Thursday 14 November 2013

मीडिया जांच-पड़ताल पर नई बेवसाइट चलाएंगे ग्लेन ग्रीनवाल्ड


विकिलीक्स, ओपनलीक्स, माफ़ियालीक्स और दूसरी इण्टरनेट वेबसाइटें। आख़िर यह ख़बर आ ही गई कि अमरीकी पत्रकार, चिट्ठाकार यानी ब्लॉगर और अमरीकी वकील ग्लेन ग्रीनवाल्ड कहाँ काम करने जा रहे हैं। ग्लेन ग्रीनवाल्ड ने ही सबसे पहले अमरीकी गुप्तचर संगठन राष्ट्रीय सुरक्षा एजेन्सी के एजेन्ट एडवर्ड स्नोडेन द्वारा दी गई जानकारी से दुनिया को परिचित कराया था। अब ग्लेन ग्रीनवाल्ड पत्रकारों द्वारा की जाने वाली जाँच-पड़ताल की एक नई वेबसाइट का संचालन करेंगे। अब उन सरकारों को, जो अपना काम-धाम गुप्त रूप से करती हैं, भ्रष्टाचार में डूबे व्यावसायिकों को और इतालवी माफ़िया को बहुत सम्भल कर रहना होगा। जूलियन असांज की विकिलीक्स जैसी पोल खोलने वाली वेबसाइटों की संख्या बढ़ती जा रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह की वेबसाइटों की बढ़ती संख्या को रोकने के लिए अब सरकारी संस्थाओं
को और स॔रकारी निकायों को ज़्यादा खुलेपन के साथ काम करना होगा और इण्टरनेट में कथन की आज़ादी को ख़त्म करने की कोशिशों से तौबा करनी होगी। इससे इण्टरनेट उपयोगकर्ताओं के बीच ख़ुद पारस्परिक विरोध सामने आएगा। रेडियो रूस से बात करते हुए राजनीतिक विश्लेषक अलेक्सान्दर गुसेव ने कहा कि सरकार और खुले समाज के बीच रस्साकशी हमेशा ही होती रही है और आगे भी होती रहेगी। हर सरकार के पास कुछ सूचनाएँ सबको बताने के लिए होती हैं और कुछ सूचनाएँ गुप्त होती हैं, जिन्हें हर आदमी को नहीं बताया जा सकता है। लेकिन हर सरकार के काम करने का तरीका अलग होता है। कुछ सरकारें अपने समाज के साथ ज़्यादा खुला रवैया अपनाती हैं और कुछ सरकारें सब-कुछ गुप-चुप करती रहती हैं। आम तौर पर गुप-चुप काम करने वाली सरकारें अपने मामलों को गुप्त रखने के लिए ज़रूरत से ज़्यादा रहस्यात्मकता ओढ़ लेती हैं। अलेक्सान्दर गुसेव ने कहा : सरकारें हमेशा यह कोशिश करती हैं कि उनकी सूचनाएँ सुरक्षित रहें। इसके लिए वे क्या क़दम उठा सकती हैं? वे अपनी बन्द वेबसाइटें बना सकती हैं। वे उन लोगों पर पहरा बैठा सकती हैं, जो बेहद सक्रिय हैं। वे ऐसी बाड़ें और फ़िल्टर लगा सकती हैं कि कुछ निश्चित तरह की सूचनाओं तक लोगों की पहुँच ही नहीं हो। वे ज़रूरत से ज़्यादा हदबन्दी कर सकती हैं और गुप्त रह सकती हैं। और अपने रहस्यों को सुरक्षित रखने के लिए हर वह क़दम उठा सकती हैं, जो उन्हें ठीक लगता है। अपनी सूचनाओं की सुरक्षा करने के लिए सरकारें हमेशा सतर्क रहती हैं और वे हाथ पर हाथ धरे बैठी नहीं रह सकती हैं। इण्टरनेट में पिछले दिनों एक नई वेबसाइट, एक नया पोर्टल सामने आया है, जिसका नाम है -- माफ़ियालीक्स। विगत नवम्बर में सामने आई यह वेबसाइट अँग्रेज़ी और इतालवी भाषाओं में है। यह एक तरह से एक ऐसा इलैक्ट्रोनिक मेलबॉक्स है, जिसमें माफ़िया के शिकार हुए लोग माफ़िया की शिकायत कर सकते हैं तथा माफ़िया के बारे में कोई भी जानकारी रखने वाले लोग अपना नाम गुप्त रखकर उस जानकारी को साझा कर सकते हैं। इसके साथ-साथ पत्रकार भी इस वेबसाइट का इस्तेमाल अपने लेखों के लिए जानकारी इकट्ठी करने के लिए कर सकते हैं। यह मानना ही होगा कि जिन लोगों ने यह वेबसाइट बनाने और चलाने की ज़िम्मेदारी उठाई है, वे बेहद साहसी हैं क्योंकि सरकारों के विरुद्ध आवाज़ उठाना और उनकी गुप्त जानकारियों को सार्वजनिक करना एक बात है और माफ़िया की ऐसी जानकारियों को सार्वजनिक करना बिल्कुल दूसरी बात। माफ़िया जब किसी बात पर नाराज़ होता है तो वह उसका फ़ैसला अदालत में जाकर नहीं करता है। माफ़ियालीक्स नामक इस वेबसाइट से कुल दस व्यक्ति जुड़े हुए हैं और उन्होंने अपनी सुरक्षा का पूरा-पूरा इन्तज़ाम कर लिया है। पता लगा है कि इस वेबसाइट में प्रवेश करने के लिए जो कोड बनाए गए हैं, उन्हें खोलना और यह पता करना आसान नहीं है कि कौन इस वेबसाइट को नियन्त्रित कर रहा है। इस वेबसाइट पर पहुँचने वाले लोगों के पतों का भी पंजीकरण नहीं होता है। इसलिए वे भी अपना नाम-पता आसानी से छुपा सकते हैं। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि किसी भी वेबसाइट में सेन्ध लगाना सम्भव है। इसमें देर हो सकती है, लेकिन सेन्ध तो लगाई ही जा सकती है। जनवरी-2011 से ही विकिलीक्स की तरह की ही एक और वेबसाइट भी इण्टरनेट पर चल रही है। इस वेबसाइट क नाम है ओपनलीक्स। यह वेबसाइट विकिलीक्स से अलग हुए उन लोगों ने बनाई है, जो विकिलीक्स के संचालक जूलियन असांज के काम करने के तरीकों से असन्तुष्ट थे। ओपनलीक्स एक तरह से विकीलीक्स का ही सहज रूप है। लेकिन ओपनलीक्स वेबसाइट गुप्त दस्तावेज़ों को प्रकाशित करने की जगह इण्टरनेट उपयोगकर्ताओं को गुप्त रूप से और बिना अपने नाम-पते की जानकारी दिए सूचनाओं का आदान-प्रदान करने की सेवा उपलब्ध कराती है। जहाँ पर जाकर लोग अपनी सरकार, अपने स्थानीय नगर प्रशासन, व्यावसाय, नागरिक सुविधाएँ और जन सुविधाएँ उपलब्ध कराने वाली संस्थाओं की शिकायत कर सके, लोगों को ऐसा मंच उपलब्ध कराने की बात उसी समाज में सामने आती है, जिसमें सरकार गुप-चुप ढंग से काम करती हैं और अपनी गतिविधियों को गुप्त रखती हैं। इसके अलावा जहाँ सरकारी रहस्यों को खोलने वाले लोगों को न्यायिक सुरक्षा नहीं मिलती हैं। सिर्फ़ इसी साल भ्रष्टाचार, गबन, अपने पद के दुरुपयोग आदि के आरोप में विभिन्न देशों की सरकारों और संगठनों से तथा प्रशासनिक कार्यालयों से सैकड़ों लोगों को बर्खास्त किया गया है। कुछ रूसी विशेषज्ञों का मानना है कि सरकारी सूचनाओं को सार्वजनिक करते हुए बड़ी सतर्कता और सावधानी से काम लेना चाहिए। चूँकि सारी सूचनाओं को सार्वजनिक करना ठीक नहीं है, इसलिए कहीं न कहीं समझौता करना ही पड़ता है। रूसी राजनीतिक विश्लेषक सेर्गेय मिख़ियेव ने इस सिलसिले में रेडियो रूस से बात करते हुए कहा : एक भी सरकार ऐसी नहीं है जिसने कभी अपनी सूचनाओं को गुप्त रखने की कोशिश न की हो या जो कभी अपनी सूचनाओं को गुप्त नहीं रखेगी। हर बात खुलकर की जाएगी तो उसका नुक़सान ही होगा। सरकारी फ़ाइलों से निकली सूचनाओं का इस्तेमाल कोई भी कर सकता है। इस दुनिया में सिर्फ़ नेक लोग ही नहीं हैं, बल्कि बहुत से दुष्ट लोग भी हैं, जो अपने दुष्ट कामों को पूरा करने के लिए इन सूचनाओं का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसलिए सूचनाओं को सार्वजनिक करने के काम में एक सन्तुलन बनाकर रखना होगा, एक ऐसी समझ रखनी होगी कि किन सूचनाओं को सार्वजनिक किया जाए और किन्हें नहीं। ट्राँसपरेन्सी इण्टरनेशनल नामक संस्था ने हाल ही में अपनी एक रिपोर्ट में कुछ अचरजभरी बातें कही हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि यूरोसंघ में शामिल कुल 27 देशों में से बस, चार देश ही ऐसे हैं, जहाँ सूचनाओं को सार्वजनिक करने वालों को अधिकारियों से सुरक्षा उपलब्ध कराने के लिए कानून बने हुए हैं। टाँसपरेन्सी इण्टरनेशनल के विशेषज्ञों का मानना है कि यदि हर देश में ऐसे कानून बने होते और उनका प्रभावशाली ढंग से इस्तेमाल करना सम्भव होता तो भ्रष्टाचार और गबन के बहुत से हंगामे हुए ही न होते और न ही औद्योगिक या तकनीकी दुर्घटनाएँ सामने आतीं। इसका मतलब यह है कि तब अरबों रुपया भी बचा लिया गया होता और सैकड़ों लोगों का जीवन बचा पाना भी सम्भव होता।

दूसरी भाषाओं को निगल तो नहीं रही हिंदी


क्या भारत की 'क्षेत्रीय भाषाओं' में लिखा जाने वाला साहित्य केवल अनुवाद के सहारे ही जीवित रह पाएगा? क्या वजह है कि अवधी, भोजपुरी, पंजाबी या मराठी में लिखने वालों के अपने पाठक कम होते जा रहे हैं? क्या हिंदी इन भाषाओं को निगल रही है या फिर इसके लिए ज़िम्मेदार हैं ख़ुद पाठक। राजस्थानी लोक साहित्य में गहरी पैठ रखने वाले जानेमाने लेखक विजयदान देथा को लोग उनकी आंचलिक शैली और किस्सागोई के लिए याद करते हैं लेकिन उनके निधन पर हर तरफ एक बहस छिड़ी है कि हिंदी के अलावा दूसरी भारतीय भाषाओं के 'विजयदान देथा' क्यों और कैसे खो रहे हैं। हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक उदय प्रकाश ने किसी भाषा को क्षेत्रीय कहने पर ही सवाल उठाते हुए कहा, "सबसे पहले तो इस पर वस्तुपरक ढंग से सोचा जाए कि क्या ऐसी भी भाषा कोई होती है या हो सकती है, जिसका कोई 'क्षेत्र' ही न हो! क्या ऐसी भाषा जिसका भौगोलिक-सामाजिक आधार न हो, जो परिवारों, जनपदों, 'पिछड़े बना कर रखे गये' इलाकों में लोक-व्यवहार में न हो, बल्कि अन्य प्रक्रियाओं से विनिर्मित हो, क्या 'भाषा' सिर्फ़ वही हो सकती है?" हिन्दी के प्रमुख प्रकाशक राजकमल प्रकाशन समूह के संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरुपम इस बहस से जुड़े और उदय प्रकाश की बात को आगे ले जाते हुए कहा, ''हर भाषा की अपनी एक दुनिया होती है. 'क्षेत्र' और 'क्षेत्रीयता' के पैमाने पर हम अगर जाएंगे तो क्या हिंदी का भी एक क्षेत्र विशेष नहीं है? तब क्या दुनिया की सारी भाषाओं को वैश्विक, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय भाषा के खाके में बाँट कर देखा जाएगा?" वरिष्ठ पत्रकार और समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा ने हाल ही में केन्याई लेखक न्गुगी वा थ्योंगो की एक किताब का अनुवाद किया है। उन्होंने बताया कि किस तरह न्गुगी ने सामंती दमन और नव-औपनिवेशिक स्थितियों को झेला था और यही वजह है कि अंग्रेज़ी में बहुत ज़्यादा चर्चित होने के बावजूद उन्होंने अंग्रेज़ी को तिलांजलि दी और अपनी मूल भाषा गिकुयू और किस्वाहिली में लिखना शुरू कर दिया। बात केवल क्षेत्रीय भाषाओं की नहीं है। क्षेत्रीय भाषाओं को हिंदी के वर्चस्व से और हिंदी को अंग्रेज़ी के वर्चस्व से ख़तरा पैदा हो गया है। इन सबके पीछे हमारी वह मानसिकता है जिसे हम औपनिवेशिक मानसिकता कह सकते हैं। आदिवासियों की भाषा और संस्कृति के लिए काम करने वाले एके पंकज 'झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखाड़ा' से जुड़े हैं। पंकज ने आदिवासी भाषाओं की वर्तमान स्थिति पर टिप्पणी करते हुए कहा, "भारत में जानबूझ कर आदिवासी भाषाओं को मारने की लगातार कोशिश हो रही हैं। भाषाओं की राजनीति पर कौन बात करेगा? भाषा में जो लोग मर रहे हैं और मारे जा रहे हैं, वे यहां हो रही बहस से पूरी तरह से गायब है? संस्कृतिकरण के ज़रिए आदिवासी भाषाओं और संस्कृति पर हमले हो रहे हैं। देश के आदिवासी इलाक़े अंग्रेज़ी, हिंदी, भोजपुरी, मैथिली, बांग्ला आदि समर्थ भाषाओं के उपनिवेश बने हुए हैं और इसे बनाने वाले इन भाषाओं के बुद्धिजीवी हैं, इनके जातीय, धार्मिक राजनीतिक दल हैं। सत्यानंद निरुपम का मानना है कि सभी भाषाओं को एक तराजू में रखकर देखने की ज़रूरत नहीं है। अवधी और भोजपुरी की जो स्थिति है, उससे बिलकुल अलग है पंजाबी या मराठी का हाल। इनको हमें अलग-अलग करके देखना होगा। मराठी और पंजाबी में जो कुछ लिखा जाता है, हिंदी उसको अनुवाद के ज़रिये विस्तार देती है लेकिन अवधी और भोजपुरी जैसी बोलियां हिंदी के उत्थान के साथ सिमटती चली गई हैं।  उर्दू अकादमी के उपाध्यक्ष प्रोफेसर अख़्तरुल वासे का मानना है कि भाषाएं सरकार के संरक्षण में नहीं, अपने बोलने वालों के दम पर भी ज़िंदा रहती हैं और आगे भी बढ़ती हैं। कोई भी भाषा साहित्य में वही कृति ज़िंदा रहती है जो सार्थक भी हों और जीवन से सच्चे तौर से जुड़ी हुई भी।  राजस्थानी लेखक हरीराम मीणा अनुवाद का समर्थन तो करते हैं लेकिन वो इसे आलोचनात्मक दृष्टि से देखने के हिमायती हैं। उनके अनुसार, अनुवाद अपनी जगह महत्व रखता है लेकिन अनुवाद आखिर किसका? कोई भाषा अपने आप में कमज़ोर नहीं होती। उसकी अपनी एक परंपरा होती है। उसका अपना मुहावरा होता है। उसे पकड़ते हुए यदि साहित्य लिखा जाता है तो विज्जी (विजयदान देथा) जैसा साहित्य सामने आएगा। दूसरा उदहारण रसूल हमजातोव का दिया जा सकता है। मेरा दागिस्तान वैश्विक स्तर पर कितना सराहा गया। क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य की मौखिक परंपरा को भी समझने की ज़रूरत है। सत्यानंद निरुपम का कहना है कि नागार्जुन हिंदी प्रकाशन जगत के प्रिय लेखक रहे। नागार्जुन ने खुद भी पुस्तिकाएं छाप कर रेलगाड़ियों में घूम-घूम कर अपने हाथों बेचा। उनके जीवित रहते ही उनके एक पुत्र ने एक प्रकाशन संस्थान भी खोला, जहाँ से नागार्जुन की कुछ किताबें छपीं। वहां से तो बहुत ईमानदारी से किताबें बेचीं गई होंगी लेकिन क्या फ़र्क़ पड़ा? क्या आप हिंदी समाज के भीतर की जटिलताओं और कमियों को देख नहीं पा रहे हैं या जान-बूझकर नजरअंदाज कर रहे हैं? (साभार बीबीसी से)

बाल दिवस पर नहीं रहे बाल साहित्यकार देवसरे


जाने माने बाल-साहित्यकार हरिकृष्ण देवसरे का गुरूवार को बाल दिवस के दिन ही लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। वह 75 साल के थे। मध्य प्रदेश के नागोद में नौ मार्च 1938 को पैदा हुए देवसरे हिंदी साहित्य के अग्रणी लेखकों में थे। बच्चों के लिए रचा गया उनका साहित्य विशेष रूप से पसंद किया गया। बाल साहित्य में योगदान के लिए उन्हें वर्ष 2011 में साहित्य अकादमी बाल साहित्य लाइफटाइम पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। तीन सौ से ज्यादा पुस्तकें लिख चुके देवसरे को बाल साहित्यकार सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के बाल साहित्य सम्मान, कीर्ति सम्मान (2001) और हिंदी अकादमी के साहित्यकार सम्मान (2004) सहित कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया।  बताया जाता है कि देवसरे भारतीय बाल साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि हासिल करने वाले पहले व्यक्ति थे। लोकप्रिय पत्रिका ‘पराग’ के करीब 10 साल तक संपादक रहे देवसरे को पहला वात्सल्य पुरस्कार भी दिया गया था। उन्होंने भारतीय भाषाओं में रचित बाल-साहित्य में रचनात्मकता पर बल दिया और बच्चों के लिए मौजूद विज्ञान-कथाओं और एकांकी के ख़ालीपन को भरने की कोशिश की। वर्ष 2007 में उन्होंने न्यूयॉर्क में विश्व हिंदी सम्मेलन में भी भाग लिया था।