भीतर और देशों के मध्य भी गरीबी और अमीरी में अन्तर में जबरदस्त बढ़ोतरी होती ही जा रही है. पिछली सदी के दौरान 1 अरब हेक्टयर से ज्यादा संरक्षित जंगलों को नष्ट किया गया और लगभग इतना ही क्षेत्र रेगिस्तान या बंजर भूमि में बदल गया है.
स्वाभाविक रूप से इन समस्यायों का निदान करने में पूंजीवादी-व्यवस्था नाकाम साबित रहा है. यह शासन करने वालों की जिम्मेदारी है क़ि वह जरूरत मंद हर व्यक्ति को भोजन, स्वास्थय, छत, कपडे, और शिक्षा मुहैया कराये. भरे- पूरे, तर्कसंगत, टिकाऊ और सुरक्षित जीवन का मतलब है, सांस्कृतिक सृजन, विकल्पों की विशाल संख्या और कई अन्य चीजें मानव की पहुँच में हों… यह सब हो सकता है, लेकिन नहीं है, क्योंकि किसी निजी विमान पर 9.5 अरब डॉलर खर्च होते हैं. तो कहीं आलीशान महल (अम्बानी का अट्टालिका) बनाने में 250 करोड़ रूपये खर्च किये जा रहे है.
मैं आदमी और औरत के लिए 4 घंटे कार्य दिवस होने के बारे में सोचता हूँ…यदि हमको तकनीक इतनी सुविधा देती है, तो हम 8 घंटे काम क्यों करें? इसके लिए तर्क यह है की जैसे जैसे उत्पादकता बढ़ती है; वैसे वैसे कम से कम शारीरिक व् मानसिक श्रम करने की आवश्यकता होती है; इससे बेरोजगारी कम से कम हो पायेगी और व्यक्ति को अधिक से अधिक समय प्राप्त हो सकेगा अपने निजी जीवन में मस्ती करने के लिए…
पूंजीवादी साहूकार आज विश्व् को एक बहुत बड़े मुक्त व्यापार क्षेत्र में तब्दील करना चाहते हैं. मुक्त व्यापार क्षेत्र में स्थापित किसी कारखाने के श्रमिकों को शायद ही कहीं निर्धारित वेतन दिया जाता है, बल्कि जो वेतन कारखाना मालिक अपने देश में स्थापित कारखानों के श्रमिकों को देते, उस वेतन का 5,6 या 7 प्रतिशत ही बाहर के देशों में स्थापित कारखाने में काम करने वाले श्रमिकों को भुगतान करते हैं.
संकट का लक्षण स्पष्ट है कि बाजार ईश्वर हो गया है और इसके कानून और सिद्धान्त ही संकट की जड़ हैं. USA की सबसे प्रतिष्ठित कंपनी का कुल फण्ड 4.5 अरब डॉलर है जब कि यह कंपनी 120 अरब डॉलर की सट्टेबाजी में लिप्त है.
एक छोटी सी पिन, एक छोटा सा छेद से बड़े से बड़ा गुब्बारा फुट जायेगा. यही खतरा नवउदारवादी वैश्विकरण के ऊपर मंडरा रहा है. इस परमाणु युग में भी विचार और चेतना हमारे सबसे अच्छे अस्त्र हैं और रहेंगे. हमें अच्छी तरह से सूचना संपन्न रहना चाहिए … बल्कि जरुरी है की घटनाओं को गहराई से जानें अन्यथा हम आत्म विस्मृति के शिकार हो जायेंगे.
वामपंथी यह सिद्ध करना चाहते हैं कि यह व्यवस्था नष्ट हो जायेगी, जब तक यह सच न हो तब तक यह केवल एक दलील है और इसे सच साबित करना हम सब का कर्तव्य है. हाँ, एक छोटे दायरे में दुर्लभ सम्पदा का वितरण करने- जिसमें मुठीभर लोग तो सब कुछ पाते हैं, लेकिन भारी आबादी वंचित रहती है – की अपेक्षा ‘समाजवादी गरीबी’ बेहतर है. क्रांति तब तक चलती रहेगी, जब तक इस दुनिया में अन्याय मौजूद है.

मॉल और शोरूम के जरिये महिलाओं की अस्मिता का कारोबार / डॉ. अनिल पुष्कर


इस समय मेट्रोपोलिटन से लेकर महानगर तक और राज्यों के बड़े शहरों तक मॉल और बड़ी ब्रांड्स के शोरूम देशभर में खुले हैं। इनमें ऐसा क्या ख़ास है? जिसके लिए एयरकंडीशंड सहूलियत के साथ हर आधुनिक साजोसामान की व्यवस्था की गई है। कई चीजों की ब्रांड्स तो ऐसी हैं जिन्हें एक बहुस्तरीय ब्रांड के शोरूम में भी जगह मिली है और शापिंग सेंटर में सेम ब्रांड का अलग से एक शोरूम भी खोला गया है। माल और विदेशी ब्रांड्स के लिए सरकार ने जमीन, बिजली, और सुरक्षा तक मुफ्त में उपलब्ध की हैं। जो शोरूम्स बने हैं इनमें पहनने ओढ़ने वाले लिबास की नामालूम रंगीन डिजाइन, ज्वेलरी, जूते, महंगा सिनेमा, रेस्तरां मनोरंजन के अनेकों साधन दिए गये हैं। और ये सब कुछ फैले हुए जमीन के बड़े भू-भाग याकि विशाल दायरे में वातानुकूलित तरीके से उपलब्ध है। इसके अलावा और क्या है जिसे बेचा जा सकता है?
वैश्विक बाज़ार आज इस ख्याल से हर चीज़, हर गुंजाइश पर अपनी नजरें जमाए हुए है। इंसान के इस्तेमाल में आने वाली कितनी चीजें हैं जिन्हें व्यापार के नजरिये से बिक्री कर बेशुमार मुनाफा कमाया जा सकता है। कम से कम समय में क्या नया लांच किया जाय? हर ब्रांड इसे लेकर चिंतित है, तमाम तरह की प्रयोगात्मक कार्यशालाएं काम कर रही हैं जिन्हें हम प्रचार माध्यमों से उपभोक्ता के बीच ले जाते हैं। जरूरत और नये उपयोगी चीजों पर रिसर्च चल रही है। नये उत्पादों के लिए नए आइडियाज तलाशे जा रहे हैं। सभी ब्रांड्स हर तरह से मुनाफा कमाने के लिए उत्पाद की खोजबीन करने में लगी हुई हैं और बाज़ार में पर्याप्त समय और पैसा झोंका जा रहा है। इसी मुनाफे से जुड़ा है औरतों के सौन्दय का सबसे बेहतरीन जरिया बनाया गया सुडौल और तराशा हुआ जिस्म और अस्मिता का बाज़ार।
औरत को एक उत्पाद के तौर पर बनाए रखने की कोशिशें तेजी से बाज़ार का हिस्सा बन रही हैं और नये-नये साइबर सोशल क्राइम को पनाह देते इन आधुनिक बाज़ारों में हर तरह की अथाह संभावनाएं मौजूद हैं। इसी का एक ताजा उदाहरण है हाल ही में हुआ, फैब इण्डिया, गोवा के चेंजिंग रूम में ख़ुफ़िया कैमरे का पाया जाना। वह भी मंत्रालय की प्रतिष्ठित महिला पदाधिकारी के साथ यह घिनौना प्रयास करने का दुस्साहस किया गया। ऐसा अपराध होने देने की स्थितियाँ न ही केवल शर्मनाक हैं, न ही केवल निंदनीय है बल्कि अपराधियों के मजबूत हौसले की तरफ साफ़ संकेत है। जिससे पता चलता है कि गुनहगारों के इरादे कितने पक्के हैं और मकसद कितना टार्गेटेड।
जाहिर है इन अपराधियों के लिए एक केन्द्रीय मंत्री भी केवल महिला है। एक सुंदर जिस्म जिसे बाज़ार में तौला जा सकता है। एक सशक्त महिला का चरित्र यहाँ गौण है। स्मृति ईरानी जो कि केन्द्रीय शिक्षा मंत्री हैं। गुनहगारों के लिए किसी सामान्य महिला की तरह ही है। जिसकी तस्वीरें ली जा सकती हैं, जिसे बाज़ार में अच्छी कीमत पर बेचा जा सकता है याकि इरादतन उसे ब्लैकमेल करके मानसिक रूप से परेशान किया जा सकता है। स्मृति ईरानि कोई रातों रात मशहूर नहीं हुईं। अपनी कला और कैरियर के लिए काम ने इस महिला को ख़ास पहचान दिलाई। फिर वो राजनीति में किस्मत आजमाने आईं और सफल रहीं। स्मृति ने दुनिया के हर तरह के तजुर्बे और इल्म को हासिल किया। अभिनय के क्षेत्र में कई वर्षों तक लगी रहीं। यह महिला इन तमाम मायनों में किसी सामान्य महिला से किसी तरह तुलना करने के लिए कतई उपयुक्त नहीं है। बावजूद इसके औरतों के जिस्म को सुंदर बेचने का माल समझने वाले अपराधियों ने इस महिला को भी अपने गंदे मकसद को पूरा करने का माध्यम बनाने का प्रयास किया। जिस पर गोवा के मुख्यमंत्री ने भी इस मुद्दे पर केवल कर्मचारियों को ही गुनहगार करार देते हुए मसले की गंभीरता और जिस्म के बड़े कारोबारियों का ही साथ दिया है। इस लिहाज से मुख्यमंत्री का बयान प्रभुत्वशाली और राजनीतिक घुसपैठ रखने वाले अपराधियों को कहीं न कहीं एक स्तर का समर्थन भी देता है।
ऐसा नहीं है कि महिलाओं के खिलाफ यह षड्यंत्र कर्मचारियों की बदमाशी मात्र है। सोचकर देखिये औरत की देह में ऐसी क्या ख़ासियत है? जिसके कारण उसे सरेबाजार बेचा जाना चाहिए। जिसे बेचने के लिए लाइसेंस की भी जरूरत नहीं है। जिसे बेख़ौफ़ और बेहिचक बेचा जा सकता है। जिसे बेचकर अकूत संपत्ति इकट्ठी की जा सकती है। अथाह मुनाफा कमाया जा सकता है। यह ध्येय और धारणा कहाँ से पैदा होती है? ये विचार कहाँ से आया कि किसी भी वुमेन चेंजिंग रूम में किसी महिला के कपड़े बदलने का वीडियो भी बाज़ार में बेचकर अच्छी कीमत वसूल की जा सकती है।
महिलाओं की आज़ादी को मुद्दा बनाकर धन कमाने वाले कारोबारी महंगे स्त्री माडल्स के जरिये ऐश्वर्यभोगी तबके के बीच अधनंगे जिस्मों का प्रदर्शन करते हैं। महंगे से महंगे कैटवाक शो आयोजित करते हैं। आधुनिक वस्त्रों को बाज़ार के बड़े कारोबारियों के बीच इस तरह पेश किया जाता है जिसमें इन कपड़ों के बहाने मॉडल्स अपना जिस्म प्रदर्शित करती हैं। बाद में इन्हें कैलेंडर के लिए भी नंगे जिस्म को बलिक एंड व्हाईट या रंगीन कैमरों में शूट किया जाता है। फिर इन भडकाऊ तस्वीरों को आलिशान बंगलों, महलों, स्वीट, होटलों की शान में दीवारों पर टाँगे जाते हैं। आखिर इस तबके को नंगे जिस्मों को देखने का चस्का कितना अजीब और आपराधिक है। मगर सरकार और कानून इस पर कोई पाबंदी नहीं लगाता। ये लोग औरतों की देह को आज़ादी और मुक्ति के नाम पर मुनाफे के लिए इस्तेमाल करते हैं। अपने कद और प्रतिष्ठा के लिए औरतों के जिस्म को अपने फायदे में उपयोग करते हैं। अधिक रकम अदा करके सुंदर स्त्रियों के जिस्म का एक अन-एथिकल बाज़ार खड़ा किया जा रहा है। साधारण लोगों को बिना किसी बुनियादी सामाजिक इल्म और सरोकार के ऐसे हर मामले में खूब बहकाया भटकाया जा रहा है। एक सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक अनिश्चिता लगातार जारी है।
इन आधुनिक बाज़ारों में क्या ख़ास है जिसे बेचा जाता है? ऐसा क्या है जो कि पुराने बाज़ार में नहीं बिकता? जिसे आधार बनाकर हर बड़े शहर और जिले में मॉल, शॉपिंग सेन्टर खुल रहे हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियों के शोरूम बाज़ार के बीचोबीच रौनक पैदा करने का काम कर रहे हैं। रौशनी से एकदम चकाचौंध और आधुनिक मानदंडों से लैस एक नये कल्चर को बड़े पैमाने पर फैलाया जा रहा है। आधुनिक होने का व्यूह रचने वाली तमाम इबारतें तीसरी दुनिया के देशों में रची जा चुकी हैं।
गोवा मामले में प्रशासन समेत कई जानकारों का मानना है कि यह कर्मचारियों की बेहूदा हरकत हो सकती है। मगर इसका एक पहलू यह भी है आप किसी भी मॉल या शापिंग सेन्टर, शोरूम में जाएँ। वहां के कर्मचारियों को गौर से देखें तो आपको पता लग जाएगा कि वे मुंह में न तो किसी तरह का च्विंग करने वाला खाद्य पदार्थ रख सकते हैं। न ही उन्हें स्वाभाविक तरीके से मिलने वाली सुविधाएं ही दी जा रही हैं। कर्मचारियों को तो ट्वायलेट जाने के लिए अपने समय का ब्यौरा तक देना पड़ता है। खाना खाने के लिए वक्त की पाबन्दी है। ऐसे में फैब इण्डिया के ये तीन कर्मचारी पकड कर जेल में अगर डाल भी दिए गये तो क्या इससे मसले का सही हल निकाला जा सकेगा?
सोचकर देखिये, क्या कोई कर्मचारी बिना मालिक की मर्जी और बगैर आदेश के खुद ऐसे संगीन अपराध को करने का जोखिम लेगा। किसी बड़े जुर्म से सीधे तौर पर जुड़ा होगा। चूंकि यह मामला हाई प्रोफाइल है, और हालात इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि कई चरणों में होने वाले इस आपराधिक धंधे में बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ और उनके रसूखदारों के तार कहीं न कहीं बड़े पैमाने पर जुड़े हुए हैं। वरना आप देखें कि इन्हीं शोरूम्स में कर्मचारियों के आने के समय उन्हें पूरी तरह से खंगालकर चेक किया जाता है, दिन भर कड़ी निगरानी और मुस्तैद कैमरों की नजर में रहना पड़ता है। वापसी के समय पूरी तरह से जांच के बाद ही निकासी होती है। ऐसे में क्या यह घटना कर्मचारियों के मातहत संभव है? भला इन कर्मचारियों को इतने संसाधन और टेक्निकल जानकारी कौन उपलब्ध कराएगा? कि वे अपराध करने की हिम्मत दिखा सकें और खरीददार उपभोक्ता महिलाओं की तस्वीरें ट्रायल रूम से कैद करके उन्हें साइबर दुनिया के खुले बाज़ार में बेच सकें। कतई यह मुमकिन तो नहीं लगता।।
एक और बात, आप मेट्रोपोलिटन, महानगर और आम शहरों के बीच मॉल में काम कर रही महिला कर्मचारियों को देखें। जहां मेट्रो शहर में हर प्रोडक्ट के केबिन पर अधिकांशतः एक ऐसा युवा चेहरा आपको देखने को मिलेगा जो कारोबारी की नजर में इस बात की पूरी संभावना को पूरा करने के लिए बाध्य है कि बाज़ार में बिकने वाले सौन्दर्य प्रसाधनों के बीच वह भी एक सुंदर उत्पाद की तरह है। आप इन खूबसूरत चेहरों को देखकर आकर्षित और आनंदित हो सकते हैं। इन्हें सामान बेचने के लिए खुद को मोम की गुड़िया बनना पड़ता है। अपनी देह की सुन्दरता को बनाये रखने के लिए हर तरह से तैयार रहना होता है।
दूसरी तरफ आप ट्रायल रूम्स में खड़ी महिला सुरक्षा गार्ड को देखकर अंदाजा लगा सकते हैं कि वे सिर्फ एक निश्चित भूमिका में हैं। इनके ड्रेस कोड और पहनावे के साइज और डिजाइन से आप इन्हें सामान या प्रोडक्ट की सिक्योरिटी गार्ड के बतौर आसानी से पहचान सकते हैं। इनकी उम्र अमूमन 18 से लेकर 30 के बीच होती है। और काम के दौरान असुविधाओं का सामना करना पड़ता है इनके लिए बैठने की सुविधा ड्यूटी के दौरान नहीं दी जाती है। ये महिलायें 12 घंटे तक खड़े रहकर नौकरी करने को मजबूर हैं। इन स्थितियों के बारे में बात करना इसलिए जरूरी है क्योंकि अपराध करने के लिए जिस तरह की स्थितियां, सुविधाएं और माहोल चाहिए। इन स्थितियों से आपको अंदाजा हो जाएगा कि ये महिला कर्मचारी किसी भी अपराध में शामिल होने के लिए कितने सक्षम और उपयुक्त हैं?
यकीनन ऐसे में जो भी अपराध हो रहे हैं उनके पीछे कर्मचारियों से अपराध करवाने वाले, इन्हें इस्तेमाल करने वाले रईस और ताकतवर लोग हैं। असल में औरतों की देह को हर तरह से बेचने वाले सौदागर सुरक्षा घेरों में हैं। और गुनाह को अंजाम देने वाले ये बड़े कारोबारी है। जिनकी शह पाकर या इनके इशारे पर गुलामों की तरह आदेश का पालन करते हुए चंद प्रलोभनों में फंसे कर्मचारी मजबूरी और दबाव के तहत आपराधिक काम में शरीक होते हैं। बावजूद इसके हर तरह के खतरे इनके हिस्से में हमेशा मौजूद हैं। मगर इनके मालिकों के लिए कोई खतरा न तो गुनाह करवाने में है और न ही औरतों की देह को बाज़ार में बेचने पर है। कानून की लचर दफाओं के कारण और व्यवस्था की खामियों की वजह से ये शातिर और प्रभुत्वशाली लोग हर गुनाह से बचकर साफ़ निकल जाते हैं और भविष्य में बड़े से बड़े अपराध की अनेक संभावनाओं से भरे हैं। सरकार ऐसे तमाम गुनहगारों को खुद इसी व्यवस्था में सुरक्षित जगह देती आई है।

मीडिया गाइड लाइन : लैंगिक अल्पसंख्यकों पर 'छिछोरे समाचार' लिखने की मनाही

हमसफर ट्रस्ट के अध्यक्ष अशोक राव कवि के मुताबिक प्रसार माध्यमों में, जो लैंगिक अल्पसंख्यकों का सनसनीखेज, अवैज्ञानिक एवं एकतरफा चित्र प्रस्तुत किया जाता है, उसमें बदलाव जरूरी है। इसी उद्देश्य से अपने सामाजिक अस्तित्व के लिए संघर्षरत एलजीबीटी (समलैंगिक लेस्बियन, गे, बायसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर) समुदाय की ओर से संचार मीडिया गाइड (प्रसार माध्यम मार्गदर्शिका) जारी की गई है। इसकी लेखिका अल्पना डांगे हैं और हिंदी में इसका अनुवाद विवेक पाटिल ने किया है। इंडिया एच.आई.वी. / एड्स अलायंस ने इनोवेशन फंड के तहत हमसफर ट्रस्ट के इस प्रकल्प को आर्थिक सहायता प्रदान की है। 
अल्पना डांगे लिखती हैं कि 'प्रसार माध्यम मार्गदर्शिका' भारत में लैंगिक अल्पसंख्यकों की बेहतर रिपोर्टिंग की बेहतर पत्रकारिता के लिए सुझावित भाषा मार्गदर्शिका है। हमसफर ट्रस्ट बोर्ड पिछले कई वर्षों से संचार प्रसार माध्यम मार्गदर्शिका तैयार करने पर विचार-विमर्श करता रहा है। Glaad Media के सेन एडम ने उनके कुछ हिस्सों को अपनाने की अनुमति दी। संचार प्रकल्प के दौरान कार्यशालाओं में शामिल होकर पत्रकारों ने भी इसके विमर्श में मदद की। इस प्रकल्प पर काम करते समय कुछ चुनिंदा गाने महीनों तक बार बार सुने।
प्रस्तावना सहित इसके कुल आठ अध्यायों में से अंतिम आठवें अध्याय 'संचार एवं पत्रकारिता के नीति-मूल्य' में लिखा गया है कि अगर किसी व्यक्ति का साक्षात्कार, राय, छायाचित्र लेने हैं तो पत्रकारों को उस व्यक्ति की सहमति लेनी चाहिए। साथ ही, छापने के बाद उसकी जानकारी उस व्यक्ति को देनी चाहिए। एलजीबीटी (समलैंगिक) समाज के ऐसे किसी व्यक्ति की तो पहचान भी गोपनीय रखनी चाहिए। एलजीबीटी समाज के बारे में 'छिछोरे समाचार' पेश किए जाते हैं। ऐसा नहीं लिखा जाना चाहिए। स्टिंग के बाद तो ऐसे समाचार आचार संहिता के दायरे में आते हैं या नहीं, विवाद का मुद्दा है। समलैंगिक समुदाय के लोग अपनी पहचान सार्वजनिक नहीं चाहते हैं। संकेतों के माध्यम से इनकी आपस में मुलाकातें होती हैं। इसलिए स्टिंग से इनके रोजीरोटी पर खतरा पैदा हो जाता है। वे बेघर किए जा सकते हैं। समाज उन्हें धिक्कार सकता है। इसीलिए इस पुस्‍तक में देशव्यापी इस समुदाय के प्रवक्‍ताओं के संपर्क नंबर जारी किए गए हैं।

'फ्लफी' की मौत पर फूट फूट कर रोए, विधि-विधान से तेरहवीं

कानपुर में एक परिवार ऐसा भी है जिसने अपने पालतू कुत्‍ते की मौत पर तेरहवीं बकायदा विधि-विधान से कराया. कानपुर के हरजेन्दर नगर इलाके के कालीबाड़ी में रहने वाली सुनीता सिंह के मुताबिक, उनके पति राजेंद्र प्रताप सिंह सिविल कांट्रेक्टर थे. साल 1990 में उनका परिवार कारोबार के सिलसिले में रांची से कानपुर आकर बस गया. उस समय उनकी तीनों बेटियां नजदीक के ही स्कूल पढ़ने जाती थी. एक दिन उनकी सबसे छोटी बेटी रितु स्कूल के पास से एक कुत्‍ते को अपने घर ले आई. पहले तो सुनीता ने विरोध किया, लेकिन बेटियों के कहने पर उसे घर पर रखने को मान गई.

लड़कियों ने प्यार से डॉगी का नाम 'फ्लफी' रखा. धीरे-धीरे 'फ्लफी' परिवार का हिस्सा बन गई. उम्र के 15 साल पूरे कर चुकी 'फ्लफी' ने 26 मार्च को दम तोड़ दिया. 'फ्लफी' की मौत से पूरा परिवार उसकी मौत पर गम में डूब गया. सभी लोग फूट-फूट कर रोए. सुनीता के अनुसार उनलोगों ने विधिविधान से 'फ्लफी' का अंतिम संस्कार किया. परिवार ने तय किया था की 'फ्लफी' की तेरहवीं भी विधि-विधान से करेंगे. बुधवार को 'फ्लफी' की तेरहवीं का अनुष्ठान गायत्री परिवार के पुरोहितों ने संपन्‍न कराई.

रेलवे ने खोली भ्रष्टाचार की नई खिड़की / संजीव सिंह ठाकुर

भारत सरकार और भारतीय रेलवे की ओर से नई तकनीक के साथ भ्रष्टाचार रोकने व यात्रियों को सुविधाएं देने का समय समय पर दावा किया जाता है। इसी कड़ी में इंडियन रेलवे केटरिंग एण्ड टयूरिस्म कारपोरेशन (आई.आर.सी.टी.सी) द्वारा गत वर्ष एक ही दिन में 5 लाख 80 हजार टिकटें आरक्षित करने का रिकार्ड कायम किया गया था। हाल ही में यह रिर्काड 11 लाख पर पहुंच चुका है। परन्तु इसी साइट पर टिकट आरक्षित करने पर कई यात्रियों को लूट का भी शिकार होना पड़ता है।
गौरतलब है कि इस साइट पर बुक टिकट किसी कारण वश अगर गाड़ी प्रस्थान से केवल छः घंटे पहले की अवधि में निरस्त होता है तो टिकट सीधे निरस्त करने की बजाय यात्री को इसी साइट पर टी.डी.आर भरना पड़ता है। अर्थात आई.आर.सी.टी.सी यात्री का टिकट निरस्त करने का निवेदन रेलवे को भेजता है। अगर रेलवे यह पुष्टि करता है कि उक्त यात्री ने यात्रा नहीं की, जोकि अंततः टी.टी.ई की रिर्पोट पर आधारित होता  है तो यात्री का पैसा तय कटौती के बाद लौटा दिया जाता है।
मान लें टी.टी.ई किसी अनारक्षित यात्री से दो नम्बर में पैसे लेकर वही आरक्षित सीट दे देता है, जिस पर आरक्षित यात्री नहीं आया और चार्ट में असली यात्री को ही यात्रा करते दिखा देता है तो असली यात्री को आई.आर.सी.टी.सी यह मान कर पैसा लौटाने से मना कर देता है कि रेलवे के मुताबिक उसने यात्रा की है। दूसरे शब्दों में रेलवे के अनुसार वह यात्री झूठा दावा कर रहा है। अर्थात एक तो लुटाई, ऊपर से झूठा होने का इल्जाम। इस घटनाक्रम को मैं दो बार भुगत चुका हूं। 31 जनवरी को मुझे शिमला में कुछ व्यक्तिगत कार्य था। अतः मैने 1 व 2 जनवरी दोनों दिन की 19718 चंडीगढ़-जयपुर एक्सप्रेस में चंडीगढ़ से रिवाड़ी की टिकटें आरक्षित कीं। ताकि अगर 31 को काम पूरा हो गया तो एक को सुबह शिमला से चंडीगढ़ बस में आकर चंडीगढ़ से रिवाड़ी इस गाड़ी से आ सकूंगा। अगर एक को शिमला में ही रूकना पड़े तो एक जनवरी का टिकट निरस्त करवा कर दो जनवरी के इसी गाड़ी में आरक्षित टिकट का लाभ उठा सकूंगा।
एक को मुझे शिमला में ही रूकना पड़ा। अतः मैंने एक जनवरी दोपहर 1.30 वजे शिमला के एक साइबर कैफे से इस टिकट को निरस्त करने के लिए टी.डी.आर फाईल कर दिया। 2 जनवरी को प्रातः 7 वजे शिमला से बस में चलकर 12.45 दोपहर को चलने वाली चंडीगढ़ -जयपुर एक्सप्रेस द्वारा चंडीगढ़ से रिवाड़ी की यात्रा की। परन्तु आई.आर.सी.टी.सी ने कुछ दिन बाद इस तर्क के साथ मेरा पैसा लौटाने से मना कर दिया कि मैंने एक जनवरी को भी यात्रा की है।
सवाल उठता है कि जब मैं एक जनवरी को चंडीगढ़ से गाड़ी चलने के 45 मिनट बाद वहां से 110 कि.मी. दूर शिमला के आई.पी. पते से टिकट निरस्त कर रहा हूं। मेरे मोबाइल की लोकेशन अगले दिन सुबह तक शिमला में ही मिलेगी।  तीसरे मैं फोटो युक्त पहचान पत्र से उसी समय शिमला के होटल/धर्मशाला में रूकता हूं। जिसके सबूत मिल सकते हैं। तो रेल विभाग उसी समय मेरे गाड़ी में यात्रा करने की पुष्टि कैसे करता है, जिस समय मेरे शिमला में होने के सबूत पर सबूत हैं। उल्टा मेरे दावे को झूठा बता कर मेरे पैसे भी नहीं लौटा रहा।
रेलवे के अनुसार मैंने एक और दो जनवरी दोनो दिन चंडीगढ़ से रिवाड़ी यात्रा की। यह कैसे हो सकता है ? और अधिक जानकारी जुटाने पर पता चला कि ऐसे असंख्य यात्री हैं जो इस तरह के भ्रष्टाचार से शिकार हो रहे हैं परन्तु उचित मंच न मिलने, समय की कमी व पचड़े में न पड़ने के कारण इस लूट के खिलाफ आवाज़ नहीं उठ रही है। क्या मोदी सरकार या रेल मंत्री या रेलवे के किसी उच्चाधिकारी से इस गंभीर मसले पर ध्यान देने की उम्मीद की जा सकती है?

पहले मीडिया मिशन था, अब धंधा / रामानंद सिंह रोशन

बिहार के ईमानदार और जुझारू वरिष्ठ पत्रकार रामानंद सिंह रोशन कारपोरेट मीडिया के राज में ग्रामीण पत्रकारों की गुलाम-दशा देखकर हैरत में हैं। मजीठिया मामले पर तो कोई बात करते ही वह विक्षुब्ध होकर मालिकानों पर बरस पड़ते हैं। उन्हें उन पत्रकारों पर भी गुस्सा आता है, जो इतने गंभीर मामले पर खुल कर सामने आने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। 
रामानंद सिंह एक पत्रकार संगठन के राष्ट्रीय स्तर के पदाधिकारी भी हैं लेकिन उस संगठन से भी परेशान पत्रकारों के हक और हित के लिए कोई बड़ा आंदोलन खड़ा होने की कोई उम्मीद नहीं करते हैं। इन दिनो खासकर प्रिंट मीडिया गांव-देहात के पत्रकारों का कितनी तरह से शोषण कर रहा है, उसे देखते-जानते हुए उनके लिए कुछ न कर पाने से वह अत्यंत व्यथित हैं। कहते हैं, क्या करें, कोई इन पत्रकारों के दुख-दर्द को सुनना ही नहीं चाहता है। मुझे 25 वर्ष हो गए पत्रकारिता में। सन् 1990 तक लगता था कि मीडिया का मतलब समाज और देश के प्रति सेवा और सम्मान। अब लगता है मीडिया का मतलब अपमान। अब मीडिया धंधा है। उद्योगपतियों के अखबार खबरें भी कम, विज्ञापन ज्यादा बेचने लगे हैं। नीचता की हद है। हर पर्व-त्योहार पर सौ सौ रुपए के विज्ञापन में कुछ भी बेच देते हैं। बिहार में 'हिन्दुस्तान', 'जागरण', 'प्रभात खबर' आदि अखबार पत्रकारों नियुक्ति सिर्फ सरकुलेशन और विज्ञापन देने की शर्त पर करते हैं। अस्सी प्रतिशत पत्रकारों को ब्लैकमेलिंग के लिए लगाया जा रहा है। समाचार लिखने की योग्यता जरूरी नहीं। इसीलिए अब शोभना भरतिया, सुनील गुप्त, और उषा मारटिन ही पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं। आज सत्ता और विपक्ष से लेकर प्रैसकौंसिल तक तमाशबीन बने हुए हैं। निर्धारित मानकों पर अब प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनो तरह के मीडिया के रजिस्ट्रेशन की विधिवत निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। संवाददाताओं की नियुक्ति का मापदंड होना चाहिए।
वह लिखते हैं कि गांव (प्रखण्ड) से जिला स्तर पर अखबार कार्यालय तक सिर्फ दो से तीन मीडिया कर्मियों को छोड़ बाकी सभी पत्रकारों को सिर्फ प्रकाशित प्रति समाचार के हिसाब से मात्र 12 रुपए और प्रकाशित प्रति फोटो के हिसाब से सिर्फ 60 रुपए दिए जा रहे हैं। इसके लिए उन्हें बारह-बारह घंटे एक मजदूर से भी गई-गुजरी हालत में भागदौड़ करनी पड़ती है।
रामानंद सिंह लिखते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों के वे संघर्षशील पत्रकार धन-मीडिया हाउसों के लिए सिर्फ खबरें और फोटो ही मुहैया नहीं कराते, बल्कि उन पर सरकुलेशन की गलाकाटू मुठभेड़ का जिम्मा निभाना पड़ता है। एक-एक अखबार बढ़ाने के लिए अपनी रोजी-रोटी की दुहाई देकर उन्हें एक-एक पाठक की तलाश के साथ उनके आगे रिरियाते हुए आरजू-मिन्नत करनी पड़ती है। किसी भी कारण से (भले किसी पुराने पाठक की मौत ही क्यों न हो जाए ), एक भी प्रति कम हो जाने पर अखबार के मुख्यालयों में बैठे सफेदपोश ऐसे दाना-पानी लेकर दौड़ा लेते हैं, जैसे उस पत्रकार ने पता नहीं कितना बड़ा अपराध कर दिया हो। ये हालत किसी एक अखबार के पत्रकार की नहीं, बल्कि ज्यादातर बड़े अखबार इसी तरह गांव-देहात के पत्रकारों का खून पीकर मुस्टंड हुए जा रहे हैं।
रामानंद सिंह का कहना है कि गांव-देहात के पत्रकारों को समाचार, फोटो और सर्कुलेशन की जिम्मेदारी नहीं उठानी पड़ती है, बल्कि बारहो महीने, प्रतिदिन विज्ञापन के लिए उन्हीं लोगों के आगे हाथ पसारना पड़ता है, जिनकी घटिया करतूतें क्षेत्र में चर्चा का विषय बनी हुई होती हैं। इस तरह सीधे तौर पर अखबार अपराध-वृत्ति को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। पुलिस, माफिया, अपराधियों से तालमेल बनाए हुए ऐसे लोगों से विज्ञापन के लिए पत्रकारों को अनुनय-विनय और याचना करनी पड़ती है, जिनकी हरकतों से क्षेत्र का एक-एक आदमी आजिज आ चुका होता है। विज्ञापन मिलते ही अखबार उनका घुमा-फिराकर महिमा मंडन करने लगते हैं। ऐसा भी देखने को मिलता है कि वे माफिया और समाजविरोधी तत्व गाहे-ब-गाहे कुछ लंपट किस्म के पत्रकारों का सम्मान कर खुलेआम लोगों की नजर में और ऊंचा उठने की कोशिशें करते रहते हैं। विज्ञापन देने वालों के बारे में यदि रिपोर्टर उनकी करतूतों पर पर्दा डालने के लिए सुंदर-सुंदर शब्दों में कोई खबर न लिखे तो रिपोर्टर को वे ऐसी ऐसी गालियों से नवाजते हैं कि सुनने वाले का सिर शर्म से गड़ जाए।
साफ साफ कहा जाए तो  अखबार का सर्कुलेशन बढ़ाने और माफिया तत्वों से विज्ञापन की उगाही करने के लिए गांव-देहात के रिपोर्टरों को 'कुत्ता' बन जाना पड़ता है। छुटभैये नेता, पुलिस वाले, धूर्त किस्म के कथित समाजसेवी उनका जीना दुश्वार किए रहते हैं। और तो और इन्हीं पत्रकारों के भरोसे अखबार के मैनेजर, संपादक अपने मालिकों से मोटे-मोटे पैकेज गांठते रहते हैं और जब वही पत्रकार उनसे मिलने के लिए उनके पास जाते हैं तो जैसे उन्हें बदबू मारते आदमी जैसा उनसे सुलूक किया जाता है। संपादक और मैनेजर तो दूर की बात, दोयम दर्जे के मीडिया कर्मी और मार्केटिंग वाले कर्मचारी भी उन्हें अपनी केबिन में घुसने से मना कर देते हैं।

Tuesday 7 April 2015

इन दिनों लखनऊ में पुस्तक मेला चल रहा है


एक और आईएएस की रंगमिजाजी का पर्दाफाश, नाजायज बच्चे का पिता होने का आरोप, जांच डीजीपी के हवाले

चंडीगढ़ : अगर हमारे समाज का सबसे प्रतिभाशाली वर्ग महिलाओं के प्रति ऐसी घिनौनी हरकरतें करने लगे तो इस सिस्टम का भगवान ही मालिक है। हरियाणा के रंगमिजाज ब्यूरोक्रेट्स किस प्रकार से महिलाओं का शारीरिक शोषण करते हैं, यह आज किसी से छिपा नहीं है। अब पता चला है कि हरियाणा के एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी एसएन रॉय पर पंचकुला की एक महिला ने शादी का झांसा देकर शोषण करने तथा उनसे एक बच्चा भी होने का आरोप लगाया है। रॉय फिलहाल हरियाणा के अर्बन लोकल बॉडी विभाग में प्रिंसिपल सैक्रेटरी जैसे महत्वपूर्ण पद पर हैं।
आरोप लगाने वाली महिला के मुताबिक 'एसएन रॉय उसके बच्चे के नाजायज पिता हैं।' महिला ने पुलिस से लिखित शिकायत की तो प्रकरण वरिष्ठ आईएएस अधिकारी से जुड़ा होने के कारण उसने मामला सरकार के हवाले कर दिया। अब मुख्य सचिव डीएस ढेसी ने प्रकरण की जांच प्रदेश के डीजीपी क्राइम केपी सिंह को सौंप दी है। डीजीपी क्राइम केपी सिंह का मीडिया से कहना है कि उन्होंने अभी मामले से संबंधित कागजात का अवलोकन नहीं किया है। इससे तो फिलहाल लगता नहीं कि आरोपी आईएएस के खिलाफ कोई कार्रवाई होगी। महिला को इंसाफ अब डीजीपी क्राइम की जांच रिपोर्ट पर निर्भर करेगा।
सूत्रों की बात पर भरोसा करें तो पता चला है कि कई अधिकारी ऐसे भी हैं जोकि मलाईदार पदों पर रहने के लिए अपने वरिष्ठ अधिकारियों तथा राजनेताओं को अपनी पत्नियों तक पेश कर चुके हैं। ऐसे ही मामले हैं, हरियाणा में कई जिलों में उपायुक्त रहे एक अधिकारी के, दक्षिण हरियाणा बिजली वितरण निगम (डीएचबीवीएन) हिसार के आला अधिकारी के, हाऊसिंग बोर्ड चंडीगढ़ यूटी की एक महिला एचसीएस अधिकारी के, वरिष्ठ आईपीएस रहे आरके शर्मा के, सेवानिवृत पुलिस महानिदेशक एसपीएस राठौर आदि के।
इन सभी ने हरियाणा की ब्यूरोक्रेसी को बदनाम करके रख दिया है। यहीं कारण है कि राष्ट्रपति पदक तक से सम्मानित हो चुके ऐसे दागी अफसरों से उनके पदक भी छिन चुके हैं। करीब तीन-चार साल पहले एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी की पत्नी ने पार्क में अपने अफसर पति की इसलिए पिटाई कर दी थी क्योंकि वह वहां अन्य आईएएस की पत्नी के साथ मौज-मस्ती कर रहा था। ये दोनों ही अधिकारी फरीदाबाद तथा गुडग़ांवा में भी महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं। वह जिस आईएएस अधिकारी की पत्नी के साथ मौज-मस्ती कर रहा था, वह भी अपनी रंगमिजाजी के लिए कुख्यात रहा है। इसी तरह हरियाणा कैडर के एक नौजवान आईएएस को अधीनस्थ महिला अधिकारी के साथ पंचकुला के कमरे में पकड़ा गया था। वह महिला अधिकारी एक आईएएस अफसर की बीवी है। 

Monday 6 April 2015

‘इण्डियाज डॉटर’ जैसी डॉक्यूमेन्ट्रीज पर जब तक बैन लगता रहेगा, ‘माय च्वाइस’ जैसी शॉर्ट फिल्में आती रहेंगी / मैत्रेयी पुष्पा

जयपुर में एंटरटेनमेन्ट नेक्सजेन की ओर से ‘इंटरनेशनल वीमन जर्नलिस्ट डे’ पर कानोडिया गर्ल्स कॉलेज में पांच महिला पत्रकारों को सम्मानित किया गया। इस अवसर पर कथाकार मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि जब तक निर्भया काण्ड पर आधारित ‘इण्डियाज डॉटर’ जैसी डॉक्यूमेन्ट्रीज पर बैन लगता रहेगा, तब तक दीपिका पादुकोण की ‘माय च्वाइस’ जैसी शॉर्ट फिल्में आती रहेंगी। इण्डियाज डॉटर पर लगाई गई सरकारी रोक पुरूषवादी सोच का एक षड़यन्त्र है। जब तक एक बलात्कारी की मानसिकता को आमजन के सामने नहीं लाया जाएगा, तब तक निर्भया काण्ड जैसी घटनाओं पर पूरी तरह रोकथाम समाज के लिए संभव नहीं।
महिला पत्रकारिता की स्थिति पर लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि मेरे विचार में पत्रकारिता उसी प्रकार है जैसे कि किसी सिपाही का रणक्षेत्र में जाना। आज महिलाएं पत्रकारिता के कई क्षेत्रों में सक्रिय हैं, लेकिन आज भी पत्रकारिता में ग्रामीण महिलाओं की स्थिति कहीं नजर नहीं आती। उन्होंने कहा कि महिला पत्रकार शहर की सड़कों को ही नहीं देखें, बल्कि गांव की डगर भी खोजें, तभी उन्हें असली भारत की सच्ची तस्वीर नजर आएगी और वे सही मायने में पत्रकारिता को नये आयाम दे पाएंगीं। अपने वक्तव्य में मैत्रेयी पुष्पा ने पत्रकारिता में अंग्रेजी तथा द्विअर्थी शब्दों के अधिक उपयोग पर भी विचार रखे।
उन्होंने कहा कि विदेश फिल्मों तथा टीवी कॉमर्शियल्स के जरिए अब ऐसी सामग्री अखबारों और न्यूज चैनलों पर भी प्रकाशित-प्रसारित हो रही है, जिसे रोकने की महती आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि हिन्दी के प्रसार के लिए शुरूआत अपने घर से होनी चाहिए क्योंकि अंग्रेजी रोजगार के लिए आवष्यक भाषा हो सकती है, जीवन के लिए नहीं। इस टॉक शो के दौरान मैत्रेयी पुष्पा के साथ पत्रकार अमृता मौर्या ने संवाद किया।
इस अवसर पर फीचर लेखन के लिए वर्षा भम्भाणी मिर्जा, फोटो पत्रकारिता के लिए मोलिना खिमानी, उर्दू पत्रकारिता के लिए जीनत कैफी, टीवी पत्रकारिता के लिए राखी जैन तथा महिला लेखन व रिपोर्टिंग के लिए लता खण्डेलवाल को ‘‘नेक्सजेन वीमन जर्नलिस्ट अवॉर्ड’’ से नवाजा गया। सम्मान स्वरूप उन्हें शॉल ओढ़ाकर स्मृति चिन्ह और प्रशस्ति पत्र भेंट किए गए। 

क्षमा करें वे जो मेरी इस आलोचना मे जाने अंजाने आ गए हो / स्वाति तिवारी

कुछ युवा आलोचक केवल मित्रों या मात्र एक मित्र की ही किताबों पर एसी एसी आलोचना लिखते है की उन्हे सदी का महान साहित्यकार सिद्ध करने मे लगे रहते है , कुछ प्रकाशक भी फेवरेट फोबिया के शिकार होते है जो बार बार उन्ही उन्ही पुस्तकों की समीक्षा यहाँ वहाँ करवाते रहते है , कुछ एक हाथ दे एक हाथ ले वाले समीक्षक है मै तेरी पुस्तक यशगान लिखता हूँ तू मेरी का गीत गा देना । कुछ खुद ही सधी सटीक कहने लगते है । तो मेरी समझ से समीक्षा अपना महत्व खो चुकी है , लेखक को इन आलोचको से बाहर निकल कर कुछ नागरिक पत्रकारिता की तर्ज पर नागरिक आलोचको को खोजना चाहिए युवा पाठकों मे जाना चाहिए ,आम पाठक को रचना कैसी लगी मूल्यांकन की दृष्टि को इस बदलाव की जरूरत है ।आलोचना के प्रचलित नाम समय अभाव या लाभ हानी के गणित मे उलझे होते है किताबें सालो रखे रहते इस विडम्बना के चलते अच्छी कितबे केवल अलमारी मे रहा जाते है ,आलोचना को अपने नए मान दंड खोजना होंगे ---------उन्हे कितबे भेजनी बंद करदेनी चाहिए जो केवल किताबों का संग्रह करने के लिए समीक्षा के नाम पर लेलेते है -----क्षमा करें वे जो मेरी इस आलोचना मे जाने अंजाने आ गए हो ----------व्यक्तिगत रुचि के आधार पर किसी कृति की निन्दा या प्रशंसा करना आलोचना का धर्म नहीं है। कृति की व्याख्या और विश्लेषण केͧलए आलोचना में पद्धति और प्रणाली का महत्त्व होता है। आलोचना करते समय आलोचक अपने व्यक्तिगत राग-द्वेष, रुचि-अरुचि सेतभी बच सकता है जब पद्धति का अनुसरण करे. वह तभी वस्तुनिष्ठ होकर साहित्य के प्रति न्याय कर सकता है। इस दृष्टि से हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को सर्वश्रेष्ठ आलोचक माना जाता है।कितने आलोचक इन सिद्धांतों को ध्यान मे रखते है यह देखा जाना चाहिए आलोचना करते समय जिन मान्यताओं और पद्धतियों को स्वीकार किया जाता है, उनके अनुसार आलोचना केप्रकार विकसित हो जाते हैं। सामान्यत: समीक्षा के चार प्रकारों को स्वीकार किया गया है:-
सैद्धान्तिक आलोचना
निर्णयात्मक आलोचना
प्रभावाभिव्यजंक आलोचना
व्याख्यात्मक आलोचना
कुंवर नारायण : आलोचना संबधी कुछ शब्दों और `पदों` पर गहराई से विचार करना चाहिए, जैसे `आलोचना`, `समीक्षा', `विवेचना', `मूल्यांकन`, 'अध्ययन`, `व्याख्या`, `आकलन', `विश्लेषण', `रिव्यू` आदि जो एक कृति या रचना पर सोच विचार से जुड़े पद हैं । इनके अभिप्राय और आशय एक से लगते हुए भी एक से नहीं हैं। एक कृति के गुण-दोष निर्धारण में इन पदों के बीच फर्क का आभास मिलते रहना चाहिए । `पदों` को लेकर असावधानी और थोकपन की वजह से भी अनेक भ्रांतियां उत्पन्न होती है । किसी भी कृति को केवल एक ही दृष्टि से और एक ही तरफ से देखना भी पर्याप्त नहीं है, क्योंकि एक रचना के स्वभाव में ही बहुलता और अनेकता होती है । उसे कई तरह से जांचना परखना जरुरी होता है । अपने पूर्वाग्रह अपनी जगह लेकिन समीक्षा की जाँच पड़ताल में अगर भरसक निष्पक्षता और तटस्थता हो तो शायद वह मानक समीक्षा के आदर्श के ज्यादा नजदीक मानीजा सकती है। रचना जीवन-सापेक्ष होती है। वह जीवन की सच्चाइयों से हमारा सामना कराती है।
स्वाति तिवारी के फेसबुक वॉल से

बहुत जल्दी, वे धूप बेचेंगे और हम हंसकर लेंगे / भारत सिंह

पुराने लोगों के सपने से भी बाहर की बात थी कि एक दिन पानी बिकेगा, आज बिकता है। मार्च-अप्रैल से दिल्ली में सड़क किनारे एक-दो रुपए का 1 गिलास पानी बिकने लग जाता है। बोतलबंद पानी की कीमतों की बात करना तो बेमानी ही हो गया है। हाल ही में अमेरिका में एक मजेदार केस दर्ज हुआ, जब उसके एक एयरपोर्ट पर 1 लीटर पानी की बोतल 5 डॉलर यानी करीब 300 रुपए में बेची जाने लगी, वैसे इसकी कीमत 150 रुपए थी। अगर ये कीमत ज्यादा लग रही हो तो आपको बता दें कि दुनिया में सोने की धूल मिले पानी से लेकर, रंगत निखारने, हवा या जमीन तक आने से पहले बोतल में बंद होने वाले पानी, पतला-छरहरा और जवान बनाने, तनाव भगाने के नाम पर 50 लाख रुपए प्रति लीटर की कीमत तक का पानी बेचा जाता है।
 पानी के बहुमूल्य होने पर अब आपको यकीन हो गया तो हवा की सुन लें। चीन के प्रदूषित शहरों में साफ डिब्बाबंद हवा बिकने लगी है। यानी आप प्रदूषित हवा से परेशान हो गए हैं तो एक डिब्बा ऑक्सीजन खरीदिए, उसे अपने भीतर उड़ेलिए और कॉर्बनडाई ऑक्साइड बनाकर छोड़ दीजिए। अभी सन् 2015 चल रहा है, धरती की उम्र अरबों साल आंकी जाती है। तब तक इस दुनिया में क्या-क्या खरीदना पड़ेगा, अंदाजा लगाना मुश्किल है।
 इंसान ने अपने जीवन के लिए जरूरी पानी और हवा जैसी चीजों को बेचना क्यों शुरू किया होगा, यह सोचना और समझना अपने आप में बड़ा मजेदार हो सकता है। धरती पर मौजूद जीवों में से इंसान ने ही अपने दिमाग का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया है और अब तक बाकी जीवों के खतरे से खुद को सुरक्षित भी कर लिया है। बाकी जीव भी अगर दिमाग इस्तेमाल कर रहे होते तो वे भी पानी और हवा बेच रहे होते और सभी जीवों में अपने-अपने हिस्से के पानी और हवा के लिए जंग छिड़ी होती। जंग अब सिर्फ इंसानों में बची है, इसी हवा, पानी, जमीन को अपने-अपने हिस्से का बताने और साबित करने की।
 अब बात करें धूप की। मौजूदा मानवीय व्यवस्था सभी चीजों को विकेंद्रित करने की है यानी सारी ताकत सीमित जगह पर जमा करने की। ऐसा हम जीवन के लगभग हर क्षेत्र में देख सकते हैं। हमने समय रहते इस व्यवस्था के दुष्परिणामों को नहीं आंका तो खतरे और भी बढ़ेंगे। आज जिन शहरों में आबादी बढ़ रही है, वहां का हाल देखिए। घोंसलों जैसे घर बने हैं, जिनमें इंसान दुबक कर रहते हैं। वहां ठीक से हवा और धूप नहीं आती। इसलिए, ऐसा दिन दूर नहीं जब धूप बिकने लगे। सर्दियों के दिन हों और आपके घर में धूप का कतरा तक नहीं पहुंचता हो तो कोई आपका दरवाजा खटखटाएगा या आप ऑनलाइन बुकिंग करके धूप बेचने वालों को खुद बुलाएंगे। वे आपको घर से गाड़ी में बिठाकर एक साफ-सुथरी जगह पर ले जाएंगे। वहां, आपके जैसे अच्छे कपड़े पहने लोग धूप का मजा लेते मिलेंगे और सब मिलकर अपने वहां होने पर गर्व भी करेंगे।
 ये बात अभी तो हाइपॉथेटिकल लग सकती है मगर इसके सच होने की पूरी आशंका है। हमने क्या किया? इंसानी जरूरतों की अहम चीजें बेचने के लिए कुछ लोगों के हाथों में दे दीं। उन्होंने क्या किया? मुनाफे के चश्मे से दुनिया को देखा। पानी बेचा, हवा बेची, जमीन बेची। इसके बाद दूसरे नंबर की जरूरी चीजों को भी हमने निजी हाथों में दिया। उन्होंने क्या किया? हमें सेहत बेची, घर बेचा, पढ़ाई बेची, एक जगह से दूसरी जगह तक आना-जाना बेचा। सिर्फ बेचा ही नहीं, इन चीजों के लिए हमारी पूरी जिंदगी को गिरवी रख लिया। आज इंसान बुढ़ापे तक नौकरी करे तो भी उसे खाने, पीने, छत के नीचे रहने, सेहतमंद रहने और अच्छा पढ़ने और अपनी अगली पीढ़ी को पढ़ाने की गारंटी प्राप्त नहीं है।
 हर क्षेत्र में निजीकरण का शोर है। आदिवासियों के जंगलों के बाद विकास के लिए किसानों की जमीनें लेने की बातें हो रही हैं। निजीकरण और इसकी वजहों को समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है, ये ऊपर बताया गया मुनाफे का चश्मा भर है। किसी भी काम से किसी को क्या हासिल होगा, ये सोचते ही आपको एक जंतर मिल जाएगा, गांधी के दिए 'आखिरी आदमी' वाले जंतर जैसा ही बड़ा काम का जंतर। निजीकरण किसलिए जरूरी बताया जाता है? विकास के लिए। विकास क्या होता है? इंसान को पानी-हवा-धूप खरीदने पर मजबूर करना विकास होता है। हां, साथ में उसे इन चीजों को खरीदने पर गर्व की अनुभूति कराना भी विकास होता है। इसके अलावा, धरती के किसी कोने में चमकती- रात में भी रोशन रहने वाली सड़कों, घर से नजदीक मॉल-सिनेमा हॉल के पास होना भी विकास होता है। यहां बने 2 कमरों में रहने के लिए किराए के बीसियों हजार रुपए देना भी विकास होता है।
 ऐसा नहीं है कि ऊपर बताई चीजें सरकार मुहैया नहीं करा सकती या नहीं कराती आई है। सरकार नाम की व्यवस्था होती ही इसलिए है कि एक प्रक्रिया के तहत अपने नागरिकों को जरूरी चीजें मुहैया कराए। मसलन- घर, पानी, भोजन, शिक्षा, सेहत, यात्रा की सुविधा आदि। हर इंसान, इन चीजों को अपने स्तर पर भी कर सकता था, पर अव्यवस्था न हो, इसलिए एक समझौते के तहत उसने अपने बीच से कुछ लोगों को चुना जो इन कामों को देखेंगे। इन कामों या व्यवस्था को चलाने के लिए उसने कुछ रकम (टैक्स के तौर पर) देनी भी मंजूर की। आज हो ये रहा है कि वह रकम तो ली जा रही है, पर खर्च कहीं और हो रही है। बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य सब निजी हाथों में देकर लोगों से एक ही चीज के लिए दो-दो बार पैसे लिए जा रहे हैं।
 अगर पशु-पक्षी भी इंसानी भाषा समझ सकते तो जानते हैं, उनकी सभी पीढ़ियों के लिए सबसे बड़ा चुटकुला क्या होता? यही कि अपने को बाकी जीवों से बेहतर मानने वाले इंसानों ने जिन मुट्ठी भर लोगों को अपना जीवन आराम से चलाने और कुछ काम करवाने के लिए चुना था, वे गिने-चुने लोग ही अब बाकी लोगों को ठोक-पीटकर सारे काम अपनी मर्जी से करते हैं और कुछ मुट्ठी भर लोगों के कहने पर करते हैं (ऐसा करने वालों में लोकतंत्रों के सारे स्तंभ शामिल हैं)।
 हमारे देश में भी रेलवे, रक्षा, व्यापार, कृषि सभी क्षेत्रों को देर-सबेर निजी हाथों में जाना है। इसका सबूत देने के लिए इतना काफी है कि इस देश के नए-नवेले पीएम ने बहुमत से सत्ता में आने के छह महीनों के भीतर ही मुंबई में मुकेश और नीता अंबानी के एक आलीशान अस्पताल का उद्घाटन किया था। उद्घाटन के दौरान उन्होंने एक बड़ी मजेदार चीज कही थी, 'इस अस्पताल के जीर्णोद्धार की तरह राष्ट्र का भी जीर्णोद्धार हो सकता है....।'

फर्जी आईएएस प्रकरण: चार दिन की पुलिस रिमांड पर भेजी गई रूबी


छोड़ो किसान-फिसान की बात, आओ क्रिकेट खेलते हैं (यूपी के सीएम साहब)


सार्त्र पर डॉ. विजयमोहन सिंह का कार्य अद्भुत था, उनका चला जाना अपूरणीय क्षति

रूप सिंह चंदेल लिखते हैं, डॉ. विजयमोहन सिंह का चला जाना हिन्दी साहित्य के लिए एक अपूरणीय क्षति है. वह न केवल एक सशक्त कथाकार थे बल्कि उतने ही समर्थ आलोचक भी थे.
 सार्त्र पर उनका कार्य अद्भुत है.
सादतपुर (दिल्ली) में वरिष्ठ कवि,कथाकार,जीवनीकार और आलोचक श्री विष्णुचन्द्र शर्मा के निवास पर सादतपुर के साहित्य समाज द्वारा कल दि. ५.४.१५ को एक शोक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें हरिपाल त्यागी,रामकुमार कृषक,वीरेन्द्र जैन, महेश दर्पण, विजय श्रीवास्तव, हीरालाल नागर, अरविन्द कुमार सिंह, रूपसिंह चन्देल और एक सज्जन जिन्हें मैं नहीं जानता सम्मिलित हुए. विजयमोहन सिंह की एक कहानी का पाठ किया गया. तदुपरांत महेश दर्पण ने उन पर अत्यंत सारगर्भित अपना संस्मराणात्मक आलेख पढ़ा. एक-एक कर सभी ने विजयमोहन जी के व्यक्तित्व और साहित्य पर अपने विचार प्रस्तुत किए.
विजयमोहन सिंह विष्णु जी के अच्छे मित्र थे.विष्णु जी से उनका परिचय उनके छात्र जीवन के समय हुआ था और अंत तक रहा. विष्णु जी ने विस्तार से उनके जीवन पर प्रकाश डाला. इस शोक सभा में जो बात ज्ञात हुई वह यह कि दिल्ली की किसी भी संस्था ने उन पर शोक सभा का आयोजन नहीं किया. यह इस बात को सिद्ध करता है कि हिन्दी साहित्यकार किस प्रकार खेमों में बट गए हैं. विजयमोहन की विशेषता थी कि उन्हें जो सही लगता (संभव है कि दूसरे को वह गलत लगता हो) वह उसे कह देते थे. क्या यह कारण था? अर्थात हिन्दी वालों में अपनी आलोचना सुनने की क्षमता चुक गई है......किसी भी साहित्य के लिए क्या इसे शुभ कहा जा सकता है?

फेसबुक पर राष्ट्रपति का कार्टून लाइक करने पर पत्रकार को सजा

तुर्की में फेसबुक पर राष्ट्रपति का कार्टून लाइक करने पर कोर्ट ने पत्रकार याशर एल्मा को 23 महीने की सशर्त सजा सुनाते हुए टिप्पणी को राष्ट्रपति का अपमान करार दिया है। कोर्ट ने याशर एल्मा को पहले 28 महीने की कैद की सजा सुनाई। बाद में ऊपरी अदालत में अपील करने पर सजा घटाकर 23 महीने कर दी गई।
याशर एल्मा की वकील दिलबर देमिरेल कोर्ट के इस फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती देंगी। उनका तर्क है कि 'आलोचना' और 'अपमान' में फर्क होता है। कोर्ट को दोनों का अंतर स्पष्ट करना चाहिए। तुर्की में किसी गैरसरकारी व्यक्ति का अपमान करने पर तीन माह की कैद का प्रावधान है। सरकारी कर्मचारी का अपमान करने पर सजा की अवधि एक वर्ष या उससे अधिक हो सकती है।
याशर एल्मा ने मीडिया को एक व्यक्तिगत बातचती के दौरान बताया कि उन्होंने तो सिर्फ राष्ट्रपति के बारे में लिखी एक टिप्पणी को पढ़कर उसे लाइक कर दिया था। इसके आधा घंटा बाद उन्होंने अपना ’लाइक’ हटा भी लिया था। इसी दौरान उनके पास पुलिस टीम पहुंच गई। भला उन्हें क्या पता था कि फेसबुक पर टिप्पणी लाइक करना भी जुर्म है।

... तो इसे कहते हैं भैया 'पेड न्यूज' : विधानसभा अध्यक्ष ने प्रेस कांफ्रेंस में मीडिया वालो को बांटे गिफ्ट वॉउचर

भीलवाड़ा (राजस्थान) : यहां प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष कैलाश मेघवाल की प्रेस कांफ्रेंस में पिछले दिनो गिफ्ट वॉउचर बांटे गए। मेघवाल का कहना है कि 'मैंने स्वेच्छा से पत्रकार साथियों को गिफ्ट वॉउचर दिए हैं, इस पर किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए।'
रविवार को यहां सर्किट हाउस में मेघवाल पत्रकारों से रू-ब-रू हुए थे। इसमें पत्रकारों को पेन-डायरी के साथ एक-एक हजार रुपए के गिफ्ट वाउचर दिए गए। एक पत्रकार ने मेघवाल के सामने ही वाउचर दिए जाने को लेकर कड़ी आपत्ति प्रकट की तो मेघवाल ने उसे यह कहते हुए हंसी में टाल दिया कि आप सब अपने हैं, मैं अपनी इच्छा से ये तोहफा दे रहा हूं।
उस समय प्रेस कांफ्रेंस में करीब सौ पत्रकार मौजूद थे। राजस्थान पत्रिका के संवाददाता और फोटोग्राफर समेत कई पत्रकारों ने विधानसभा अध्यक्ष मेघवाल से गिफ्ट वॉउचर लेने से साफ मना कर दिया। ये घटना इन दिनो पूरे राजस्थान के मीडिया में चर्चा का विषय बना हुआ है।
इस पर सवालिया कटाक्ष करते हुए पत्रकार मनीष शुक्ला अपने फेसबुक वॉल पर लिखते हैं - '' स्वेच्छा... लेने वाले की या देने वाले की? 'फिक्र खबर की थी, जिक्र खबर का था, फिर अखबारों ने दम क्यूं तोड़ा? फिक्र कलम की थी, जिक्र कलम का था, फिर स्याही ने दम क्यूं तोड़ा? फिक्र पाठक की थी, जिक्र पाठक का था, फिर प़त्रकारिता ने दम क्यूं तोड़ा?''

मेरठ में लपटों ने छह लोगों को जिंदा लील लिया

उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में सोमवार तड़के भीषण आग लग गई। इस आग की चपेट में आने से छह लोग जिंदा जल गये। मरने वालों में चार बच्चे और दो महिलाएं शामिल हैं। 
दो अन्य लोगों की हालत बेहद नाजुक बतायी जा रही है। इस घटना में पुलिस और फायर बिग्रेड कर्मियों पर देर से आने का आरोप लगा है जिसे लेकर प्रदर्शन किया जा रहा है। पुलिस अधिकारियों का कहना है कि परवेज के घर पर ही अवैध रूप से पेट्रोल और डीजल बेचने का काम होता था। घर में रखे पेट्रोल और डीजल की वजह से ही आग ने भयंकर रूप ले लिया। आग की भयंकरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां पर स्थित दो बिल्डिगों के आठ फ्लैटों को प्रशासन ने खतरनाक मानते हुए खाली करा दिया है।

वाह जी... कंधे पर हो के सवार, चले हैं सरकार

हमारे लोकतंत्र में सब कुछ संभव है। इसी तरह उत्तरांचल में आई बाढ़ के दिनो में एक टीवी रिपोर्टर ने वहां के एक आदमी के कंधे को नैया बनाकर लाइव रिपोर्टिंग की थी, जिसकी पूरे देश भर में थू-थू हुई थी। 
तो ये कोई नई बात नहीं। जब, जिसे भी मौका मिलता है, कूद कर दूसरे के कंधे पर सवार होकर अपनी नैया पार लगाने में जुट जाता है। 
घाट-घाट पर पार इसी तरह से पार उतरने वालो का जमघट है। ऐसी ही सवारियों से लोकतंत्र का कंधा टीसने लगा है। 
अजब हाल है। गजब लोकतंत्र है !! 

कैफी तेरे गांव में ये क्या कर दिया फिल्मी बिटिया ने

मुंबई में पिछले दिनों शबाना आजमी के एनजीओ मिजवान वेलफेयर सोसायटी ने एक फैशन शो का आयोजन किया। 
मिजवान शबाना के पिता मशहूर शायर कैफी आजमी का पैतृक गांव था। 
गांव के लिए पैसा एकत्र करने के लिए शबाना ने ये फैशन शो आयोजित किया। शबाना के इस शो में रैंप पर उतरे बॉलीवुड के नामचीन कई सितारे।
इससे लगता है कि गिरावट कहां तक पहुंच गई है। कैफी साहब ने ऐसा सोचा भी न होगा कि एनजीओ और पैसे की खातिर उस कैफी आजमी की शख्सियत को इतनी फूहड़ और गैरजिम्मेदाराना पहचान दी जाएगी। हैरत इस बात की भी है कि इस रैंप पर शबाना के पति वो जनाब जावेद अख्तर भी उतरे, जिन्हें जनवादी विचारों के लिए फिल्म इंडस्ट्री में ही नहीं, पूरे साहित्यिक-सामाजिक परिवेश और सियासत में बड़ा पुख्ता माना जाता रहा है।

Sunday 5 April 2015

सांघवी पर थानवी की टिप्पणी और मोदीजी का सूट, खूब निकाली भड़ास फेसबुकियों ने

जनसत्ता के संपादक ओम थानवी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दस लखिया सूट और एक वरिष्ठ पत्रकार के भाषा प्रेम पर गहरी चोट कर सीधे सीधे शब्दों में कई मायने समझा दिए। और उसी बहाने पीएम पर भी चुटीले शब्दों को बारिश हुई। ओम थानवी लिखते हैं - '' इतवार को हिंदुस्तान टाइम्स के साथ बंटने वाली पतरी 'ब्रंच' में वीर पत्रकार सांघवी लिखते हैं कि मोदीजी का वह नामधारी सूट दस लाख का नहीं था। कितने का था, उन्हें पता नहीं। कोई बात नहीं। लेकिन आगे वे लिखते हैं कि सूट पर नाम हिंदी में कढ़ा होता तो इतनी नुक्ताचीनी शायद नहीं होती।
'' क्या आप समझे कि उस सूट पर हिंदी की कढ़ाई के हवाले से वे क्या कहना चाहते हैं? कि हिंदी वाले ऐसा स्वनामलट्टू प्रधानमंत्री पसंद करते हैं, अंगरेजी वाले नहीं? या यह कि हिंदी वाले अपने हिंदी-प्रेम के चलते प्रधानमंत्री के इस राज-रोग को दरगुजर कर देंगे? या कोई और वीरोचित आशय रहा होगा, हिंदी पर इस तरह मेहरबान होने का?''
ओम थानवी की टिप्पणी पर चुटीली-कटीली प्रतिक्रियाओं की झड़ी सी लग गई। मनोज खरे ने लिखा - वीर सांघवी को समाज की इतनी अच्छी समझ नहीं है परंतु चाटुकारिता-प्रधान राजनीति की जरूर अच्छी समझ है। इनके अच्छे दिन तो आ जाने चाहिए ! देव प्रकाश मीना ने लिखा - हिंदी के पाठकों को ये उतना इंटेलेक्चुअल नही समझते है। दीपशिखा ने चुटीले अंदाज में इतना भर लिखकर छोड़ दिया - ये वही वाले वीर सांघवी हैं ना जो ....।  तो शिव मरोठिया की तीन शब्द की टिप्पणी थी - वीर पत्रकार सांघवी।
अक्षय कुमार ने जरा जोर से चिकोटी काट ली - सिंघवी साहब को बिरयानी, कबाब और ह्विस्की से फुर्सत मिले तब तो वह दिमाग का इस्तेमाल करें। सौरभ कानूनगो का कहना था - ये सिद्ध करने के वीर संघवी जी को हिंदी वाला ऐसा सूट प्रधानमंत्री को पहना ना चाहिए। फिर देखते हैं। पुनीत बेदी ने लिखा- राडिआ से बचने का ये नया जुमला है! हितेश चौरलिया की टिप्पणी थी - वीरजी जो खाने पर लिखते हैं, वही तक ठीक है। हिना ताज कहती हैं- वीर संघवी को प्रतिष्ठित पत्रकार होने की प्रतिष्ठा को बरकरार रखना चाहिए, निहायत ही घटिया आंकलन है। अतीफ मोहम्मद ने लिखा - रजत शर्मा को मिल गया है, अब इनका नंबर होगा। आनंद की टिप्पणी थी - इनकी ...की यही समस्या है। हिंदी के मानस को कभी नहीं समझ पाए। हिंदी में होता तो और त्राहि त्राहि हो जाता। अंगरेजी थी तो फेंकू बच गए लेकिन वीर स्वयंशलाका हैं। अप्पदीपित हैं और इसीलिए हिंदी में कहें तो लुर हैं। राग भोपाली ने कसकर मारा- संघवी साठ के हो चुके है....।
वृहस्पति कृष्ण ने लिखा - सांघवी जी का यह प्रयास कुछ ऐसा ही, जैसे भरे बाजार कोई आदमी अपने नंगे मित्र की नंगई हथेली से ढांप रहा हो, और नंगा उछल-कूद से बाज न आ रहा हो...। शादाब खान ने सवाल किया कि क्या मतलब ? हिंदी भाषी मूर्ख होते हैं क्या? एक पाठक एसकेआर की टिप्पणी तो ऐतिहासिक रही - मान्यवर जब सांघवी जी का लेख "संडे" मैगजीन में छपता था तब इन्होने एक बार श्री नरसिम्हाराव जी के बारे में लिखा था, उस वक्त नरसिम्हाराव अपने प्रधानमंत्री काल के आखिरी वर्ष में थे और तमाम आरोपों से घिरे भी थे। सांघवी जी ने लिखा था - 'That day to day journalism may write Mr Narsimharao Rao as one of the worst Prime Minister of the Country but history will always remember him as one of the Most Successful Prime-Minister of the Country, as he has given permanent solution to the many burning issues of the Country. (याददाश्त के अनुसार लिखा है, कुछ शब्द इधर उधर हो सकते हैं पर था ऐसा ही- - चूँकि नरसिम्हाराव जी का कार्यकाल बदलाव का था तो ये आज भी ये मेरे जेहन में है।) पर आज क्या हुआ, कोई उन्हें याद करे न करे कांग्रेस खुद ही उन्हें भूल गयी, इतिहास भी उन्हें क्या याद रखेगा, कोई नामलेवा भी न बचा ...।
अरुणकांत का कहना था - सांघवी जी को लगता है साँप सूंघ गया है, तभी इस तरह के वाहियात राजनीतिक आकलन कर रहे हैं। वैसे ये वीर सांघवी राडिया-फेम रहे हैं न? इनको कहिए, सास बहू वाले चैनल में मास्टर सेफ में बैचलरस किचन का संस्करण शुरू करें। फिर भी गुलाब जामुन में गुलाब नहीं होता तो बैचलरस किचन पेश करने के लिए बैचलर होना जरूरी थोड़ी न है। मजीठिया मंच की टिप्पणी थी - वीर बहुत दूर तक सोचते हैं, गलती कर देते हैं समझने में । पिछली बार राडिया को समझने में उनसे गलती हो गई । इस बार सूट की कीमत ठीक ठीक नहीं पता कर पाए। बुढ़ापा आ गया लगता है।
सर्वेश सिंह ने चुटकी ली - मैं सूट के लिए पैसे जमा कर रहा। आप लोग पहले कंफर्म बताओ कितने का है और कौन दर्ज़ी सिल रहा है। जब थोड़ा पैसा जमा करता हूं तो उसके प्राइस पर विवाद हो जाता है। मुझे क्या टारगेट रखना है समझ नहीं आ रहा है। सभी खोजी और खाऊ पत्रकारो से अपील है। अनुपम दीक्षित ने लिखा - आप समझे नहीं श्रीमान। हिंदी प्रेम नहीं यह अंग्रेजी श्रेष्ठता बोध है। उनका मतलब रहा होगा कि हिंदी वालों में इतनी अकल कहाँ। अंग्रेज़ी वाले जागरूक हैं, सतर्क हैं, चालाक हैं । अरविंद वरुण ने चोट की - तिकड़मी, बेशर्म सांघवी। अभी हम भूले नहीं हैं। सुनीता सनाढ्य पाण्डेय कहती हैं- अगले बरस का पद्म पक्का कर रहे होंगे। ऐसी चिकोटी काटी मदनगिरि अमरनाथ ने - गौर तलब है के इनके नाम में ही 'संघ' है...कुछ और कहने की जरूरत है क्या? अनिल कुमार ने लिखा - अनुभव तो इसके विपरीत है। सत्ता और उद्योगपतियों के बीच मध्यस्थता तो अंग्रेजी भाषा के पत्रकारों ने कुशलतापूर्वक निभाई है। क्या ये महानुभाव टू-जी वाले वीर पत्रकार हैं।

मीडिया सम्मेलन से युवा उत्साहित

मनीष शुक्ला उत्साही युवा हैं। राजस्थान विश्वविद्यालय में हुए मीडिया गुरुओं के सम्मेलन से वह काफी आशान्वित हैं। वह लिखते हैं- 'बदलाव के संकल्प के साथ फिर मिलेंगे। मीडिया के जरिए एक बेहतर और सकारात्मक समाज का निर्माण कैसे किया जाए-इस सवाल के साथ शुरू हुआ मीडिया शिक्षकों का सम्मेलन पूरा हुआ। और यह विश्वास हम जता सकते है कि तीन दिन के इस महाकुंभ मे बदलाव के एक ऐसे रास्ते पर हमें ला खडा किया है, जहां से मीडिया की दुनिया में व्यापक फेंरबदल की पूरी संभावना नजर आ रही है।बदलाव कब और किस स्वरूप में होगा, यह तो भविष्य ही बताएगा।'
मैंने उनसे एक प्रश्न किया है- बदलाव की उम्मीद कहां, किस क्षेत्र में, पत्रकारिता की पढ़ाई में या पत्रकारिता के पेशे में?
वह लिखते हैं - ' मीडिया महाकुभ के समापन पर यह उम्मीद नजर आई कि परिवर्तन की यह लहर जल्द थमने वाली नहीं।मीडिया शिक्षण से जुडे तमाम विशेषज्ञों की मौजूदगी ने सम्मेलन को लेकर उत्सुकता का एक ऐसा माहौल रचा, जिसके सहारे हम उन अहम लक्ष्यों को हासिल कर सकते है, जिनका सपना इस आयोजन को लेकर हमने देखा था।

हर समाज के मुद्दे और सरोकार अलग-अलग हो सकते है लेकिन इस बात पर सब एकमत है कि एक सच्चे और सकारात्मक समाज का निर्माण करने में मीडिया अपनी अहम भूमिका निभाता है। संकेत साफ है कि हर कोई यहीं चाहता है कि सूरत बदलनी चाहिए और मेरे सीने मे ना सही, पर कहीं तो आग सुलगनी चाहिए।' (फोटो मनीष शुक्ला के वॉल से)


Saturday 4 April 2015

झुण्ड बनाकर सोशल मीडिया पर औरत पर हमले करने वाले

स्त्री-विमर्श पर ढेर सारा लिखा जा चुका है, लिखा जा रहा है, किया जा रहा है आज भी। लेकिन ढोंग की उड़ती धज्जियों से रू-ब-रू होना हो, आधी आबादी के खाटी शब्दों से सामना करने की हिम्मत हो तो फेसबुक पर शिल्पी चौधरी के वॉल तक जाइए। उनकी ज्वलंत टिप्पणियों और उनमें उठाए जा रहे बेबाक सवालों ने बहुत सारे फेसबुकियों को तिलमिलाकर रख दिया है। लेकिन वह सामना कर रही हैं अपनी दो टूक हाजिरजवाबी से और फाड़-चीथ रही हैं छिपेरुस्तम दोमुंहों की नकाब। उनको पढ़ते हुए कोई उद्धरण याद करने की जरूरत नहीं। पढ़ते जाइए, सब समझ आता जाता है अपनेआप, कि किसके लिए कहा जा रहा है, वो सांप किस नस्ल के हैं और दुश्मन किस आबादी के।....उनकी कुछ-एक टिप्पणियां अविकल यहां प्रस्तुत हैं। फेसबुक पर बेलौस, अडिग एक स्त्री के शब्द। वह लिखती हैं - 
'लोगों को विकास या आधुनिकीकरण चाहिए मगर सिर्फ सुविधाओं में, बाकी पाखण्ड चलते रहें। सारा प्रोग्रेसिवनेस धरा रह जाता है, जब बात व्यक्तिगत आचरण की होती है। महिलाओं को आगे आना चाहिए लेकिन महिलाओं को अराजक तत्वों से उलझना नहीं चाहिए। क्या आपको नहीं पता कि ये तत्व ही महिलाओं को आगे नहीं आने देना चाहते?
'या चाहते भी हैं तो उनकी नियम शर्तों पर, वो महिलावादी बन कर माहवारी और क्लीवेज पर बात करते हैं और आप उनके प्रवचन भाव विभोर होकर सुनती हैं। पर बुर्के के सवाल पर वे औरतों को वेश्या ठहराते हैं। लिव इन की हिमायती महिलाएं भी क्या रिश्ता बिगड़ने के बाद वेश्या करार नहीं दे दी जातीं इन्हीं महिलावादियों द्वारा। एक का मुखौटा तो ऐसा उतरा कि बेचारा मनोहर कहानियाँ लिखने लगा।
'कई फ़ोन आये, जिन्होंने स्पष्ट कहा की आप को खुर्शीद अनवर की तरह ही टारगेट किया गया। फ़र्क़ ये कि खुर्शीद साहब भावुक व्यक्ति थे।और आक्षेप झेल नहीं पाये। कट्टरपंथियों ने तय कर लिया था की खुर्शीद को खत्म कर देंगे। यहाँ तो ये जुर्रत एक औरत ने वो भी हिन्दू ने की, फतवा निकलने की देर है। चलो देखेंगे, जहरीली बूंदे किसके गले उतरेंगी।
'प्रोग्रेसिव नहीं हैं तो नाटक न करें। ये लड़ाई किसी धर्म के प्रति नहीं। और ये आपको समझ नहीं आना। खैर अगर ईरान में महिलाएं ये लड़ाई लड़ सकती हैं तो भारत की महिलाएं निहायत डरपोक और दकियानूसी हैं, जिन्हें लगता है, झगड़ों से दूर रहने में भलाई है। हो चुका आपका सशक्तीकरण। सिर्फ नौकरी करने को ही सशक्तीकरण मानने वालियों आप धन्य हैं। आँखों पर काल चश्मा लगाओ और जिंदगी की धूप को मात दे देना।
'किस किस धर्म में लिव इन को मान्यता है? और किस धर्म के अनुसार इसे क्या दरज़ा दिया गया है? क्या है ये एक दुरुस्त आचरण? अगर नहीं, तो धर्मिक पाखण्डी इसमें क्यूँ लिप्त हैं। क्या ये महिलाओं का शोषण नहीं? जिम्मेदारियों से पलायन नहीं? क्या ये समाज को सही दिशा दे रहे हैं?
''(शिल्पी चौधरी की इस पोस्ट पर अजित पांडेय की प्रतिटिप्पणी - 'लिव इन रिलेशन भोगवादियों के मस्तिष्क की उपज है। भोग तक सभी मस्त परन्तु विवाह और तद्जनित परिणाम के सामने आते ही दोनों के होश (अधिकांशतः) फ़ाख़्ता होने लगते हैं। महिला/लड़की विवाह के लिये ज़ोर देने लगती है और पुरुष/लड़का अपने लम्पट स्वभाव के कारण इससे भागने लगता है। ईसाई धर्म में विवाह एग्रीमेंट नहीं है, सनातन धर्म की तरह पवित्र बन्धन ही माना गया है।' अमित सिंह लिखते हैं - 'सारे धर्मों में एक बात तो समान है और वह है स्त्री की कामुकता पर नियंत्रण। पुरुष चाहे जो करे, चाहे जितनी औरतें रखे, चाहे जितने विवाह कर ले। विवाह के भी दर्जनों प्रकार निर्मित किये गए, ताकि मर्दों की फौज को मौज मस्ती में कोई कमी नहीं हो, खुला खेल फर्रुखाबादी चलता रहे। बस औरतों पर काबू रखना जरूरी समझा गया। किसी ने नारी को नरक का द्वार कह कर गरियाया तो किसी ने सारे पापों की जन्मदाता कह कर तसल्ली की। मर्द ईश्वरों द्वारा रचे गए मरदाना संसार के तमाम सारे मर्दों ने मिलकर मर्दों को समस्त प्रकार की छूटें प्रदान कीं और महिलाओं पर सभी किस्म की बंदिशें लादी गयी। यह वही हम मर्दों का महान संसार है जिसमें धर्मभीरु स्त्रियों को देवदासी बना कर मंदिरों में उनका शोषण किया गया है। अल्लाह, ईश्वर, यहोवा और शास्ता के नाम पर कितना यौनाचार विश्व में हुआ है, इसकी चर्चा ही आज के इस नरभक्षी दौर में संभव नहीं है। मैं समझ नहीं पाता हूँ कि इस तरह की प्रथा का उल्लेख करने वाली किताब से घबराये हुए कथित धार्मिकों की भावनाएं इतनी कमजोर और कच्ची क्यों है, वह छोटी-छोटी बातों से क्यों आहत हो जाती है, सच्चाई क्यों नहीं स्वीकार पाती है ?')''
 'गांवों और शहरों कस्बों में औरत के कपड़े फाड़ने वाले, उनका बलात्कार करने वाले, इनबॉक्स की बातें बाहर आने पर अपने को नंगा पा रहे हैं, इसलिए तिलमिला रहे हैं, कमाल ये है, बुर्के पहनाते-पहनाते इनके कपड़े उतरते जा रहे हैं।'
'गांवों में 'डायन' पाई जाती है। वो स्त्री, जो आदमियों की मांगों को पूरा न करे, जो परम्परागत रूप से चली आ रही प्रथाओं का विरोध करे, जिसे कोई पुरुष नियंत्रित न कर पाये, उसे विरोधी 'डायन' घोषित करवा देते हैं। उसे झुण्ड बना कर घेरते हैं। उसके बाल काट दिए जाते हैं। उसे लोहे की सलाखों से दागा जाता है माथे पर या फिर सामूहिक बलात्कार। काबुल में मारी गयी फरखुन्दा याद है? जिसने पर्दा करने से मना किया और पत्थर मार-मार कर, फिर जला कर उसे मार दिया गया।
'तो झुण्ड बनाकर सोशल मीडिया पर औरत पर हमले करने वाले पशुओं को आप इन लोगों से अलग कर सकते हैं? उन्होंने भी उनके मन की न कहने वाली को डायन घोषित करने की कोशिश की है। वैसे हमेशा ये कोशिश तो औरत की जुबान बन्द करने की ही होती है। वो तो अनपढ़ और बर्बर होते होंगे। सोशल मीडिया के इन भेड़ियों को लोग कितनी आसानी से अपनों में गिने बैठे हैं।
'नंदिता दास ने बिलकुल गलत नहीं कहा - Every man is a potential rapist. जी हाँ, सिर्फ मौका मिलने की देर है। ये जो बर्ताव था, क्या ये तेज़ाबी हमलों और बलात्कारों के समय नही होता? बदले की भावना। नशे और गुस्से में ही असलियत सामने होती है। बाकी समय आप तस्बीह लेकर बैठे रहे। हैं तो आप शैतान ही।'
'अच्छा है, साफ़ दिख गया, आओ, कितने दीनी हैं भाईचारा, माय फुट । आप अपने पाखण्ड दूर करना तो दूर, मुझ पर तिलमिला कर साबित कर रहे हैं कि सेक्युलर होना बेवक़ूफ़ी है। वो कहते हैं न आदमी और "......" में कोई फ़र्क़ नहीं। बुर्के के बगैर हर औरत ऐसी दिखती है। नज़र गन्दी तेरी, मज़बूरी में बुर्का मैं पहनूं। नहीं तो तू मुझे ऐसे ही नंगा करेगा। वैसे नंगा कौन है? मैं या तू? अपनी माँ कैसी लगी थी, जब उसकी छातियों से दूध पिया था? इसी नज़र से देखा था क्या उस बेचारी माँ को? आज उसे शर्म तो जरूर आती होगी तुझ पर। और इस बार नाम समेत क्योंकि कल एक भाई का कहना था की बन्दे को जलील किया जाना चाहिए। ये मेरी नहीं, पब्लिक की डिमांड पर भाई। भाई जान रात के 11 :30 के बाद इनबॉक्स में पर्दे पर चर्चा करने क्यों आये, ये बाद में समझ आया।
छिप-छिपकर अप्रिय टिप्पणियां करने वाले बेशर्म फेसबुकियों को वह इस तरह फटकारती हैं -
'मुखन्नस। नया शब्द मेरे लिए पर किरदार पुराने। मुखन्नसों की कोई कमी नहीं। इंसान ने उन्हें मज़ाक का विषय बना दिया। इंसान, जो खुद को 'अहम् ब्रह्मास्मि' मानता है। खैर, मुखन्नसों की जन्मजात विशेषता के चलते उन्हें एक ख़ास लिंग की सुरक्षा में राजे-महाराजे नियुक्त करते रहे। दुर्भाग्य से वे हँसी के पात्र बनाये गए। आज राजे नहीं बचे लेकिन मुखन्नस खत्म नहीं हुए। ताली बजा-बजा कर खुलेआम तमाशा करते सड़कों पर दर-दर की ठोकरें खातें हैं। बात-बात में कपड़े खोल कर खड़े हो जाते हैं। एक लिंग के प्रति इनकी आसक्ति आज भी है। फेसबुक पर मुखन्नसों की बाढ़ आई हुई है। ब्लॉक करिये या अनफ्रेण्ड। घाघरों में घुस आंसू बहाते हैं, दूसरों के साथ खुद के कपड़े उतारने में झिझक नहीं।
'और पूरे हक़ से ताली बजाते हैं। इसने अनफ्रेण्ड किया, इसने ब्लॉक। बचे हुए कथाएं गढ़ने में लग जाते हैं क्योंकि तस्वीरों से ही उनका वो अंग स्खलन का शिकार हो जाता है। खैर, भाई तुम्हारे दुःख से हम दुखी ही हैं। अब ईश्वर ने तुम्हारे साथ ज्यादती की। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं। नई आईडी बनाओ। उस जन्म में तुम्हारे पाप कटेंगे और फिर से जुड़ोगे गन्दगी फ़ैलाने तक। कोई नहीं, ये जीवन चक्र है। आईडी बदलो। योनियों की तरह किसी जनम तो तारण हो ही जाएगा।

मीडिया गुरुओं के सम्मेलन में अंतिम दिन सोशल मीडिया की गूंज

जयपुर विश्वविद्यालय में मीडिया गुरुओं के तीन दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन के आखिरी दिन वरिष्ठ टीवी पत्रकार विजय विद्रोही ने कहा कि न्यू मीडिया हमारे जैसे पत्रकारों के लिए चुनौती है, पत्रकारिता संस्थानों को ट्यूटर और फेसबुक पर खबर लिखवाना भी सिखाना चाहिए। चाहे ओसामा बिन लादेन के मरने की खबर हो, चाहे जापान में आई भारी सुनामी की खबर हो, ये सभी खबरें सबसे पहले सोशल मीडिया पर ही ब्रेक हुई थी। सोशल मीडिया से आज चुनाव तक जीते जा रहे हैं।
विद्रोही ने कहा कि आज देश में पिछले आठ महीने से मुख्य सूचना आयुक्त नहीं है और प्रधानमंत्री सहित पूरी सरकार ये दावा करती है कि हम सूचना के अधिकार के पक्षधर हैं। आज खबर के लिए सिर्फ टीवी चैनल या अखबार ही स्त्रोत नहीं है। मोबाइल, टैबलेट पर खबर पढ़ना और शेयर करना नई पीढ़ी का शगल बन गया है।
समापन समारोह की अध्यक्षता करते हुए हरिदेव जोशी पत्रकारिता विवि के कुलपति सनी सबेस्टियन ने कहा कि पिछले दशक में मीडिया में काफी परिवर्तन आया है। साथ ही मीडिया शिक्षा की ओर भी रूझान बढ़ा है। अनेक विश्वविद्यालयों में इस पाठ्यक्रम को प्राथमिकता से देखा जा रहा है। उन्होंने ‘सूचना का अधिकार’ की शुरूआत और उससे जुड़े पत्रकारों को याद किया और कहा कि इस कानून का बनाने का गौरव राजस्थान को प्राप्त है। बकौल सबेस्टियन अगली बार ऐसी कांफ्रेस में मीडिया शिक्षा पर ज्यादा चर्चा होनी चाहिए, बजाय मीडिया के।
इस मौके पर केंद्रीय सूचना आयुक्त प्रो. एम. श्रीधर आचार्युलू ने कहा कि हर संस्थान में मीडिया कानूनों पर अलग से एक पेपर होना चाहिए, साथ ही मीडिया कानूनों पर सर्टिफिकेट कोर्स शुरू करना चाहिए। उन्होंने विभिन्न छोटे-छोटे आंदोलनों का उदाहरण देते हुए समझाया कि किस प्रकार मीडिया, कॉर्पोरेट घरानों से संचालित होने के बावजूद भी समाज को नई दिशा दे सकता है। उन्होंने कहा कि समाजिक सरोकारों के लिए सिर्फ मीडिया ही नहीं आम आदमी को भी सवाल उठाने का हक है।
कार्यक्रम में एमिटी विवि, मुंबई के डीन प्रो. उज्जवल चैधरी ने कहा कि आज मीडिया डिग्रीयों के अलग-अलग हैं, जो देश भर के मीडिया शिक्षण पर सवाल उठाते हैं। उन्होंने कहा कि आज मीडिया शिक्षा और मीडिया उद्योग को करीब लाने की जरूरत है। मीडिया का शिक्षण बदल रही मीडिया प्रौद्योगिकी की संगति के साथ मेल करे और उनमें एक-दूसरे के क्षेत्रों में काम करने के अवसर उपलब्ध करवाए जाने चाहिए।
इस अवसर पर मणिपाल यूनिवर्सिटी के कुलपति संदीप संचेती ने कहा कि मीडिया शिक्षा की बढ़ती जरूरतों को देखते हुए शिक्षण पद्धति और पाठ्यक्रम में अपेक्षित बदलाव की जरूरत है।
यूनिसेफ के सलाहकार के बी कोठारी ने स्वयंसेवी संगठन और मीडिया की समाज में भूमिका पर बल देते हुए मीडिया शिक्षा में भी तालमेल होने की आवश्यकता जताई।
समारोह के समापन पर देशभर से आए मीडिया शिक्षकों की मौजूदगी में जयपुर मीडिया संकल्प जारी किया गया। जिसमें मीडिया की तेज गति के कारण प्रभावित होने पर चर्चा करते हुए उसमें मूल्य चेतना की आवश्यकता जताई। साथ ही मीडिया शिक्षा में सैद्धांतिक और व्यवहारिक पक्षों पर बराबर ध्यान देने की जरूरत जताई। इसके अलावा मीडिया की सकारात्मक भूमिका और आज के दौर में मीडिया में आ रहे परिवर्तन पर सुझाव आमंत्रित किए गए हैं।

थाने में लड़कियों के कपड़े उतार कर पीटा, एक अस्पताल में भरती


देश की राजधानी दिल्ली के रोहिणी थाने में सब इंस्पेक्टर राजबीर ने दो लड़कियों को थाने में कपड़े उतार कर पीटा। एक लड़की को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा है। इस घटना पर पुलिस के आला अधिकारी बात करने से भी बच रहे है।

Friday 3 April 2015

मीडिया गुरुओं के सम्मेलन का दूसरा दिन : बदलते दौर में मीडिया की भूमिका, भाषा, सिनेमा और विज्ञापन पर पढ़े गए शोधपत्र

जयपुर : मीडिया शिक्षकों के महाकुंभ के दूसरे दिन मणिपाल विवि में देश भर से आए मीडिया शिक्षक और रिसर्च स्कोलरों ने शोध पत्रों का वाचन किया। अधिकांश शोध पत्र पारंपरिक और सोशल मीडिया के सामाजिक प्रभाव, पत्रकारिता की भाषा, विज्ञापन, सिनेमा, न्यू मीडिया, वेब पत्रकारिता और संचार माध्यमों से जुड़े महत्वपूर्ण विषयों पर केंद्रित रहे। तकनीकी सत्रों की अध्यक्षता देश भर से आये मीडिया शिक्षकों ने की। प्रतिभागियों ने 180 से अधिक शोध पत्र प्रस्तुत किए और बदलते दौर में मीडिया की भूमिका को रेखांकित किया।
‘समाज में सकारात्मक बदलाव लाने में मीडिया की भूमिका-चुनौतियां और संभवनाएं’ विषय पर आयोजित तीन दिन के अखिल भारतीय मीडिया सम्मेलन के दूसरे दिन 12 तकनीकी सत्रों का आयोजन किया गया। इस दौरान प्रतिभागियों ने मीडिया से जुड़े अहम पहलुओं पर अपने शोध पत्र प्रस्तुत किये और श्रोताओं के सवालों के जवाब दिये। मीडिया शिक्षकों के इस अखिल भारतीय सम्मेलन का आयोजन राजस्थान विश्वविद्यालय के जन संचार केन्द्र के रजत जयंती समारोह के क्रम में किया जा रहा है। सम्मेलन का आयोजन मणिपाल विश्वविद्यालय, जयपुर, स्वयंसेवी संगठन लोक संवाद तथा सोसायटी ऑफ मीडिया इनीशिएटिव फॉर वेल्यूज, इंदौर के संयुक्त तत्वावधान में किया जा रहा है।
सम्मेलन के अध्यक्ष प्रो. संजीव भानावत और संयोजक कल्याणसिंह कोठारी ने बताया कि सम्मेलन के दौरान शुक्रवार को विभिन्न तकनीकी सत्रों में 200 से अधिक शोध पत्र प्रस्तुत किए गये। संयोजक कल्याणसिंह कोठारी ने  मणिपाल विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. संदीप संचेती को स्मृति चिन्ह भेंट कर सम्मानित किया। साथ ही इस अवसर पर मणिपाल विश्वविद्यालय जयपुर के डिपार्टमेंट ऑफ जर्नलिज्म एंड मॉस कम्यूनिकेशन की और से निकाले जा रहे न्यूज लेटर एमयूजे टाईम्स का विमोचन भी एमयूजे के प्रेसिडेंट प्रो. संदीप संचेती, प्रो. कमल दिक्षित, प्रो. संजीव भानावत, प्रो. मृणाल चटर्जी, प्रो. उज्जवल चौधरी, वरिष्ठ पत्रकार कल्याणसिंह कोठारी ने किया। इस मौके पर एमिटी विश्वविद्यालय, मुंबई के डीन प्रो. उज्ज्वल चौधरी ने समस्त प्रतिभागियों की तरफ से आयोजकों को बधाई दी और अगले अखिल भारतीय सम्मेलन की मेजबानी करने का प्रस्ताव भी रखा। इस अवसर पर सम्मेलन के अध्यक्ष प्रो. संजीव भानावत ने चुनीन्दा शोध पत्रों को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने का आश्वासन दिया।
प्रो.भानावत ने बताया कि शनिवार को समापन समारोह के मुख्य वक्ता केन्द्रीय सूचना आयुक्त प्रो. एम. श्रीधर आचार्युलू होंगे। मणिपाल विश्वविद्यालय, जयपुर के कुलपति प्रो. संदीप संचेती, एमिटी विश्वविद्यालय, मुंबई के डीन प्रो. उज्ज्वल चौधरी और यूनिसेफ के पूर्व सलाहकार प्रो. के.बी. कोठारी समापन समारोह के विशिष्ट अतिथि होंगे, जबकि हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं जन संचार विश्वविद्यालय के कुलपति सनी सेबेस्टियन समारोह की अध्यक्षता करेंगे। एबीपी न्यूज के कार्यकारी सम्पादक विजय विद्रोही मुख्य अतिथि के तौर पर समारोह में शामिल होंगे।

पत्रकार आज कोई रिस्क नहीं लेना चाहते, सामाजिक सरोकार सिमटे

माखनलाल चतुर्वेदी राष्टीय पत्रकारिता एवं संचार विवि, भोपाल के पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष डॉ. पुष्पेंद्र पाल सिंह का कहना है कि अच्छे लेखन में दो बातें कम से कम होनी चाहिए, एक तो ये कि आपके जो विचार हैं, पाठक के मानस में उतर जाएं, दूसरे सामाजिक सरोकार। उन्होंने कहा कि पत्रकार आज कोई रिस्क नहीं लेना चाहता, समाजिक सरोकारों के लिए ये चिंता की बात है।
इसके लिए मीडिया विद्यार्थियों को ज्यादा पढ़ना और ऑब्जर्व करना चाहिए। एक पत्रकार को लक्षित वर्ग को ध्यान में रखते हुए समाचार लिखना चाहिए। अच्छा समाचार वो है, जो पाठक के हित में हो। पत्रकार के लेखन में ये साफ होना चाहिए कि वो किस मुद्दे को प्राथमिकता दे रहा है।

उनका कहना है कि विकासात्मक संचार की दिशा में अधिक सकारात्मक प्रयास होने चाहिए। आजकल अखबारों में सोशल मीडिया का अलग से कॉलम आने लगा है। इससे ये तो साफ होता है कि सोशल मीडिया का प्रभाव बढ़ा है, ऐसे में ट्वीट पत्रकारिता कई मायने में ठीक है, क्योंकि अगर देश का प्रधानमंत्री ट्वीट कर कोई जानकारी देता है, तो ये विधा सामाजिक दृष्टि से सरोकार की पत्रकारिता को बल प्रदान करती है।
उन्होंने कहा कि बदलती जीवन शैली और सामाजिक स्तर पर भी बदलावों से जाहिरा तौर पर मीडिया भी प्रभावित हुआ है। पत्रकारों की जो बेबाकी है, वो कमतर हुई है। पत्रकार आज कोई रिस्क नहीं लेना चाहता। कई स्तर पर पत्रकारिता मूल्यों के साथ समझौता होने लगे हैं।