Sunday 25 February 2018

चकई कs चकधुम, मकई कs लावा...

जीवन में कभी कोई ऐसा भी वाकया गुजरता है, भुलाए न भूले। वह 1984 की एक शाम थी। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के सामने एक चाय की दुकान पर तनावग्रस्त बैठा था। चिंता में घिरा सोचते-सोचते गुस्सा आ गया। तुरंत थैले से कापी निकाली और काशी विद्यापीठ, वाराणसी के हिंदी विभाग के रीडर एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोकप्रिय कवि डॉ. श्याम तिवारी (अब स्वर्गीय) के नाम लंबा पत्र लिख डाला। दरअसल, कुछ ही घंटे पहले एक नवविवाहित मित्र ने यह कहकर मुझे कहीं और ठिकाना ढूंढ लेने को कहा था कि उनकी पत्नी ऐसा चाहती हैं। उस वक्त मेरी जेब में चार आने थे। जाऊं तो कहां जाऊं। बड़ी तेज भूख लगी थी। सोचने लगा, चार आने में चाय पीने से भूख कम होगी या चना खाने से। खुद पर कोफ्त। चना लिया। चबाते हुए तिवारी जी को कुछ इस तरह चिट्ठी लिखने लगा- 'निराला को कक्षाओं में पढ़ाना, मंचों पर बखानना बड़ा आसान होता होगा, निराला की तरह एक दिन भी जीना बहुत मुश्किल है, ऐसा मैं निराला के शहर में इस शाम महसूस रहा। ....' पत्र पूरा करने के बाद अनायास दो पंक्तियां मन से निकलीं -

'जब थके आदमी को ढोता हूं, 
सोचता हूं, उदास होता हूं, 
वक्त थोड़ा-सा गुदगुदाता है, 
खूब हंसता हूं, खूब रोता हूं।...'

फिर तो भूख के मारे बरबस फूट पड़े शब्द जाने किधर-किधर ले जाने लगे। उस शाम के कई दशक बाद। उस वक्त मैं वाराणसी अमर उजाला में था। रात की नौकरी। गर्मी की दोपहर मुंह ढंके गहरी नींद में था। तभी किसी ने मेरे चेहरे से गमछा खींच दिया। उनका चेहरा भी गमछे से ढंका था। कोई और नहीं, वह डॉ. श्याम तिवारी थे। दरअसल, उस सुंदरपुर मोहल्ले के जिस मकान में मैं रहता था, उसके मालिक बाल-साहित्यकार थे। उनसे ही तिवारी जी को मेरे बारे में पता चला था। मेरे चेहरे से गमछा खींचने के बाद उन्होंने मुझे मीठी झिड़की दी। चपत मारी। पहचानते ही मैं अगले पल चारपाई से उछल कर खड़ा हो गया। उन्हें आदर से बैठाया। घड़े से ठंडा पानी पिलाया।
वह डाट पिलाते हुए बोले- 'बनारस में तुम्हे किराए के मकान में रहने की क्या जरूरत थी?'
वह एक वक्त में मुझे पुत्रवत स्नेह करते थे। अस्सी के उस अपने मंदिराकार मकान में प्रायः साथ ले जाते, ढुंडा (मेवा मिश्रित सत्तू का लड्डू) और छाछ का नाश्ता, फिर भोजन कराते। और शाम होते ही साथ लेकर मेरे लिए नौकरी की तलाश में अखबारों के दफ्तरों के चक्कर लगाने निकल पड़ते। उनकी लाख कोशिश अकारथ गई। और एक दिन शहर छोड़ना पड़ा।
उस दोपहर भी कड़ी धूप के बावजूद वह मुझे अपने साथ घर घसीट ले गए थे। वहीं छाछ-ढुंडे का नाश्ता, बीच में इलाहाबाद वाली चिट्ठी पर चुहल। आज भी उनकी यादें आंख गीली कर जाती हैं। डॉ. श्याम तिवारी ध्वन्यात्मक कविताएं जब मंचों से सुनाते थे- श्रोता एक-एक पंक्ति में ताल देने लगते थे.... 'चकई कs चकधुम, मकई कs लावा...'

पत्र-कार, मालिक का तलवा और चमचों की पंचाट

घुड़की भी एक कला है। इसके कई रूप हैं। रोब-रुतबे का प्रदर्शन घुड़की है। मैंने ऐसे घुड़कीबाज नामवरों को मीडिया की दुनिया में बहुत करीब से देखा-भोगा है। अखबार या न्यूज चैनल के सिरहाने बैठे हैं। अपने नखरों के मारे हुए ऐसे कई नामवरों को शब्द तो दुत्कार-खदेड़ देते हैं। फिर वे घुड़की, रुतबे, नाज-नखरें से काम चलाते हैं। साहब को खबरें लिखने नहीं आता तो क्या, घुड़की है न। काम चल जाता हैं। लिखने-पढ़ने से क्या वास्ता। पत्र-कार हैं, पत्र का तमगा है, कार है, चमचों की पंचाट है, नौकर-चाकर हैं और गुदगुदाने के लिए मालिक के तलवे हैं...बस नौकरी चल निकलती है।