Tuesday 2 July 2013

जुझारू पृष्ठों पर ‘आशा भरे अवसाद’


प्रणय कृष्ण

नेरुदा की कविताओं के अबतक के सबसे बेहतर अनुवाद हिंदी में लानेवाले कवि नीलाभ ने नेरुदा की लम्बी कविता ‘वह लकड़हारा जागे’ के बारे में लिखा है, “इस कविता का अंत उस आशा-भरे अवसाद में होता है, जो नेरुदा की अपनी खासियत है।” दरअसल, यह नेरुदा की ही नहीं, बल्कि 20वीं सदी में रचनारत ऐसे विश्वकवियों की एक खास विशेषता है जो तीसरी दुनिया के मुल्कों से आते थे और बेह्तर दुनिया के संघर्ष और स्वप्न को जीवित रखने के लिए अपनी मातृभाषाओं में कविताएं लिखते रहे। चूंकि वे जनसंघर्षों से जुडे़ कवि थे, लिहाजा उन संघर्षों के उतार-चढ़ाव, आशा-निराशा, सफलता-असफलता का उनकी कविता पर प्रभाव लाज़िमी था। ये कवि ऐसे थे जिन्हें बहुधा अपने वतन से बेदखल होना पडा, जेल की सज़ा काटनी पडी़, यातनाएं सहनी पडी और अपनों का बिछोह सहना पडा। वतनबदरी ने उन्हें दुनिया भर में साम्राज्यवाद, औपनिवेशि‍क उत्पीड़न, फासीवाद और तानाशाही के खिलाफ चलने वाली लडाइयों के साझेपन, बहिनापे और दर्द के आपसी रिश्ते़ की चेतना दी। वे खुद जिन देशों से आते थे, उनकी भौतिक, ऐतिहासिक, भू-राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों में समानता के भी तत्व थे, भिन्नता के भी। वे जिन जातीय काव्य-परंपराओं के वारिस थे, वे भी अलग- अलग थीं, लेकिन उनकी कविता में ‘आशा-भरे अवसाद’ के स्वर की समानता का सीधा सम्बन्ध उनकी जनांदोलनों से गहरी संलग्नता और बेहतर, सुंदर, आज़ाद दुनिया तथा मानव नियति के सरोकारों से है। जिन भौतिक और आध्यात्मिक सवालों से उनकी कविता रू-ब-रू है, उनका समाधान 20वीं सदी न दे सकी। वे सवाल भी ऐसे नहीं हैं जिनका हल आसान या समय के निश्‍चि‍त दायरे में अपरिवर्तनीय ढंग से संभव हो। इसी वजह से उनकी इतिहास-चेतना भी एक-रेखीय, परिणामवादी और निर्धारणवादी नहीं है।
इन कवियों में अवसाद मिलेगा, लेकिन निराशा नहीं। आज 21वीं सदी में हम इनकी ‘आशा भरे अवसाद’ की स्वर-भंगिमा से और भी ज़्यादा निकटता महसूस करते हैं क्योंकि आज के संघर्ष और ज़्यादा पेचीदा हैं, साम्राज्यवाद के पक्ष में झुके विश्‍व शक्ति-संतुलन का कोई प्रति-संतुलन मौजूद नहीं है, इसलिए कोई आसान हल भी हमारे सामने मौजूद नहीं हैं। ये कवि इतिहास की गति के बीच अपनी कविता को रखते हैं, इसलिए वे वर्तमान के संघर्षों के गर्भ में पल रही उम्मीदों के रचनाकार हैं, ज़िंदगी की रोज़-ब-रोज़ की जद्दोजहद से कटे किसी यूटोपिया के सर्जक नहीं हैं। वे आसान समाधानों और नुस्खों के कवि नहीं हैं। उन्हें अहसास है कि जिन संघर्षों में उनकी जनता और कविता मुब्तिला है, वे लम्बे चलनेवाले हैं, वे पस्तहिम्मती भी ला सकते हैं, लिहाजा उनकी कविता इस से आगाह करती है और नयी उम्मीद भरने के कर्तव्य का निर्वाह भी करती चलती है। नाज़िम हिकमत की एक मशहूर कविता का यह टुकडा़ देखें-
”मान लीजिए हम मोर्चे पर हैं
लड़ने लायक किसी चीज़ के लिए।
वहां पहले ही हमले में, उसी दिन
हम औंधे गिर सकते हैं, मुंह के बल,   मुर्दा।
हम जानते होंगे इसे एक अजीब गुस्से के साथ
फिर भी हम सोचते सोचते हलकान कर लेंगे खुद को
उस युद्ध के नतीजे की बाबत जो बरसों चल सकता है।
मान लीजिए हम जेल में हैं
और पचास की उम्र की लपेट में,
और लगाइये कि अभी अट्ठारह बरस बाकी हैं
लौह फाटकों के खुलने में।
हम फिर भी जिएंगे बाहर की दुनिया के साथ
इसके लोगों, पशुओं, संघर्षों और हवा के-
मेरा मतलब कि दीवारों के पार की दुनिया के साथ
मेरा मतलब,   कैसे भी कहीं भी हों हम
हमें यों जीना चाहिए जैसे हम कभी मरेंगे ही नहीं।”
( अनु. वीरेन डंगवाल, पहल पुस्तिका,   जनवरी-फरवरी, 1994, सं. ज्ञानरंजन)
फैज़ साहब का आखिरी कलाम जो हिंदीभाषि‍यों को एक गज़ल के रूप में उपलब्ध है, उसमें भी वह कहना नहीं भूलते कि उन्हें मालूम है कि ज़िंदगी की लडा़इयों में, खुशी और गम, उत्थान-पतन, जय-पराजय क्या है। लिहाजा सब सोच समझ कर ही उन्होंने एक शायर के रूप में उन्हें क्या करना है,   इसका चुनाव किया है। वह लिखते हैं -
”हम एक उम्र से वाकिफ हैं अब न समझाओ
के लुत्फ क्या है मेरे मेह्रबां सितम क्या है
करे न जग में अलाव तो शे’र किस मकसद
करे न शह्र में जल-थल तो चश्मे -नम क्या है।”
इतिहास की गहरी समझ,   ज़िंदगी के संघर्षों में पराजय और धक्कों के अहसास के बीच भी संघर्ष की अपरिहार्यता, उम्मीद का सृजन और अपने काम की, जनता के कवि के काम की अहमियत में यकीन इन कवियों को एक खास तरह के रिश्ते में बांधती है। फैज़ के समकालीन ऐसे विश्‍व-कवियों में नेरुदा (1904- 1973), हिकमत (1902-1963) और महमूद दरवेश (1941-2008) का नाम सबसे ऊपर लिक्खा हुआ है। फैज़ साहब का इन सबसे व्यक्तिगत ज़िंदगी में भी आत्मीयता का रिश्ता रहा। इन कवियों की एक विशेषता यह भी रही कि इन्होंने अपनी कविताओं का जो देश और काल रचा, वह साभ्यतिक था, एक पूरे महाद्वीप या उप-महाद्वीप की स्मृतियां और यथार्थ इनकी शायरी में मुखरित हुए। ये कवि किसी राष्ट्र-राज्य की चौहद्दी में बंधे कवि न थे क्योंकि राष्ट्र-राज्यों का उदय पूंजीवाद के साथ हुआ, जबकि ये कवि हक,   इंसाफ,   बराबरी और शांति के पक्ष में लिखते हुए पूंजी के युग में पैदा किए गए राज्य, समाज और संस्कृति के संस्थानों से पहले के ऐतिहासिक जन-जीवन, मिथकीय भाव- जगत,   साभ्यतिक अनुभूति की संरचनाओं को वर्तमान के मुक्ति-संग्राम के दृष्टिकोण और मानव-मुक्ति की भविष्य-दृष्टिं‍ के साथ काव्य में रूपांतरित और सम्प्रेषि‍त करते हैं। काव्य-दृष्टि-‍ की इस विराटता के चलते ही वे विशि‍ष्ट सभ्यताओं और काव्य-परंपराओं से आने के बाद भी विश्‍व-मानव की आकांक्षाओं और संवेदनाओं के वाहक हुए।
आज बहुप्रचारित और साम्राज्यवादियों द्वारा अमल में लाए जा रहे ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ का सिद्धांत इनकी कविताओं के सामने बालू की भीत सा लगता है, क्योंकि इनमें से हर कवि अपनी वि‍शि‍ष्ट   सभ्यता की अनुभूतियों की जटिल बुनावट के भीतर से सामान्य मानव-मुक्ति के स्वप्न और यथार्थ को उभार देता है। उपनिवेशवाद-विरोधी संस्कृति-कर्म की एक खास भंगिमा यह भी थी कि न केवल वर्तमान को, बल्कि इतिहास और स्मृति को भी साम्राज्य के कब्ज़े से छुडा़ लाया जाए। यह काम इन सभी उपनिवेशवाद-विरोधी शायरों ने बखूबी अंजाम दिया। फैज़ न केवल पूरे उप-महाद्वीप के शायर हैं, बल्कि इंडो-परशि‍यन काव्य-परंपरा के वारिस होने के चलते एक बडा़ सभ्यतागत घेरा अपने काव्य में बनाते हैं।
हिकमत को आटोमन साम्राज्य के भीतर समाहित शताब्दियों में विकसित अनेक कौमों की साझा संस्कृतिक विरासत मिली थी जो उनके काव्य में अपनी खास छटा लेकर आती है। हिकमत के पुरखों में तुर्की, पोलिश, जर्मन और काकेशस की आडिग जनजाति से आनेवाले लोग थे, लिहाजा पारिवारिक विरासत के लिहाज से भी वे कास्मोपालिटन थे।
महमूद दरवेश महज फिलिस्तीनी राष्ट्र   के नहीं, बल्कि उदात्त अरब अस्मिता के कवि थे और कविता भी उन्होंने अरबी भाषा में ही लिखी। नेरुदा इसीलिए महज अपने देश चिली के कवि नहीं, बल्कि सारा लैटिन अमरीका उनके काव्य की रंग-स्थली है। 1943 में नेरुदा ने पेरू की यात्रा की और शताब्दियों पहले लुप्त हो चुकी इंका सभ्यता के खंडहरों में घूमे। दो ऊंची पहाडियों के बीच स्थित इंका सभ्यता के प्रमुख नगर-केंद्र ‘माच्चू पिच्चू’ को उन्होंने देखा और अपनी महान कविता ‘माच्चू-पिच्चू के शि‍खर’ लिखी। इस खोए हुए पहाडी़ नगर की चढा़ई का वृतांत कविता में ऐसे ढलता है कि वह लैटिन अमरीकी के खोए हुए अतीत, उसके संघर्षों, उसके प्राकृतिक और मानवीय सौन्दर्य तथा उसकी स्मृतियों के संधान में तब्दील हो जाता है। कविता के अंत में नेरुदा शताब्दियों के मृतकों का अपनी वाणी में फिर से जन्म लेने का आह्वान करते हैं.-
“उठो जन्म लो, मेरे साथ, मेरे सहजात
………………………………………………………………
देखो मेरी ओर धरती की गहराइयों से
हरवाहे, जुलाहे, खामोश चरवाहेः
विघ्नहर्ता ऊंटों के पालकः
खतरनाक पाडों पर चढे़ हुए राजगीरः
एण्डीज़ के आंसुओं के कहारः
कुचली उंगलियों वाले मणिकारः
अंखुवाते बिरवों में लरज़ते किसानः
अपनी माटी में बिखरे कुम्हारः
इस नयी ज़िंदगी के प्याले तक लाओ
अपने पुराने दबे पडे़ दुख।
……………………………………………….
मैं आया हूं तुम्हारे निस्पंद मुखों की ओर से बोलने।’’
(पाब्लो नेरुदा, अनु. नीलाभ, माच्चू पिच्चू के शि‍खर, सदानीरा प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.68-69)
इन कवियों का काव्य रूमानी, आदर्शवादी मानवतावादी कवियों की तरह अमूर्त नहीं, बल्कि यथार्थ में गहरे धंस कर,   गहरे अर्थ में राजनीतिक और प्रतिबद्ध है। ये सभी कवि अपनी काव्य-यात्रा की शुरुआत से ही कम्यूनिस्ट न थे, बल्कि अपने काव्य की जो भूमिका इन्होंने चुनी, वह इन्हें कम्यूनिस्ट बनाने तक ले गई। इन कवियों ने कविता की ज़रूरत, उसकी ताकत और भूमिका को भी एक नई ज़मीन दी है। वास्तविक दुनिया की विभीषि‍काओं के बरखिलाफ कविता की काल्पनिक दुनिया में ज़िंदगी के अर्थ   को, उम्मीद को फिर से जगाना और पाना इन कवियों की खास भंगिमा है। इनकी जीवनगत परिस्थितियों ने भी कविता की इस खास भूमिका की खोज के लिए उन्हें प्रेरित किया।
महमूद दरवेश ने अपनी मृत्यु से एक साल पहले दिये गए एक साक्षात्कार में डालिया कार्पेल नामक पत्रकार के एक सवाल के जवाब में कहा था, ”जब उम्मीद न भी हो, हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम उसका आविष्कार और उसकी रचना करें। उम्मीद के बिना हम हार जाएंगे। उम्मीद ने सादगीभरी चीज़ों से उभरना चाहिये। प्रकृति की महिमा से, जीवन के सौन्दर्य से, उनकी नाज़ुकी से। केवल अपने मस्तिष्क को स्वस्थ रखने की ख़ातिर आप कभी-कभी ज़रूरी चीज़ों को भूल ही सकते हैं। इस समय उम्मीद के बारे में बात करना मुश्किल है। यह ऐसा लगेगा जैसे हम इतिहास और वर्तमान की अनदेखी कर रहे हैं। जैसे कि हम भविष्य को फ़िलहाल हो रही घटनाओं से काट कर देख रहे हैं। लेकिन जीवित रहने के लिए हमें बलपूर्वक उम्मीद का आविष्कार करना होगा।”( कबाडखाना ब्लाग से साभार)
जिस फिलिस्तीन के महमूद दरवेश राष्ट्र-कवि जैसे हैं, वह आजतक एक राष्ट्र बन नहीं पाया है। बेहथियार फिलिस्तीनी जनता, अपने अधिकांश ज़मीन से पूरी तरह बेदखल, अपने ही देश में शरणार्थी, महज जीवित रहने के लिए पूरी तरह से विदेशी सहायता पर निर्भर होने के बावजूद अपने अधिकार, इज़्ज़त और सम्प्रभुता के लिए एक असंभव सा युद्ध लड़ रही है। पिछले चार दशकों में फिलिस्तीनी संघर्ष आगे कम बढा़ है, उसे झटके ही ज़्यादा लगे हैं और शेष दुनिया मूक दर्शक बनी रही है।   फिलिस्तीनी मुक्ति-संघर्ष 1967 से ही जारी है। इस बीच फिलिस्तीनी अपनी लगभग   सारी ही ज़मीनें इस्राइल को हार चुके हैं और अब वे अलग-थलग, कटे-फटे ज़मीन के उन टुकड़ों पर जीवन बसर करते हैं जो चारों ओर से इस्राइली कब्ज़े वाले इलाकों से घिरे हुए हैं। इस पूरे इलाके पर अमरीका के समर्थन और शह पर इस्राइल ने जिस प्रकार के हमले, कब्ज़े और जनसंहार को अंजाम दिया है, उसकी तुलना अतीत की सिर्फ एक ही घटना से हो सकती है- वह है कोलम्बस के अमरीकी तट पर पहुंचने के बाद वहां चलाया गया कब्ज़ा और हत्या अभियान। ऐसे लहुलुहान मुल्क के कवि के पास उम्मीद की भला क्या वजह हो सकती थी? फिलस्तीनी आबादी न केवल विभाजित है,   बल्कि इन स्थितियों के बीच वहां लोकतंत्र और मानवाधिकार भी गिरावट पर है। बाहरी हमला और कब्ज़े तथा घेरेबंदी की स्थितियां भीतरी कलह को भी जन्म देती हैं और महमूद दरवेश ने अपने जीते जी गाज़ा में अल-फतह और हमास के बीच खूनी संघर्ष को देखा था।
बहुत पहले फ्रैंज़ फैनन ने औपनिवेशि‍क घेरेबंदी में जीनेवालों के आपसी कलह के बारे में स्थापना देते हुए लिखा था, “अपनी पूरी ताकत के साथ जब देशी लोग एक दूसरे के प्रति घृणा में कूद पड़ते हैं तो वे स्वयं को समझा रहे होते हैं कि उपनिवेशवाद अस्तित्व में नहीं है,   कि सब कुछ पहले जैसा ही है,   कि इतिहास जारी है। सामुदायिक संगठनों के स्तर पर हम परिवर्जन (या बचने) के सुपरिचित व्यवहार को देखते हैं, मानो आपसी खूनी लड़ाइयों ने उन्हें (वास्तविक बाधाओं) को नजरअंदाज करने और उपनिवेशवाद के खिलाफ अपरिहार्य सशस्त्र संघर्ष के चुनाव को टाल देने का मौका दे दिया हो। इस प्रकार सामूहिक आत्मविनाश उन तरीकों में से एक है जिनसे देशि‍यों की मांसपेशि‍यों का तनाव मुक्त होता है। इस तरह के व्यवहार खतरे की स्थिति में मृत्यु की प्रतिक्रिया है,   एक आत्मघाती व्यवहार …”
ज़रा सोचिए, कहां और कैसे आए ऐसी स्थितियों में उम्मीद ? लेकिन यहीं एक कवि अपनी कविता की ताकत पर भरोसा करता है, अपनी लहुलुहान मातृभूमि को कविता में निर्मित करता है और महज यथार्थ के नहीं, बल्कि कल्पना के तत्वों से उसकी कविता जनता के मुक्ति-संघर्ष में अपनी भूमिका निभाती है, एक पराजित जाति के लोग उस कविता में अपनी उम्मीद और सपनों को महफूज़ पाते हैं। इन पंक्तियों के लेखक ने खुद दिल्ली में वतनबदरी की हालत में रह रहे फिलिस्तीनी नौजवानों के कमरों में दरवेश की कविताओं के पोस्टर और किताबें देखी हैं। अपने पूर्वोक्त साक्षात्कार में दरवेश कहते हैं, ”मैं उपमाओं का कर्मचारी हूं, प्रतीकों का नहीं। मैं कविता की ताक़त पर भरोसा करता हूं, जो मुझे भविष्य को देखने और रोशनी की झलक को पहचानने की वजहें देती है। कविता एक असल हरामज़ादी हो सकती है। वह विकृति पैदा करती है। इस के पास अवास्तविक को वास्तविक में और वास्तविक को काल्पनिक में बदल देने की ताक़त होती है। इसके पास एक ऐसा संसार खड़ा कर सकने की ताक़त होती है जो उस संसार के बरख़िलाफ़ होता है जिसमें हम जीवित रहते हैं। मैं कविता को एक आध्यात्मिक औषधि की तरह देखता हूं। मैं शब्दों से वह रच सकता हूं जो मुझे वास्तविकता में नज़र नहीं आता। यह एक विराट भ्रम होती है लेकिन एक पॉज़िटिव भ्रम। मेरे पास अपनी या अपने मुल्क की ज़िन्दगी के अर्थ खोजने के लिए और कोई उपकरण नहीं। यह मेरी क्षमता के भीतर होता है कि मैं शब्दों के माध्यम से उन्हें सुन्दरता प्रदान कर सकूं और एक सुन्दर संसार का चित्र खींचूं और उनकी परिस्थिति को भी अभिव्यक्त कर सकूं। मैंने एक बार कहा था कि मैंने शब्दों की मदद से अपने देश और अपने लिए एक मातृभूमि का निर्माण किया था।”
जिन्हें ‘आशा-भरे अवसाद’ के इस द्वंद्वात्मक सौन्दर्य- विधान का अभ्यास नहीं है, वे या तो आशा देखते हैं या अवसाद और दोनों को अलगाकर अलग-अलग दिशाओं के निष्कंर्ष निकालते हैं। ऐसी ही स्थिति में फैज़ की जीवनीकार रूस की उर्दू विदुशी लुदमिला वासिलेवा खुद को पाती हैं। उनके द्वारा रूसी भाषा में लिखी फैज़ की बेहतरीन जीवनी 2002 में प्रकाशि‍त हुई। फिर 2007 में उसका परिवर्धित उर्दू संस्करण ‘परवरिश-ए-लौहो-क़लमः फैज़, हयात और तखलीक़ात’ नाम से प्रकाशि‍त हुई। अदीब खालिद ने इसकी समीक्षा ‘ऐनुअल आफ उर्दू स्टडीज़’ (खण्ड 23, 2008) में की है। उनके लिखे के मुताबिक जीवनीकार वासिलेवा यह मानती हैं कि ”वे राजनीतिक और सामाजिक मूल्य जो फैज़ के लिए प्राथमिक महत्व के थे, समय की कसौटी पर खरे नहीं उतरे।” ज़ाहिर है कि वासिलेवा रुस की हैं और सोवियत विघटन से उन्होंने बहुत से लोगों की तरह यह निष्कर्ष निकाला हो कि समाजवाद के पहले प्रयोग की विफलता समाजवाद मात्र की विफलता है,   तो कोई   आश्‍चर्य   की बात नहीं। मुश्किल तब आती है जब वे अपनी समझ को फैज़ की शायरी पर थोपती हैं। फैज़ सोवियत विघटन देखने को जीवित न थे। अदीब खालिद के साक्ष्य पर हमें ज्ञात होता है कि वासिलेवा फैज़ के आखीरी काव्य-संग्रहों- ‘मिरे दिल, मिरे मुसाफिर’ और ‘गुबारे- अय्याम’ में व्यक्त अवसाद की न केवल फैज़ के सोवियत संघ के प्रति संदेह के बतौर व्याख्या करती हैं, बल्कि इससे भी आगे बढ़कर वह इसमें उन उद्देश्यों और आदर्शों से भी फैज़ के मोहभंग को लक्षित करती है, जो उन्हें जीवनभर प्रिय रहे। फैज़ के इन दोनों संग्रहों में अवसाद वैसा ही है जैसा उनके पिछले संग्रहों में भी दिखाई पड़ता है, लेकिन एक उम्मीद बराबर साथ लगी रही है।
लुदमिला वासिलेवा को आखीरी संग्रहों में जो नाउम्मीदी और शुभहा दिखाई पड़ता है,   उसमें अफ्गानिस्तान पर सोवियत हमले की छाया देखना तो शायद उतनी दूर की कौडी़ नहीं है, लेकिन उदासी का यह गाढा़पन क्या सचमुच उन मूल्यों से फैज़ का मोहभंग है जो फैज़ को जीवनपर्यंत प्रिय रहे ? आइये देखें कि इन संग्रहों में व्याप्त उदासी के बीच कौन से मूल्य व्यक्त होते हैं। ‘मिरे दिल, मिरे मुसाफिर’ में एक नज़्म है ‘मंज़र’। यह दृष्य है आसमान का जिसमें समुद्र जैसा शोर है। बादलों के गड़गडा़ते हुए जहाज़ हैं,   नील में नहाती हुई अबाबील है,   तो कहीं चील गोते लगा रही है। हरकतों से भरा आसमान है और ‘एक बाज़ी में मसरूफ है हर कोई।’ लेकिन इस शोरगुल में कहीं ताकत की ज़ोर-आज़माइश नहीं है-
”कोई ताकत नहीं इसमें ज़ोर-आज़मा
कोई बेडा़ नहीं है किसी मुल्क का
इसकी तह में कोई आबदोज़ें नहीं
कोई राकट नहीं कोई तोपें नहीं
यं तो सारे अनासिर हैं यां ज़ोर में
अम्न कितना है इस बहरे-पुरशोर में।”
हरकतों से भरे, शोरगुल से भरे आसमान का चित्र यहां दुनिया में दो महाशक्तियों के बीच चल रही हथियारों की होड़, युद्ध की विभीषिका के भयानक चित्र के साथ जक्सटापोज़ किया गया है। दोनों जगह शोरगुल है, प्रकृति के दृष्य में पंचतत्वों का शोर है, जबकि महाशक्तियों की हथियारों की स्पर्धा में जहाज़ी बेडों, पनडुब्बियों, राकेटों और तोपों का। प्रकृति के दृष्य में शोर तो है, लेकिन शांति है और सौन्दर्य भी,   कोई किसी के खिलाफ युद्धरत नहीं है जबकि मानवीय दृष्य के शोरगुल में न शांति है न सौन्दर्य, बल्कि विनाश का ऐलान ही है सब ओर। जैसे बादलों से गड़गडा़ते आसमान का दृष्य है, वैसे ही अनेक दृष्य और भी हमें मिलते हैं जहां शोर तो होता है, लेकिन वह ताकतवरों का विनाशकारी शोर नहीं होता, जैसे कि खेल-कूद करते बच्चों का शोर। पहले हमने उद्धृत किया है महमूद दरवेश को जहां वे कहते हैं कि हमें नाउम्मीद समय में भी प्रकृति की महिमा से और जीवन के सौन्दर्य से उम्मीद रचनी चाहिए। फैज़ ने इस कविता में यही किया है। यह कविता विश्व-शांति के पक्ष में, मुल्कों के बीच आपसी युद्धों और हथियारों की होड़ के खिलाफ प्रकृति का एक दृष्य खडा़ करके पैदा की गई है। क्या विश्‍व-शांति वह मूल्य नहीं जो फैज़ को जीवन भर प्यारा रहा और जिसके पक्ष में वे शुरू से लिखते रहे? इसी संग्रह की एक कविता है ‘शाइर लोग’ जहां फैज़ एक बार फिर अपनी शायरी के सबसे बडे़ मूल्य ‘ऐहतिजाज़’ का, हाकिमों के खिलाफ मज़लूमों का पक्ष लेने के एवज़ में कुर्बानियां देने की शायराना रस्म की याद दिलाते हैं-
”जो भी रस्ता चुना उस पे चलते रहे
माल वाले हिकारत से तकते रहे
ता’न करते रहे हाथ मलते रहे
हमने उन पर किया हर्फे-हक़ संगज़न
जिन की हैबत से दुनिया लरजती रही
जिन पे आंसू बहाने को कोई न था
अपनी आंख उनके गम में बरसती रही
सबसे ओझल हुए हुक्मे हाकिम पे हम
कैदखाने सहे ताज़याने सहे
लोग सुनते रहे साज़े-दिल की सदा
अपने नग्में सलाखों से छनते रहे…”
क्या ये उस शायर का कलाम है जिस का अपने उद्देश्योंल और आदर्शों से मोहभंग हो गया है, जैसा लुदमिला चाहती हैं कि हम समझें? ज़रा देखिए कि ‘गुबारे-अय्याम’ में वे मौलाना हसरत मोहानी को कैसे याद करते हैं-
”मर जाएंगे ज़ालिम केः हिमायत न करेंगे
अहरार कभी तर्के-रवायत न करेंगे”
ज़ाहिर है कि आज़ादी, बराबरी और भाइचारे के इस शायर ने आखीर तक उस रवायत को तर्क नहीं किया जो इन मूल्यों के लिए प्राण न्यौछावर कर देनेवालों की रही है। याद आती है फैज़ की ही दस्ते-तहे-संग में संकलित वो महान गज़ल जिसका एक शेर यों है-
”करो कज ज़बीं पे सरे कफन, मिरे कातिलों को गुमां न हो
कि गुरूरे-इ’श्कल का बांकपन पसे-मर्ग हमने भुला दिया”
क्या ये पर्याप्त चेतावनी नहीं है उन तमाम समीक्षकों के लिए जो फैज़ के न रहने के बाद उन्हें उनके आदर्शों और मूल्यों से काट कर पढ़ना चाहते हैं, खासकर   आखीर की शायरी में। ‘शोपेन का नग्मा बजता है’ जैसी बेहद उदास नज़्म में भी आज़ादी के किए प्राण देनेवालों का गर्वमय ज़िक्र आता है-
”कुछ आज़ादी के मतवाले, जां कफ पे लिए मैदां में गए
हर सू दुश्मेन का नर्गा था,   कुछ बच निकले,   कुछ खेत रहे
आलम में उनका शोहरा है
शोपेन का नग्मा बजता है।’’
इन आखिर के संग्रहों में भी महज उदासी या फिर ‘आशा भरे अवसाद’ की ही शायरी नहीं है, बल्कि जोशीले आह्वान की भी नज़्में हैं। ‘आवाज़ें’ शीर्षक नज़्म का आखिरी हिस्सा है- ”निदा-ए-गैब” जो कि क्रमश: ‘ज़ालिम’ और ‘मज़लूम’ शीर्षक दो हिस्सों के बाद आता है। पहले दो हिस्सों में क्रमश: ज़ालिम की गर्वोक्तियां और मज़लूम के दर्द और गुस्से के बयान के बाद इस आखिरी हिस्से में ज़ालिमों को सीधी-सीधी चेतावनी दी गई है और क्रांतिकारी शक्तियों द्वारा इन्साफ का भय दिखाया गया है-
”हर इक उलिल-अम्र को सदा दो
कि अपनी फर्दे- अमल संभाले
उठेगा जब जस्मे-सरफरोशां
पड़ेंगे दारो-रसन के लाले
कोई न होगा कि जो बचा ले
जज़ा सज़ा सब यहीं पे होगी
यहीं अज़ाबो-सवाब होगा
यहीं से उट्ठेगा शोरे-महशर
यहीं पे रोज़े   हिसाब होगा।”
उसी ‘गुबारे-अय्याम’ में ‘एक तराना मुजाहिदीने-फलिस्तीन के लिए’ भी है, लडा़कों को जोश दिलाता हुआ-
”हम जीतेंगे
हक्का हम इक दिन जीतेंगे
बिल आखिर इक दिन जीतेंगे….’’
अगर इससे भी इत्मीनान न हो तो ‘गुबारे-अय्याम’ का वह अमर तराना तो ज़रूर ही उन लोगों को याद दिलाना होगा जो फैज़ के आखिरी संग्रहों में उनके जीवनपर्यंत प्रिय उद्देश्यों और आदर्शों से उनके मोहभंग का सिद्धांत प्रतिपादित कर रहे हैं। ‘तराना-2’ की इस उम्मीद को वे कैसे परिभाषि‍त करेंगे, जहां शायर को यकीन है उस दिन का जब ‘सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे’-
उट्ठेगा ‘अनहलक’ का नारा-
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज करेगी खल्के-खुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो’
यूं लुदमिला अकेली सिद्धांतकार नहीं हैं इस तथाकथित ‘मोहभंग’ की। समीक्षक   अदीब खालिद भी जीवनीकार से सहमत दिखाई देते हैं और उन्हें भी लगता है कि   आखीर के इन संग्रहों की नज़्में जो उन्होंने निर्वासन में लिखीं, उनमें समाजवादी मूल्यों से मोहभंग के साथ-साथ उनका अपना वतन उनकी शायरी के केंद्र में आ जाता है। इसी लिए अपना आत्मनिर्वासन खत्म कर वे मौत से पहले 1983 में अपने वतन वापस लौट आए। इशारा यह है कि तीसरी दुनिया की एकता या अंतरराष्ट्रीयवाद, दुनिया के मज़दूरों और मज़लूमों की एकता के आदर्शों की जगह अब वे अपने वतन को ही केंद्रित करना चाहते हैं शायरी में। अगर ऐसा है तो फिर उसी ‘मिरे दिल, मिरे मुसाफिर’ में फिलिस्तीन के लिए नज़्में क्यों हैं ? फिलिस्तीन के जो योद्धा परदेश में शहीद हुए, उनके लिए लिखते हुए फैज़ ‘उत्तम पुरुष’ में लिखते हैं, मानो कवि का वतन वही है जो उन शहीदों का और शायर उनका अपना हमवतन है-
”मैं जहां पर भी गया अर्ज़े-वतन
तेरी तज़लील के दागों की जलन दिल में लिए
तेरी हुर्मत के चरागों की लगन दिल में लिए
तेरी उल्फत, तेरी यादों की कसक साथ गई”
इन पंक्तियों का दर्द जितना फिलिस्तीन के परदेस में मारे गए योद्धाओं का है, उतना ही वतनबदर शायर फैज़ का भी,   दर्द के रिश्ते में वतनियत के आधार पर कोई तक़सीम नहीं है। बहरहाल, जहां जीवनीकार ने एक ही झटके में फैज़ को समाजवाद, बराबरी,   न्याय, स्वतंत्रता, विश्‍व-बंधुत्व जैसे उन मूल्यों से अलगाया जो फैज़ को जान से ज़्यादा प्यारे थे, वहीं जीवनी के समीक्षक ने उन्हें पूरी दुनिया में सरमायादारी और साम्राज्यवाद के खिलाफ मेहनतकशों की एकता के शायर के ओहदे से उतार कर ‘राष्ट्रवाद’ की तंग सरहदों में उनकी शायरी को कैद करने की दिशा ली। वतन कब फैज़ की शायरी में नहीं रहा ? क्या उनका ऐसा भी कोई संग्रह है जिसमें अपने वतन के मेहनतकशों और आम लोगों की खुदमुख्तारी, बराबरी और आज़ादी की चाहत के तराने न हों,   हाकिमों के खिलाफ प्रतिरोध के स्वर में एक प्रतिरोधी राष्ट्रीय भावना न हो, अवाम की बदहाली के शोकगीत न हों ? फैज़ अपने देश के तानाशाहों से लड़ते रहे और कभी भी उनके ‘जंगजू’ राष्ट्रवाद के साथ खडे़ नहीं हुए। वे शुरू से उस वतन के दर्द के गीत गाते रहे जिसे ज़ालिम रौंद रहे थे। उनका राष्ट्रवाद अगर कुछ था, तो ऐजाज़ अहमद के शब्दों में ‘गमज़दा’ राष्ट्रवाद ही था,   शुरू से आखीर तक। देश की सत्ता और सम्पत्ति पर मेहनतकशों का कब्ज़ा हो, भविष्य के इसी राष्ट्र के वे शायर थे, जिससे उन्हें कोई देशनिकाला नहीं दे सकता था। ऐसा ही मेहनतकशों का राष्ट्र दुनिया के मेहनतकशों से एका कायम कर सकता है और विश्‍व-मैत्री भी। इसीलिए फैज़ प्रचलित अर्थों में जिसे राष्ट्रवाद कहा जाता है, वैसे राष्ट्रवादी न थे। वतन तो हरदम उनकी शायरी के केंद्र में था- वह वतन जो पहले एक था और उनके जीवनकाल में ही तीन हिस्सों में बंटा। जब उन्होंने ‘सुबहे-आज़ादी’ लिखी थी, तब भी न उसमें अवसाद कम था और न ही उम्मीद का दामन छूटा था। उस नज़्म के आखीर में वो कौन सी मंज़िल है जिसतक पहुंचने की उम्मीद में वे कह रहे हैं कि, ‘चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई?’ बांग्लादेश के अलग हो जाने के बाद ‘ढाका से वापसी’ शीर्षक नज़्म में भी इस बात का ही दर्द उभरा है कि कैसे जो कौमें एकसाथ रहीं सदियों तक,   वे अचानक ऐसी अजनबी हो गईं एक-दूसरे के लिए कि सारी मेहमाननवाज़ी के बाद भी, अजनबियत है कि मिटती ही नहीं।
दरअसल सरमायादार और ज़मींदारी की ताकतें जब राष्ट्र की कमान सम्भाल लेती हैं, तो वे बंटवारे को ही लगातार बढा़ती जाती हैं। एक कौम को दूसरे के खिलाफ खडा़ करके, भाषा, धर्म, जाति के झगड़ों को उकसाकर वे मेहनतकशों की एकता को कमज़ोर करती हैं और खुद को सत्ता में महफूज़ रखती हैं। अक्सर ऐसे निज़ाम ये सब कुछ वतन, देश या राष्ट्र के नाम पर करते हैं। वे खुद को देश घोषि‍त करते हैं और अपने ज़ुल्मों के खिलाफ लड़नेवालों को देश-विरोधी। हर थोडे़-थोडे़ वक्त बाद उन्हें ‘देश पर खतरे’ के बादल मंडराते दिखते हैं और फिर वे देश की रक्षा में किसी न किसी क्षेत्रीय, धार्मिक, भाषाई या उप-राष्ट्रीय समुदाय पर लाव-लश्ककर लेकर टूट पड़ते हैं। धीरे-धीरे दिलों के घाव वतन की तक्सीम में बदल जाते हैं। फैज़ ने ये सब अपने देश और पूरे उपमहाद्वीप में देखा था और इसके दर्द को अपने स्नायुओं पर झेला था। किसी अदीब ने ही मज़ाक में कहा था कि पाकिस्तान की फौजें हर कुछ साल बाद अपने ही देश को फतह कर लेती हैं। ‘देश पर खतरे’ से निपटने के लिए फौजी तानाशाहियां स्थापित होती हैं जिन्हें बरकरार रखने के लिए अक्सर ‘धर्म पर खतरे’ का आविष्कार किया जाता है। फैज़ ने सरमायादारों, फौजी तानाशाहों और जागीरदारों की कथित वतनियत के शि‍कार उस लहुलुहान वतन को पुकारा है अपनी शायरी में जिसके आंसू पोंछनेवाला कोई न था। वतन ऐसे ही आता है फैज़ के यहां- दुख की गाथा के रूप में,   इंसाफ की चीख के बतौर, प्यार के पैगाम के बतौर। ‘हम लोग’( नक्शे-फरियादी), ‘निसार मैं तेरी गलियों पे’ (दस्ते-सबा), ‘खुशा ज़मानते-गम’(दस्ते तहे-संग), ‘इंतिसाब’, ‘ऐ वतन, ऐ वतन’, ‘दुआ’(सरे-वादिए-सीना), ‘हम तो मजबूरे वफा हैं’( मिरे दिल, मिरे मुसाफिर) जैसी नज़्मौं में ऐसा ही वतन आबाद है।
मेहनतकश अवाम से अलग वतन का कोई तसव्वुर उनके पास न था। ‘तराना’(दस्ते-सबा), ‘तराना-1’ (सरे-वादिए-सीना) और ‘तराना-2’( गुबारे-अय्याम) मेहनतकशों और आम अवाम की इंकलाबी कार्रवाइयों के गीत हैं। अपने वतन के मेहनतकशों का दर्द, आम लोगों की तक्लीफों और आकांक्षाओं ने ही उन्हें दुनिया भर की संघर्षरत अवाम के साथ जोड़ दिया था। दरअसल उनके आखीरी दो संग्रहों को केंद्र करके लुदमिला वासिलेवा और अदीब खालिद द्वारा निकाले गए निष्कर्षों   को ऐहतेजाज़ की विश्‍व-शायरी के महान-स्तंभ के रूप में फैज़ को दरकिनार कर किसी देश और भाषा की चौहद्दी में सीमित एक सौन्दर्यवादी शायर के रूप में दोबारा कैननाइज़ करने के आरम्भिक प्रयासों के बतौर ही समझा जाना चाहिए।
हमारे यहां गोपीचंद नारंग ने अल्थ्यूसर, मार्ले पोंटी और रोला बार्थ के कुछ पाठीय उपकरणों/सिद्धांतों को जोड़-जाड़ कर फ़ैज़ के पाठ की एक ऐसी वैकल्पिक पद्धति का प्रस्ताव किया है जिसमें पंक्तियों/शब्दों के बीच की जगह/अंतराल और ख़ामोशियों के माध्यम से उनकी शायरी के गहरे, अचेतन,   सौन्दर्यात्मक अर्थों की अनेक पर्तों को खंगालने की सलाह दी गई है, जो कि उनके अनुसार सामने की वैचारिक सतह के नीचे दब गई है। नारंग का अभिप्राय यह है कि इस पाठ पद्धति के जरिए अर्थ के दबे हुए संस्तर शायर के क्रांतिकारी उद्देश्यों की बाहरी सतह को तोड़कर उभर आते हैं। ऐसा नहीं कि फैज़ की शायरी का ही सौन्दर्यवादी पाठ प्रस्तावित किया जा रहा है। तमाम इंकलाबी अदीबों के साथ यह नियमित तौर पर घटनेवाली चीज़ है। अदीब ही क्यों, क्रांतिकारी योद्धाओं और यहां तक कि आंदोलनों के साथ भी ऐसा होता है। सबसे बडा़ प्रमाण तो चे-ग्वेवारा हैं, जिनकी हत्या के बाद उन्हें उत्तरी अमरीका में बाज़ार की ताकतों ने बेपरवाह अमरीकी किशोरों और युवाओं के फैशन आइकन में बदल दिया। यह प्रतीकों की राजनीति है जो संकेत-तंत्रों के भीतर वर्गीय शक्ति-संतुलन का विस्तार है। हम देखते हैं कि कैसे जन- आंदोलनों को कुचलने के बाद जनता के बीच उनकी पवित्र स्मृति की ताकत को दुहने के लिए शासक जमातें उनके प्रतीकों,   नारों वगैरह को उनकी अंतर्वस्तु से विरहित कर आत्मसात कर लिया करती हैं। जब व्यक्ति या आंदोलन सत्ताधारियों के लिए खतरे का सबब नहीं रह जाते,   तो प्रतीकों में ढालकर सत्ता-प्रतिष्ठांन में उनकी वापसी होती है। इस तरह सता इस बात की भी गारंटी करने की कोशि‍श करती है कि उनकी स्मृति का ऐसा विरुपण हो जाए कि वह भविष्य के संघर्षों   की प्रेरणा न बन सके,   ये अलग बात है कि ऐसे हर प्रयास कामयाब ही नहीं होते।
हमारे देश के साम्राज्यपरस्त हुक्मरान किसानों की आत्महत्याओं के बीच चैन की बंसी बजाते हुए उस 1857 की डेढ़ सौवीं वर्षगांठ भी मना डालते हैं जिसमें लाखों किसान अंग्रेज़ों से लड़कर शहीद हुए थे। सन् 2009 में तुर्की सरकार ने नाज़िम हिकमत की मौत के 46 साल बाद उनकी नागरिकता लौटा दी। अपने जीवन काल में हिकमत जिस देश में कम्यूनिस्ट होने के चलते जेल में रखे गए, अपराधी बताए गए, यातनाएं झेलते रहे, आज वहीं जनता में उनकी अपार लोकप्रियता और इज़्ज़त के जज़्बे को अपने पक्ष में मोड़ने की खातिर हुक्मरान उनकी नागरिकता वापस   कर रहे हैं।
यह सच है कि ‘मिरे दिल, मिरे मुसाफिर’ में उदासी का रंग गाढा़ है, लेकिन उसका सबब भी उसी में बयान होता है। पाकिस्तान में फौजी हुकूमत के चलते वतनबदर होना, फिलिस्तीन के मुक्ति-संघर्ष की तमाम शहादतों के बावजूद जीत न मिलना, मध्य-पूर्व का जलते रहना,   दुनिया में युद्धों का सिलसिला खत्म न होना,   अणुबमों से लैस महाशक्तियों   की अंतहीन स्पर्धा और जिस उप-महाद्वीप के वे शायर थे वहां परिवर्तन की रफ्तार का बेहद कम होना और बार-बार ज़ुल्म और तानाशाही के निज़ाम की ओर प्रत्यावर्तन, ऐसे तमाम कारण थे। ‘मिरे दिल, मिरे मुसाफिर’ की पहली ही नज़्म ‘दिले-मन मुसाफिरे-मन’ बार-बार वतनबदर होने के गहरे अवसाद में लिखी गई है-
”मिरे दिल, मिरे मुसाफिर
हुआ फिर से हुक्म सादिर
कि वतन बदर हों हम तुम
दें गली गली सदाएं
करें रुख नगर नगर का
कि सुराग कोई पाएं
किसी यार-ए-नामा-बर का
हर एक अजनबी से पूछें
जो पता था अपने घर का……”
ये पूरी नज़्म गालिब के रंग में ही नहीं, बल्कि उनके अदाज़े-बयां, उनकी दर-बदर भटकती आत्मा के गहरे अवसाद की शायरी से एक उपमहाद्वीपीय, शायराना रवायत का सम्बंध बनाकर लिखी गई है-
”तुम्हें क्या कहूं कि क्या है
शब-ए-गम बुरी बला है
हमें ये भी था गनीमत
जो कोई शुमार होता
”हमें क्या बुरा था मरना
अगर एक बार होता”
दरअसल वतन से अलग होना फैज़ के लिए अपनी हस्ती से, अपने वजूद से अलग होना है, वर्ना गालिब क्यों याद आते? वे तो वतन से बदर न हुए थे। गालिब अलग हुए थे उस दुनिया से जो उनके वजूद को अर्थ देती थी, जिसमें उनकी मुहब्बत थी, जिसमें वो सब कुछ था जो वे खुद थे। नामाबर की तलाश गालिब को रहा करती थी ताकि वे उससे सम्पर्क कर सकें जो अपना था,   पर छूट चुका है। वतन का छूटना, कू-ए-जाना का छूटना, अपनी हस्ती को अर्थ देनेवाली तमाम चीज़ों, परिस्थितियों और इंसानों का छूटना एक ही तरह की दर्द की तीव्रता पैदा करती है जिसके चलते फैज़ अपने पुर्खे गालिब की आवाज़ में अपनी आवाज़ मिला देते हैं।
एलियट मानते थे कि किसी शायर के कलाम में उसके पुर्खों की आवाज़ भी मिली होती है, ये अलग बात है कि ऐसा जदीद शायरी में कम, तरक्कीपसंदों में ज़्यादा देखने में आता है। ‘आज शब कोई नहीं’ या ‘मेरे मिलने वाले’ जैसी नज़्मों की उदासी को लक्ष्य करके जो लोग फैज़ के मोहभंग का मिथक रचते हैं, उन्हें नहीं मालूम कि वे क्या कह रहे हैं। वे फैज़ को समझ नहीं पाते क्योंकि वे उस ज्ञान-मीमांसा से ही इत्तेफाक नहीं रखते जो बगैर शामिल हुए जानने का दावा नहीं करती। फैज़ ‘इनसाडर’ थे, वे आंदोलन के शायर थे, बाहर से बैठ कर उसपर निर्णय सुनाने वालों में नहीं थे। ‘गुबारे-अय्याम’ की पहली नज़्म ‘तुम ही कहो क्या करना है’ पढ़कर बाहर बैठे लोगों को भरम हो सकता है कि शायर को अपने उद्देश्यों और आदर्शों को लेकर शुभहा हो गया है। लेकिन दरअसल यह शायर का वहम नहीं, बल्कि उन लोगों का है जिन्होंने अगर ज़ालिम का साथ न भी दिया हो तो भी हरदम किनारे पर बैठकर आन्दोलनों की उठती गिरती मौजों पर फैसले सुनाते आए हैं। ‘तुम ही कहो क्या करना है’   शीर्षक नज़्म में कवि मंज़िल पर पहुंच पाने की विफलता की बात करता है,   उसके कारण भी बताता है, लेकिन कहीं भी ये अफसोस ज़ाहिर नहीं करता कि मंज़िल चुनी ही गलत थी या कोई और रास्ते भी मौजूद थे जिनपर न चलने की गलती की गयी। शायर का कहना है कि जिस मर्ज़ का इलाज किया जाना था, वो इतना पुराना था कि वैद्यों के सारे आज़माए हुए नुस्खे बेकार गए। इस नज़्म का अर्थ उन लोगों के लिए बिलकुल अलग है जो किसी आंदोलन का हिस्सा हैं, ‘इनसाइर’ है। नज़्म की शुरुआती पंक्तियां देखें-
‘जब दुख की नदिया में हमने
जीवन की नांव डाली है
था कितना कस-बल बाहों में
लोहू में कितनी लाली थी
यूं लगता था दो हाथ लगे
और नाव पूरम्पार लगी
ऐसा न हुआ, हर धारे में
कुछ अनदेखी मझधारें थीं
कुछ मांझी थे अनजान बहुत
कुछ बेपरखी पतवारें थीं
अब जो भी चाहो छान करो
अब जितने चाहो दोष धरो
नदिया तो वही है, नाव वही
अब तुम ही कहो क्या करना है
अब केसे पार उतरना है।”
पहली छह पंक्तियों में विफलता का, संघर्ष शुरू होने के समय के उत्साह के आगे चलकर छीजने का बयान है। लेकिन इसके आगे विफलता के कारणों का बयान है जो बाहरी भी हैं और भीतरी भी। जो लोग जन-आंदोलनों के हिस्सेदार हैं, वे ही समझ सकते हैं कि कैसे ‘हर धारे में कुछ अनदेखी मझधाएं हुआ करती हैं’, बिलकुल नयी परिस्थितियां जिनका पहले से कोई अनुमान संभव ही नहीं होता। अगर सब पहले से मालुम हो तो इतिहास और गणित में फर्क ही क्यों हो। ये तो हुईं वे भौतिक परिस्थितियां जो किसी भी आंदोलन या संघर्ष के दौरान बडी़ रुकावट बन कर खड़ी हो जाती हैं, जिनका पहले से अनुमान लगाना मुश्किल हुआ करता है। (क्या रूसी क्रांति के बाद या आज भी 21वीं सदी में लैटिन अमरीकी देशों और पडो़सी नेपाल के क्रांतिकारियों का अनुभव ‘हर धारे में, अनदेखी मझधारों’ की तस्दीक नहीं करता?)। दूसरी ओर आत्मगत परिस्थितियां हैं- संघर्ष चला रहे लोगों की कमज़ोरियां, अदूरदर्शिता (कुछ मांझी थे अनजान बहुत) और काम-काज के तरीकों, लडा़ई के अस्त्रों की गड़बडियां ( कुछ बेपरखी पतवारें थीं)। इन्हें रेखांकित करने के बाद, शायर ज़ोर देकर कहता है कि चाहे जितनी भी छानबीन कर लो, चाहे जिसको दोष दे डालो, और कोई नई बात इसमें से नहीं निकलेगी। ज़ोर देने के लिए जो शब्द शायर इस्तेमाल करता है, वह है ‘भी’ ( अब जो भी चाहे छान करो)। आगे जब वो कहता है कि ‘नदिया तो वही है, नाव वही’ तो अपनी तरफ से बातों को बिलकुल साफ कर देता है। नदिया (लोगों के दुख, नाइंसाफी, गैर-बराबरी, अशांति, भूख, गरीबी आदि) भी वही है और नाव (यानी खुद का जीवन, उसके अहसास, तजर्बे, ज्ञान और जिसकी बदौलत संघर्ष के वैचारिक तंत्र, संगठन आदि का चुनाव किया था) वही हैं। इनमें कोई शुभहा नहीं। ‘वही’ शब्द भी ज़ोर देने के अर्थ में ही लाया गया है। आगे जब वो कहते हैं कि अपनी छाती में देखे गए देश के घावों के इलाज के लिए जिन वैद्यों और नुस्खों पर यकीन था, वे रोग की तह पाने में कामयाब नहीं हुए। वहां भी शायर न वैद्यों को दोष दे रहा है,   न नुस्खों को, बल्कि रोग ही इतने पुराने थे कि लाइलाज हो गए-
”ऐसा न हुआ के रोग अपने
तो सदियों ढेर पुराने थे
वैद इनकी तह को पा न सके
और टोटके सब नाकाम गए।”
इस नज़्म का पाठ करते हुए एक सवाल उठता है कि ये सम्बोधित किसको है,   खुद को या उन लोगों को भी जिन्होंने दुख की नदिया में जीवन की नांव डाली ही नहीं और अब निर्लिप्त भाव से असफलता की छान-बीन में लगे हैं और दोष धरने के लिए ‘स्केपगोट’ खोज रहे हैं। यों तो शायरी के एकदम निर्दिष्ट   भौतिक संदर्भ खोजना मुश्कि‍ल और कभी-कभी अतिशयता के खतरे से भरा होता है, लेकिन यह सोचना बहुत गलत न होगा कि पाकिस्तान में बार-बार लोकतंत्र की ताकतों की विफलता और सैनिक-धार्मिक तानाशाहियों की ओर उसका प्रत्यावर्तन भी इस नज़्म के असफलता बोध के पीछे सक्रिय है, खासतौर पर तब जबकि शायर इसी कारण फिर से वतनबदर होकर रहने के लिए अभिशप्त है। ‘सुबहे-आज़ादी’ जैसी नज़्म 1947 में लिखनेवाले शायर का यह बोध काफी पहले का है कि इस उप-महाद्वीप के रोग ऐतिहासिक हैं, जहां कोई नयी चीज़ जन्म लेने से पहले ही दम तोड़ दिया करती है, इतिहास अपनी प्रसव पीडा़ के बाद किसी नए को जन्म देता भी है, तो उसकी उम्र कम होती है, चीज़ें फिर अपने ढर्रे पर वापस आ जाया करती हैं। इसका सबसे तल्ख अहसास शायर को तब हुआ था जब इतनी कुर्बानियों के बाद आई आज़ादी ‘दाग दाग उजाले’ और ‘रात से डसी हुई सुबह’ की तरह निकली। ‘दस्ते-तहे-संग’ में संकलित एक नज़्म है ‘शाम’ जो एक ठिठकी हुई शाम का मंज़र खींचती है। लेकिन इसके बिम्ब एक पुरातन सभ्यता के वक्त में कैद होने का, एक सनातन अवरुद्धता का रूपक होने का अहसास कराते हैं-
”इस तरह है कि हर इक पेड़ कोई मंदिर है
कोई उजडा हुआ, बेनूर पुराना मंदिर
ढूंढता है जो खराबी के बहाने कब से
चाक हर बाम, हर इक दर का दमे-आखिर है
आसमां कोई पुरोहित है जो हर बाम तले
जिस्म पर राख मले, माथे पे सिंदूर मले
सरनिगूं बैठा है चुपचाप न जाने कब से
इस तरह है कि पसे-पर्दः कोई साहिर है….
……………………………………………………………….
आसमां आस लिए है कि यह जादू टूटे
चुप की ज़ंजीर कटे, वक्त का दामन छूटे।”
फैज़ की शायरी की उपमहाद्वीपीय इतिहास, साभ्यतिक स्मृति और जन-जीवन की नब्ज़ पर पकड़ गहरी है। उसके अनुभव और समझ उन्हें दुनिया भर में चलनेवाले हक, खुदमुख्तारी, जम्हूरियत और बराबरी के संघर्षों को भीतर से महसूस करने और उनके साथ होने में मदद करती है। इन संघर्षों की राह में आनेवाली बाधाओं, घिसाव-थकाव की लम्बी चलनेवाली लडाइयों में आनेवाली उदासी, उम्मीद- नाउम्मीदी के आरोह-अवरोह में झूलती जन-चेतना, छोटी-छोटी जीतों पर अछोर खुशि‍यों में डूब जाने की फितरत से उनकी शायरी खूब वाकिफ है। इसीलिए उनकी शायरी ने जश्‍न भी मनाए, मातम भी। अवसाद से ग्रस्त भी हुई, लेकिन उम्मीद का दामन नहीं छोडा़। कभी उसने ढांढस बंधाया, कभी जोश और हिम्मत को ललकारा, कभी आंसू बहाए, तो कभी पुचकारा, कभी दुआ में हाथ उठाए तो कभी इंतज़ार की लम्बी घडियां काटीं, कभी तख्तो-ताज गिराए तो कभी रुककर आत्मावलोकन किया, कभी बेअंत सी लगनेवाली तन्हाई झेली तो कभी मुहब्बत और कुदरत की गहराइयों में डूबकर हस्ती के सरो-सामां जुटाए। उनकी शायरी ऐहतिजाज़ की एक  शम्मः   है, जो हर रंग में जलती रहेगी, सहर होने तक।

मैं ईशान, गुल्लू और एक सतरंगी



रमेश तैलंग

सैंकड़ों बहुरंगी बाल पुस्तकों ने हिंदी बाल-साहित्य को अपनी नव्यता एवं भव्यता के साथ समृद्ध किया है। चाहे विषयों की विविधता हो या सामग्री की उत्कृष्टता, चित्रों की साज-सज्जा हो या मुद्रण की कुशालता, हर दृष्टि से हिंदी की बाल-पुस्तकें अब अंग्रेजी बाल-पुस्तकों के बरक्स विश्‍वस्तरीय मानदंडों को छू रही हैं। पर, जैसा कि हर बार लगता है, पुस्तकों की कीमत पर एक हद तक नियंत्रण होना अवश्‍य लाजमी है। यदि 48 पृष्ठों की पुस्तक के लिए आपको 150 रुपये खर्च करने पड़ें तो कम से कम हिंदी बाल-पाठकों की जेब पर यह भारी ही पड़ता है। लेकिन इस बहस में पड़ेंगे तो हरि अनंत हरि कथा अनंता वाली कहावत चरितार्थ हो जाएगी। अतएव हियां की बातें हियनै छोड़ो अब आगे का सुनो हवाल… की डोर पकड़ें तो,   हाल-फ़िलहाल पचास के लगभग नई बाल-पुस्तकें मेरे सामने हैं और उनमें बहुत सी ऐसी हैं जो विस्तृत चर्चा की हक़दार हैं। पर हर पत्रिका की अपनी पृष्ठ-सीमा होती है और इस सीमा के चलते यदि इन बाल पुस्तकों पर मैं परिचयात्मक टिप्पणी ही कर सकूं तो आशा है सहृदय पाठक-लेखक-प्रकाशक अन्यथा नहीं लेंगे।
तो सबसे पहले दो बाल-उपन्यास, जो मुझे हाल ही में मिले हैं। पहला है डॉ. श्री निवास वत्स का गुल्लू और एक सतरंगी ( किताबघर, दिल्ली) और दूसरा है राजीव सक्सेना का मैं ईशान ( बाल शिक्षा पुस्तक संस्थान, दिल्ली)।
श्रीनिवास वत्स एक सक्षम बाल कथाकार हैं और काफी समय से बाल-साहित्य सृजन में सक्रिय हैं। मां का सपना के बाद गुल्लू और एक सतरंगी उनका नया बाल-उपन्यास आया है जिसका मुख्य पात्र यूं तो गुल्लू नाम का बालक है पर उपन्यास की पूरी कथा और घटनाएं सतरंगी नाम के एक अद्भुत पक्षी के चारों ओर घूमती हैं। यह पक्षी मनुष्य की भाषा समझ और बोल सकता है इसीलिए गुल्लू और सतरंगी की युगल-कथा पाठकों को अंत तक बांधे रखती है। 159 पृष्ठों में फैले इस उपन्यास का अभी पहला खंड ही प्रकाशिात हुआ है जो आगे जारी रहेगा। देखना यह है कि आगे के खंड एक श्रंखला के रूप में कितने लोकप्रिय होते हैं। वैसे लेखक ने इसे किसी भारतीय भाषा में लिखा गया प्रथम वृहद् बाल एवं किशोरोपयोगी उपन्यास माना है।
दूसरा उपन्यास- ‘मैं ईशान’ राजीव सक्सेना का प्रयोगात्मक बाल-उपन्यास है। उपन्यास क्या है, ईशान नाम के एक बालक की आत्मकथा है जिसमें उसी की जुबानी उसकी शैतानियां, उसकी उपलब्धियां, उसकी कमजोरियां, और उसकी परेशानियां बखानी गई हैं। संभव है, इसे पढ़ते समय ईशान के रूप में बाल-पाठक अपना स्वयं का चेहरा तलाशने लगें क्योंकि बच्चे तो सभी जगह लगभग एक से ही होते हैं।
कथा-साहित्य के फलक पर ही आगे नजर डालें तो मदन बुक हाउस, नई दिल्ली द्वारा आरंभ की गई मेरी प्रिय बाल कहानियां श्रंखला में पांच सुपरिचित लेखकों की कहानियों के संग्रह इस वर्ष प्रकाशित हुए हैं। ये लेखक हैं- मनोहर वर्मा, यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र,   देवेन्द्र कुमार, भगवती प्रसाद द्विवेदी एवं प्रकाशा मनु। इससे पूर्व डॉ. श्रीप्रसाद की प्रिय कहानियों का संग्रह भी यहां से प्रकाशिात हो चुका है। मेरी समझ में ऐसे संग्रहों का महत्व इसलिए अधिक है कि इनमें लेखकों के शुरुआती दौर से लेकर अब तक की लिखी गई प्रतिनिधि कहानियों का संपूर्ण परिदृशय एक जगह पर मिल जाता है।
इन संग्रहों की यादगार कहानियों में मनोहर वर्मा की नन्हा जासूस, मां का विश्‍वास, चाल पर चाल, लीना और उसका बस्ता, यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र की समुद्र खारा हो गया, एक छोटा राजपूत, टप-टप मोती, साहसी शोभा, भगवती प्रसाद द्विवेदी की फिसलन, भटकाव, गलती का अहसास, छोटा कद-बड़ा पद, देवेन्द्र कुमार की बाबा की छड़ी, मास्टर जी, डाक्टर रिक्शा, पुराना दोस्त, धूप और छाया, प्रकाश मनु की गुलगुल का चांद, आईं-माईं आईं-माईं मां की आंखें, मैं जीत गया पापा के नाम लिए जा सकते हैं।
भगवती प्रसाद द्विवेदी ने फिसलन और भटकाव जैसी कहानियों में किशोरावस्था के ऐसे अनछुए बिंदुओं (योनाकर्षण एवं फिल्मी दुनिया के मायाजाल) को छुआ है जिन्हें बाल-साहित्य में ‘टेबू’ समझ कर छोड़ दिया जाता है।
ऐसा ही एक और कहानी संग्रह डॉ. नागेश पाण्डेय संजय का यस सर-नो सर (लहर प्रकाशन, इलाहाबाद ) है जिसमें उनकी 14 किशोरोपयोगी कहानियां संकलित हैं। नागेश पांडेय ने लीक से हटकर कहानियां/कविताएं लिखी हैं। यही कारण है कि उनकी बाल-कहानियां आधुनिक संदर्भों से जुड़कर पाठकों को बहुत कुछ नया देती हैं।
यहां मैं डॉ. सुनीता के बाल-कहानी संग्रह ‘दादी की मुस्कान’ ( सदाचार प्रकाशन, दिल्ली) की चर्चा भी करना चाहूंगा जिसमें उनकी छोटी-बड़ी 21 मनभावन कहानियां संकलित हैं। गौर से देखें तो सुनीता की कहानियों में जगह-जगह एक गंवई सुगंध या कहें,   एक अनगढ़ सौंदर्य देखने को मिलता है। सुनीता देवेन्द्र सत्यार्थी की तरह अपनी कहानियों में पत्र-शौली, यात्रा-कथा, सामाजिक, ऐतिहासिक जीवन-प्रसंग तथा पारिवारिक संबंधों की जानी-पहचानी मिठास…. सभी कुछ रचाए-बसाए चलती हैं जो पाठकों को एक अलग ही तरह का सुख देता है।
मेरी प्रिय बाल कहानियां के अलावा धुनी बाल-साहित्य लेखक और चिंतक प्रकाश मनु के इधर और भी अनेक कहानी संग्रह इस वर्ष प्रकाशित हुए हैं। यथा- रंग बिरंगी हास्य कथाएं ( शशांक पब्लिकेशन्स, दिल्ली), तेनालीराम की चतुराई के किस्से, बच्चों की 51 हास्य कथाएं, ज्ञान विज्ञान की आशचर्यजनक कहानियां ( तीनों के प्रकाशक डायमंड पाकेट बुक्स, दिल्ली ), अद्भुत कहानियां ज्ञान-विज्ञान की ( कैटरपिलर पब्लिशर्स, दिल्ली), जंगल की कहानियां, ( स्टेप वाई स्टेप पब्लिशर्स, दिल्ली),   चुनमुन की अजब-अनोखी कहानियां ( एवरेस्ट पब्लिशिंग कंपनी, दिल्ली),   सुनो कहानियां ज्ञान-विज्ञान की ( ग्लोरियस पब्लिशर्स, दिल्ली),   रोचक कहानियां ज्ञान-विज्ञान की ( बुक क्राफ्ट पब्लिशर्स, दिल्ली)   । ज़ाहिर है कि प्रकाश मनु न केवल अपने लेखन में गति और नियंत्रण बनाए हुए हैं, बल्कि समकालीन बाल-साहित्य के समूचे परिदृश्‍य पर भी एक पैनी नजर रखे हुए हैं। मैं नहीं जानता, इतने विविध और महत्वपूर्ण बाल कहानी-संग्रह एक साथ एक ही वर्ष में किसी और लेखक के प्रकाशित हुए हैं।
जाने-माने कथाकार अमर गोस्वामी   की 51 बाल कहानियों का एक नया संग्रह ‘किस्सों का गुलदस्ता’ (चेतना प्रकाशन, दिल्ली) भी इधर आया है जिसमें बाज की सीख, घमंडी गुलाब, चुनमुन चींटे की सैर, लौट के बुद्धु के अलावा उनकी मशहूर बाल कहानी शोरसिंह का चशमा भी शामिल है। पाठक इन सभी कहानियों का भरपूर आनंद उठा सकते हैं।
लोक-परक, पौराणिक एवं प्रेरक बाल-कथा साहित्य के अंतर्गत आनंद कुमार की ‘जीवन की झांकिया, ( ट्रांसग्लोबल पब्लिशिंग कंपनी, दिल्ली),   मनमोहन सरल एवं योगेन्द्र कुमार लल्ला द्वारा संपादित भारतीय गौरव की कहानियां, ( बुक ट्री पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली),   हरिमोहन लाल श्रीवास्तव तथा ब्रजभूषण गोस्वामी द्वारा संपादित मूर्ख की सूझ, विष्णु दत्त ‘विकल’ की इंसान बनो, दो खंडों में प्रकाशिात राज बहादुर सिंह की चरित्र निर्माण की कहानियां (सभी के प्रकाशाक एम.एन. पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली),   सावित्री देवी वर्मा रचित इन्सान कभी नहीं हारा,   प्यारे लाल की गंगा तेली, ( दोनों के प्रकाशक-सावित्री प्रकाशन, दिल्ली), राम स्वरूप कौशल की पाप का फल, ( स्वास्तिक प्रकाशन, दिल्ली )   तथा डॉ. रामस्वरूप वशिष्ठ की एक अभिमानी राजा (ओरिएंट क्राफ्ट पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली)   के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं।
कथा-साहित्य की तरह ही बाल कविताएं भी अपनी सहजता, मधुरता और सामूहिक गेयता के कारण हमेशा से बच्चों को प्रिय रही हैं।
यह हर्ष की बात है कि इस वर्ष हमारे समय के पुरोधा बालकवि डॉ. श्रीप्रसाद के तीन संग्रह क्रमश: मेरे प्रिय शिशु गीत ( हिमाचल बुक सेंटर, दिल्ली), मेरी प्रिय बाल कविताएं ( विद्यार्थी प्रकाशन, दिल्ली) और मेरी प्रिय गीत पहेलियां ( सुधा बुक मार्ट, दिल्ली), एक साथ प्रकाशित हुए हैं। इन काव्य-संग्रहों में श्रीप्रसाद जी की लंबी बाल-काव्य यात्रा का विस्तृत परिदृश्य अपनी पूरी वैविध्यता के साथ देखा जा सकता है। श्रीप्रसाद जी के अलावा डॉ. प्रकाशा मनु के भी 101 शिशु गीत इधर चेतना प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुए हैं जिनका मजा नन्हे-मुन्ने़ पाठक ले सकते हैं।
शिशु गीतों की बात चली है तो संदर्भवश मैं यहां यह भी उल्लेख करना चाहूंगा कि अंग्रेजी में रेन रेन गो अवे,   ब बा ब्लेकशीप, हिकरी-डिकरी,   जैसे बहुत से ऐसे नरसरी राइम्स हैं जिनके पीछे कोई न कोई ऐतिहासिक, सामाजिक घटना जुड़ी है। जिज्ञासु पाठक यदि चाहें तो,   इन घटनाओं का संक्षिप्त ब्‍योरा www.rhymes.org.uk वेबसाइट पर देख सकते है। हिंदी शिशु गीतों, खासकर जो लोक में प्रचलित हैं, में ऐसे संदर्भों को ढूंढना श्रम-साध्य होने के बावजूद रोचक होगा। क्योंकि कोई भी लेखक या शिशु गीत रचयिता अपने समय से कटकर कुछ नहीं रच सकता।
इस वर्ष जिन अन्य बाल-कविता संग्रहों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया है उनमें डॉ. शकुंतला कालरा का हंसते-महकते फूल ( चेतना प्रकाशन, दिल्ली ),     डॉ. बलजीत सिंह का गाओ गीत सुनाओ गीत, डा. शंभुनाथ तिवारी का धरती पर चांद   ( दोनों के प्रकाशक हिंदी साहित्य निकेतन, बिजनौर), प्रत्यूष गुलेरी का बाल गीत ( नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली),     डॉ. आर.पी. सारस्वत के दो संग्रह- नानी का गांव और चटोरी चिड़िया ( दोनों के प्रकाशक नीरजा स्मृति‍ बाल साहित्य न्यास, सहारनपुर),       राजा चौरसिया का अपने हाथ सफलता है ( बाल वाटिका प्रकाशन, भीलवाड़़ा), अजय गुप्त का जंगल में मोबाइल ( श्री गांधी पुस्तकालय प्रकाशन, शाहजहांपुर ), चक्रधर नलिन का विज्ञान कविताएं( लहर प्रकाशन, इलाहाबाद),     और गया प्रसाद श्रीवास्तव श्रीष का वीथिका ( कवि निलय,   रायबरेली) प्रमुख हैं।
डॉ. आर पी सारस्वत अपेक्षाकृत नए बाल कवि हैं पर उनकी बाल-कविता चटोरी चिड़िया की गेयता और उसका चलबुलापन सचमुच चकित करता है। सच कहूं तो बाल-कविता के सामने बहुत सी चुनौतियां हैं जिनमें सबसे बड़ी चुनौती लोकलय एवं पारिवारिक संबंधों की प्रगाढ़ता को बचाए रखने की है।
कवि‍ता के बाद नाटक विधा की बात करें तो बाल नाटकों की इधर दो किताबें मुझे मिली हैं। ये हैं डॉ. प्रकाश पुरोहित की ‘तीन बाल नाटक’ ( राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, जोधपुर) तथा भगवती प्रसाद द्विवेदी की आदमी की खोज ( कृतिका बुक्स इंटरनेशनल, इलाहाबाद),   जिसमें उनके सात बाल एकांकी संग्रहीत हैं।
अन्य विधाओं में मनोहर वर्मा की भारतीय जयन्तियां एवं दिवस ( साहित्य भारती, दिल्ली) महत्वपूर्ण पुस्तक है जिसमें लेखक ने भारतीय महापुरुषों के संक्षिप्त जीवन परिचय के साथ उनकी जयंतियां मनाने का सही तरीका तथा आवश्‍यक उपदानों का रोचक ढंग से वर्णन किया है। जिन पाठकों को महापुरूषों के प्रेरणादयी वचनों के संग्रह में रुचि है उन्हें गंगाप्रसाद शर्मा की पुस्तक 1001 अनमोल वचन (स्वास्तिक प्रकाशन, दिल्ली) सहेजने योग्य लग सकती है। इनके अलावा, जैसा कि सब जानते हैं,   हर वर्ष भारत के कुछ बच्चों को उनके साहस और वीरता भरे कारनामों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया जाता है। रजनीकांत शुक्ल ने ऐसे ही राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार से सम्मानित सोलह बहादुर बच्चों की सच्ची कहानियां लिखी हैं जो छोटे-बड़े सभी पाठकों को प्रेरणादायी एवं रोमांचकारी लगेंगी।
आध्यात्मिक गुरु, चिंतक एवं वक्ता ओशो ने एक बार कहा था कि जब हम ईश्‍वर से बात कर रहे होते हैं तो वह प्रार्थना कहलाती है और जब हम ईश्‍वर की बात सुन रहे होते हैं तो वह साधना बन जाती हैं। सच कुछ भी हो पर यह तो मानना पड़ेगा कि प्रार्थना हर मनुष्य को आंतरिक शक्ति प्रदान करती है और शायद यही कारण है कि लगभग हर घर, संस्थान, विद्यालय में अलग-अलग समय पर प्रार्थनाएं गाई जाती हैं। ऐसी ही शक्तिदायी प्रार्थनाओं और राष्ट्रीय वंदनाओं का एक रुचिकर संग्रह शान्ति कुमार स्याल का विनय हमारी सुन लीजिए (विद्यार्थी प्रकाशन, दिल्ली)   है जिसमें एक सौ के लगभग प्रार्थनाएं संग्रहीत हैं।
बाल-साहित्य में रुचि रखने वाले बहुत से पाठकों को साहित्यकारों के बचपन और उनके जीवन के बारे में भी जानने की उत्सुकता रहती है। इस संदर्भ में दो पुस्तकों का उल्लेख मैं यहां करना चाहूंगा। पहली पुस्तक है बचपन भास्कर का (साहित्य भारती,   दिल्ली) जिसमें प्रख्यात साहित्यकार रामदरश मिश्र के बचपन के प्रसंग हैं और दूसरी पुस्तक है ‘वह अभी सफ़र में हैं’ ( प्रवाल प्रकाशन, गाजियाबाद) जिसमें जाने-माने बाल-साहित्यकार योगेन्द्र दत्त शर्मा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर मार्मिक लेख हैं। ज्ञातव्य है कि योगेन्द्र दत्त शर्मा के दो बालगीत संग्रह आए दिन छुट्टी के और अब आएगा मजा पहले ही काफी चर्चित हो चुके हैं।
और अंत में चलते-चलते प्रकाशान विभाग नयी दिल्ली से प्रकाशित देवेन्द्र मेवाड़ी की पुस्तक- विज्ञान बारहमासा का उल्लेख करना चाहूंगा जिसमें लेखक ने प्रकृति से जुड़े अनेक सवालों के जवाब सीधे, सरल और सटीक ढंग से दिए हैं। निस्संदेह, देवेन्द्र मेवाड़ी की यह पुस्तक विज्ञान पर लिखी गई महत्वपूर्ण बाल पुस्तकों में अपना यथोचित स्थान बनाएगी। (आजकल से साभार)

शहीद भगतसिंह की गलत छवि पेश करने की साजिश


सुधीर सुमन

मुख्यधारा का हिंदी सिनेमा प्रायः शासकवर्ग की संस्कृति और विचारधारा का   ही प्रचार-प्रसार करता है, अपनी व्यावसायिक बाध्यताओं के कारण वह किसी   क्रांतिकारी विषय या चरित्र को उठाता भी है   तो इतनी सावधानी के साथ कि   शासक वर्ग के लिए वह कोई गंभीर संकट न खड़ा कर दे। गौर से देखें   तो आमतौर पर भारतीय राजनीति और समाज पर जिनका वर्चस्व है- जो शासक वर्ग है,   उसके लिए भगतसिंह की विचारधारा आज भी खतरनाक है। इसके बावजूद इक्कीसवीं सदी की शुरुआत होते ही, पांच-पांच फिल्में बनाने की घोषणाएं हुईं, सन् 2002 में तीन फिल्में प्रदर्शित भी हुईं, जिनमें से धर्मेंद्र और राजकुमार संतोषी द्वारा बनाई गई फिल्में अक्सर देशभक्ति के लिए तय दिवसों को किसी न किसी टीवी चैनल पर दिखाई जाती रही हैं। इनके बाद एक और फिल्म आई- रंग दे बसंती।
भगतसिंह निर्विवाद रूप से आजादी की लड़ाई के सर्वाधिक लोकप्रिय नायक रहे हैं। पोपुलर सिनेमा में गांधी, सावरकर या किसी अन्य चरित्र को लेकर शायद ही कभी ऐसी प्रतिस्पर्धा हुई होगी, जैसी भगतसिंह और उनके साथियों को लेकर   हाल के वर्षों में रही है। बेशक आज देश जिस तरह के संकट से गुजर रहा है, उसमें लोगों की स्वाभाविक आकांक्षा है कि भगतसिंह जैसा राष्ट्रनायक फिर से   पैदा हों। हिंदी सिनेमा इस जनाकांक्षा को भुनाने के चक्कर में ही अचानक   भगतसिंह की जीवन-गाथा की ओर दौड़ पड़ा। लेकिन जिस तरह सर्वव्यापी   भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई और अपराधियों और काले धन वालों के वर्चस्व के तले पीस रही जनता के विक्षोभ को संगठित न होने देने और उसे गलत दिशा में भटका देने के लिए शासक वर्ग सांप्रदायिक, जातिवादी-अंधराष्ट्रवादी उन्माद का सहारा लेता है या ऐसे भूतपूर्व नौकरशाहों, कारपोरेट संतों और राजनेता पुत्रों को नायक के बतौर उभारता है, जो वास्तव में पूंजी की सत्ता का विनाश करने वाले नहीं बल्कि उसके चारण होते हैं, उसी तर्ज पर हिंदी सिनेमा ‘सुपरमैन’ से लगने वाले लड़ाकों को पेश करता है, जो किसी भी समस्या   की मूल वजह नहीं तलाशते, उनके सामने कोई एक दुश्मन रहता है, जिसे खत्म कर देना ही हर समस्या का समाधान होता है। उसके लिए भगतसिंह एक ऐसे ‘ही मैन’ हैं, जो देश के दुश्मन अंग्रेजों से दिलेरी के साथ लड़ते हुए फांसी पर चढ़ गए। भगतसिंह साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति के नायक हैं और वे और   उनके साथी एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक राष्ट्र निर्माण के लिए राजनैतिक-वैचारिक संघर्ष चला रहे थे, यह तथ्य भगतसिंह पर बनी फिल्मों में   प्रायः नहीं है।
‘राष्ट्रवाद’ की अन्य धाराओं से भगतसिंह और उनके साथियों की जो बहसें थी, जो वैचारिक टकराव थे, वे सामने नहीं आते। भगतसिंह पर बनी फिल्मों में सबसे ज्यादा आपत्तिजनक प्रसंग धर्मेंद्र की फिल्म ‘शहीद: 23 मार्च 1931’ में दिखाई देता है। इसमें भगतसिंह को एक उग्र हिंदू अंधराष्ट्रवादी के रूप में   दिखाया गया है। फिल्म के शुरुआती हिस्से में भगतसिंह जब एक देशभक्ति गीत   गाते हैं तब वहां मंच की पृष्ठभूमि में भारतमाता की जो तस्वीर है, वह आरएसएस द्वारा प्रचारित छवि से मेल खाती है। अकारण नहीं है कि भगतसिंह जो साम्राज्यवाद प्रेरित युद्धों के कट्टर विरोधी थे, उन पर बनी फिल्म को देखते वक्त पाकिस्तान के खिलाफ नारे लगे थे। बॉबी देओल ने बाकायदा एक साक्षात्कार में कहा था- ‘‘भगतसिंह का किरदार निभाने से पता चला कि वे किस मिट्टी के बने थे, वे कितने बुद्धिमान व विचारवान थे और उनके क्या अहसास   थे। अंग्रेज शासकों की तरह पाकिस्तान के खिलाफ भी हम सब भारतीयों को एकजुट   होना चाहिए।’’
‘23 मार्च 1931 शहीद’ में भगतसिंह को हिंदूसभाई लाला लाजपत राय के   अंधअनुयायी की तरह दिखाया गया है। एक लिजलिजी श्रद्धा है, जो भगतसिंह के   व्यक्तित्व से मेल नहीं खाती। इतिहास गवाह है कि भगतसिंह और उनके साथी   लाला लाजपत राय के सांप्रदायिक विचारों के सख्त विरोधी थे। राय की हत्या का प्रतिशोध भावनात्मक कम, राजनीतिक रणनीति अधिक थी। मगर एक दूसरी फिल्म ‘शहीद-ए-आजम’ में भी इसे महज भावनात्मक प्रतिक्रिया के रूप में ही दिखाया गया है। राजकुमार संतोषी की फिल्म ‘लिजेंड ऑफ़ भगतसिंह’ इस मायने में सर्वथा भिन्न है। उसमें भगतसिंह का वैचारिक-राजनैतिक स्टैंड स्पष्ट रूप से सामने आता है। अधिकांश समीक्षकों ने संतोषी की फिल्म को भगतसिंह पर बनी फिल्मों में अधिक तथ्यपरक माना। इसकी वजह यह भी है कि यह पीयूष मिश्रा के नाटक ‘गगन दमामा बाज्यो’ पर आधारित है। इसके गीतों में निहित भावों को एआर   रहमान का संगीत अत्यंत संवेदनात्मक कुशलता से अभिव्यक्त करता है। यह पहली   फिल्म है जो भगतसिंह और उनके साथियों पर पड़े रूसी क्रांति के प्रभावों की ओर संकेत करती है।
अपने शिक्षक विद्यालंकार जी से उनका जब पहले-पहल समाजवादी अवधारणाओं   से परिचय होता है, उस वक्त पृष्ठभूमि में दर्शकों को मार्क्स और लेनिन की तस्वीरें नजर आती हैं। भगतसिंह और उनके साथी समाजवादी हैं, यह तथ्य ‘शहीद-ए-आजम’ में भी है, पर समाजवाद का मकसद क्या है, इसके बारे में यह फिल्म चुप रहती है। संतोषी की फिल्म ‘द लिजेंड ऑफ़ भगतसिंह’ जरूर उस मकसद के बारे में बताती है हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी की प्रसिद्ध फिरोजशाह कोटला मीटिंग के दृश्य में भगतसिंह कहते हैं- ‘‘सिर्फ आजादी हमारा मकसद नहीं है। अगर कांग्रेस की राह से आजादी आ भी गई तो उससे गरीबों, मजदूरों और किसानों की हालत में कोई बदलाव नहीं आएगा। गोरे साहब की जगह भूरे साहब आ जाएंगे और आगे चलकर धर्म और जात-पांत के नाम पर पूरे देश में जो आग   भड़केगी, आने वाली पीढि़यां उसे बुझाते-बुझाते थक जाएंगी। हमारा मकसद इस शोषण करने वाली व्यवस्था को खत्म कर समाजवाद लाना है।’’ इसी मीटिंग में एच.आर.ए. के साथ ‘सोशलिस्ट’ शब्द जुड़ा। इस फिल्म में एच.एस.आर.ए. की बैठकों में क्रांतिकारी एक दूसरे को कामरेड कहकर संबोधित करते हैं। जहां   दूसरी फिल्मों में चंद्रशेखर आजाद को छोड़कर सारे पात्र भगतसिंह के पिछलग्गू जान पड़ते हैं, वहीं ‘द लिजेंड ऑफ़ भगतसिंह’ में कामरेडों का एक पूरा ग्रुप उभरता है। शिव वर्मा और अजय घोष भी नजर आते हैं।
आमतौर पर असेंबली में बम फेंकने की साहसपूर्ण कार्रवाई की चर्चा के क्रम में लोग यह भूल जाते हैं कि भगतसिंह ने मजदूर हड़तालों को कुचलने के लिए बनाए जा रहे ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ के विरोध में बम फेंका था। ‘द लिजेंड ऑफ़   भगतसिंह’ इस मामले में सचेत रही है। फिल्म में अन्यत्र भी भगतसिंह अपनी बातों को किसान-मजदूरों तक पहुंचाने की जरूरत पर जोर देते हैं। मगर   वे कौन सी बातें हैं, वे कैसे विचार हैं, जिनको भगतसिंह किसान-मजदूरों, नौजवानों और बुद्धिजीवियों तक पहुंचाना चाहते थे, उनकी आज क्या प्रासंगिकता है, इस बारे में यह फिल्म भी बहुत कुछ नहीं बताती।
इसके लिए राजकुमार संतोषी को जरूर बधाई देना चाहिए कि भगतसिंह के मंगेतर   वाले प्रसंग को छोड़कर उन्होंने आमतौर पर ऐतिहासिक तथ्यों से कोई खिलवाड़ नहीं किया है। एक ओर जहां सन्नी देओल अपनी फिल्म में पार्टी का नाम तक   नहीं लेते, वहीं संतोषी अपनी फिल्म में उस पार्टी का नाम और सोशलिज्म के   प्रति उसकी आस्था को बेझिझक सामने लाते हैं। अपनी फिल्म के अंत में   स्क्रीन पर दर्शकों के लिए वे एक सवाल छोड़ते हैं- ‘‘भगतसिंह और उनके   साथियों ने अपना जीवन एक आजाद, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए   बलिदान किया। आज भी हम भारत में सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार और शोषण का सामना कर रहे हैं। क्या हमने उनके बलिदान के साथ विश्वासघात नहीं किया?’’ आखिर अंग्रेजी में लिखे इस सवाल का दर्शकों पर कितना असर पड़ता है ? विश्वासघात आखिर किसने किया, रहनुमाओं ने या आमलोगों ने ?
भगतसिंह पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, वर्णभेद, सांप्रदायिकता और अंधविश्वास के विरोधी थे। गांधी से उनका टकराव सिर्फ हिंसा-अहिंसा को लेकर नहीं था, जबकि भगतसिंह पर बनी फिल्में कमोबेश उन्हें हिंसा-अहिंसा के प्रतीकों में   तब्दील कर देती हैं। गांधी जी के वर्ग समन्वय और अध्यात्मवाद से भी क्रांतिकारियों का विरोध था। गांधी और लाला लाजपत राय, दोनों बोल्शेविक किस्म की क्रांति के पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि साम्यवादी विचारों के प्रचार से पूंजीपति सरकार के साथ मिल जाएंगे। क्रांतिकारियों ने पूंजीपतियों के सहयोग से चलने वाले संघर्ष पर काफी व्यंग्य भी किया था। उन्होंने तो लाला लाजपत राय पर सरकार के लिए क्रांतिकारियों की मुखबिरी   करने का आरोप भी लगाया था। सरकार कांग्रेस और गांधी जी पर इसलिए मेहरबान   थी कि वे किसी जनक्रांति, खासकर कम्युनिस्ट क्रांति के पक्षधर नहीं थे। अपने ‘महात्मापन’ के प्रति सदैव सचेत रहने वाले गांधी जी ने ‘ऐतिहासिक कलंक’ की आशंका के बावजूद अगर भगतसिंह को बचाने के लिए कुछ नहीं किया   तो इसकी एकमात्र वजह यही थी। भगतसिंह पर बनाई गई सारी फिल्मों में यह दिखाया गया है कि ब्रिटिश सरकार भगतसिंह को येन-केन-प्रकारेण खत्म कर देना चाहती थी। आखिर क्यों ? सिर्फ इसलिए नहीं कि भगतसिंह साम्राज्यवाद के खिलाफ आजीवन   समझौताविहीन संघर्ष चलाने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ थे, बल्कि इसलिए कि वे क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन विकसित करना चाहते थे। गुप्तचर ब्यूरो के तत्कालीन निदेशक डेविड पेट्रिक की रिपोर्ट में भी कम्युनिज्म के प्रति सरकार के खौफ को महसूस किया जा सकता है।
साम्राज्यवादियों को आज भी कम्युनिज्म बर्दाश्त नहीं होता। उनकी पिट्ठू सरकारें आज भी कम्युनिज्म के भय से कांपती हैं। अपने देश की सरकारों की साम्राज्यवादपरस्ती तो जगजाहिर है। 2002 में जब ये फिल्में प्रदर्शित हुईं, तब फिल्म सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष ने भगतसिंह द्वारा लेनिन की जीवनी   पढ़ने पर इसलिए एतराज किया था कि कहीं लोग यह न मान लें कि वे वामपंथी विचारधारा के थे। उनका बयान था कि ‘‘हम नहीं चाहते कि दूसरे राष्ट्रीय   नेताओं की कीमत पर भगतसिंह की तारीफ की जाए। जहां तक लेनिन का सवाल है, हम रूस का महिमामंडन क्यों करें?’’ मृत्यु के इतने सालों के बाद भी भगतसिंह के विचारों के प्रति शासकवर्ग के खौफ की यह बानगी है। उनके विचारों और जीवन पर केंद्रित किताबें बेचने को भी इस आजाद देश की सरकारों ने गुनाह   ठहराया और लोगों को जेल में डाला। कुछ ऐसे ही हाल देखकर कभी गीतकार शैलेंद्र ने लिखा था- भगतसिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की/देशभक्ति   के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की। खैर, देखने लायक है कि वे कौन से विचार हैं, जिनके लिए आज भी भगतसिंह को मारने के लिए शासकवर्ग हरसंभव कोशिश करता है। असेंबली बमकांड वाले केस में सेशन कोर्ट में बयान देते हुए उन्होंने कहा था- ‘‘देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धांतों पर समाज का पुनर्निमाण करें। जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण, जो साम्राज्यशाही के नाम से विख्यात है, समाप्त नहीं कर दिया जाता, तब तक मानवता को उसके क्लेशों से छुटकारा मिलना असंभव है।’’
यह संयोग मात्र नहीं है कि भगतसिंह पर केंद्रित फिल्मों में साम्राज्यवाद के नए हमलों के प्रति कोई चिंता नहीं दिखाई पड़ती। बल्कि बाद में प्रदर्शित ‘रंग दे बसंती’, जिसमें आज के कुछ नौजवान भगतसिंह और उनके साथियों की जिंदगी को जीने की कोशिश करते हैं और एकाध भ्रष्ट नेताओं की हत्या के जरिए बदलाव का सपना देखते हैं, उसमें भी साम्राज्यवाद के साथ भारतीय शासकवर्ग का रिश्ता कहीं नहीं दिखता, बल्कि भ्रष्टाचार और राष्ट्रवाद का भी जो संदर्भ है, वह सेना से ही जुड़ा हुआ है। अब इसका क्या करें कि देशभक्ति का पर्याय बना दी गई सेना के भ्रष्टाचार के किस्से भी अब सरेआम हो चुके हैं। सवाल यह है कि फौज और पुलिस किनके हितों की रक्षा करती है, किनके हितों के लिए सिपाही कुर्बान होते हैं ? पूरे देश को बहुराष्ट्रीय कंपनियों का चारागाह बना देने वाली सरकारें क्या देशभक्त   हैं? भगतसिंह ने कहा था कि ‘‘अगर कोई सरकार जनता को उसके मूलभूत अधिकारों   से वंचित रखती है तो जनता का केवल यह अधिकार ही नहीं, बल्कि आवश्यक   कर्तव्य बन जाता है कि ऐसी सरकारों को समाप्त कर दे।’’ क्या मौजूदा रंग-बिरंगी पार्टियों की सरकारों ने जनता को उनके मूलभूत अधिकारों से   वंचित नहीं कर रखा है ? और क्या जो लोग अपने मूलभूत अधिकारों के लिए लड़   रहे हैं उनको बर्बरता के साथ कुचलने के मामले में   इन सारी सरकारों के बीच एकता नहीं है?
पाकिस्तान विरोधी अंधराष्ट्रवाद का मामला हो या धर्म और सांप्रदायिकता के राजनीतिक इस्तेमाल का, भारत की अधिकांश पार्टियां और सरकारें इससे व्यवहार   में सहमत दिखती हैं, जबकि भगत सिंह इसके प्रबल विरोधी थे। अपने स्वाधीनता आंदोलन की बुनियादी गड़बड़ी का जिक्र करते हुए उन्होंने ‘सांप्रदायिक दंगों और उसका इलाज’ लेख में लिखा है कि ‘‘ऐसे नेता जो सांप्रदायिक आंदोलन   में जा मिले हैं, वैसे तो जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं, जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं, और सांप्रदायिकता की ऐसी   बाढ़ आई हुई है कि वे भी उसे रोक नहीं पा रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।’’ भगतसिंह ने इसीलिए धर्म से राजनीति   को अलग रखने पर जोर दिया और सच्चे इंकलाब और समाजवाद के लिए नास्तिकता के   पक्ष में जोरदार तर्क दिया। बाकुनिन, मार्क्स और लेनिन की नास्तिकता और   सफल क्रांतियों के बीच उन्हें एक सम्बद्धता महसूस होती थी। मगर सिर्फ ‘लिजेंड ऑफ़ भगतसिंह’ फिल्म के भगतसिंह कहते हैं कि रब में उनका यकीन नहीं है। वैसे संतोषी भी नास्तिकता के पक्ष में उनके प्रबल तर्कों को सामने   लाने से कतरा जाते हैं। मजेदार तथ्य यह है कि इसी फिल्म के कैसेट और सीडी   जारी करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने कहा था कि फिल्म देखकर ऐसा लगता है, जैसे भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु का एक बार फिर जन्म हो गया है। बात इतनी ही होती तो कोई बात न थी। लेकिन वे यह भी बताना नहीं भूले कि ‘हमारे देश में पुनर्जन्म पर विश्वास किया जाता है।’ राव यह भी कह सकते थे   कि अभिनेताओं ने जीवंत अभिनय किया है। यह महज लहजे का फर्क नहीं है, यह है पुनर्जन्म में विश्वास और आस्तिकता का आग्रह जिसके कारण एक ओर उग्र   हिंदूवादी भगतसिंह (बाबी देओल/शहीद: 23 मार्च 1931) अपनी मां से पुनर्जन्म की बात करता है तथा बताता है कि भगवान का वास हम सबके भीतर है   और थोड़े उदार किस्म का भगतसिंह (सोनू सूद/शहीद-ए-आजम) आस्तिकता-नास्तिकता के संबंध में कही गई विवेकानंद की उक्ति को दुहराता है, जबकि ऐसा नहीं है कि इन फिल्मों को बनाने वाले भगतसिंह के बहुचर्चित लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं?’ से अनभिज्ञ रहे होंगे।
फिल्मों की तो नहीं,   पर अखबारों की भूमिका की आलोचना करते हुए भगतसिंह ने लिखा था- ‘‘अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना, भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है   कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’
विडंबना यह है कि ये फिल्में भगतसिंह के सपनों के विरुद्ध जो भारत बना है, उसकी ओर संकेत कर मौन हो जाती हैं या उस ‘अवांछित भारत’ के लिए जिम्मेवार सामंती-पूंजीवादी, सांप्रदायिक और साम्राज्यवादपरस्त शक्तियों के राष्ट्रवाद के दायरे में ही प्रायः चक्कर लगाती रह जाती हैं। कोई भी फिल्म ‘भारत का बनेगा क्या ?’ यानी भारत के भविष्य, उसके नवनिर्माण के सपनों से   प्रेरित होकर नहीं बनाई गई है। इसलिए इनमें निर्माण की वह ताकत यानी   किसान-मजदूर गायब हैं, जिन्हें संगठित करने का आह्वान भगतसिंह ने नौजवानों से किया था। ‘रंग दे बसंती’ के नौजवानों के सामने से वह वैचारिक-सांगठनिक   पर्सपेक्टिव गायब है। हकीकत में जिन लोगों ने भगतसिंह सरीखी जिंदगी और मौत का चुनाव किया या जो भगतसिंह और उनके साथियों के रास्तों पर चल रहे हैं, उनकी राजनीति की गहराइयों में जाने से व्यावसायिक सिनेमा हमेशा गुरेज करता है। जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष और भाकपा-माले के नेता चंद्रशेखर के जीवन पर संभावित फिल्म के बहाने समकालीन जनमत के मार्च 2011 के अंक में कविता कृष्णन ने इस सवाल को उठाया है कि क्या व्यावसायिक सिनेमा क्रांतिकारी के   साथ न्याय कर सकता है ? दरअसल आज के सूचना माध्यमों, खासकर तथाकथित लोकतंत्र के चौथे खंभे यानी अखबारों और टीवी चैनलों में जिनकी पूंजी लगी है, उनके हित में जिस तरह से जनांदोलनों और जनराजनीतिक कार्रवाइयों की उपेक्षा की जाती है या उनकी नकारात्मक छवि बनाई जाती है, लगभग उसी तरह का काम हिंदी सिनेमा भी करता है। कहीं क्रांति का कोई नायक, कोई विचार या कोई संगठित आंदोलन जनता को नायक में तब्दील न कर दे, कोई कहानी इंकलाबी उभार की उत्प्रेरक न बन जाए, इसका फिल्मकार प्रायः ध्यान रखते हैं।

शब्दों का विश्वबैंक रच रहे कोशकार अरविंद कुमार



आधुनिक काल में हिन्‍दी के पहले शब्‍दकोश ‘समांतर कोश’(1996), ‘द हिंदी-इंग्लिश इंग्लिश-हिंदी थिसारस ऐंड डिक्शनरी’(2007) जैसे महाग्रंथ और ‘अरविंद लैक्सिकन’(2011) के रूप में इंटरनैट पर विश्‍व को हिन्‍दी-अंग्रेजी के शब्‍दों का सबसे बड़ा ऑनलाइन ख़ज़ाना देने वाले अरविंद कुमार अब ‘शब्दों का विश्‍व बैंक’ बनाने की तैयारी में जुटे हैं।
उनके डाटाबेस में हिन्‍दी-इंग्लिश के लगभग 10 लाख शब्द हैं। यहाँ शब्द से मतलब है एक पूरी अभिव्यक्ति, उसमें शब्द चाहे कितने ही हों। जैसे : उत्थान पतन, आरोह अवरोह, ज्वार भाटा,, rise and fall, ascent descent, going up and down, tide and ebb, up and down; नभोत्तरित होना, उड़ान भरना, टेकऔफ़ करना, go up in the sky, rise in the sky; क्षेत्र के ऊपर से उड़ना, किसी के ऊपर से उड़ना, overfly, fly across, pass over – एक एक शब्द गिनें तो शब्द संख्या दस लाख से कहीं ऊपर हो जाएगी, अनुमानतः साढ़े बारह लाख।
शब्‍दों को लेकर उनका जुनून अभी भी कम नहीं हुआ है। कुछ दिन पहले किसी ने उनसे पूछा कि आपके डाटा में ‘तासीर’ शब्द है या नहीं। उन्‍होंने चेक किया। शब्द था ‘प्रभाव’ के अंतर्गत। यह उसका अर्थ होता भी है- जैसे दर्द की ‘तासीर’। वह चाहते तो इससे संतोष कर सकते थे, लेकिन उनका मन नहीं माना। हिन्‍दी में तासीर शब्द को उपयोग आम ज़िंदगी में है तो उसका संदर्भ ‘आहार’ या ‘औषध’ की आंतरिक प्रकृति या स्वास्थ्य पर उसके ‘प्रभाव’ के संदर्भ में होता है। उन्‍हें लगा कि इसके लिए एक अलग मुखशब्द बनाना ठीक रहेगा। उन्‍होंने सटीक इंग्लिश शब्द की तलाश शुरू कर दी। लेकिन इसमें उन्‍हें किसी कोश से कोई सहायता नहीं मिली। प्रोफ़ेसर मैकग्रेगर के ‘आक्सफ़र्ड हिंदी-इंग्लिश कोश’ में मिला– effect; action, manner of operation (as of a medicine)। लेकिन ‘तासीर’ के मुखशब्द के तौर इनमें से कोई भी शब्द रखना उन्हें ठीक नहीं लगा। इधर-उधर चर्चा भी की, लेकिन बात नहीं बन रही थी। अंततः वह शब्‍द गढ़ने में लग गये। कई दिन बाद ‘तासीर’ मुखशब्द के साथ अन्य शब्द जोड़ पाए–
तासीर, असर, क्रिया, परिणाम, प्रभाव, प्रवृत्ति, वृत्ति, उदाहरण :‘उड़द की तासीर ठंडी होती है अत: इसका सेवन करते समय शुद्ध घी में हींग का बघार लगा लेना चाहिए।’
effective trait, the manner in which a food item or medicine affects its consumer, effect, impact, manner of operation (as of a food item or medicine), nature, reactive nature, trait.
यह केवल एक उदाहरण है। उनके मन में हर रोज़ कुछ न कुछ नए विचार आते रहते हैं। जो भी नए शब्द सुनते और पढ़ते हैं, हर रोज़ उसे डाटा में ढूँढ़ते हैं और फिर उनके नए संदर्भ डालते हैं। कई बार रात में कुछ ख़याल में आता है। एक रात उनके मन मेँ gubernatorial शब्द उमड़ता घुमड़ता रहा। यह governor का विशेषण ।
गवर्नर के कई संदर्भ हैँ- administrator, प्रशासक; controller, नियंत्रक; electricity regulator, विद्युत रैगुलेटर; ruler, शासक; speed controller, गति नियंत्रक।
भारत में गवर्नर का प्रमुख राजनीतिक प्रशासनिक अर्थ है- representativeand observer of the central government in a state– किसी राज्य मेँ केंद्र सरकार का प्रतिनिधि और प्रेक्षक। अमेरिका मेँ गवर्नर chief executive of a state है। वहां राष्ट्रपति की ही तरह इस पद के लिए भी चुनाव होता है। हमारे यहां यह प्रतिनिधि मात्र है, शासन का संचालक नहीं (यह काम हमारे यहां राज्य के मुख्यमंत्री का होता है)। हमारे यहां इसके कई पर्याय हैं जैसे- राज्यपाल, नवाब, निज़ाम, प्रांतपाल, सूबेदार, उप राज्यपाल, गवर्नर जनरल, चीफ़ कमिश्‍नर, मुख्य आयुक्त, लैफ़्टिनैंट गवर्नर, सदरे रियासत (जम्मू और कश्मीर) हैं।
अतः gubernatorial के लिए उन्‍हें एक स्वतंत्र मुखशब्द बनाने की आवश्‍यकता महसूस हुई। जब तक यह ससंदर्भ अपने आप में एक स्वतंत्र प्रविष्टि के तौर पर सही जगह नहीं रखा जाता, तब तक इसके विशेषण gubernatorial को उपयुक्त जगह नहीं रखा जा सकता। वह नहीं चाहते थे कि gubernatorial को ‘गति नियंत्रकीय’ से कनफ़्यूज़ करने का मौक़ा दिया जा जाए। उसके लिये सही जगह वहीं हो सकती है जहाँ उसका सही अर्थ स्पष्ट हो- राज्यपालीय,राज्यपाल विषयक।
आजकल वह डाटा के सम्‍बर्धन के अतिरिक्त परिष्कार और साथ-साथ शब्दों के अनेक रूपों को सम्मिलित करने का काम भी कर रहे हैं। जैसे- जाना के ये रूप जोड़ना- गई, गए, गया, गयी, गये, जा, जाइए, जाइएगा, जाए, जाएगी,जाएँगी, जाएंगी, जाएँगे, जाएंगे, जाओ, जाओगी, जाओगे, जाने, और go के लिए goes, going, went। (डाटा में ये सभी रूप अकारादि क्रम से रखे गए हैं।) क्‍योंकि हिन्‍दी में वर्तनी की कई पद्धतियाँ प्रचलित हैं, अतः ‘गई’ और ‘गए’ के साथ-साथ ‘गयी’ और ‘गये’ जैसे विकल्प भी जोड़ रहे हैं। ये पद्धतियाँ क्योंकि प्रचलित हैं तो इन्हें अशुद्ध भी नहीं कहा जा सकता। इस बारे में उनका कहना है कि ये भिन्न पद्धतियाँ हिन्‍दी के किसी भी सर्वमान्य वर्तनी जाँचक के बनने बहुत बड़ी बाधा हैं।
यह तो हुई क्रिया पदों के रूपोँ की बात। अब संज्ञाओं को लें तो गौरैया के लिए गौरैयाएँ, गौरैयाओँ, गौरैयाओं; प्रांत/प्रदेश के लिए प्रदेशोँ, प्रदेशों, प्रांतोँ, प्रांतों। (वर्तनी की अनेकरूपता यहाँ भी देखने को मिलती है- अनुनासिक और अनुस्वार के भिन्न प्रचलनोँ के कारण।)
उनका दिन सुबह पाँच बजे शुरू हो जाता है। लगभग सन् 1978 से। और तभी कुल्ला-मंजन कर के शुरू हो जाता है अपने डाटाबेस पर काम। काम सुबह पाँच बजे से शुरू हो कर शाम के लगभग साढ़े छह बजे तक चलता है। लेकिन लगातार नहीं। बीच-बीच मेँ छोटे-छोटे ब्रेक लेते रहते हैं। कभी शेव करने और नहाने के लिए, कभी नाश्ते के लिए, कभी यूँ ही ऊब मिटाने के लिए दस-पंद्रह मिनट, कभी दोपहर खाने के लिए। लगभग चार-पाँच बजे छोटा सा काफ़ी ब्रेक। और साढ़े छह बजे पूर्ण विराम। अब रात के साढ़े नौ बजे तक एकमात्र मनोरंजनपूर्ण कार्यक्रम ही देखते हैं। बीच मेँ आठ से साढ़े आठ बजे तक समाचार।
सर्दी के चार महीने वह बेटे सुमीत के पास आरोवील आ जाते हैं। आजकल वह सपत्‍नीक वहीं हैं। वहाँ उन्‍हें अख़बार सुविधा से नहीं मिल पाते। इसलिए सुबह काम के बीच कभी इंटरनैट पर इंग्लिश और हिन्‍दी समाचारोँ पर सरसरी नज़र डालना, कभी ई-मेल देखना और हर दिन लगभग पंद्रह-बीस मिनट फ़ेसबुक पर छोटी-मोटी टीका, मित्रों की मेल पर पसंद का निशान, किसी-किसी पर छोटी सी टिप्पणी भी उनकी दिनचर्या में शामिल है। निकट के नगर पुडुचेरी में कभी कभार ही कोई हिन्‍दी फ़िल्म आती है। अतः आरोवील में वह समय बच जाता है। कभी-कभी ऊब मिटाने के लिए टीवी पर पुरानी फ़िल्म देख कर काम चला लेते हैं।
चंद्रनगर (गाज़ियाबाद) में रहने के दौरान दिल्ली-गाज़ियाबाद क्षेत्र में बने सिनेमाघरों में अकसर सुबह 12 से पहले की फ़िल्में देखते हैं।
कोशकारिता के अपने जुनून के लिए अरविंद कुमार ने 1978 में ‘माधुरी’ की जमी-जमाई नौकरी छोड़ी। तब से वह केवल इसी काम में लगे हैं। किसी से कोई आर्थिक सहायता नहीं ली और कोई रचनात्‍मक सहयोग भी नहीं लिया। जो काम करोड़ों के बजट और लम्‍बे-चौड़े स्‍टॉफ के बाद भी कोई संस्‍था नहीं कर पा रही है, उसे अरविंद कुमार ने कर दिखाया।
अरविंद कुमार इतना बड़ा काम कर पाए इसकी एक वजह उन्‍हें परिवार का पूरा सहयोग मिलना ही है। वह बताते हैं कि अम्मा-पिताजी ने कभी उनके किसी फ़ैसले का विरोध नहीं किया। ‘सरिता’, ‘कैरेवान’ छोड़ी तो उन्होंने उनके निर्णय का स्वागत ही किया। ‘माधुरी’ के लिए मुंबई गए, तो वे ख़ुश थे। छोड़ कर आए तो भी ख़ुश। जो भी उन्‍होंने किया, उनकी अम्‍मा-पिताजी के लिए स्वीकार्य था।
उनके निजी परिवार एकक ने तो इससे भी आगे बढ़ कर, उनका काम में हाथ बँटाया। जब 1973 में ‘माधुरी’ की अच्छी ख़ासी नौकरी छोड़ने की बात की, तो पत्नी कुसुम ने बड़े उत्साह से उनका समर्थन किया, बल्कि बाद में पूरा सहयोग किया। आरम्‍भ में उनकी भूमिका अरविंद कुमार के बनाए कार्डों का इंडैक्स बनाने की थी। बाद में वह अरविंद कुमार की ही तरह हिन्‍दी कोश में ‘अ’ से ‘ह’ तक जाते-जाते वस्तुओं, वनस्पतियों और देवी-देवताओं के नामों को सही कार्ड बना कर दर्ज़ करने लगीं। अरविंद कुमार का कहना है कि ‘शब्देश्‍वरी’ (पौराणिक नामों का थिसारस) का ढाँचा मेरा है और अधिकांश शब्द तो कुसुम के ही हैँ– नाम हम दोनों का है।’
1976 में नासिक में गोदावरी नदी में सपरिवार स्नान कर के उन्‍होंने ‘समांतर कोश’ का शुभारंभ रिकार्ड करने के लिए एक कार्ड बनाया। उस पर पहले उन्‍होंने, फिर पत्‍नी कुसुम, बेटे सुमीत (सोलह साल) और बेटी मीता (दस साल) ने दस्तख़त किए। एक तरह से यह उन सब की सहभागिता का दस्तावेज बन गया। शायद यही कारण है कि जब भी सुमीत और मीता सहयोग करने लायक़ उम्र में पहुँचे तो अपनी-अपनी तरह से उनके काम के साथ जुड़ते गए।
अरविंद कुमार 1978 में ‘माधुरी’ की नौकरी छोड़कर सपरिवार दिल्ली मेँ मॉडल टाउऩ वाले घर में आ टिके। सुमीत का दाख़िला मुंबई के एक प्रतिष्ठित डॉक्टरी के कालिज में हो चुका था। वह पढ़ाई के दिनों वहीं रहते। मीता नवीं में सरकारी स्कूल में दाख़िल हो गईं। धीरे-धीरे सुमीत ने डॉक्टरी पढ़ाई में सर्जरी में दो गोल्ड मैडल जीते, और कुछ महीनों बाद वह दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में रैज़िडैंट सर्जन बन गए। वहाँ कंप्यूटर लगाए जा रहे थे। यहीं से ‘समांतर कोश’ के काम की तकनीक बदलने की शुरूआत हो गई। कंप्‍यूटर देखकर सुमीत की समझ में यह बात आ गई कि हम जो कार्डों पर काम कर रहे हैं, उस तरह तो वह काम कभी पूरा ही नहीं हो पाएगा। उन्‍होंने अपने पिताजी यानी अरविंद कुमार को इसके लिए सहमत करने की मुहिम ही चला दी।
अंततः अरविंद कुमार सहमत हुए। लेकिन कंप्यूटर के लिए उनके पास पैसे नहीं थे। उधार लेने की हिम्मत भी नहीं थी, और संभावना भी नहीं थी। आख़िर कुछ बचत करने के लिए सुमीत ने साल-डेढ़ साल ईरान में काम ले लिया। यथावश्यक राशि जमा होते ही वापस आ गए।
1993 में कंप्यूटर ख़रीदा गया। अब उसके लिए साफ़्टवेयर चाहिए था जिसे प्रोग्राम कहते हैं। ‘समांतर कोश’ के लिए एक ख़ास तरह के प्रोग्राम की ज़रूरत होती है। यह प्रोग्राम डाटाबेस बनाता है– यानी विशेष प्रकार की सूची, तालिका। अकेला डाटाबेस बनना काफ़ी नहीं होता। उसे वाँछित रिपोर्ट में तब्दील करना होता है। इस काम के संदर्भ में- थिसारस बनाना। इन दोनों ही कामों के लिए अलग-अलग प्रोग्राम चाहिए होते हैं। ये दोनों ही क़ीमती होते हैं। और अरविंद कुमार के बूते से बाहर थे। अतः सुमीत ने ही हिम्मत की। उन्‍होंने किताबें पढ़-पढ़ कर जाना कि डाटाबेस बनाने के लिए उस समय फ़ाक्सप्रो नाम का प्रोग्राम सब से अच्छा है। इधर-उधर सम्‍पर्क बना कर उसका प्रबंध कर लिया। अब फ़ाक्सप्रो से क्या काम लेना है– यह अरविंद कुमार और सुमीत को तय करना था। फिर उस काम के लिए एक उपप्रोग्राम या कंप्यूटरी भाषा मेँ ऐप्लिकेशन लिखनी थी जो फ़ाक्सप्रो पर काम कर सके। अब फिर किताबें पढ़ कर ख़ुद ही सीख कर पहले एक प्रारंभिक ऐप्लीकेशन बनी। जैसे-जैसे ‘समांतर कोश’ की ज़रूरतें बढ़ती गईं, सुमीत उस में नए-नए मौड्यूल जोड़ता गए। अब तक अरविंद कुमार के पास 60,000 कार्डों पर ढाई लाख सुव्यवस्थित शब्द जुड़ चुके थे। उसको कंप्यूटरिकृत करने के लिए डाटा प्रविष्टि कर्मचारी रखा। वह बड़ा मेहनती निकला, और लगभग बेचूक टाइप करने वाला। लगभग नौ-दस महीनों मेँ उसने वह काम पूरा किया। अब और शब्द जोड़ने थे। 1951 से ही अरविंद कुमार हिन्‍दी में टाइपिंग करते आ रहे थे। ‘सरिता’, ‘कैरेवान’ में अपनी सभी रचनाएं उन्‍होंने टाइपराइटरों पर लिखी थीं। इसका फायदा यह हुआ कि उन्‍हें कंप्यूटर डाटा में नए शब्द जोड़ने में बहुत ज़्यादा समय नहीं लगा। इस बीच सुमीत बंगलौर में डॉक्टरी करने चला गए थे।
अतः अरविंद कुमार दंपति भी सुमीत के पास बंगलौर चले गए। वहाँ जाना इसलिए भी ज़रूरी था कि अब भी उन्‍हें नई आवश्यकताओं के लिए प्रोग्राम को परिष्कृत करवाना होता था और इसमें सुमीत सहायक थे। 1990 मेँ मीता की शादी हो चुकी थी। अतः वे सुमीत के पास जाने के लिए स्वतंत्र थे। 1994 में बंगलौर जा पहुँचे। वहां सितंबर 1996 को ‘समांतर कोश’ का काम पूरा हुआ। (इस बीच यह भी तय हो चुका था कि नेशनल बुक ट्रस्ट से किताब छपेगी।) पूरे ‘समांतर कोश’ के प्रिंट आउट निकालकर तीनों नेशनल बुक ट्रस्ट के निदेशक अरविंद कुमार (उनका नाम भी अरविंद कुमार था) को सौंपने दिल्ली आए। अक्‍टूबर में प्रिंटआउट दिए। प्रिंटआउट मिलते ही अरविंद कुमार (निदेशक, नेशनल बुक ट्रस्‍ट) ने मुद्रण विभाग को आदेश दिया कि कोई बड़ा प्रेस तीनों शिफ़्टोँ के लिए बुक कर लें। पाँच हज़ार कापियों के लिए काग़ज़ इकट्ठा ख़रीद लें ताकि सभी 1,800 से पेजों में एक सा काग़ज़ रहे और काग़ज़ न होने के बहाने छपाई न रोकनी पड़े। किताब दिसंबर तक आनी ही चाहिए– राष्ट्रपति जी को समर्पित करने की तारीख़ 13 दिसंबर वह पहले ही समय ले चुके थे– किसी और को बताए बग़ैर!
और इस तरह से ‘समांतर कोश’ के रूप में एक अनमोल खजाना हिन्‍दी को मिल गया। पर बात यहीं ख़त्म नहीं हुई। यह तो केवल पूर्वकथा सिद्ध हुई। सुमीत को सिंगापुर मेँ कंप्यूटर की नौकरी मिल गई। बंगलौर से अरविंद कुमार दंपति चंद्रनगर (गाज़ियाबाद) वापस आ गए।
मीता का कहना था कि   अपने डाटा में इंग्लिश शब्दों का समावेश करें। यह बेहद ज़रूरी है। वह इंग्लिश मीडियम से पढ़ रही अपनी बेटी तन्वी को हिन्‍दी सिखातीं तो इंग्लिश के हिन्‍दी शब्द और पर्याय नहीं मिल पाते थे। अरविंद कुमार तत्काल मीता से सहमत हो गए। काम को आगे बढ़ाने का ज़िम्मा भी मीता ने लिया– ‘समांतर कोश’ की एक प्रति पर हाशियों पर सभी मुखशब्दों के इंग्लिश अर्थ लिख दिए। यही ‘द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी’ की शुरूआत बनी।
अब तक सुमीत सिंगापुर की एक साफ़्टवेयर कंपनी मेँ सीनियर वाइस प्रेज़िडैंट बन चुके थे, और मलेशिया की राजधानी क्वालालंपुर के एक अस्पताल के संचालन का कंप्यूटरन करवा रहे थे। अरविंद दंपति उसके पास गए तो वहीं उसने डाटा में इंग्लिश अभिव्यक्तियाँ शामिल करने की ऐप्लिकेशन की पहली प्रविधि लिखी। अरविंद कुमार के जीवन के तीन मंत्र हैं, मेहनत, मेहनत, मेहनत, या कर्म, कर्म, कर्म। यहाँ कृष्ण केवल सकाम और निष्काम कर्म के संदर्भ में बात कर रहे हैं। अरविंद कुमार इसे इहलौकिक अर्थ के साथ कुछ और भी जोड़ कर देखते हैं। वह कहते हैं कि ‘कर्म करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। हमारा कर्म सफल होगा या नहीं, हमें इस की तो परवाह करनी ही नहीं चाहिए, हम काम पूरा कर पाएँगे या नहीँ– इसकी भी चिंता नहीं करनी चाहिए।’ वह अपने कई उदाहरण देते हैं, ‘दिल्ली आ कर काम शुरू करते ही हमारे घर मॉडल टाउन में भयानक बाढ़ आ गई। सात फ़ुट तक पानी भर आया। अगर हमारे कार्ड ऊपर मियानी में न होते, तो सारी मेहनत धरी धराई रह जाती। इसी प्रकार मुझे 1988 में बेहद भारी दिल का दौरा पड़ा। अगर मैं अस्पताल मेँ ही न होता तो बच नहीं पाता। गुमनाम मर जाता। ऐसी कई घटनाएं जीवन में घटती रहती हैं। यूँ मर भी जाता तो जहाँ तक मेरा सवाल है मैं कर्म करने का पूरा आनंद तो लगतार भोग रहा था। तो मैं कहता हूँ— कर्म आजीवन आनंद है।’
अरविंद कुमार के कई सपने हैं। उनमें एक महान सपना है ‘शब्दोँ का विश्‍व बैंक’ यानी वर्ल्ड बैंक आफ़ वर्ड्स। उनका कहना है कि ‘यह अभी परिकल्पना और आधारभूत काम करने की स्थिति में है। एक बात ज़ाहिर है यह काम मेरे जीवन मेँ पूरा होना सम्‍भव नहीं है। मेरा काम है इस का आधार तैयार खड़ा करना। काम शुरू होने के बाद कई पीढ़ियाँ ले सकता है और इसके लिए अंतररष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता होगी। समय सीमा तो बन ही नहीं सकती। समांतर कोश के लिए दो साल की सीमा तय की थी। लग गए बीस साल! अभी तो विश्‍व शब्दबैंक की परिकल्पना का आधार जानना बेहतर है। मेरे पास हिन्‍दी और इंग्लिश अभिव्यक्तियों का विश्‍व में सब से बड़ा डाटा है। अब हिन्‍दी के माध्यम से हम भारत की सभी भाषाएं जोड़ सकते हैं। इंग्लिश डाटा के सहारे बाहर की भाषाएं मिलाई जा सकती हैं। भारत में सब से पहले मैं दक्षिण की सर्वप्रमुख भाषा तमिल से आरम्‍भ करना चाहूँगा–   इसके लिए तमिल सहयोगियों की तलाश निजी स्तर पर चल रही है। विदेशी भाषाओं में प्राथमिकता संयुक्त राष्ट्रमंडल की किसी भी आधिकारिक भाषाओं को दी जाएगी। फ्राँसीसी पहले आनी चाहिए।
‘इस परिकल्पना का आधार है यूनिकोड का अवतरण। इसके आने के बाद ही यह सोच पाना सम्‍भव हो सकता था। ऐसे किसी बैंक का महाडाटा बनने का सब से बड़ा लाभ यह होगा कि हम जब चाहें संसार की किन्हीं दो या अधिक भाषाओँ के थिसारस-कोश बना सकेंगे–   जैसे तमिल-हिन्‍दी-फ़्राँसीसी, या भारत की बात लें तो ज़रूरत हो तो गुजराती-बांग्ला-हिन्‍दी, या फिर मलयालम-हिन्‍दी…।’
उनका कहना है कि इस परिकल्पना का तकनीकी आधार है– हमारी विकसित शब्द-तकनीक। इस के ज़रिए हम अपने डाटा में अनगिनत भाषाएं और अनगिनत शब्दकोटियाँ समो सकते हैं। यह   प्रविधि बनाई है डॉक्‍टर सुमीत कुमार ने। और यह लगातार विकसित होती रह सकती है। अभी अरविंद कुमार डाटा को अपडेट करते हैं। उनका कहना कि यह एक निरंतर प्रक्रिया है। अगले साल तक इसके लिए कोई प्रणाली विकसित हो पाएगी।
अरविंद कुमार ने अक्‍टूबर 2010 में कम्‍पनी अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि. की स्‍थापना की। कंपनी का उद्देश्य है भारतीय भाषाओं को संसार भर में ले जाना। अरविंद कुमार इसके संस्थापक और शब्‍द संकलन प्रमुख हैं। अन्य सदस्य हैं कुसुम कुमार, सुमीत और मीता लाल। मीता लाल कम्‍पनी की सीईओ हैं। सुमीत इसके तकनीकी पक्ष के अध्यक्ष हैं।
यह कम्‍पनी अ‍रविंद कुमार के सभी कोशों और अन्य रचनाओं की सर्वाधिकारी है। इसने पेंगुइन से उनकी पुस्तक ‘द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐँड डिक्शनरी’ के सभी अधिकार ले लिए हैं। इस पुस्तक की बिक्री यही कम्‍पनी कर रही है। अरविंद कुमार की कई पुस्तकें राजकमल प्रकाशन समूह से प्रकाशित हुई हैं। उन सब पर उनका सर्वाधिकार है, प्रकाशकों के पास केवल एक बार तीन साल के लिए मुद्रण अधिकार है। उनमें एक ‘सहज समांतर कोश’   के बारे में उनका एग्रीमैंट कुछ इस प्रकार का है– यदि वे लोग हर तीन साल मेँ एक नियत संख्या में किताब बेच पाए तो अगले तीन सालों के लिए उन्हें उसके पुनर्मुद्रण का अधिकार मिल जाएगा। अतः यह कोश उनके पास चलता रहेगा। नेशनल बुक ट्रस्ट से ‘समांतर कोश’ वापस लेने की उनकी कोई इच्छा नहीं है। अब तक एनबीटी उसके छह मुद्रण कर चुका है।
21 जून 2011 की शाम को अरविंद कुमार को दिल्ली की हिन्‍दी अकादेमी ने शलाका सम्मान दिया, उसी दिन थाईलैंड से उन के पुत्र डॉ. सुमीत कुमार ने अरविंद लैक्सिकन को www.arvindlexicon.com   पर ऑनलाइन कर दिया। अरविंद कुमार अकारादि क्रम से संयोजित इंग्लिश-हिन्‍दी और हिन्‍दी-इंग्लिश थिसारसों पर भी काम कर रहे हैं। इनकी पुस्तकें उनकी कम्‍पनी प्रकाशित करेगी। इन कोशों की एक ख़ूबी है इंग्लिश में भारतीय शब्द  बड़े पैमाने पर संकलन। उनका कहना है कि हमारे छात्र कब तक ऐसे इंग्लिश कोशों पर निर्भर करते रहेंगे जिन में हमारी संस्कृति ही न हो। (लेखक मंच से साभार)