Monday 24 June 2013

शुरू का इतिहास कैसे लिखा गया


पं.जवाहर लाल नेहरू

हमें संसार की किताब से ही दुनिया के शुरू का हाल मालूम हो सकता है। किताब हमेशा हमारे सामने खुली रहती है लेकिन बहुत ही थोड़े आदमी इस पर ध्यान देते, या इसे पढ़ने की कोशिश करते हैं। अगर हम इसे पढ़ना और समझना सीख लें तो हमें इसमें कितनी ही मनोहर कहानियाँ मिल सकती हैं। इसके पत्थर के पृष्ठों से हम जो कहानियाँ पढ़ेंगे, वे परियों की कहानियों से कहीं सुंदर होंगी। इस तरह पुस्तक से हमें उस पुराने जमाने का हाल मालूम हो जाएगा, जबकि हमारी दुनिया में कोई आदमी या जानवर नहीं था। ज्यों-ज्यों हम पढ़ते जाएँगे, हमें मालूम होगा कि पहले जानवर कैसे आए और उनकी तादाद कैसे बढ़ती गई। उनके बाद आदमी आए, लेकिन वे उन आदमियों की तरह न थे, जिन्हें हम आज देखते हैं। वे जंगली थे और जानवरों में और उनमें बहुत कम फर्क था। धीरे-धीरे उन्हें तजुर्बा हुआ और उनमें सोचने की ताकत आई। इसी ताकत ने उन्हें जानवरों से अलग कर दिया। यह असली ताकत थी, जिसने उन्हें बड़े-से-बड़े और भयानक-से-भयानक जानवरों से ज्यादा बलवान बना दिया।
एक छोटा-सा आदमी एक बड़े हाथी के सिर पर बैठकर उससे जो चाहता है, करा लेता है। हाथी बड़े डील-डौल का जानवर है और उस महावत से कहीं ज्यादा बलवान है, जो उसकी गर्दन पर सवार है। लेकिन महावत में सोचने की ताकत है और इसी की बदौलत वह मालिक है और हाथी उसका नौकर। ज्यों-ज्यों आदमी में सोचने की ताकत बढ़ती गई, उसकी सूझ भी बढ़ती गई। उसने बहुत-सी बातें सोच निकालीं। आग जलाना, जमीन जोतकर खाने की चीजें पैदा करना, कपड़ा बनाना और पहनना और रहने के लिए घर बनाना, ये सभी बातें उसे मालूम हो गईं। बहुत से आदमी मिलकर एक साथ रहते थे और इस तरह पहले शहर बने। शहर बनने के पहले लोग जगह-जगह घूमते-फिरते थे, और शायद किसी तरह के खेमों में रहते होंगे। तब तक उन्हें जमीन से खाने की चीजें पैदा करने का तरीका नहीं मालूम था। न उनके पास चावल थे, न गेंहूँ, जिससे रोटियाँ बनती हैं। न तो तरकारियाँ थीं, और न ही दूसरी चीजें, जो हम आज खाते हैं। शायद कुछ फल और बीज उन्हें आज खाने को मिल जाते हों, मगर ज्यादातर वो जानवरों को मारकर उनका माँस खाते थे।
ज्यों-ज्यों शहर बनते गए, लोग तरह-तरह की सुंदर कलाएँ सीखते गए। उन्होंने लिखना भी सीखा। लेकिन बहुत दिनों तक लिखने को कागज न था, और लोग भोजपत्र या ताड़ के पत्तों पर लिखते थे। आज भी कुछ पुस्तकालयों में समूची किताबें मिल जाएँगी, जो उस पुराने जमाने में भोजपत्र पर लिखी गई थीं। तब कागज बना और लिखने में आसानी हो गई। लेकिन तब छापेखाने न थे और आज की तरह हजारों की तादाद में किताबें नहीं छप सकती थीं। कोई किताब जब लिख ली जाती थी तो बड़ी मेहनत के साथ उसकी नकल की जाती थी। इन कारणों से किताबों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं होती थी।

किताबों की दुनिया में भारत की जय



प्रियंका सिंह

भारत अंग्रेजी भाषा की किताबों के प्रकाशन में दुनिया में तीसरे स्थान पर पहुंच चुका है। कुल पब्लिकेशन मार्केट 80 अरब रुपये के आंकड़े को छू रहा है। फेडरेशन ऑफ इंडियन पब्लिकेशन्स के मुताबिक भारत में किताब प्रकाशन का बाजार 15 गुना की दर से बढ़ रहा है। आज हर साल विभिन्न भारतीय भाषाओं में करीब दो लाख किताबें छपती हैं, जिनमें से 30 हजार अंग्रेजी की होती हैं। इंग्लिश में भारत से ज्यादा किताबें सिर्फ अमेरिका व इंग्लैंड में ही छपती हैं। पैरिस इंटरनैशनल बुक फेयर व फ्रैंकफर्ट बुक फेयर जैसे बड़े आयोजनों में भारत को 'गेस्ट ऑफ ऑनर' बनाया जाना साबित करता है कि साहित्य की दुनिया में भारत के महत्व को दुनिया भर में स्वीकारा जा रहा है।
पेंग्विन पब्लिकेशन्स की भारतीय भाषाओं की सलाहकार व लेखिका नमिता गोखले कहती हैं कि हिंदी व स्थानीय भाषाओं की किताबों के लिए स्कोप काफी अच्छा है, कमी है तो सिर्फ डिस्ट्रिब्यूशन की। हमारी कोशिश है कि सभी इलाकों के पाठकों को किताबें उपलब्ध कराई जा सकें। हिंदी में अच्छी किताबें नहीं होने की शिकायत को दूर करने के लिए हम बेस्टसेलर किताबों को हिंदी में ट्रांसलेट कराने की कोशिश करते हैं। ज्ञानपीठ के कार्यकारी निदेशक रवींद्र कालिया कहते हैं कि हिंदी के अखबारों का प्रसार बढ़ रहा है और एक दिन ऐसा आएगा कि इंटरनेट पर भी हिंदी छा जाएगी। हिंदी के कई पब्लिशरों का टर्नओवर करोड़ों रुपये का है, फिर हिंदी को खतरा कहां है? अंग्रेजी लेखक केकी. एन. दारूवाला कहते हैं कि पढ़ने के मामले में हम बेशक कुछ यूरोपीय देशों से पीछे हैं, लेकिन 90 के बाद हालत सुधरे हैं, खासकर अंग्रेजी साहित्य में। बस जरूरत है तो बच्चों में पढ़ने की आदत डालने और विदेशों की तरह बुक-कॉफी शॉप बनाने की, जहां पाठक आराम से मनपसंद किताबें पढ़ व खरीद सकें।
समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट मानते हैं कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हिंदी साहित्य पर भारी पड़ रहा है। मनोरंजन के लिए किताबें पढ़नेवाले लोग टीवी की ओर मुड़ गए हैं। थोड़ा पढ़-लिखकर लोग अंग्रेजी की ओर बढ़ जाते हैं, क्योंकि अंग्रेजी पढ़ना फैशन हो गया है। हिंदी प्रकाशन के सबसे बड़े अड्डे दिल्ली में ही हिंदी किताबों की गिनी-चुनी दुकानें हैं। वरिष्ठ लेखिका मैत्रेयी पुष्पा इसके लिए हिंदी के लेखकों को जिम्मेदार ठहराती हैं। वह कहती हैं कि हिंदी के ज्यादातर लेखक अंग्रेजी लेखकों की नकल करते हैं और भाषा को इतना कठिन बना देते हैं कि आम पाठक से जुड़ नहीं पाते। उधर, आधार प्रकाशन के मालिक देश निर्मोही के मुताबिक किताबों की थोक खरीद पर ही अब किताबों का कारोबार निर्भर हो गया है।