Friday 23 February 2018

आजकल तो सबसे ज्यादा कविता नहीं, चुटकले पढ़े जा रहे - नरेश सक्सेना

प्रतिष्ठित कवि नरेश सक्सेना कहते हैं- कविता के कम या अधिक पढ़े जाने के प्रश्न का जवाब हां या नहीं में नहीं दिया जा सकता क्योंकि हां और ना, दोनों जवाब सही हैं। इस पर लंबी बहस है, फिर कभी बात होगी। ध्यान देने की बातें और हैं। कविता, गीत जो है, सोचिए, छंद में कविता कौन लिखता है और कौन पढ़ता है, कौन लेखक है, कितने उसके पढ़ने वाले हैं? जब से कविता छंद से बाहर आ गई है, जितनी साहित्यिक पत्रिकाएं हैं, उनमें ज्यादातर में गीत न कहीं छपता है, न पढ़ी जाती हैं। सरिता, कादंबिनी आदि को छोड़कर, बहुत कम जगहें हैं, जहां ऐसी कविताएं छपती हैं। वैसे ऐसी पत्रिकाएं रह भी नहीं गई हैं, जो गीत-वीत छापती रही हैं। अब सोचिए कि जब गीत छपता नहीं तो पढ़ा कैसे जाए! मंच के एक कवि अपनी एक कविता चालीस साल से पढ़ रहे हैं, पढ़ते-पढ़ते बूढ़े हो चले, उस तरह के गीत अब छपते नहीं हैं। आज लिखे जाएं तो छापे नहीं जाते। छंदमुक्त कविताएं भी पढ़ी जाती हैं। अच्छी कविताएं कम संख्या में लिखी जाती हैं, उसके पाठक वही हैं, जो लिखते हैं, जो लेखक हैं। मुख्यतः ऐसी कविताओं के नॉन राइटर पाठक कम हैं, गिने-चुने। छंदमुक्त कविताएं भी ज्यादातर ठीक नहीं होतीं, इसलिए भी पाठक कम रह गए हैं। वह जमाना और था, जब मेरे गीत रंगीन पृष्ठों पर छपते थे, पूरे-पूरे पेज पर। जहां तक अच्छी कविता का प्रश्न है, अब छंद के बाहर ही अच्छी कविताएं लिखी जा रही हैं, फिर भी पूरा साहित्य मंगलेश डबराल या राजेश जोशी का खंगाल लेंगे तो दस-बीस ही अच्छी कविताएं पढ़ने को मिलेंगी। पढ़ी फिर भी कविता इसलिए ज्यादा जाती है कि वह फटाक से पढ़ ली जाती है। बाकी साहित्य की अपेक्षा कविता जल्दी पढ़ ली जाती है। यह आसान है। आसानी से पढ़ ली जाती है। कहानीकार भी कविता पढ़ लेता है, लेकिन हर कवि उतनी आसानी से कहानी पढ़ने के लिए स्वयं को सहजतः तैयार नहीं कर पाता है। जहां तक कविता के अच्छा या खराब होने की बात है, कविता होती है या नहीं होती है। वह आसान नहीं होती है- 'शेर अच्छा-बुरा नहीं होता, या तो होता है या नहीं होता।' ग़ज़लों में आजकल रिपिटीशन बहुत हो रहा है। नई बात कम होती है। छंद में वे ही कवि पढ़े जा रहे हैं, जो जैसे नीरज आदि, उनकी किताबें छपती भी हैं, बिकती भी है, बाकी किसकी छपती हैं, किसकी बिकती हैं! आजकल ज्यादादर कविता की किताबें अपने पैसे से छपवाई जा रही हैं। आजकल तो सबसे ज्यादा चुटकला पढ़ा जाता है, उसके बाद कविता का नंबर आता है।

वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी कहते हैं - जो कुछ लिखा जा रहा है, क्या वो सच है, जो कुछ पढ़ा जा रहा है क्या वो सच है? सच और झूठ की भीड़ में जाएंगे तो पता चलेगा कि सारे झूठ एक न एक दिन सच होना चाहते हैं। पहले भी जिन्हें हम काल्पनिक झूठ समझते थे, वे आज के यथार्थ बने हुए हैं। उसमें सहायक तत्व स्वयं मनुष्य है और विज्ञान है। इसलिए सबसे ज्यादा पढ़ा जाना और सबसे कम पढ़ा जाना महत्वपूर्ण नहीं होता, मेरी समझ से सबसे महत्वपूर्ण है किसी का पढ़ा जाना। आज जितनी चीजें सबसे ज्यादा पढ़ी जा रही हैं, क्या वही सफल मान ली जाएं। सवाल सफलता और असफलता का भी नहीं है, लेकिन उपयोगिता और उपादेयता का तो है। पहले भी कविता बहुत ज्यादा नहीं पढ़ी जाती रही है, और आज भी कविता बहुत ज्यादा नहीं पढ़ी जा रही है तो भी यह आश्चर्य होता है कि कविता खराब ही सही, इतनी ज्यादा क्यों लिखी जा रही है? कोई भी रचनात्मक विधा अगर अपने रचनाकारों को कम या ज्यादा मात्रा में पैदा करती है तो यह उस विधा का दोष या कमजोरी नहीं, बल्कि यह रचनाकार की अपनी सुविधा और अपने रुझान पर निर्भर करता है। स्वाद का भी कोई मानदंड नहीं बनाया जा सकता है, तो फिर साहित्य के रसास्वादन का मानदंड कैसे बनाया जाए। पढ़ने वालों की गिनती से साहित्य ऊंचा नहीं हो जाता है, न लिखने वालों की बढ़ी हुई तादाद से। हो सकता है कि कम ही बहुत ज्यादा लगने लगे। और ये भी संभव है कि बहुत ज्यादा कम दिखने लगे। जितनी भी जटिल प्रक्रिया और व्यापक अनुभव वाली चीजें होती हैं, उन्हें प्राप्त करने के लिए भी एक जटिल और व्यापक अनुभव चाहिए। जिस पाठक का जैसा स्वभाव, जैसी तितीक्षा होगी, उसे अपने स्वाद के अनुसार रचनात्मक संसार में जाने का अवसर मिलेगा। यह अलग बात है कि कितने कवि हैं, जो कविता जैसी कविता नहीं लिख रहे हैं बल्कि कुछ अलग ढंग की कविताएं लिख रहे हैं, और कितने लोग हैं, जो इस खूबी को जानते पहचानते और खोजते हैं। कविता कोई महामारी नहीं है, जिसकी चपेट में सब लोग आ जाएं।