Wednesday 26 June 2013

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा



अनुवाद: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

अनुवादक की बातः महान प्रकृतिविज्ञानी चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन (12 फरवरी 1809-19 अप्रैल 1882) को प्रजातियों के विकास की नयी अवधारणाओं के जनक के रूप में जाना जाता है। वे आधुनिक विज्ञान के भी जनक हैं। सबसे पहले उन्होंने ही ये सिद्धांत दिया था कि प्रजातियों का उद्भव विकासात्मक परिवर्तनों के कारण हुआ और यह वैज्ञानिक थ्योरी भी सबसे पहले उन्होंने ही दी थी कि प्राकृतिक चयन वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से इस तरह के परिवर्तन होते हैं।
उन्होंने चिकित्सा शास्त्र, भूविज्ञान, जीव विज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान, आदि विषयों का गहरा अध्ययन किया और कई नयी अवधारणाएं दीं। उन्होंने अपनी खोजों के लिए लम्बी लम्बी यात्राएं कीं और शोध किये। बीगल जहाज पर उन्होंने पांच वर्ष की लम्बी यात्राएं कीं और इन यात्राओं के अनुभवों को विभिन्न खोजों और प्रयोगों के रूप में वे सामने लाते रहे।
1859 में लिखी अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक ओरिजिन ऑफ स्पेशीज से जहां एक ओर उन्हें मानव विकास की अपनी नयी अवधारणाओं से विश्व प्रसिद्धि मिली और वे महानतम वैज्ञानिकों की श्रेणी में गिने जाने लगे, वहीं दूसरी ओर, उन्हें अपने नये और धार्मिक विचारों के कारण चर्च की नाराज़गी भी झेलनी पड़ी। रूढ़िगत समाज को डार्विन साहब के मानव विकास के सिद्धांत मान्य नहीं थे। चर्च को लगता था कि डार्विन की थ्योरी मानव और पशुओं के बीच के महत्वपूर्ण फर्क को ही खत्म कर देगी। लेकिन डार्विन अपनी खोजों में लगे रहे और हर बार नये शोध पत्रों, पुस्तकों और आलेखों के माध्यम से अपनी बात कहते रहे।
डार्विन साहब आजीवन बीमार ही रहे और हर तरह के इलाज आजमाते रहे। लेकिन बार बार हमला करने वाली और लम्बी बीमारियों ने उनके हौसलों पर कोई असर नहीं डाला और वे मरते दम तक अपने शोधों मे लगे रहे। संयोग से उन्होंने अपनी ही कज़िन एम्मा वेजवुड से शादी की थी। पत्नी ने आजीवन उनकी सेवा की और उन्हें हर तरह संकटों से दूर रखने का प्रयास किया। लेकिन शायद बहुत नजदीकी खून के रिश्ते में शादी करने का खामियाजा उन्हें इस रूप में भुगतना पड़ा कि उनकी सारी संतानें हमेशा बीमार रहीं।
आधुनिक विज्ञान को उन्होंने बहुत कुछ दिया। बेशक जीते जी वे समाज के, गिरजाघर के और दूसरे वर्गों के हमले झेलते रहे, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि समाज को उनकी देन बहुत बड़ी है। अपने अकेले के बलबूते पर उन्होंने प्राकृतिक और जीव विज्ञान की सभी शाखाओं को समृद्ध किया और मानव विकास की विचार धारा को एक नयी सोच दी।
उन्होंने अपनी आत्म कथा अपने परिवार के सदस्यों के लिए ही लिखी थी लेकिन उनके बेटे फ्रांसिस डार्विन ने पिता के जीवन के अनछुए पहलुओं को सामने लाने के मकसद से इस आत्म कथा में अपनी ओर से अंश जोड़े हैं जिनसे इस पुस्तक का महत्व और भी बढ़ जाता है और हम एक पुत्र की नज़र से एक महान पिता के जीवन में झांकने का एक और मौका पाते हैं।
इसी पुस्तक के तीसरे हिस्से में डार्विन साहब के धर्म पर अलग अलग मंचों से और निजी पत्रों में व्यक्त किये गये विचारों को शामिल किया गया है। उनके ये विचार भी उनके वैज्ञानिक शोधों जितने ही महत्वपूर्ण हैं और हमारी सोच को आज भी एक नयी दिशा देते हैं।
हिन्दी पाठकों के सामने ये आत्म कथा पहली बार लाते हुए हम गर्व का अनुभव कर रहे हैं और विश्वास करते हैं कि आपको हमारा ये प्रयास अच्छा लगेगा।

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा.....................

[मेरे पिता के आत्म कथ्यात्मक संस्मरण यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं। ये संस्मरण उन्होंने अपने घर परिवार और अपने बच्चों के लिए लिखे थे, और उनके मन में कत्तई यह विचार नहीं था कि कभी इन्हें प्रकाशित भी कराया जायेगा। बहुत से लोगों को यह असम्भव लग रहा होगा, लेकिन जो लोग मेरे पिता को जानते थे, वे समझ जाएंगे कि यह न केवल सम्भव था, बल्कि स्वाभाविक भी था। उनकी आत्मकथा का शीर्षक था - मेरे मन और व्यक्तित्व विकास के संस्मरण। और ये वाली अन्तिम टिप्पणी दर्ज की गयी थी 3 अगस्त 1876 को,  "मेरे जीवन का यह रेखाचित्र होपडेन में शायद 28 मई को शुरू हुआ और उसके बाद से मैंने लगभग प्रतिदिन दोपहर एक घण्टा लेखन किया।"
यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि यह आत्मकथा बहुत ही व्यक्तिगत और प्रगाढ़ सम्बन्धों को बताते हुए, अपने परिवार के लिए लिखी गयी थी, लिहाजा इसमें ऐसे अन्तरंग विवरण भी थे, जिन्हें प्रकाशित किया जाना उचित नहीं था। मैंने हटाए गए वर्णनों का जिक्र भी नहीं किया है। बहुत ही ज़रूरी होने पर ही क्रियापदों की चूक वग़ैरह को ठीक किया है, लेकिन इस तरह का बदलाव भी कम ही किया है - फ्रांसिस डार्विन]
एक जर्मन सम्पादक ने मुझे लिखा कि मैं अपने मन और व्यक्तित्व के विकास के बारे में लिखूँ। इसमें आत्मकथा का भी थोड़ा-सा पुट रहे। मैं इस विचार से ही रोमांचित हो गया। शायद यह मेरी संतानों या उनकी भी संतानों के कुछ काम आ जाए। मुझे पता है जब मैंने अपने दादाजी की आत्मकथा पढ़ी थी तो मुझे कैसा लगा था। उन्होंने जो सोचा और जो किया, तथा वे जो कुछ करते थे, वह सब पढ़ा तो लेकिन ये सब बहुत संक्षिप्त और नीरस-सा था। मैंने अपने बारे में जो कुछ लिखा है, वह इस तरह से लिखा है जैसे मैं नहीं बल्कि परलोक में मेरी आत्मा मेरे जीवन और कृत्यों को देख देखकर लिख रही हो। मुझे इसमें कुछ भी मुश्किल नहीं आयी। अब तो जीवन बस ढलान की ओर बढ़ रहा है। लेखन शैली पर मैंने कोई ध्यान नहीं दिया है।
मेरा जन्म 12 फरवरी 1809 को श्रूजबेरी में हुआ था। मुझे सबसे पहली याद उस समय की है, जब मैं चार बरस से कुछ महीने ज्यादा की उम्र का था। हम लोग समुद्र तट पर सैर-सपाटे के लिए गए थे। कुछ घटनाएँ और स्थान अभी भी मेरे मन पर धुंधली-सी याद के रूप में हैं।
मैं अभी आठ बरस से कुछ ही बड़ा था कि जुलाई 1817 में मेरी माँ चल बसीं, और बड़ी अजीब बात है कि उनकी मृत्यु शैय्या, काले शनील से बने उनके गाउन, बड़े ही जतन से सहेजी सिलाई कढ़ाई की उनकी मेज के अलावा उनके बारे में मुझे कुछ भी याद नहीं।
उसी साल बसन्त ऋतु में मुझे श्रूजबेरी के एक डे स्कूल में दाखिल करा दिया गया। उसमें मैं एक बरस तक रहा। लोग-बाग मुझे बताते थे कि छोटी बहन कैथरीन के मुकाबले मैं पढ़ाई-लिखाई में एकदम फिसड्डी था जबकि मैं तो मानता हूँ कि मैं काफी शरारती भी था।
इस स्कूल में जाने के समय तक प्राकृतिक इतिहास, और खास कर विभिन्न प्रकार की चीज़ों के संग्रह में मेरी रुचि बढ़ चुकी थी। मैं पौधों के नाम जानने की कोशिश करता, और शंख, बिल्लौरी पत्थर, सिक्के और धातुओं के टुकड़े बटोरता फिरता रहता। संग्रह करने का यह जुनून किसी भी व्यक्ति को सलीकेदार प्रकृतिवादी या कला पारखी ही नहीं, उसे कंजूस भी बनाता है। जो भी हो, यह जुनून मुझमें था, और यह सिर्फ मुझमें ही था, क्योंकि मेरे किसी भी भाई या बहन में इस तरह की रुचि नहीं थी।
इसी बीच एक छोटी-सी घटना मेरे ज़ेहन पर पुख्ता लकीर छोड़ गयी। मेरा विचार है कि यह मेरे ज़ेहन को बार बार परेशान भी कर देती थी। यह तो साफ ही था कि मैं अपने छुटपन में पौधों की विविधता में रुचि लेता था। मैंने अपने एक हम उम्र बच्चे (मैं यह पक्का कह सकता हूँ कि यह लेहटान था, जो आगे चलकर प्रसिद्ध शिलावल्क विज्ञानी और वनस्पति शास्त्री बना) को बताया कि मैं बहुपुष्पक और बसंत गुलाब को किसी खास रंग के पानी से सींचूंगा तो अलग ही किस्म के फूल लगेंगे। हालांकि यह बहुत बड़ी डींग हांकना था, लेकिन मैंने कभी इसके लिए कोशिश नहीं की थी। मैं यह मानने में संकोच नहीं करूँगा कि मैं बचपन में अलग ही तरह की कपोल कल्पनाएँ किया करता था, और ये सब महज एक उत्सुकता बनाए रखने के लिए करता था।
ऐसे ही एक बार मैंने अपने पिताजी के बाग में बेशकीमती फल बटोरे और झाड़ियों में छुपा दिए, और फिर हाँफता हुआ घर पहुँच गया और यह खबर फैला दी कि चुराए हुए फलों का एक ढेर मुझे झाड़ियों में मिला है।
मैं जब पहली बार स्कूल गया तो शायद बुद्धू किस्म का रहा होऊंगा। गारनेट नाम का एक लड़का एक दिन मुझे केक की दुकान पर ले गया। वहाँ उसने बिना पैसे दिए ही केक खरीदे, क्योंकि दुकानदार उसे जानता था। दुकान के बाहर निकलने के बाद मैंने उससे पूछा कि तुमने दुकानदार को पैसे क्यों नहीं दिए, तो वह फौरन बोला - इसलिए कि मेरे एक रिश्तेदार ने इस शहर को बहुत बड़ी रकम दान में दी थी, और यह शर्त रखी थी कि उनके पुराने हैट को पहनकर जो भी आए और किसी भी दुकान पर जाकर एक खास तरह से अपने सिर पर घुमाए तो इस शहर के उस दुकानदार को बिना पैसे माँगे सामान देना होगा।' इसके बाद उसने अपना हैट घुमाकर मुझे बताया। उसके बाद वह दूसरी दुकान में गया, वहाँ भी उसकी पहचान थी, उस दुकान में उसने कोई छोटा-सा सामान लिया, अपने हैट को उसी तरह से घुमाया और बिना पैसे दिए ही सामान लेकर बाहर आ गया। जब हम बाहर निकल आए तो वह बोला, `देखो अब अगर तुम खुद केक वाले की दुकान में जाना चाहते हो (मुझे सही जगह याद कहाँ रहने वाली थी) तो मैं अपना हैट दे सकता हूँ, और अगर तुम इसे सही ढंग से सिर पर हिलाओगे तो जो कुछ चाहोगे, बिना दाम लिए ले सकोगे।' इस दयानतदारी को मैंने फौरन मान लिया और दुकान में जाकर कुछ केक लिए, उस पुराने हैट को वैसे ही हिलाया जैसे बताया गया था, और ज्यों ही बाहर निकलने को हुआ, तो दुकानदार पैसे माँगते हुए मेरी तरफ लपका। मैंने केक को वहीं फेंका और जान बचाने के लिए सिर पर पैर रखकर भागा। जब मैं अपने धूर्त दोस्त गारनेट के पास पहुंचा तो उसे हँसते देखकर मैं चकित रह गया।
मैं अपने बचाव में कह सकता हूँ कि यह बाल सुलभ शरारत थी, लेकिन इस बात को शरारत मान लेने की सोच मेरी अपनी नहीं थी, बल्कि मेरी बहनों की हिदायतों और नसीहतों से मुझमें इस तरह की सोच पैदा हुई थी। मुझे संदेह है कि मानवता कोई प्राकृतिक या जन्मजात गुण हो सकती है। मुझे अण्डे बटोरने का शौक था, लेकिन किसी भी चिड़िया के घोंसले से मैं एक बार में एक ही अण्डा उठाता था, लेकिन एक बार मैं सारे ही अण्डे उठा लाया, इसलिए नहीं कि वे बेशकीमती थे, बल्कि महज अपनी बहादुरी जताने के लिए।
मुझे बंसी लेकर मछली मारने का बड़ा शौक था। किसी नदी या तालाब के किनारे मैं घन्टों बैठा रह सकता था और पानी की कल कल सुनता रहता था। मायेर में मुझे बताया गया कि अगर पानी में नमक डाल दिया जाए तो केंचुए मर जाते हैं, और उस दिन से मैंने कभी भी जिन्दा केंचुआ बंसी की कंटिया में नहीं लगाया। हालांकि, इससे परेशानी यह हुई कि मछलियाँ कम फंसती थीं।
एक घटना मुझे याद है। तब मैं शायद डे स्कूल में जाता था। अपने घर के पास ही में मैंने बड़ी ही निर्दयता से एक पिल्ले को पीटा। इसलिए नहीं कि वह किसी को नुक्सान पहुँचा रहा था बल्कि इसलिए कि मैं अपनी ताकत आजमा रहा था, लेकिन शायद मैंने उसे बहुत ज़ोर से नहीं मारा था, क्योंकि वह पिल्ला ज़रा-भी किंकियाया नहीं था। यह घटना मेरे दिलो दिमाग पर बोझ-सी बनी रही, क्योंकि वह जगह मुझे अभी भी याद है, जहाँ मैंने यह गुनाह किया था। उसके बाद तो जब मैंने कुत्तों से प्यार करना शुरू कर दिया तो यह बोझ शायद और भी बढ़ता गया, और उसके बाद काफी समय तक यह एक जुनून की तरह रहा। लगता है कि कुत्ते भी इस बात को जान गए थे क्योंकि कुत्ते भी अपने मालिक को छोड़ मुझे ज्यादा चाहने लगते थे।
मिस्टर केस के डे स्कूल में जाने के दौरान हुई एक घटना और भी है जो मुझे अब तक याद है, और वह है एक ड्रैगून सिपाही को दफनाने का मौका। अभी तक वह मंज़र मेरी आँखों के सामने है कि कैसे घोड़े पर उस सिपाही के बूट रख दिए गए थे और कारबाइन को काठी से लटका दिया गया था, फिर कब्र पर गोलियाँ चलायी गयीं। भीतर उस समय जैसे किसी सोये हुए कवि की आत्मा जाग उठी थी। इतना प्रभाव पड़ा उस दृश्य का।
सन 1818 की ग्रीष्म ऋतु में मेरा दाखिला डॉक्टर बटलर के प्रसिद्ध स्कूल में करा दिया गया। यह स्कूल श्रूजबेरी में था और सन 1825 तक सात साल मैंने वहीं गुज़ारे। जब यह स्कूल मैंने छोड़ा तो मेरी उम्र सोलह बरस की थी। इस स्कूल में पढ़ाई के दौरान मैंने सही मायनों में स्कूली बच्चे का जीवन बिताया। यह स्कूल हमारे घर से बमुश्किल आधा मील दूर रहा होगा, इसलिए मैं हाजिरी के बीच खाली समय और रात में ताले बन्द होने से पहले स्कूल और घर के कई चक्कर लगा लेता था। मैं समझता हूँ कि घर के प्रति जुड़ाव और रुचि को बरकरार रखने में यह काफी मददगार रहा।
स्कूल के शुरुआती दिनों के बारे में मुझे याद है कि मुझे समय पर पहुँचने के लिए काफी तेज दौड़ना पड़ता था, और तेज धावक होने के कारण मैं अक्सर सफल ही होता था। लेकिन जब भी मुझे संदेह होता था तो अधीरता से ईश्वर से प्रार्थना करने लगता था, और मुझे याद है कि अपनी कामयाबी का श्रेय मैं हमेशा ईश्वर को देता था, अपने तेज दौड़ने को नहीं, और हैरान होता था कि प्रभु ने मेरी कितनी मदद की है।
मैंने कई बार अपने पिता और दीदी को यह कहते सुना कि जब मैं काफी छोटा था तो संन्यासियों की तरह डग भरता था, लेकिन मुझे ऐसा कुछ याद नहीं आता है। कई बार मैं अपने आप में खो जाता था। ऐसे ही एक बार स्कूल से लौटते समय शहर की पुरानी चहारदीवारी पर चहलकदमी करता हुआ आ रहा था। चहारदीवारी को लोगों के चलने लायक तो बना दिया गया था, लेकिन अभी एक तरफ मुंडेर नहीं बनायी गयी थी। अचानक ही मेरा पैर फिसला और मैं सात आठ फुट की ऊँचाई से नीचे आ गिरा। इस दौरान मुझे एक विचित्र-सा अनुभव हुआ। अचानक और अप्रत्याशित रूप से गिरने और नीचे पहुँचने में बहुत ही थोड़ा समय लगा था, लेकिन इस थोड़े से समय के बीच ही मेरे दिमाग में इतने विचार कौंध गए कि मैं चकित रह गया, जबकि मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि प्रत्येक विचार के लिए काफी समय लगता है, पर मुझे तो अलग ही अनुभव हुआ था, और मेरा ये अनुभव उनसे बिलकुल ही अलग था।
डॉक्टर बटलर के स्कूल में मेरे दिमाग का जो विकास हुआ उससे बेकार और वाहियात घटना दूसरी नहीं हो सकती। यह स्कूल पूरी तरह से पुरातन पंथी था। प्राचीन भूगोल और इतिहास को छोड़ कर कुछ भी नहीं पढ़ाया जाता था। स्कूली तालीम के रूप में मेरे पास शून्य था। अपने पूरे जीवन काल में मैं किसी भी भाषा में महारथ हासिल नहीं कर पाया। कविता करने पर खास तौर से ज़ोर दिया जाता था, और इसमें भी मैं कोई तीर नहीं मार सका था। मेरे बहुत से दोस्त थे, और सबके पास देखें तो कुल मिला कर तुकबन्दियों का अच्छा संग्रह हो जाता था। बस, इन्हीं तुकबंदियों में जोड़ तोड़ करके, और दूसरे लड़कों की मदद से मैं भी इस विषय में थोड़ा बहुत हाथ साफ कर लेता था। स्कूल में ज्यादा ज़ोर इस बात पर दिया जाता था कि कल जो कुछ पढ़ा था उसे अच्छी तरह से घोंट कर याद कर लो, और यह काम मैं बखूबी कर लेता था। सुबह चैपल में ही मैं होमर या वर्जिल की चालीस पचास पंक्तियां याद कर लेता था। लेकिन यह कवायद भी एकदम बेकार थी, क्योंकि प्रत्येक पद्य महज अड़तालीस घण्टे में बिसर जाता था। मैं आलसी नहीं था, और पद्य रचना को छोड़ दें तो मैं शास्त्रीय पठन में निष्ठापूर्वक मेहनत करता था, सिर्फ तोता रटंत नहीं करता था। मुझे होरेस के मुक्तक बहुत पसन्द थे, और इस प्रकार के काव्य अध्ययन का एकमात्र आनन्द मुझे होरेस में ही मिला।
जब मैंने स्कूल छोड़ा तो मैं अपनी उम्र के मुताबिक न तो बहुत मेधावी था और न ही एकदम निखट्टू, लेकिन मेरे सभी मास्टर और मेरे पिता मुझे बहुत ही सामान्य लड़का समझते थे, बल्कि बुद्धिमानी में सामान्य पैमाने से भी नीचे ही मानते थे। एक बार पिताजी ने मुझसे कहा,`बन्दूक चलाने, कुत्तों और चूहों को पकड़ने के अलावा तुम्हे किसी काम की परवाह नहीं है। तुम खुद के लिए और सारे परिवार के लिए एक कलंक हो।' यह सुनकर मैं बहुत ही खिन्न हो गया। मैं एक बात और भी कहूँगा कि मेरे पिता बहुत ही दयालु थे, और उनकी याददाश्त का तो मैं कायल हूँ। शायद उस दिन वे बहुत ही गुस्से में थे, जो ऐसे कठोर शब्द उन्होंने मुझसे कहे।
स्कूली जीवन के दौरान अपने व्यक्तित्व निर्माण पर नज़र डालते हुए मैं कह सकता हूँ कि इस दौरान मुझमें कुछ ऐसे गुणों का भी विकास हो रहा था जो भविष्य की आधारशिला थे, जैसे कि मेरी रुचियाँ विविधतापूर्ण थीं। जिस चीज़ में मेरी रुचि होती थी उसके प्रति मैं उत्साह से भर जाता था, और किसी भी जटिल विषय या चीज़ को समझने में मुझे बहुत आनन्द आता था। मुझे यूक्लिड पढ़ाने के लिए एक प्राइवेट ट्यूटर आते थे। मुझे अच्छी तरह से याद है कि रेखागणित के प्रमेय सिद्ध करने में मुझे बहुत आनन्द आता था। इसी तरह मुझे यह भी याद है कि जब मुझे अंकल (फ्रांसिस गेल्टन के पिता) ने बैरोमीटर के वर्नियर सिद्धान्त समझाए तो मैं कितना खुश हुआ था। विज्ञान के अलावा मेरी रुचि अलग अलग किताबों में भी थी। शेक्सपीयर के ऐतिहासिक नाटक लिये मैं स्कूल की मोटी दीवार में बनी खिड़की में बैठकर घन्टों पढ़ता रहता था। यही नहीं, मैं थामसन की `सीजन' और बायरन तथा स्कॉट की कविताओं का भी आनन्द लेता था। मैंने कविताओं का ज़िक्र इसलिए किया कि आगे चल कर शेक्सपीयर सहित सभी प्रकार के काव्य में मेरी रुचि खत्म हो गई। मुझे इस बात का दुख भी है।
काव्य से मिलने वाले आनन्द के बारे में एक घटना और बताता हूँ कि 1882 में वेल्स की सीमाओं पर हम घुड़सवारी करते हुए सैर कर रहे थे और दृश्यों में जो जीवन्त रंग काव्य ने भरा था वह मेरे मन पर किसी भी अन्य सौन्दर्यपरक आनन्द की तुलना में कहीं अधिक समय तक बना रहा।
स्कूली जीवन के शुरुआती दौर की ही बात है, एक लड़के के पास `वन्डर्स ऑफ दि वर्ल्ड' नामक किताब थी। मैं अक्सर वह किताब पढ़ता था और उसमें लिखी हुई कई बातों की सच्चाई के बारे में दूसरे लड़कों के साथ बहस भी करता था। मैं यह मानता हूँ कि यही किताब पढ़ कर मेरे मन में दूर दराज के देशों की यात्रा करने का विचार आया, और यह विचार तब पूरा हुआ जब मैंने बीगल से समुद्री यात्रा की।
स्कूली जीवन के बाद के दौर में मुझे निशानेबाजी का शौक रहा। मुझे नहीं लगता कि जितना उत्साह मुझे चिड़ियों के शिकार का रहता था, उतना कोई और किसी बड़े से बड़े धार्मिक कार्य में भी क्या दिखाता रहा होगा। मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब मैंने कुनाल पक्षी का शिकार किया, तो मैं इतना उत्तेजित हो गया था कि मेरे हाथ काँपने लगे और बन्दूक में दूसरी गोली भरना मेरे लिए मुश्किल हो गया। यह शौक काफी समय तक बना रहा और मैं अच्छा खासा निशानेबाज बन गया। कैम्ब्रिज में पढ़ने के दौरान मैं आइने के सामने खड़ा होकर बन्दूक को झटके से कन्धे पर रखने की कवायद करता था, ताकि बन्दूक कन्धे पर एकदम सीधी रहा करे।
एक और भी खेल मैं किया करता था कि अपने किसी दोस्त को कह देता था कि वह मोमबत्ती जलाकर पकड़े, और फिर बन्दूक की नली पर डाट लगाकर गोली चलाता था, अगर निशाना सही होता था तो हवा के दबाव से छोटा-सा धमाका होता और नली पर लगी डाट से तीखा पटाखा बोलता था। मेरे एक ट्यूटर ने इस अजीब-सी घटना का जिक्र किया था कि लगता है मिस्टर डार्विन घन्टों अपने कमरे में खड़े होकर चाबुक फटकारते रहते हैं, क्योंकि मैं जब भी इनके कमरे की खिड़की के नीचे से गुज़रता हूँ तो चटाक चटाक की आवाज़ आती रहती है।
स्कूली लड़कों में मेरे बहुत से दोस्त थे, जिन्हें मैं बहुत चाहता था, और मुझे लगता है कि उस समय मेरा स्वभाव बहुत ही स्नेही था।
विज्ञान में मेरी रुचि बरकरार थी, मैं अब भी उसी उत्साह से खनिज बटोरता रहता था, लेकिन बड़े ही अवैज्ञानिक तरीके से। मैं सिर्फ इतना ही देखता था कि कोई नया खनिज है, तो रख लिया, लेकिन इनके वर्गीकरण की सावधानी मैं नहीं बरतता था। कीट पतंगों पर मैं तब से ही ध्यान देने लगा था, जब मैं दस बरस (1819) का था। मैं वेल्स के समुद्रतट पर स्थित प्लास एडवर्डस् गया था। वहाँ पर मैं काले और सिन्दूरी रंग के बड़े हेमिप्टेरस कीट, और जायगोनिया तथा सिसिन्डेला जैसे शलभ देखकर चकित रह गया। ये कीट श्रापशायर में दिखाई नहीं देते थे। मैंने फौरन ही अपना मन बना लिया कि जितने भी मरे हुए कीट बटोर सकूँगा, बटोरूँगा। मरे हुए कीट बटोरना मैंने इसलिए तय किया था क्योंकि मेरी बहन ने बताया था कि महज संग्रह के लिए कीटों को मारना ठीक नहीं। वाइट लिखित सेलबोर्न पढ़ने के बाद मैं पक्षियों की आदतों पर ध्यान देने लगा और इस बारे में खास खास बातों को लिखने भी लग गया। बड़े ही सामान्य भाव से मैं यह भी आश्चर्य करता था कि हर कोई पक्षी विज्ञानी क्यों नहीं बन जाता है।
मेरा स्कूली जीवन समापन की ओर था। इस बीच मेरे भाई रसायन विज्ञान में काफी मेहनत कर रहे थे। घर के बाग में बने टूलरूम को उन्होंने एक अच्छी खासी प्रयोगशाला में बदल दिया था। वहाँ पर तरह तरह के उपकरण जुटा लिए थे, और ज्यादातर प्रयोगों में मुझे उनके सहायक के तौर पर मदद की इजाज़त मिल गयी थी। उन्होंने सभी गैसें तैयार कर ली थीं और कई एक यौगिक रसायन भी बना लिए थे। मैंने भी रसायन पर कई किताबें पढ़ ली थीं, इनमें सबसे पसन्दीदा किताब थी, हेनरी और पार्क्स की कैमिकल कैटेकिस्म। इस विषय में मेरा मन बहुत रम रहा था, और हम दोनों भाई देर रात तक काम में जुटे रहते थे। स्कूली शिक्षा के दौरान यह समय मेरे जीवन का सर्कोत्तम काल था, क्योंकि इसी दौरान मैंने प्रयोगात्मक विज्ञान को व्यावहारिक रूप में समझा। हम दोनों मिलकर रसायनों पर प्रयोग करते हैं, यह बात न जाने कैसे स्कूल में फैल गयी। इस तरह का काम स्कूली लड़कों ने पहले कभी नहीं किया था, इसलिए सबने इसका मज़ाक उड़ाया और इसे नाम दिया - गैस। डॉक्टर बटलर हमारे हेडमास्टर थे। एक बार उन्होंने भी सभी के सामने मेरा अपमान करते हुए कहा कि मैं ऐसे वाहियात किस्म के विषयों पर अपना समय बर्बाद कर रहा हूँ। उन्होंने सबके सामने बेवजह ही मुझे एकान्तवासी संन्यासी कहा, उस समय तो मुझे इसका मतलब समझ नहीं आया लेकिन इतना तो मैं जान ही गया था कि कुछ कड़वी बात कही गयी है।
यह देखते हुए कि मैं स्कूल में कुछ खास नहीं कर पा रहा हूँ, मेरे पिता ने समझदारी दिखाते हुए मुझे कुछ पहले ही स्कूल से उठवा लिया और मुझे भाई के साथ (अक्तूबर 1825) एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी भेज दिया, जहाँ पर मैं दो बरस तक रहा।
मेरे भाई अपनी डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर रहे थे। हालांकि मैं जानता था कि डाक्टरी की प्रैक्टिस करने का उनका कोई इरादा नहीं था, और पिताजी ने मुझे इसलिए भेजा था कि मैं भी डाक्टरी की पढ़ाई शुरू कर सकूँ। इसी दौरान मुझे कुछेक छोटी मोटी घटनाओं से यह पता चल चुका था कि मेरे पिताजी मेरे लिए इतनी जायदाद छोड़ जाएँगे कि मैं आराम से ज़िन्दगी बसर कर सकूँ। हालांकि मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं इतना धनवान हूँ, लेकिन जब मुझे अपनी हैसियत का पता चला तो इतना ज़रूर हुआ कि डाक्टरी पढ़ने की मेहनत के रास्ते में रुकावट आ गयी।
एडिनबर्ग में सारी शिक्षा लैक्चरों के जरिए दी जाती थी। लेकिन ये लैक्चर इतने उबाऊ और नीरस होते थे कि बस, पूछो मत। इनमें अगर कुछ अपवाद था तो रसायनशास्त्र के बारे में होप के लैक्चर। इस सबके बावजूद मेरे विचार से पढ़ने की तुलना में लैक्चरों से लाभ तो कुछ नहीं होता था, उल्टे इनके साथ हानियाँ कई एक जुड़ी हुई थीं। सर्दियों में सवेरे ठीक आठ बजे डॉक्टर डन्कन द्वारा मैटेरिया मेडिका पर दिए जाने वाले लैक्चरों की याद आज भी तन को झकझोर देती है। डॉक्टर मुनरो मानव शरीर शास्त्र पर उतने ही नीरस लैक्चर देते थे, जितने नीरस वे खुद थे, और यह विषय मुझे वैसे भी कोफ्त भरा लगता था। मेरे जीवन में यह तो एक बड़ी दुर्घटना के रूप में तो है ही कि मैं चीर-फाड़ की कला नहीं सीख पाया। यदि सीख लेता तो न केवल अपनी झुँझलाहट से बच जाता, बल्कि यह अभ्यास भविष्य में मेरी काफी मदद करता। इस कमी की तो भरपाई कभी भी नहीं हो पायी।
मुझमें एक और कमी भी थी कि मैं ड्राइंग भी नहीं बना पाता था। मैं अस्पताल में क्लीनिकल वार्ड में नियमित रूप से जाता था। कुछ मामले तो ऐसे थे जिन्हें देखकर मैं व्याकुल हो जाता था। कुछ तो ऐसे हैं जो आज भी मेरे दिलो-दिमाग पर गहराई से छाए हुए हैं, लेकिन इन सबसे विचलित होकर मैंने कक्षाओं में अपनी हाजिरी कम नहीं होने दी। मुझे अभी भी यह समझ में नहीं आया है कि इस विषय की शिक्षा प्राप्त करने में मुझे रोचकता का अनुभव क्यों नहीं हुआ, क्योंकि एडिनबर्ग आने से पहले गर्मियों के दौरान श्रूजबेरी में मैंने कुछ गरीब लोगों का इलाज किया था, खासकर औरतों और बच्चों का। सभी रोगियों के मामलों में मैंने उनके सभी लक्षणों को विस्तारपूर्वक लिखा, फिर ये सभी पिताजी को सुनाए, उन्होंने कुछ और बातें भी पूछने के लिए कहा और मुझे दवाओं के बारे में भी बताया। ये दवाएं भी मैंने खुद ही तैयार कीं। एक बार में मेरे पास तकरीबन एक दर्जन बीमार आते थे और मुझे इस काम में काफी रुचि भी थी।
मैं जितने भी लोगों को जानता हूँ, उनमें मेरे पिताजी ही ऐसे थे जो व्यक्तित्व के गहरे रखी थे, और उन्होंने मेरे लिए एक दिन कहा था कि मैं एक सफल डाक्टर बन सकता हूँ, इसका मतलब तो बस यही होता था, ऐसा व्यक्ति जिसके पास ढेर सारे मरीज आएँ। दूसरी ओर वे यह भी मानते थे कि सफलता का मुख्य तत्त्व है, आत्मविश्वास; लेकिन मेरी जिस बात ने उन्हें प्रभावित किया था वह यह कि मैं जो कुछ नहीं भी जानता था उस बात के प्रति भी अपने मन में आत्मविश्वास पैदा कर लेता था। मैं एडिनबर्ग में दो बार ऑपरेशन थिएटर में भी गया, और बहुत ही दर्दनाक ढंग से किए जा रहे दो ऑपरेशन भी देखे। इनमें से एक ऑपरेशन तो किसी बच्चे का था, लेकिन ऑपरेशन पूरा होने से पहले ही मैं बाहर निकल आया। इसके बाद मैं कभी भी ऑपरेशन कक्ष में नहीं गया।
यहाँ यह भी बता दूँ कि उन दिनों क्लोरोफार्म का उपयोग नहीं किया जाता था, इसलिए दोनों ही ऑपरेशन देखकर दिल दहल गया था। मन में एक बलवती इच्छा तो थी कि एक बार मैं फिर ऑपरेशन देखने जाऊँ, लेकिन कभी नहीं गया। लेकिन दोनों ऑपरेशनों के दृश्य मुझे काफी दिनों तक विचलित करते रहे।
मेरे भाई यूनिवर्सिटी में सिर्फ एक साल ही मेरे साथ रहे। दूसरे बरस तो सारे इन्तज़ाम मुझे खुद ही करने पड़े, और यह एक तरह से अच्छा भी रहा, क्योंकि इसी दौरान मैं ऐसे युवकों के सानिध्य में आया जो प्राकृतिक विज्ञान में रुचि रखते थे। इन्हीं युवाओं में एक थे, एन्सवर्थ, बाद में इन्होंने असीरिया की यात्रा का वृत्तांत भी प्रकाशित कराया। ये सज्जन वर्नेरियन भूविज्ञानी थे, और बहुत से विषयों की थोड़ी बहुत जानकारी रखते थे। डॉक्टर कोल्डस्ट्रीम एक अलग ही तरह के नवयुवक थे। बड़े ही विनम्र और नफासत पसन्द, बहुत ही धार्मिक और दयालु; बाद में इन्होंने प्राणिशास्त्र में कई बेहतरीन लेख प्रकाशित कराए। मेरा एक और युवा साथी था, हार्डी, आगे चलकर वह वनस्पति शास्त्री बना, लेकिन भारत प्रवास के दौरान बहुत कम उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गयी थी।
मेरे आखिरी दोस्त थे डॉक्टर ग्रान्ट। वैसे तो वे मुझसे कई बरस वरिष्ठ थे; उनके साथ मेरी घनिष्ठता कैसे हुई, मुझे नहीं मालूम। उन्होंने प्राणिशास्त्र में अतिश्रेष्ठ लेख प्रकाशित कराए थे, लेकिन यूनिवर्सिटी कॉलेज में प्रोफेसर के रूप में लन्दन आने के बाद उन्होंने विज्ञान में कुछ खास नहीं किया। यह बात ऐसी थी, जिसे मैं कभी समझ नहीं पाया। मैं उन्हें अच्छी तरह से जानता था। उनका व्यवहार बड़ा ही नीरस और औपचारिक था, लेकिन इस बाहरी खोल के भीतर निहायत ही नेक दिल और उत्साही व्यक्ति छिपा हुआ था। एक दिन हम लोग साथ-साथ घूम रहे थे कि अचानक ही उन्होंने उद् विकास के बारे में लैमारेक के दृष्टिकोणों पर अपने विचार प्रकट करने शुरू कर दिए। मैं चकित होकर मूक श्रोता बना रहा, लेकिन जहाँ तक मेरा ख्याल है, मुझ पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इससे पहले मैंने अपने दादाजी की जूनोमिया पढ़ी थी। उसमें भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए गए थे और उनका भी मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। इसके बावजूद यह भी सम्भावना है कि जीवन के आरम्भ में ही इस प्रकार की विचारधारा को स्वीकार करता और उसकी प्रशंसा करता तो जिस प्रकार से उन्हीं विचारों को मैंने ओरिजिन ऑफ स्पेशीज़ में लिखा है, शायद उनका रूप कुछ और ही होता। इस समय मैं जूनोमिया की काफी प्रशंसा करता हूँ, लेकिन दस या पन्द्रह वर्ष के अन्तराल के बाद दोबारा वही किताब पढ़ कर मैं काफी असन्तुष्ट रहा। तथ्यों और परिकल्पनाओं में बहुत ही अन्तर दिखाई दिया।
डॉक्टर ग्रान्ट और डॉक्टर कोल्डस्ट्रीम, दोनों ही मैरीन जूलॉजी पर अधिक ध्यान देते थे। मैं भी यदा कदा डॉक्टर ग्रान्ट के साथ समुद्र किनारे चला जाता था और समुद्र में ज्वार के बाद किनारे रुके हुए पानी में जीव पकड़ता था। बाद में इन जीवों की मैं चीर-फाड़ भी करता था। न्यू हैवेन के बहुत से मछुआरों से मेरी दोस्ती हो गयी थी। जब वे सीपियाँ पकड़ने जाते तो मैं भी कई बार उनके साथ हो लेता था। इस तरह से मैंने कई नमूने एकत्र कर लिए थे। अब चीर-फाड़ का मुझे अधिक ज्ञान और अभ्यास भी नहीं था और मेरा सूक्ष्मदर्शी यंत्र भी बस कामचलाऊ ही था। इन सब बाधाओं के कारण मैं इस दिशा में ज्यादा कुछ नहीं कर पाया।
इस सबके बावजूद मैंने छोटा किन्तु रोचक अन्वेषण किया और प्लिनियन सोसायटी के समक्ष एक छोटा-सा लेख भी पढ़ा। यह लेख फ्लस्ट्रा के डिम्बों के बारे में था। इसमें मैंने बताया था कि सिलिया के माध्यम से इसमें स्वतंत्र गति होती है, लेकिन बाद में पता चला कि वास्तव में ये लारवे थे। एक और लेख में मैंने दर्शाया था कि छोटे छोटे गोलाकार जीव, जिन्हें फ्यूकस लोरेस की आरम्भिक अवस्था कहा जाता है, वस्तुत: पोन्टोबडेला म्यूरीकेटा जैसे कृमियों के अण्डों का खोल थे।
मेरी जानकारी के मुताबिक प्लिनियन सोसायटी की स्थापना प्रोफेसर जेम्सन ने की थी और वही इसके प्रेरक भी थे, इस सोसायटी में कई छात्र भी शामिल थे और प्राकृत विज्ञान के बारे में लेख पढ़ने और विचार विमर्श के लिए यूनिवर्सिटी के एक तहखाने में इसकी बैठकें होती रहती थीं। मैं इनमें नियमित रूप से शामिल होता था, और मेरे उत्साह को बढ़ाने तथा मुझे नए किस्म की अंदरूनी नज़दीकी प्रदान करने में इन बैठकों का काफी योगदान रहा।
एक शाम की बात है, एक बेचारा युवक बोलने के लिए खड़ा हुआ किन्तु बहुत देर तक हकलाता रहा। वह भयातुर हो पीला पड़ गया। अन्त में वह किसी तरह बोला, `माननीय अध्यक्ष महोदय, मैं जो कुछ कहना चाहता था, वह सब भूल गया हूँ।' वह बेचारा पूरी तरह से भयभीत लग रहा था। सभी सदस्य हैरान, कोई भी यह समझ नहीं पा रहा था कि उस बेचारे की बौखलाहट पर क्या कहा जाए? हमारी सोसायटी में जो लेख पढ़े जाते थे वे मुद्रित नहीं होते थे, इसलिए मुझे अपने लेखों को मुद्रित रूप में देख पाने का सौभाग्य नहीं मिला, लेकिन मुझे मालूम है कि डॉक्टर ग्रान्ट ने मेरी छोटी-सी खोज को फ्लास्ट्रा पर अपने अनुसंधान लेख में स्थान दिया था।
मैं रॉयल मेडिकल सोसायटी का भी सदस्य था, और इसमें भी नियमित रूप से शामिल होता था। इसके सभी विषय पूरी तरह से मेडिकल से जुड़े थे, इसलिए मेरी रुचि अधिक नहीं रही। यहाँ तो सब ऊल-जलूल ही बातें होती थीं, लेकिन इसमें कुछ अच्छे वक्ता भी थे। इनमें सर जे के शटलवर्थ सर्वोत्तम थे। डॉक्टर ग्रान्ट मुझे यदा कदा वर्नेरियन सोसायटी की सभाओं में भी ले जाते थे। वहाँ प्राकृतिक इतिहास पर विभिन्न आलेखों का वाचन किया जाता था, विचार विमर्श होता और फिर उन्हें ट्रान्जक्शन्स में प्रकाशित किया जाता था। मैंने सुना था कि ऑडोबान ने दक्षिण अमरीकी पक्षियों की आदतों पर रोचक आख्यान दिया था। वाटरटन में बड़े ही अन्यायपूर्वक तरीके से उसका तिरस्कार हुआ। इस सबके बीच मैं यह भी बताना चाहूंगा कि एडिनबर्ग में एक नीग्रो रहता था, जिसने वाटरटन के साथ यात्रा की थी। मरे हुए पक्षियों में भुस भर कर वह अपना जीवन यापन करता था। इस काम में उसे महारथ हासिल थी। कुछ पैसे लेकर उसने मुझे भी यह काम सिखा दिया। अक्सर मैं उसके पास बैठता था। वह बड़ा ही खुशमिज़ाज और बुद्धिमान व्यक्ति था।
मिस्टर लियोनार्ड हार्नर एक बार मुझे रायल सोसायटी ऑफ एडिनबर्ग की सभा में भी ले गए। वहाँ मैंने सर वाल्टर स्कॉट को अध्यक्ष के रूप में देखा। सर स्काट इस बात के लिए माफी माँग रहे थे कि वे उस पद के लायक नहीं थे। मैंने उन पर और समूचे दृश्य पर हैरानी और श्रद्धापूर्वक निगाह दौड़ायी। मैं समझता हूँ इसका कारण यह था कि मैं वहाँ काफी युवावस्था में पहुंच गया था और मैं रॉयल मेडिकल सोसायटी की सभाओं में जाता रहता था, लेकिन मुझे इस बात का गर्व था कि इन दोनों ही सोसायटियों ने कुछ ही बरस पहले मुझे अपनी सदस्यता प्रदान की थी, जो अपने आप में किसी भी सम्मान से कहीं अधिक था। यदि मुझे कभी बताया जाता कि मुझे यह सम्मान मिलेगा तो मैं कहता हूँ कि मुझे ही यह हास्यास्पद और असम्भव सा लगता, जैसे कि किसी ने मुझसे कह दिया हो कि `तुम्हें इंग्लैन्ड का राजा चुना जाना चाहिए'।
एडिनबर्ग प्रवास के अपने दूसरे बरस में मैंने भूविज्ञान और प्राणीविज्ञान पर जेम्सन के व्याख्यान सुने, पर ये बहुत ही नीरस थे। इनका मुझ पर जो समग्र प्रभाव पड़ा, वह यही था कि मैं ताज़िन्दगी भूविज्ञान पर कोई किताब पढ़ने का प्रयास न करूँ या फिर विज्ञान का अध्ययन ही न करूँ। तो भी इतना तो पक्का ही है कि मैं इस विषय पर दार्शनिक व्याख्यान के लिए तैयार था, क्योंकि श्रापशायर के निवासी एक बुज़ुर्ग मिस्टर कॉटन को चट्टानों की अच्छी जानकारी थी। उन्होंने ही दो तीन बरस पहले श्रूजबेरी शहर में पड़े एक शिलाखण्ड के बारे में बताया था। इस शिलाखण्ड को लोग बेलस्टोन कहते थे। इसके बारे में बताते हुए उन्होंने कहा था कि कैम्बरलैन्ड या स्कॉटलैन्ड से पहले इस तरह की चट्टानें नहीं मिलती हैं। उन्होंने मुझे बड़े ही प्रभावपूर्ण ढंग से बताया कि जिस जगह पर यह शिलाखण्ड पड़ा था, उस जगह तक यह कैसे पहुँचा, यह भेद तो शायद प्रलय के बाद भी नहीं खुलेगा। इसका मुझ पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और मैं इस सुन्दर शिलाखण्ड के बारे में कई बार चिन्तन करता रहता था। इसी बीच जब मैंने यह वृत्तान्त पढ़ा कि किस प्रकार आइसबर्ग के माध्यम से बड़े बड़े शिलाखण्ड भी अपनी जगह बदल देते हैं, तो मैं पुलकित हो उठा, और मैं उन महाशय के भूविज्ञान के ज्ञान की दशा पर रीझ गया।
यह तथ्य भी मुझे उतना ही चमत्कारी लगा, जब सड़सठ वर्ष की अवस्था में मैंने सेलिसबरी क्रेग में एक प्रोफेसर से काले रंग की चट्टान के बारे में व्याख्यान सुना। हमारे आस पास तो ज्वालामुखीय चट्टानें हैं। उस परिवेश में बादामी आकार वाले किनारों और दोनों तरफ कठोर परत वाली इस चट्टान के बारे में उन्होंने कहा कि इसमें कोई दरार रही होगी जिस पर ऊपर से गाद भरती चली गयी। उपहासपूर्वक उन्होंने यह भी कहा कि कुछ लोग यह मानते हैं कि यह कठोर परत तरल रूप में नीचे से घुसी हुई होगी। यह लैक्चर सुनने के बाद तो भूविज्ञान के व्याख्यान सुनने में अपने परहेज़ पर मुझे क़तई हैरानी नहीं हुई।
जेम्सन के व्याख्यान सुनने के बाद मैं मिस्टर मैकागिलिवरे से परिचित हुआ। ये एक संग्रहालय के क्यूरेटर थे। इन्होंने स्काटलैन्ड के पक्षियों पर एक बड़ी पुस्तक का प्रकाशन कराया। मैं उनके साथ प्राकृत इतिहास पर रोचक चर्चा करता रहता था, और वह मुझसे प्रसन्न भी रहते थे। उन्होंने मुझे कुछ दुर्लभ शल्क भी दिए। उस समय मैं समुद्री मोलस्कों का संग्रह कर रहा था, लेकिन इस संग्रह के लिए मुझ में कोई खास उत्साह नहीं था।
इन दोनों ही वर्षों में गर्मी की छुट्टियों में मैंने खूब मज़े मारे। हाँ, इतना ज़रूर था कि कोई न कोई पुस्तक मैं हमेशा पढ़ता रहता था। सन 1826 की गर्मियों में मैंने अपने दो दोस्तों को साथ लिया, अपने-अपने पिट्ठू थैले लादे और नॉर्थ वेल्स की सैर को पैदल ही निकल गए। एक दिन में हम तीस मील तो चले ही जाते थे। एक दिन हमने स्नोडान में पड़ाव भी डाला। एक बार मैं अपनी बहन के साथ घुड़सवारी करता हुआ नॉर्थ वेल्स की सैर को भी गया था। एक नौकर ने काठी वाले झोले में हमारे कपड़े संभाले हुए थे। पतझड़ का सारा मौसम निशानेबाजी में जाता था। यह समय मैं ज्यादातर वुडहाउस में मिस्टर ओवेन और मायेर में अंकल जोस के साथ बिताता था। निशानेबाजी का तो मुझ पर जुनून-सा सवार था। इतना कि जब मैं सोने के लिए जाता तो अपने शिकारी जूते भी पलंग के पास ही रख लेता था ताकि सवेरे उठते ही उन्हें पहन सकूँ और अपना एक मिनट भी बरबाद किए बिना तैयार हो जाऊँ।
एक बार 20 अगस्त को तो अपने इसी प्रिय खेल के चक्कर में मैं मायेर में काफी दूर तक निकल गया, और घने सरकण्डों तथा स्काटलैन्ड में पाए जाने वाले देवदार के पेड़ों के बीच सारा दिन गेमकीपर के साथ भटकता रहा।
पूरे मौसम में मैं जितने पक्षियों का शिकार करता था, उन सब का पूरा लेखा-जोखा रखता था। एक दिन वुडहाउस में मिस्टर ओवेन के ज्येष्ठ पुत्र कैप्टन ओवेन और उनके कज़िन मेजर हिल के साथ निशानेबाजी कर रहा था। यही मेजर हिल आगे चलकर लार्ड बेरविक के नाम से मशहूर हुए। इन दोनों ही से मेरी खूब छनती थी। इसी का फायदा उठाते हुए उस रोज़ दोनों ने मुझे खूब छकाया, क्योंकि जितनी बार मैं गोली चलाता और सोचता कि मैंने एक पक्षी मार लिया है तो फौरन ही दोनों में से कोई एक अपनी बन्दूक में गोली भरने का स्वांग करने लगता, और वहीं से चिल्लाता, `तुम उस पक्षी की गिनती मत करना क्योंकि उसी वक्त मैंने भी गोली चलायी थी'। और तो और, गेमकीपर भी उनके इस मज़ाक को समझ गया और उन्हीं का साथ देने लगा। कुछ घंटों के बाद जब उन्होंने इस मज़ाक के बारे में बताया, तो साथ ही यह भी बताया कि उस दिन मैंने बहुत से पक्षियों का शिकार किया था, लेकिन मुझे नहीं मालूम है कि कितने पक्षियों का, क्योंकि उनके मज़ाक के चक्कर में मैंने गिनती नहीं की थी। अमूमन ऐसा होता था कि अपने कोट के बटन के साथ मैं एक धागा लटका लेता था और जितने पक्षी मैं मारता था उतनी ही गाँठें उस धागे में लगाता जाता था, पर उस दिन मैं ऐसा नहीं कर पाया था। यह मेरे ठिठोलीबाज़ दोस्तों को मालूम था।
मैं इस निशानेबाजी में क्यों रुचि लेने लगा था, मुझे नहीं मालूम, लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि उस वक्त मैं निशानेबाजी के चक्कर में विवेकशून्य हो गया था। तभी तो मैं यह सोचने लगा था कि अच्छी निशानेबाजी भी बुद्धिमानी की निशानी है, क्योंकि यह जानना भी एक कला है कि अच्छे शिकार कहाँ मिलेंगे और उनका शिकार कैसे किया जाए।
मैं सन 1827 में जब पतझड़ के मौसम में मायेर गया हुआ था, तो वहां पर सर जे मेकिनटोश से भेंट हुई। मुझे जितने भी वक्ता मिले उनमें वे सर्वोत्तम थे। बाद में पीठ पीछे मेरी तारीफ करते हुए उन्होंने गर्व से कहा था, `इस युवक में कुछ है जो मुझे रुचिकर लगा।' शायद उन्होंने भी देख लिया था कि उनकी बतायी हर बात को मैं कितने ध्यान से सुन रहा था, और मैं तो इतिहास, राजनीति और नैतिक दर्शनशास्त्र के बारे में निरा बुद्धू था। किसी प्रसिद्ध व्यक्ति से अपनी प्रशंसा सुनना किसी भी युवक को अच्छा लगता है, क्योंकि यह उसे सही रास्ते पर लगाए रखता है, हालांकि इस प्रकार की तारीफ से कुशाग्रता बढ़ती है लेकिन कई बार मिथ्या अहं भी बढ़ सकता है।
बाद के दो-तीन बरस में जब मैं मायेर गया तो मैंने निशानेबाजी नहीं की, फिर भी समय शानदार गुज़रा। वहाँ का जीवन एकदम तनाव रहित था। पैदल घूमने या घुड़सवारी करने के लिए दूर-दराज के इलाके बड़े ही दिलकश थे, और शाम को सब बैठकर संगीत और गप्पबाजी का आनन्द लेते थे। हमारी गप्पें बहुत व्यक्तिगत नहीं होती थीं, जैसा कि बड़े परिवारों में अक्सर होती हैं। गर्मियों में पूरा परिवार अक्सर पुराने पोर्टिको की सीढ़ियों में बैठ जाता था। सामने ही फुलवारी थी और मकान के ठीक सामने फैला हुआ ढलवाँ जंगल नदी में चमकता रहता था। नदी में मछलियों की छलाँग या जल पक्षियों का तैरना बड़ा ही मनमोहक था। मेरे दिलो दिमाग पर मायेर की उन शामों की याद आज भी ताज़ा है। मैं अंकल जोस का बहुत आदर करता था और मुझे उनसे लगाव भी बहुत था। वे बहुत ही मौन प्रकृति के और एकान्तप्रिय व्यक्ति थे, लेकिन मुझसे कई बार खुलकर बातें करते थे। वे अत्यन्त सरल और स्पष्ट विवेक के स्वामी थे। मुझे नहीं लगता कि संसार में ऐसी कोई भी शक्ति होगी जो उन्हें उस मार्ग से विचलित कर सके, जो मार्ग उनकी समझ में सही हो। उनके बारे में मैं होरेस के काव्य की कुछ पंक्तियाँ कहता था।
कैम्ब्रिज, 1828-1831 एडिनबर्ग में दो सत्र गुज़ारने के बाद, पता नहीं मेरे पिता को मालूम हो गया, या मेरी बहनों ने बता दिया कि मैं फिजीशियन बनने का विचार पसन्द नहीं करता। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं पादरी बन जाऊँ तो बेहतर होगा। क्योंकि मैं एक निठल्ला शिकारी बनूँ, इस बात के वे प्रखर विरोधी थे। उस समय तो यही सम्भावना ज्यादा थी कि मैं शिकारी बनने की ओर कदम बढ़ा रहा था। मैंने सोचने के लिए कुछ मोहलत माँगी, ताकि चर्च ऑफ इंग्लैन्ड के सभी धर्मसूत्रों के प्रति अपने मन में विश्वास पैदा कर सकूं, क्योंकि सुनी सुनाई बातों के कारण में मन में बहुत-सी आशंकाएं घर कर चुकी थीं। इसके अलावा मैं पादरी बनने के विचार को पसन्द करता था। इसी क्रम में मैंने ईसाई सिद्धान्तों पर पीयरसन के लेख और अन्य धर्मग्रन्थ बहुत ही सावधानी से पढ़े। उस समय तो बाइबल के प्रत्येक शब्द में वर्णित सत्य का कड़े और अक्षरशः पालन करने में मुझे संदेह नहीं रह गया। जल्द ही मैं इस बात का मुरीद हो गया कि ईसाई मत के सिद्धान्तों का सम्पूर्ण रूप से पालन होना चाहिए।
इस बात पर ध्यान दूँ कि मेरे विचारों के कारण किस प्रकार से मुझ पर रूढ़िवादियों ने हमले किए, तो यह बड़ा ही असंगत लगता है कि कभी मैं पादरी बनना चाहता था। वैसे मेरा तो अभिप्राय नहीं था और मैंने पिताजी की इच्छा को छोड़ा भी नहीं था, लेकिन पादरी बनने का यह विचार भी उस समय स्वाभाविक रूप से दम तोड़ गया, जब मैंने प्रकृतिवादी के रूप में बीगल में काम शुरू किया। यदि मानस विज्ञानियों का भरोसा किया जाए तो मैं पादरी बनने के लिए कई मायनों में एकदम सही था। कुछ वर्ष पहले जर्मन मानस विज्ञानी सोसायटी के कार्यालय से मुझे एक पत्र मिला था, जिसमें उन्होंने काफी शिद्दत के साथ मेरा फोटो माँगा था। कुछ समय बाद मुझे उनकी बैठकों का वृत्तान्त प्राप्त हुआ, उसमें यह उल्लेख था कि मेरे ललाट का आकार प्रकार वहां चर्चा का विषय रहा, और वहाँ मौजूद एक वक्ता ने तो यहाँ तक कहा कि मेरे जैसा उन्नत ललाट तो दस पादरियों को मिलाकर भी नहीं होगा।
जब यह तय हो गया कि मैं पादरी बनूँ, तो यह भी ज़रूरी हो गया कि इस दिशा में तैयारी करने के लिए मैं किसी इंग्लिश यूनिवर्सिटी में पढ़ने जाऊँ और उपाधि हासिल करूँ। मेरे साथ संकट यह था कि स्कूल छोड़ने के बाद मैंने कोई शास्त्रीय ग्रन्थ नहीं पढ़ा था। मुझे यह जान कर बड़ा ही क्षोभ हुआ कि इन दो बरस के दौरान स्कूल में पढ़ा हुआ सब कुछ भूल गया था। सब कुछ। यहाँ तक कि ग्रीक वर्णमाला के कुछ अक्षर भी। इसलिए मैं अक्तूबर में ठीक समय पर कैम्ब्रिज नहीं जा सका, बल्कि श्रूजबेरी में ही प्राइवेट ट्यूटर से पढ़ा और फिर क्रिसमस की छुट्टियों के दौरान 1828 की शुरुआत में ही कैम्ब्रिज जा पाया। मैंने जल्द ही स्कूल की सारी पढ़ाई को याद कर लिया, और होमर तथा ग्रीक टेस्टामेन्ट जैसी आसान ग्रीक पुस्तकों का सुविधानुसार अनुवाद भी कर लेने लगा था।
यदि शैक्षणिक ज्ञान को देखा जाए तो मैंने कैम्ब्रिज में तीन बरस का अपना समय बरबाद किया। यह ठीक वैसा ही रहा जैसा एडिनबर्ग में स्कूल में हुआ था। मैंने गणित का अभ्यास शुरू किया, और 1828 की गर्मियों में बारमाउथ में प्राइवेट ट्यूटर भी रखा, लेकिन मेरी पढ़ाई बहुत धीमी चल रही थी। मुझे बीजगणित के शुरुआती सूत्र तो बेमतलब ही लग रहे थे। पढ़ाई में इस तरह की अधीरता दिखाना एक तरह से बेवकूफी थी, क्योंकि बाद के समय में मैं खुद को ही कोसता था कि मैंने मेहनत क्यों नहीं की और गणित के कुछ विख्यात सूत्रों को क्यों नहीं समझा। मुझे लगने लगा था कि गणित की जानकारी रखने वाले प्रबल मेधा के स्वामी होते हैं। लेकिन साथ ही मुझे यह भी महसूस हुआ कि गणित की पढ़ाई में मैं खास कुछ कर भी न पाता। शास्त्रीय ज्ञान के बारे में मैंने कॉलेज के अनिवार्य लैक्चरों के अलावा कुछ खास नहीं किया, और इनमें भी मैं मामूली तौर पर ही जाता था।
अपने दूसरे वर्ष के दौरान लिटिल गो पास करने के लिए मैंने एक या दो महीने जमकर मेहनत की और बेड़ा पार हो गया। इसी तरह से अंतिम वर्ष में बीए की डिग्री पाने के लिए मैंने मनोयोग से अध्ययन किया, अपना शास्त्रीय ज्ञान, बीजगणित और यूक्लिड दोहराया। यूक्लिड में मुझे वैसा ही आनन्द आया जैसा कि स्कूली दिनों में आता था। बीए की परीक्षा पास करने के लिए मुझे पाले द्वारा लिखित एविडेन्स ऑफ फिलॉस्फी पढ़ना भी ज़रूरी था। यह काम मैंने मन लगाकर किया और मुझे यह तो भरोसा हो ही गया था कि मैं सम्पूर्ण एविडेन्स को पूरी शुद्धता के साथ लिख सकता था। हाँ, इतना ज़रूर है कि पाले जैसी स्पष्ट भाषा नहीं लिख पाता। इस किताब के विभिन्न प्रकार के तर्कों ने, और मैं यह भी कहूँगा कि उनकी प्राकृतिक आध्यात्म विद्या ने मुझे यूक्लिड जैसा ही आनन्द प्रदान किया। इन रचनाओं का सावधानीपूर्वक अध्ययन हमारे शैक्षणिक पाठ्यक्रम का वह भाग था जो मेरे दिमागी विकास के लिए शिक्षण में ज़रा-सा भी काम का नहीं था। मैंने इन रचनाओं की तोता रटंत का प्रयास नहीं किया। इसे मैं तब भी बेकार मानता था और आज भी मानता हूँ। मैंने उस समय पाले की भूमिका के बारे में स्वयं को ज्यादा परेशान नहीं किया; इसी विश्वास के बूते मैं तर्क वितर्क की परम्परा से खुश और सन्तुष्ट भी रहा। पाले के सभी प्रश्नों का ठीक उत्तर देने, यूक्लिड में बेहतर तैयारी और शास्त्रों की पढ़ाई में भी दयनीय रूप से असफल न होने के कारण मुझे आनर्स न करने वाली पोल्लोई या लोगों की भीड़ में अच्छा स्थान और डिग्री भी मिल गयी। मुझे ठीक तरह से तो नहीं मालूम कि मेरा रैंक कितना ऊपर था, लेकिन मुझे थोड़ा बहुत याद है कि सूची में पाँचवें, दसवें या शायद बारहवें स्थान पर था।
यूनिवर्सिटी में कई विषयों पर सार्वजनिक व्याख्यान दिए जाते थे, और इनमें ह़ाजिर होना अपनी मर्जी के मुताबिक था, लेकिन एडिनबर्ग में लैक्चर सुन सुनकर मैं इतना ऊब गया था कि मैं सेडविक के प्रभावशाली और रोचक व्याख्यानों में भी नहीं गया। यदि मैं उन व्याख्यानों में गया होता तो बहुत पहले ही भूविज्ञानी बन जाता। हालांकि मैंने वनस्पतिशास्त्र में हेन्सलो के व्याख्यान सुने और उनकी स्पष्टता को तथा अत्यधिक प्रभावशाली उद्धरणों को मैंने बहुत पसन्द किया लेकिन मैं वनस्पतिशास्त्र पढ़ता नहीं था। हेन्सलो अपने शिष्यों और यूनिवर्सिटी के कुछ पुराने सदस्यों को लेकर दूर दराज के इलाकों तक पैदल या घोड़ागाड़ी में या फिर नदी के बहाव के साथ साथ बजरे में बैठकर अध्ययन यात्राओं पर जाते थे। इस दौरान पाए जाने वाले दुर्लभ पौधों और पशुओं पर वे व्याख्यान देते। ये अध्ययन यात्राएँ बड़ी मनोरंजक होती थीं।
इस समय वैसे तो यही लग रहा होगा कि कैम्ब्रिज में पढ़ाई के दौरान मेरे जीवन के कुछ निर्धारक पहलू उजागर हो रहे थे, तो भी मैं यही कहूँगा कि वहाँ मेरा समय बुरी तरह से बरबाद हो रहा था। भयंकर बरबादी। निशानेबाजी की और शिकार करने की मेरी भावना मर चुकी थी, और अब मुझे देश के दूर दूर के हिस्सों की सैर करने में मज़ा आने लगा था। मैं दूर दूर तक घुड़सवारी करता। यहाँ मैं एक नई ही चांडाल चौकड़ी में फंस गया था। हमारी इस मंडली में कुछ लफंगे और नीच प्रवृत्ति के युवक भी थे। हम अक्सर शाम को एक साथ भोजन करते, हालांकि इनमें हमारे साथ अक्सर कोई न कोई गरिमामय व्यक्ति भी रहता था, और कई बार हम ज्यादा पी लेते थे, और बाद में गाते रहते या ताश खेलते। इस तरह से जितनी शामें मैंने गुज़ारीं, मुझे आज भी उसके लिए शरम महसूस होती है। हालांकि मेरे कुछ मित्र बहुत ही खुशमिजाज़ थे और हम सभी के दिमाग सातवें आसमान पर थे, लेकिन कुल मिलाकर मुझे उन दिनों की याद बहुत सुखदायक नहीं है।
लेकिन मुझे यह जानकर खुशी भी है कि मेरे कुछ और दोस्त भी थे जो पूरी तरह अलग प्रकृति के थे। व्हिटले के साथ मेरी दांत-काटी दोस्ती वाला मामला था। बाद में वह सीनियर रैंगलर बना। हम दोनों काफी दूर तक घूमने निकल जाते थे। उसने मुझमें अच्छे चित्रों और नक्काशियों के प्रति रुझान पैदा किया। इनमें से कुछ कलाकृतियाँ मैंने खरीदीं भी। मैं अक्सर फिट्जविलियम गैलरी भी जाता रहता था, और लगता है मेरी रुचि भी काफी अच्छी थी, क्योंकि मैंने हमेशा अच्छे चित्रों की प्रशंसा की थी, और उनके बारे में बुजुर्ग क्यूरेटर से चर्चा भी करता था। मैंने सर जोशुआ रेनाल्ड की किताब काफी रुचि के साथ पढ़ी। हालांकि यह रुचि मेरे प्राकृतिक रुझान में नहीं थी, तो भी कुछ बरस तक मैंने इसमें काफी रुचि ली, और लन्दन स्थित नेशनल गैलरी के कई सारे चित्र मुझे बहुत आनन्दित करते थे, और सेबेस्टियन देल पियेम्बो के चित्र तो जैसे मुझे दिव्यलोक में ले जाते थे।
मैं एक संगीत मंडली में भी जाता था। मेरा एक जोशीला दोस्त हर्बर्ट मुझे वहाँ ले गया। उसके पास हाई रैंगलर की उपाधि भी थी। इस मंडली में शामिल होने और उनकी धुनों को सुनकर मुझमें संगीत के प्रति गहरा लगाव पैदा हो गया था। मैं अपनी सैर का समय इस तरह रखता था कि सप्ताह के दिनों में किंग्स कालेज के चैपल में उस मंडली को राष्ट्रगान की धुन बजाते सुन सकूं। इसमें मुझे इतना गहरा आनन्द आता था कि कई बार मेरी रीढ़ में सिहरन दौड़ जाती थी। मैं पक्के तौर पर कह सकता हूँ कि इस लगाव में कोई बनावट या केवल नकल नहीं थी, क्योंकि मैं कई बार खुद ही किंग्स कालेज चला जाता था, और कई बार तो गिरजे की गायन मंडली के बच्चों को पैसे देकर अपने कमरे में उनका गायन सुनता था। यह बात दूसरी है कि मेरे कान संगीत को समझने के मामले में दीन हीन थे। मैं एक भी धुन समझ नहीं पाता था, और न ही कोई धुन बजा पाता था। सही तरीके से गुनगुनाना तो मेरे लिए कठिन था, फिर भी यह रहस्य ही है कि मैं संगीत का आनन्द क्योंकर ले पाता था।
मेरी संगीत मंडली के मेरे मित्रों ने जल्द ही मेरी हालत का अन्दाजा लगा लिया। कई बार वे सब संगीत में मेरा इम्तिहान लेते और अपना मनोरंजन भी करते। वे कोई धुन बजाते और फिर सब मुझसे पूछते कि इनमें कौन कौन सी धुनों को मैं पहचान सकता हूँ। इन्हीं धुनों को जब वे सामान्य से द्रुत या मंथर गति से बजाते थे तो मेरे लिए और भी कठिनाई होती थे। इस तरह से तो गॉड सेव्ड द किंग की धुन भी मेरे लिए कष्टप्रद पहेली बन जाती थी। एक और व्यक्ति भी था जो संगीत में मेरे जितनी ही समझ रखता था और कहने में अटपटा लगता है कि वह थोड़ा बहुत बांसुरी भी बजा लेता था। हमारी संगीत मंडली की परीक्षाओं में एक बार मैंने उसे पराजित कर दिया तो मुझे बहुत खुशी हासिल हुई थी।
कैम्ब्रिज में रहने के दौरान मैं जिस उत्सुकता और लगन से भृंगी कीट पकड़ता था वह मेरे लिए आनन्ददायक था, और जितना आनन्द मुझे इस काम में मिलता था, उतना किसी अन्य काम में नहीं आता था। यह काम केवल संग्रह का जुनून था, क्योंकि मैं इन कीटों की चीर फाड़ नहीं करता था। हाँ, इतना ज़रूर है कि प्रकाशित विवरणों के साथ इन कीटों के बाहरी लक्षण यदा-कदा मिला लेता था, लेकिन मैं उनके नाम ज़रूर रख लेता था। कीट संग्रह के बारे में मैं अपने उत्साह के प्रमाणस्वरूप एक घटना बताता हूँ।
एक दिन पेड़ की पुरानी छाल उतारते समय मुझे दो दुर्लभ भृंग दिखाई दिए। मैंने दोनों को एक एक हाथ से उठाया, तभी मुझे तीसरा भृंग भी दिखाई दिया। मैं उसे भी छोड़ना नहीं चाहता था, इसलिए मैंने हाथ में पकड़े हुए एक भृंग को मुँह में रख लिया। दुर्भाग्यवश उस कीट में से कोई तीखा तरल पदार्थ निकला जिससे मेरी जीभ जल गयी और मैं थू थू कर उठा। भृंग मुँह से बाहर गिरा और साथ ही तीसरा भृंग भी हाथ न आया।
मैं इस प्रकार के कीटों का संग्रह करने में काफी सफल रहा और इसके लिए मैंने दो नए तरीके ईज़ाद किए। मैंने एक मज़दूर रख लिया था जो सर्दियों में जम गए पुराने वृक्षों की छाल को काट छाँट कर बड़े थैले में भर लाता था, और इसी तरह दलदली इलाकों से सरकंडे लाने वाले बजरों की तली में से कूड़ा कचरा बटोर लाता था। इस तरह से मुझे कुछ दुर्लभ प्रजाति के भृंग भी मिले।
शायद किसी कवि को अपनी पहली कविता के प्रकाशन पर भी इतनी प्रसन्नता नहीं होती होगी, जितनी मुझे उस समय हुई, जब मैंने स्टीफन की इलस्ट्रेशन्स ऑफ ब्रिटिश इन्सेक्ट्स, में यह जादुई शब्द देखे - सर, सी डार्विन द्वारा संगृहीत'। मेरे दूर के रिश्ते के चचेरे भाई डब्लयू डार्विन फॉक्स एक चतुर और बहुत ही खुशमिजाज व्यक्ति थे, उस समय क्राइस्ट कालेज में पढ़ते थे। मैं इनके साथ काफी हिल मिल गया था और इन्होंने ही मुझे कीट विज्ञान से परिचित कराया। इसके बाद मैं ट्रिनिटी कालेज के एल्बर्ट वे से भी परिचित हुआ और उनके साथ भी कीट संग्रह के लिए जाने लगा। आगे चलकर यही सज्जन सुविख्यात पुरातत्त्ववेत्ता बने। साथ में उसी कालेज के एच थाम्पसन भी होते थे। बाद में यह प्रसिद्ध कृषिविज्ञानी, ग्रेट रेलवे के चेयरमैन और संसद सदस्य भी बने। लगता है कि भृंगी कीटों के संग्रह की मेरी रुचि में ही भविष्य में मेरे जीवन की सफलता की सूत्र छिपा हुआ था।
मुझे इस बात की हैरानी है कि कैम्ब्रिज में मैंने जितने भृंगी कीट पकड़े, उनमें से कई ने मेरे दिमाग पर अमिट छाप छोड़ दी थी। जहाँ जहाँ मुझे अच्छा संग्रह करने का मौका लगा उन सभी खम्भों, पुराने वृक्षों और नदी के किनारों को मैं आज भी याद कर सकता हूं। उन दिनों पेनागियस क्रुक्स मेजर नामक प्यारा भृंगी कीट एक खजाने की तरह से था, और डॉन में घूमते हुए मैंने एक भृंगी कीट देखा जो कि सड़क पर दौड़ता हुआ जा रहा था। मैंने भाग कर उसे पकड़ा, और तुरन्त ही मैंने अंदाज़ा लगा लिया कि यह पेनागियस क्रुक्स मेजर से थोड़ा अलग है। बाद में पता चला कि वह पी क्वाड्रिपंक्टेटस था, जो कि इसकी एक किस्म या इसी की निकट सम्बन्धी प्रजाति है, लेकिन इसकी बनावट में थोड़ा अन्तर है। मैंने उन दिनों लिसीनस को कभी जिंदा नहीं देखा था, यह कीट भी अनजान व्यक्ति के लिए काले कैराबाइडुअस भृंग से शायद ही अलग लगे, लेकिन मेरे बेटों ने यहाँ एक ऐसा ही कीट पकड़ा और मैं तुरन्त जान गया कि यह मेरे लिए नया है। तो भी पिछले बीस साल से मैंने ब्रिटिश भृंगी कीट नहीं देखा है।
मैंने अभी तक वह परिस्थिति नहीं बतायी है जिसने दूसरी बातों की तुलना में मेरे समूचे कैरियर को सर्वाधिक प्रभावित किया। यह घटना थी, प्रोफेसर हेन्सलो के साथ मेरी दोस्ती। कैम्ब्रिज आने से पहले मैंने अपने भाई से उनके बारे में सुना था। प्रोफेसर हेन्सलो विज्ञान की हर शाखा के बारे में जानते थे, और मैं उनके प्रति नतमस्तक था। सप्ताह में एक बार वे ओपन हाउस रखते थे। उस दिन यूनिवर्सिटी में विज्ञान विषय पढ़ने वाले सभी अन्डर ग्रेजुएट और पुराने सदस्य एकत्र होते थे। फॉक्स के माध्यम से जल्द ही मुझे भी सभा में शामिल होने का निमंत्रण मिला और उसके बाद मैं नियमित रूप से वहाँ जाने लगा। हेन्सलो के साथ घुलने मिलने में मुझे अधिक समय नहीं लगा। कैम्ब्रिज में बाद के दिनों में मैं ज्यादातर उन्हीं के साथ सैर करने जाता था। कुछ गुरुजन तो मुझे यह भी कहने लगे थे, `हेन्सलो के साथ घूमने वाला व्यक्ति' और अक्सर शाम को वे मुझे अपने परिवार के साथ भोजन पर बुला लेते थे। वनस्पति शास्त्र, कीट विज्ञान, रसायन, खनिज विज्ञान और भूविज्ञान में उन्हें व्यापक ज्ञान था। लम्बे समय तक निरन्तर चलने वाले सूक्ष्म अवलोकन से निष्कर्ष निकालने की उनकी रुचि बहुत गहरी थी। उनकी निर्णय शक्ति अद्वितीय और उनका दिमाग संतुलित था, लेकिन मुझे कोई भी तो ऐसा नहीं दिखाई देता था जो यह कहे कि प्रोफेसर हेन्सलो में आत्म प्रज्ञा नहीं थी।
वे बहुत ही धार्मिक और रुढ़िवादी थे। एक दिन उन्होंने मुझे बताया कि थर्टीनाइन आर्टिकल्स का अगर एक भी शब्द बदला जाए तो उन्हें बहुत दुख होगा। उनके नैतिक गुण अत्यधिक प्रशंसनीय थे। उनमें लेश मात्र भी मिथ्या अहंकार नहीं था। वे अन्य क्षुद्र भावनाओं से भी कोसों दूर थे। मैंने ऐसा व्यक्ति नहीं देखा था जो अपने और अपने कार्य व्यापार के बारे में बहुत ही कम सोचता हो। वे हर प्रकार की अहंमन्यता या इसी प्रकार की संकीर्ण विचारधारा से पूरी तरह मुक्त थे। उनका स्वभाव अत्यन्त शान्त था, वे सुशील थे और दूसरे के दिल को जीत लेते थे, लेकिन वे किसी भी गलत काम के खिलाफ बहुत ही जल्दी आक्रोश से भर जाते थे, और फौरन ही उसे रोकने का प्रयास भी करते थे।  (hindisamay.com से साभार)

सुईं से लिखी मधुशाला



दादरी के पीयूष दादरी वाला ने "एक ऐसा कारनामा" कर दिखाया है कि देखने वालों कि ऑंखें खुली रह जाएगी और न देखने वालों के लिए एक स्पर्श मात्र ही बहुत हैI दादरी वाला दुनिया में भारत का नाम, "मिरर इमेज" में "श्री मदभाग्व्द कथा" यह दुनिया की अभी तक की पहली ऐसी पुस्तक (ग्रन्थ) जो शीशे में देखकर पढ़ी जाएगी अब तक दुनिया में ऐसा नहीं हुआ है दादरी वाले ने सभी १८ अध्याय ६०० शलोको दोनों भाषाओँ हिंदी व् अंग्रेजी में लिख, रोशन किया हैI इसके अलावा दादरी वाला संस्कृत में श्री दुर्गा सप्त शती, अवधि में सुन्दर कांड, आरती संग्रह , हिंदी व् अंग्रेजी दोनों भाषाओ में श्री साईं सत्चरित्र भी लिख चुके हैंI
दादरी वाला ने पूछने पर बतया कि आपने सुई से पुस्तक लिखने का विचार क्यों आया ? तो दादरी वाला ने बताया कि अक्सर मेरे से ये पूछा जाता था कि आपकी पुस्तको को पढने के लिए शीशे क़ी जरुरत पड़ती है, पदना उसके साथ शीशा, आखिर बहुत सोच समझने के बाद एक विचार दिमाग में आया क्यों न सूई से कुछ लिखा जाये सो मेने सूई से स्वर्गीय श्री हरबंस राय बच्चन जी की विश्व प्रसिद्ध पुस्तक "मधुशाला" को करीब २ से २.५ महीने में पूरा किया यह पुस्तक भी मिरर इमेज में लिखी गयीं है और इसको पदने लिए शिसे की जरुरत नहीं पड़ेगी क्योंकि रिवर्स में पेज पर शब्दों इतने प्यारे जेसे मोतियों से पेजों को गुंथा गया हो I उभरे हुए हैं जिसको पदने में आसानी है और यह सूई से लिखी "मधुशाला" दुनिया की अब तक की पहली ऐसी पुस्तक है जो मिरर इमेज व् सूई से लिखी गई है और इसका श्रेय भारत के दादरी कसबे के निवासी 'पीयूष दादरी वाला' को जाता हैI
इसके अलावा दादरी वाला संग्रह के भी शोकिन हैं उनके पास माचिसों का संग्रह, सिगरेटों के पैकेटों का संग्रह, दुर्लभ डाक टिकटें, दुर्लभ सिक्कों का संग्रह, प्रथम दिवस आवरण, पेन संग्रह व् विश्व प्रसिद्ध व्यक्तियों के औटोग्राफ का संग्रह (मनमोहन सिंह जी, वी. पी. सिंह जी, चन्द्र शेखर, राजीव गाँधी जी, इंदिरा गाँधी जी, अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर, ऋतिक रोशन, लतामंगेस्कर, अटल जी, मायावती जी, मुलायम सिंह जी) आदि संग्रह को चार चाँद लगा रहे हैंI पीयूष दादरी वाला पेशे से यांत्रिक इंजिनियर है और एक बहु राष्ट्रीय कम्पनी में कार्यरत हैं, दादरी वाला तीन पुस्तके भी लिख चुके हैं  गणित एक अध्यन, इजी इस्पेलिंग व् पीयूष वाणीI (thenetpress.com से साभार)


उपन्यास श्वेन चांग



चीन में ‘पश्चिमी की यात्रा’ नामक एक उपन्यास प्रसिद्ध है। इस उपन्यास में बौद्ध धर्म के चार भिक्षुओं द्वारा धर्मग्रंथ को ढ़ूढ़ने के लिए पश्चिमी की यात्रा करने की कहानी कही गयी है। चार भिक्षुओं ने अनगिनत Old भूत प्रेतों को परास्त करके अंत में सफलतापूर्वक धर्मग्रंथों को प्राप्त किया। इस उपन्यास के चार भिक्षुओं में से एक थांग सेन चांग वास्तव में प्राचीन चीन के मशहूर सांस्कृतिक दूत श्वेन चांग थे।
श्वेन चांग का जन्म ईसा पूर्व 600 में थांग राज्यवंश में हुआ था। बचपन से ही वे एक बहुत कुशाग्र और बुद्धिमान थे। उन्हें उस समय प्रचलित बौद्ध धर्म बहुत पसंद था। जब वे 11 वर्ष की उम्र के हुए, तो वे बौद्ध ग्रंथ पढ़ने लगे थे। 13 वर्ष की उम्र में वे तत्कालीन चीन के  सांस्कृतिक केंद्र ल्वो यांग गये और एक भिक्षु बने। इस के बाद उन्होंने सारे चीन की यात्रा की और बौद्ध शास्त्रों के अनुसंधान में लग गये।
18 की उम्र में ही श्वेन चांग चीन में बौद्ध जगत के एक जाने माने व्यक्ति बन चुके थे। चूंकि वे भारतीय बौद्ध धर्म के चींग चांग, ल्वू चांग और ल्वन चांग में निपुण थे, इसलिए, लोग उन्हें सेन चांग भिक्षु कहकर बुलाते थे। युवा श्वेन चांग को बौद्ध धर्म के शास्त्र के प्रति गहरी रुचि थी। इसलिए, बौद्ध धर्म को और अच्छी तरह समझने के लिए उन्होंने बौद्ध धर्म के स्रोत क्षेत्र भारत जाकर सच्चे बौद्ध शास्त्र ढ़ूंढ़ने का निर्णय लिया।
627 इसवी में, श्वेन चांग ने तत्कालीन थांग राज्यवंश की राजधानी छांग एन (आज का शी आन शहर) से प्रस्थान कर , भारत के नालंदा मंदिर की यात्रा शुरु की। नालंदा मंदिर उन दिनों बौद्ध धर्म का सर्वोच्च शिक्षालय था। यह कहा भी जा सकता है कि नालंदा मंदिर भारतीय बौद्ध धर्म की प्रतिष्ठा का प्रतीक ही था, और वह विश्व के अन्य क्षेत्रों के बौद्ध धर्म के अनुयाइयों के लिए एक पवित्र स्थल भी था।
1300 से ज्यादा वर्षों से पहले, यातायात की स्थिति बहुत पिछड़ी हुई थी। पैदल मध्यम चीन से पैदल सुदूर भारत जाना एक बहुत कठिन काम था। रास्ते में आदमी को न केवल रेगिस्तान व जंगल को पार करना था, बल्कि उत्तर पश्चिमी चीन के बर्फीले पहाड़ों को भी पार करना पड़ता था। इस के बावजूद, भिक्षु श्वेन चांग आखिरकार अनेक कठिनाइयों झेलते हुए भी 629 ईसवी की गर्मियों के दिनों में उत्तर भारत पहुंचे । बाद में उन्होंने मध्यम भारत जाकर बौद्ध धर्म के छह प्रमुख पवित्र स्थलों की तीर्थयात्रा की।
631 इसवी में, श्वेन चांग ने भारत के नालंदा मंदिर में पढ़ाई की। वहां उन्होंने पांच वर्षों के लिए बौद्ध धर्म के ग्रंथों का गहन अध्ययन किया। इस के बाद के छह वर्षों में, उन्होंने भारत के विभिन्न स्थलों में जाकर क्रमशः दस से ज्यादा महान भिक्षुओं से ज्ञान की बातें सीखीं। इसी तरह, श्वेन चांग एक बहुत निपुण बौद्ध शास्त्री बन गये। भारत के एक बौद्ध धर्म के शास्त्रार्थ मंच पर श्वेन चांग ने सभी अनुयाइयों के सवालों का जवाब दिया , फलस्वरुप भारत के बौद्ध धर्म में श्वेन चांग का नाम बहुत लोकप्रिय हो गया।
643 इसवी के वसंत में, श्वेन चांग स्वदेश वापस लौटे। अनेक वर्षों तक भारत में रहते हुए उन्होंने जो मूर्तियां औऱ धर्मग्रंथ इक्कठा किये थे, उन्हें भी वे साथ लेकर आए। चीन के राजा थांग थेई जुंग ने अधिकारियों को भेजकर उन का गर्मजोशी से स्वागत किया। राजा ने उन्हें सरकारी अधिकारी बनाना चाहा, किंतु उन्होंने इंकार कर दिया। श्वेन चांग छांग एन के हुंग फ़ू मंदिर में रहे। थांग थेई जुंग के समर्थन से उन्होंने विभिन्न स्थलों के वरिष्ठ भिक्षुओं को आमंत्रित करके अपने मंदिर में 19 वर्षों के लिए धर्मग्रंथों का अनुवादन कार्य शुरु किया। 19 वर्षों में श्वेन चांग ने कुल 75 धर्मग्रंथों का अनुवाद कार्य पूरा कर लिया था, जिन में 1335 पुस्तकें शामिल थीं। इन ग्रंथों में 5 शताब्दी में भारत में बौद्ध धर्म का पूरा परिचय दिया गया था। श्वेन चांग द्वारा अनुवादित सब से बड़ा धर्मग्रंथ ‘दा बेन रो’ में कुल 600 पुस्तकें थीं। चूंकि श्वेन चांग चीनी और संस्कृत भी अच्छी तरह जानते थे, इसलिए, उन के द्वारा अनुवादित ग्रंथ बन पड़े थे।
श्वेन चांग ने ग्रंथों का अनुवादन करने के साथ साथ धर्म की स्थापना भी की। चीन के बौद्धिक इतिहास में ‘फ़ा श्यांग जुंग’ उन के स्थापित की गयी थी। उन के जापानी शिशु और कोरियाई शिशु ने अपने देश वापस लौटने के बाद जापान और कोरिया में भी फ़ा श्यांग जुंग की स्थापना की।
बौद्ध ग्रंथों के अलावा, श्वेन चांग ने अपने अनुभवों से मौखिक रुप से दा थांग शी व्यू जी यानी पश्चिम की तीर्थयात्रा नामक पुस्तक की तैयारी शुरु की, उन के शिष्य ब्येन ची ने इसे लिपिबद्ध किया, इस में कई वर्ष लगे। श्वेन चांग ने 10 वर्षों से भी ज्यादा वर्षों तक पर्यटन के दौरान सौ से अधिक देशों की यात्रा की थी। इस पुस्तक में उन सभी देशों के इतिहास, भौगोलिक  क्षेत्र, जातीय स्रोत, मौसम और संस्कृति व राजनीति आदि का वर्णन किया गया है, जो अभी तक अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत तथा सारे मध्यम एशिया के पुराने इतिहास व भौगोलिक स्थिति का अनुसंधान करने के लिए मूल्यवान स्रोत सामग्री रही है। 19 शताब्दी के बाद ‘दा थांग शी व्यू ची’ नामक पुस्तक क्रमशः अंग्रेजी, फ्रांसीसी, जापानी औऱ जर्मनी आदि विदेशी भाषाओं में भी अनुवादित की गयी थी। आधुनिक विद्वानों ने इस पुस्तक के आधार पर पुराने भारत और मध्यम एशिया के इतिहास व संस्कृति की धरोहरों का अनुसंधान किया और भारी उपलब्धियां प्राप्त कीं। श्वेन चांग का सांस्कृतिक प्रभाव अपनी पश्चिमी की तीर्थ यात्रा के मकसद व उस के प्रत्यक्ष प्रभाव से भी कहीं बड़ा है। श्वेन चांग का चीन और पूर्वी संस्कृति इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। श्वेन चांग न केवल एक अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त उल्लेखनीय अनुवादक और बौद्ध धर्म शास्त्री थे, बल्कि वे एक महान पर्यटक भी थे। 17 वर्षों में उन्होंने पच्चास हजार किलोमीटर और 110 देशों की यात्रा पुरी की । यह विश्व के इतिहास में भी बहुत अभूतपूर्व उपलब्धि है। उन की ‘पश्चिमी की तीर्थ यात्रा’ नामक पुस्तक विश्व की सब से प्रसिद्ध पुस्तकों में से एक मानी जाती है।
चीन के थांग राज्यवंश से लोगों ने कला के तरीकों से श्वेन चांग का गुणगान किया और अनेक उपन्यासों की रचना की। सुंग राज्यवंश में ‘दा थांग सेन चांग की तीर्थ यात्रा’ नामक पुस्तक लिखी गयी, और बाद के मींग राज्यवंश में पश्चिमी की यात्रा उपन्यास लिखा गया। एक हजार से ज्यादा वर्षों से, स्वेन चांग की कहानी चीनी लोगों की जबान पर रही है

अरुण प्रकाश की तीन किताबें




भैया एक्‍सप्रेस
विश्वनाथ त्रिपाठी की टिप्पणीः अरुण प्रकाश अभिधा-परंपरा के कथाकार हैं। स्थितियों और पात्रों को अप्रत्याशित झटके नहीं देते। कहन पर अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय जानकारी नहीं गाँजते। वे पहले से परिचित पात्रों और स्थितियों में अपरिचय का अंश प्रकट करते हैं। अपरिचय का परिचय नहीं देते। उनकी कहानियों में तत्कालीनता की ऐतिहासिकता की भूमिका है—यह भी प्रेमचंद, परसाई, शेखर जोशी और ज्ञानरंजन, स्वयं प्रकाश की परंपरा में है। कहानियों के पात्र और उनकी स्थितियाँ ऐसी हैं, जो अभी निर्णीत नहीं हैं, वे कुछ होने और न होने की प्रक्रिया में हैं, उनपर विराम-चिह्न नहीं लगा है।
मैनेजर पाण्डेय की टिप्पणीः बिहार के मज़दूरों की इस दुर्दशा के प्रति अरुण प्रकाश जितने संवेदनशील थे उतनी संवेदनशीलता मैंने बहुत कम लोगों में पाई है। उनकी इसी संवेदनशीलता का प्रमाण और परिणाम है उनकी मशहूर कहानी 'भैया एक्सप्रेस।’
सुरेन्द्र स्निग्ध की टिप्पणीः वे 'कफन 1984’ और 'भैया एक्सप्रेस’ जैसी कहानियों के माध्यम से बिहार के मज़दूरों के निरंतर पलायन और सामंती जकड़बंदी में उसके शोषण को बड़ी संवेदनशीलता से चित्रित कर रहे थे। इस शोषण से मुक्ति के लिए मज़दूरों के भीतर उठने वाले संघर्ष हिंदी आलोचकों को आलोचना के नए औज़ार गढऩे को विवश कर रहे थे।
जल प्रांतर
नामवर सिंह की टिप्पणीः 'जल-प्रांतर’ कहानी के रूप में रिपोर्तार्ज है। बिहार की बाढ़ का शायद ही कहीं ऐसा विवरण मिलता हो जो यथार्थ के इतना करीब हो।
विश्वनाथ त्रिपाठी की टिप्पणीः 'जल-प्रांतर’ का प्रतिपाद्य बाढ़ की विभीषिका, उस राहत कार्य में भ्रष्टाचार, सामान्य जन की विपत्ति और उनको वंचित करने के दृश्य—प्रकृति के कोप के अपार नेपथ्यों में। और इसी में घोर कर्मकाण्डी रुढिग़्रस्त अंधविश्वासी पंडित परिवार और पाहुन, और उनकी वृद्धा पत्नी का प्रकरण है, जो बाढ़-लीला का छोटा-सा किनारे पड़ा हुआ अंश है। किंतु वृद्धा पत्नी और उनके पति पाहुन के संबंधों-स्थितियों से जूझते हुए संबंधों को इतनी सहजता, संयम, मितकथन से संकेतित किया गया गया है कि इस विशदकथा की मार्मिकता उस वृद्ध दम्पती केन्द्रित-पर्यवसित हो जाती है।
रामशरण जोशी की टिप्पणीः 'जल-प्रांतर’ में जमा छह कहानियों में से 'जल-प्रांतर’ मुझे प्रत्येक दृष्टि से अद्वितीय लगी। एक ज़बरदस्त कहानी। अरुण ने इसमें अपना सब-कुछ उलीच कर रख दिया। मनुष्य, कल और व्यवस्था का एक यथार्थवादी रूपक। कहानी का नायक पंडित वासुदेव का किरदार एक साथ कई द्वंद्वों का प्रतिनिधित्व करता है। 'जल-प्रांतर’ सिर्फ बाढ़ से घिरे लोगों और इलाके की कहानी नहीं है। मैं इसे राष्ट्र के संधिकाल के अंतर्विरोधों के रूपक के तौर पर लेता हूँ।
हृषीकेश सुलभ की टिप्पणीः  'जल-प्रांतर’ का स्थापत्य विराट है। इसके स्थापत्य में युगों से चली आ रही आस्थाओं के भग्नावशेष के साथ-साथ गँवई समाज के विविधवर्णी क्रियात्मक रूप और प्रकृति की महाकाव्यात्मकता शामिल हैं। कहानी का पाश्र्व रचते हुए अरुण प्रकाश कुछ भी आक्षेपित किए बिना सहज भाव से वर्णन करते हैं और जीवन का मर्म उकेरते चलते हैं। अरुण प्रकाश की कहानियाँ मानसधर्मी कहानियाँ नहीं हैं। वह कालधर्मी कहानीकार हैं। वह अपने उन जीवनानुभवों को कहानी के कथ्य में रूपांतरित करते हैं जिन्हें वह हमारे समय, समाज और मनुष्य के अंतर्विरोधों से टकराकर अर्जित करते हैं।
उपन्‍यास के रंग
अरुण प्रकाश ने अपनी किताब  'गद्य की पहचान’ में उपन्यास को एक रूपबंध कहा था जिसमें कई विधाओं की आवाजाही हो सकती है। प्रस्तुत किताब  'उपन्यास के रंग' में अरुण प्रकाश उपन्यास के संभावित आयतन को नए सिरे से अन्वेषित करते हैं। उपन्यास में आ सकने वाली विधाओं और सामग्री की यह एक गंभीर जाँच-पड़ताल है जो पाठकों के साथ ही लेखकों को भी उद्वेलित करती है। कथाकार अरुण प्रकाश फिल्म की भाषा में सोचनेवाले रचनाकार थे अत: वे फार्म, भाषा, शिल्प के साथ ही आख्यान के सभी रूपों को गहराई से समझते थे। यह गुण उनकी आलोचना में मुख्य धातु की तरह विद्यमान है।
लीलाधर मंडलोई टिप्पणीः अरुण प्रकाश इस किताब से एक गंभीर आलोचक की अपनी जगह सुनिश्चित करते हैं। उनकी यह किताब उपन्यास में आ रहे विधागत बदलाओं को समझने की एक भरोसेदार कुंजी है।

विश्व के प्रसिद्ध बीजगणितज्ञ



स्मृति आदित्य

गणित। चाहे वह बीजगणित हो या अंकगणित। कुछ विलक्षण विद्यार्थियों को छोड़ दें तो शायद ही कोई ऐसा हो जिसे इस विषय ने न डराया हो। गणित के जानेमाने प्रोफेसर महेश दुबे की आकर्षक पुस्तक 'विश्व के प्रसिद्ध बीजगणितज्ञ' को पढ़ने के बाद लगा कि जरूरत इस विषय को रोचकता और मधुरता के साथ प्रस्तुत करने की है। गणित से दूरी का एक सबसे अहम कारण इस विषय के बारे में प्रचलित भ्रांतियां हैं। और उससे भी बड़ा कारण इन भ्रांतियों को निरंतर पोषित करने वाले लोग हैं। इस पुस्तक के लेखक हैं प्रो. महेश दुबे।
इस पुस्तक के माध्यम से यह जानना बेहद दिलचस्प रहा कि कैसे महान बीजगणितज्ञ यूक्लिड से लेकर गाल्वा और गाल्वा के उत्तराधिकारी सोफस ली से लेकर सर्वदमन चावला तक ने इस अनूठी और गणितीय गौरवमयी परंपरा को गहनतम साधना के साथ आगे बढ़ाया। और ना सिर्फ बढ़ाया वरन् नई परिपाटी के साथ, नए विचारों और नए सिद्धांतों के साथ विषय को सुसमृद्ध भी किया।
पुस्तक इस मायने में भी रोचक है कि गंभीर और क्लिष्ट समझे जाने वाले विषय सहेजने संवारने वाले 'दिमाग' कितने सरल, कितने विलक्षण थे तथा यह भी कि पाश्चात्य से आयातित ज्ञान वास्तव में भारतीय प्राचीन परंपरा के वैदिक युग की अप्रतिम देन है। आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, श्रीधराचार्य, महावीराचार्य, भास्कराचार्य, अल्ख्वाजारिज्मी, थाबित इब्नकुर्रा और खय्याम जैसे नामों ने बीजगणित के समीकरणों, करणियों, कुट्टक आदि को तरशाने में कितने कठिन पड़ाव पार किए हैं।
मात्र एक पंक्ति में कहा जाए तो यह पुस्तक गणित के प्राध्यापक महेश दुबे के 40 वर्षीय गहन अनुभव-अध्ययन-अध्यापन का सार्थक निचोड़ और त्रिवेणी संगम है। विस्तार से कहें तो आर्यभट्ट के काल 499 ई. से लेकर 12वीं-13वीं सदी तक और उससे भी आगे के कालक्रमानुसार परिदृश्य में आए बीजगणितज्ञों के माध्यम से बीजगणित की विकास यात्रा को पेश करती है।
पुस्तक के द्वारा दिलचस्प अंदाज में जाना जा सकता है कि महान गणितज्ञों की अभिरूचियां और सोच किस तरह से असाधारण थी।
पुस्तक में प्रस्तुत 28 महान विभूतियों को पढ़ते हुए उनके जीवन और बीजगणित के लिए उनके समर्पण के रोचक पक्षों को सुंदर-काव्यात्मक रूप में जानना रोमांचित करता है।
बीजगणित जैसा विषय कल्पना से परे है कि कोई हमें उससे जुड़े आश्चर्यजनक प्रामाणिक तथ्य ‍प्रथम बात तो हिन्दी में पुस्तकाकार (180 पृष्ठ में) प्रस्तुत कर दें और उसमें भी तथ्यों को कभी संस्कृत के श्लोकों से, कभी स्वरचित काव्यात्मक पंक्तियों से तो कभी लालित्यपूर्ण सरस शैली में पूरी पठनीयता से एक साथ रख दें। गहनतम शोध और सुविचारित-सुसंगत तथ्यों के आधार पर रची-बुनी यह पुस्तक निश्चित रूप से उपयोगी, अद्‍भुत, ज्ञानवर्धक और संग्रहणीय बन पड़ी है।

जेक्वेरी मोबाइल कुकबुक


अनुराग गुप्ता

हाल ही में मुझे पैक्ट प्रकाशन की जेक्वेरी मोबाइल कुक बुक का अध्ययन करने का मौका मिला।आज मैं इसी पुस्तक के विषय में बताने जा रहा हूं। जिन्हे जेक्वेरी के विषय में नही पता है उन्हे बता दूं कि जेक्वेरी एक जावास्क्रिप्ट फ्रेमवर्क है। इसकी मदद से हम साफ सुथरे और व्यवस्थित कोड लिखकर अपना काफी समय बचा पाते हैं। जेक्वेरी हमें लंबे जावास्क्रिप्ट कोड लिखने से बचाता है। इसी जेक्वेरी की एक शाखा है “जेक्वेरी मोबाइल”। जेक्वेरी मोबाइल की सहायता से हम बड़ी ही आसानी से क्रास ब्राउजर, क्रास डिवाइसेज़ मोबाइल वेबसाइटें बना पाते हैं। ढेरों किस्म के मोबाइल होने की वजह से ऐसी साइट बना पाना जो ज्यादातर डिवाइसों में ठीक ढंग से दिखे एक टेढ़ी खीर है। ऐसे में जेक्वेरी मोबाइल हमारे काम आ जाता है। यूं तो मैंने जेक्वेरी मोबाइल पर थोड़ा बहुत पहले भी काम किया था। पर जब पैक्ट प्रकाशन की इस पुस्तक को देखा तो लगा कि जैसे मैं जेक्वेरी मोबाइल के विषय में कुछ जानता ही नही हूं। कुक बुक प्रकार की पुस्तकें टुटोरियलों के संग्रह की तरह होती हैं। सो यह पुस्तक भी है। किन्तु टुटोरियल इस क्रम से सजाए गए हैं कि यह किसी भी नए बंदे के लिए शुरुआत करने और उसमें माहिर होने के लिए मददगार होगी। पहला अध्याय एकदम शुरुआत करने से शुरू होता है। और धीरे धीरे टूलबार, फार्म, इवेंट आदि से होते हुए एचटीएमएल फाइव के उन्नत फीचरों तक पहुंचा देता है। ज्यादातर लेखों में स्क्रीनशॉट्स हैं। स्क्रीनशाट्स की वजह से चीजें और भी अधिक अच्छे से समझ में आती हैं। असली दुनिया की वेबसाइटों में जिन फीचरों की मांग होती है उन फीचरों के संबंध में विस्तार से वर्णन है। यूं तो पुस्तक ज्यादा मोटी नही है मात्र ३२० पन्नों की है किन्तु यह कुकबुक है यानि कि विधियों से भरी हुई। यदि आप इसे अच्छे से पढ़ना चाहेंगे तो हर एक लेख को प्रयोग द्वारा समझते समझते काफी समय लग सकता है। यानि कि गागर में सागर समाया हुआ है। यदि आप वेब डिजाइनर हैं और मोबाइल साइटें बनाना सीखना चाहते हैं तो जेक्वेरी मोबाइल कुकबुक का अध्ययन अवश्य करें। यह नए लोगों और अनुभवी लोगों दोनो के लिए उपयोगी पुस्तक है। (अंतर्जाल डॉट इन से साभार)

स्फुट प्रवाह
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देश को प्रणाम है - इं.अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
मुमताज महल - डॉ. सुरेश वर्मा
किन्तु मन हारा नहीं - श्याम श्रीवास्तव
आम आदमी के दर्द के आलेख - सुमित्र
सलिला: 'खुले तीसरी आँख - संजीव 'सलिल'
बिखरे मोती - समीर लाल 'समीर'
चुटकी-चुटकी चाँदनी - संजीव वर्मा 'सलिल'
आकाश तुम्हारा होगा - महावीर रवांल्टा

भारतीय विचारधाराः मिथक से यथार्थ की ओर



सुभाष गाताडे

अपनी किताब द जर्मन आइडिओलॉजी में मार्क्‍स एवं एंगेल्स इतिहास की अपनी भौतिकवादी व्याख्या का निरूपण करते हैं। किताब की शुरुआत 19वीं सदी के आरंभ में जर्मनी के दार्शनिक जगत पर हावी हेगेल की आदर्शवादी परंपरा एवं उसके प्रस्तोताओं की तीखी आलोचना से होती है जिसमें ये दोनों युवा इंकलाबी चेतना एवं अमूर्त विचारों पर केंद्रित करनेवाले और सामाजिक यथार्थ के उससे नि:सृत होने की उनकी समझदारी पर जोरदार हमला बोलते हैं। इस ऐतिहासिक रचना से नाम सादृश्य रखनेवाली पेरी एंडरसन की किताब दि इंडियन आइडिओलॉजी का फलक भले ही दर्शन नहीं है, मगर अपने वक्त के अग्रणी विचारकों द्वारा भारतीय राज्य एवं समाज की विवेचना की आलोचना के मामले में वह उतनी ही निर्मम दिखती है।
आज की तारीख में भारतीय राज्य एक स्थिर राजनीतिक जनतंत्र, एक सद्भावपूर्ण क्षेत्रीय एकता और एक सुसंगत धार्मिक पक्षपातविहीनता के मूल्यों को स्थापित करने का दावा करता है। उपनिवेशवादी गुलामी से लगभग एक ही समय मुक्त तीसरी दुनिया के तमाम अन्य मुल्कों की तुलना में – जहां अधिनायकवादी ताकतों ने लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं एवं संस्थाओं को मजबूत नहीं होने दिया है – विगत साठ साल से अधिक समय से यहां जारी संसदीय जनतंत्र के प्रयोग को लेकर वह आत्ममुग्ध भी दिखता है। इतना ही नहीं अक्सर यह भी देखने में आता है कि भारतीय समाज की विभिन्न गैरबराबरियों, जाति-जेंडर-नस्ल आदि पर आधारित तमाम सोपानक्रमों के विभिन्न आलोचक भी भारतीय राज्य के इस आत्मप्रस्तुति/आत्मप्रशंसा से सहमत हुए दिखते हैं। मगर यह बेचैन करनेवाला सवाल नहीं पूछा जाता कि भारतीय राज्य के तमाम दावों एवं वास्तविक हकीकत के बीच कितना तारतम्य है? अगर दावों एवं हकीकत के बीच अंतराल दिखता है तो उसे हम परिस्थिति की नियति कह सकते हैं या उसकी जड़ें शासकों के आचरण में ढूंढ सकते हैं।
दरअसल भारत को अपनी इकहरी नजर के तहत हिंदू राष्ट्र बनाने को आमादा विचारकों/कार्यकर्ताओं की चिंतनप्रणाली/कार्यपद्धति विगत दो दशकों से अधिक समय से उदारवादी एवं वाम विचारकों की चिंता एवं आलोचना का विषय रही है। विडंबना यही कही जाएगी कि सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता, अधिनायकवाद बनाम जनतंत्र जैसे द्विविध (बायनरी) रूप में प्रस्तुत इस बहस में खुद उदार विचारकों की सीमाएं, उनके द्वारा धर्मनिरपेक्षता/जनतंत्र/एकता आदि मसले को गैरआलोचनात्मक ढंग से देखने का मसला कभी भी एजेंडे पर नहीं आ सका है। लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स में 2012 की गर्मियों में प्रकाशित पेरी एंडरसन द्वारा लिखे भारत संबंधी आलेखों का प्रस्तुत संकलन न केवल भारतीय संघ की वास्तविकता को पैनी नजर से देखता है बल्कि उसे लेकर स्थापित विभिन्न ‘सच्चाइयों’ को प्रश्नांकित करता है और साथ ही हमारे वक्त के तमाम अग्रणी विचारकों के रुख पर भी सवाल खड़े करता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि (बकौल अरुंधति राय) ‘पेरी एंडरसन के तर्क उन तमाम विद्वानों एवं विचारकों को बेचैन कर देंगे जिन्होंने भारतीय गणतंत्र के हालात को लेकर महिमामंडित करनेवाली सहमति कायम की है।’ पेरी एंडरसन के मुताबिक भारतीय गणतंत्र की तमाम बीमारियों की जड़ें ऐतिहासिक तौर पर गहरी हैं। उनके मुताबिक भारत का आजादी का आंदोलन जिस तरह लड़ा गया, जिसकी परिणति एक बंटे हुए उपमहाद्वीप में कांग्रेस के हाथों सत्ता हस्तांतरण में हुई, उस पूरे इतिहास को नए सिरेसे देखने-परखने की जरूरत है। इस किताब की प्रस्तावना में पेरी एंडरसन पूछते हैं ”गहराई में जाकर देखें तो भारत में जनतंत्र का सामाजिक आधार (एंकरेज) कितना है और उसमें जाति की कितनी भूमिका है? …भारतीय संघ में धर्म का कितना स्थान है – जो घोषित तौर पर धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) है, मगर अंतर्वस्तु में कितना है? और अंत में, राष्ट्र की एकता के जन्मचिह्न क्या हैं और उसकी कितनी कीमत अदा करनी पड़ी है?” किताब में समूचा जोर उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष चिंतकों पर है तथा इसमें वाम की चर्चा नहीं की गई है। लेखक के मुताबिक एक ताकत के तौर पर वाम की ‘सापेक्ष राजनीतिक कमजोरी’ ने भारतीय विचारधारा की पकड़ को और मजबूत बनाया है।
लेखक के मुताबिक वाम की कमजोरी के कारणों की गहराई में जाकर पड़ताल जरूरी है, मगर उसका मानना है कि इसकी प्रमुख वजह ‘आजादी के आंदोलन के साथ राष्ट्र के धर्म के साथ एकीकरण में निहित है।’ आयलैंड, जहां लेखक पैदा हुआ, उसकी चर्चा करते हुए वह यह भी जोड़ते हैं कि जहां-जहां पर ऐसा एकीकरण हुआ, वहां पर वाम के लिए जमीन हमेशा शुरू से प्रतिकूल रही है। प्रस्तावना के अंत में वह यह सलाह भी देते हैं कि वाम को चाहिए कि वह अपने दौर को श्रद्धाभाव से देखने के बजाय आम्बेडकर एवं पेरियार की तर्ज पर अधिक आलोचनात्मक ढंग से देखे।
अपने प्रथम अध्याय ‘इंडिपेंडस’ (स्वाधीनता) की शुरुआत लेखक जवाहरलाल नेहरू की बहुचर्चित किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया के उद्धरण से करते हैं जिसमें भारत के भावी प्रधानमंत्री आजादी के कुछ समय पहले ‘भारत की संस्कृति एवं सभ्यता की पांच-छह हजार वर्षों से अधिक समय चली आ रही निरंतरता’ को लेकर अपनी मुग्धता बयान करते हुए इस उपमहाद्वीप की प्राचीनता के अनोखेपन का जिक्र करते हैं, जो ‘सभ्यता की सुबह से ही भारत के विचार में व्याप्त एकता के सपने’ में प्रतिबिंबित होती है। फिर अमर्त्य सेन, मेघनाद देसाई, रामचंद्र गुहा, सुनिल खिलनानी, प्रताप भानु मेहता जैसे शीर्षस्थ विद्वानों की भारत संबंधी गंभीर रचनाओं का जिक्र करते हुए लेखक बताते हैं कि किस तरह भारत को समझने के लिए अनिवार्य ये रचनाएं भी राज्य के अपने प्रति शब्दाडंबर को साझा करती हैं। राष्ट्रीय आंदोलन में जिस तरह ‘भारत के प्रकृति द्वारा निर्मित एक अविभाजित धरती’ (बकौल महात्मा गांधी) जहां ‘दुनिया के अन्य हिस्सों से बिल्कुल अलग राष्ट्रीयता की भावना प्रकट होती थी’ जैसी बातों का बोलबाला था उसी सिलसिले के आज भी जारी होने की बात को रेखांकित करते हुए किताब एक महत्वपूर्ण तथ्य की तरफ इशारा करती है। दरअसल यह उपमहाद्वीप जिसे आज हम इस रूप में जानते हैं वह पूर्वआधुनिक समय में कभी भी एक राजनीतिक या सांस्कृतिक इकाई के रूप में अस्तित्व में नहीं था, अंग्रेजों के आगमन ने ही पहली दफा इसे एक प्रशासकीय और विचारधारात्मक हकीकत में तब्दील किया।
अगर हम अतीत के पन्नों को पलटें तो इतिहास के लंबे कालखंड में उसका भू-भाग मध्यम आकार के राज्यों का हिस्सा था। भारत के इतिहास में नजर आने वाले तीन बड़े साम्राज्यों – मौर्य, गुप्त या मुगल का दायरा कभी भी नेहरू द्वारा डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में वर्णित भू-भाग तक फैला नहीं था। जिस ‘भारत के विचार’ की बातें आजादी के आंदोलन के अग्रणियों ने कीं, वह ‘सारत: एक योरोपीय विचार’ था। किसी भी देशज भाषा में ऐसा शब्द वजूद में नहीं दिखता। यह अकारण नहीं था कि इस उपमहाद्वीप का बंटा हुआ समाज एवं अलग-अलग राज्यों में विभक्त भू-भाग पर नियंत्रण करना बर्तानवी शासकों के लिए बहुत कठिन साबित नहीं हुआ। निश्चित ही पुलिस एवं फौज से बनी दमनात्मक मशीनरी के अलावा ब्रिटिश राज के आधुनिकीकरण की ताकत कानूनी किताबों के निर्माण या रेल एवं यातायात के साधनों को विकसित करने तक सीमित नहीं थी। उन्होंने एक देशज अभिजात तबके के निर्माण के भी बीज डाले जो मेकाले की भाषा में ‘रंग एवं वर्ण में भारतीय था, मगर रुचियों, मतों, बौद्धिकता एवं नैतिकता के मामले में ब्रिटिश’ था। ‘भारत का विचार (आयडिया ऑफ इंडिया) उनका था। मगर जैसे-जैसे वह नौकरशाही नियम का हिस्सा बना, फिर प्रजा अपने शासकों के खिलाफ उठ खड़ी हो सकती थी और साम्राज्य का प्रभामंडल राष्ट्र के करिश्मे में तिरोहित होनेवाला था।’ (पृ. 15)
इस अध्याय का शेष भाग गांधी द्वारा आजादी के आंदोलन की अगुआई, जातिप्रथा से लेकर मशीनरी आदि ज्वलंत मसलों पर उनके विचार, अहिंसा की रणनीति का उनके द्वारा इस्तेमाल तथा ब्रिटिश राज के दिनों में संपन्न चुनावों में अलग-अलग सूबों में कायम कांग्रेस सरकारों के दमनात्मक स्वरूप आदि पर केंद्रित है। जहां 1857 के महासमर के बाद पहली दफा एक व्यापक जनांदोलन खड़ा करने में गांधी की भूमिका, कांग्रेस को एक लोकप्रिय राजनीतिक ताकत बनाने की उनकी कोशिशों की इसमें चर्चा है, वहीं यह इस बात का विशेष उल्लेख करती है कि चंद अपवादों को छोड़ दें तो किस तरह बीसवीं सदी के राष्ट्रीय आंदोलनों में उभरे तमाम नेताओं में से बहुत कम धार्मिक नेता थे और इस कतार में गांधी बिल्कुल अलग ठहरते हैं। उनके लिए ‘राजनीति की तुलना में धर्म की अधिक अहमियत थी’ (पृ.19) अपने बुनियादी विश्वासों को लेकर हिंद स्वराज किताब में वह लिखते हैं कि ”मशीनरी अधिक पाप की खान है”, ”रेलवे ने ब्युबानिक प्लेग को फैलाने में मदद पहुंचाई है” और ”अकाल की बारंबारिता को बढ़ाया है”, ”अस्पताल ऐसे स्थान हैं, जो पाप को बढ़ावा देते हैं” आदि। (पृ.21)
कहीं-कहीं लेखक ऐसे वक्तव्य देते हैं जिनसे सहमत होना मुश्किल दिखता है, मसलन उनके मुताबिक ‘कांग्रेस अभिजातों की बुनियादी राजनीति खालिस धर्मनिरपेक्ष थी। पार्टी पर गांधी के नियंत्रण ने न केवल उसे लोकप्रिय आधार प्रदान किया, जो उसके पास नहीं था, मगर साथ ही साथ उसने मिथक, धर्मशास्त्र आदि के रूप में धर्म के तत्वों का भी जोरदार प्रवेश संभव बनाया।’ (पृ. 22) ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक गांधी के आगमन के पूर्व कांग्रेस राजनीति में हावी लोकमान्य तिलक आदि की राजनीति के से उतने परिचित नहीं दिखते। याद रहे कि तिलक को यह ‘श्रेय’ जाता है कि उन्होंने लोगों को लामबंद करने के लिए सार्वजनिक गणेशोत्सव या शिव जयंती जैसे त्योहारों का आयोजन शुरू किया, जो निश्चित ही किसी भी मायने में धर्मनिरपेक्ष कदम नहीं कहे जा सकते।
गांधीजी द्वारा बार-बार हिंदू धर्म की दुहाई देने के उदाहरणों को पेश करने के बाद लेखक यह सवाल भी उठाते हैं कि ”इस किस्म के हिंदू पुनरुत्थानवादी से हम ऐसी उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वह मुसलमानों को भी एक साझे राष्ट्रीय संघर्ष हेतु एकताबद्ध करेगा?” (पृ. 24) इस पहेली का समाधान एक तरह से गांधी ने यह ढूंढा कि ”इस्लाम के बैनर तले ही ब्रिटिश राज के खिलाफ मुसलमानों को गोलबंद किया जाए…” टर्की में खिलाफत की समाप्ति एक ऐसा मुद्दा था, जिसके नाम पर रूढि़वादी मुसलमानों के बड़े हिस्से को साथ जोड़ा जा सकता था। स्पष्ट था यह ऐसा मसला था जो ”…अधिक सेक्युलर मुसलमानों के लिए – जिनमें जिन्ना भी शामिल थे – न केवल अप्रासंगिक था, बल्कि बेहद प्रतिक्रियावादी भी था…” (पृ. 25) असहयोग आंदोलन में चौरी चौरा की घटना में हुई हिंसा के बाद समूचे आंदोलन को वापस लेने वाले गांधीजी किस तरह बीस साल बाद ”गुलामी के जोखड़ को उतार फेंकने के लिए जरूरत पड़े तो हिंसा का भी सहारा लेने की बात करते हैं” आदि विभिन्न घटनाओं की चर्चाओं के जरिए गांधीजी के विचारों में नजर आनेवाली असंगतियों के मद्देनजर लेखक गांधीजी द्वारा उसे औचित्य प्रदान किए जाने की बात को रेखांकित करते हैं। (पृ. 31) असहयोग आंदोलन एवं खिलाफत आंदोलन – जिसमें हिंदू-मुस्लिम दोनों ने जम कर हिस्सेदारी की थी, उस पूरे जनउभार को चौरी चौरा की घटना के बाद अचानक वापस लिए जाने के गांधी के फैसले का लेखक के मुताबिक एक अन्य असर यह भी रहा कि ”इसके बाद स्थूल रूप में मुसलमानों ने उन पर भरोसा नहीं किया।” मार्च, 1930 में जब गांधी अपने दूसरे व्यापक जनअभियान सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत दांडी मार्च के बहाने की तो इस बार आंदोलन का दायरा ”भौगोलिक तौर पर व्यापक था, लेकिन सांप्रदायिक तौर पर संकीर्ण था – लगभग मुसलमानों ने इसमें हिस्सा नहीं लिया।” (पृ. 36)
आगे लेखक ‘अस्पृश्यों को’ अलग मतदाता संघ प्रदान करने के गोलमेज सम्मेलन के फैसले के बहाने जाति के प्रश्न पर गांधी के उहापोह एवं उनकी रूढि़वादी समझदारी की चर्चा करते हैं। वर्ण व्यवस्था की हिमायत करनेवाले (”अगर हिंदू समाज आज भी खड़ा है तो उसकी वजह जातिव्यवस्था की उसकी बुनियाद है। स्वराज्य की जड़ें जाति प्रथा में देखी जा सकती हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि जाति प्रथा ने हिंदू धर्म को विघटन से बचाया है।”) और अस्पृश्यता को ‘मानवीय गलती” का हिस्सा माननेवाले गांधी के लिए ब्रिटिश सरकार का यह फैसला महज राष्ट्रीय आंदोलन को बांटने का मसला मात्र नहीं था, बल्कि इसका अर्थ था कि जाति व्यवस्था के चलते हिंदू धर्म के अभिशप्त होने की बात को कबूल करना। दलितों को अलग मतदाता संघ प्रदान करने के फैसले को पलटने के लिए गांधी द्वारा लिया गया आमरण अनशन का सहारा और आम्बेडकर पर डाला गए प्रचंड दबाव इसकी चर्चा करते हुए लेखक बताते हैं कि किस तरह आम्बेडकर के साथ संपन्न पूना करार – जिसने ‘अस्पृश्यों’ के लिए चुनावों में अधिक सीटें प्रदान करने की बात की गई, उसने दलित समुदाय को राजनीतिक स्वायत्तता से वंचित कर दिया। ”हिंदू जो भी कहें, हिंदू धर्म समानता, स्वतंत्रता एवं बंधुता के लिए खतरा है।” इस बात को जोर से रखनेवाले आम्बेडकर ने बाद में पूना करार के वक्त अपने समर्पण – जब समूचे दलित समुदाय पर वर्णसमाज के आक्रमण का खतरा मंडरा रहा था – पर पश्चात्ताप प्रगट करते हुए कहा कि ”इस अनशन में कोई उदात्तता नहीं थी। वह एक निकृष्ट एवं निंदनीय कदम था।”
पार्टी के अंदर वामपंथी धारा के अगुआ सुभाषचंद्र बोस, जो पार्टी के इतिहास में अभूतपूर्व चुनाव में उसके अध्यक्ष चुने गए थे, और जिन्हें पार्टी की अंदरूनी बगावत के जरिए गांधी ने पद से बेदखल कर दिया और बाद में कांग्रेस से भी बाहर जाने को मजबूर किया, उनके द्वारा पार्टी के अंदर रहते हुए हिंदू-मुस्लिम एकता कायम करने के लिए ली गई एक अद्भुत पहलकदमी की लेखक चर्चा करते हैं। कांग्रेस की युवा शाखा के अगुआ बोस ने बंगाल प्रांत में जमींदारों के खिलाफ खड़ी मुस्लिम किसानों की पार्टी के साथ गठजोड़ बनाने की हिमायत की थी। लेखक के मुताबिक जी.एम. बिड़ला, जो मारवाड़ी व्यापारी थे तथा कांग्रेस के लिए लाखों रुपए का चंदा देते थे, उनका इस कदम के प्रति विरोध था (बंगाल की तत्कालीन परिस्थिति से परिचित लोग बता सकते हैं कि अधिकतर जमींदार हिंदू थे) और उन्हीं की सलाह पर गांधी ने इस अंतरसामुदायिक पहल में अड़ंगा लगा दिया।
भारत छोड़ो आंदोलन के जरिए अपनी जिंदगी के आखिरी बड़े संघर्ष की अगुआई करनेवाले गांधी ने किस तरह कभी हिटलर की प्रशंसा की थी, उसका उल्लेख करना लेखक नहीं भूलते। ”उसमें कोई दुर्गुण नहीं हैं। उसने शादी नहीं की है। उसका चरित्र भी पारदर्शी कहा जाता है।” (कलेक्टेड वर्क्‍स ऑफ महात्मा गांधी, पृ. 177, : 17 दिसंबर, 1941) यह आंदोलन – जिसके लिए कांग्रेस ने कोई तैयारी नहीं की थी – उसकी समाप्ति के बाद, ब्रिटिश सरकार आजादी के मसले के समाधान को अधिक लटकाना चाहती थी। इस परिस्थिति में बुनियादी फर्क दूसरे विश्वयुद्ध में शामिल जापानी सेनाओं ने किस तरह डाला और दक्षिण पूर्व एवं दक्षिण एशिया में योरोपीय उपनिवेशवाद को किस तरह जबरदस्त नुकसान पहुंचाया, इसके विवरण के साथ प्रथम अध्याय समाप्त होता है। (पृ. 48)
दूसरा अध्याय एक तरह से नेहरू के राजनीतिक व्यक्तित्व, गांधी के साथ उनके विशिष्ट किस्म के रिश्ते ”जिसमें भावनात्मक बंधनों के साथ-साथ परस्पर हितों के समीकरण भी शामिल थे” (पृ. 51) तथा आजादी के आंदोलन में उन्होंने निभाई भूमिका की चर्चा करता है।
एक क्षेपक के तौर पर इस बात का भी उल्लेख करना जरूरी है कि लेखक बौद्धिक क्षमता के मामले में आम्बेडकर के साथ नेहरू की तुलना करते हैं। ”आम्बेडकर की नेहरू के साथ तुलना करना न्यायपूर्ण नहीं होगा, जो बौद्धिक क्षमता के मामले में कांग्रेस के तमाम नेताओं से बहुत आगे थे, जिसकी एक वजह यह भी कही जा सकती है कि डॉ. आम्बेडकर ने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एवं कोलंबिया विश्वविद्यालय में अधिक गंभीर अध्ययन किया था, जिन्हें पढऩा एक तरह से एक अलग दुनिया में प्रवेश करना है। मगर हम डिस्कवरी ऑफ इंडिया को पढ़ें तो वह न केवल नेहरू की औपचारिक विद्वत्ता की कमी एवं रूमानी मिथकों के प्रति अत्यधिक लगाव को उजागर करती है बल्कि अधिक गहराई में जाकर देखें तो …आत्मप्रवंचना की क्षमता को भी प्रदर्शित करती है जिसके राजनीतिक परिणाम बेहद प्रतिकूल हुए।” (पृ. 53)
जाति व्यवस्था को लेकर नेहरू की एक किस्म की समाजशास्त्रीय दृष्टिहीनता की बात का भी किताब में उल्लेख है। डिस्कवरी ऑफ इंडिया में नेहरू लिखते हैं कि ”जातिप्रथा एक ऐसी व्यवस्था थी, जो सेवाओं एवं कार्यों पर आधारित थी। उसका मकसद एक साझे दृष्टांत के बिना एक सर्वसमावेशी प्रणाली कायम करना था जिसमें हर समूह को स्थान मिले।” (पृ. 248-249) यह अकारण नहीं था कि जब गांधीजी आम्बेडकर का भयादोहन (ब्लैकमेल) कर रहे थे कि वह उनकी इस मांग को मानें कि ‘अस्पृश्य’ जातिप्रथा में शामिल एकनिष्ठ हिंदू हैं तथा अलग मतदातासंघ की मांग छोड़ दें तो उस वक्त नेहरू ने आम्बेडकर के समर्थन में एक लफ्ज भी नहीं बोला। नेहरू के लिए वह एक ‘छोटा-सा मामला’ (साइड इश्यू) था। अपने आप को नास्तिक कहलानेवाले नेहरू ने किस तरह धर्म को राष्ट्र के साथ जोड़ा था, इसकी चर्चा करते हुए किताब बताती है कि ”हिंदू धर्म राष्ट्रवाद का प्रतीक बना। वह वाकई एक राष्ट्रीय धर्म था, उसके तमाम गहरे भावों के साथ, नस्लीय और सांस्कृतिक, जो मौजूदा समय में हर जगह राष्ट्रवाद का आधार बनते हैं। इसके बरक्स बौद्ध धर्म, जिसका जन्म भारत में हुआ, उसकी वहां हार हुई क्योंकि वह ‘सारत: अंतरराष्ट्रीय” था। ( डिस्कवरी ऑफ इंडिया, पृ. 129)
अगर राष्ट्रीय धर्म एवं उसकी बुनियादी संस्थाओं के बारे में नेहरू का यह नजरिया था तो अन्य धर्मों के अनुयायी जो जन्म से ही राष्ट्रीय नहीं था, उसके प्रति उनका रुख क्या था? लेखक के मुताबिक इसकी पहली परीक्षा 1937 में संपन्न प्रांतीय चुनावों के बाद आई, जब नेहरू खुद कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे तथा गांधी ने एक तरह से 1934 से अपने आप को किनारे किया था। कई प्रांतों में कांग्रेस को मिले बहुमत से गदगद नेहरू ने ऐलान किया कि अब भारत में दो ही ताकतें हैं: कांग्रेस एवं ब्रिटिश सरकार, जबकि हकीकत यही थी कि मुस्लिमबहुल कुछ प्रांतों में सत्ता की बागडोर मुस्लिम लीग के हाथ में थी और जहां तक कांग्रेस की सदस्यता का सवाल है तो वह 97 फीसदी हिंदू थी। ”समूचे भारत में 90 फीसदी मुस्लिम मतदातासंघों में उसे प्रत्याशी तक नहीं मिले थे। नेहरू के अपने सूबे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने तमाम हिंदू सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन उसे एक भी मुस्लिम सीट नहीं मिली थी।” (पृ. 56) इस परिस्थिति के बावजूद नेहरू ने मुस्लिम लीग के इस अनुरोध को ठुकरा दिया कि वह सरकार के साथ गठजोड़ करना चाहती है ताकि उसे भी प्रतिनिधित्व मिले। पचहत्तर साल बाद आज भले ही हम इस मसले पर कोई निश्चयात्मक राय न बना सकें, मगर कम से कम इस बात को रेखांकित कर सकते हैं कि आजादी के संघर्ष में कांग्रेस पार्टी की अपने एकाधिकार की समझदारी के प्रतिकूल परिणाम हुए।
प्रस्तुत अध्याय में आगे एक वक्त सेक्युलर नजरिया रखनेवाले जिन्ना का कांग्रेस में हाशिये में जाना, कांग्रेस की समाजशास्त्रीय हकीकत के बारे में – कि वह मूलत: हिंदू पार्टी है -उनका बढ़ता एहसास, मुस्लिम समुदाय के रूढि़वादी तत्वों को साथ में लेकर चलने की कांग्रेस की कोशिशों के प्रति उनका बढ़ता विरोध और बाद में मुस्लिम राष्ट्रवाद की उनकी हिमायत की चर्चा है। बर्तानवी उपनिवेशवादियों ने किस तरह कभी हिंदुओं से या कभी मुसलमानों से नजदीकी दिखा कर अपने आप को केंद्र में बना कर रखा, बंटवारे के वक्त किस तरह उनके लिए हिंदू बहुल कांग्रेस अधिक प्रिय हो चली, इसका विवरण भी पेश किया गया है। बंटवारे के वक्त हुए आबादियों की अदला-बदली एवं उससे जनित हिंसा को लेकर एक बात रेखांकित की गई है कि भले ही पंजाब एवं पूर्व के बंगाल से आबादियों की अदला-बदली हुई, मगर जितने बड़े पैमाने पर पंजाब के बंटवारे के वक्त हिंसाचार देखने को मिला, उसकी तुलना में बंगाल में बहुत कम हिंसा हुई। जहां लगभग 45 लाख हिंदू एवं सिखों को पश्चिमी पंजाब से बेदखल कर दिया गया, वहीं पंजाब के पूर्वी हिस्से से 55 लाख से अधिक मुसलमान अपने घरों से बेदखल हुए।
किताब में कश्मीर के भारत में एकीकरण को लेकर भी कई अनछुए तथ्यों को रेखांकित किया गया है। गौरतलब है कि बंटवारे के वक्त चली अंतरसामुदायिक हिंसा के वातावरण में हथियारबंद पठानों ने पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी प्रांत से कश्मीर पर हमला बोल दिया और उनकी असंगठित टीमें श्रीनगर तक पहुंचीं। उनके डर से कश्मीर के तत्कालीन राजा हरि सिंह ने जम्मू की तरफ पलायन किया। कश्मीर को ‘आजाद’ रखने की ख्वाहिश रखनेवाले राजा हरि सिंह के पास भारत में विलय के करारनामे पर दस्तखत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, मगर इसका इंतजार किए बिना एक फर्जी दस्तावेज पेश किया गया जिसमें महाराजा द्वारा भारत के साथ विलय पर सहमति पेश की गई थी। यही वह फर्जी दस्तावेज है जिसके आधार पर साठ साल के बाद भी भारतीय राज्य कश्मीर पर अपने नियंत्रण को जायज ठहराता है। (पृ. 83) और जिसके आधार पर भारतीय सेनाओं ने कश्मीर पर नियंत्रण कायम करने की कार्रवाई शुरू की।
”इसके बावजूद, यह बिल्कुल स्पष्ट था कि एक ऐसा प्रांत जो मुस्लिम बहुल था उसे ताकत के बल पर – और जैसा कि बाद की घटनाओं ने स्पष्ट किया – फरेब के बलबूते हासिल किया गया था। यहां तक कि लंदन में सत्तासीन एटली के नेतृत्ववाली लेबर पार्टी की सरकार, जिसका कांग्रेस के प्रति बेहतर रुख था, उसने इस घटनाक्रम पर बेचैनी प्रगट की। प्रधानमंत्री एटली ने इसे ‘डर्टी बिजनेस’ की संज्ञा दी। संयुक्त राष्ट्रसंघ में भी इसके चलते समस्या खड़ी हुई।” (पृ. 84)
कश्मीर में जनमत संग्रह को लेकर, जिसका वायदा भारत सरकार ने किया था ताकि यह दिखाया जा सके कि कश्मीरी लोग अपनी स्वेच्छा से भारत से जुड़े हैं, न कि राजा की इच्छा से, उसके बारे में भी जल्द ही स्थिति स्पष्ट होती गई। कश्मीर के भारत में ‘विलय’ के कुछ समय बाद ही गृहमंत्री पटेल ने नेहरू को लिखा, ”यह दिख रहा है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस एवं शेख साहब (अब्दुल्ला) घाटी की जनता पर अपनी पकड़ खो रहे हैं और अलोकप्रिय हो रहे हैं …ऐसी परिस्थितियों में मैं आप से सहमत हूं कि जनमत संग्रह अवास्तविक होगा।” (पृ. 86 पर उद्धृत, दुर्गा दास (संपा.) पटेलस् कॉरसपांडंस, अहमदाबाद, 1971, खंड – 1, पृ. 286, 317)
मुल्क के बंटवारे की बात करना जिस वक्त कांग्रेस पार्टी में कुफ्र था और खुद मुस्लिम लीग के लिए भी अभी इस मसले को लेकर धुंधली समझदारी थी, उस वक्त (1944) प्रकाशित डॉ. आम्बेडकर की रचना पाकिस्तान आर पार्टिशन ऑफ इंडिया की प्रशंसा करते हुए लेखक बताता है कि इस मुद्दे पर प्रकाशित एकमात्र गंभीर उपरोक्त रचना, ”जिसके संदर्भ रेनन से एक्टन से कार्सन तक फैले हैं, कनाडा से आयरलैंड से स्विटजरलैंड तक बिखरे हैं, वह कांग्रेस एवं उसके नेताओं के बौद्धिक दिवालियेपन का ठोस सबूत थी।” (पृ. 89)
अध्याय में हैदराबाद पर भारतीय सेनाओं के नियंत्रण के बाद वहां भारतीय सेनाओं की मदद से हिंदुओं द्वारा किए गए स्थानीय मुस्लिम आबादी के जनसंहार के लगभग भुला दिए गए तथ्य की भी चर्चा है। ध्यान रहे कि इस जनसंहार की जांच के लिए भेजी गई सरकारी टीम का अनुमान था कि इस मारकाट में कुछ सप्ताह के अंदर ही वहां 27 हजार से 45 हजार तक मुसलमान मार दिए गए थे। ”भारतीय संघ के इतिहास में यह सबसे बड़ा कत्लेआम था, जिसके सामने पठान घुसपैठियों द्वारा श्रीनगर पर नियंत्रण कायम करने की कोशिशों के दौरान की गई हिंसा बहुत छोटी मालूम पड़ती है…।”(पृ. 91)
अंत में लेखक यह सवाल रखता है कि क्या भारत का बंटवारा अनिवार्य था? ब्रिटिश राज के खिलाफ चले संघर्ष को लेकर उपलब्ध प्रचुर साहित्य में भी इस प्रश्न पर व्याप्त मौन की भी बात इसमें की गई है। राष्ट्रीय आंदोलन में एक स्थापित समझदारी यही चली आ रही है कि ब्रिटिशों की ‘बांटो एवं राज करो’ की नीति का प्रतिफलन इस उपमहाद्वीप का बंटवारा हुआ। इसके बरक्स लेखक का स्पष्ट मानना है कि ”इसकी अंतिम चालक शक्तियां देशज थीं, न कि साम्राजी।” राष्ट्रीय आंदोलन की शब्दावली एवं चित्रांकन में धर्म के प्रवेश के लिए जिन्ना को जिम्मेदार ठहराये जाने की प्रवृत्ति को प्रश्नांकित करते हुए लेखक इसका जिम्मेदार गांधी को मानते हैं। उनके मुताबिक ”भले ही उन्होंने इस काम को संकीर्ण भावना के साथ नहीं किया, जहां मुसलमानों को खिलाफत बचाने के लिए आगे आने को कहा वहीं हिंदुओं को रामराज्य कायम करने की अपील की, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्होंने ब्रिटिशों के खिलाफ साझा संघर्ष में अपने सहयोगी कौन हो सकते हैं इस सवाल को छोड़ दिया।” (पृ. 94)
किताब का अंतिम अध्याय ‘रिपब्लिक’ (गणतंत्र) भारतीय गणतंत्र के निर्माण एवं विकास की यात्रा पर चर्चा करता है और भारतीय जनतंत्र के स्थायित्व को लेकर उदार विचारकों द्वारा अक्सर किए जानेवाले महिमामंडन में दबे रहनेवाले तथ्यों को रेखांकित करता है। लेखक के मुताबिक भारतीय जनतंत्र का स्थायित्व भारत की आजादी की स्थितियों से सबसे पहले निर्धारित हुआ, जहां ब्रिटिश राज को पलटा नहीं गया बल्कि कांग्रेस को सत्ता हस्तांतरित की गई। उपनिवेशवादियों को अलविदा कहा गया, मगर औपनिवेशिक नौकरशाही तंत्र एवं सेना को भी अक्षुण्ण रखा गया। राज की विरासत सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं थी। प्रशासन एवं दमन के तंत्र के साथ-साथ कांग्रेस ने प्रतिनिधित्व की उसकी परंपरा को भी आगे बढ़ाया।
इस संदर्भ में यह बात महत्वपूर्ण है कि जिस संविधान सभा ने देश को अपना संविधान दिया वह ब्रिटिशों द्वारा निर्मित इकाई थी (1946), जिसके लिए ब्रिटेन की तत्कालीन प्रजा के सात में से एक व्यक्ति को मताधिकार मिला था। निश्चित ही आजादी मिलने के बाद कांग्रेस सार्विक मताधिकार के साथ नए चुनावों का आयोजन कर सकती थी, मगर उसे इस बात का डर था कि इसका नतीजा क्या हो सकता है? 1951-52 के पहले ऐसे चुनाव नहीं हुए। ”इस तरह जिस निकाय ने भारतीय जनतंत्र को जन्म दिया वह उसकी अभिव्यक्ति नहीं थी बल्कि उस पर लादी गई औपनिवेशिक बंदिशों का प्रतीक थी।” (पृ. 106) बकौल सुनिल खिलनानी (दि इंडियन कांस्टिट्यूशन एंड डेमोक्रसी, देखें: इंडियाज लिविंग कांस्टिटयूशन, संपा. जोया हसन तथा अन्य) ”सामाजिक संरचना के मामले में संविधान सभा एक बहुत संकीर्ण इकाई थी जिस पर कांग्रेस के उंची जाति एवं ब्राह्मणवादी अभिजातों का दबदबा था और उसने ऐसा संविधान बनाया जो सार्वजनिक जीवन को गठित करनेवाला नहीं बल्कि किसी क्लब हाउस के नियमों के तर्ज पर था…।”
इस संविधान सभा द्वारा निर्मित भारतीय जनतंत्र की प्रातिनिधिक संस्थाओं की जड़ में ही किस तरह चुनावी विकृतियां थीं, इसकी चर्चा करते हुए लेखक इस बात पर जोर देता है कि यहां आनुपातिक प्रतिनिधित्व देने के बजाय, ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ अर्थात जो जीता वही सिंकदर की तर्ज पर प्रतिनिधित्व दिया गया जिसके चलते 1951 से 1971 के दरमियान कभी भी वोटों का बहुमत न मिलने के बावजूद (जो कभी 45 फीसदी से आगे नहीं गया) कांग्रेस पार्टी के लिए संसद में 70 फीसदी सीटों पर कब्जा कर सकी। आगे भारतीय जनतंत्र के एक अन्य अपवाद की चर्चा है। भारत में जहां गरीब मतदाताओं की संख्या अधिक है वहीं वोट देने में भी वह आगे ही रहते हैं। इसके बरक्स शेष दुनिया में, जैसे- जैसे आय एवं साक्षरता में गिरावट आती है उसी अनुपात में वोट का प्रतिशत भी गिरता है। आखिर ऐसा क्यों है? गरीबों, वंचितों को गुस्सा उदार जनतंत्र के खिलाफ फूट न पडऩे का कारण यहां की ‘सामाजिक स्तरीकरण की प्रणाली’ है, जो किसी भी किस्म की सामूहिक कार्रवाई की राह में बाधा है। भारत के इस ‘जातिबद्ध’ जनतंत्र – जो धार्मिक ताकतों में भी आबद्ध है – की चर्चा के बाद आगे यहां व्याप्त प्रचंड विविधता में कायम एकता पर किताब फोकस करती है। संविधान निर्माताओं ने सचेतन तौर पर ‘संघीय’ (फेडरल) शब्द के इस्तेमाल से परहेज किया। आजादी के वक्त भारत में चौदह राज्य थे और आज इनकी संख्या 28 तक पहुंची है। ”कभी भी इस पुनर्विभाजन के लिए मतदाताओं से सलाह मशविरा नहीं लिया गया है, न पहले और न ही बाद में…।” भारत के हुक्मरानों ने अपनी सुविधा से इसे अंजाम दिया, इसके बावजूद एक केंद्रीय सरकार के अधीन इन क्षेत्रीय हुकूमतों को भारतीय संविधान की एक ‘अलग किस्म की उपलब्धि’ के तौर पर रेखांकित किया जाता है और यह समझदारी ‘भारतीय विचारधारा’ का एक अहम अंग बनी है कि यह धारणा कि देश की एकता की भारतीय राज्य द्वारा रक्षा एक किस्म का करिश्मा है। ”निश्चित तौर पर इस किस्म के हांकने का कोई आधार नहीं है।” (पृ. 114) किसी भी योरोपीय उपनिवेश को आज देखें तो यही नियम दिखता है।
भारतीय राज्य द्वारा ब्रिटिशकालीन भारत को ‘एकताबद्ध’ रखने की कोशिशों ने किस तरह कश्मीरी जनता की लोकप्रिय इच्छा (पापुलर विल) पर कहर बरपाया है, इसकी चर्चा के बाद लेखक उत्तर-पूर्व को एकीकृत रखने की नवस्वाधीन मुल्क की कोशिशों पर आता है, जहां की जनता का बड़ा हिस्सा आज भी इस कहर को दमनात्मक कानूनों या बड़े हिस्सों में आज भी जारी सैन्य दमन के रूप में झेल रहा है। ध्यान रहे कि यह वह इलाका है जहां आजादी के बाद से ही हथियारबंद संघर्षों का सिलसिला जारी है, जो भारत से आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग करते रहे हैं। इस संदर्भ में नागा नेशनल काउंसिल के प्रतिनिधिमंडल को गांधी द्वारा दिए गए आश्वासन को अक्सर भुला दिया जाता है। आजादी से एक माह पहले इस प्रतिनिधिमंडल से गांधीजी ने साफ कहा था कि ”…व्यक्तिगत तौर पर, आप सभी मेरा या भारत का हिस्सा हैं। मगर अगर आप यह कहते हैं कि नहीं, तो कोई भी आप पर दबाव नहीं डाल सकता।” (पृ. 121)
नेहरू की महानता की चर्चा करते वक्त जिस बात का अक्सर उल्लेख किया जाता है कि वह तानाशाहों से बजबजाती गैरपश्चिमी दुनिया में एक जनतांत्रिक नेता के तौर पर शासन करते रहे, उस संदर्भ में लेखक इस पहलू को रेखांकित करना नहीं भूलता – ”… नेहरू सबसे पहले एक भारतीय राष्ट्रवादी थे और जहां आम जन-इच्छा राष्ट्र के उनके तसव्वुर के साथ सामंजस्य बिठाती नहीं दिखी, उन्होंने बिना पश्चाताप के उसका दमन किया। यहां सरकार की प्रणाली मतदातापत्र नहीं थी, बल्कि जैसा कि उन्होंने खुद कहा है, संगीनें थीं।” (पृ. 133) ”1961 में उन्होंने भारत की एकता पर भाषण में या लेखन में, छवि में या प्रतीक में, सवाल उठाने को अपराध घोषित किया, जिसके लिए तीन साल की सजा दी जा सकती थी। नगा जनता, जिस पर उन्होंने 1963 में बमबारी शुरू की, वह तब भी लड़ रही थी, जब उनका देहांत हुआ। तीन साल बाद बगल की मिजो जनता भी बगावत में उठ खड़ी हुई।” (पृ. 135)
भारतीय विचारधारा का तीसरा अहम हिस्सा धर्मनिरपेक्षता के सवाल को लेकर है। लेखक बताता है कि किस तरह संविधान को अपनाते वक्त भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य कहने से बचा गया। न उसने कानून के सामने समानता के सिद्धांत को स्थापित किया, न समान नागरिक संहिता को लागू किया। हिंदू एवं मुसलमान दोनों अपने पारिवारिक जीवन में अपनी आस्था से जनित परंपरा/रिवाजों के अधीन रखे गए, दैनंदिन जीवन में धार्मिक सोपानक्रमों में दखल देने से इनकार किया गया, अस्पृश्यता पर पाबंदी लगा दी गई, मगर जाति को अक्षुण्ण रखा गया। गौरतलब है कि संविधान निर्माता के तौर पर अक्सर महिमामंडित किए जानेवाले डॉ. आम्बेडकर खुद संविधान जैसा कि वजूद में आया उससे संतुष्ट नहीं थे। संविधान निर्माण के बाद उनका यह वक्तव्य मशहूर है। ”लोग अक्सर मुझे कहते हैं कि सर, आप संविधान के निर्माता हैं। मेरा जवाब होता है, मैं किराये का टट्टू था, मुझे जो करने के लिए कहा गया, मैंने किया और अधिकतर अपनी इच्छा के खिलाफ”(पृ. 139) हिंदुओं की विवाह प्रथा में व्याप्त गैरबराबरी के खिलाफ हिंदू कोड बिल बनाने की उनकी योजना को जब पलीता लगा, तो उसके आधार पर कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर हुए आम्बेडकर इस बात के प्रति भी सचेत थे कि संविधान के बनने से उनके अपने लोगों की स्थिति में कोई सुधार आया है। ”वही तानाशाही, वही पुराने उत्पीडऩ का अस्तित्व आज भी बना हुआ है, पहले से चला आ रहा भेदभाव आज भी जारी है, और आज शायद अधिक खराब रूप में।” (आम्बेडकर, रायटिंग्ज एंड स्पीचेस, खंड 14, जिल्द-2, बांबे 1995, पृ.1318-1322) यहां धर्मनिरपेक्षता को धर्म के राज्य से अलगाव के तौर पर अपनाने एवं व्यवहार में लाने के बजाय सर्वधर्म-समभाव के तौर पर अपनाया गया। ”…कांग्रेस के नेतृत्व वाले राज्य ने भी कभी भी मुस्लिम अल्पसंख्यकों की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति सुधारने के लिए गंभीर प्रयास नहीं किए। अगर पार्टी या राज्य वाकई धर्मनिरपेक्ष होता, तो हर मामले में उसे प्राथमिकता मिलती, लेकिन यह बात उसके दिमाग में कभी नहीं आई।” (पृ. 146)
अंत में किताब जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता एवं एकता की इस ‘त्रिमूर्ति’, जो लेखक के मुताबिक भारतीय विचारधारा की बुनियाद है, पर विभिन्न अग्रणी विचारकों की समझदारी की चर्चा करती है और स्पष्टत: दिखाती है कि जहां सामाजिक आलोचना का पक्ष इनकी रचनाओं में अहम दिखता है, वही तेवर राजनीतिक आलोचना में नजर नहीं आता। एक उदाहरण के तौर पर वह ऑक्सफोर्ड कंपेनियन टू पॉलिटिक्स शीर्षक हाल में प्रकाशित संदर्भ ग्रंथ का उल्लेख करते हैं, जिसमें भारत, जैसा कि आज अस्तित्व में है, उसमें इन तमाम अग्रणियों के विचारों को देखा जा सकता है। भारतीय राज्य की दमनात्मक प्रणालियों पर यह कंपेनियन लगभग मौन है।
अपनी इस किताब का समापन करते हुए लेखक लिखते हैं कि ”एक बार जब उपनिवेशवादविरोधी संघर्ष से किसी नवस्वाधीन राष्ट्र का निर्माण होता है, तो उसकी जागृति के लिए प्रयुक्त विमर्श उसे उन्मत्त भी कर सकता है। भारत में यह खतरा अधिक दिखता है… आज जरूरत इस बात की है कि रूमानीकृत अतीत के मोह एवं वर्तमान में मौजूद उसके अवशेषों से हम मुक्त हों।”
भारत की अवाम की बेहतरी के लिए चिंतनरत तथा सक्रिय हर व्यक्ति के लिए पेरी एंडरसन की यह किताब बेहद जरूरी है। जरूरी नहीं कि हम उसके तमाम निष्कर्षों से सहमत हों, मगर भारतीय राज्य द्वारा अपनी आत्मप्रशंसा में बनाए गए तमाम मिथकों से – जो सहजबोध का हिस्सा बने हैं, मुक्त होने के लिए हमें निश्चित तौर पर यह एक आईना प्रदान करती है। जिस तरह जर्मन आइडियोलॉजी में लेखकद्वय ने अपने समकालीन चिंतकों, लेखकों को – जिनका जोर चेतना एवं अमूर्त विचारों पर था – ‘जिंदगी की वास्तविक परिस्थितियों से रूबरू होने’ की अपील की थी, उसी तरह यह किताब भी भारत के यथार्थ, अतीत और वर्तमान के तमाम असहज करनेवाली सच्चाइयों का सामना करने के लिए लोगों को झकझोरती है। (www.samayantar.com से साभार)