Friday 7 November 2014

भिखारी/तुर्गनेव

मैं एक सड़क के किनारे जा रहा था। एक बूढ़े जर्जर भिखारी ने मुझे रोका। लाल सुर्ख और आँसुओं में तैरती–सी आँखें, नीले होंठ,गंदे और गले हुए चिथड़े सड़ते हुए घाव... ओह,गरीबी ने कितने भयानक रूप से इस जीव को खा डाला है। उसने अपना सड़ा हुआ, लाल, गंदा हाथ मेरे सामने फैला दिया और मदद के लिए गिड़गिड़ाया।
मैं एक–एक करके अपनी जेब टटोलने लगा। न बटुआ मिला, न घड़ी हाथ लगी, यहाँ तक कि रूमाल भी नदारद था... मैं अपने साथ कुछ भी नहीं लाया था और भिखारी अब भी इंतजार कर रहा था। उसका फैला हुआ हाथ बुरी तरह काँप रहा था, हिल रहा था।
घबराकर, लज्जित हो मैंने वह गंदा, काँपता हुआ हाथ उमगकर पकड़ लिया, ‘‘नाराज मत होना, मेरे दोस्त! मेरे पास भी कुछ नहीं हैं,भाई!’’
भिखारी अपनी सुर्ख आँखों से एकटक मेरी ओर देखता रह गया। उसके नीले होंठ मुस्करा उठे और बदले में उसने मेरी ठंडी उँगुलियाँ थाम लीं, ‘‘तो क्या हुआ, भाई!’’ वह धीरे से बोला, ‘‘इसके लिए भी शुक्रिया, यह भी तो मुझे कुछ मिला, मेरे भाई!’’ और मुझे ज्ञात हुआ कि मैंने भी अपने उस भाई से कुछ पा लिया था।

फिल्ममेकर को जिंदा निगलेगा एनाकॉन्‍डा

अमेरिका के न्‍यूजर्सी शहर के रहने वाले 26 वर्षीय फिल्‍ममेकर पॉल रासोलियो टीवी पर एक ऐसा हैरतअंगेज कारनामा करने वाले हैं जिसे देखकर आपकी रूह कांप जाएगी। दरअसल रासोलियो दुनिया के सबसे बड़े सांप एनाकॉन्‍डा के पेट में जाएंगे। बता दें कि दिल दहला देने वाले इस नजारे को फिल्माया तक जा चुका है।
रासोलियो फिल्म मेकर होने के साथ-साथ प्रकृति-प्रेमी भी हैं। उन्होंने डिस्‍कवरी चैनल के स्‍पेशल शो के लिए डॉक्‍यूमेंट्री तैयार की है, जिसका प्रसारण सात दिसंबर को किया जाएगा। इस डॉक्यूमेंट्री में दिखाया जाएगा कि यदि कोई सांप किसी इंसान को निगले तो कैसा लगता है। इसके लिए पॉल ने खुद एक स्‍नेक प्रूफ सूट बनाया है। ऐसा सूट, जिसे पहनने के बाद जब सांप उन्‍हें निगलेगा, तो उन्‍हें कोई नुकसान नहीं होगा।
 ‘ईटेन अलाइव’ नाम के इस शो में फिल्‍म निर्माता पॉल अमाजॉन के विशाल 30 फीट लंबे एनाकॉन्‍डा के सामने खुद को भोजन के रूप में पेश करेंगे।
हालांकि, इस कार्यक्रम को लेकर पशु प्रेमियों ने नाराजगी जाहिर की है। उनका कहना है कि यह जानवरों के साथ किए जाने वाले दुर्व्‍यवहार की चरम सीमा है। हालांकि, 26 वर्षीय पॉल इस बात से इनकार करते हैं।
उन्‍होंने ट्वीट कर कहा कि यदि आप मुझे जानते हैं, तो मैं कभी किसी भी जीव को नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा। रासोलियो को अमाजॉन का इंडियाना जोन्‍स भी कहा जाता है। वह अमाजॉन के विशेषज्ञ हैं और उनकी वेबसाइट बायो में बताया गया है कि उन्‍होंने भारत, इंडो‍नेशिया, ब्राजील और पेरू में कई जगहों पर काम किया है।
प्रदर्शनकारियों ने डिस्कवरी चैनल से इस एपिसोड को प्रदर्शित नहीं करने की भी मांग की है। इसी मकसद से वेबसाइट चेंज डॉट ओआरजी ने इस एपिसोड के खिलाफ एक ऑनलाइन अभियान चला रखा है जिसे अब तक 500 सिग्नेचर सपोर्ट मिल चुका है। इस अभियान के जरिए बताया जा रहा है कि यह जानवरों के साथ किए जाने वाले दुर्व्‍यवहार की चरम सीमा है और बेहद बकवास है। इसमें कहा गया है कि इससे सांप की जान भी जा सकती है। एक वयस्‍क एनाकॉन्‍डा वयस्‍क पुरुष के कंधों को नहीं निगल सकता है। वह आमतौर पर वन्‍य सुअर, हिरन आदि को खाता है। एनाकॉन्‍डा या अजगर जैसे जीव अपने भोजन को निगलने से पहले उन्‍हें दबाकर मार डालते हैं।
न्‍यूजर्सी के रहने वाले पॉल ने 18 वर्ष की आयु में पहली बार पेरू के अमाजॉन जंगल में काम किया था।
(समाचार4मीडिया से साभार)

राम की एक बहन थी शान्‍ता / बोधिसत्‍व

दशरथ की एक बेटी थी शान्‍ता
लोग बताते हैं, जब वह पैदा हुई
अयोध्‍या में अकाल पड़ा बारह वर्षों तक...
धरती धूल हो गयी...!
चिन्तित राजा को सलाह दी गयी कि
उनकी पुत्री शान्‍ता ही अकाल का कारण है!
राजा दशरथ ने अकाल दूर करने के लिए शृंगी ऋषि को पुत्री दान दे दी...
उसके बाद शान्‍ता कभी नहीं आयी अयोध्‍या...
लोग बताते हैं दशरथ उसे बुलाने से डरते थे...
बहुत दिनों तक सूना रहा अवध का आंगन
फिर उसी शान्‍ता के पति शृंगी ऋषि ने दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ कराया...
दशरथ चार पुत्रों के पिता बन गये, सं‍तति का अकाल मिट गया
शान्‍ता राह देखती रही अपने भाइयों की...
पर कोई नहीं गया उसे आनने हाल जानने कभी
मर्यादा पुरुषोत्तम भी नहीं,
शायद वे भी रामराज्‍य में अकाल पड़ने से डरते थे
जबकि वन जाते समय राम शान्‍ता के आश्रम से होकर गुज़रे थे...
पर मिलने नहीं गये...
शान्‍ता जब तक रही राह देखती रही भाइयों की
आएंगे राम-लखन, आएंगे भरत शत्रुघ्‍न
बिना बुलाये आने को राजी नहीं थी शान्‍ता...
सती की कथा सुन चुकी थी बचपन में, दशरथ से...!


हिंदी पत्रकारिता अपनी जिम्मेदारी समझे / संतोष भारतीय

पत्रकारिता के एक विद्यार्थी ने मुझसे पूछा कि क्या अंग्रेजी और हिंदी पत्रकारिता अलग-अलग हैं. मैंने पहले उससे प्रश्न किया कि आप यह सवाल क्यों पूछ रहे हैं. उसने मुझसे कहा कि यह सवाल मैं इसलिए पूछ रहा हूं कि अकसर मैं देखता हूं कि अंग्रेजी पत्रकारिता में लोग लगभग एक ही ट्यून पर काम करते हैं. बहुत कम लोग हैं, जो शुरू किए हुए ढर्रे के खिला़फ स्टोरी करते हैं, जबकि हिंदी में इस तरह की एकता नहीं दिखाई देती. अंग्रेजी पत्रकारिता में स्टोरी को डेवलप करने में रूचि नज़र आती है, लेकिन हिंदी पत्रकारिता में रिपोर्ट को मारने की मारामारी दिखाई देती है. पत्रकारिता के क्षेत्र में आने का सपना पाले हुए इस नौजवान ने मुझे यह सोचने पर विवश कर दिया. विवश इसलिए कर दिया, क्योंकि पत्रकारिता का भविष्य ऐसे ही लोग संभालने वाले हैं. इस विद्यार्थी का उत्साह मुझे इसलिए चिंतित कर गया, क्योंकि इसका सपना हिंदी पत्रकारिता में आने का है. हिंदी पत्रकार क्यों एक-दूसरे के खिला़फ खड़े हो जाते हैं, यह सवाल तो है. हिंदी पत्रकार क्यों एक-दूसरे की रिपोर्ट को डेवलप नहीं करते हैं, यह सवाल तो है. और सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्यों हिंदी पत्रकार बढ़-चढ़कर ज़बरदस्ती के तर्कों को गढ़कर अपने साथी पत्रकार की रिपोर्ट को किल करने में अपनी सारी ताक़त लगा देते हैं. इन सवालों का जवाब तो हिंदी के पत्रकारों को ही तलाशना है. लेकिन मैंने इसकी तलाश में कुछ लोगों से बातचीत की. आउट लुक के संपादक नीलाभ मिश्र, वरिष्ठ पत्रकार सुरेश वाफना जैसे बहुत सारे लोगों से मेरी बातचीत हुई. इन सभी ने सहमति व्यक्त की कि हिंदी पत्रकारिता कुछ ज़्यादा ही लड़खड़ा रही है. उन्होंने छात्र की इस बात पर भी सहमति व्यक्त की कि हिंदी पत्रकारिता में एक-दूसरे को बिलो द बेल्ट हिट करने की प्रवृति कुछ ज़्यादा बढ़ गई है, जबकि सच्चाई का एक पहलू यह भी है कि हिंदी पत्रकारिता ही इस देश की ज़मीनी पत्रकारिता को परिभाषा देती है.
मैं एक उदाहरण दे सकता हूं, बीती 23, 24 और 25 मार्च को मैंने जनरल वीके सिंह का हिंदी में इंटरव्यू लिया और वह इंटरव्यू ईटीवी पर चला. उस इंटरव्यू का नोटिस देश में किसी ने नहीं लिया. लेकिन जब 26 तारीख़ की सुबह द हिंदू ने उन्हीं विषयों पर जनरल वीके सिंह की रिपोर्ट छापी, तो देश में तू़फान आ गया और तब अचानक कुछ लोगों को याद आया कि ये सारी बातें जनरल वीके सिंह तीन दिन पहले कह चुके हैं, मेरे ही इंटरव्यू में. और टाइम्स नाऊ ने जैसे ही उस इंटरव्यू को चलाना शुरू किया, अचानक सारे अंग्रेज़ी और हिंदी चैनल मेरे उस इंटरव्यू को अपने-अपने यहां दिखाने लगे या कौन पूरा पहले दिखाता है, उसकी होड़ में लग गए. हमने हिंदी में सबसे पहले इंटरव्यू किया, लेकिन उस इंटरव्यू का कोई नोटिस किसी हिंदी अख़बार ने नहीं लिया, जबकि अंग्रेज़ी चैनल टाइम्स नाऊ ने उसका नोटिस लिया तो सारे हिंदी चैनल और अख़बार उस इंटरव्यू का नोटिस लेने लगे.
जब मैं हिंदी पत्रकारिता की बात कहता हूं तो उसमें सारी भाषाई पत्रकारिता शामिल हो जाती है. जिस तरह की रिपोर्ट, जिस तरह के विषय हिंदी सहित दूसरी भाषाओं के लोग छापते हैं, वैसे विषय अंग्रेजी पत्रकारिता में नज़र नहीं आते. इसके बावजूद हिंदी पत्रकार और भाषाई पत्रकार एक गंभीर हीनभावना से ग्रसित रहते हैं. अंग्रेजी ने बड़े-बड़े पत्रकार दिए हैं. जब हम बड़े पत्रकारों की सूची बनाते हैं तो उसमें अंग्रेजी से जुड़े पत्रकारों की संख्या बहुत ज़्यादा होती है. जब पत्रकारिता का विद्यार्थी जाने माने और बड़े पत्रकारों के बारे में बोलता है, तो उसमें वह नब्बे प्रतिशत नाम अंग्रेजी पत्रकारों के लेता है. वह शायद इसलिए इनका नाम लेता है, क्योंकि हम अपने काम, अपने काम का महत्व और अपने काम का असर न तो खुद देखते हैं और न ही दूसरे को दिखाना चाहते हैं. हिंदी के वे पत्रकार जो न किसी से प्रभावित होते हैं, न किसी के दबाव में आते हैं और जिनका दिमाग़ बिलकुल सा़फ है, उनके साथ सबसे बड़ी परेशानी यह है कि वे अपने जैसे दूसरे पत्रकारों से बात करना अपनी हेठी मानते हैं. ये शायद कहीं व्यक्तित्व में शामिल ईगो या अहंकार का तत्व है, जो पूरे व्यक्तित्व को प्रभावित कर जाता है. हिंदी के पत्रकार और खासकर वैसे पत्रकार जिनका मैंने ज़िक्र किया, सभा-समारोहों में तो मिल लेते हैं, लेकिन आपस में बैठकर व़क्त नहीं बिताते, ताकि उनके तनाव कम हो सकें या उनके पत्रकारिता के तनाव में दूसरे लोग शामिल होकर उनके उस तनाव को कम करने में मददगार साबित हो सकें. शायद एक संस्कृति का भी फर्क़ है. दिमाग़ी तौर पर हम अंग्रेजी पत्रकारिता को या अंग्रेजी पत्रकारों को ज़्यादा चुस्त-दुरुस्त और असरकारक मानते हैं. शायद हैं भी, क्योंकि देश का शासन, देश का प्रशासन, देश के नेता चाहे वह सोनिया गांधी हों या आडवाणी हों, उन्हें अंग्रेजी अ़खबार प़ढकर विषय की विश्वसनीयता ज़्यादा समझ आती है, जबकि हिंदी अ़खबारों में छपी हुई जानदार और तथ्यपरक, प्रासंगिक रिपोर्ट समझ नहीं आती. पर क्या इससे भाषाई पत्रकारिता खासकर हिंदी पत्रकारिता दोयम दर्जे की हो जाती है या हम उन विषयों को चुनना बंद कर दें, जिनकी वजह से हमारा महत्व अकसर स्थापित होता है.
मुझे याद है, 70 के दशक में या 80 के दशक के पहले हिस्से में आनंद बाज़ार पत्रिका ने संडे और रविवार नाम की दो पत्रिकाएं निकाली थीं. हम लोग रविवार के संवाददाता थे. सुरेंद्र प्रताप सिंह संपादक थे और अकसर संडे और रविवार में खबरों को लेकर प्रतिस्पर्धा होती रहती थी. मैं यह नहीं कहता कि हमेशा, लेकिन अकसर रविवार की रिपोर्ट संडे से पहले आ जाती थी और शायद दोनों पत्रिकाओं ने मिलकर उस समय की राजनीति पर और सरकार पर बहुत असर डाला था. एमजे अकबर संडे के संपादक थे और उन्होंने इसका एक तोड़ निकाल लिया. वह अगले हफ्ते रविवार में छपी रिपोर्ट को उसी रिपोर्टर के नाम से अंग्रेजी में छाप देते थे. और जो आज मानसिकता है, उस समय भी यही मानसिकता होती थी कि अंग्रेजी में छपी हुई बहुत सारी रिपोर्ट जो एक हफ्ते पहले हिंदी में छप चुकी होती थीं, देश में धूम मचा देती थीं. आज भी हालात कुछ उससे अलग नहीं हैं. मैं एक उदाहरण दे सकता हूं, बीती 23, 24 और 25 मार्च को मैंने जनरल वीके सिंह का हिंदी में इंटरव्यू लिया और वह इंटरव्यू ईटीवी पर चला. उस इंटरव्यू का नोटिस देश में किसी ने नहीं लिया. लेकिन जब 26 तारीख़ की सुबह द हिंदू ने उन्हीं विषयों पर जनरल वीके सिंह की रिपोर्ट छापी, तो देश में तू़फान आ गया और तब अचानक कुछ लोगों को याद आया कि ये सारी बातें जनरल वीके सिंह तीन दिन पहले कह चुके हैं, मेरे ही इंटरव्यू में. और टाइम्स नाऊ ने जैसे ही उस इंटरव्यू को चलाना शुरू किया, अचानक सारे अंग्रेज़ी और हिंदी चैनल मेरे उस इंटरव्यू को अपने-अपने यहां दिखाने लगे या कौन पूरा पहले दिखाता है, उसकी होड़ में लग गए. हमने हिंदी में सबसे पहले इंटरव्यू किया, लेकिन उस इंटरव्यू का कोई नोटिस किसी हिंदी अख़बार ने नहीं लिया, जबकि अंग्रेज़ी चैनल टाइम्स नाऊ ने उसका नोटिस लिया तो सारे हिंदी चैनल और अख़बार उस इंटरव्यू का नोटिस लेने लगे. इस स्थिति को जब हम देखते हैं, तब उस छात्र का दर्द जिसने मुझसे यह सवाल पूछा ज़्यादा समझ में आता है.
मैं अपने साथी पत्रकारों और संपादकों से अनुरोध करना चाहता हूं कि आप पर बहुत ज़िम्मेदारियां हैं. अगर आपस में संवाद शुरू हो सके और जिस स्टोरी में किसी एक संवाददाता को संभावना नज़र आए, वह इस स्टोरी का फॉलोअप करे तो शायद पत्रकारिता के उस सुनहरे दौर की वापसी संभव हो सकती है, जिस दौर को हम पत्रकारिता का सुनहरा काल कहते हैं. उन दिनों भी जलन थी, उन दिनों भी प्रतिस्पर्धा थी, लेकिन नकारात्मक प्रतिस्पर्धा कम थी और सकारात्मक प्रतिस्पर्धा ज़्यादा थी. इसलिए मेरा यह अनुरोध, अगर मेरे साथियों की समझ में आ जाए, तो वे मुझ पर कम लेकिन हिंदी पत्रकारिता पर ज़्यादा उपकार करेंगे. हिंदी में शशि शेखर, अजय उपाध्याय, नीलाभ मिश्र जैसे संपादक हैं. इनमें कई और नाम जोड़े जा सकते हैं, चाहे वह श्रवण गर्ग हों, चाहे गुलाब कोठारी हों या फिर चाहे आलोक मेहता हों. अगर ये लोग सकारात्मक पहल नहीं करेंगे तो आने वाले पत्रकारों के विश्वास को अर्जन करना इनके लिए मुश्किल होगा. आख़िर में स़िर्फ इतना अनुरोध, ज़रूरी नहीं कि इसलिए मिलें कि फॉलोअप स्टोरी करनी है, या इसलिए मिलें कि मिलजुल कर कोई स्टोरी करनी है. लेकिन इसलिए मिलना चाहिए कि एक-दूसरे से विचार-विमर्श हो तो उस विचार-विमर्श में इस देश में किस तरह के ट्रेंड्‌स शुरू हो रहे हैं, किस तरह के ट्रेंड्‌स का साथ देना है और किस तरह के ट्रेंड्‌स का साथ नहीं देना है, कम से कम यह तो सा़फ हो सके. आशा करनी चाहिए कि हिंदी पत्रकारिता, जो इस देश को समझने वाली पत्रकारिता है, अपनी ज़िम्मेदारी समझेगी और हिंदी पत्रकारिता के नेता भी अपनी ज़िम्मेदारी को समझेंगे.