Wednesday 11 February 2015

'आम आदमी पार्टी' की फतह के कड़वे सबक

गाल बाजे है तो बाजे है, बजाते रहिए।
हर्ज क्या है कि सच से आंख चुराते रहिए।

मोदी के मुंह की खाते ही झटपट गिरगिट की तरह रंग बदलने लगा धन-मीडिया। गुंडों के बल पर पार्टियां चलाने वाले सफेदपोश भी देखने लगे दिन बहुरने के सपने, जबकि देर-सवेर उन सबका भी दिल्ली जैसा हाल होना है। छपास रोगियों की भी कलम और जुबान के सुर बदले। और तो और, कथित वामपंथी भी कांग्रेस का हाथी मरते ही 'आप' से चिपक लिये, खुद के बूते का तो कुछ रहा नहीं।
बात लाख टके कि उस जीत का सिर्फ इतना भर सबक... समय बदल रहा है, लोग मुट्ठी तान रहे हैं। उन सब का लुढ़कना तय है, जो अवसरवादी है, जो दूसरो की बहादुरी पर अपनी पीठ थपथपाने वाले मनोरोगी हैं। अभी तो वो तूफान उठा ही नहीं है, जो गालबजाऊ पार्टियों के साथ केजरीवाल जैसे छद्म क्रांतिकारियों का कुनबा भी उड़ा ले जाएगा.... वह समय कभी तो आएगा..जरूर आएगा...क्योंकि सिर्फ ट्यूब की हवा निकालकर वायुमंडल खाली मान लेना केवल खुशफहमी होगी।
इस देश ने जेपी-क्रांति का हश्र देखा है, केजरी-क्रांति का भी देखेगा, वह आम आदमियों की पार्टी नहीं है, जो आम आदमी विरोधी आर्थिक नीतियों से आंखे चुराने लगती है और कमोबेश उन्हीं नाज-नखरों के वशीभूत है, जो बाकी सत्ताजीवी दिखाते हैं...

हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल को बहलाने को गालिब खयाल अच्छा है...