Saturday 29 November 2014

'मीडिया हूं मैं' से उद्धृत गणेश शंकर विद्यार्थी की टिप्पणी

‘आज हमें जिहाद की जरूरत है- इस धर्म के ढोंग के खिलाफ, इस धार्मिक तुनकमिजाजी के खिलाफ। जातिगत झगड़े बढ़ रहे हैं। खून की प्यास लग रही है। एक-दूसरे को फूटी आँखों भी हम देखना नहीं चाहते। अविश्वास, भयातुरता और धर्माडम्बर के कीचड़ में फँसे हुये हम नारकीय जीव, यह समझ रहे हैं कि हमारी सिर फुटौव्वल से धर्म की रक्षा हो रही है। हमें आज शंख उठाना है इस धर्म के विरुद्ध जो तर्क, बुद्धि और अनुभव की कसौटी पर ठीक नहीं उतर सकता। भारतवासियो, एक बात सदा ध्यान में रखो! धार्मिक कट्टरता का युग चला गया। आज से 500 वर्ष पूर्व यूरोप जिस अंधविश्वास, दम्भ और धार्मिक बर्बरता के युग में था, उस युग में भारतवर्ष को घसीटकर मत ले जाओ। जो मूर्खतायें अब तक हमारे व्यक्तिगत जीवन का नाश कर रही थीं, वे अब राष्ट्रीय प्रांगण में फैलकर हमारे बचे-खुचे मानव-भावों का लोप कर रही हैं। जिनके कारण हमारा व्यक्त्तित्व पतित होता गया, अब उन्हीं के कारण हमारा देश तबाह हो रहा है। हिन्दू-मुसलमानों के झगड़ों और हमारी कमजोरियों को दूर करने का केवल एक यही तरीका है कि समाज के कुछ सत्यनिष्ठ और सीधे दृढ़-विश्वासी पुरुष धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध जिहाद कर दें। जब तक यह मूर्खता नष्ट न होगी तब तक देश का कल्याण न होगा। समझौते कर लेने, नौकरियों का बँटवारा कर लेने और अस्थायी सुलहनामों को लिखकर हाथ काले करने से देश को स्वतन्त्रता न मिलेगी। हाथ में खड्ग लेकर तर्क और ज्ञान की प्रखर करताल लेकर आगे बढ़ने की जरूरत है। पाप के गड्ढे राष्ट्र के राजमार्ग पर न खोदना चाहिये, क्योंकि भारत की राष्ट्रीयता का रथ उस पर होकर गुजर रहा है। हम चाहते हैं कि कुछ आदमी ऐसे निकल आयें- जिनमें हिन्दू भी हों और मुसलमान भी- जोकि इन सब मूर्खताओं की, जिनके हिन्दू और मुसलमान दोनों शिकार हो रहे हैं- तीव्र निन्दा करें। यह निश्चय है कि पहले-पहल इनकी कोई न सुनेगा। इन पर पत्थर फेंके जायेंगे। ये प्रताड़ित और निन्दा-भाजन होंगे। पर अपने सिर पर सारी निंदा और सारी कटुता को लेकर जो आगे आना चाहते हैं, उन्हीं को राष्ट्र यह निमंत्रण दे रहा है। सीस उतारे भुईं धरै, ता पर राखे पाँव, ऐसे जो हों, वे ही आवें।'

'मीडिया हूं मैं' से उद्धृत माखनलाल चतुर्वेदी

'मैंने तो जर्नलिज्म में साहित्य को स्थान दिया था। बुद्धि के ऐरावत पर म्यूनिसिपल का कूड़ा ढोने का जो अभ्यास किया जा रहा है अथवा ऐसे प्रयोग से जो सफलता प्राप्त की जा रही है उसे मैं पत्रकारिता नहीं मानता। मुफ्त में पढ़ने की पद्धति हिंदी से अधिक किसी भाषा में नहीं। रोटी, कपड़ा, शराब का मूल्य तो वह देता है पर ज्ञान और ज्ञान प्रसाधन का मूल्य चुकाने को वह तैयार नहीं। हिंदी का सबसे बड़ा शत्रु यही है। हिंदी भाषा का मासिक साहित्य एक बेढंगे और गए बीते जमाने की चाल चल रहा है। यहां बरसाती कीड़ों की तरह पत्र पैदा होते हैं। फिर यह आश्चर्य नहीं कि वे शीघ्र ही क्यों मर जाते हैं। यूरोप में हर एक पत्र अपनी एक निश्चित नीति रखता है। हिंदी वालों को इस मार्ग में नीति की गंध नहीं लगी। यहां वाले जी में आते ही, हमारे समान चार पन्ने निकाल बैठने वाले हुआ करते हैं। उनका न कोई आदर्श और उद्देश्य होता है, न दायित्व। किसी भी देश या समाज की दशा का वर्तमान इतिहास जानना हो तो वहां के किसी सामयिक पत्र को उठाकर पढ़ लीजिए, वह आपसे स्पष्ट कर देगा। राष्ट्र के संगठन में पत्र जो कार्य करते हैं वह अन्य किसी उपकरण से होना कठिन है। समाचारपत्रों की घटती लोकप्रियता के लिए दोषी वे लोग ही नहीं हैं जो पत्र खरीदकर नहीं पढ़ते। अधिक अंशों में वे लोग भी हैं जो पत्र संपादित और प्रकाशित करते हैं। उनमें अपने लोकमत की आत्मा में पहुंचने का सामर्थ्य नहीं। वे अपनी परिस्थिति को इतनी गंदी और निकम्मी बनाए रखते हैं, जिससे उनके आदर करने वालों का समूह नहीं बढ़ता है।' 

'मीडिया हूं मैं' से उद्धृत योगेंद्र यादव की टिप्पणी


अधिकांश अख़बार और टीवी चैनल पूंजीपति या कंपनी की मिलकीयत में हैं और मालिक मीडिया का इस्तेमाल अपने व्यावसायिक हितों के लिए करना चाहता है। अनेक मीडिया घरानों के मालिक या तो रियल एस्टेट का धंधा चलाते हैं, या फिर रियल एस्टेट में अनाप-शनाप पैसा कमाने वाले टीवी चैनेल खोल लेते हैं। जो अपने अख़बार या चैनल का प्रसार कर उससे पैसा कमाना चाहे, उसे तो धर्मात्मा मानना चाहिए। असली दिक़्कत यह है कि मीडिया का इस्तेमाल दलाली और ब्लैकमेल के लिए भी होता है। मीडिया और पूँजी के इस नापाक रिश्ते पर कुछ बंदिशें लगनी जरूरी हैं। हर अख़बार या चैनल के लिए यह अनिवार्य होना चाहिए कि वह अपने मालिक के हर अन्य व्यावसायिक हितों की घोषणा करे। मालिक के स्वार्थ से जुड़ी हर ख़बर में इस संबंध का ज़िक्र करना ज़रूरी हो। ख़बरों की ख़रीद फ़रोख्त पर पाबंदी लगे। मीडिया और राजनीति का रिश्ता परोक्ष से प्रत्यक्ष तक पूरी इबारत से बंधा है। देश के कई इलाक़ों में राजनेता या उनके परिवार मीडिया के मालिक हैं और उसका इस्तेमाल खुल्लमखुल्ला अपनी राजनीति के लिए करते हैं। एक मायने में यह प्रत्यक्ष नियंत्रण कम ख़तरनाक़ है क्योंकि हर कोई इसे जानता है। इससे ज़्यादा ख़तरनाक़ है 'स्वतंत्र' मीडिया पर पिछले दरवाज़े से कब्ज़ा। तमाम राज्य सरकारें अख़बारों पर न्यूज़प्रिंट, विज्ञापन और प्रलोभन के ज़रिए दबाव बनाती हैं। मीडियाकर्मियों की सामाजिक पृष्ठभूमि के आंकड़े सार्वजनिक करने की ज़रूरत है। सीएसडीएस के एक शोध ने देश के शीर्ष हिंदी और अंग्रेज़ी अख़बारों की खबरों के विश्लेषण की एक ख़ौफ़नाक तस्वीर पेश की है। इस विश्लेषण के मुताबिक शीर्ष छह अख़बारों में कुल छपी खबरों में महज़ दो फ़ीसद गांव-देहात के बारे में होती हैं। हरियाणा में चौटाला सरकार जैसी सरकार के कार्यकाल के दौरान इन हथकंडों में दादागिरी भी जुड़ जाती है, लेकिन नीतीश कुमार जैसे नफ़ीस और लोकप्रिय मुख्यमंत्री भी मीडिया को "मैनेज" करने के हथकंडे अपनाते पाए जाते हैं। कश्मीर और पूर्वोत्तर में सुरक्षाबल भी कई बार मीडिया पर बंदिश लगाते हैं। मीडिया को इस दबाव से मुक्त करने के लिए चुनाव आयोग को मीडिया और राजनीति के रिश्तों की शिनाख़्त करने का अधिकार मिलाना चाहिए। ----------Adhikānśa aḵẖabāra aura ṭīvī cainala pūn̄jīpati yā kampanī kī milakīyata mēṁ haiṁ aura mālika mīḍiyā kā istēmāla apanē vyāvasāyika hitōṁ kē li'ē karanā cāhatā hai. Anēka mīḍiyā gharānōṁ kē mālika yā tō riyala ēsṭēṭa kā dhandhā calātē haiṁ, yā phira riyala ēsṭēṭa mēṁ anāpa - śanāpa paisā kamānē vālē ṭīvī cainēla khōla lētē haiṁ. Jō apanē aḵẖabāra yā cainala kā prasāra kara usasē paisā kamānā cāhē, usē tō dharmātmā mānanā ​​cāhi'ē. Asalī diqkata yaha hai ki mīḍiyā kā istēmāla dalālī aura blaikamēla kē li'ē bhī hōtā hai. Mīḍiyā aura pūm̐jī kē isa nāpāka riśtē para kucha bandiśēṁ laganī jarūrī haiṁ. Hara aḵẖabāra yā cainala kē li'ē yaha anivārya hōnā cāhi'ē ki vaha apanē mālika kē hara an'ya vyāvasāyika hitōṁ kī ghōṣaṇā karē. Mālika kē svārtha sē juṛī hara ḵẖabara mēṁ isa sambandha kā zikra karanā zarūrī hō. Ḵẖabarōṁ kī ḵẖarīda farōkhta para pābandī lagē. Mīḍiyā aura rājanīti kā riśtā parōkṣa sē pratyakṣa taka pūrī ibārata sē bandhā hai. Dēśa kē ka'ī ilāqōṁ mēṁ rājanētā yā unakē parivāra mīḍiyā kē mālika haiṁ aura usakā istēmāla khullamakhullā apanī rājanīti kē li'ē karatē haiṁ. Ēka māyanē mēṁ yaha pratyakṣa niyantraṇa kyōṅki hara kō'ī isē jānatā hai kama ḵẖataranāqa hai. Isasē zyādā ḵẖataranāqa hai' svatantra' mīḍiyā para pichalē daravāzē sē kabzā. Tamāma rājya sarakārēṁ aḵẖabārōṁ para n'yūzapriṇṭa, vijñāpana aura pralōbhana kē zari'ē dabāva banātī haiṁ. Mīḍiyākarmiyōṁ kī sāmājika pr̥ṣṭhabhūmi kē āṅkaṛē sārvajanika karanē kī zarūrata hai. Sī'ēsaḍī'ēsa kē ēka śōdha nē dēśa kē śīrṣa hindī aura aṅgrēzī aḵẖabārōṁ kī khabarōṁ kē viślēṣaṇa kī ēka ḵẖaufanāka tasvīra pēśa kī hai. Isa viślēṣaṇa kē mutābika śīrṣa chaha aḵẖabārōṁ mēṁ kula chapī khabarōṁ mēṁ mahaza dō fīsada gānva - dēhāta kē bārē mēṁ hōtī haiṁ. Hariyāṇā mēṁ cauṭālā sarakāra jaisī sarakāra kē kāryakāla kē daurāna ina hathakaṇḍōṁ mēṁ dādāgirī bhī juṛa jātī hai, lēkina nītīśa kumāra jaisē nafīsa aura lōkapriya mukhyamantrī bhī mīḍiyā kō" mainēja" karanē kē hathakaṇḍē apanātē pā'ē jātē haiṁ. Kaśmīra aura pūrvōttara mēṁ surakṣābala bhī ka'ī bāra mīḍiyā para bandiśa lagātē haiṁ. Mīḍiyā kō isa dabāva sē mukta karanē kē li'ē cunāva āyōga kō mīḍiyā aura rājanīti kē riśtōṁ kī śināḵẖta karanē kā adhikāra milānā cāhi'ē.


जीवन जगत

आदमी के आंसुओं में हंसी के भी रस्ते हैं,
रोओ किसी एक पर हजार लोग हंसते हैं।
कभी फुटपाथ, कभी पटरी के आसपास,
दिन भर उजड़ते हैं, रात भर बसते हैं।

Ādamī kē ānsu'ōṁ mēṁ hansī kē bhī rastē haiṁ, 
rō'ō kisī ēka para hajāra lōga hansatē haiṁ. 
Kabhī phuṭapātha, kabhī paṭarī kē āsapāsa, 
dina bhara ujaṛatē haiṁ, rāta bhara basatē haiṁ.
प्यासे-प्यासे ओस चाटते रहे मृदुल जी,
बिना सजा के जेल काटते रहे मृदुल जी,
समय कटे कैसे, अब एक-एक दिन भारी,
जीवन भर आदर्श बांटते रहे मृदुल जी।

विज्ञान लेखन / ओमप्रकाश कश्यप

सर्वप्रथम यह जान लेना उचित होगा कि आखिर विज्ञान लेखन है क्या? वह कौन-सा गुण है जो कथित विज्ञान साहित्य को सामान्य साहित्य से अलग कर, उसे विशिष्ट पहचान देता है? और यह भी कि किसी साहित्य को विज्ञान साहित्य की कोटि में रखने की कसौटी क्या हो? क्या केवल वैज्ञानिक खोजों, उपकरणों, नियम, सिद्धांत,परिकल्पना, तकनीक, आविष्कारों आदि को केंद्र में रखकर कथानक गढ़ लेना ही विज्ञान साहित्य है? यदि हां, तो क्या किसी भी निराधार परिकल्पना या आविष्कार को विज्ञान साहित्य का प्रस्थान बिंदु बनाया जा सकता है? क्या वैज्ञानिक तथ्य से परे भी विज्ञान साहित्य अथवा विज्ञान फंतासी की रचना संभव है? कुछ अन्य प्रश्न भी इसमें सम्मिलित हो सकते हैं। जैसे, विज्ञान साहित्य की धारा को कितना और क्यों महत्व दिया जाए? जीवन में विज्ञान जितना जरूरी है, उतना तो बच्चे अपने पाठ्यक्रम के हिस्से के रूप में पढ़ते ही हैं। फिर अलग से विज्ञान साहित्य की जरूरत क्या है? यदि जरूरत है तो पाठ्य पुस्तकों में छपी विज्ञानपरक सामग्री तथा विज्ञान साहित्य के मध्य विभाजन रेखा क्या हो? एक-दूसरे से अलग दिखनेवाले ये प्रश्न परस्पर संबद्ध हैं। यदि हम साहित्य के वैज्ञानिक पक्ष को जान लेते हैं तो इनकी आसंगता स्वयं दस्तक देने लगती है।
विज्ञान वस्तुतः एक खास दृष्टिबोध, विशिष्ट अध्ययन पद्धति है। वह व्यक्ति की प्रश्नाकुलता का समाधान करती और उसे क्रमशः आगे बढ़ाती है। आसपास घट रही घटनाओं के मूल में जो कारण हैं, उनका क्रमबद्ध, विश्लेषणात्मक एवं तर्कसंगत बोध, जिसे प्रयोगों की कसौटी पर जांचा-परखा जा सके, विज्ञान है। इन्हीं प्रयोगों, क्रमबद्ध ज्ञान की विभिन्न शैलियों, व्यक्ति की प्रश्नाकुलता और ज्ञानार्जन की ललक, उनके प्रभावों तथा निष्कर्षों की तार्किक, कल्पनात्मक एवं मनोरंजक प्रस्तुति विज्ञान साहित्य का उद्देश्य है। संक्षेप में विज्ञान साहित्य का लक्ष्य बच्चों के मनस् में विज्ञान-बोध का विस्तार करना है, ताकि वे अपनी निकटवर्ती घटनाओं का अवलोकन वैज्ञानिक प्रबोधन के साथ कर सकें। लेकिन वैज्ञानिक खोजों, आविष्कारों का यथातथ्य विवरण विज्ञान साहित्य नहीं है। वह विज्ञान पत्रकारिता का विषय तो हो सकता है,विज्ञान साहित्य का नहीं। कोई रचना साहित्य की गरिमा तभी प्राप्त कर पाती है, जब उसमें समाज के बहुसंख्यक वर्ग के कल्याण की भावना जुड़ी हो। कहने का आशय यह है कि कोई भी नया शोध अथवा विचार, वैज्ञानिक कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरने के बावजूद, लोकोपकारी हुए बगैर विज्ञान साहित्य का हिस्सा नहीं बन सकता। यही क्षीण मगर सुस्पष्ट रेखा है जो विज्ञानपरक सामग्री एवं विज्ञान साहित्य को विभाजित करती है।
विज्ञान कथा को अंग्रेजी में 'साइंस फेंटेसी' अथवा 'साइंस फिक्शन' कहा जाता है। एक जैसा दिखने के बावजूद इन दोनों रूपों में पर्याप्त अंतर है। अंग्रेजी शब्द Fiction लैटिन मूल के शब्द Fictus से व्युत्पन्न है, जिसका अभिप्राय है - गढ़ना अथवा रूप देना। इस प्रकार कि पुराना रूप सिमटकर नए कलेवर में ढल जाए। फिक्शन को 'किस्सा' या 'कहानी' के पर्याय के रूप में भी देख सकते हैं। 'विज्ञान कथा' को 'साइंस फिक्शन' के हिंदी पर्याय के रूप में लेने का चलन है। इस तरह 'विज्ञान कथा' या 'साइंस फिक्शन' आम तौर पर ऐसे किस्से अथवा कहानी को कहा जाता है जो समाज पर विज्ञान के वास्तविक अथवा काल्पनिक प्रभाव से बने प्रसंग को कहन की शैली में व्यक्त करे तथा उसके पीछे अनिवार्यतः कोई न कोई वैज्ञानिक सिद्धांत हो। 'साइंस फेंटेसी' के हिंदी पर्याय के रूप में 'विज्ञान गल्प' शब्द प्रचलित है। Fantasy शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन मूल के शब्द Phantasia से हुई है। इसका शाब्दिक अर्थ है - 'कपोल कल्पना' अथवा 'कोरी कल्पना'। जब इसका उपयोग किसी दूरागत वैज्ञानिक परिकल्पना के रूप में किया जाता है, तब उसे 'विज्ञान गल्प' कहा जाता है। महान मनोवैज्ञानिक फ्रायड ने कल्पना को 'प्राथमिक कल्पना' और 'द्वितीयक कल्पना' के रूप में वर्गीकृत किया है। उसके अनुसार प्राथमिक कल्पनाएं अवचेतन से स्वतः जन्म लेती हैं। जैसे किसी शिशु का नींद में मुस्कराना, पसंदीदा खिलौने को देखकर किलकारी मारना। खिलौने को देखते ही बालक की कल्पना-शक्ति अचानक विस्तार लेने लगती है। वह उसकी आंतरिक संरचना जानने को उत्सुक हो उठता है। यहां तक कि उसके साथ तोड़-फोड़ भी करता है। द्वितीयक कल्पनाएं चाहे स्वयं-स्फूर्त हों अथवा सायास, चैतन्य मन की अभिरचना होती हैं। ये प्रायः वयस्क व्यक्ति द्वारा रचनात्मक अभिव्यक्ति के रूप में विस्तार पाती हैं। साहित्यिक रचना तथा दूसरी कला प्रस्तुतियां द्वितीयक कल्पना की देन कही जा सकती हैं। प्रख्यात डेनिश कथाकार हैंस एंडरसन ने बच्चों के लिए परीकथाएं लिखते समय अद्भुत कल्पनाओं की सृष्टि की थी। एच.जी. वेल्स की विज्ञान फंतासी 'टाइम मशीन' भी रचनात्मक कल्पना की देन है। तदनुसार 'विज्ञान गल्प' ऐसी काल्पनिक कहानी को कहा जा सकता है, जिसका यथार्थ से दूर का रिश्ता हो, मगर उसकी नींव किसी ज्ञात अथवा काल्पनिक वैज्ञानिक सिद्धांत या आविष्कार पर रखी जाए।
'विज्ञान गल्प' में लेखक घटनाओं, सिद्धांतों, नियमों अथवा अन्यान्य स्थितियों की मनचाही कल्पना करने को स्वतंत्र होता है, बशर्ते उन वैज्ञानिक नियमों, आविष्कारों की नींव किसी ज्ञात वैज्ञानिक नियम, सिद्धांत अथवा आविष्कार पर टिकी हो। फिर भले ही निकट भविष्य में उस परिकल्पना के सत्य होने की कोई संभावना न हो। यहां तक आते-आते 'विज्ञान कथा' और 'विज्ञान गल्प' का अंतर स्पष्ट होने लगता है। 'विज्ञान कथा' में आम तौर पर ज्ञात वैज्ञानिक तथ्य या आविष्कार तथा उसके काल्पनिक विस्तार का उपयोग किया जाता है, जब कि 'विज्ञान फेंटेसी' अथवा 'विज्ञान गल्प' में वैज्ञानिक सिद्धांत अथवा आविष्कार भी परिकल्पित अथवा अतिकल्पित हो सकता है। हालांकि विज्ञानसम्मत बने रहने के लिए आवश्यक है कि उसके मूल में कोई ज्ञात वैज्ञानिक खोज अथवा आविष्कार हो। 'विज्ञान कथा' की अपेक्षा 'विज्ञान गल्प' में लेखकीय उड़ान के लिए कहीं बड़ा अंतरिक्ष होता है। इससे विज्ञान गल्प की अपेक्षा ज्यादा मनोरंजक होने की संभावना होती है। इस कारण बाल एवं किशोर साहित्य, यानी जहां सघन कल्पनाशीलता अपेक्षित हो, उसका अधिक प्रयोग होता है। उपन्यास जैसी अपेक्षाकृत लंबी रचना में मनोरंजन के अनुपात को बनाए रखना चुनौतीपूर्ण होता है। अतः दक्ष विज्ञान कथाकार उपन्यास लेखन के लिए गल्प-प्रधान किस्सागोई शैली को अपनाता है। इससे साहित्य और विज्ञान दोनों का उद्देश्य सध जाता है। विश्व के चर्चित विज्ञान उपन्यासों में अधिकांश 'विज्ञान गल्प' की श्रेणी में आते हैं।
विज्ञान लेखन की कसौटी उसका मजबूत सैद्धांतिक आधार है। चाहे वह विज्ञान कथा हो या गल्प, उसके मूल में किसी वैज्ञानिक सिद्धांत अथवा ऐसी परिकल्पना को होना चाहिए जिसका आधार जांचा-परखा वैज्ञानिक सत्य हो। वैज्ञानिक तथ्यों को समझे बिना 'विज्ञान कथा' अथवा 'विज्ञान गल्प' का कोई औचित्य नहीं बन सकता। अक्सर यह देखा गया है कि विज्ञान के किसी आधुनिकतम उपकरण अथवा नई खोज को आधार बनाकर अति-उत्साही लेखक रचना गढ़ देते हैं। लेकिन विज्ञान साहित्य का दर्जा दिलाने के लिए जो स्थितियां गढ़ी जाती हैं, उनका वैज्ञानिक सिद्धांत अथवा परिकल्पना से कोई वास्ता नहीं होता। न ही लेखक अपनी रचना के माध्यम से ब्रह्मांड के किसी रहस्य के पीछे मौजूद वैज्ञानिक तथ्य का उद्घाटन करना चाहता है। वह उसकी कल्पना से उद्भूत तथा वहीं तक सीमित होता है। ऐसी अवस्था में पाठक को चमत्कार के अलावा और कुछ मिल ही नहीं पाता। यह चामत्कारिता परीकथाओं या जादू-टोने के आधार पर रची गई रचनाओं जैसी ही अविवेकी एवं निरावलंब होती है। ऐसी विज्ञान फंतासी उतना ही भ्रम फैलाती है, जितना कि गैर-वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर रची गई तंत्र-मंत्र और जादू-टोने की कहानियां। बल्कि कई बार तो उससे भी ज्यादा। इसलिए कि सामान्य परीकथाओं में संवेदनतत्व का प्राचुर्य होता है, जब कि तर्काधारित विज्ञान-कथाएं किसी न किसी रूप में व्यक्ति के हाथों में विज्ञान की ताकत के आने का भरोसा जताती हैं। अयाचित ताकत की अनुभूति व्यक्ति की संवेदनशीलता एवं सामाजिकता को आहत करती है। 'विज्ञान कथा' अथवा 'विज्ञान गल्प' की रचना हेतु लेखक के लिए विज्ञान के सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पक्ष का ज्ञान अनिवार्य है। कोई रचना 'विज्ञान कथा' है अथवा 'विज्ञान गल्प', कई बार यह भेद कर पाना भी कठिन हो जाता है। असल में यह अंतर इतना बारीक है कि जब तक वैज्ञानिक नियमों, आविष्कारों तथा शोध-क्षेत्रों का पर्याप्त ज्ञान न हो, अच्छे से अच्छे लेखक-समीक्षक के धोखा खाने की पूरी संभावना होती है।
पश्चिमी देशों में विज्ञान लेखन की नींव उन्नीसवीं शताब्दी में रखी जा चुकी थी। विज्ञान के पितामह कहे जाने फ्रांसिस बेकन ने सोलहवीं शताब्दी में 'ज्ञान ही शक्ति है' कहकर उसका स्वागत किया था। बहुत जल्दी 'ज्ञान' का आशय, विशेष रूप से उत्पादन के क्षेत्र में, विज्ञान से लिया जाने लगा। सरलीकरण के इस खतरे को वाल्तेयर ने तुरंत भांप लिया था। बेकन की आलोचना करते हुए उसने कहा था कि विज्ञान का अतिरेकी प्रयोग मनुष्यता के नए संकटों को जन्म देगा। वाल्तेयर के बाद इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार करनेवाला रूसो था। अप्रगतिशील और प्रकृतिवादी कहे जाने का खतरा उठाकर भी अपने बहुचर्चित निबंध Discourse on the Arts and Sciences में उसने सबकुछ विज्ञान भरोसे छोड़ देने के रवैये की तीखी आलोचना की थी। इसके बावजूद हुआ वही जैसा वाल्तेयर तथा रूसो ने सोचा था। बीसवीं शताब्दी में आइंस्टाइन के ऊर्जा सिद्धांत के आधार पर निर्मित परमाणु बम से तो खतरा पूरी तरह सामने आ गया। आइंस्टाइन ने ही सिद्ध किया था कि भारी परमाणु के नाभिक को न्यूट्रॉन कणों की बौछार द्वारा विखंडित किया जा सकता है। इससे असीमित ऊर्जा की प्राप्ति होती है। इस असाधारण खोज ने परमाणु बम को जन्म दिया। उसके पीछे था मरने-मारने का सामंती संस्कार। एक बम अकेले दुनिया की एक-तिहाई आबादी को एक झटके में खत्म कर सकता है। माया कैलेंडर की भांति यह डर भी लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए पर्याप्त सिद्ध हुआ। भय के मनोविज्ञान ने उसे व्यापक लोकप्रसिद्धि प्रदान की। प्रकारांतर से उसने दार्शनिकों, वैज्ञानिकों समेत पूरे बुद्धिजीवी समाज को इतनी गहराई से प्रभावित किया कि विज्ञान बुद्धिजीवी वर्ग का नया धर्म बन गया। लोग उसके विरोध में कुछ भी कहने-सुनने को तैयार न थे, जबकि मनुष्यता के हित में उससे अधिक लोकोपकारी आविष्कार पेनिसिलिन का था, जिसका आविष्कारक फ्लेमिंग था। एडवर्ड जेनर द्वारा की गई वैक्सीन की खोज भी उतनी ही महत्वपूर्ण और कल्याणकारी थी। फिर भी आइंस्टाइन को इन दोनों से कहीं अधिक ख्याति मिली। खूबसूरत-रोमांचक परीकथा - जितनी लोकप्रियता पा चुके आपेक्षिकता के सिद्धांत के आगे विज्ञान के सारे आविष्कार आभाहीन होकर रह गए। मनुष्यता के लिए कल्याणकारी आविष्कारक और भी कई हुए, परंतु उनमें से एक भी आइंस्टाइन की ख्याति के आसपास न पहुंच सका।
अपनी बौद्धिकता और कल्पना की बहुआयामी उड़ान के बावजूद आपेक्षिकता का सिद्धांत इतना गूढ़ है कि उसे बाल साहित्य में सीधे ढालना आसान नहीं है। मगर आइंस्टाइन के शोध से उपजी एक विचित्र-सी कल्पना ने बाल साहित्य की समृद्धि का मानो दरवाजा ही खोल दिया। आइंस्टाइन ने सिद्ध किया था कि समय भी यात्रा का आनंद लेता है। उसका वेग भी अच्छा-खासा यानी प्रकाश के वेग के बराबर होता है। अभी तक यह माना जा रहा था कि गुजरा हुआ वक्त कभी वापस नहीं आता। आइंस्टाइन ने गणितीय आधार पर सिद्ध किया था कि समय को वापस भी दौड़ाया जा सकता है। यह प्रयोग-सिद्ध परिकल्पना थी, जो सुनने-सुनाने में परीकथाओं जितना आनंद देती थी। शायद उससे भी अधिक, क्योंकि समय को यात्रा करते देखने या समय में यात्रा करने का रोमांच घिसी-पिटी परीकथाओं से कहीं बढ़कर था। इस परिकल्पना का एक और रोमांचक पहलू था, समय के सिकुड़ने का विचार। आइंस्टाइन के पूर्ववर्ती मानते थे कि समय स्थिर वेग से आगे बढ़ता है। सूक्ष्म गणनाओं के आधार पर वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि अति उच्च वेगों का असर समय पर भी पड़ता है। विशिष्ट परिस्थितियों में समय को भी लगाम लग जाती है। समय में यात्रा जैसी अविश्वसनीय परिकल्पना ने मनुष्य के लिए अंतरिक्ष के दरवाजे खोल दिए। गणित की विश्वसनीयता के साथ प्रस्तुत इस परिकल्पना और तत्संबंधी प्रयोगों ने अनेक विश्वप्रसिद्ध विज्ञान कथाओं को मसाला दिया, जिसे राइट बंधुओं द्वारा आविष्कृत वायुयान से मजबूत आधार मिला। अंतरिक्ष में, जो अभी तक महज कल्पना की वस्तु था, जहां उड़ान भरते पक्षियों को देख इंसान की आंखों में मुक्ताकाश में तैरने के सपने कौंधने लगते थे, अब वह स्वयं आ-जा सकता था। अंतरिक्ष-यात्रा को लेकर उपन्यास-लेखन का सिलसिला तो आइंस्टाइन और राइट बंधुओं से पहले ही आरंभ हो चुका था। अब इन विषयों पर अधिक यथार्थवादी कौशल से लिख पाना संभव था।
सवाल है कि बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक विज्ञान साहित्य ने जो दिशा पकड़ी, क्या वह साहित्यिक दृष्टि से भी समीचीन थी? इसमें कोई दो राय नहीं कि बीसवीं शताब्दी के आरंभ में विज्ञान लेखन में तेजी आई। बाल साहित्य को अनेक सुंदर और मौलिक कृतियां इस कालखंड में प्राप्त हुईं। वह दौर उन्नत सामाजिक चेतना का था, मनुष्यता दो विश्वयुद्धों के घाव खा चुकी थी, अतः साहित्यकारों के लिए यह संभव ही नहीं था कि उसकी उपेक्षा कर सकें। इसलिए उस दौर के साहित्यकार जहां एक ओर बाल साहित्य को कल्पनाधारित मौलिक, मनोरंजक एवं ज्ञानवर्धक कृतियां उपलब्ध कर रहे थे, दूसरी ओर वाल्तेयर और रूसो की चेतावनी भी उन्हें याद थी। अपनी कृतियों के माध्यम से वे समाज को सावधान भी कर रहे थे। कह सकते हैं कि सावधानी और सजगता विज्ञान साहित्य के आरंभिक दौर से ही उसके साथ जुड़ चुकी थी। विज्ञान साहित्य की शुरुआत के श्रेय की पात्र मेरी शैली से लेकर इसाक अमीसोव (रोबोट, 1950), आर्थर सी. क्लार्क (ए स्पेस आडिसी, 1968), राबर्ट हीलीन (राकेट शिप गैलीलिया, 1947), डबल स्टार (1956) तथा स्ट्रेंजर इन ए स्ट्रेंज लैंड (1961) - सभी ने विज्ञान के दुरुपयोग की संभावनाओं को ध्यान में रखा। मेरी शैली ने अपनी औपन्यासिक कृति 'फ्रेंकिस्टीन' (1818) में दो मृत शरीरों की हड्डियों से बने एक प्राणी की कल्पना की थी। वह जीव प्रारंभ में भोला-भाला था। धीरे-धीरे उसमें नकारात्मक चरित्र उभरा और उसने अपने जन्मदाता वैज्ञानिक को ही खा लिया। उपन्यास विज्ञान के दुरुपयोग की संभावना से जन्मे डर को सामने लाता था।
हिंदी में आरंभिक 'विज्ञान कथा' का लेखन अंग्रेजी से प्रभावित था। औपनिवेशिक भारत में यह स्वाभाविक भी था। हिंदी की पहली विज्ञान कथा अंबिकादत्त व्यास की 'आश्चर्य वृतांत' मानी जाती है, जो उन्हीं के समाचारपत्र 'पीयूष प्रवाह' में धारावाहिक रूप में 1884 से 1888 के बीच प्रकाशित हुई थी। उसके बाद बाबू केशवप्रसाद सिंह की विज्ञान कथा 'चंद्रलोक की यात्रा' सरस्वती के भाग 1, संख्या 6, सन 1900 में प्रकाशित हुई। संयोग है कि वे दोनों ही कहानियां जूल बर्न के उपन्यासों पर आधारित थीं। अंबिकादत्त व्यास ने अपनी कहानी के लिए मूल कथानक 'ए जर्नी टू सेंटर ऑफ दि अर्थ' से लिया था। केशवप्रसाद सिंह की कहानी भी बर्न के उपन्यास 'फाइव वीक्स इन बैलून' से प्रभावित थी। इन कहानियों ने हिंदी के पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। उनमें विज्ञान कथा पढ़ने की ललक बढ़ी। आरंभिक दौर में विज्ञान कथा श्रेणी में हिंदी में प्रकाशित ये कहानियां पाठकों द्वारा खूब सराही गईं। इन्होंने हिंदी पाठकों का परिचय नए साहित्यिक आस्वाद से कराया, जो कालांतर में हिंदी विज्ञान साहित्य के विकास का आधार बना। इसके बावजूद इन्हें हिंदी की मौलिक विज्ञान कथा नहीं कहा जा सकता। इन रचनाओं में मौलिकता का अभाव था। यह स्थिति देर तक बनी रही। हिंदी में विज्ञान साहित्य के अभाव का महत्वपूर्ण कारण बाल साहित्य के प्रति बड़े साहित्यकारों में अनपेक्षित उदासीनता भी थी। अधिकांश प्रतिष्ठित लेखक बाल साहित्य को दोयम दर्जे का मानते थे। यहां तक कि बाल साहित्यकार कहलाने से भी वे बचते थे। एक अन्य कारण था लेखकों और पाठकों में वैज्ञानिक चेतना की कमी तथा जानकारी का अभाव। जो विद्वान विज्ञान में पारंगत थे, वे लेखकीय कौशल के कमी के चलते इस अभाव की पूर्ति करने में अक्षम थे।
हिंदी की प्रथम मौलिक विज्ञान कथा का श्रेय सत्यदेव परिव्राजक की विज्ञान कथा 'आश्चर्यजनक घंटी' को प्राप्त है। बाद के विज्ञान कथाकारों में दुर्गाप्रसाद खत्री, राहुल सांकृत्यायन, डॉ. संपूर्णानंद, आचार्य चतुरसेन, कृश्न चंदर, डॉ. ब्रजमोहन गुप्त, लाला श्रीनिवास दास, राजेश्वर प्रसाद सिंह आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इस तरह हिंदी विज्ञान साहित्य का इतिहास कहानी साहित्य जितना ही पुराना है, हालांकि यह मानना पड़ेगा कि एक शताब्दी से ऊपर की इस विकास-यात्रा में हिंदी विज्ञान साहित्य का जितना विस्तार अपेक्षित था, उतना नहीं हो पाया। इसका एक कारण संभवतः यह भी हो सकता है कि हिंदी के अधिकांश साहित्यकार गैर-वैज्ञानिक शैक्षिक पृष्ठभूमि से आए थे। फिर उनके सामने चुनौतियां भी अनेक थीं। सबसे पहली चुनौती थी, विज्ञान कथा की स्पष्ट अवधारणा का अभाव। उस समय तक शिक्षा और साहित्य का प्रथम उद्देश्य था - बच्चों को भारतीय संस्कृति से परचाना। उन्हें धार्मिक और नैतिक शिक्षा देना। नैतिक शिक्षा को भी सीमित अर्थों में लिया जाता था। धार्मिक ग्रंथों, महापुरुषों के वक्तव्यों तथा उनके जीवन चरित्र को नैतिक शिक्षा का प्रमुख स्रोत माना जाता है। धर्म के बगैर भी नैतिक शिक्षा दी जा सकती है, यह मानने के लिए कोई तैयार न था। बालकों के मौलिक सोच, तर्कशीलता, मौलिक ज्ञान एवं प्रश्नाकुलता को सिरे चढ़ाने वाले साहित्य का पूरी तरह अभाव था। विज्ञान के बारे में बालक पाठशाला में जो कुछ पढ़ता था, वह केवल उसके शिक्षा-सदन तक ही सीमित रहता था। घर-समाज में विज्ञान के उपयोग, परिवेश में उसकी व्याप्ति के बारे में समझानेवाला कोई न था। परिवार में बालक की हैसियत परावलंबी प्राणी के रूप में थी। घर पहुंचकर अपनों के बीच यदि वह वैज्ञानिक प्रयोगों को दोहराना चाहता तो प्रोत्साहन की संभावना बहुत कम थी। संक्षेप में कहें तो विज्ञान और उसके साथ विज्ञान लेखन की स्थिति पूरी तरह डांवाडोल थी। भारतीय समाज में वैज्ञानिक बोध के प्रति यह उदासीनता तब थी जब प्रथम वैज्ञानिक क्रांति को हुए चार शताब्दियां गुजर चुकी थीं। आजादी के बाद हिंदी विज्ञान साहित्य की स्थिति में सुधार आया है, तथापि मौलिक सोच और स्तरीय रचनाओं की आज भी कमी है।
एक प्रश्न रह-रह दिमाग में कौंधता है। आखिर वह कौन-सा गुण है, जो किसी रचना को विज्ञान कथा या वैज्ञानिक साहित्य का रूप देता है? विज्ञान गल्प के नाम पर हिंदी में बच्चों के लिए जो रचनाएं लिखी जाती हैं, वे कितनी वैज्ञानिक हैं? क्या सिर्फ उपग्रह, स्पेस शटल, अंतरिक्ष यात्रा या ऐसे ही किसी काल्पनिक अथवा वास्तविक ग्रह, उपग्रह के यात्रा-रोमांच को लेकर बुने गए कथानक को विज्ञान साहित्य माना जा सकता है? क्या अच्छे और बुरे का द्वंद्व विज्ञान साहित्य में भी अपरिहार्य है? कई बार लगता है कि हिंदी के विज्ञान साहित्य लेखक विज्ञान और वैज्ञानिकता में अंतर नहीं कर पाते। विज्ञान साहित्य-लेखन के लिए गहरे विज्ञान-बोध की आवश्यकता होती है। उन्नत विज्ञानबोध के साथ विज्ञान का कामचलाऊ ज्ञान हो तो भी निभ सकता है। वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न लेखक अपने परिवेश से ही ऐसे अनेक विषय खोज सकता है जो विज्ञान के प्रति बालक की रुचि तथा प्रश्नाकुलता को बढ़ाने में सहायक हों। तदनुसार विज्ञान साहित्य ऐसा साहित्य है जिससे किसी वैज्ञानिक सिद्धांत की पुष्टि होती हो अथवा जो किसी वैज्ञानिक आविष्कार को लेकर तार्किक दृष्टिकोण से लिखा गया हो। उसमें या तो ज्ञात वैज्ञानिक सिद्धांत की विवेचना, उसके अनुप्रयोग की प्रामाणिक जानकारी हो अथवा तत्संबंधी आविष्कारों की परिकल्पना हो। विज्ञान गल्प को सार्थक बनाने लिए आवश्यक है कि उसके लेखक को वैज्ञानिक शोधों तथा प्रविधियों की भरपूर जानकारी हो। उसकी कल्पनाशक्ति प्रखर हो, ताकि वह वैज्ञानिक सिद्धांत, जिसके आधार पर वह अपनी रचना को गढ़ना चाहता है, के विकास की संभावनाओं की कल्पना कर सके। यदि ऐसा नहीं है तो विज्ञान कथा कोरी फंतासी बनकर रह जाएगी। ऐसी फंतासी किसी मायावी परीकथा जितनी ही हानिकर सिद्ध हो सकती है। एक रचनाकार का यह भी दायित्व है कि वह प्रचलित वैज्ञानिक नियमों के पक्ष-विपक्ष को भली-भांति परखे। उनकी ओर संकेत करे।
निर्विवाद सत्य है कि समाज को रूढ़ियों, जादू-टोने, भूत-प्रेत आदि के मकड़जाल से बाहर रखने में पिछली कुछ शताब्दियों से विज्ञान की बहुत बड़ी भूमिका रही है। विज्ञान के कारण ही देश अनेक आपदाओं तथा जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न खाद्यान्न समस्याओं का सामना करने में सफल रहा है। अनेक महामारियों से समाज को बचाने का श्रेय भी विज्ञान को ही जाता है। 'श्वेत क्रांति', 'हरित क्रांति' जैसी अनेक उत्पादन क्रांतियां विज्ञान के दम पर ही संभव हो सकी हैं। मगर बीते वर्षों में संचार माध्यमों और बाजार ने विज्ञान को 'आधुनिकता का धर्म' की भांति समाज में प्रसारित किया है। लोगों को बताया जाता रहा है कि विज्ञान के विकास की यह दिशा स्वाभाविक है। जिन क्षेत्रों में उसका विस्तार हुआ है, वही होना भी चाहिए था। जब कि ऐसा है नहीं। बाजार के दम पर फलने-फूलने वाले समाचारपत्र-पत्रिकाएं निहित स्वार्थ के लिए मानव समाज को उपभोक्ता समाज में ढालने की कोशिश करते रहते हैं। वे व्यक्ति के सोच को भी अपने स्वार्थानुरूप अनकूलित करते रहते हैं। पढ़े-लिखे युवाओं से लेकर साहित्यकार, बुद्धिजीवी तक उनकी बातों में आ जाते हैं। इससे विज्ञान पर अंकुश रखने, लोककल्याण के लक्ष्य के साथ उसके शोध क्षेत्रों के नियमन की बात कभी ध्यान में ही नहीं आ पाती। उदाहरण के लिए बीसवीं शताब्दी के विज्ञान की तह में जाकर देख लीजिए। उसका विकास उन क्षेत्रों में कई गुना हुआ, जहाँ पूंजीपतियों को लाभ कमाने का अवसर मिलता हो, उनका एकाधिकार पुष्ट होता हो। गांव में बोझा ढोने वाली मशीन हो या शहरी सड़कों पर दिखने वाला रिक्शा, उनमें प्रयुक्त तकनीक में पिछले पचास वर्षां में कोई बदलाव नहीं आया है, जब कि कार, फ्रिज, मोटर साइकिल, टेलीविजन, कंप्यूटर, मोबाइल जैसी उपभोक्ता वस्तुओं के हर साल दर्जनों नए माडल बाजार में उतार दिए जाते हैं। हालांकि यह कहना ज्यादती होगी कि ऐसा केवल विज्ञान के प्रति साहित्यकारों के अतिरेकी आग्रह अथवा उसके अनुप्रयोग की ओर से आंखें मूंद लेने के कारण हुआ है। मगर यह भी कटु सत्य है कि समाज-विज्ञानियों और साहित्यकर्मियों द्वारा विज्ञान के मनमाने व्यावसायिक अनुप्रयोग का जैसा रचनात्मक विरोध होना चाहिए था, वैसा नहीं हो पाया है। फ्रांसिसी बेकन का मानना था कि विज्ञान मनुष्य को जानलेवा कष्ट से मुक्ति दिलाएगा। आरंभिक आविष्कार इसकी पुष्टि भी करते थे। जेम्स वाट ने भाप का इंजन बनाया तो सबसे पहले उसका उपयोग कोयला खानों से पानी निकालने के लिए किया गया, जिससे हर साल सैकड़ों मजदूरों की जान जाती थी। विज्ञान साहित्य का अभीष्ट भी यही था कि वह विज्ञान के कल्याणकारी अनुप्रयोगों की ओर बुद्धिजीवियों-वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित करे तथा उनके समर्थन में खड़ा नजर आए। लेकिन विज्ञान लेखन को फैशन की तरह लेने वाले लेखकों से इस मामले में चूक हुई। श्रद्धातिरेक में उन्होंने विज्ञान-लेखन को भी धर्म बना लिया। प्रौद्योगिकी प्रदत्त सुविधाओं के जोश में वे भूल गए कि विज्ञान को मर्यादित करने की आवश्यकता आज पहले से कहीं अधिक है। अपने लेखन को संपूर्ण मनुष्यता के लिए कल्याणकारी मानने वाले साहित्यकारों का क्या यह दायित्व नहीं कि वे ऐसा सपना देखें जिसमें विज्ञान और तकनीक के जरिये देश के उपेक्षित वर्गों के कल्याण के बारे में सोचा गया हो! लोगों को बताएं कि मात्र प्रयोगशाला में जांचा-परखा गया सत्य ही सत्य नहीं होता। 'अहिंसा परमो धर्मः' परमकल्याणक सत्य का प्रतीक है। समाज में शांति-व्यवस्था बनाने रखने के लिए उसका अनुसरण अपरिहार्य है, हालांकि अन्य नैतिक सत्यों की भांति इसे भी किसी तर्क अथवा प्रयोगशाला द्वारा प्रमाणित नहीं किया जा सकता। विज्ञान ऐसे विषयों पर भले विचार न कर पाए, मगर साहित्य अनुभूत सत्य को भी प्रयोगशाला में खरे उतरे विज्ञान जितनी अहमियत देता है। विज्ञान तथा उसके अनुप्रयोग को लेकर नैतिक दृष्टि साहित्य में होगी, तभी तो विज्ञान में आएगी। कोरी वैज्ञानिक दृष्टि आइंस्टाइन के सापेक्षिकता के सिद्धांत से परमाणु बम ही बनवा सकती है।
मुझे दुख होता है जब देखता हूं कि विज्ञान-सम्मत लिखने के फेर में कुछ साहित्यकार साहित्य के मर्म को ही भुला देते हैं। ऐसे में यदि उनका विज्ञान-बोध भी आधा-अधूरा हो तो विज्ञान कथा या गल्प की श्रेणी में लिखी गई रचना भी तंत्र-मंत्र और जादू-मंतर जैसी बे-सिर-पैर की कल्पना बन जाती है। कुछ कथित विज्ञान कथाओं में दिखाया जाता है कि नायक या प्रतिनायक के हाथों में ऐसा टार्च है जिससे नीली रोशनी निकलती है। वह रोशनी धातु की मोटी पर्त को भी पिघला देती है। 'नीली रोशनी' संबोधन 'पराबैंगनी तरंगों' की तर्ज पर गढ़ा गया है। वे अतिलघु तरंगदैर्घ्य की अदृश्य किरणें होती हैं, जिन्हें स्पेक्ट्रम पैमाने पर नीले अथवा बैंगनी रंग से निचली ओर दर्शाया जाता है। दृश्य बैंगनी प्रकाश की किरणों के तरंगदैर्घ्य से भी अतिलघु होने के उन्हें 'अल्ट्रावायलेट' कहा जाता है। इस तथ्य से अनजान हमारे विज्ञान लेखक धड़ल्ले से नीली रोशनी का शब्द का प्रयोग भेदक किरणों के लिए करते हैं। मेरी दृष्टि में नीली किरणें फेंकने वाली टार्च और जादू के बटुए या जादुई छड़ी में उस समय तक कोई अंतर नहीं है, जब तक विज्ञान लेखक अपनी रचना में वर्णित वैज्ञानिक सत्य की ओर स्पष्ट संकेत नहीं करता। आप कहेंगे कि इससे रचना बोझिल हो जाएगी, पठनीयता बाधित होगी, तो मैं कहना चाहूंगा कि पठनीयता और विज्ञान की कसौटी दोनों का निर्वाह करना ही विज्ञान लेखक की सबसे बड़ी चुनौती होती है। इसलिए वैज्ञानिक कथाकार पूरी दुनिया में कम हुए हैं। साहित्यकार का काम वैज्ञानिक तथ्यों का सामान्यीकरण कर उनके और बाल मन के बीच तालमेल बैठाना है। वह बालक को अपने आसपास की घटनाओं से जोड़ने की जिम्मेदारी निभाता है, ताकि उसकी जिज्ञासा बलवती हो। उसमें कुछ सीखने की ललक पैदा हो। विज्ञान को ताकत का पर्याय न मान पाए इसलिए वह बार-बार इस तथ्य को समाज के बीच लाता है कि मनुष्यत्व की रक्षा संवेदना की सुरक्षा में है। संवेदन-रहित फंतासी हमें निःसंवेद रोबोटों की दुनिया में ले जाएगी। सार रूप में कहूं तो साहित्य का काम विज्ञान को दिशा देना है, न कि उसको अपनी दृष्टि बनाकर उसके अनुशासन में स्वयं को ढाल लेना। साहित्य अपने आपमें संपूर्ण शब्द है। तर्कसम्मत होना उसका गुण है। किसी रचना में साहित्यत्व की मौजूदगी ही प्रमाण है कि उसमें पर्याप्त विज्ञानबोध है।