Tuesday 11 February 2014

जयप्रकाश त्रिपाठी




आधे मन में वोट है, आधे मन में चोर।
कुर्सी-कुर्सी रट रहे सारे कुर्सीखोर।

निकल पड़े हैं लूटने जनता को, बदकार,
चारो ओर चुनाव का मौसम पॉकेटमार।

अपनी-अपनी गा रहे, बाकी सबको छोड़,
हम-सबको समझा रहे बहुरूपिये, छिछोड़।

जम्हूरियत का हो गया कैसा बंटाढार,
ठग, बटमार, बहेलिये लगा रहे दरबार।

सबको हूल पढ़ा रहे कर देंगे कल्याण,
उनके सुर में गा रहे भांति-भांति के भांड़।

लोकतंत्र के घाट पर भइ चोरों की भीर,
महाचोर चंदन घिसैं, तिलक करैं धनवीर।

हरीश निगम

पथराया नेहों का टाल कहाँ जाएँ
गली-गली फैले हैं जाल कहाँ जाएँ।

देख-देख मौसम के धोखे बंद किए हारकर झरोखे
बैठे हैंअंधियारे पाल कहाँ जाएँ।

आए ना रंग के लिफ़ाफ़े बातों के नीलकमल हाफे
मुरझाई रिश्तों की डाल कहाँ जाएँ।

कुहरीला देह का नगर है मन अपना एक खंडहर है
सन्नाटे खा रहे उबाल कहाँ जाएँ?

हरीश निगम

फूल पाने लगी है फागुन में
देह गाने लगी है फागुन में।

सूनी-सूनी उदास खिड़की से
धूप आने लगी है फागुन में।

सीधी सादी सी मखमली बिंदिया
ज़ुल्म ढाने लगी है फागुन में।

क्या करें हम हर एक बंदिश पर
उम्र छाने लगी है फागुन में।

एक भूली-सी मुलाकात हरीश
रंग लाने लगी है फागुन में।



हरीश निगम

सुख अंजुरि-भर, दुख नदी-भर
जी रहे दिन-रात सीकर!

ढही भीती, उड़ी छानी
मेह सूखे, आँख पानी
फड़फड़ाते मोर-तीतर!

हैं हवा के होंठ दरके
फटे रिश्तेगाँव-घर के
एक मरुथल उगा भीतर!

आक हो-आए करौंदे
आस के टूटे घरौंदे
घेरकर बैठे शनीचर!




सुधांशु उपाध्याय

आओ छत पर पानी छिड़कें,  दरी बिछा कर बैठें,
चाँद झर रहा और चाँद से पीठ सटा कर बैठें।

छोटे-छोटे पल भी दुनिया बड़ी बनाते हैं
वैसे तो हालात हमें बस घड़ी बनाते हैं
कुछ पत्तों का हिलना देखें चेहरों पर
चाँदनी मलें और बल्ब बुझा कर बैठें।

बहुत पास से ट्रेन गुज़रती हाथ हिलाती है
भूले-छूटे रिश्तों को वह याद दिलाती है
किसी जगह का सपना देखें पुल का धीमें
कंपना देखें, इस छत को ही नदी
समझ लें, नदी जगा कर बैठें।

खिड़की का वह हिलता परदा राज़ बताता है
कैसे घर के भीतर कोई आग छिपाता है
देखें थोड़ा पार घरों के खोल तोड़ते हुए डरों के
चाँदी के ये फूल उड़ रहे फूल सजाकर बैठें।



सुधांशु उपाध्याय

फोटो में है सबकुछ लेकिन चिड़िया उसके बाहर है।
जंगल झरने पेड़ पहाड़ हँसती फसलें गाते खेत
नावें नदिया चलती लहरें होंठों पर मटमैली रेत
एक गिलहरी आगे आगे और दौड़ता पीछे डर है।

जल के सोते रिसता पानी दौड़ रहे हिरनों के बच्चे
इस कोने में उड़ती तितली उस कोने किरनों के बच्चे
एक धूप का नाजुक टुकड़ा और रात का खंजर है।

लोग मवेशी गली बगीचे पीपल की दुमकटी छाँव है
कच्चे घर में कई औरतें कई पाँव में एक पाँव है
एक अरगनी बिलकुल खाली और हवा का चक्कर है।

चिड़िया है फोटो के बार सोच रही कुछ करने को
और फ्रेम का खाली कोना सोच रही है भरने को
एक पंख में नील गगन है एक पंख में सागर है।




विजय किशोर मानव

हँसने के दिन झरने लगे,
देह में तपन भरने लगे।
बैराए पाँव, नाव के गदराए स्वर बहाव के
उड़ते को मन करने लगे।
साँसों में यादें बाँधे, जाने क्या लादे काँधे
सपनों में रंग भरने लगे।

कैलाश गौतम

गोरी धूप कछार की हम सरसों के फूल।
जब-जब होंगे सामने तब-तब होगी भूल।।

लगे फूँकने आम के बौर गुलाबी शंख।
कैसे रहें किताब में हम मयूर के पंख।।

दीपक वाली देहरी तारों वाली शाम।
आओ लिख दूँ चंद्रमा आज तुम्हारे नाम।।

हँसी चिकोटी गुदगुदी चितवन छुवन लगाव।
सीधे-सादे प्यार के ये हैं मधुर पड़ाव।।

कानों में जैसे पड़े मौसम के दो बोल।
मन में कोई चोर था भागा कुंडी खोल।।

रोली अक्षत छू गए खिले गीत के फूल।
खुल करके बातें हुई मौसम के अनुकूल।।

पुल बोए थे शौक से, उग आई दीवार।
कैसी ये जलवायु है, हे मेरे करतार।।




गोपाल सिंह नेपाली

तुम जलाकर दिये, मुँह छुपाते रहे, जगमगाती रही कल्पना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना
चाँद घूँघट घटा का उठाता रहा
द्वार घर का पवन खटखटाता रहा
पास आते हुए तुम कहीं छुप गए
गीत हमको पपीहा रटाता रहा
तुम कहीं रह गये, हम कहीं रह गए, गुनगुनाती रही वेदना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना

तुम न आए, हमें ही बुलाना पड़ा
मंदिरों में सुबह-शाम जाना पड़ा
लाख बातें कहीं मूर्तियाँ चुप रहीं
बस तुम्हारे लिए सर झुकाता रहा
प्यार लेकिन वहाँ एकतरफ़ा रहा, लौट आती रही प्रार्थना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना

शाम को तुम सितारे सजाते चले
रात को मुँह सुबह का दिखाते चले
पर दिया प्यार का, काँपता रह गया
तुम बुझाते चले, हम जलाते चले
दुख यही है हमें तुम रहे सामने, पर न होता रहा सामना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना




अज्ञेय

सर्जना के क्षण
एक क्षण भर और
रहने दो मुझे अभिभूत
फिर जहाँ मैंने सँजो कर और भी सब रखी हैं
ज्योति: शिखाएँ
वहीं तुम भी चली जाना
शांत तेजोरूप।
एक क्षण भर और :
लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते।
बूँद स्वाती की भले हो
बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से
वज्र जिससे फोड़ता चट्टान को
भले ही फिर व्यथा के तम में
बरस पर बरस बीते
एक मुक्ता-रूप को पकते।

नागार्जुन

चंदू, मैंने सपना देखा, उछल रहे तुम ज्यों हिरनौटा
चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से हूँ पटना लौटा
चंदू, मैंने सपना देखा, तुम्हें खोजते बद्री बाबू
चंदू,मैंने सपना देखा, खेल-कूद में हो बेकाबू।

मैंने सपना देखा देखा, कल परसों ही छूट रहे हो
चंदू, मैंने सपना देखा, खूब पतंगें लूट रहे हो
चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कैलंडर
चंदू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर मैं हूँ अंदर
चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से पटना आए हो
चंदू, मैंने सपना देखा, मेरे लिए शहद लाए हो।

चंदू मैंने सपना देखा, फैल गया है सुयश तुम्हारा
चंदू मैंने सपना देखा, तुम्हें जानता भारत सारा
चंदू मैंने सपना देखा, तुम तो बहुत बड़े डाक्टर हो
चंदू मैंने सपना देखा, अपनी ड्यूटी में तत्पर हो।

चंदू, मैंने सपना देखा, इम्तिहान में बैठे हो तुम
चंदू, मैंने सपना देखा, पुलिस-यान में बैठे हो तुम
चंदू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर, मैं हूँ अंदर
चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कैलेंडर।





कैसी चली हवा / कैलाश गौतम

बूँद-बूँद सागर जलता है
पर्वत रवा-रवा
पत्ता-पत्ता चिनगी मालिक कैसी चली हवा ?

धुआँ-धुआँ चंदन वन सारा
चिता सरीखी धरती
बस्ती-बस्ती लगती जैसे
जलती हुई सती
बादल वरुण इंद्र को शायद मार गया लकवा ।।

चोरी छिपे ज़िंदगी बिकती
वह भी पुड़िया-पुड़िया
किसने ऐसा पाप किया है
रोटी हो गई चिड़िया
देखें कब जूठा होता है मुर्चा लगा तवा ।।

किसके लिए ध्वजारोहण अब
और सुबह की फेरी
बाबू भइया सब बोते हैं
नागफनी झरबेरी
ऐरे-ग़ैरे नत्थू-खैरे रोज़ दे रहे फतवा ।।

अग्नि परीक्षा एक तरफ़ है
एक तरफ़ है कोप-भवन
कभी अकेले कभी दुकेले
रोज़ हो रहा चीरहरण
फ़रियादी को कच्ची फाँसी कौन करे शिकवा ।।



सब जैसा का तैसा / कैलाश गौतम


कुछ भी बदला नहीं फलाने! सब जैसा का तैसा है
सब कुछ पूछो, यह मत पूछो, आम आदमी कैसा है?

क्या सचिवालय क्या न्यायालय सबका वही रवैया है
बाबू बड़ा न भैय्या प्यारे सबसे बड़ा रुपैया है
पब्लिक जैसे हरी फ़सल है शासन भूखा भैंसा है ।

मंत्री के पी.ए. का नक्शा मंत्री से भी हाई है
बिना कमीशन काम न होता उसकी यही कमाई है
रुक जाता है, कहकर फ़ौरन `देखो भाई ऐसा है'।

मन माफ़िक सुविधाएँ पाते हैं अपराधी जेलों में
काग़ज़ पर जेलों में रहते खेल दिखाते मेलों में
जैसे रोज़ चढ़ावा चढ़ता इन पर चढ़ता पैसा है ।

सियाराम / कैलाश गौतम


सियाराम का मन रमता है नाती-पोतों में
नहीं भागता मेले-ठेले बागों-खेतों में

बच्चों के संग सियाराम भी सोते जगते हैं
बच्चों में रहते हैं हरदम बच्चे लगते हैं

टाफ़ी खाते, बिस्कुट खाते ठंडा पीते हैं
टीवी के चैनल से ज्यादा चैनल जीते हैं

घोड़ा बनते इंजन बनते गाल फुलाते हैं
गुब्बारे में हवा फूँकते और उड़ाते हैं

सियाराम की दिनभर की दिनचर्या बदल गई
नहीं कचहरी की चिन्ता, बस आई निकल गई

चश्मे का शीशा फूटा औ’ छतरी टूट गई
भूल गए भगवान सुबह की पूजा छूट गई।


बच्चू बाबू / कैलाश गौतम


बच्चू बाबू एम.ए. करके सात साल झख मारे
खेत बेंचकर पढ़े पढ़ाई, उल्लू बने बिचारे

कितनी अर्ज़ी दिए न जाने, कितना फूँके तापे
कितनी धूल न जाने फाँके, कितना रस्ता नापे

लाई चना कहीं खा लेते, कहीं बेंच पर सोते
बच्चू बाबू हूए छुहारा, झोला ढोते-ढोते

उमर अधिक हो गई, नौकरी कहीं नहीं मिल पाई
चौपट हुई गिरस्ती, बीबी देने लगी दुहाई

बाप कहे आवारा, भाई कहने लगे बिलल्ला
नाक फुला भौजाई कहती, मरता नहीं निठल्ला

ख़ून ग़‍रम हो गया एक दिन, कब तक करते फाका
लोक लाज सब छोड़-छाड़कर, लगे डालने डाका

बड़ा रंग है, बड़ा मान है बरस रहा है पैसा
सारा गाँव यही कहता है बेटा हो तो ऐसा ।




नौरंगिया / कैलाश गौतम


देवी-देवता नहीं मानती, छक्का-पंजा नहीं जानती
ताकतवर से लोहा लेती, अपने बूते करती खेती,
मरद निखट्टू जनख़ा जोइला, लाल न होता ऐसा कोयला,
उसको भी वह शान से जीती, संग-संग खाती, संग-संग पीती
गाँव गली की चर्चा में वह सुर्ख़ी-सी अख़बार की है
नौरंगिया गंगा पार की है ।

कसी देह औ’ भरी जवानी शीशे के साँचे में पानी
सिहरन पहने हुए अमोले काला भँवरा मुँह पर डोले
सौ-सौ पानी रंग धुले हैं, कहने को कुछ होठ खुले हैं
अद्भुत है ईश्वर की रचना, सबसे बड़ी चुनौती बचना
जैसी नीयत लेखपाल की वैसी ठेकेदार की है ।
नौरंगिया गंगा पार की है ।

जब देखो तब जाँगर पीटे, हार न माने काम घसीटे
जब तक जागे, तब तक भागे, काम के पीछे, काम के आगे
बिच्छू, गोंजर, साँप मारती, सुनती रहती विविध-भारती
बिल्कुल है लाठी सी सीधी, भोला चेहरा बोली मीठी
आँखों में जीवन के सपने तैय्यारी त्यौहार की है ।
नौरंगिया गंगा पार की है ।

ढहती भीत पुरानी छाजन, पकी फ़सल तो खड़े महाजन
गिरवी गहना छुड़ा न पाती, मन मसोस फिर-फिर रह जाती
कब तक आख़िर कितना जूझे, कौन बताए किससे पूछे
जाने क्या-क्या टूटा-फूटा, लेकिन हँसना कभी न छूटा
पैरों में मंगनी की चप्पल, साड़ी नई उधार की है ।
नौरंगिया गंगा पार की है।



गान्ही जी / कैलाश गौतम



सिर फूटत हौ, गला कटत हौ, लहू बहत हौ, गान्‍ही जी
देस बंटत हौ, जइसे हरदी धान बंटत हौ, गान्‍ही जी
बेर बिसवतै ररूवा चिरई रोज ररत हौ, गान्‍ही जी
तोहरे घर क' रामै मालिक सबै कहत हौ, गान्‍ही जी

हिंसा राहजनी हौ बापू, हौ गुंडई, डकैती, हउवै
देसी खाली बम बनूक हौ, कपड़ा घड़ी बिलैती, हउवै
छुआछूत हौ, ऊंच नीच हौ, जात-पांत पंचइती हउवै
भाय भतीया, भूल भुलइया, भाषण भीड़ भंड़इती हउवै

का बतलाई कहै सुनै मे सरम लगत हौ, गान्‍ही जी
केहुक नांही चित्त ठेकाने बरम लगत हौ, गान्‍ही जी
अइसन तारू चटकल अबकी गरम लगत हौ, गान्‍ही जी
गाभिन हो कि ठांठ मरकहीं भरम लगत हौ, गान्‍ही जी

जे अललै बेइमान इहां ऊ डकरै किरिया खाला
लम्‍बा टीका, मधुरी बानी, पंच बनावल जाला
चाम सोहारी, काम सरौता, पेटैपेट घोटाला
एक्‍को करम न छूटल लेकिन, चउचक कंठी माला

नोना लगत भीत हौ सगरों गिरत परत हौ गान्‍ही जी
हाड़ परल हौ अंगनै अंगना, मार टरत हौ गान्‍ही जी
झगरा क' जर अनखुन खोजै जहां लहत हौ गान्‍ही जी
खसम मार के धूम धाम से गया करत हौ गान्‍ही जी

उहै अमीरी उहै गरीबी उहै जमाना अब्‍बौ हौ
कब्‍बौ गयल न जाई जड़ से रोग पुराना अब्‍बौ हौ
दूसर के कब्‍जा में आपन पानी दाना अब्‍बौ हौ
जहां खजाना रहल हमेसा उहै खजाना अब्‍बौ हौ

कथा कीर्तन बाहर, भीतर जुआ चलत हौ, गान्‍ही जी
माल गलत हौ दुई नंबर क, दाल गलत हौ, गान्‍ही जी
चाल गलत, चउपाल गलत, हर फाल गलत हौ, गान्‍ही जी
ताल गलत, हड़ताल गलत, पड़ताल गलत हौ, गान्‍ही जी

घूस पैरवी जोर सिफारिश झूठ नकल मक्‍कारी वाले
देखतै देखत चार दिन में भइलैं महल अटारी वाले
इनके आगे भकुआ जइसे फरसा अउर कुदारी वाले
देहलैं खून पसीना देहलैं तब्‍बौ बहिन मतारी वाले

तोहरै नाव बिकत हो सगरो मांस बिकत हौ गान्‍ही जी
ताली पीट रहल हौ दुनिया खूब हंसत हौ गान्‍ही जी
केहु कान भरत हौ केहू मूंग दरत हौ गान्‍ही जी
कहई के हौ सोर धोवाइल पाप फरत हौ गान्‍ही जी

जनता बदे जयंती बाबू नेता बदे निसाना हउवै
पिछला साल हवाला वाला अगिला साल बहाना हउवै
आजादी के माने खाली राजघाट तक जाना हउवै
साल भरे में एक बेर बस रघुपति राघव गाना हउवै

अइसन चढ़ल भवानी सीरे ना उतरत हौ गान्‍ही जी
आग लगत हौ, धुवां उठत हौ, नाक बजत हौ गान्‍ही जी
करिया अच्‍छर भंइस बराबर बेद लिखत हौ गान्‍ही जी
एक समय क' बागड़ बिल्‍ला आज भगत हौ गान्‍ही जी




कैसी चली हवा / कैलाश गौतम



बूँद-बूँद सागर जलता है
पर्वत रवा-रवा
पत्ता-पत्ता चिनगी मालिक कैसी चली हवा ?

धुआँ-धुआँ चंदन वन सारा
चिता सरीखी धरती
बस्ती-बस्ती लगती जैसे
जलती हुई सती
बादल वरुण इंद्र को शायद मार गया लकवा ।।

चोरी छिपे ज़िंदगी बिकती
वह भी पुड़िया-पुड़िया
किसने ऐसा पाप किया है
रोटी हो गई चिड़िया
देखें कब जूठा होता है मुर्चा लगा तवा ।।

किसके लिए ध्वजारोहण अब
और सुबह की फेरी
बाबू भइया सब बोते हैं
नागफनी झरबेरी
ऐरे-ग़ैरे नत्थू-खैरे रोज़ दे रहे फतवा ।।

अग्नि परीक्षा एक तरफ़ है
एक तरफ़ है कोप-भवन
कभी अकेले कभी दुकेले
रोज़ हो रहा चीरहरण
फ़रियादी को कच्ची फाँसी कौन करे शिकवा ।।

कैलाश गौतम

फूल हंसो, गंध हंसो, प्यार हंसो तुम।
हंसिया की धार बार-बार हंसो तुम।

हंसो और धार-धार तोड़ कर हंसो,
पुरइन के पात लहर ओढ़ कर हंसो,
जाड़े की धूप आर-पार हंसो तुम,
कुहरा हो और तार-तार हंसो तुम।

गुबरीले आंगन, दालान में हंसो
ओ मेरी लौंगकली पान में हंसो,
बरखा की पहली बौछार हंसो तुम
घाटी के गहगहे कछार हंसो तुम।

हरस‌िंगार की फूली टहन‌ियां हंसो,
निदियारी रातों की कुहनियां हंसो,
बांहों के आदमकद ज्वार हंसो तुम,
मौसम की चुटकियां हजार हंसो तुम।


बाबू आन्हर माई आन्हर / कैलाश गौतम


बाबू आन्हर माई आन्हर, हमै छोड़ सब भाई आन्हर
के-के, के-के दिया देखाई, बिजुली अस भौजाई आन्हर।

हमरे घर क हाल न पूछा, भूत प्रेत बैताल न पूछा
जब से नेंय दियाइल तब से निकल रहल कंकाल न पूँछा
ओझा सोखा मुल्ला पीर केकर-केकर देईं नजीर
जंतर-मन्तर टोना-टोटका पूजा पाठ दवाई आन्हर।

जे आवै ते लूटै खाय, परचल घोड़ भुसवले जाय
हँस-हँस बोलै ठोंकै पीठ, सौ-सौ पाठ पढ़वले जाय
केहू ओन‍इस केहू बीस, जोरै हाथ निपोरै खीस
रोज-रोज मुर्गा तोरत हौ, क‍इसे कहीं बिलाई आन्हर।

इनकर किरिया उनकर बात, सोच-सोच के काटीं रात
के केतनी पानी में ह‍उवै, मालुम हौ सब कर औकात
फूटल जइसे करम हमार, ओरहन सुन-सुन दुखै कपार
आपन तेल निहारत नाँही, दिया कहे पुरवाई आन्हर।

पूत जनमलैं लोलक लईया, बोवैं धान पछोरैं पा‍इया
घर-घर चूल्हा अलग करवलीं, कुल गुनवां क पाखर अ‍इया
कुछ अइसन कुन्डली बनल हौ, रस्ता रस्ता कुआँ खनल हौ
न‍इहर ग‍इल रहल मेहरारू, ले आइल महंगाई आन्हर।

हाहाकार हौ चारों ओरी, पूरुब आग त पच्छिव चोरी
ओकरे कैसे कवर घोटाई, जेकर अहरा कुकुर अगोरी
दूध क माछी नाक क बार, दूनो देखली ए सरकार
एक आँख क कवन निहोरा, जहाँ तीन चौथाई आन्हर।

जयप्रकाश त्रिपाठी

मैंने जब भी किसी को चाहा तो तौहीन हुई।
दूरियां बढ़ती गईं, टीस मुतमईन हुई।

चांद निकला भी, बार फूल बरसा किये
खो गये शब्द मगर, बात बस दो-तीन हुई।

एक खत उनका मिला, एक मैं भी लिख डाला
एक, बस एक वारदात वह संगीन हुई।

सुबहोशाम, रातोदिन उधर को जब भी गया
मैं ही क्यों, हर दरोदीवार तक गमगीन हुई।

सोचता हूं कि खुशी अब न कभी ऐसी मिले
लोग कहने लगें कि गलती बेहतरीन हुई।


निदा फाजली


बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ,
याद आती है चौका-बासन  चिमटा फुकनी जैसी माँ।

बाँस की खुर्री खाट के ऊपर  हर आहट पर कान धरे
आधी सोई, आधी जागी थकी दोपहरी जैसी माँ।

चिड़ियों के चहकार में गूंजे, राधा-मोहन अली-अली
मुर्ग़े की आवाज़ से खुलती घर की कुंडी जैसी माँ।

बिवी, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी थोड़ी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर  चलती नटनी जैसी माँ।

बाँट के अपना चेहरा, माथा, आँखें जाने कहाँ गई
फटे पुराने इक अलबम में चंचल लड़की जैसी माँ।

धूमिल

करछुल बटलोही से बतियाती है और चिमटा तवे से मचलता है, चूल्हा कुछ नहीं बोलता, चुपचाप जलता है और जलता रहता है। बच्चे आँगन में आंगड़बांगड़, घोड़ा-हाथी, चोर-साव खेलते हैं, राजा-रानी खेलते हैं और खेलते रहते हैं, चौके में खोई हुई औरत के हाथ कुछ नहीं देखते, वे केवल रोटी बेलते हैं और बेलते रहते हैं, कुल रोटी तीन, पहले उसे थाली खाती है, फिर वह रोटी खाता है।