Friday 31 October 2014

अमानवीयता की सेवा में जुटे हुए हैं तमाम समाचार चैनल/जगदीश्वर चतुर्वेदी

समाचार चैनलों में इन दिनों अपराध की खबरों के नाम पर अपराधियों का महिमा-मंडन चल रहा है और निरपराध लोगों पर चैनल अपनी तरफ से खबरों के जरिए मुकदमा चला रहे हैं। स्थिति यह है कि दैनन्दिन अदालती सुनवाई को भी चैनल कवरेज दे रहे हैं। इस तरह की खबरों में खबर की बजाय उत्पीड़न और सामाजिक कष्ट देने का भाव ज्यादा है। इससे मीडिया और व्यक्ति के अन्तस्संबंध से जुड़े अनेक सवाल उठ खड़े हुए हैं। क्या मीडिया को किसी अपराध के बारे में समानान्तर प्रचार अभियान के माध्यम के रुप में हस्तक्षेप करने का हक है ?
किसी भी व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह मीडिया में जारी प्रचार अभियान का रोज प्रत्युत्तर दे। साथ ही यह भी देखना होगा कि अपराध खबरों की प्रस्तुति के बारे में मीडिया की क्या भूमिका होनी चाहिए।
इन दिनों विभिन्न चैनलों से अपराध खबरों का ज्यादा से ज्यादा प्रसारण हो रहा है। यह प्रवृत्ति अभी तक दैनिक अखबारों में थी। किंतु अब टेलीविजन चैनलों ने इसे अपना लिया है। सामान्य तौर पर प्रेस अपराधी तत्वों के महिमामंडन से दूर रहा है। किंतु राजनीतिक और आर्थिक अपराधियों के महिमा-मंडन में लिप्त रहा है।इसके विपरीत समाचार चैनलों की खबरों में वस्तुगत प्रस्तुति के बहानेअपराधियों और अपराध कर्म का महिमा मंडन चल रह है।
चैनलों में दो तरह की प्रवृत्तियां दिखाई दे रही हैं। पहली प्रवृत्ति है तथ्यपरक रिपोर्टिंग की। दूसरी प्रवृत्ति है अपराधकर्म को सस्पेंस और रसीला बनाकर पेश करने की। दूसरी प्रवृत्ति के तहत चैनलों में पुरानी किसी घटना का जीवंत या नाटकीय रूपायन दिखाया जाता है। इस तरह की प्रस्तुतियों में अपराध को व्यापकता प्रदान की जाती है।  पुलिस की सजगता,चुस्ती,मुस्तैदी,निकम्मेपन पर जोर
रहता है।
इसके विपरीत अपराध की तथ्यपरक रिपोर्टिंग के नाम पर आजतक,सहारा समय,एनडीटीवी आदि चैनलों में अपराध खबरें सामाजिक प्रभाव के बारे में सोचे बगैर दिखाई जा रही हैं। इन चैनलों से अपराध खबरें इस तरह पेश की जा रही हैं जिससे यह लगे कि अपराध आम जीवन का सामान्य अंग है। खबरों में साधारण और असाधारण अपराध में फ़र्क नहीं किया जा रहा। इन्हें आम खबर के रूप में पेश किया जा रहा है। जबकि अपराधकी खबरें आम खबर की कोटि में नहीं आतीं। सभी अपराध और अपराधी समान नहीं होते। ध्यान रहे किसी अपराधी का महिमा-मंडन उसकी छवि को सुधार देता है। साथ ही अपराध के प्रति आम जनता में अपराध विरोधी चेतना को कुंद कर देता है।
डब्ल्यू.आई.थॉमस ने 'पीत पत्रकारिता का मनोविज्ञान' नामक पुस्तक में अपराध खबर के बारे में लिखा ये पाप और अपराध के सकारात्मक एजेण्ट हैं। नैतिकता की अवस्था,मानसिकता आदि के संदर्भ में समाज इनके अनुकरण पर निर्भर करता है। जनता इनसे खूब प्रभावित होती है।अपराधी का नाम यदि किसी ग्रुप से जुड़ा हो और मीडिया उसका प्रचार कर दे तो उससे अपराधी को मदद मिलती है। इसी तरह किसी अपराधी
गिरोह का सरगना मारा गया और उसकी जगह नए मुखिया की नियुक्ति की खबर से भी अपराधी को बल मिलता है। अपराध खबरों के प्रसारण या प्रकाशन के बारे में मीडिया का तर्क है कि अपराध खबरों को छापकर वह जनता और कानून को सचेत करता है। इस संदर्भ में पहली बात यह है कि शांत और नियमित माहौल में ही अपराध खबरें सचेत करती हैं। अशांत माहौल में असुरक्षा पैदा करती हैं।
आम तौर पर टेलीविजन में जो अपराध खबरें आ रही हैं उनमें अपराधी के व्यवहार को रोमांटिक रूप में पेश किया जा रहा है। इनमें अपराधी ने जो मैथड अपनाया उस पर जोर रहता है। अपराध को नियंत्रित करने वाली मशीनरी की तीखी आलोचना रहती है अथवा उसके निकम्मेपन पर जोर रहता है। मजेदार बात यह है कि अपराध के बारे में बताया जाता है,गिरफ्तारी के बारे में बताया जाता है किंतु दण्ड के बारे में नहीं
बताया जाता।
अपराध खबरों में जब सरकारी मशीनरी पर हमला किया जाएगा तो इससे अपराधी को बल मिलेगा।अपराधी ताकतवर नजर आएगा।अपराध के मैथड बताने से अनुकरण को बल मिलता है। अपराध खबरों के प्रसारण के पीछे यह दर्शन संप्रेषित किया जाता है कि अपराध से कोई लाभ नहीं। इस परिप्रेक्ष्य में पेश की गई खबरों में यह भाव निहित होता है कि 'यह सामान्य बात है और दण्ड मिलेगा ही।' अपराध खबरों के बारे में यह ध्यान रखें कि आनंद या भूलवश किए गए अपराध का प्रसारण नहीं किया जाना चाहिए।साथ ही 'इफेक्ट' और 'इफेक्टिवनेस' के बीच अंतर किया जाना चाहिए। हिंसा और अपराध की खबरों के बारे में सभी एकमत हैं कि इसका तीव्रगति से असर होता है। अपराध खबरों का असर व्यक्तिगत न होकर सामाजिक होता है। इससे आक्रामकता और प्रतिस्पर्धा में वृध्दि होती है।
टेलीविजन समाचारों के आने के बाद से समाचार के क्षेत्र में क्रांति आई है।जल्दी और ताजा खबरों की मांग बढ़ी है।फोटो का महत्व बढ़ा है। स्वयं को देखने,सजने,संवरने और ज्यादा से ज्यादा मुखर होने की प्रवृत्ति में इजाफा हुआ है। व्यक्तिवाद में वृध्दि हुई है।व्यक्ति की हिस्सेदारी बढ़ी है। किंतु इसके साथ-साथ खबरों को छिपाने या गलत खबर देने की प्रवृत्ति में भी वृध्दि हुई है। खासकर मानवाधिकारों के हनन की खबरों को छिपाने के मामले में टेलीविजन सबसे आगे है।
टेलीविजन खबरों का जिस तरह स्वरूप उभरकर सामने आया है उससे यह बात सिध्द होती है कि टेलीविजन खबरों का प्रेस की तुलना में खबरों को छिपाने के लिए ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है।टेलीविजन को नियंत्रित करना ज्यादा सहज और संभव है।खबरों में निरंतरता जरूरी है।प्रेस आम तौर पर निरंतरता के तत्व का ख्याल रखता है किंतु टेलीविजन ऐसा नहीं करता।बल्कि निरंतरता के तत्व का वह चुनिंदा मामलों में ही ख्याल रखता है। समाचार चैनलों में इन दिनों सनसनीखेज खबर बनाने या फिर खबर छिपाने का चक्र चल रहा है। इसके कारण सबसे ज्यादा उन्हें क्षति पहुँच रही है जो अपने अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। अपने जायज अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं।समाचार चैनलों में गैर जरूरी सवालों पर ज्यादा ध्यान देने से ऑडिएंस के अ-राजनीतिकरण की प्रक्रिया को बल मिलता है। चैनल खबरों के इतिहास में नहीं जाते और न सही खबरों का चयन करते हैं। नया दौर खबर का नहीं मनोरंजक खबरों का है।

TV समाचारः मीडिया रिपोर्टिंग बनाम मीडिया ट्रायल/कुमार कौस्तुभ

टेलीविजन पर समाचारों के प्रसारण के सिलसिले में निष्पक्षता से जुड़े कई सवाल उठते रहे हैं। सुलझी हुई रिपोर्टिंग बनाम मीडिया ट्रायल से जुड़ी बहस भी उसी का हिस्सा है। अक्सर अपराध से जुड़े मामलों की खबरों की कवरेज के दौरान टेलीविजन पत्रकारों पर मीडिया ट्रायल का आरोप लगता है, जब किसी खास मामले की ज्यादा से ज्यादा कवरेज होती है, उसकी तह में, गहराई में जाने की हद से ज्यादा कोशिश होती है। सच्चाई का खुलासा करने की होड़ में आरोपियों और मामले से जुड़े लोगों की सरेआम कैमरे पर इस तरह जिरह होने लगती है जैसे अदालत में कोई मुकदमा चल रहा हो। ऐसी स्थिति में रिपोर्टर जैसे जज बन जाते हैं और खुद ही फैसला भी सुनाने लगते हैं। ये किसी भी मामले की असंयमित रिपोर्टिंग का नमूना है, जिसके तहत जिस तरह मामले से जुड़े मुद्दों की पड़ताल होती है, उसकी अदालती सुनवाई से तुलना होने लगती है और उसे ‘मीडिया ट्रायल’ की संज्ञा दे दी जाती है। ‘मीडिया ट्रायल’ का जुमला चाहे जहां से भी ईजाद हुआ हो, लेकिन इसका सीधा सा मतलब यही होता है कि मीडिया किसी मामले की इतनी पड़ताल कर रहा है और किसी को दोषी और किसी को निर्दोष साबित कर रहा है, जो पुलिस-प्रशासन और अदालतों को करना चाहिए। ऐसे में सवाल ये है कि क्या पुलिस-प्रशासन के निकम्मेपन का ये नतीजा है या फिर अदालतों की कार्रवाई सवालों के घेरे में है। एक तरह से देखें तो ऐसा नहीं कहा जा सकता। पुलिस-प्रशासन, अदालत- सभी अपने दायरे में अपने तरीके से किसी भी मामले पर कार्रवाई करते हैं- यहां सवाल पक्षपात या निष्पक्षता का नहीं है, ये एक प्रक्रिया है, जिसका पालन तमाम जांच एजेंसियां और कानूनी पक्ष करते हैं और इसमें जो भी समय लगे, उसके बाद नतीजा निकलकर सामने आता है, जो किसी के पक्ष में होता है और किसी के खिलाफ। अब नतीजा सही होता है या गलत- ये अलग चर्चा और बहस का विषय है। लेकिन किसी मामले में मीडिया, खासकर टेलीविजन की दिलचस्पी और अति-सक्रियता क्यों होती है और क्यों स्थिति ‘मीडिया ट्रायल’ के स्तर तक पहुंचती है, ये पहलू विचारणीय है। टेलीविजन समाचारों में आजकल उन जानकारियों को खबरिया नजरिए से तरजीह दी जाती है, जो आम आदमी से जुड़े हों, उसे किसी न किसी तरह प्रभावित कर रहे हों। जघन्य बलात्कार की घटनाओं या नृशंस हत्या के मामले ऐसी खबरों में सबसे पहले शुमार होते हैं, जो आम दर्शकों का ध्यान आकर्षित करते हैं। लिहाजा ऐसी खबरों को प्रमुखता देना टेलीविजन समाचार चैनलों का धर्म बन गया है। रही बात किसी खास खबर पर मंथन की, उसे लगातार जिंदा रखने की, उस पर बहस ख़ड़ी करने की- तो ये सारी बातें खबर की अपनी मेरिट पर निर्भर करती हैं, न कि किसी विद्वेषपूर्ण नजरिए से उन्हें उठाया जाता है- इसके लिए कोई उदाहरण देने की जरूरत नहीं- रोजाना टेलीविजन पर समाचार देखते हुए ये बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। अपराध के मामलों में पुलिस-प्रशासन की लापरवाही, उस पर लोगों का गुस्सा और उनकी प्रतिक्रिया और उसके बाद कथित आरोपी के पकड़े जाने या नहीं पकड़े जाने पर जनभावनाओं का सामने आना- ये सब प्रसारित होनेवाली खबरों के प्रमुख पहलू हैं। जाहिर है, किसी भी ऐसे बड़े अपराध का मामला अदालत तक पहुंचता है, तो आम दर्शकों की उसमें दिलचस्पी वाजिब है और आम लोगों की प्रतिक्रिया को दिखाना भी खबर के प्रसारण का एक हिस्सा है। खबर के प्रसारण का दूसरा हिस्सा है – पुलिस और प्रशासन की प्रतिक्रिया। सवाल ये है कि क्या खबरों की रिपोर्टिंग तथ्यों की और उन पर पुलिस और पब्लिक की प्रतिक्रिया तक सीमित रहे? और सीमित रहे भी तो कैसे रहे? जब कोई जानकारी खबर बनती है और उस पर प्रतिक्रियाएं आना चालू होती हैं, तो जैसे एक तरीके से बहस छिड़ जाती है और मुद्दे के हर पक्ष की पड़ताल होती है। ऐसे में अगर मीडिया अपराध के तथ्यों, जो आमतौर पर पुलिस की प्रेस कांफ्रेंस में पेश किए जाते हैं, की कवरेज तक सीमित रहे, तो क्या उसकी निष्पक्षता पर सवाल नहीं उठेंगे। सवाल उठते भी रहे हैं और टेलीविजन पर मरणासन्न खोजी पत्रकारिता की स्थिति के लिए इसी बात को जिम्मेदार भी माना जाता रहा है कि टेलीविजन के पत्रकार थानेदारों और पुलिस अफसरों के बयानों तक क्यों घूमते पाए जाते हैं। ऐसे में जब बात पुलिस से पब्लिक तक आती है तो और भी कई बातें निकलती हैं और खबर की कड़ियां आगे बढ़ती चली जाती है, जिसमें दर्शकों की दिलचस्पी स्वाभाविक है और दर्शकों की दिलचस्पी को भुनाना तो टेलीविजन समाचार के कारोबारी पहलू का अहम पक्ष है ही- यानी ये एक ऐसा चक्र है, जिसमें खबर से पब्लिक और कारोबार तक का हर पहलू जुड़ा हुआ है। तो जाहिर है, इस स्थिति में खबरों की खबर लेने की कोई सीमा नहीं होती और कवरेज और प्रसारण का दायरा इतना बढ़ता हुआ नजर आता है कि उसे रिपोर्टिंग से हटकर ‘मीडिया ट्रायल’ का दर्जा दे दिया जाता है। ये काफी हद तक ऐसी मुहिम की स्थिति है, जिसे कई टेलीविजन समाचार चैनल बाकायदा घोषित रूप से चलाते रहे हैं। भारत में प्रियदर्शिनी मट्टू, जेसिका लाल, नीतीश कटारा, बीजल जोशी, रुचिका गिरहोत्रा, आरुषि तलवार हत्याकांड जैसे आपराधिक मुद्दे हों, या भ्रष्टाचार से जुड़ी खबरों के मुद्दे- जिन पर टेलीविजन समाचारों की सबसे ज्यादा कवरेज हुई है और इनकी कवरेज बहस और विवादों का भी मुद्दा रही है। ये कहना सही नहीं होगा कि ऐसे तमाम मामलों को टेलीविजन पर उठाए जाने की वजह से ही इनके दोषियों को सजा हुई। आरुषि तलवार का मामला अब तक सुलझा नहीं और प्रियदर्शिनी मट्टू, जेसिका लाल, रुचिका गिरहोत्रा के मामले मीडिया में गर्म रहने के बावजूद दोषियों को सजा मिलने में हद से ज्यादा देर हुई, 84 दंगा मामलों में मीडिया की तमाम हाय-तौबा के बावजूद कड़कड़डूमा कोर्ट से सज्जन कुमार बरी हो गए- तो भला कैसे कह सकते हैं कि मीडिया के जोर के चलते, समाचार चैनलों की मुहिम के चलते पीड़ितो को इंसाफ मिला? ये सिर्फ एक सोच भर है और इंसाफ की जंग लड़नेवालों को भी लगता है कि मीडिया का उन्हें साथ मिला है, मीडिया उनका सहारा बना रहा है। गालिबन, ये दिल को बहलाने को एक अच्छा ख्याल  हो सकता है, लेकिन खबरों के प्रसारण का कोई ज्यादा दबाव मामलों के फैसलों पर पड़ता हो, ऐसा कम ही लगता है। मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, और टेलीविजन उसका सबसे सशक्त माध्यम है। ऐसे में पब्लिक से जुड़ी खबरें दिखाना तो उसका दायित्व है ही, उन खबरों पर पब्लिक की सोच सामने लाना भी उसकी जिम्मेदारी है। अब पब्लिक की सोच के बारे में तो क्या कहें- जितने मुंह उतनी बातें, हर तरह की सोच सामने आ सकती है, लेकिन कोई मुद्दा गरम हो, तो उसके खिलाफ बोलनेवाले भी कम ही मिलेंगे, क्य़ोंकि कैमरे पर दिखने से पहचान जाहिर होती है और उसके बाद ऐसे लोगों का निशाना बनने का खतरा रहता है, जो मुद्दे पर उससे अलग राय रखते हों। लेकिन मीडिय़ा की आजादी ने देश के टेलीविजन समाचार चैनलों को लोगों को सार्वजनिक महत्व के मामलों पर सूचित करने औऱ अपनी राय बनाने और पेश करने का मौका जरूर दिया है और यही वजह मानी जा सकती है कि किसी खबर की कवरेज इतनी बढ़ जाती है कि उसे ‘मीडिया ट्रायल’ मान लिया जाता है। एक तरह से देखें तो ‘मीडिया ट्रायल’ एक कानूनी जुमला है, जिसका मतलब प्रसारण के जरिए न्याय दिलाने की प्रक्रिया से है। व्यावहारिक तौर पर और वैधानिक तौर पर पीड़ित को न्याय दिलाना तो मीडिय़ा पर खबर दिखाकर असंभव है, क्योंकि मुकदमे का ‘ट्रायल’ कानूनी प्रक्रिया है और किसी को दोषी ठहराना, उसे सजा देना और किसी को बरी करना अदालतों का ही काम है। लेकिन ‘मीडिया ट्रायल’ के जुमले का इस्तेमाल ‘Fair trial’ के रास्ते में बाधा मानकर किसी भी खबर के मामले में कवरेज को सीमित करने के लिए किया जा सकता है। जिन मामलों को बेहद संवेदनशील माना जाता है, उनकी कवरेज पर मीडिया को संयमित रहने की सलाह दी जाती है। अदालतों में भी कई बार मीडिय़ा के प्रवेश पर पाबंदी लग जाती है क्य़ोंकि वहां से निकलनेवाली खबरों के सीधे प्रसारण से पब्लिक या पब्लिक की नुमाइंदगी करने का दावा करनेवाले संगठनों, पार्टियों गैरसरकारी संगठनों के कार्यकर्ताओं या किसी समुदाय विशेष की भावनाएं भड़कने का अंदेशा रहता है जिसकी प्रतिक्रिया हिंसा में तब्दील होने का खतरा बना होता है। इस दौरान आरोपियों, दोषियों, गवाहों और न्यायाधीशों पर भी खतरे का अंदेशा होता है, लिहाजा समाचारों के प्रसारण में संयम की अपील की जाती है और कई बार पाबंदियां भी अदालतों की ओर से लगा दी जाती है। ‘मीडिया ट्रायल’ के दायरे में अक्सर टेलीविजन पर प्रसारित होनेवाले ऐसे इंटरव्यू भी आते हैं, जिनमें पत्रकार या एंकर मामले से संबंधित पक्षों से सवाल-जवाब करते नजर आते हैं और कई बार ऐसे कठिन सवाल होते हैं, जिनका जवाब देना सामनेवालों के लिए मुमकिन नहीं होता, या जिनका कुछ जवाब उसके पास होता ही नहीं। ऐसे में मीडिया पर परेशान करने के आरोप लगते हैं। लेकिन, ये भी समझना चाहिए कि मीडिया, खासकर टेलीविजन ऐसे इंटरव्यूज़ के जरिए आरोपी पक्ष और बचाव पक्ष को अपनी बात कहने, अपने तर्क रखने का मौका भी तो देता है, जिसके जरिए आप अदालत में न सही, एक बड़े दर्शक वर्ग के सामने अपनी सफाई पेश कर सकें, अपनी बेगुनाही के सबूत एक पैसा खर्च किए बिना पेश कर सकें। चुंकि, टेलीविजन चैनल न्यायालय नहीं हैं, ना ही टेलीविजन के इंटरव्यू में कही गई बातों का मुकदमे की सुनवाई पर कोई असर पड़ता है, लिहाजा अपनी बात रखने के अलावा इसका कोई मतलब तो है नहीं, हां एक पक्ष को आत्मसंतुष्टि जरूर मिल सकती है। दिल्ली में दिसंबर 2012 में हुए वसंत विहार गैंग रेप केस के पीड़ित लड़के का इंटरव्यू जी न्यूज़ ने प्रसारित किया, जिस पर दिल्ली पुलिस ने सवाल भी उठाए। अदालत ने उसे सबूत के तौर पर पेश करने की इजाजत भी नहीं दी। ऐसे में निकला क्या- एक बात तो ये है कि पीड़ित को खुलकर अपनी बात पब्लिक के सामने रखने का मौका मिला; दूसरी बात, पब्लिक को ऐसे जघन्य मामले के पीड़ित से रू-ब-रू होने, उसका दर्द सुनने का मौका मिला, और तीसरी बात, इंटरव्यू प्रसारित करनेवाले चैनल को टीआरपी में जो फायदा हुआ हो सो अलग। सवाल है कि अगर उस इंटरव्यू के प्रसारण को ‘मीडिया ट्रायल’ के दायरे में रखें भी तो उसका असर क्या हुआ- सिफर! मामला अदालत में है, लंबा चलेगा, फिर बड़ी अदालतों में जाएगा और फिर जो भी नतीजा हो, उसमें जो वक्त लगना है, वो लगेगा, अदालत या अभियोजन पक्ष पर किसी तरह के दबाव की कोई बात नहीं। पीड़ित का दर्द सुनकर क्या लोगों की सोच बदली- ऐसा नहीं लगता। दिल्ली में रोजाना मासूमों से बलात्कार की घटनाएं हो ही रही हैं। एक जघन्य मामले की ज्यादा कवरेज से समाज के घृणित तत्वों की सोच तो बदली नहीं। रही बात पब्लिक की प्रतिक्रिया की, तो आंदोलन का जो जोश, जज्बा शुरुआती हफ्ते-10 दिन दिखा, वो वक्त के साथ ठंडा पड़ गया। बलात्कार मामलों की विशाल कवरेज से हालात में तो कोई बदलाव नहीं आया। हां थोड़े वक्त के लिए मामले से जुड़े चंद लोगों ने खुद पर दबाव महसूस किया होगा, लेकिन वो भी अगर अनुभवी होंगे, तो उन्हें पता होगा कि मीडिया कवरेज ये एक ऐसा बुलबुला है, जिसका फूटना तो तय ही है। यही वजह है कि टेलीविजन पर किसी मुद्दे की हद से ज्यादा चर्चा होने पर भी आजकल मामले से जुड़े अधिकारी और नेता इस्तीफा नहीं देते, बल्कि ठसक के साथ मना कर देते हैं। ऐसे में ‘मीडिया ट्रायल’ का क्या मतलब? देश में मीडिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, लेकिन संविधान की धारा 19 की उपधारा 2 के तहत प्रेस की आजादी खतरे में भी पड़ती दिखी है। सितंबर 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवई के दौरान मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी पर कोई रोक तो नहीं लगाई, लेकिन एक उपधारा के तहत इस पर कुछ सख्ती के संकेत जरूर दे दिए। इससे पहले भारतीय विधि आयोग ने भी मीडिया में खबरें दिखाए जाने और ‘मीडिया ट्रायल’ से जुड़ी 2006 की अपनी एक रिपोर्ट में प्रसारण और उसके असर से जुड़ी कई चिंताओं का जिक्र किया था-
“With the coming into being of the television and cable-channels, the amount of publicity which any crime or suspect or accused gets in the media has reached alarming proportions. Innocents may be condemned for no reason or those who are guilty may not get a fair trial or may get a higher sentence after trial than they deserved. There appears to be very little restraint in the media in so far as the administration of criminal justice is concerned. We are aware that in a democratic country like ours, freedom of expression is an important right but such aright is not absolute in as much as the Constitution itself, while it grants the freedom under Article 19(1)(a), permitted the legislature to impose reasonable restriction on the right, in the interests of various matters, one of which is the fair administration of justice as protected by the Contempt of Courts Act, 1971. …..If media exercises an unrestricted or rather unregulated freedom in publishing information about a criminal case and prejudices the mind of the public and those who are to adjudicate on the guilt of the accused and if it projects a suspect or an accused as if he has already been adjudged guilty well before the trial in court, there can be serious prejudice to the accused. In fact, even if ultimately the person is acquitted after the due process in courts, such an acquittal may not help the accused to rebuild his lost image in society. If excessive publicity in the media about a suspect or an accused before trial prejudices a fair trial or results in characterizing him as a person who had indeed committed the crime, it amounts to undue interference with the “administration of justice”, calling for proceedings for contempt of court against the media. Other issues about the privacy rights of individuals or defendants may also arise. “[1]
विधि आयोग की रिपोर्ट में जाहिर चिंताएं जायज हैं, लेकिन एक बात तो तय है कि अदालत का फैसला सर्वोपरि होता है, आप भले ही उससे असहमत हों, आपको ऊपरी अदालत में अपील का हक है, लेकिन बोलने की आजादी का ये मतलब नहीं कि आप अदालत की अवमानना करें। अदालत की अवमानना अक्सर तब मानी जाती है, जब किसी घटना की खबर को स्कैंडल के तौर पर दिखाया जाए, या फिर उसकी सुनवाई और इंसाफ की प्रक्रिया में बाधा पैदा की जाए या फिर किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त कवरेज बार-बार हो। मामले की किस तरह की कवरेज हो रही है और होनी चाहिए, ये तो कानूनी धाराओं के तहत तय करना अदालत का ही काम है। लेकिन जहां तक समाचार चैनलों की बात है, तो वो तो यही कहेंगे कि वो खबर दिखा रहे हैं और अदालत की अवमानना नहीं कर रहे। वास्तव में मामला जटिल है और बड़ा कठिन है ये तय करना कि कहां अदालत की अवमानना हो रही है और कहां नहीं हो रही है- सवाल तो ऐसे फैसलों पर भी उठ सकते हैं। ऐसे तमाम मामले सामने आए हैं, जब टेलीविजन पर अदालत का फैसला आने से पहले ही मामले की अति-करवेज और आरोपियों को दोषी करार देने की कोशिश के आरोप लगे हैं। ये भी आरोप लगे हैं कि कवरेज के जरिए मीडिय़ा अदालती सुनवाई को प्रभावित करता है। लेकिन ये आरोप सिर्फ आरोप ही है, क्योंकि व्यावहारिक तौर पर आधुनिक समाज में ये संभव नहीं लगता है कि कोई संगठन या प्रसारण अदालती कार्रवाई पर दबाव बनाए या उसे प्रभावित करे। ये बात और है कि मीडिया में किसी मुद्दे की चर्चा होती है तो आम जनता और समाज के तमाम पक्ष किसी मुद्दे पर क्या सोचते हैं, ये बात सामने आती है, लेकिन इसका मामले की जांच और अदालतों के फैसले पर कोई दबाव पड़े, ये जरूरी नहीं और पड़ना भी नहीं चाहिए। लेकिन मीडिया पर मुद्दे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने और तथ्यों से परे जाकर रिपोर्टिंग करने के आरोप लगते हैं और ये भी कहा जाता है कि इससे अभियोजन और न्याय प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है। विधि आयोग ने अपनी 2006 की रिपोर्ट में जो कुछ तर्क दिए थे, वो काफी मजबूत हैं, लेकिन साथ ही पुलिस, अभियोजन और प्रशासनिक प्रक्रिया पर भी सवाल खड़े करते हैं।
“The pressure on the police from media day by day builds up and reaches a stage where police feel compelled to say something or the other in public to protect their reputation. Sometimes when, under such pressure, police come forward with a story that they have nabbed a suspect and that he has confessed, the ‘Breaking News’ items start and few in the media appear to know that under the law, confession to police is not admissible in a criminal trial. Once the confession is published by both the police and the media, the suspect’s future is finished. When he retracts from the confession before the Magistrate, the public imagine that the person is a liar. The whole procedure of due process is thus getting distorted and confused. The media also creates other problems for witnesses. If the identity of witnesses is published, there is danger of the witnesses coming under pressure both from the accused or his associates as well as from the police. At the earliest stage, the witnesses want to retract and get out of the muddle.”[2]
मीडिया की कवरेज में खामियां हो सकती हैं, ये बात समझ में आती है, लेकिन, क्या पुलिस को उससे प्रभावित होना चाहिए, क्य़ा अदालतों पर उसका कोई असर पड़ना चाहिए? लोगों की सुरक्षा के लिए तैनात पुलिस और इंसाफ दिलाने के लिए बने न्याय के मंदिर क्या किसी ऐसे शख्स की छवि फिर से समाज में बना पाने में नाकाम रहेंगे, जिसका चरित्र हनन कथित तौर पर मीडिया ने किया हो? सरकार और प्रशासन और न्याय व्यवस्था यदि दोषी को सजा देने के लिए बने हैं, तो पीड़ित को उसका खोई हुई प्रतिष्ठा दिलाने में भी उनकी भूमिका होनी चाहिए। दरअसल आज के दौर में स्थिति बदलती नजर आ रही है और आम आदमी को मदद के लिए मीडिया का मुंह देखना पड रहा है, जिससे न तो पुलिस खुश रहती है, ना ही प्रशासन क्योंकि टेलीविजन में खबर आने पर उनकी नाकामियां ही उजागर होती हैं, तारीफ नहीं मिलती। इस मामले पर मशहूर टीवी पत्रकार आशुतोष ने अपने ब्लॉग में कुछ गलत नहीं लिखा है कि-
“मीडिया के कूदने के पहले आम नागरिक मुंह की खा चुका था। मीडिया ने उसे ताकत दी है। आम आदमी को एहसास हुआ कि अगर कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में उसकी गुहार नहीं सुनी जाती है, तब वह मीडिया के पास जा सकता है और इंसाफ पा सकता है। अब आम आदमी को इंसाफ कैसे मिलेगा? मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि मीडिया की ताकत से घबराकर ताकतवर तबकों ने मीडिया के खिलाफ मुहिम चला रखी है। आरोप यह है कि मीडिया ट्रायल अदालतों की कार्यवाही को प्रभावित कर रही है और इससे जजों पर दबाव पड़ता है। मेरा कहना है कि यह आरोप ही जजों की प्रतिबद्धता और उनकी गरिमा पर चोट करने वाला है, लेकिन क्या यह नहीं होना चाहिए कि इंसाफ के लिए किसी भी मामले की सुनवाई के समय एक ही मेधा और क्षमता के वकील हों?”[3]
ये कहना कतई सही नहीं होगा कि किसी मामले से जुड़ी खबरें दिखाने पर उस मामले से जुड़ी शख्सियतों की जरूरत से ज्यादा चर्चा होती है और उसका चरित्र हनन होता है, या उसे दोषी के रूप में पेश किया जाता है या फिर खबरों में होने की वजह से उसके मामले की सुनवाई पर असर पड़ता है, जिससे उसके मानवाधिकारों का हनन होता है। लोकतंत्र में न्यायपालिका इंसाफ करने और फैसले देने के लिए स्वतंत्र है।  लिहाजा उस पर विधायिका या मीडिया के किसी दबाव या किसी तरह के असर की तो बात ही बेमानी है।
आज के दौर में ये कहना भी गलत होगा कि टेलीविजन या मीडिया ने खुद को ‘जनता की अदालत’ के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की है, क्योंकि व्यावहारिक तौर पर इसका कोई मतलब नहीं, क्योंकि इसकी कोई वैधानिकता है ही नहीं, ना ही किसी को टेलीविजन प्रसारण से डरने की जरूरत होती है, लिहाजा ये नक्सलियों, माओवादियों या खाप-पंचायतों की ‘कंगारू अदालत’ भी तो नहीं है। तो सवाल है कि ‘मीडिय़ा ट्रायल’ का जुमला क्यों बार-बार इस्तेमाल होता है , खबरों को जोर-शोर से दिखाए जाने पर किसी एक पक्ष को डर क्यों लगता है? यहां ये तो जरूर मानना होगा कि टेलीविजन के जरिए जब कोई मामला खबर के रूप में चर्चा में आता है, तो उस पर न्यूटन के गति के तीसरे नियम के समान ‘प्रत्येक क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है’। यानी खबर सनसनीखेज है, तो समाज के लोग, या कोई वर्ग सक्रिय होता है, हल्ला-हंगामा होता है, आरोपियों पर कुछ कार्रवाई होती है, वो कानून के शिकंजे में आ जाते हैं। टेलीविजन पर जिन मामलों की खबरें नहीं आती हैं, उन्हें दबाने और रफा-दफा करने की कोशिश भी होती है- ऐसा अक्सर देखने को मिलता है क्योंकि जब तक किसी विपरीत प्रतिक्रिया का डर नहीं होता, तब तक पुलिस प्रशासन अपनी मनमानी पर चलता है। दिल्ली में वसंत विहार रेप केस के बाद हुए प्रदर्शनों के दौरान संसद मार्ग थाने में एक प्रदर्शनकारी लड़की से SHO की बदसलूकी और फिर गांधीनगर रेप केस के बाद थाने में एक प्रदर्शनकारी लड़की को ACP के थप्पड़ मारने के मामलों को लें, तो खबर दिखाए जाने और बार-बार दिखाए जाने पर आरोपियों के खिलाफ कुछ तो कार्रवाई हुई। अगर ये खबरें मीडिया में न आतीं, तो शायद पुलिस और निरंकुश बर्ताव करने पर आमादा हो जाती। टेलिविजन समाचारों में जो कुछ दिखाया जाता है उसकी पुष्टि कुछ मामलों को छोड़ दें, तो हमेशा तस्वीरों, वीडियो और साउंड बाइट्स से होती है, लिहाजा, सच हमेशा पब्लिक के सामने पर्दे पर होता है और ये गुंजाइश नहीं होती कि किसी को गलत तरीके से दोषी ठहराया जा रहा है। ऐसे में लंबी सुनवाई के बाद दोषी को दोषी ठहराने की प्रक्रिया की तो कोई जरूरत ही नहीं रह जाती, जब जो कुछ घटित हुआ उसमें किसका दोष है, ये सामने दिख रहा हो। हां, ऐसे मामलों में जहां अपराध साबित करने की प्रक्रिया जटिल हो, वहां जरूर किसी पर लगे आरोपों के बारे में खबर दिखाने पर सवाल उठाए जा सकते हैं, लेकिन ये तो परम सत्य है कि चिंगारी के बगैर आग नहीं लगती, तो अगर किसी शख्स का नाम किसी मामले में सामने आ रहा है तो वो कितना पाक-साफ है, ये साबित होने का इंतजार करना ही पड़ेगा और उस प्रक्रिया के पूरा होने तक आरोपी को इल्जामात के वार झेलने ही पड़ेंगे। ऐसे मामले भी सामने आते हैं जब किसी को गलत तरीके से फंसाया गया और उसे अंत तक इंसाफ नहीं मिला, तो उसे क्यों इंसाफ नहीं मिला और कानून की तराजू पर वो क्यों दोषी साबित किया गया, इसके पीछे तो खामियां कानूनी और जांच के स्तर पर हो सकती हैं, उसके मुद्दे को उठाने में टेलीविजन समाचार चैनलों की क्या गलती?
सवाल तो मीडिया या टेलीविजन समाचार चैनलों की ओऱ से खबरों की पड़ताल पर भी उठते हैं। ये सच है कि कोई टेलीविजन पत्रकार किसी डिटेक्टिव की तरह मौके पर जाकर छानबीन और पड़ताल तो करता नहीं, ज्यादा से ज्यादा मौका ए वारदात के चश्मदीदों की बाइट जुटा लेता है या फिर पुलिस और जांच एजेंसियों के अपने सूत्रों से कुछ ऐसे दस्तावेज जुटा लेता है जिससे खबर पर कुछ और रोशनी पड़ती है और किसी पक्ष के खिलाफ या किसी के हक में सबूत सामने आने लगते हैं। ऐसे में ये सवाल उठाना कि मीडिया की ओर से मामले की पड़ताल क्यों होती है, मेरी समझ से बिल्कुल गलत है क्योंकि वास्तव में आजकल मीडिया तो खुद छानबीन करता नहीं, वो तो पहले से निकाली गई चीजों और तथ्यों को किसी न किसी तरीके से सामने लाने का काम करता है। लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका ‘Watch Dog’ की तरह मानी गई है और टेलीविजन समाचार चैनल तो आज के दौर में इस भूमिका को बिलकुल सही तरीके से निभाते दिख रहे हैं, क्योंकि कैमरे से समाज की कोई बात छिपती नहीं और सच हर रोज सामने दिखता है। लिहाजा समाज में क्या चल रहा है वो सब दिखाना तो टेलीविजन समाचार चैनलों की जिम्मेदारी है। पब्लिक के विचारों और उनकी आवाज को सामने लाना भी इसका हिस्सा है, जो कई खबरों के मामलों में इतना तेज होकर उभरता है कि उससे प्रभावित होने वाले कई पक्षों को उसके विपरीत असर का भय सताने लगता है औऱ मुझे लगता है कि यही स्थिति ‘मीडिया ट्रायल’ का एक ऐसा आवरण खड़ा करती है, जिसका हव्वा खड़ा करके मुद्दे की ज्यादा चर्चा को रोका जा सके।
बहरहाल लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर क्षेत्र के रेगुलेशन, उसके कामकाज के तौर-तरीके और उसे कानूनी दायरे में रखने की प्रक्रिया है, चाहे वो कार्यपालिका हो, विधायिका हो, न्यायपालिका या मीडिया ही क्यों न हो। ऐसे में अगर ‘मीडिया ट्रायल’ जैसा कोई संकट व्यवस्था को लगता है, तो उस पर नियंत्रण, उसकी दिशा तय करने के लिए उपाय किए जा सकते हैं, उस पर भी बहस हो सकती है और अदालत या अदालत से बाहर ये बातें हो सकती हैं और होती भी हैं कि किस तरह की खबर को दिखाने और उस पर चर्चा का क्या तरीका होना चाहिए। कभी सरकार और सूचना और प्रसारण मंत्रालय, तो कभी खुद समाचार चैनलों के प्रसारकों की संस्थाएं IBF, NBSA, BEA तो कभी खुद अदालतों की ओर से ऐसे मुद्दों पर चर्चा होती रहती है। भारतीय़ विधि आयोग ने अगस्त 2006 में अपनी 200वीं रिपोर्ट में ‘मीडिया ट्रायल’ के मुद्दे पर चर्चा करते हुए पत्रकारों को खास ट्रेनिंग दिए जाने की जरूरत भी जताई थी-
“We have also recommended that journalists need to be trained in certain aspects of law relating to freedom of speech in Art. 9(1)(a) and the restrictions which are permissible under Art. 19(2) of the Constitution, human rights, law of defamation and contempt. We have also suggested that these subjects be included in the syllabus for journalism and special diploma or degree courses on journalism and law be started.”[4]

     ये बात सही है कि टेलीविजन पत्रकारों को अपराध और ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग के लिए सही तरीके से प्रशिक्षित करने की जरूरत है और और उन्हें इससे जुड़े कानूनी पहलुओं की जानकारी होनी चाहिए। संयमित रिपोर्टिंग और संयमित प्रसारण के लिए हरेक समाचार चैनल को अपने अंदरूनी नियम कायदे तय करने होंगे या फिर प्रसारक संस्थाओं से जुड़े संगठनों की ओर से इस सिलसिले में की गई पहल को कड़ाई से लागू करना होगा। लेकिन जहां तक खबरों को लंबे समय तक जिंदा रखने, उन पर पब्लिक की प्रतिक्रिया जाहिर करने जैसे मुद्दों की बात है, वहां रिपोर्टिंग को ‘मीडिया ट्रायल’  के दायरे में समेटना सही नहीं लगता। 20वीं सदी में चलन में आया ये जुमला अब काफी विस्तार ले चुका है और आम तौर पर किसी भी खबर के प्रसारण का असर दिखाने के रूप में इसे समझा जा रहा है, लेकिन इससे कोई अदालती फैसला प्रभावित हो, ऐसा नहीं होना चाहिए, क्योंकि इससे खुद न्यायिक प्रक्रिया पर सवाल खड़े होने लगते हैं। ऐक बात और है, वो ये कि हमारा समाज भी परिपक्व हो रहा है और टेलीविजन समाचार प्रसारण के अलावा मीडिया भी विस्तार ले रहा है। अब खबरों की ज्यादा चर्चा टेलीविजन के मुकाबले सोशल मीडिय़ा, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर हो रही है, और वहां पब्लिक ओपिनियन बनाने या उसे जोड़ने का काम ज्यादा आसानी से हो रहा है। ऐसे में टेलीविजन समाचार चैनलों पर मीडिया ट्रायल का दोष मढ़नेवालों को ये सोचना चाहिए कि आखिर कहां-कहां वो लोगों को खबरों से जुड़ने से रोक सकेंगे, कहां-कहां अभिव्यक्ति पर रोक लगेगी और कहां कहां इंसाफ के लिए सुनवाई नहीं होगी?

संतोष भारतीय का दो टूक

इंडिया न्यूज के क्षेत्रीय चैनलों(यूपी, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश ) पर हर शनिवार को एक शो प्रसारित होता है जिसका नाम है 'दो टूक'। इस विशेष शो का संचालन वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय करते हैं। इस शो में पिछले शनिवार को राम मंदिर विवाद पर विशेष कार्यक्रम प्रसारित किया गया और आने वाले शनिवार को भी राम मंदिर विवाद विषय पर ही शो प्रसारित होगा। इस प्रोग्राम के तहत राम मंदिर विवाद के तथ्यात्मक यथार्थ को उजागर करने का प्रयास किया गया है।
ये तो हम सभी जानते हैं कि 22 दिसंबर 1949 को बाबरी मस्जिद में रामलला प्रकट हुए थे और 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ढाह दी गई थी। राम लला के प्रकट होने से लेकर मस्जिद के ध्वंस होने के बीच सार्वजनिक रूप से जितनी भी घटनाएं घटी हैं उसके बारे में कमोवेश हम सब जानते हैं, लेकिन इस बीच पर्दे के पीछे भी कई घटनाएं हुई हैं जिसके बारे में हम सब अनभिज्ञ हैं।
लेकिन वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय ने अपने इस विशेष कार्यक्रम के तहत उन्हीं घटनाओं को भारतीय दर्शकों के सामने लाने का प्रयास किया है। इसके लिए इस बार भारतीय उन शख्सियत से बात करने वाले हैं जिनकी सूचनाओं पर देश के प्रधानमंत्री से लेकर विपक्ष के राजनेता, पत्रकार और एक्टिविस्ट भी निर्भर रहते आए हैं। वो शख्स है फैजाबाद से प्रकाशित होने वाले दैनिक जनमोर्चा के संपादक शीतला सिंह। शीतला सिंह ने अपनी जानकारी और अनुभवों के आधार पर राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद से संबंधित कई तथ्य भी उजागर कर चुके हैं, जो अधिकांश लोगों को मालूम तक नहीं है। अगर आप भी राम मंदिर विवाद के बारे में गहराई से जानना चाहते हैं तो अवश्य देखिये वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय का ‘दो टूक’। 


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और आतंकवाद / राम पुनियानी

आतंकवाद को एक भयावह घटना के साक्ष्य के रूप में देखा गया है। और खासकर आज के मौजूदा समय में। आतंकवाद क्या है, यह अपने आप में ही एक स्तर पर विवाद का विषय है और दूसरे स्तर पर आतंकवाद की परिभाषा व्यक्ति दर व्यक्ति, समूह दर समूह और देश दर देश बदलती रहती है।
कहा नहीं जा सकता कि आखिर अमेरिका स्थित आतंकवाद अनुसंधान केंद्र ने, जो कि इस विषय पर अमेरिकी थिंक टैंक (विचार-विश्लेषण समूह) है, इस मुद्दे को किस तरह से कसौटी पर कसा, लेकिन उसने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, जो कि भाजपा, विहिप, बजरंग दल आदि हिंदू संगठनों का पिता है, पर आतंकवादी संगठन का ठप्पा लगा दिया है।
संघ को विश्व के अन्य हिस्सों में बदनाम संगठनों जैसे अल कायदा, लश्कर-ए-तय्यबा, हमास आदि की श्रेणी में रखा गया है संघ की आतंकवादियों के बारे में परिभाषा और समझ को ...... नरेंद्र मोदी ने इस प्रकार व्याख्यायित किया : ‘‘सारे मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, किंतु सारे आतंकवादी मुसलमान है।’’ ऐसा कैसे हुआ कि मुसलमानों के खिलाफ आग उगलने वाले संगठन पर खुद ऐसा ठप्पा लग गया।
ऐसा लगता है कि आतंकवाद से संबंधित प्रचलित विभिन्न परिभाषाओं में से उस एक को इस केंद्र ने आधार बनाया है, जो कि राजनीतिक लक्ष्य प्राप्ति के लिए मासूम लोगों की जान लेता है। यह कहना जरूरी नहीं है कि इस परिभाषा में सामान्यतः सरकारें शामिल नहीं हैं। पिछले दिनों कुछ देशों को आतंकवादी कहा गया है और भारतीय जनता पार्टी अमेरिका से आग्रह करती रही है कि पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित किया जाए। कुछ देशों को अमेरिका ने खुद आतंकवादी देशों की सूची में डाला हुआ है। हम राज्य की हिंसा और उसके लक्ष्यों की यहां चर्चा नहीं करेंगे, जो कि काफी जटिल मामला है। हम आतंकवाद को परिभाषित करने वालों के पक्षपात पर भी बात नहीं करेंगे। सीमित रूप में हम ‘राजनीतिक लक्ष्यों के लिए मासूम लोगों की हत्या करने’ की परिभाषा पर बात करेंगे। हम यह देखने की कोशिश करेंगे कि अमेरिका स्थित इस केंद्र का मूल्यांकन सही है या नहीं।
यहां यह समझना आवश्यक है कि आतंकवाद लक्ष्य-विशेष वाले समूहों की विचारधारा से पैदा होता है। यह समझना और भी अहम है कि वे सभी, जो उस विचारधारा और लक्ष्य को निर्मित करते हैं, जो कि हिंसा की ओर ले जाती है, आतंकवादी है या वे ही असली आतंकवादी हैं। और यदि दोष का बंटवारा किया जाए तो जो तलवार, गोलियां या ए-के-47 का इस्तेमाल करते हैं या जो डब्लू.टी.सी पर विमान जा टकराते हैं या इसी तरह की अन्य कार्यवाई करते हैं, उन्हें ज़्यादा ज़िम्मेदार माना जाना चाहिए। निश्चय ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक कभी किसी को मारने के लिए व्यक्तिगत तौर पर हथियार नहीं उठायेंगे। यहां तक कि संघ की शाखाओं में प्रशिक्षण मात्र लाठी व डंडा चलाने के लिए दिया जाता है। हां, समय से ताल मिलाते हुए संघ की संतानों, बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी ने बंदूकों का प्रशिक्षण तथा विहिप ने त्रिशूल रूपी छुरों का हजारों की संख्या में वितरण करना शुरू कर दिया है, लेकिन संघ की शाखाओं में इस पर सख्त मनाही है। लाठी चलाने के अलावा प्रशिक्षण का दूसरा हिस्सा बौद्धिक है। यह प्रशिक्षण अल्पसंख्यकों के खिलाफ जहर उगलने, धर्मनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ नफरत फैलाने पर आधारित है। वह यहां तक कहता है कि हिंदुओं के इस देश में, अन्य यानी मुसलमान और ईसाई विदेशी हैं। इसके अलावा कम्युनिस्ट, मुसलमान और ईसाई हिंदू राष्ट्र के लिए आंतरिक खतरा हैं।
नफरत का जहर हर समुदाय के लिए बना-बनाया है। मुसलमानों की तुलना यवन सर्पों से की गयी है। प्रोफेसर बिपन चंद्रा, शाखा में प्रशिक्षण में क्या होता है, इसको सुनने का अपना अनुभव बताते हैं। रोज सुबह टहलते हुए उन्होंने शाखा में जाने वाले लड़कों को यह बतलाया जाते हुए सुना है कि मुसलमान सांप की तरह होते हैं। सपोले को मारना, सांप को मारने से आसान होता है। इस बौद्धिक अभ्यास का संदेश बिल्कुल साफ है। नफरत की यह प्रेरणा और पद्धति नाजी जर्मनी से लिए गए है।
संघ के सिद्धांतकार गोलवालकर ने इसको कुछ इस तरह से व्याख्यायित किया हैः ‘‘जर्मनों का नस्लीय गौरव आज जीवंत विषय बन गया है। देश की शुद्धता और संस्कृति को बचाए रखने के लिए जर्मनी ने सेमेटिक नस्लों-यहूदियों का, देश से सफाया कर दुनिया को स्तब्ध कर दिया है। यह राष्ट्र गौरव का चरम है। जर्मनी ने यह भी दिखला दिया है कि आधारभूत तरीके से भिन्न नस्लों का समिश्रण होकर एक होना असंभव है। हम हिंदुस्तानियों के लिए यह एक अच्छा पाठ है, जिसे हमें सीखना चाहिए और उसका फायदा उठाना चाहिए।’’
(एम.एस.गोलवलकर, वी एंड अवर नेशनहुड डिफांइड, नागपुर 1938, पृष्ठ-27)
कभी आश्चर्य होता है कि क्या वास्तव में आर.एस.एस इस पर विश्वास करता होगा। पर स्तब्ध करने वाली बात यह है कि संघ के एक वरिष्ठ सिद्धांतकार ने एक बातचीत के दौरान कहा कि अगर गांधी जैसा कद्दावर व्यक्ति ‘मुस्लिम समस्या’ को हल नहीं कर पाया तो आज के छुटभैये छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों से क्या होने वाला है! उसके अनुसार (और प्रत्यक्षतः संघ के अनुसार) इस समस्या का एक ही हल है, जो ‘अंतिम समाधान’ के रूप में जाना जाता है।  यह नफरत की विचारधारा है, जो बाल प्रशिक्षुओं के दिमाग में कूट-कूट कर डाल दी जाती है, और यही वह आधार है जिस पर सांप्रदायिक हिंसा की नींव पड़ती है। आर.एस.एस. की विचारधारा सबसे पहले जिस रूप में साकार हुई, वह थी गोडसे द्वारा गांधी की हत्या। जाहिर है कि संघ ने कभी भी इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया कि गोडसे आर.एस.एस प्रशिक्षित था और हिंदू महासभा में शामिल होने से पहले संघ का प्रचारक था। उसके भाई गोपाल गोडसे ने अपने अलग-अलग साक्षात्कारों में बार-बार कहा है कि उसने और नाथूराम ने संघ कभी नहीं छोड़ा था।
सांप्रदायिक हिंसा पर जांच आयोगों की अधिकतर रिपोर्टों (जस्टिस रेड्डी, वितयातिल, वेणुगोपाल, मदान आदि) में यह बात स्पष्ट रूप से सामने आयी है कि हर हिंसक वारदात में किसी ऐसे संगठन की भूमिका रही है जो या तो संघ से संबंधित था या फिर  किसी प्रचारक द्वारा चलाया जा रहा था। रणनीति एकदम साफ है। संघ स्वयं सेवकों को प्रशिक्षित करता है जो उसके काम को किसी अन्य संगठन से जुड़कर या कोई अलग संगठन बनाकर आगे बढ़ाते रहते  हैं। इस रणनीति का फायदा यह है कि दंगों का दोष सीधा संघ पर नहीं लग सकता।
यह बात याद करने लायक है कि 1937 के चुनाव में धर्म का वास्ता देकर भी चुनाव न जीत पाने के बाद मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा ने, दूसरे-से-नफरत-करो की अपनी मुहिम तेज कर दी थी। नफरत के ये जहरीले बीज इस दौरान सक्रिय रहे और इनमें 1980 के बाद फल लगने लगे। यह दूसरे-से-नफरत-करो की विचारधारा अलग-अलग कनवेयर बैल्टों से गुजरती है और इसका आखिरी पड़ाव वहां पड़ता है जहां भोले-भाले गरीब समुदाय नफरत की विचारधारा के नशे में धुत, जो कि इच्छित परिणाम के लिए धर्म की भाषा में लपेट कर पिलाई जाती है, हथियार उठा लेते हैं।
हर आतंकवादी संगठन का अपना ही एक एजेंडा होता है अल कायदा को सी.आई.ए. द्वारा वाया पाकिस्तान प्रशिक्षित किया गया ताकि वह अफगानिस्तान पर समाजवादी रूस के कब्जे को उखाड़ सके। तमिलों पर सिंहलियों के प्रभुत्व की प्रतिक्रिया लिट्टे के रूप में हमारे सामने है। खालिस्तान सिख समुदाय की आर्थिक और सांस्कृतिक आधार पर गहरी असंतुष्टि की प्रतिक्रिया था। उल्फा भी जातीय समस्या को असंवेदनशील तरीके से हल करने की अभिव्यक्ति है। संघ और लीग, विभाजन के पहले, सामंतवादी तत्वों के भय की अभिव्यक्ति थे। क्योंकि उन्हें लगता था कि आधुनिक शिक्षा, औद्योगिकरण, आजादी, समानता तथा भाईचारे के मूल्य, संघर्षरत जनता की मुख्य विचारधारा बनते जा रहे हैं, उनके मूल्य और मान्यताओं के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। दूसरे, मध्यवर्ग का यही डर, अस्तित्व को लेकर चिंता, संघ की राजनीति में एक निश्चित रूप ले चुकी है। और दलितों और महिलाओं का सामने आना स्वयं के लिए सामाजिक और लैंगिक न्याय की मांग करना है। गूढ़ सामाजिक एजेंडा कुछ  भी हो, संघ के काम के तौर तरीके और प्रणाली, विहिप, बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी जैसों को बढ़ावा देते हैं। संभवतः संघ की कार्यप्रणाली के गतिविज्ञान की इसी गहरी समझ के चलते इस अनुसंधान केंद्र ने उसे आतंकवादी संगठन बतलाया हो।
आर.एस.एस का प्रशिक्षण दुतरफा होता है। एक है शारीरिक, खेल वगैरह। दूसरा है बौद्धिक। यह जो दूसरा प्रशिक्षण है वह अपनी संतानों को प्रेरित करता है कि वे लोगों को हथियार उठाने को भड़काएं और ‘दूसरों’ यानी ‘दुश्मन’ को बेदर्दी से कत्ल करें। किसी भी हिंसा या दंगे की चीरफाड़ बहुत ही दिलचस्प और जटिल होती है। कैसे एक आम दलित, आदिवासी, खाली पेट और अनिश्चित भविष्य वाला मजदूर आर.एस.एस  के एजेंडे के सिपाही के रूप में परिवर्तित हो जाता है, यह ऐसा पेच है जिसे समाज-विज्ञानियों को समझना होगा। हो सकता है कि आर.एस.एस प्रचारक जब बैठकर धैर्यपूवर्क ‘हिंदू मूल्यों’, ‘हिंदू राष्ट’ª पर चर्चा कर रहा हो, तो आर.एस.एस विचारधारा जनसंख्या के एक हिस्से को मासूमों को मारने के लिए और हिंसा का तांडव मचाने के लिए अपनी गिरफ्त में ले रही हो। इससे संघ हिंदुओं के एक हिस्से को आर.एस.एस के साथ करने का राजनीतिक लक्ष्य तो प्राप्त होता ही है। यह उनकी सत्ता में वापसी या उसकी अपनी ताकत को और मजबूत करता है। जिस परिभाषा से हमने शुरू किया था वह थी सत्ता या राजनीतिक एजेंडा के लिए मासूमों की हत्या करना आतंकवाद है और आर.एस.एस का काम ठीक यही है।
कभी-कभार ऊपरी तौर पर उलझन पैदा कर सकता है कि जैसे ओसामा या विश्व के विभिन्न हिस्सों में एके-47 चलाने वाले आतंकवादियों के विपरीत आर.एस.एस के स्वयं सेवक चुप्पी की मूर्ति नजर आते हैं। और आर.एस.एस के अभियान का यह सबसे ज्यादा चातुर्य से भरा तथा धूर्ततापूर्ण हिस्सा है। स्वयं बिना हथियार उठाए अल्पसंख्यकों को पिटवाना तथा मरवाना और अपने लक्ष्य को पाना। हिंसा सामाजिक और मनोवैज्ञानिक चालबाजी के जरिए दूसरे लोगों के जिम्मे छोड़ दी जाती है। यूं समझिए कि एके-47 निशाना चूक सकता है किंतु आर.एस.एस द्वारा प्रचारित नफरत की विचारधारा द्वारा सक्रिय और जहर भरे गए दिमाग  कभी न कभी, कहीं न कहीं, हिंसक बनकर निकलेंगे ही, सवाल मात्रा समय का है। इस संगठन ने आतंकवादी लक्ष्यों के लिए बड़ी चालाकी से संस्कृति का एक झूठा लबादा धारण कर रखा है। यह आतंकवादी संगठन एक पत्थर से कई शिकार करता है, ये चिड़ियाएं हैं समाज के कमजोर वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय। यह ज़ाहिर है कि इस अनुसंधान केंद्र की सूची से आर.एस.एस के नाम को हटाए जाने के लिए काफी हो-हल्ला मचाया जाएगा पर भारत के अल्पसंख्यकों के बड़े हिस्से और समाज के कमजोर वर्गों के लिए आर.एस.एस की संस्कृति आतंकवाद ही है।
(‘समयांतर’से साभार)

रामकुमार कृषक


कपड़ा-लत्ता जूता-शूता जी-भर पास नहीं
भीतर आम नहीं हो पाता, बाहर ख़ास नहीं
जिए ज़माने भर की ख़ातिर, घर को भूल गए
उर-पुर की सीता पर रीझे, खीजे झूल गए
राजतिलक ठुकराया, भाया पर वनवास नहीं
भाड़ फोड़ने निकले इकले, हुए पजलने को
मिले कमेरे हाथ/ मिले पर खाली मलने को
धँसने को धरती है उड़ने को आकाश नहीं
औरों को दुख दिया नहीं, सुख पाते भी कैसे
कल परसों क्या यों जाएंगे, आए थे जैसे
गुज़रे बरसों-बरस, गुज़रते बारह मास नहीं ।



चूहा और मैं / हरिशंकर परसाई

चाहता तो लेख का शीर्षक ''मैं और चूहा'' रख सकता था। पर मेरा अहंकार इस चूहे ने नीचे कर दिया। जो मैं नहीं कर सकता, वह मेरे घर का यह चूहा कर लेता है। जो इस देश का सामान्‍य आदमी नहीं कर पाता, वह इस चूहे ने मेरे साथ करके बता दिया।

इस घर में एक मोटा चूहा है। जब छोटे भाई की पत्‍नी थी, तब घर में खाना बनता था। इस बीच पारिवारिक दुर्घटनाओं-बहनोई की मृत्‍यु आदि के कारण हम लोग बाहर रहे।
इस चूहे ने अपना अधिकार मान लिया था कि मुझे खाने को इसी घर में मिलेगा। ऐसा अधिकार आदमी भी अभी तक नहीं मान पाया। चूहे ने मान लिया है।
लगभग पैंतालिस दिन घर बन्‍द रहा। मैं तब अकेला लौटा। घर खोला, तो देखा कि चूहे ने काफी क्रॉकरी फर्श पर गिराकर फोड़ डाली है। वह खाने की तलाश में भड़भड़ाता होगा। क्रॉकरी और डिब्‍बों में खाना तलाशता होगा। उसे खाना नहीं मिलता होगा, तो वह पड़ोस में कहीं कुछ खा लेता होगा और जीवित रहता होगा। पर घर उसने नहीं छोड़ा। उसने इसी घर को अपना घर मान लिया था।
जब मैं घर में घुसा, बिजली जलाई तो मैंने देखा कि वह खुशी से चहकता हुआ यहाँ से वहाँ दौड़ रहा है। वह शायद समझ गया कि अब इस घर में खाना बनेगा, डिब्‍बे खुलेंगे और उसकी खुराक उसे मिलेगी।
दिन-भर वह आनन्‍द से सारे घर में घूमता रहा। मैं देख रहा था। उसके उल्‍लास से मुझे अच्‍छा ही लगा।
पर घर में खाना बनना शुरू नहीं हुआ। मैं अकेला था। बहन के यहाँ जो पास में ही रहती है, दोपहर को भोजन कर लेता। रात को देर से खाता हूँ, तो बहन डब्‍बा भेज देती। खाकर मैं डब्‍बा बन्‍द करके रख देता। चूहाराम निराश हो रहे थे। सोचते होंगे यह कैसा घर है। आदमी आ गया है। रोशनी भी है। पर खाना नहीं बनता। खाना बनता तो कुछ बिखरे दाने या रोटी के टुकड़े उसे मिल जाते।
मुझे एक नया अनुभव हुआ। रात को चूहा बार-बार आता और सिर की तरफ मच्‍छरदानी पर चढ़कर कुलबुलाता। रात में कई बार मेरी नींद टूटती मैं उसे भगाता। पर थोड़ी देर बाद वह फिर आ जाता और सिर के पास हलचल करने लगता।
वह भूखा था। मगर उसे सिर और पाँव की समझ कैसे आई? वह मेरे पाँवों की तरफ गड़बड़ नहीं करता था। सीधे सिर की तरफ आता और हलचल करने लगता। एक दिन वह मच्‍छरदानी में घुस गया।
मैं बड़ा परेशान। क्‍या करूँ? इसे मारूँ और यह किसी अलमारी के नीचे मर गया, तो सड़ेगा और सारा घर दुर्गन्‍ध से भर जाएगा। फिर भारी अलमारी हटाकर इसे निकालना पड़ेगा।
चूहा दिन-भर भड़भड़ाता और रात को मुझे तंग करता। मुझे नींद आती, मगर चूहाराम मेरे सिर के पास भड़भड़ाने लगते।
आखिर एक दिन मुझे समझ में आया कि चूहे को खाना चाहिए। उसने इस घर को अपना घर मान लिया है। वह अपने अधिकारों के प्रति सचेत है। वह रात को मेरे सिरहाने आकर शायद यह कहता है - ''क्‍यों, बे, तू आ गया है। भर-पेट खा रहा है, मगर मैं भूखा मर रहा हूँ मैं इस घर का सदस्‍य हूँ। मेरा भी हक है। मैं तेरी नींद हराम कर दूँगा। तब मैंने उसकी माँग पूरी करने की तरकीब‍ निकाली।''
रात को मैंने भोजन का डब्‍बा खोला, तो पापड़ के कुछ टुकड़े यहाँ-वहाँ डाल दिए। चूहा कहीं से निकला और एक टुकड़ा उठाकर अलमारी के नीचे बैठकर खाने लगा। भोजन पूरा करने के बाद मैंने रोटी के कुछ टुकड़े फर्श पर बिखरा दिए। सुबह देखा कि वह सब खा गया है।
एक‍ दिन बहन ने चावल के पापड़ भेजे। मैंने तीन-चार टुकड़े फर्श पर डाल दिए। चूहा आया, सूँघा और लौट गया। उसे चावल के पापड़ पसन्‍द नहीं। मैं चूहे की पसन्‍द से चमत्‍कृत रह गया। मैंने रोटी के कुछ टुकड़े डाल दिए। वह एक के बाद एक टुकड़ा लेकर जाने लगा।
अब यह रोजमर्रा का काम हो गया। मैं डब्‍बा खोला, तो चूहा निकलकर देखने लगता। मैं एक-दो टुकड़े डाल देता। वह उठाकर ले जाता। पर इतने से उसकी भूख शान्‍त नहीं होती थी। मैं भोजन करके रोटी के टुकड़े फर्श पर डाल देता। वह रात को उन्‍हें खा लेता और सो जाता।
इधर मैं भी चैन की नींद सोता। चूहा मेरे सिर के पास गड़बड़ नहीं करता।
फिर वह कहीं से अपने एक भाई को ले आया। कहा होगा, ''चल रे, मेरे साथ उस घर में। मैंने उस रोटीवाले को तंग करके, डरा के, खाना निकलवा लिया है। चल दोनों खाएँगे। उसका बाप हमें खाने को देगा। वरना हम उसकी नींद हराम कर देंगे। हमारा हक है।''
अब दोनों चूहाराम मजें में खा रहे हैं।
मगर मैं सोचता हूँ - आदमी क्‍या चूहे से भी बद्तर हो गया है? चूहा तो अपनी रोटी के हक के लिए मेरे सिर पर चढ़ जाता है, मेरी नींद हराम कर देता है।
इस देश का आदमी कब चूहे की तरह आचरण करेगा?

सफेद गुड़ / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

दुकान पर सफेद गुड़ रखा था। दुर्लभ था। उसे देखकर बार-बार उसके मुँह से पानी आ जाता था। आते-जाते वह ललचाई नजरों से गुड़ की ओर देखता, फिर मन मसोसकर रह जाता।
आखिरकार उसने हिम्मत की और घर जाकर माँ से कहा। माँ बैठी फटे कपड़े सिल रही थी। उसने आँख उठाकर कुछ देर दीन दृष्टि से उसकी ओर देखा, फिर ऊपर आसमान की ओर देखने लगी और बड़ी देर तक देखती रही। बोली कुछ नहीं। वह चुपचाप माँ के पास से चला गया। जब माँ के पास पैसे नहीं होते तो वह इसी तरह देखती थी। वह यह जानता था।
वह बहुत देर गुमसुम बैठा रहा, उसे अपने वे साथी याद आ रहे थे जो उसे चिढ़-चिढ़ाकर गुड़ खा रहे थे। ज्यों-ज्यों उसे उनकी याद आती, उसके भीतर गुड़ खाने की लालसा और तेज होती जाती। एकाध बार उसके मन में माँ के बटुए से पैसे चुराने का भी ख्याल आया। यह ख्याल आते ही वह अपने को धिक्कारने लगा और इस बुरे ख्याल के लिए ईश्वर से क्षमा माँगने लगा।
उसकी उम्र ग्यारह साल की थी। घर में माँ के सिवा कोई नहीं था। हालाँकि माँ कहती थी कि वे अकेले नहीं हैं, उनके साथ ईश्वर है। वह चूँकि माँ का कहना मानता था इसलिए उसकी यह बात भी मान लेता था। लेकिन ईश्वर के होने का उसे पता नहीं चलता था। माँ उसे तरह-तरह से ईश्वर के होने का यकीन दिलाती। जब वह बीमार होती, तकलीफ में कराहती तो ईश्वर का नाम लेती और जब अच्छी हो जाती तो ईश्वर को धन्यवाद देती। दोनों घंटों आँख बंद कर बैठते। बिना पूजा किए हुए वे खाना नहीं खाते। वह रोज सुबह-शाम अपनी छोटी-सी घंटी लेकर, पालथी मारकर संध्या करता। उसे संध्या के सारे मंत्र याद थे, उस समय से ही जब उसकी जबान तोतली थी। अब तो यह साफ बोलने लगा था।
वे एक छोटे-से कस्बे में रहते थे। माँ एक स्कूल में अध्यापिका थी। बचपन से ही वह ऐसी कहानियाँ माँ के सुनता था। जिनमें यह बताया जाता था कि ईश्वर अपने भक्तों का कितना ख्याल रखते हैं। और हर बार ऐसी कहानी सुनकर वह ईश्वर का सच्चा भक्त बनने की इच्छा से भर जाता। दूसरे भी उसके पीठ ठोंकते, और कहते, 'बड़ा शरीफ लड़का है। ईश्वर उसकी मदद करेगा।' वह भी जानता कि ईश्वर उसकी मदद करेगा। लेकिन कभी इसका कोई सबूत उसे नहीं मिला था।
उस दिन जब वह सफेद गुड़ खाने के लिए बेचैन था तब उसे ईश्वर याद आया। उसने खुद को धिक्कारा, उसे माँ से पैसे माँगकर माँ को दुखी नहीं करना चाहिए था। ईश्वर किस दिन के लिए है? ईश्वर का ख्याल आते ही वह खुश हो गया। उसके अंदर एक विचित्र-सा उत्साह आ गया। क्योंकि वह जनता था कि ईश्वर सबसे अधिक ताकतवर है। वह सब जगह है और सब कुछ कर सकता है। ऐसा कुछ भी नहीं जो वह न कर सके। तो क्या वह थोड़ा-सा गुड़ नहीं दिला सकता? उसे जो कि बचपन से ही उसकी पूजा करता आ रहा है और जिसने कभी कोई बुरा काम नहीं किया। कभी चोरी नहीं की, किसी को सताया नहीं। उसने सोचा और इस भाव से भर उठा कि ईश्वर जरूर उसे गुड़ देगा।
वह तेजी से उठा और घर के अकेले कोने में पूजा करने बैठ गया। तभी माँ ने आवाज दी, 'बेटा, पूजा से उठने के बाद बाजार से नमक ले आना।'
उसे लगा जैसे ईश्वर ने उसकी पुकार सुन ली है। वरना पूजा पर बैठते ही माँ उसे बाजार जाने को क्यों कहती। उसने ध्यान लगाकर पूजा की, फिर पैसे और झोला लेकर बाजार की ओर चल दिया।
घर से निकलते ही उसे खेत पार करने पड़ते थे, फिर गाँव की गली जो ईंटों की बनी हुई हुई थी, फिर बाजार की ओर चल दिया।
उस समय शाम हो गई थी। सूरज डूब रहा था। वह खेतों में चला जा रहा था, आँखें आधी बंद किए, ईश्वर पर ध्यान लगाए और संध्या के मंत्रो को बार-बार दोहराते हुए। उसे याद नहीं उसने कितनी देर में खेत पार किए, लेकिन जब वह गाँव की ईंटों की गली में आया तब सूरज डूब चुका था और अंधेरा छाने लगा था। लोग अपने-अपने घरों में थे। धुआँ उठ रहा था। चौपाए खामोश खड़े थे। नीम सर्दी के दिन थे।
उसने पूरी आँख खोलकर बाहर का कुछ भी देखने की कोशिश नहीं की। वह अपने भीतर देख रहा था जहाँ अँधेरे में एक झिलमिलाता प्रकाश था। ईश्वर का प्रकाश और उस प्रकाश के आगे वह आँखें बंद किए मंत्रपाठ कर रहा था।
अचानक उसे अजान की आवाज सुनाई दी। गाँव के सिरे पर एक छोटी-सी मस्जिद थी। उसने थोड़ी-सी आँखें खोलकर देखा। अँधेरा काफी गाढ़ा हो गया था। मस्जिद के एक कमरे बराबर दालान में लोग नमाज के लिए इकट्ठे होने लगे थे। उसके भीतर एक लहर-सी आई। उसके पैर ठिठक गए। आँखें पूरी बंद हो गईं। वह मन-ही-मन कह उठा, 'ईश्वर यदि तुम हो और सच्चे मन से तुम्हारी पूजा की है तो मुझे पैसे दो, यहीं इसी वक्त।'
वह वहीं गली में बैठ गया। उसने जमीन पर हाथ रखा। जमीन ठंडी थी। हाथों के नीचे कुछ चिकना-सा महसूस हुआ। उल्लास की बिजली-सी उसके शरीर में दौड़ गई। उसने आँखें खोलकर देखा। अँधेरे में उसकी हथेली में अठन्नी दमक रही थी। वह मन-ही-मन ईश्वर के चरणों में लोट गया। खुशी के समुद्र में झूलने लगा। उसने उस अठन्नी को बार-बार निहारा, चूमा, माथे से लगाया। क्योंकि वह एक अठन्नी ही नहीं था। उस गरीब पर ईश्वर की कृपा थी। उसकी सारी पूजा और सच्चाई का ईश्वर की ओर से इनाम था। ईश्वर जरूर है, उसका मन चिल्लाने लगा। भगवान मैं तुम्हारा बहुत छोटा-सा सेवक हूँ। मैं सारा जीवन तुम्हारी भक्ति करूँगा। मुझे कभी मत बिसराना। उलटे-सीधे शब्दों में उसने मन-ही-मन कहा और बाजार की तरफ दौड़ पड़ा। अठन्नी उसने जोर से हथेली में दबा रखी थी।
जब वह दुकान पर पहुँचा तो लालटेन जल चुकी थी। पंसारी उसके सामने हाथ जोड़े बैठा था। थोड़ी देर में उसने आँख खोली और पूछा, 'क्या चाहिए?'
उसने हथेली में चमकती अठन्नी देखी और बोला, 'आठ आने का सफेद गुड़।'
यह कहकर उसने गर्व से अठन्नी पंसारी की तरफ गद्दी पर फेंकी। पर यह गद्दी पर न गिर उसके सामने रखे धनिए के डिब्बे में गिर गई। पंसारी ने उसे डिब्बे में टटोला पर उसमें अठन्नी नहीं मिली। एक छोटा-सा खपड़ा (चिकना पत्थर) जरूर था जिसे पंसारी ने निकाल कर फेंक दिया।
उसका चेहरा एकदम से काला पड़ गया। सिर घूम गया। जैसे शरीर का खून निकाल गया हो। आँखें छलछला आईं।
'कहाँ गई अठन्नी!' पंसारी ने भी हैरत से कहा।
उसे लगा जैसे वह रो पड़ेगा। देखते-देखते सबसे ताकतवर ईश्वर की उसके सामने मौत हो गई थी। उसने मरे हाथों से जेब से पैसे निकाले, नमक लिया और जाने लगा।
दुकानदार ने उसे उदास देखकर कहा, 'गुड़ ले लो, पैसे फिर आ जाएँगे।'
'नहीं।' उसने कहा और रो पड़ा।
'अच्छा पैसे मत देना। मेरी ओर से थोड़ा-सा गुड़ ले लो।' दुकानदार ने प्यार से कहा और एक टुकड़ा तोड़कर उसे देने लगा। उसने मुँह फिरा लिया और चल दिया। उसने ईश्वर से माँगा था, दुकानदार से नहीं। दूसरों की दया उसे नहीं चाहिए।
लेकिन अब वह ईश्वर से कुछ नहीं माँगता।

वॉशिंगटन : कैपिटल हिल इन दिनों उजाड़ और भुतहा / ब्रजेश उपाध्याय

कैपिटल हिल इन दिनों उजाड़ और भुतहा नज़र आता है. एक तो चारों तरफ़ सूखे पत्तों की भरमार है, दूसरे इमारत की गुंबद में आई दरारों की मरम्मत के लिए जो उसके इर्द-गिर्द काली-काली लोहे की जालियां लिपटी हुई हैं उनसे एक अलग ही स्पेशल इफ़ेक्ट पैदा हो रहा है.
सांसद और सेनेटर भागे हुए हैं अपने-अपने इलाक़ों में जनता को डराने. आप सोचेंगे कि हैलोवीन का त्योहार है, डरने-डराने का मौसम है. इसमें बच्चे, बूढ़े और जवान तरह-तरह के मुखौटे लगाकर एक-दूसरे को डराते हैं तो सियासतदान क्यों पीछे रहें. लेकिन डराने से मेरा मतलब चुनाव प्रचार से था, यहां दोनों में बहुत ज़्यादा फ़र्क नहीं है. हैलोवीन में लोगों को डराने के लिए तरह-तरह के मुखौटों का इस्तेमाल होता है. डेमोक्रैट को वोट दोगे तो बंदूक रखने का हक़ छीन लेगा, रिपब्लिकन को जिताओगे तो अर्थव्यवस्था का कचूमर निकाल देगा.
ओबामा के हाथ मज़बूत करोगे तो मुसलमानों का राज हो जाएगा, मुझे वोट नहीं दोगे तो तुम्हारे घर में इस्लामिक स्टेट वाले घुस आएंगे, मेरे दोस्त का साथ नहीं दोगे तो तुम्हारी सारी नौकरियां भारत और चीन चली जाएंगी, वगैरह-वगैरह. सियासतदानों की ख़ासियत ये है कि उन्हें लोगों को डराने के लिए मुखौटे की ज़रूरत नहीं पड़ती या फिर जो चेहरा दिखता है हमें और आपको वो नैचुरल मुखौटा होता है. बेचारी मासूम अमरीकी जनता को तो डरने का बहाना चाहिए होता है. जिसने अच्छे से डराया, उससे चिपक लेती है. लेकिन अब सबसे बड़ा डर उनके लिए पैदा हो गया है ऐप्पल के सीईओ टिम कुक की वजह से. कुक साहब ने सरेआम ऐलान कर दिया है कि वो समलैंगिक हैं और ये भी कह दिया कि उनके लिए भगवान के हाथों से मिला हुआ ये सबसे बड़ा तोहफ़ा है.
इतने बड़े मुकाम पर पहुंचकर, 53 की उम्र में उन्होंने अपनी निजी ज़िंदगी और रुझान दुनिया के सामने क्यों खोल दिया, उस पर अभी अख़बारों के पन्ने रंगे जा रहे हैं और रंगे जाएंगे. लेकिन मैं तो सोच रहा हूं कि उन लाखों, करोड़ों अमरीकियों का क्या होगा जिनकी जान आईफ़ोन, आईपैड, मैक और आईपॉड में बसती है. हर नया मॉडल लॉन्च होते ही दुकानों के बाहर कतारें लग जाती हैं, डेटिंग, चैटिंग, नौकरी, बैंक, गाड़ी, घर सबकी चाभी तो आईफ़ोन में होती है यहां. कैसे काम चलेगा उनका आईफ़ोन के बगैर? आईफ़ोन में ही रहती है उनकी पर्सनल खिदमतगार सीरी. सीरी रास्ता बताओ, सीरी गाना लगाओ, सीरी मुझसे बातें करो, सीरी मुझे हंसाओ. अब क्या होगा?
अमरीका के 29 राज्यों में किसी भी महिला या पुरुष को फ़ौरन नौकरी से निकाला जा सकता है अगर ये पता चल जाए कि वो समलैंगिक हैं, कुछ साल पहले तक फ़ौज में भी यही हालत थी. ज़्यादातर चर्चों में पादरी उनकी शादी करवाने से इनकार कर देते हैं, बिज़नेस मीटिंग्स में कई बार उन्हें सामने नहीं भेजा जाता कि कहीं दूसरी पार्टी उनसे हाथ मिलाना नहीं पसंद करे. ऐसे में जब ये पता चला है टिम कुक समलैंगिक हैं तो उनके बनाए आईफ़ोन, आईपैड को कंज़रवेटिव अमरीका कैसे हाथ लगाएगा? धर्म भ्रष्ट होने का डर, अगली पीढ़ी के गुमराह होने का डर, चर्च का डर, समाज का डर -- कैसे उबरेगा अमरीका इससे.
अमरीका के अलावा मुझे चिंता सता रही है बाबा रामदेव की भी. उनके योगा क्लासेज़, उनकी अमृतवाणी आई-ट्यूंस पर भी हैं. बाबाजी तो समलैंगिकता को बीमारी मानते हैं. मुझे पूरा यकीन है वो आई-ट्यूंस से रिश्ता तोड़ लेंगे. आख़िर पूरी दुनिया की सेहत ठीक करने का उन्होंने बीड़ा उठाया है. हैलोवीन का डर तो एक-दो दिनों में खत्म हो जाएगा. लेकिन देखिए आईफ़ोन के डर से अमरीका कैसे उबरता है.
(बीबीसी हिंदी से साभार)

गोविंदा से नाराज़ है मीडिया

फ़िल्मी कार्यक्रमों में बेहद विलंब से आने के लिए मशहूर गोविंदा की आदत अब भी नहीं सुधरी है. गोविंदा अपने करियर के चरम पर नहीं है लेकिन उनकी लेट लतीफ़ी की आदत बदस्तूर जारी है. फ़िल्म 'हैप्पी एंडिंग' के हर प्रमोशनल कार्यक्रम में गोविंदा बेहद विलंब से पधार रहे हैं. बीते दिनों इस फ़िल्म के म्यूज़िक लॉन्च में मीडिया को सात बजे बुलाया गया. सैफ़ अली ख़ान, इलियाना डी क्रूज़ जैसे फ़िल्म के दूसरे सितारे समय पर पहुंचे लेकिन गोविंदा नदारद थे. वो कार्यक्रम में रात 11 बजे पहुंचे यानी चार घंटे देर से. यही नहीं कार्यक्रम के लिए सभी सितारों को मीडिया के सामने परफॉर्म भी करना था जिसके लिए शाम साढ़े चार बजे से रिहर्सल थी. उसमें भी गोविंदा का नामो-निशां नहीं था.

गिरगिट का सपना / मोहन राकेश


एक गिरगिट था। अच्‍छा, मोटा-ताजा। काफी हरे जंगल में रहता था। रहने के लिए एक घने पेड़ के नीचे अच्‍छी-सी जगह बना रखी थी उसने। खाने-पीने की कोई तकलीफ नहीं थी। आसपास जीव-जन्‍तु बहुत मिल जाते थे। फिर भी वह उदास रहता था। उसका ख्‍याल था कि उसे कुछ और होना चाहिए था। और हर चीज, हर जीव का अपना एक रंग था। पर उसका अपना कोई एक रंग था ही नहीं। थोड़ी देर पहले नीले थे, अब हरे हो गए। हरे से बैंगनी। बैंगनी से कत्‍थई। कत्‍थई से स्‍याह। यह भी कोई जिन्‍दगी थी! यह ठीक था कि इससे बचाव बहुत होता था। हर देखनेवाले को धोखा दिया जा सकता था। खतरे के वक्‍त जान बचाई जा सकती थी। शिकार की सुविधा भी इसी से थी। पर यह भी क्‍या कि अपनी कोई एक पहचान ही नहीं! सुबह उठे, तो कच्‍चे भुट्टे की तरह पीले और रात को सोए तो भुने शकरकन्‍द की तरह काले! हर दो घण्‍टे में खुद अपने ही लिए अजनबी!
उसे अपने सिवा हर एक से ईर्ष्‍या होती थी। पास के बिल में एक साँप था। ऐसा बढ़िया लहरिया था उसकी खाल पर कि देखकर मजा आ जाता था! आसपास के सब चूहे-चमगादड़ उससे खौफ खाते थे। वह खुद भी उसे देखते ही दुम दबाकर भागता था। या मिट्टी के रंग में मिट्टी होकर पड़ रहता था। उसका ज्‍यादातर मन यही करता था कि वह गिरगिट न होकर साँप होता, तो कितना अच्‍छा था! जब मन आया, पेट के बल रेंग लिए। जब मन आया, कुण्‍डली मारी और फन उठाकर सीधे हो गए।
एक रात जब वह सोया, तो उसे ठीक से नींद नहीं आई। दो-चार कीड़े ज्‍यादा निगल लेने से बदहजमी हो गई थी। नींद लाने के लिए वह कई तरह से सीधा-उलटा हुआ, पर नींद नहीं आई। आँखों को धोखा देने के लिए उसने रंग भी कई बदल लिए, पर कोई फायदा नहीं हुआ। हलकी-सी ऊँघ आती, पर फिर वही बेचैनी। आखिर वह पास की झाड़ी में जाकर नींद लाने की एक पत्‍ती निगल आया। उस पत्‍ती की सिफारिश उसके एक और गिरगिट दोस्‍त ने की थी। पत्‍ती खाने की देर थी कि उसका सिर भारी होने लगा। लगने लगा कि उसका शरीर जमीन के अन्‍दर धँसता जा रहा है। थोड़ी ही देर में उसे महसूस हुआ जैसे किसी ने उसे जिन्‍दा जमीन में गाड़ दिया हो। वह बहुत घबराया। यह उसने क्‍या किया कि दूसरे गिरगिट के कहने में आकर ख्‍याहमख्‍याह वह पत्‍ती खा ली। अब अगर वह जिन्‍दगी - भर जमीन के अन्‍दर ही दफन रहा तो?
वह अपने को झटककर बाहर निकलने के लिए जोर लगाने लगा। पहले तो उसे कामयाबी हासिल नहीं हुई। पर फिर लगा कि ऊपर जमीन पोली हो गई है और वह बाहर निकल आया है। ज्‍यों ही उसका सिर बाहर निकला और बाहर की हवा अन्‍दर गई, उसने एक और ही अजूबा देखा। उसका सिर गिरगिट के सिर जैसा ना होकर साँप के सिर जैसा था। वह पूरा जमीन से बाहर आ गया, पर साँप की तरह बल खाकर चलता हुआ। अपने शरीर पर नजर डाली, तो वही लहरिया नजर आया जो उसे पास वाले साँप के बदन पर था। उसने कुण्‍डली मारने की कोशिश की, तो कुण्‍डली लग गई। फन उठाना चाहा तो, फन उठ गया। वह हैरान भी हुआ और खुश भी। उसकी कामना पूरी हो गई थी। वह साँप बन गया था।
साँप बने हुए उसने आसपास के माहौल को देखा। सब चूहे-चमगादड़ उससे खौफ खाए हुए थे। यहाँ तक कि सामने के पेड़ का गिरगिट भी डर के मारे जल्‍दी-जल्‍दी रंग बदल रहा था। वह रेंगता हुआ उस इलाके से दूसरे इलाके की तरफ बढ़ गया। नीचे से जो पत्‍थर-काँटे चुभे, उनकी उसने परवाह नहीं की। नया-नया साँप बना था, सो इन सब चीजों को नजर-अन्‍दाज किया जा सकता था। पर थोड़ी दूर जाते-जाते सामने से एक नेवला उसे दबोचने के लिए लपका, तो उसने सतर्क होकर फन उठा लिया।
उस नेवले की शायद पड़ोस के साँप से पुरानी लड़ाई थी। साँप बने गिरगिट का मन हुआ‍ कि वह जल्‍दी से रंग बदले ले, पर अब रंग कैसे बदल सकता था? अपनी लहरिया खाल की सारी खूबसूरती उस वक्‍त उसे एक शिकंजे की तरह लगी। नेवला फुदकता हुआ बहुत पास आ गया था। उसकी आँखें एक चुनौती के साथ चमक रही थीं। गिरगिट आखिर था तो गिरगिट ही। वह सामना करने की जगह एक पेड़ के पीछे जा छिपा। उसकी आँखों में नेवले का रंग और आकार बसा था। कितना अच्‍छा होता अगर वह साँप न बनकर नेवला बन गया होता!
तभी उसका सिर फिर भारी होने लगा। नींद की पत्‍ती अपना रंग दिखा रही थी। थोड़ी देर में उसने पाया कि जिस्‍म में हवा भर जाने सह वह काफी फूल गया है। ऊपर तो गरदन निकल आई है और पीछे को झबरैली पूँछ। जब वह अपने को झटककर आगे बढ़ा, तो लहरिया साँप एक नेवले में बदल चुका था।
उसने आसपास नजर दौड़ाना शुरू किया कि अब कोई साँप नजर आए, तो उसे वह लपक ले। पर साँप वहाँ कोई था ही नहीं। कोई साँप निकलकर आए, इसके लिए उसने ऐसे ही उछलना-कूदना शूरू किया। कभी झाड़ियों में जाता, कभी बाहर आता। कभी सिर से जमीन को खोदने की कोशिश करता। एक बार जो वह जोर-से उछला तो पेड़ की टहनी पर टँग गया। टहनी का काँटा जिस्‍म में ऐसे गड़ गया कि न अब उछलने बने, न नीचे आते। आखिर जब बहुत परेशान हो गया, तो वह मनाने लगा कि क्‍यों उसने नेवला बनना चाहा। इससे तो अच्‍छा था कि पेड़ की टहनी बन गया होता। तब न रेंगने की जरूरत पड़ती, न उछलने-कूदने की। बस अपनी जगह उगे हैं और आराम से हवा में हिल रहे हैं।
नींद का एक और झोंका आया और उसने पाया कि सचमुच अब वह नेवला नहीं रहा, पेड़ की टहनी बन गया है। उसका मन मस्‍ती से भर गया। नीचे की जमीन से अब उसे कोई वास्‍ता नहीं था। वह जिन्‍दगी भर ऊपर ही ऊपर झूलता रह सकता था। उसे यह भी लगा जैसे उसके अन्‍दर से कुछ पत्तियाँ फूटने वाली हों। उसने सोचा कि अगर उसमें फूल भी निकलेगा, तो उसका क्‍या रंग होता? और क्‍या वह अपनी मर्जी से फूल का रंग बदल सकेगा?
पर तभी दो-तीन कौवे उस पर आ बैठे। एक न उस पर बीट कर दी, दूसरे ने उसे चोंच से कुरेदना शुरू किया। उसे बहुत तकलीफ हुई। उसे फिर अपनी गलती के लिए पश्‍चाताप हुआ। अगर वह टहनी की जगह कौवा बना होता तो कितना अच्‍छा था! जब चाहो, जिस टहनी पर जा बैठो, और जब चाहो, हवा में उड़ान भरने लगो!
अभी वह सोच ही रहा था कि कौवे उड़ खड़े हुए। पर उसने हैरान होकर देखा कि कौवों के साथ वह भी उसी तरह उड़ खड़ा हुआ है। अब जमीन के साथ-साथ आसमान भी उसके नीचे था। और वह ऊपर-ऊपर उड़ा जा रहा था। उसके पंख बहुत चमकीले थे। जब चाहो उन्‍हें झपकाने लगो, जब चाहे सीधे कर लो। उसने आसमान में कई चक्‍कर लगाए और खूब काँय-काँय की। पर तभी नजर पड़ी, नीचे खड़े कुछ लड़कों पर जो गुलेल हाथ में लिए उसे निशाना बना रहे थे। पास उड़ता हुआ एक कौवा निशाना बनकर नीचे गिर चुका था। उसने डरकर आँखें मूँद लीं। मन ही मन सोचा कि कितना अच्‍छा होता अगर वह कौवा न बनकर गिरगिट ही बना रहता।
पर जब काफी देर बाद भी गुलेल का पत्‍थर उसे नहीं लगा, तो उसने आँखें खोल लीं। वह अपनी उसी जगह पर था जहाँ सोया था। पंख-वंख अब गायब हो गए थे और वह वही गिरगिट का गिरगिट था। वही चूहे-चमगादड़ आसपास मण्‍डरा रहे थे और साँप अपने बिल से बाहर आ रहा था। उसने जल्‍दी से रंग बदला और दौड़कर उस गिरगिट की तलाश में हो लिया जिसने उसे नींद की पत्‍ती खाने की सलाह दी थी। मन में शुक्र भी मनाया कि अच्‍छा है वह गिरगिट की जगह और कुछ नहीं हुआ, वरना कैसे उस गलत सलाह देने वाले गिरगिट को गिरगिटी भाषा में मजा चखा पाता!

कला, युद्ध और फासीवाद / वाल्टर बेंजामिन

आधुनिक समाज में सर्वहारा वर्ग का बढ़ना और जनता का बढ़ना, दोनों एक ही प्रक्रिया के दो पहलू हैं। फासीवाद की कोशिश यही होती है कि जनता जिस संपत्ति ढाँचे को खत्‍म करने के लिए संघर्ष करती है, उसे बगैर कोई नुकसान पहुँचाते हुए उसी जनता में से नया श्रमजीवी वर्ग खड़ा किया जाए। फासीवाद को जनता के अधिकार दिलाने से नहीं, केवल उन्‍हें अपने विचार अभिव्‍यक्‍त करने का मौका देने से मतलब है। जनता को संपत्ति से नाता बदलने का अधिकार है; फासीवाद संपत्ति सँभालने के लिए उनके सामने सफाई पेश करना चाहता है। राजनीति में सौंदर्यबोधी तत्‍वों का आगमन इस फासीवाद का ही परिणाम है। एक तरफ जनता की उपेक्षा की जाती है उन्‍हें घुटने टेकने को विवश किया जाता है, तो दूसरी ओर कर्मकांडी मूल्‍यों को तय कर उनके उल्‍लंघन का मसला चलाया जाता है।
इस सौंदर्यबोध राजनीति का अंतिम लक्ष्‍य एक ही है - युद्ध... युद्ध और केवल युद्ध ही परंपरागत संपत्ति प्रणाली का सम्‍मान करते हुए एक बड़े स्‍तर पर जन आंदोलन का लक्ष्‍य निर्धारित कर सकता है। यह तकनीकी फार्मूला कुछ इस तरह है - केवल युद्ध के द्वारा ही यह संभव है कि वर्तमान सभी तकनीकी संसाधनों को जुटाया जाए और संपत्ति की वर्तमान व्‍यवस्‍था भी ज्‍यों की त्‍यों बनी रहे। यहाँ इथोपियन उपनिवेशीय युद्ध के घोषणा पत्र में मेरीनेती का विचार देना अप्रासंगिक न होगा -
''हम भविष्‍यवादी लोग सत्‍ताइस सालों से युद्ध को सौंदर्य विरोधी होने का खिताब देने का विरोध करते रहे हैं... हम तो कहते हैं.... युद्ध सुंदर है, क्‍योंकि यह गैस मास्‍क, मेगाफोन, फ्लेम थ्रोवर और छोटे टेंकों जैसी मशीनों पर मानव का प्रभुत्‍व स्‍थापित करता है। युद्ध सुंदर है, क्‍योंकि यह मानव शरीर के ठोस धातु में बदलने के स्वप्‍न की शुरुआत करता है। युद्ध सुंदर है, क्‍योंकि यह बंदूक की गोली, गोलाबारी, युद्धविराम, इज व सड़न का सम्मिलित स्‍वर संगीत है। युद्ध सुंदर है रेखागणित के कोणों से निर्मित उड़ानों की तरह क्‍योंकि यह नए वास्‍तुशिल्‍प रचता है - बड़े टेंकों की तरह जलते गाँवों से सर्पिलाकार ऊपर उठते धुएँ की तरह... और इसी तरह की तमाम चीजें यह रचता है। भविष्‍यवाद के कवि और कलाकार!... युद्ध सौंदर्यबोध के इन सिद्धांतों को याद रखना ताकि नए साहित्‍य और नई चित्रकला के प्रति तुम्‍हारे संघर्ष को उनके द्वारा रोशनी मिल सके।''
इस घोषणा-पत्र में साफगोई का गुण है। इस प्रतिपादन को द्वंद्ववाद में मानने वालों द्वारा मंजूर किए जाने की दरकार है। इनके लिए आज के युद्ध का सौंदर्यबोध इस प्रकार है : यदि उत्‍पादक शक्तियों के स्‍वाभाविक इस्‍तेमाल में संपत्ति प्रणाली से बाधा पहुँचती है, तो गति और ऊर्जा संसाधन बढ़ाने में तकनीकी साधनों की वृद्धि एक अस्‍वाभाविक इस्‍तेमाल पर जोर देगी और युद्ध में यही होता है। युद्ध से होने वाली तबाही इस बात का सबूत है कि समाज टेक्‍नॉलॉजी को एक साधन के रूप में स्‍वीकार करने लायक परिपक्‍व नहीं हुआ है और टेक्‍नॉलॉजी समाज की बुनियादी ताकतों के साथ चलने लायक विकसित भी नहीं हुई है। साम्राज्‍यवादी युद्ध की खौफनाक विशेषताएँ हमारे उत्‍पादन के विपुल साधनों और उनके अपर्याप्‍त प्रयोग के बीच की विसंगति को बयान करती है : - दूसरे शब्‍दों में बेरोजगारी और बाजार की कमी को दर्शाती है। साम्राज्‍यवादी युद्ध टेक्‍नॉलॉजी का एक विद्रोही रूप है जो ''मानवीय पदार्थ'' के रूप में अपनी खुराक जुटाता है क्‍योंकि टेक्‍नॉलॉजी को समाज ने उसका नैसर्गिक पदार्थ मुहैया नहीं कराया है। बाढ़ से भरी नदियों का पानी खाइयों में भेजने के बजाय समाज मनुष्‍यों की फौज को खाई में धकेल देता है, वह हवाई जहाजों से बीज गिराने की बजाए शहरों पर बम गिराता है और गैस युद्ध कौशल के जरिए एक नई तरह से युगांत होता है।
मेरिनेत्‍ती स्‍वीकार करते हैं कि हमारी ऐंद्रिक तुष्टि को टेक्‍नॉलॉजी ने बदल दिया है और युद्ध इस ऐंद्रिक परितोष के लिए जरूरी सौंदर्यबोध जुटाता है। यह कला का उपभोक्‍ताकरण है। होमेर के समय में मनुष्‍य ओलिंपियन देवताओं के चिंतन मनन का एक विषय था, आज वह स्‍वयं के लिए एक विषय है। इसका अपने आपसे बेगानापन इस हद तक पहुँच गया है कि वह अपने ही विनाश का अनुभव दूसरों की निगाहों से पाए गए कलात्‍मक आनंद की तरह ले रहा है। ये उस राजनीति की हालात है जिसे फासीवाद सौंदर्यबोध बता रहा है। साम्‍यवाद इसका प्रत्‍युत्‍तर कला के राजनीतिकरण द्वारा दे रहा है।
(अनुवाद - शशांक दुबे)