Friday 27 March 2015

मीडिया को ‘बिम्बोफिकेशन’ का खतरा

वरिष्ठ पत्रकार बरखा दत्त का कहना है कि अगर आप औरत होकर अच्छा काम करते हो तो नफरत पाने के लिए तैयार रहो। यह बहुत निराशाजनक बात है कि न्यूज़ क्षेत्र ग्लेमराइज़्ड हो रहा है क्योंकि एंकर यहां अपने बालों और मेकअप पर ही ध्यान देती हैं, न कि न्यूज़ पर। न्यूज़ क्षेत्र को ‘बिम्बोफिकेशन’ (दिमागहीन, सस्ती किस्म की नकली व सजावटी महिलाएं) का खतरा है। हम सिर्फ ग्लैमर नहीं चाहते। मैं 10 महिला सीईओ या संपादक का नाम भी नहीं गिना सकती। उनकी मां को 19 साल की उम्र में हिंदुस्तान टाइम्स में पत्रकार के रूप में नौकरी से मना कर दिया गया था। बताया गया था कि यहां औरत के लिए कोई जगह नहीं। जब उन्होंने हठ किया तो उन्हें दिल्ली में फ्लावर शो पर रिपोर्ट करने के लिए भेजा गया लेकिन उनकी मां ने हिम्मत नहीं हारी और हिंदुस्तान टाइम्स के खोजी ब्यूरो की प्रमुख बनी।
वह कहती हैं कि जब मैंने कारगिल युद्ध पर रिपोर्ट की तो कई लोगों को लगा कि इस उपलब्धि को हासिल करने वाली मैं पहली महिला हूं लेकिन वह भूमिका मेरी मां के नाम थी। 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान मां को युद्ध की रिपोर्टिंग करने से मना कर दिया गया तो उन्होंने छुट्टी ली और खुद ही युद्ध-स्थल पर पहुंच गईं। और, वहां से जब उन्होंने अपनी रिपोर्टें अखबार को भेजी तो हिंदुस्तान टाइम्स के पास उन्हें प्रकाशित करने के अलावा कोई चारा नहीं था। इस तरह के मज़बूत रोल मॉडल से आपके जीवन में फर्क पड़ता है।
कारगिल युद्ध के दौरान शुरू में उन्हें भी अनुमति देने से इनकार कर दिया गया था लेकिन अंत में काफी आग्रह के बाद अनुमति दी गई थी। सेना ने भी उन्हें ‘पुरुष डोमेन’ में प्रवेश करने से रोकने की कोशिश की कि वहां महिलाओं के लिए कोई शौचालय नहीं हैं जिससे ‘जटिलताएं’ पैदा हो सकती हैं। उनकी सहज प्रतिक्रिया थी, तब उनकी यह युद्ध है। मैं पुरुषों जैसा ही करुंगी। मैं एक औरत के रूप में कभी भी वर्णित नहीं की जाना चाहती थी। सिर्फ एक बहुत अच्छे पत्रकार के रूप में जाना जाना चाहती थी। लेकिन लिंग-भेद में चीजें इतनी मुड़-तुड़ हो गईं हैं कि आप इससे दूर नहीं भाग सकते। कारगिल युद्ध के दौरान कुछ पत्रकार, उन्हें बचाने वाले सैनिकों की एक टोली के करीब आ गए थे। सैनिक जब लड़ाई के लिए जाने लगे तब ये पता नहीं था कि वे लौटेंगे भी या नहीं। पुरुष पत्रकारों ने उनको अलविदा कहते समय आंसू बहाए थे पर उन्होंने ऐसा नहीं किया था।
मैं कैमरे के पीछे भी नहीं रोई। लिंगभेद के साथ सूक्ष्मता से हाथापाई करने का यह मेरा पहला अहसास था। उन्होंने कहा कि फिल्म उद्योग में युवा पुरुष अभिनेता को स्थापित अभिनेत्री की तुलना में बहुत ज़्यादा पैसा दिया जाता है जबकि भारतीय महिलाओं ने स्क्रीन पर अपनी लैंगिकता का अच्छा प्रदर्शन किया है। कैसे एक महिला अपनी मांग में सिंदूर डालकर तुलसी बन सकती है या सिर्फ एक आइटम गर्ल बन सकती है? भारतीय सिनेमा को खलनायिका या कुंवारी सिंड्रोम से अभी भी बाहर निकलना है। आज, फिल्म निर्देशकों में से केवल नौ प्रतिशत महिलाएं हैं और 15 प्रतिशत महिला निर्माता हैं। अगर आप एक औरत होकर अच्छा काम करती हैं तो नापसंद होने के लिए तैयार रहिए। आपको आपके द्वारा बोले गए हरेक शब्द के लिए, यहां तक कि आपके वजन के लिए भी घेरा जाएगा। कैसे इंद्रा नूयी जैसी प्रतिभाशाली महिलाओं को घर में एक पत्नी और मां की पारंपरिक भूमिका निभानी होती है। 

चैनल चूँ चूँ का मुरब्बा / जसबीर चावला

बेहद परेशान थे टीवी चैनल ‘सीसीकेएम’ ( पूरा मतलब चूँ चूँ का मुरब्बा ) के सीईओ इन दिनों. सबब था उनके चैनल की कमाई का गिरता ग्राफ़. दूसरे चैनल खूब चाँदी काट रहे थे, उनके चैनल की टीआरपी भारत सरकार की साख की तरह घट रही थी.
उन्होंने आनन-फ़ानन में अपने सारे एंकर से लेकर फ़ील्ड संवाददाता, प्रोड्यूसर, केमरामैन सबकी आपात् बैठक बुलाई. सबको देश में – तेज़ी से लेकर सुस्त चलने वाले दस मिनट में दो सौ ख़बरें परोसने वाले, चैन की नींद सोने वालों को जगाने वाले कई चैनलों के कामयाब नुस्खे वाले कार्यक्रम दिखाये, विशेषज्ञों के भाषण करवाये. उन्होंने कुछ टीवी क्लिपिंग दिखलाई, जिनसे उन चैनलों के दिन फिर गये थे. उनमें कुछ के नमूने ये थे. “मिल गया, मिल गया, रावण का महल मिल गया. वह एअरपोर्ट भी मिल गया जहाँ उसका विमान लेडिंग करता था”- पार्श्व में रामायण सीरियल की धुन बजने लगी. “आज रात बाज बकरी को आठ बजे उठा ले जायेगा, देखना न भूलें, आपके अपने टीवी ‘इंडिभार’ पर” . अगला चैनल-”अंतरिक्ष से उड़न तश्तरियाँ आ कर गायों को ले जा रही हैं, हमारे जाँबाज पायलटों ने हेलिकॉप्टर से पीछा किया पर वे चकमा देकर भाग गईं”- अगला समाचार “आकाश से एलियन आ चुके हैं, कहीं आपकी खिड़की से झाँक तो नहीं रहे, उठ कर देख लीजिए”
पार्श्व में खौफनाक संगीत बजता है.
अगले चैनल पर- “मिल गया भगवान श्रीकृष्ण का शंख”- नेपथ्य में शंख ध्वनि. “मिल गई सीता की रसोई जहाँ वे भोजन बनाती थीं. “पार्श्व में रामायण की चौपाईयां.
तरह तरह के हिट कार्यक्रम.
ख़बरें और भी थीं- बनारस में बरगद का पेड़ जिसमें तीन पत्ते लगते हैं- ब्रम्हा विष्णु महेश. जनता पूजा कर रही है. अगला समाचार में -”दार्जीलिंग के कुर्सीयांग में एक उड़न तश्तरी जमीन पर गिरी”. जमीन पर एक दो फ़ुट लोहे की डिस्क जो किसी मशीन का पुर्ज़ा था – पड़ी थी. वाचक संवाददाता उसे ही उड़न तश्तरी मान कर चर्चा करने लगे- “लोग डरे तो नहीं, पूजा शुरू हुई कि नहीं”- वाचक चाहता था कि लोग पूजा शुरू करें तो कहानी लंबी खिंचे.
“सांई बोलने लगे-आँखें झपकने लगी”. दो चैनलों नें इस एनिमेशन फ़िल्म ओर उसके परम रहस्य को कई दिनों तक दर्शंको को समझाया. “बंदर जो केवल गोरी लड़कियों का दीवाना है”. “आज सिर्फ़ देखिये हमारे चैनल पर. बाबा सूर्यदेव की घोषणा- २०१४ में धरती पर प्रलय”
नेपथ्य में भूकंप की गढ़गढ़ाती आवाज़ें, हाहाकार, समुद्र का गर्जन, भक्त जनों का कीर्तन.
चैनल सीसीकेएम उर्फ़ चूँ चूँ का मुरब्बा के सीईओ ने उन्हें बाबा घासाराम, चरायण सांई, भूत प्रेत, सेक्स, अपराध, अघोरी, तंत्र-मंत्र, धर्म-अध्यात्म के फ़िल्मी काकटेल, आश्रमों हो रही रास लीलाएँ, अंधिवश्वास के खेल तमाशे, कच्चे अधपके चुनावी स्टिंग आप्रेशन और इनसे चैनलों को बढ़ती टीआरपी और कमाई, सब की आडियो विडियो दिखलाई.
ख़बरें कैसे बनाई जाती हैं, यह भी उदाहरणों के साथ समझाया. एक खबर की किल्पिंग में श्रीनगर के लालचौक में अलगाववादी तिरंगा खरीदते और जला देते. अब उनसे कौन पूछे कि भइयै, वहाँ कोई झंडे की दुकान भी है क्या? यह सब अंग्रेज़ी के एक अख़बार की नक़ली प्रायोजित फ़ोटो थी. “आँखो-देखी” की बिहार में नक़ाबपोश हथियारबंद दादाओं द्वारा बूथ केपचरिंग की स्टोरी गढ़ी हुई थी. बनारस में तीन वर्ष पूर्व पन्द्रह विकलागों की गुमटियां सड़क अतिक्रमण में हटना थी. उन्हें चैनलों ने उकसाया कि वे ज़हर खा लें हम कैमरे से शूट करेंगे, और तुम्हें बचा लेंगे. सबने टीवी पर इसे देखा. उन्होंने सचमुच ज़हर खा लिया. पांच की जान चली गई पर चैनलों की टीआरपी आसमान छूने लगी.
सीईओ ने चेलेंज किया जो कोई धाँसू स्टोरी – चाहे गढ़कर लाये, चाहे स्टिंग कर के, उसे पचास लाख रुपये नक़द और थाईलैंड की सैर पर भेजा जायेगा. सारे रिपोर्टर दौड़ पड़े -’इस्टोरी’ की तलाश में. जिस झारखंडी रिपोर्टर की स्टोरी चुनकर टेलिकास्ट हुई वह कुछ ऐसी थी.
“मिल गया, धोनी के चौकों छक्कों का राज. आज रात प्राइम टाईम में ८ बजे चैनल सीसीकेएम पर. कौन है जो उसे ऊर्जा से भर देती है, कौन है वह सलोनी श्यामा. जिसका राज धोनी भी नहीं जानता, हम उठायेंगे पर्दा इस रहस्य से जिसे हमारे संवाददाता कूड़ाप्रसाद नें जान पर खेल कर उठाया है”.
क्रिकेट इस देश का सन्निपात बुखार है और कभी उतरता ही नहीं. सारा देश सदा तपता रहता है. प्रलाप करता रहता है. देश में इस खबर से हलचल मच गई. देश थम गया, चर्चाओं का बाज़ार गर्म हो उठा, कौन है वह सुंदरी..
परम जिज्ञासा से सब ‘चू चूँ का मुरब्बा’ देख रहे थे.
“जी हाँ धोनी के चौके छक्के के पीछे जिस व्यक्ति का हाथ है वह हैं मुक्तिकुमार, जिनकी भैंसों का दूध धोनी पीते हैं”- कैमरा मुक्तिकुमार पर फ़ोकस होता है. “ये भैंसें पालते हैं, दूध निकालते हैं,- दूध जो अमृत होता है जिसकी देश में नदियाँ बहती थी”- मुक्तिकुमार जी गदगद् हैं. पीछे उनकी घरवाली लजाती सकुचाती नज़र आती है जिस पर कैमरा अब फ़ोकस है, जो भैंस का दूध निकाल रही है. कैमरा कभी मैदान में चरती भैंसों पर जाता है कभी मैदान में क्रिकेट खेलते चौके छक्के लगाते धोनी पर कभी दूध निकालती मिसेज़ मुक्तिकुमार पर कभी गिलास से दूध पीते ओर मलाई पोंछते धोनी पर. बड़ा ही मनोहारी दृश्य बनता है. दूध निकालती घरवाली, बाल्टी में झागदार दूध, भैंस, मैदान और धोनी के चौके छक्के……….! तभी मुक्तिकुमार बतलाते हैं कि धोनी की फ़ेवरेट भैंस कोई और ही है….!
रहस्य…रोमांच…! रहस्य भरा संगीत….।
स्टूडियो से वाचक घोषणा करता है- जाइयेगा नहीं हम मिलेंगे ब्रेक के बाद, और दिखायेंगे उस भैंस और तबेले को जिसे मुक्तिकुमार से इजाज़त न मिलने पर भी ‘जान पर खेल कर’ ढूंढ निकाला है, हमारे संवाददाता के. प्रसाद ने. सारा देश टकटकी लगाये टीवी से चिपका रहा- परम रहस्य से पर्दा जो उठना था.
ब्रेक के बाद कैमरा घोसीपुरा में मुक्तिकुमार के तबेले में घूम रहा है. संवाददाता के कपड़े गोबर-गंदगी से भरे पड़े हैं. कैमरा चारा, रस्सियां, गोबर, मरियल से बिजली के लट्टू, टोके, गंडासे से होता हुआ भैंसों की क़तार दिखाता हुआ एक ख़ास श्यामा सलोनी ‘भैंस’ पर टिक जाता है. संवाददाता उवाच- “यही है वह वह अनमोल प्यारी भैंस जिसका दूध पीकर धोनी रनों की बरसात कर देता है” पार्श्व में गाना बजता है- “तारीफ़ करूँ क्या उसकी जिसने तुम्हें बनाया”. अब कैमरा भैंस की आँखों पर जाता है, रुकता है- गाने की आवाज़- “झील सी इन आँखों में डूब डूब जाता हूँ”. अब केमरा भैंस के सींगों के क्लोज़ से उसकी पूँछ तक मिड शॅाट से लाँग शॅाट में जाता है. वाचक पूछता है -”इसकी उम्र क्या है”-संवाददाता-”"बाली उम्र है”-शरारत से-”महिलाओं की उम्र नहीं पूछते”. संवाददाता भैंस के नज़दीक़ हो गया- क्लोजप शॉट- भैंस ने उसका गाल चाट लिया- संवाददाता लजाता है. भैंस रंभाती है, सारा देश इस अद्भुत कौतुक को देख तालियाँ बजाता है.
चैनल सीसीकेएम पर यह स्टोरी टुकड़ा-टुकड़ा कई दिनों तक सारा सारा दिन चली टीआरपी उछल कर सातवें आसमान पर चढ़ गई. खूब विज्ञापन मिले. चैनल निहाल हो गया. रिपोर्टर को १० लाख रुपये और बैंकाक में सुंदरियों से मसाज का अवसर मिला – उसके पहले बोनस में गोआ ट्रिप अलग से.
मिलते हैं ब्रेक के बाद और बतलायेंगे कि कौन हैं अस्ट्रेलिया में वर्ल्ड कप में हार के मुजरिम
जैसे “चूँ चूँ का मुरब्बा” तथा रिपोर्टर के दिन फिरे सब चैनलों के दिन फिरें.


एक वैज्ञानिक को साहित्यिक पुरस्कार / डॉ बुद्धिनाथ मिश्र

इस बार विश्व-प्रसिद्ध खगोलशास्त्री और विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर को मराठी में लेखन के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया गया. अकादमी पुरस्कार उनकी आत्मकथा ‘चार नगरांतले माङो विश्व’ पर मिला है.
गत नौ मार्च को घुणाक्षर न्याय से मैं दिल्ली में साहित्य अकादमी के वार्षिक पुरस्कार अर्पण समारोह में पहुंचा था. घुन जब लकड़ी खाता है, तब उससे अनायास यदि कोई अक्षर बन जाये, तो उसे विद्वत-जन घुणाक्षर न्याय मानते हैं. मैं दिल्ली से रात की ट्रेन से वड़ोदरा जानेवाला था. दरभंगा से डॉ वीणा ठाकुर का आग्रह था कि मैं शाम का समय साहित्य अकादमी के समारोह में ही बिताऊं, जो कई अर्थो में मेरे लिए लाभप्रद रहा. एक तो भारत की सभी प्रमुख भाषाओं के अधिकतर साहित्यकारों से भेंट हुई.
यह अपने में एक असंभव कार्य है. विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों से सामान्यत: हमारा परिचय अक्षरों के माध्यम से होता है और अक्षरों तक ही रह जाता है. व्यक्तिगत तौर पर शायद ही कभी भेंट हो पाती है. इंटरनेट या अन्य इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने साहित्यकारों के रूप और स्वर को आज काफी सार्वजनिक कर दिया है, मगर बच्चन जी की पीढ़ी तक तो ‘वा्मय वपु’ का ही प्राधान्य था. इस समारोह में अन्य भाषाओं के उन साहित्यकारों से मिलने का अवसर मिला, जो परिचित तो थे, मगर साक्षात्कार कभी नहीं हुआ था. साहित्य अकादमी के पुरस्कार अर्पण समारोह में यह मेरी पहली उपस्थिति थी.
इसलिए भारतीय रचनाकारों के विशाल परिवार को देख कर धैर्य बंधा कि अभी भी समाज के कुछ नहीं, बहुत-से सिरफिरे लोग हैं, जो अपने आराम के क्षणों को सृजन के हवाले कर समाज को संवेदनशील बनाये रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं. ऐसे बुजुर्ग साहित्यकारों के भी दर्शन हुए, जो चल नहीं पाते थे, मगर साहित्यिक बिरादरी से मिलने की ललक ने उन्हें पौत्र-पौत्री के कंधों का सहारा लेकर वहां आने के लिए उत्साहित किया.
साहित्य अकादमी की कुछ नीतियां मेरे गले के नीचे कभी नहीं उतरीं. जैसे, भाषा की पात्रता और व्यापकता को ध्यान में न रख कर एक ही आकार-प्रकार के डंडे से सभी भाषाओं को हांकना. मेरी समझ से साहित्य का पैमाना लोकतंत्र के पैमाने से पृथक  होना चाहिए. मतदान के लिए तो एक व्यक्ति एक वोट ठीक है, चाहे वह व्यक्ति देश का मंत्री हो या सड़क का झाड़ूदार. लेकिन इसी नजरिये से भाषा-साहित्य को आंकना घातक होगा.
साहित्य अपने में एक विमर्श है. उसमें आड़ी-तिरछी रेखाएं खींच कर राजनीति के पांसे फेंकना उचित नहीं. इस दुर्नीति से सबसे अधिक नुकसान राष्ट्रभाषा हिंदी का हुआ है. एक ओर दस राज्यों की राजभाषा और संपूर्ण देश की संपर्क भाषा हिंदी, जिसे बोलनेवाले करोड़ों में हैं और जिसमें लिखनेवाले रचनाकार भी हजारों में हैं. दूसरी ओर, वे क्षेत्रीय भाषाएं हैं, जिन्हें बोलनेवाले कुछ लाख हैं और लिखनेवाले दहाई में. दोनों को एक पलड़े पर बैठाने का नुकसान यह हुआ कि हिंदी में साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिलना लॉटरी खुलने जैसा हो गया. चूंकि लॉटरी के पीछे कोई युक्ति नहीं होती, किसी को भी मिल सकती है, इसलिए हिंदी में ऐसे साहित्यकार भी पुरस्कृत हुए, जिनके नाम की घोषणा सुन कर काव्यप्रेमियों ने दांतों तले उंगली दबा ली.
मानता हूं कि इसमें अकादमी प्रशासन का हाथ नहीं रहा, मगर उसने दिल्ली के दु:शासनों के हाथों सरस्वती के चीर-हरण के मूक दर्शक की भूमिका तो भीष्म-द्रोण की तरह निभायी ही. स्थिति यहां तक आ पहुंची थी कि अपनी ‘गोष्ठी’ के बछड़ों को दाग कर सांड़ बना दिया जाता था, ताकि वे साहित्य की फसल मुक्त भाव से चरें-खायें और स्वामी का झंडा यहां-वहां फहरायें.
दूसरी ओर, धर्मवीर भारती जैसा कालजयी रचनाकार साहित्य अकादमी के पुरस्कार के योग्य नहीं पाया गया. हिंदी के महारथी आज जिस नागाजरुन के नाम का कीर्तन करते नहीं थकते, उन्हें भी साहित्य आकादमी ने मैथिली कविता-संग्रह (पत्रहीन नग्न गाछ) पर पुरस्कार देकर जान छुड़ायी. बेसुरे लोगों की जमात ने आज तक हिंदी के किसी गीत-संग्रह को पुरस्कार के योग्य नहीं माना, जबकि शंभुनाथ सिंह, उमाकांत मालवीय, शिवबहादुर सिंह भदौरिया जैसे दिग्गज कवि इसी ‘अंधे युग’ में हुए हैं.
सवाल यह है कि हिंदी के पुरस्कारों की संख्या एक ही क्यों रखी जाये, जबकि वह दस राज्यों की प्रादेशिक भाषा है और उसके साहित्यकारों में हिंदीतरभाषियों की संख्या भी कम नहीं है. और अगर यह संभव नहीं है, तो हिंदी भाषा को इस पुरस्कार की परिधि से हटा दिया जाये, जिससे अयोग्य व्यक्तियों को पुरस्कृत करने और योग्य व्यक्तियों को उपेक्षित करने का पाप न लगे.
यह पुरस्कार साहित्य का राष्ट्रीय पुरस्कार है, इसलिए इसे राष्ट्रपति/उपराष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के हाथों दिलाना चाहिए, न कि अकादमी के अध्यक्ष द्वारा, जो सामान्यत: इन्हीं साहित्यकारों में से चुने जाते हैं. अकादमी का अध्यक्ष इस पुरस्कार-तंत्र का अंग है. उसके देने से कोई वरिष्ठ साहित्यकार कैसे सम्मानित अनुभव करेगा? इस समारोह में भी कई वरिष्ठ साहित्यकार स्वयं न आकर अपने बेटे-बेटी या मित्र के मारफत सम्मानित हुए. इस बार हिंदी की लॉटरी 78 वर्षीय कवि-लेखक श्री रमेशचंद्र शाह के नाम निकली थी. वे खुश थे कि ऋतु-परिवर्तन के कारण ही यह संभव हुआ, वरना यह कहां संभव था!
मुझे इस बात की बेहद खुशी हुई कि इस बार विश्व-प्रसिद्ध खगोलशास्त्री और विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर को मराठी में लेखन के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया गया था. नारलीकर जी की प्रारंभिक से लेकर स्नातक तक की शिक्षा वाराणसी में ही बीएचयू में हुई थी. उनके पिता श्री विष्णु वासुदेव नारलीकर बीएचयू में गणित के प्रोफेसर थे और मां सुमति नारलीकर संस्कृत की विदुषी थीं. सन् 1957 में बीएससी करने के बाद वे कैम्ब्रिज चले गये.
बाद में उन्होंने अपने गुरु सर फ्रेड हॉयल के साथ मिल कर ‘अनुकोण गुरुत्वाकर्षण’ पर अनुसंधान कर नया सिद्धांत विकसित किया, जिसे विश्व के वैज्ञानिकों ने हॉयल-नारलीकर सिद्धांत नाम दिया. विज्ञान के क्षेत्र में उनकी अद्भुत उपलब्धियों के कारण 1965 में मात्र 26 वर्ष की आयु में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण और 2004  में पद्मविभूषण अलंकरण से सम्मानित किया. इतना बड़ा वैज्ञानिक होने के बावजूद नारलीकर जी मातृभाषा मराठी में विज्ञान-कथाएं तथा अन्य साहित्य लिखते रहे, जिनका अनुवाद हिंदी में भी बेहद चर्चित हुआ.
अकादमी पुरस्कार उनकी आत्मकथा ‘चार नगरांतले माङो विश्व’ पर मिला है. सन् 1965 में जब मैं बीएचयू में दाखिल हुआ, तब वे पद्मभूषण से अलंकृत हो चुके थे, जिस पर पूरा विश्वविद्यालय ही नहीं, पूरा बनारस गर्वित हुआ था.

भिखारी ठाकुर के बिहार में भिखारियों ने खोला 'मंगला बैक' और बनाई अनोखी नाटक मंडली

बिहार तो बिहार है, हर फन में अलखनिरंजन। वहीं के भिखारी ठाकुर, जेपी जैसे आंदोलनकारी और लालू जैसे नेता। आज भी आला-निराला कुछ न कुछ आए दिन वहां सुनने-देखने को मिल ही जाता है। गया जिले में भिखारियों ने अपना 'मंगला बैंक' खोल लिया है तो पटना में खुद की नाटक मंडली बनाकर जगह जगह भिखारी नुक्कड़ मंचन कर रहे हैं। 
'शांति कुटीर' के संरक्षण में सात भिखारियों ने भिक्षाटन से निजात दिलाने के लिए ये नाटक मंडली बनाई है। वे अपने नाटक - 'जिसे कल तक देते थे बददुआ, उसे आज देते हैं दुआ' का शहर के कई नुक्कड़ों पर मंचन कर चुके हैं। ज्यादातर मंचन उन स्थानों पर करते हैं, जहां भिखारियों का जमावड़ा रहता है। बिहार सरकार की भिखारियों को मुख्यधारा में लाने की पहल का एक उपक्रम बताया जाता है। दिग्विजय उनको प्रशिक्षित करते हैं। सभी कलाकार अनपढ़ हैं तो खुद ही अपना संवाद बना लेते हैं।
गया शहर में भिखारियों के एक समूह ने अपना एक बैंक खोल लिया है, जिसे वे ही चलाते हैं और उसका प्रबंधन करते हैं, ताकि संकट के समय उन्हें वित्तीय सुरक्षा मिल सके। गया शहर में मां मंगलागौरी मंदिर के द्वार पर वहां आने वाले सैकड़ों श्रद्धालुओं की भिक्षा पर आश्रित रहने वाले दर्जनों भिखारियों ने इस बैंक को शुरू किया है। भिखारियों ने इसका नाम मंगला बैंक रखा है। इस अनोखे बैंक के 40 सदस्य हैं। बैंक प्रबंधक, खजांची और सचिव के साथ ही एक एजेंट और बैंक चलाने वाले अन्य सदस्य  सभी भिखारी हैं। हर एक सदस्य बैंक में हर मंगलवार को 20 रुपए जमा करता है। इसकी स्थापना छह माह पहले हुई है। बैंक आपात स्थिति आने पर भिखारियों की मदद करता है। बैंक के रुपए डूबने से बचाने के लिए कर्ज पर दो से पांच प्रतिशत तक ब्याज देना अनिवार्य होता है। (Bhadas4medi)

अरविंद केजरीवाल का नया स्टिंग

http://www.bhaskar.com/news/UT-DEL-NEW-another-arvind-kejriwal-audio-tape-surfaces-4945829-NOR.html

आम आदमी पार्टी संयोजक और दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल का नया स्टिंग सामने आया है। इसमें अरविंद केजरीवाल उमेश कुमार नाम के पार्टी के कार्यकर्ता से बातचीत करते हुए आनंद कुमार, अजीत झा, योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे नेताओं को अपशब्द कहते सुनाई दे रहे हैं। बातचीत में उमेश ने केजरीवाल से कहा कि वे योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण के साथ मिलकर काम करें। यह ऑडियो स्टिंग अरविंद से बात करने वाले उमेश ने ही जारी किया है।
इस टेप में केजरीवाल प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव खेमे के दो नेताओं प्रोफेसर आनंद कुमार और अजित झा के लिए 'कमी*' और 'साले' जैसे शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं। उमेश नाम के इस शख्स ने योगेंद्र और प्रशांत भूषण से मिलकर चलने की बात कही, जिसका अरविंद ने अपशब्दों का इस्तेमाल करते हुए जवाब दिया। (पूरा ऑडियो सुनने के लिए ऊपर क्लिक करें)। इससे पहले, शुक्रवार को ही प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके अरविंद केजरीवाल पर निशाना साधा था। प्रशांत ने केजरीवाल पर तानाशाही बरतने का आरोप भी लगाया था। उधर, इस टेप पर आनंद कुमार ने कहा है कि अरविंद की यह भाषा उनके आत्मसम्मान के खिलाफ है। वहीं, योगेंद्र यादव ने कहा कि उन्होंने अरविंद को छोटा भाई समझकर माफ किया।
केजरीवाल के इस ऑडियो पर आप नेता आशुतोष ने कहा, ''मैंने ऑडियो सुना नहीं, लेकिन जानता हूं कि यह षड़यंत्र के तहत किया गया है। कई बार पिता भी अपने बेटे के लिए गुस्से में ऐसी बातें करते हैं। जिन लोगों ने पहले पार्टी को हराने का काम किया और अब वह इसे तोड़ने का काम कर रहे हैं। गुस्सा आना लाजमी है। गुस्से के बावजूद हम सब लोग इस दिशा में सक्रिय थे कि बातचीत किसी नतीजे पर पहुंचे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका।''

atalbihari vajpayee ko bharat ratna