Monday 8 July 2013

गिरगिट


अन्तोन चेख़व

पुलिस का दारोगा ओचुमेलोव नया ओवरकोट पहने, बगल में एक बण्डल दबाये बाजार के चौक से गुजर रहा था। उसके पीछे-पीछे लाल बालोंवाला पुलिस का एक सिपाही हाथ में एक टोकरी लिये लपका चला आ रहा था। टोकरी जब्त की गई झड़गरियों से ऊपर तक भरी हुई थी। चारों ओर खामोशी।...चौक में एक भी आदमी नहीं। ....भूखे लोगों की तरह दुकानों और शराबखानों के खुले हुए दरवाजे ईश्वर की सृष्टि को उदासी भरी निगाहों से ताक रहे थे, यहां तक कि कोई भिखारी भी आसपास दिखायी नहीं देता था।
"अच्छा! तो तू काटेगा? शैतान कहीं का!" ओचुमेलोव के कानों में सहसा यह आवाज आयी, "पकड़ तो लो, छोकड़ो! जाने न पाये! अब तो काटना मना हो गया है! पकड़ लो! आ...आह!"
कुत्ते की पैं-पैं की आवाज सुनायी दी। आचुमेलोव ने मुड़कर देखा कि व्यापारी पिचूगिन की लकड़ी की टाल में से एक कुत्ता तीन टांगों से भागता हुआ चला आ रहा है। कलफदार छपी हुई कमीज पहने, वास्कट के बटन खोले एक आदमी उसका पीछा कर रहा है। वह कुत्ते के पीछे लपका और उसे पकड़ने की काशिश में गिरते-गिरते भी कुत्ते की पिछली टांग पकड़ ली। कुत्ते की पैं-पैं और वहीं चीख, "जाने न पाये!" दोबारा सुनाई दी। ऊंखते हुए लोग दुकानों से बाहर गरदनें निकालकर देखने लगे, और देखते-देखते एक भीड़ टाल के पास जमा हो गयी, मानो जमीन फाड़कर निकल आयी हो।
"हुजूर! मालूम पड़ता है कि कुछ झगड़ा-फसाद हो रहा है!" सिपाही बोला।
आचुमेलोव बाईं ओर मुड़ा और भीड़ की तरफ चल दिया। उसने देखा कि टाल के फाटक पर वही आदमी खड़ा है। उसकी वास्कट के बटन खुले हुए थे। वह अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाये, भीड़ को अपनी लहूलुहान उंगली दिखा रहा था। लगता था कि उसके नशीले चेहरे पर साफ लिखा हुआ हो "अरे बदमाश!" और उसकी उंगली जीत का झंडा है। आचुमेलोव ने इस व्यक्ति को पहचान लिया। यह सुनार खूकिन था। भीड़ के बाचोंबीच अगली टांगे फैलाये अपराधी, सफेद ग्रे हाउंड का पिल्ला, छिपा पड़ा, ऊपर से नीचे तक कांप रहा था। उसका मुंह नुकिला था और पीठ पर पीला दाग था। उसकी आंसू-भरी आंखों में मुसीबत और डर की छाप थी।
"यह क्या हंगामा मचा रखा है यहां?" आचुमलोव ने कंधों से भीड़ को चीरते हुए सवाल किया। "यह उंगली क्यों ऊपर उठाए हो? कौन चिल्ला रहा था?"
"हुजूर! मैं चुपचाप अपनी राह जा रहा था, बिल्कुल गाय की तरह," खूकिन ने अपने मुंह पर हाथ रखकर, खांसते हुए कहना शुरू किया, "मिस्त्री मित्रिच से मुझे लकड़ी के बारे में कुछ काम था। एकएक, न जाने क्यों, इस बदमाश ने मरी उंगली में काट लिया।..हुजूर माफ करें, पर मैं कामकाजी आदमी ठहरा,... और फिर हमारा काम भी बड़ा पेचिदा है। एक हफ्ते तक शायद मेरी उंगुली काम के लायक न हो पायेगी।क मुझे हरजाना दिलवा दीजिए। और हुरूर, कानून में भी कहीं नहीं लिखा है कि हम जानवरों को चुपचाप बरदाश्त करते रहें।..अगर सभी ऐसे ही काटने लगें, तब तो जीना दूभर हो जायेगा।"
"हुंह..अच्छा.." ओचुमेलाव ने गला साफ करके, त्योरियां चढ़ाते हुए कहा, "ठीक है।...अच्छा, यह कुत्ता है किसका? मैं इस मामले को यहीं नहीं छोडूंगा! कुत्तों को खुला छोड़ रखने के लिए मैं इन लोगों को मजा चखाउंगा! जो लोग कानून के अनुसार नहीं चलते, उनके साथ अब सख्ती से पेश आना पड़ेगा! ऐसा जुरमाना ठोकूंगा कि छठी का दूध याद आ जायेगा।बदमाश कहीं के! मैं अच्छी तरह सिखा दूंगा कि कुत्तों और हर तरह के ढोर-डगार को ऐसे छुट्टा छोड़ देने का क्या मतलब है! मैं उसकी अकल दुरुस्त कर दूंगा, येल्दीरिन!"
सिपाही को संबोधित कर दरोगा चिल्लाया, "पता लगाओ कि यह कुत्ता है किसका, और रिपोर्ट तैयार करो! कुत्ते को फौरन मरीवा दो! यह शायद पागल होगा।.....मैं पूछता हूँ, यह कुत्ता किसका है?"
"शायद जनरल जिगालोव का हो!" भीड़ में से किसी ने कहा।
"जनरल जिगालोव का? हुंह...येल्दीरिन, जरा मेरा कोट तो उतारना। ओफ, बड़ी गरमी है।...मालूम पड़ता है कि बारिश होगी। अच्छा, एक बात मेरी समझ में नही आती" कि इसने तुम्हें काटा कैसे?" ओचुमेलोव खूकिन की ओर मुड़ा, "यह तुम्हारी उगली तक पहुंचा कैसे? ठहरा छोटा-सा और तुम हो पूरे लम्बे-चौड़े। किसी कील-वील से उंगली छी ली होगी और सोचा होगा कि कुत्ते के सिर मढ़कर हरजाना वसूल कर लो। मैं खूब ससमझता हूँ! तुम्हारे जैसे बदमाशों की तो मैं नस-नस पहचानता हूँ!"
"इसने उसके मुंह पर जलती सिगरेट लका दी थी, हुजूर! यूं ही मजाक में और यह कुत्ता बेवकूफ तो है नहीं, उसने काट लिया। यह शख्स बड़ा फिरती है, हुजूर!"
"अब! झूठ क्यों बोलता है? जब तूने देखा नहीं, तो गप्प क्यों मारता है? और सरकार तो खुद समझदार हैं। वह जानते हैं कि कौन झूठा है और कौन सच्चा। अगर हैं, खुद मेरा भाई पुलिस में है।..बताये देता हूँ....हां...."
"बंद करो यह बकवास!"
"नहीं, यह जनरल साहब का कुत्ता नहीं है," सिपाही ने गंभीरता पूर्वक कहा, "उनके पास ऐसा कोई कुत्ता है ही नहीं, उनके तो सभी कुत्ते शिकारी पौण्डर हैं।"
"तुम्हें ठीक मालूम है?"
"जी सरकार।"
"मैं भी जनता हूँ। जनरल साहब क सब कुत्ते अच्छी नस्ल के हैं, एक-से-एक कीमती कुत्ता है उनके पास। और यह! तो बिल्कुल ऐसा-वैसा ही है, देखो न! बिल्कुल मरियल है। कौन रखेगा ऐसा कुत्ता? तुम लोगों का दिमाग तो खराब नहीं हुआ? अगर ऐसा कुत्ता मास्का या पीटर्सबर्ग में दिखाई दे तो जानते हो क्या हो? कानून की परवा किये बिना, एक मिनट में उससे छुट्टी पाली जाये! खूकिन! तुम्हें चोट लगी है। तुम इस मामले को यों ही मत टालो।...इन लोगों को मजा चखाना चाहिए! ऐसे काम नहीं चलेगा।"
"लेकिन मुमकिन है, यह जनरल साहब का ही हो," सिपाही बड़बड़ाया, "इसके माथे पर तो लिखा नहीं है। जनरल साहब के अहाते में मैंने कल बिल्कुल ऐसा ही कुत्ता देखा था।"
"हां-हां, जनरल साहब का तो है ही!" भीड़ में से किसी की आवाज आयी।
"हूँह।...येल्दीरिन, जरा मुझे कोट तो पहना दो। अभी हवा का एक झोंका आया था, मुझे सरदी लग रही है। कुत्ते को जनरल साहब के यहां जाओ और वहां मालूम करो। कह देना कि मैने इस सड़क पर देखा था और वापस भिजवाया है। और हॉँ, देखो, यह कह देना कि इसे सड़क पर न निकलने दिया करें। मालूम नहीं, कितना कीमती कुत्ता हो और अगर हर बदमाश इसके मुंह में सिगरेट घुसेड़ता रहा तो कुत्ता बहुत जल्दी तबाह हो जायेगा। कुत्ता बहुत नाजुक जानवर होता है। और तू हाथ नीचा कर, गधा कहीं का! अपनी गन्दी उंगली क्यों दिखा रहा है? सारा कुसूर तेरा ही है।"
"यह जनरल साहब का बावर्ची आ रहा है, उससे पूछ लिया जाये।...ऐ प्रोखोर! जरा इधर तो आना, भाई! इस कुत्ते को देखना,तुम्हारे यहां का तो नहीं है?"
"वाह! हमारे यहां कभी भी ऐसा कुत्ता नहीं था!"
"इसमें पूछने की क्या बात थी? बेकार वक्त खराब करना है," ओचुमेनलोव ने कहा, "आवारा कुत्ता यहां खड़े-खड़े इसके बारे में बात करना समय बरबाद करना है। तुमसे कहा गया है कि आवारा है तो आवारा ही समझो। मार डालो और छुट्टी पाओ?
"हमारा तो नहीं है,"प्रोखोर ने फिर आगे कहा, "यह जनरल साहब के भाई का कुत्ता है। हमारे जनरल साहब को ग्र हाउ।ड के कुत्तों में कोई दिलचस्पी नहीं है, पर उनके भाई साहब को यह नस्ल पसन्द है।"
"क्या? जनरल साहब के भाई आये हैं? ब्लादीमिर इवानिच?" अचम्भे से ओचुमेलोव बोल उठा, उसका चेहरा आह्वाद से चमक उठा। "जर सोचो तो! मुझे मालूम भी नहीं! अभी ठहरंगे क्या?"
"हां।"
"वाह जी वाह! वह अपने भाई से मिलने आये और मुझे मालूम भी नहीं कि वह आये हैं! तो यह उनका कुत्ता है? बहुत खुशी की बात है। इसे ले जाओ। कैसा प्यारा नन्हा-सा मुन्ना-सा कुत्ता है। इसकी उंगली पर झपटा था! बस-बस, अब कांपो मत। गुर्र...गुर्र...शैतान गुस्से में है... कितना बढ़िया पिल्ला है!
प्रोखोर ने कुत्ते को बुलाया और उसे अपने साथ लेकर टाल से चल दिया। भीड़ खूकिन पर हंसने लगी।
"मैं तुझे ठीक कर दूंगा।" ओचुमेलोव ने उसे धमकाया और अपना लबादा लपेटता हुआ बाजार के चौक के बीच अपने रास्ते चला गया।

ख़लील जिब्रान को हिन्दी में पढ़ने का सुख


प्रदीप मोघे

लघुकथा के क्षेत्र में लम्बे समय से सक्रिय हिन्दी के सुपरिचित लेखक सुकेश साहनी द्वारा संकलित एवं अनूदित ‘खलील जिब्रान की लघुकथाएँ’ नामक पुस्तक पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। लेबनान के महाकवि एवं महान दार्शनिक खलील जिब्रान (1883–1931) के साहित्य–संसार को मुख्य रूप से दो प्रकारों में रखा जा सकता है, एक : जीवन–विषयक गम्भीर चिन्तनपरक लेखन, दो : गद्यकाव्य, उपन्यास, रूपककथाएँ आदि।
मानव एवं पशु–पक्षियों के उदाहरण लेकर मनुष्य जीवन का कोई तत्त्व स्पष्ट करने या कहने के लिए रूपककथा, प्रतीककथा अथवा नीतिकथा का माध्यम हमारे भारतीय पाठकों व लेखकों के लिए नया नहीं है। पंचतन्त्र, हितोपदेश इत्यादि लघुकथा–संग्रहों से भारतीय पाठक भलीभाँति परिचित हैं। खलील जिब्रान ने भी इस माध्यम को लेकर अनेक लघुकथाएँ लिखी हैं। समस्त संसार के सुधी पाठक उनकी इन अप्रतिम रचनाओं के दीवाने है।
खलील जिब्रान की अधिकतर लघुकथाएँ ‘दि मैडमैन’, ‘दि फॉरनर’, ‘दि वांडर’ एवं ‘सन एण्ड फोम’ इन चार संग्रहों में समाहित हैं। इन सभी पुस्तकों का विभिन्न भारतीय भाषाओं में समय–समय पर अनुवाद होता रहा है। मराठी में काका कालेलकर, वि.स.खंडेकर, रं.ग. जोशी, श्रीपाद जोशी आदि। उर्दू में बशीर, गुजराती में शिवम सुन्दरम और हिन्दी में किशोरी रमण टंडन और हरिकृष्ण प्रेमी आदि। इन सभी लेखकों ने अपनी सोच एवं उद्देश्य को लेकर यह अनुवाद कार्य किया है। हिन्दी भाषा में जिब्रान की लघुकथाओं के जितने भी अनुवाद हुए हैं, उनमें अपवाद को छोड़कर कोई भी अनुवादक/रूपान्तरकार इन अर्थपूर्ण लघुकथाओं के साथ पूर्ण न्याय नहीं कर सका है। इस पृष्ठभूमि में सुकेश साहनी द्वारा किया गया अनुवाद अधिक सरस और पठनीय है।
किसी भी अक्षर साहित्य का हूबहू अनुवाद असम्भव होता है। फिर भी ऐसी कालजयी रचनाओं की आत्मा को पहचानकर उसके शिल्प–सौन्दर्य को अनुवाद की भाषा में प्रस्तुत करना एक समर्थ लेखक के लिए एक अग्निपरीक्षा होती है। जिब्रान की लघुकथाओं का हिन्दी भाषा में सटीक एवं सरस अनुवाद कर सुकेश साहनी ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। जिब्रान की मूलत : अंग्रेजी में लिखी लघुकथाओं का अनुवाद उनके समक्ष ही उनकी मातृभाषा अरबी में हो चुका था। अरबी अनुवाद से अनुवादकों ने उर्दू में बेहतरीन तजुर्मान किए हैं। संस्कृत के विशेष नामों की तरह ही अरबी के विशेषनामों का शुद्ध रूप अंग्रेजी भाषा के माध्यम से हमेशा ठीक से समझा जा सकता है, कहना कठिन हैं। कई लघुकथाओं में जिब्रान द्वारा प्रयुक्त संज्ञाएँ बड़ी अर्थपूर्ण हैं।
सुकेश साहनी ने अपने इस अनुवाद में इन संज्ञाओं के अभिप्रेत अर्थ को बखूबी समझा है और यही इस पुस्तक की विशेषता है।
पुस्तक की भूमिका में सुकेश साहनी ने जिब्रान की लघुकथाओं को छह वर्गों में विभाजित किया है। वस्तुत : जिब्रान की हर कथा आपसे रूबरू वार्तालाप करती है। ऐसी दशा में इस तरह का वर्गीकरण केवल माँग की दृष्टि से ठीक हो सकता है परन्तु यह पाठक की सोच–क्षमता पर अकारण ही प्रश्नचिहृ लगाता है। जिब्रान की इन लघुकथाओं का मूल स्वर बनाए रखने के लिए अनुवादक ने शीर्षकों में स्वविवेक से कुछ परिवर्तन किए जाने की बात कही है। इस प्रकार के परिवर्तन में एक जोखिम भी रहता है। चूँकि जिब्रान की कथाओं के शीर्षकों में ही कथा के मूड का पता चलता है, अत : शीर्षक बदलते समय कथा की आत्मा खंडित न हो, यह सावधानी बरतना आवश्यक हो जाता है। एक–दो अपवादों को छोड़कर सुकेश के दिए नए शीर्षक कथा के साथ न्याय करते हैं। सुकेश साहनी का यह साहस उनके ख़्लील जिब्रान की लघुकथाओं के साथ तन्मयता से एकरूप होने का परिचायक हैं।

विश्वकवि कालिदास


डॉ.ओम जोशी

विश्वकवि कालिदास विश्व साहित्यकारों में आज भी शीर्षस्थ है, सर्वोच्च हैं, सर्वोत्तम हैं। उनकी समस्त संस्कृत रचनाएँ निश्चित ही कालजयी हैं। उनकी विश्वव्यापकता का अनुमान इसी तथ्य से स्वतः प्रमाणित है कि सुप्रसिद्ध जर्मन कवि ‘गेटे’ ने जब उनके ‘अभिज्ञानशाकुंतलम’ नाटक का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ा , तो वे भावविभोर होकर ग्रन्थ को सर पर रख कर नाचने लगे।
महाकवि कालिदास को कौन नहीं जानता ? विश्वप्रसिद्ध साहित्यकारों में भी वे अन्यतम हैं। दो हज़ार से अधिक वर्ष व्यतीत होने के उपरांत भी उनकी कीर्तिपताका आज भी विद्युत् जैसी दमक रही है। विश्व की अनेक भाषाओं में उनका साहित्य अनूदित हो चुका है। वैसे तो कालिदास रचित इकतालीस से अधिक संस्कृत कृतियों का उल्लेख प्राप्त है, कितु, उनके मुख्य ग्रन्थ सात ही स्वीकारे गए हैं। ऋतुसंहारम, मेघदूतम, कुमारसंभवम, और रघुवंशम – ये चार उनकी काव्य रचनाएँ हैं, जबकि मालविकाग्निमित्रम, विक्रमोर्वशीयम और अभिज्ञान शाकुंतलम – ये तीन उनकी नाट्य कृतियाँ हैं।
चाहे काव्य हो या नाटक, समग्र कालिदास साहित्य हिंदी सहित विश्व की प्रायः समस्त प्रमुख भाषाओं में अनूदित और प्रकाशित है, किन्तु , उन अनुवादों में भाव, भाषा, प्रवाह, रस, सौंदर्य, अलंकार, आदि की दृष्टि से कहीं- न – कहीं, कोई – न – कोई न्यूनता अवश्य विद्यमान है। इन्हीं तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए संस्कृत के महाकवि ‘भवभूति’ और आचार्य ‘मल्लिनाथ के वंशज तथा आकाशवाणी ‘गुना’ मध्यप्रदेश के कार्यक्रम प्रमुख डॉ. ओम जोशी ने – ‘कालिदास समग्र’ – शीर्षक से विश्वकवि कालिदास की सातों प्रमुख संस्कृत रचनाओं को हिंदी दोहों में अनूदित किया है।
वस्तुतः अनुवाद एक अत्यंत जटिल और परिश्रम साध्य प्रक्रिया है, क्योंकि , जिस भाषा से जिस भाषा में अनुवाद किया जाना है, जब तक उन दोनों भाषाओं पर अनुवादक का असाधारण अधिकार नहीं होगा, तब तक अनुवाद सार्थक, सरस और परिपूर्ण होना संभव नहीं। कितने ही प्रयत्न क्यों न किये जाएँ, कोई भी अनुवाद किसी भी रचना के मूल स्वरुप के समकक्ष नहीं हो पाता। दर्पण में किसी भी व्यक्ति या वस्तु का प्रतिबिम्ब ज्यों – का – त्यों ही क्यों न दिखे , दायाँ भाग बाईं ओर तथा बायाँ भाग दायीं ओर तो हो ही जाता है। प्रस्तुत ‘कालिदास समग्र ‘ इस तथ्य का अपवाद नहीं है, किन्तु, फिर भी अनुवाद के कठोर नियम बंधन की तुलना में भावानुवाद के अधिक उदार परिवेश में डॉ. जाशी की ‘ कवि – प्रतिभा’ को अपना रचना कौशल प्रदर्शित करने के अवसर भी सुलभ हो गए हैं। ‘मेघदूतम’ के प्रथम पद्य के भावानुवाद का यह दोहा इसी सन्दर्भ में प्रस्तुत है –
सिय अवगाहन से वहाँ, अतिपावन जलकुंड।
हरे- भरे सब वृक्ष भी, वहीं झुण्ड के झुण्ड।
विश्वकवि कालिदास की सातों संस्कृत रचनाओं का, प्रायः छ: मास की समयावधि में, एक ही रचनाकार द्वारा हिंदी दोहा (काव्य) अनुवाद वस्तुतः सर्वथा असंभव रचाना कार्य है और इस असंभव को ‘कालिदास समग्र’ के रूप में संभव कर दिखाया है – डॉ. ओम जोशी ने। कहना न होगा कि डॉ. ओम जोशी द्वारा विरचित और प्रस्तुत रचना ‘कालिदास समग्र’ विश्वकवि कालिदास के समस्त रचना संसार को सरल हिन्दी दोहों के माध्यम से समग्र विश्व के समक्ष प्रस्तुत करती है। यह रचना जन – जन के लिए सर्वाधिक उपयोगी तो है ही, साथ ही साथ यह भारत ही नहीं, अपितु, विश्व के समस्त विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, पुस्तकालयों और अन्य सम्बद्ध हिन्दी सेवी संस्थानों तथा अन्यान्य कालिदास तथा समस्त हिन्दी प्रेमियों के लिए निश्चित ही संदर्भ ग्रंथ के रूप में सर्वाधिक उपयोगी भी है। इस प्रस्तुत रचना के माध्यम से समस्त विश्व कालिदास कालीन भारत, भारत की परम्पराएँ, भारत की विविधताएँ, भारत की संस्कृति आदि से निश्चित ही समग्रतः परिचित होगा। नवोदित रजिस्टर्ड प्रकाशन श्वेता पब्लिकेशन ने डॉ. ओम जोशी द्वारा प्रकल्पित और विरचित ‘कालिदास – समग्र’ को रूपाकार दिया है। इस प्रकाशन के प्रमुख उद्देश्य हैं – नवोदित और स्तरीय साहित्यकारों को प्रोत्साहन और उनकी पुस्तकों का प्रकाशन, विभिन्न पत्रिकाओं का जनहित में समय – समय पर प्रकाशन I देश में नैतिक शिक्षा हेतु सार्थक प्रयास और भारतीय प्रतिभाओं का देश में सम्मान I श्वेता पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित और डॉ. ओम जोशी द्वारा विरचित ‘कालिदास – समग्र’ दो खण्डों में मुद्रित है और इन दोनों खण्डों का मूल्य भारत में रु. 895/- और विदेशों में है : 50 डॉलर तथा डाक व्यय अलग से I
कुमारसम्भवम
‘कुमारसंभवम’  विश्वकवि    कालिदास का सुप्रसिद्ध और विशिष्ट महाकाव्य है। हिमालय की पुत्री पार्वती द्वारा घोर तपस्या के फल के रूप में महादेव शिव को प्राप्त करने और उनसे कार्तिकेय यानी कुमार या स्कन्द की उत्पत्ति तथा ‘तारकासुर ‘ के नाश की कथा इस महाकाव्य की आधारभूमि है।
इस महाकाव्य में यूँ तो सत्रह सर्ग हैं, किन्तु, कतिपय विद्वान आठ सर्गों तक की रचना को ही कालिदास की कृति मानते हैं। चूंकि अंतिम नौ सर्गों के बिना कुमारसंभवम का महाकाव्य तत्व अपूर्ण रहता है, अतः , सभी सत्रह सर्गों को कालिदास द्वारा रचित मानना समुचित है। सर्गानुसार  कथा सारांश इस प्रकार है – सर्ग एक – पर्वतराज हिमालय का विस्तृत वर्णन  और पार्वती की उत्पत्ति, सर्ग दो – तारकासुर से त्रस्त देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और ब्रह्मा जी द्वारा वरदान के रूप में शिव। पार्वती के पुत्र ‘कुमार’ द्वारा तारकासुर के वध का उपाय बतलाना, सर्ग तीन – कामदेव द्वारा महादेव शिव की तपस्या भंग और क्रुद्ध महाकाल द्वारा तीसरे नेत्र द्वारा कामदेव को भस्म करना, सर्ग चार – पति कामदेव के भस्मीभूत होने पर पत्नी रति का विलाप, सर्ग पाँच – पार्वती की घोरतम तपस्या का चित्रण और ब्रह्मचारी वेशधारी शिव से पार्वती की चर्चा और समागम, सर्ग छ :- इच्छुक शिव द्वारा पार्वती की   याचना के लिए  सप्तऋषियों  को हिमालय के पास भेजना , सर्ग सात – प्रलयंकर शंकर की वरयात्रा और उमा से परिणय, सर्ग आठ -  शंकर – पार्वती का दाम्पत्य जीवन और प्रणय विहार , सर्ग नौ – दांपत्य सुख का अनुभव, विविध पर्वतों आदि का भ्रमण और पुनः कैलास पर्वत पर लौटना, सर्ग दस – कुमार ( कार्तिकेय) का गर्भ में  आगमन, सर्ग ग्यारह – कुमार का जन्म विशेष और बाल्यकाल का वर्णन, सर्ग बारह – कुमार का सेना नायक होना, सर्ग तेरह – कुमार का सैन्य सञ्चालन और निर्देशन, सर्ग चौदह – तारकासुर पर आक्रामण के लिए देवसेना का स्वर्ग की ओर प्रयाण , सर्ग पंद्रह – देवता और असुरों की सेनाओं का परस्पर घोर संघर्ष, सर्ग सोलह – देवासुर संग्राम और सर्ग सत्रह – तारकासुर का ‘ कुमार’ द्वारा वध।
‘कुमारसम्भवम’ महाकाव्य में भाव , कला, भाषा और अलंकारों का अभूतपूर्व समन्वय है। सजीव और विशाल वर्णन , उच्चतम   कल्पनाशीलता, अनुपम श्रृंगार वर्णन और तपोमूलक विशुद्ध प्रेम की महत्ता की सचित्र प्रस्तुति सिद्ध छन्दोयाजना के कारण ही ‘कुमारसम्भवम’  संस्कृत के सफलतम महाकाव्यों में अन्यतम है।
मेघदूतम
विश्वकवि कालिदास द्वारा विरचित -’मेघदूतम’ का विश्व साहित्य में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें विरही यक्ष आषाढ़ के पहले दिन मेघ के माध्यम से अपनी प्रिय यक्षिणी को ‘प्रणय – सन्देश’ पहुँचाता है। पूर्व मेघ में रामगिरी से लेकर अलका तक का मार्ग कथन और उत्तर मेघ मेघ में अलका वर्णन और प्रिया के लिए सन्देश विशेष उपलब्ध है। कथा संक्षेप इस प्रकार है -
पूर्व मेघ
अलकापुरी के स्वामी कुबेर ने कर्तव्यहीनता के आरोप में एक यक्ष को शाप आदेश दिया कि – ‘ वह प्रिया वियोग सहते हुए एक वर्ष तक मृत्युलोक में निवास करे।’ यक्ष शापवश रामगिरी के आश्रमों में निवास  करने लगता है और शाप के प्रायः आठ मास व्यतीत होने पर आषाढ़ के प्रथम दिवस उसे पर्वतीय ढलान पर विराजित मेघ के दर्शन होते हैं। प्रिया के बिना आकुल व्याकुल यक्ष, चेतन। अचेतन में भेद की क्षमता भी खो बैठा और पहले उसने मेघ की प्रशंसा की। तब यक्ष ने उसे रामगिरी से प्रिया  की अलका नगरी गमन का मार्ग भी कह दिया और यह भी संकेत दिया कि उसे कुछ विशेष दर्शनीय क्षेत्रों में विश्राम कर आगे बढ़ना है। ये क्षेत्र हैं – माल प्रदेश (मालवा ), आम्रकूट (अमरकंटक), नर्मदा नदी , विदिशा, वेत्रवती (बेतवा नदी), नीच नामक पर्वत, निर्विन्ध्या नदी, उज्जयिनी में सिप्रा (क्षिप्रा) नदी, महाकाल मंदिर ,  गम्भीरा, सिन्धु  सरिताएँ , देवगिरी, दशपुर (मंदसौर), चर्मण्वती (चम्बल) नदी,  कुरुक्षेत्र, सरस्वती नदी, कनखल, गंगा नदी, हिमालय पर्वत , क्रौन्चरंध्र  – कैलास के मार्ग में संभवतः नीतिमाणा   दर्रा , कैलास पर्वत और उसकी गोद में विराजित अलका नगरी।
उत्तर मेघ
विरही यक्ष रामगिरी आश्रम से अलका यात्रा तक के विशिष्ट क्षेत्रों का वर्णन करके आगे कहता है – ‘मेघ ! तुम्हें अलका में गगनचुम्बी भवन मिलेंगे। वहाँ स्वर्ग जैसे सुख, वैभव, विलास, और आनंद सहज सुलभ हैं। वहीं कुबेर के राजभवन के उत्तर में शंख और कमल के चिह्नोंवाला मेरा घर है। वहीं विरहिणी प्रिया मिलेगी। वह प्रिया …….. वियोग से विचलित , उदास , मलिन , दुर्बल और तुषारापात से आहात कमिलिनी जैसी दृष्टिगोचर होगी। उससे मेरा यह सन्देश अवश्य ही कह देना कि – ‘तुम बिलकुल भी खिन्न और उदास नहीं रहना। विरह के शेष चार मास नयन मूँद धैर्यपूर्वक बिता दो। सुख – दुःख गतिमय चक्र के अरे जैसे ऊपर -  नीचे आते रहते हैं।  मैं किसी प्रकार दुःख के दिन व्यतीत कर रहा हूँ। देवप्रबोधिनी के दिन मेरा  शापान्त   हो जायेगा और  शीघ्रातिशीघ्र अपना मिलन होगा।’ अपने सन्देश के अंत में यक्ष बहुत ही मार्मिक वचन प्रकट करता है – ‘ मेघ! शापवश मेरा,  जैसा अपनी प्रिया से विछोह हुआ, वियोग हुआ, वैसा तुम्हारा अपनी प्रिया विद्युत्। बिजली से क्षण भर के लिए नही वियोग ना हो।’
‘मेघदूतम’ एक यक्ष की आत्मकथा के रूप में मानों कालिदास की ही अपनी प्रणय गाथा   है। रस, भावपक्ष, कलापक्ष, कल्पनाशीलता, उदारता , प्रकृति से समीपता , भारतीय संस्कृति की महिमा, रमणीयता,  महनीयता, और अनिर्वचनीयता की दृष्टि से यह रचना विश्वकवि कालिदास की अलौकिक संरचना है। विश्व के प्रायः सभी साहित्यकारों, अध्येताओं, पाठकों और रसिकों ने इसका मुक्त कंठ से यशोगान किया है।
‘मेघदूतम’ के रूप में कालिदास गीतिकाव्य परम्परा के पुरोधा ही हैं।
रघुवंशम
‘रघुवंशम’ महाकाव्य  में मनु से लेकर इकत्तीस सूर्यवंशी राजाओं का जीवन वृत्त उपलब्ध है।  हाँ ….. नृप दिलीप , रघु, अज, दशरथ, और श्री राम के जीवन वर्णन को विशेष विस्तार दिया गया है। सर्गानुसार कथा सारांश इस प्रकार है – शिव। पार्वती की वन्दना और रघुवंश की विशेषताओं के उल्लेख के उपरांत संतान विहीन राजा दिलीप संतान प्राप्ति के लिए कुलगुरु वसिष्ठ के निर्देशानुसार कामधेनु की पुत्री नन्दिनी की सेवा का  व्रत  लेते हैं। दिलीप और उनकी पत्नी सुदक्षिणा  समग्र समर्पण से उसकी सेवा करते हैं।  नंदिनी राजा दिलीप की परीक्षा लेती है और वे  उस कठिनतम परीक्षा में सफल भी हो जाते हैं। प्रसन्न  नन्दिनी राजा दिलीप को संतान प्राप्ति का वरदान देती है  और महारानी सुदाक्षिना के गर्भ से रघु का जन्म होता है। विद्या अध्ययन और इन्द्र से युद्ध में विजय प्राप्ति के उपरांत राजा रघु का राज्याभिषेक हो जाता है और वे दिग्विजय यात्रा सफल करके अयोध्या   लौट आते हैं। यज्ञ में सर्वस्व देने वाले राजा रघु से ऋषि वरतन्तु के ब्रह्मचारी शिष्य कौत्स गुरुदक्षिना के रूप में चौदह करोड़  मुद्राओं की याचना करते हैं ? तभी राजा रघु कुबेर पर आक्रमण कर देते हैं। उसी समय  धन  वर्षा होती है और प्रसन्न  कौत्स रघु को पुत्र लाभ का आशीर्वाद देते हैं। तभी अज का जन्म होता है। राजकुमार अज …….. इन्दुमती – स्वयंवर के लिए प्रस्थान कर देते हैं। उस स्वयंवर में देश – विदेश  के अनेकानेक राजा सम्मिलित होते हैं , किन्तु , इन्दुमती अज का ही पति रूप में वरण कर लेती है और उनका विधिवत परिणय हो जाता है। इसी  मध्य प्रतिस्पर्धी असफल राजाओं द्वारा आक्रमण करने पर भी रघुवंशी  अज विजयश्री प्राप्त करते हैं और उनका राज्याभिषेक भी संपन्न हो जाता है। शाप वश अज का इंदुमती से वियोग होते ही वे घोर विलाप करते हैं।  अज द्वारा जीवन से सन्यास लेते ही दशरथ अभिषिक्त सम्राट के रूप में पदस्थ होते हैं। मृगया के लिए दशरथ वन प्रस्थान करते हैं और वहीं असावधानी वश उनसे श्रवणकुमार का वध हो जाता है। श्रवणकुमार के माता – पिता से अभिशप्त दशरथ पुत्रेष्टि यज्ञ करते हैं , फलतः राम, लक्ष्मण,   भरत और शत्रुघ्न का जन्म होता है। स्वयंवर में राम द्वारा शिवधनुष तोड़ने से सीता राम का वरण कर लेती हैं और वहीं राम आदि का परिणय संपन्न किया जाता है। कैकेयी द्वारा दशरथ से दो वरदान माँगे जाने के कारण राम वनवास  जाते हैं। तभी रावण सीता को हर लंका ले जाता है और राम वानर सेना के साथ लंका जाकर रावण वध करते हैं। राम सीता को लेकर पुष्पक विमान से अयोध्या प्रत्यागमन करते समय श्रीलंका से अयोध्या के मध्य विद्यमान प्रमुख स्थलों का विषद वर्णन भी करते हैं। रामराज्य अभिषेक और सीता परित्याग के पश्चात लव-कुश आद्यकवि वाल्मीकि के आश्रम में जन्म लेते हैं। श्री राम के स्वर्गारोहण के बाद कुश का राज्याभिषेक और कुमुद्वती से विवाह संपन्न होता है। कुश के स्वर्गवास के बाद उनके पुत्र अतिथि का राज्यारोहण किया जाता है। तदन्तर अतिथि और उसके वंशज इक्कीस  राजाओं का संक्षिप्त  वर्णन उपलब्ध है। अंतिम राजा अग्निवर्ण का राज्याभिषेक, उसकी अत्यंत विषयासक्ति और राज्यक्षमा (टी. बी. ) से पीड़ित होकर देहावसान, उसकी रानी का राज्याभिषेक और गर्भस्थ शिशु के उत्तराधिकारी होने का मंत्रियों  द्वारा निर्णय आदि वर्णन प्रस्तुत ‘रघुवंशम’ महाकाव्य में क्रमशः चित्रित हैं।
‘रघुवंशम’  में विश्वकवि कालिदास की प्रतिभा का सर्वोत्तम निदर्शन पदे- पदे उपलब्ध है। भावसौन्दर्य , कला चमत्कार , प्रसाद और माधुर्य गुणयुक्त भाषाशैली, अनुपम अलंकार छटा, सर्वोत्तम और अनुपम प्रकृति वर्णन तथा रस संयोजन की दृष्टि से ‘रघुवंशम’ आदर्श और सर्वोत्तम महाकाव्य के रूप में विशेषतः प्रतिष्ठित है।

श्रीनारायण चतुर्वेदी का साहित्य


श्रीनारायण चतुर्वेदी ने अपनी कवितायें ‘श्रीवर’ नाम से लिखकर दो कविता संग्रह तैयार किये हैं 1-रत्नदीप तथा 2-जीवन कण। इनके द्वारा अंग्रेजी भाषा से किया गया अनुवाद ‘विश्व का इतिहास ’ तथा ‘शासक’ महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। वे हिन्दी भाषा में प्रकाशित संग्राहक कोश ‘विश्वभारती’ के संपादक रहे। पत्रकारिता के क्षेत्र में राजकीय सेवा से सेवानिवृति के उपरांत लगभग 20 वर्षो तक हिन्दी साहित्य जगत की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘सरस्वती’ के संपादक के रूप में इनका योगदान अद्वितीय रहा । ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादन काल में राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विख्यात विद्वानों को श्रद्धांजलि स्वरूप लिखे गये संपादकीय लेखेां का संग्रह ‘पावन स्मरण(1976)’ के नाम से प्रकाशित हुआ है। ‘विनोद शर्मा अभिनंदन ग्रन्थ’ (विनोद शर्मा उनका कलोल-कल्पित नाम था) हास्य व्यंग्य का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। उनके द्वारा लिखित ‘आधुनिक हिन्दी का आदिकाल’ (1857-1908)’ तथा ‘साहित्यिक चुटकुले’ भी महत्वपर्ण दस्तावेज हैं।

एक पाठक


मक्सिम गोर्की

अनुवाद : अनिल जनविजय

रात काफी हो गया थी जब मैं उस घर से विदा हुआ जहाँ मित्रों की एक गोष्ठी में अपनी प्रकाशित कहानियों में से एक का मैंने अभी पाठ किया था । उन्होंने तारीफ के पुल बांधने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी और मैं धीरे-धीरे मगन भाव से सड़क पर चल रहा था, मेरा हृदय आनंद से छलक रहा था और जीवन के एक ऐसा सुख का अनुभव मैं कर रहा था जैसा पहले कभी नहीं किया था ।

फरवरी का महीना था, रात साफ थी और खूब तारों से जड़ा मेघरहित आकाश धरती पर स्फूर्तिदायक शीतलता का संचार कर रहा था, जो नई गिरी बर्फ से सोलहों सिंगार किये हुए थी ।
’इस धरती पर लोगों की नजरों में कुछ होना अच्छा लगता है!’ मैंने सोचा और मेरे भविष्य के चित्र में उजले रंग भरने में मेरी कल्पना ने कोई कोताही नहीं की ।
“हां, तुमने एक बहुत ही प्यारी-सी चीज लिखी है, इसमें कोई शक नहीं,” मेरे पीछे सहसा कोई गुनगुना उठा,
मैं अचरज से चौंका और घूमकर देखने लगा,
काले कपड़े पहने एक छोटे कद का आदमी आगे बढ़कर निकट आ गया और पैनी लघु मुस्कान के साथ मेरे चेहरे पर उसने अपनी आंखें जमा दीं, उसकी हर चीज पैनी मालूम होती थी-उसकी नजर, उसके गालों की हड्डियां, उसकी दाढ़ी जो बकरे की दाढ़ी की तरह नोकदार थी, उसका समुचा छोटा और मूरझाया-सा ढांचा, जो कुछ इतना विचित्र नोक-नुकीलापन लिये था कि आंखों में चुभता था, उसकी चाल हल्की और निःशब्द थी, ऐसा मालूम होता था जैसे वह बर्फ पर फिसल रहा हो, गोष्ठी में जो लोग मौजूद थे, उनमें वह मुझे नजर नहीं आया था ओर इसीलिए उसकी टिप्पणी ने मुझे चकित कर दिया था, वह कौन था ? और कहां से आया था ?

“क्या आपने...मतलव ...मेरी कहानी सुनी थी ? मैंने पूछा
"हां, मुझे उसे सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।"
उसकी आवाज तेज थी, उसके पतले होंठ और छोटी काली मुछें थी जो उसकी मुस्कान को नहीं छिपा पाती थीं। मुस्कान उसके होंठो से विदा होने का नाम ही नहीं लेती थी और यह मुझे बड़ा अटपटा मालूम हो रहा था ।
“अपने आपको अन्य सबसे अनोखा अनुभव करना बड़ा सुखद मालूम होता है, क्यों, ठीक है न ?” मेरे साथी ने पूछा,
मुझे इस प्रश्न में ऐसी कोई बात नहीं लगी जो असाधारण हो ,सो मुझे सहमति प्रकट करने में देर नहीं लगी ।
“हो-हो-हो!” पतली उगलियों से अपने छोटे हाथों को मलते हुए वह तीखी हंसी हंसा, उसकी हंसी मुझे अपमानित करने वाली थी ।

“तुम बड़े हंसमुख जीव मालूम होते हो,” मैंने रूखी आवाज में कहा, “अरे हाँ, बहुत !” मुस्काराते और सिर हिलाते हुए उसने ताईद की, “साथ ही मैं बाल की खाल निकालने वाला भी हूं क्योंकि मैं हमेशा चीजों को जानना चाहता हूं-हर चीज को जानना चाहता हूं।”
वह फिर अपनी तीखी हंसी हँसा और वेध देने वाली अपनी काली आंखों से मेरी ओर देखता रहा, मैंने अपने कद की ऊंचाई से एक नज़र उस पर डाली और ठंडी आवाज में पूछा, “माफ करना लेकिन क्या मैं जान सकता हूँ कि मुझे किससे बातें करने का सौभाग्य ...."
“मैं कौन हूँ ? क्या तुम अनुमान नहीं लगा सकते ? जो हो, मैं फिलहाल तुम्हें आदमी का नाम उस बात से ज्यादा महत्वपूर्ण मालूम होता है जो कि वह कहने जा रहा है ?”
“निश्चय ही नहीं, लेकिन यह कुछ ... बहूत ही अजीब है,” मैंने जवाब दिया ।

उसने मेरी आस्तीन पकड़ कर उसे एक हल्का-सा झटका दिया और शांत हँसी के साथ कहा, “होने दो अजीब, आदमी कभी तो जीवन की साधारण और घिसी-पिटी सीमाओं को लाँघना चाहता ही है, अगर एतराज न हो तो आओ, जरा खुलकर बातें करें, समझ लो कि मैं तुम्हारा एक पाठक हूँ-एक विचित्र प्रकार का पाठक, जो यह जानना चाहता है कि कोई पुस्तक-मिसाल के लिए तुम्हारी अपनी लिखी हुई पुस्तकें-कैसे और किस उद्देश्य के लिए लिखी गयी है, बोलो, इस तरह की बातचीत पसंद करोगे ?”
“ओह, जरूर !” मैंने कहा, “मुझे खुशी होगी, ऐसे आदमी से बात करने का अवसर रोज-रोज नहीं मिलता,” लेकिन मैंने यह झूठ कहा था, क्योंकि मुझे यह सब बेहद नागवार मालूम हो रहा था, फिर भी मैं उसके साथ चलता रहा-धीमे कदमों से, शिष्टाचार की ऐसी मुद्रा बनाये, मानो मैं उसकी बात ध्यान से सून रहा हूँ ।
मेरा साथी क्षण भर के लिए चुप हो गया और फिर बड़े विश्वासपूर्ण स्वर में उसने कहा, “मानवीय व्यवहार में निहित उद्देश्यों और इरादों से ज्यादा विचित्र और महत्वपूर्ण चीज इस दुनिया में और कोई नहीं है, तुम यह मानते हो न ?” मैने सिर हिलाकर हामी भरी ।

“ठीक, तब आओ, जरा खुलकर बातें करें, सुनो, तुम जब तक जवान हो तब तक खुलकर बात करने का एक भी अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहिए ।”
’अजीब आदमी है!’ मैंने सोचा, लेकिन उसके शब्दों ने मुझे उलझा लिया था ।
“सो तो ठीक है,” मैंने मुस्कराते हुए कहा, “लेकिन हम बातें किस चीज के बारे में करेंगे ?
पुराने परिचित की भांति उसने घनिष्ठता से मेरी आँखों में देखा और कहा, “साहित्य के उद्देश्यों के बारे में, क्यों, ठीक है न ?”
“हाँ मगर....देर काफी हो गया है....”
“ओह, तुम अभी नौजवान हो, तुम्हारे लिए अभी देर नहीं हुई ।”

मैं ठिठक गया, उसके शब्दों ने मुझे स्तब्ध कर दिया था । किसी और ही अर्थ में उसने इन शब्दों का उच्चारण किया था और इतनी गंभीरता से किया था कि वे भविष्य का उदघोष मालूम होते थे । मैं ठिठक गया था, लेकिन उसनें मेरी बांह पकड़ी और चुपचाप किंतु दृढ़ता के साथ आगे बढ़ चला ।

“रुको नहीं, मेरे साथ तुम सही रास्ते पर हो” उसने कहा, “बात शुरू करो, तुम मुझे यह बताओ कि साहित्य का उद्देश्य क्या है ?” मेरा अचरज बढ़ता जा रहा था और आत्मसंतुलन घटना जा रहा था । आखिर यह आदमी मुझसे चाहता क्या है? और यह है कौन ? निस्संदेह वह एक दिलचस्प आदमी था, लेकिन मैं उससे खीज उठा था । उससे पिंड छुडा़ने की एक और कोशिश करते हुए जरा तेजी से आगे की ओर लपका, लेकिन वह भी पीछे न रहा, साथ चलते हुए शांत भाव से बोला, “मैं तुम्हारी दिक्कत समझ सकता हूँ, एकाएक साहित्य के उद्देश्य की व्याख्या करना तुम्हारे लिए कठिन है, कही तो मैं कोशिश करूँ?”

उसने मुस्कराते हुए मेरी ओर देखा लेकिन मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना कहने लगा, “शायद बात-बात से तुम सहमत होगे अगर मैं कहू कि साहित्य का उद्देश्य है-खुद अपने को जानने में इंसान की मदद करना, उसके आत्मविश्वास को दृढ़ बनाना और उसके सत्यान्वेषण को सहारा देना, लोगों की अच्छाईयों का उद्-घाटन करना और सौंदर्य की पवित्र भावना से उनके जीवन को शुभ बनाना, क्यों, इतना तो मानते हो ?”
“हाँ,” मैंने कहा, “कमोबेश यह सही है, यह तो सभी मानते है कि साहित्य का उद्देश्य लोगों को और अच्छा बनाना है।”
"तब देखो न, लेखक के रुप में तुम कितने ऊँचे उद्देश्य के लिए काम करते हो ! "मेरे साथी ने गंभीरता के साथ अपनी बात पर जोर देते हुए कहा और फिर अपनी वही तीखी हँसी हँसने लगा, "हो-हो-हो !"
यह मुझे बड़ा अपमानजनक लगा। मैं दुख और खीज से चीख उठा, "आखिर तुम मुझसे क्या चाहते हो ?"
"आओ, थोड़ी देर बाग में चलकर बैठते हैं।" उसने फिर एक हल्की हँसी हँसते हुए और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खींचते हुए कहा।

उस समय हम नगर-बाग की एक वीथिका में थे । चारों ओर बबूल और लिलक की नंगी टहनियाँ दिखायी दे रही थीं, जिन पर वर्फ की परत चढ़ी हुई थी । वे चांद की रोशनी में चमचमाती मेरे सिर के ऊपर भी छाई हुई थीं औऱ ऐसा मालूम होता था जैसे वर्फ का कवच पहने ये सख्त टहनियाँ मेरे सीने को बेध कर सीधे मेरे हृदय तक पहुंच गयी हों।
मैंने बिना एक शब्द कहे अपने साथी की ओर देखा, उसके व्यवहार ने मूझे चक्कर में डाल दिया था। ’इसके दिमाग का कोई पूर्जा ढीला मालूम होता है।’ मैंने सोचा औऱ इसके व्यवहार की इस व्याख्या से अपने मन को संतोष देने की कोशिश की।
“शायद तुम्हारा खवाल है कि मेरा दिमाग कुछ चल गया है” उसने जैसे मेरे भावों को ताड़ते हुए कहा। “लेकिन ऐसे खयाल को अपने दिमाग से निकाल दो यह तुम्हारे लिए नुकसानदेह और अशोभन है.... बजाय इसके कि हम उस आदमी को समझने की कोशिश करें, जो हमसे भिन्न है। इस बहाने की ओट लेकर हम उसे समझने के झंझट से छुट्टी पा जाना चाहते हैं । मनुष्य के प्रति मनुष्य की दुखद उदासीनता का यह एक बहुत ही पुष्ट प्रमाण है।”
“ओह ठीक है,” मैंने कहा । मेरी खीज बराबर बढ़ती ही जा रही थी, “लेकिन माफ करना, मैं अब चलूँगा, काफी समय हो गया।”
"जाओ अपने कंधों को बिचकाते हुए उसने कहा। “जाओ, लेकिन यह जान लो कि तुम खुद अपने से भाग रहे हो।” उसने मेरा हाथ छोड़ दिया और मैं वहाँ से चल दिया।
वह बाग में ही टीले पर रुक गया। वहा से वोल्गा नज़र आती थी जो अब बर्फ की चादर ताने थी और ऐसा मालूम होता था जैसे बर्फ की उस चादर पर सड़कों के काले फीते टंके हों, सामने दूर तट के निस्तब्ध और उदासी में डूबे विस्तृत मैदान फैले थे। वह वहीं पड़ी हुई एक बैंच पर बैठ गया और सूने मैदानों की ओर ताकता हुआ सीटी की आवाज़ में एक परिचित गीत की धुन गुनगुननाने लगा।
वो क्या दिखायेंगे राह हमको
जिन्हें खुद अपनी ख़बर नहीं
मैंने घुमकर उसकी ओर देखा अपनी कुहनी को घुटने पर और ठोडी की हथेली पर टिकाये, मुँह से सीटी बजाता, वह मेरी ही ओर नज़र जमाये हुए था और चांदनी से चमकते उसने चेहरे पर उसकी नन्हीं काली मूंछें फड़क रही थीं। यह समझकर कि यही विधि का विधान है, मैंने उसके पास लौटने का निश्चय कर लिया। तेज कदमों से मैं वहां पहुँचा और उसके बराबर में वैठ गया।
“देखो, अगर हमें बात करनी है तो सीध-सादे ढंग से करनी चाहिए,” मैने आवेशपूर्वक लेकिन स्वयं को संयत रखते हुए कहा।
“लोगों को हमेशा ही सीधे-सादे ढंग से बात करनी चाहिए।” उसने सिर हिलाते हुए स्वीकार किया, “लेकिन यह तुम्हें भी मानना पड़ेगा कि अपने उस ढंग से काम लिये बिना मैं तुम्हारा ध्यान आकर्षित नहीं कर सकता था। आजकल सीधी-सादी और साफ बातों को नीरस और रूखी कहकर नज़रअंदाज कर दिया जाता है। लेकिन असल बात यह है कि हम खुद ठंडे और कठोर हो गये हैं और इसीलिए हम किसी भी चीज में जोश या कोमलता लाने में असमर्थ रहते हैं । हम तुच्छ कल्पनाओं और दिवास्तप्नों में रमना तथा अपने आपको कुछ विचित्र और अनोखा जताना चाहते हैं, क्योंकि जिस जीवन की हमने रचना की है, वह नीरस, बेरंग और उबाऊ है, जिस जीवन को हम कभी इतनी लगन और आवेश के साथ बदलने चले थे, उसने हमें कुचल और तोड़ डाला है “एक पल चुप रहकर उसने पूछा,” क्यों, मैं ठीक कहता हूं न ?”
“हाँ,” मैंने कहा, “तुम्हारा कहना ठीक है,”
“तुम बड़ी जल्दी घुटने टेक देते हो!” त़ीखी हँसी हँसते हुए मेरे प्रतिवादी न मेरा मखौल उडाया। मैं पस्त हो गया। उसने अपनी पैनी नज़र मुझ-पर जमा दी और मुस्कराता हुआ बोला, “तुम जो लिखते हो उसे हजारों लोग पढ़ते हैं। तुम किस चीज का प्रचार करते हो ? और क्या तुमने कभी अपने से यह पूछा है कि दूसरों को सीख देने का तुम्हें क्या अधिकार है ?”

जीवन में पहली बार मैंने अपनी आत्मा को टटोला, उसे जांचा-परखा। हाँ, तो मैं किस चीज का प्रचार करता हूँ ? लोगों से कहने के लिए मेरे पास क्या है ? क्या वे ही सब चीजें, जिन्हें हमेशा कहा-सुना जाता है, लेकिन जो आदमी को बदल कर बेहतर नहीं बनातीं ? और उन विचारों तथा नीतिवचनों का प्रचार करने का मुझे क्या हक है, जिनमें न तो मैं यकीन करता हूँ और न जिन्हें मैं लाता हूँ ? जब मैंने खुद उनके खिलाफ आचरण किया, तब क्या यह सिद्ध नहीं होता कि उनकी सच्चाई में मेरा विश्वास नहीं है ? इस आदमी को मैं क्या जवाब दूँ जो मेरी बगल में बैठा है ?
लेकिन उसने, मेरे जवाब की प्रतीक्षा से ऊब कर, फिर बोलना शुरू कर दिया, “एक समय था जब यह धरती लेखन-कला विशारदों, जीवन और मानव-हृदय के अध्येताओं और ऐसे लोगों से आबाद थी जो दुनिया को अच्छा बनाने की सर्वप्रबल आकांक्षा एवं मानव-प्रकृति में गहरे विश्वास से अनुप्राणित थे, उन्होंने ऐसी पुस्तकें लिखीं जो कभी विस्मृति के गर्भ में विलीन नहीं होंगी, कारण, वे अमर सच्चाइयों को अंकित करती हैं और उनके पन्नों से कभी मलिन न होने वाला सौंदर्य प्रस्फुटित होता है । उनमें चित्रित पात्र जीवन के सच्चे पात्र हैं, क्योंकि प्रेरणा ने उनमें जान फूंकी है, उन पुस्तकों में साहस है, दहकता हुआ गुस्सा और उन्मुक्त सच्चा प्रेम है, और उनमें एक भी शब्द भरती का नहीं है ।
“तुमने, मैं जानता हूं, ऐसी ही पुस्तकों से अपनी आत्मा के लिए पोषण ग्रहण किया है, फिर भी तुम्हारी आत्मा उसे पचा नहीं सकी, सत्य और प्रेम के बारे में तुम जो लिखते हो, वह झूठा और अनुभूतिशून्य प्रतीत होता है, लगता है, जैसे शब्द जबरदस्ती मुँह से निकाले जा रहे हों, चंद्रमा की तरह तुम दूसरे की रोशनी से चमकते हो, और यह रोशनी भी बुरी तरह मलिन है-वह परछाइयाँ खूब डालती है, लेकिन आलोक कम देती है और गरमी तो उसमें जरा भी नहीं हैं ।
“असल में तुम खुद गरीब हो, इतने कि दूसरों को ऐसी कोई चीज नहीं दे सकते जो वस्तुतः मूल्यवान हो, और जब देते भी हो तो सर्वोच्च संतोष की इस सजग अनुभूति के साथ नहीं कि तुमने सुंदर विचारों और शब्दों की निधि में वृद्धि करके जीवन को संपन्न बनाया है, तुम केवल इसलिए देते हो कि जीवन से और लोगों से अधिकाधिक ले सको, तुम इतने दरिद्र हो कि उपहार नही दे सकते, या तुम सूदखोर हो और अनुभव के टुकड़ों का लेनदेन करते हो, ताकि तुम ख्याति के रूप में सूद बटोर सको ।
“तुम्हारी लेखनी चीजों की सतह को ही खरोंचती है । जीवन की तुच्छ परिस्थितियों को ही तुम निरर्थक ढंग से कोंचते-कुरेदते रहते हो । तुम साधारण लोगों के साधारण भावों का वर्णन करते रहते हो, हो सकता है, इससे तुम उन्हें अनेक साधारण-महत्वहीन–सच्चाइयां सिखाते हो, लेकिन क्या तुम कोई ऐसी रचना भी कर सकते हो जो मनुष्य की आत्मा को ऊँचा उठाने की क्षमता रखती हो ? नहीं ! तो क्या तुम सचमुच इसे इतना मह्तवपूर्ण समझते हो कि हर जगह पड़े हुए कूड़े के ढेरों को कुरेदा जाये और यह सिद्ध किया जाये कि मनुष्य बुरा है, मूर्ख है, आत्मसम्मान की भावना से बेखबर है, परिस्थितियों का गुलाम है, पूर्णतया और हमेशा के लिए कमजोर, दयनीय और अकेला हैं ?
“अगर तुम पूछो तो मनुष्य के बारे में ऐसा घृणित प्रचार मानवता के शत्रु करते हैं-और दुख की बात यह है कि वे मनुष्य के हृदय में यह विश्वास जमाने में सफल भी हो चुके हैं, तुम ही देखो, मानव-मस्तिष्क आज कितना ठस हो गया है और उसकी आत्मा के तार कितने बेआवाज़ हो गये हैं, यह कोई अचरज की बात नहीं है, वह अपने आपको उसी रूप में देखता है जैसा कि वह पुस्तकों में दिखाया जाता है......
“और पुस्तकें-खास तौर से प्रतिभा का भ्रम पैदा करने वाली वाक्-चपलता से लिखी गयी पुस्तकें-पाठकों को हतबुद्धि करके एक हद तक उन्हें अपने वश में कर लेती हैं, अगर उनमें मनुष्य को कमजोर, दयनीय, अकेला दिखाया गया है तो पाठक उनमें अपने को देखते समय अपना भोंडापन तो देखता है, लेकिन उसे यह नज़र नहीं आता कि उसके सुधार की भी कोई संभावना हो सकती है । क्या तुममें इस संभावना को उभारकर रखने की क्षमता है ? लेकिन यह तुम कैसे कर सकते हो, जबकि तुम खुद ही.... जाने दो, मैं तुम्हारी भावनाओं को चोट नहीं पहुँचाऊंगा, क्योंकि मेरी बात काटने या अपने को यही ठहराने की कोशिश किये बिना तुम मेरी बात सून रहे हो ।

“तुम अपने आपको मसीहा के रूप में देखते हो, समझते हो कि बुराइयों को खोल कर रखने के लिए खुद ईश्वर ने तुम्हें इस दुनिया में भेजा है, ताकि अच्छाइयों की विजय हो, लेकिन बुराइयों को अच्छाइयों से छांटते समय क्या तुमने यह नहीं देखा कि ये दोनों एक-दूसरो से गुंथी हुई हैं और इन्हें अलग नहीं किया जा सकता? मुझे तो इसमें भी भारी संदेह है कि खुदा ने तुम्हें अपना मसीहा बना कर भेजा है । अगर वह भेजता तो तुमसे ज्यादा मजबूत इंसानों को इस काम के लिए चुनता, उनके हृदयों में जीवन, सत्य और लोगों के प्रति गहरे प्रेम की जोत जगाता ताकि वे अंधकार में उसके गौरव और शक्ति का उद्घोष करने वाली मशालों की भांति आलोक फैलायें, तुम लोग तो शैतान की मोहर दागने वाली छड़ की तरह धुआं देते हो, और यह धुआँ लोगों को आत्मविश्वासहीनता के भावों से भर देता है । इसलिय तुमने और तुम्हारी जाति के अन्य लोगों ने जो कुछ भी लिखा है, उस सबका एक सचेत पाठक, मैं तुमसे पूछता हूँ-तुम क्यों लिखते हो? तुम्हारी कृतियाँ कुछ नहीं सिखातीं और पाठक सिवा तुम्हारे किसी चीज पर लज्जा अनुभव नहीं करता, उनकी हर चीज आम-साधारण है, आम-साधारण लोग, आम साधारण विचार, आम-साधारण घटनाएं ! आत्मा के विद्रोह और आत्मा के पुनर्जांगरण के बारे में तुम लोग कब बोलना शुरू करोगे ? तुम्हारे लेखन में रचनात्मक जीवन की वह ललकार कहाँ है, वीरत्व के दृष्टांत और प्रोत्साहन के वे शब्द कहाँ हैं, जिन्हें सुनकर आत्मा आकाश की ऊंचाइयों को छूती है ?
“शायद तुम कहो- ‘जो कुछ हम पेश करते हैं, उसके सिवा जीवन में अन्य नमूने मिलते कहाँ है ?’
न, ऐसी बात मुँह से न निकालना, यह लज्जा और अपमान की बात है कि वह, जिसे भगवान ने लिखने की शक्ति प्रदान की है । जीवन के सम्मुख अपनी पंगुता और उससे ऊपर उठने में अपनी असमर्थता को स्वीकार करे, अगर तुम्हारा स्तर भी वही है, जो आम जीवन का, अगर तुम्हारी कल्पना ऐसे नमूनों की रचना नहीं कर सकती जो जीवन में मौजूद न रहते हुए भी उसे सुधारने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं, तब तुम्हारा कृतित्व किस मर्ज की दवा है ? तब तुम्हारे धंधे की क्या सार्थकता रह जाती है?
“लोगों के दिमागों को उनके घटनाविहीन जीवन के फोटोग्राफिक चित्रों का गोदाम बनाते समय अपने हृदय पर हाथ रखकर पूछो कि ऐसा करके क्या तुम नुकसान नहीं पहुँचा रहे हो ? कारण-और तुम्हें अब यह तुरंत स्वीकार कर लेना चाहिए-कि तुम जीवन का ऐसा चित्र पेश करने का ढंग, नहीं जानते जो लज्जा की एक प्रतिशोधपूर्ण चेतना को जन्म दे, जीवन के नए जीवन के स्पंदन को तीव्र और उसमें स्फूर्ति का संचार करना चाहते हो, जैसा कि अन्य लोग कर चुके हैं?”

मेरा विचित्र साथी रुक गया और मैं, बिना कुछ बोले, उसके शब्दों पर सोचता रहा, थोड़ी देर बाद उसने फिर कहा, “एक बात और, क्या तुम ऐसी आह्लादपूर्ण हास्य-रचना कर सकते हो,जो आत्मा का सारा मैल धो डाले ? देखो न, लोग एकदम भूल गये हैं कि ठीक ढंग से कैसे हँसा जाता है ! वे कुत्सा से हँसते हैं, वे कमीनपन से हँसते हैं, वे अक्सर अपने आँसुओं की बेधकर हँसते हैं, वे हृदय के उस समूच उल्लास से कभी नहीं हँसते जिससे वयस्कों के पेट में बल पड़ जाते हैं, पसलियां बोलने लगती हैं, अच्छी हंसी एक स्वास्थ्यप्रद चीज है । यह अत्यंत आवश्यक है कि लोग हमें, आखिर हँसने की क्षमता उन गिनी-चुनी चीजों में से एक है, जो मनुष्य को पशु से अलग करती हैं, क्या तुम निदा की हँसी के अवाला अन्य किसी प्रकार की हँसी को भी जन्म दे सकते हो ? निंदा की हंसीँ तो बाजारू हँसी है, जो मानव जीवधारियों को केवल हँसी का पात्र बनाती है कि उसकी स्थिति दयनीय है ।
“तुम्हें अपने हृदय में मनुष्य की कमजोरियों के लिए महान घृणा का और मनुष्य के लिए महान प्रेम का पोषण करना चाहिए, तभी तुम लोगों को सीख देने के अधिकारी बन सकोगे, अगर तुम घृणा और प्रेम, दोनों में से किसी का अनुभव नहीं कर सकते, तो सिर नीचा रखो और कुछ कहने से पहले सौ बार सोचो”
सुबह की सफेदी अब फूट चली थी, लेकिन मेरे हृदय में अंधेरे गहरा रहा था, यह आदमी, जो मेरे अंतर के सभी भेदों से वाकिफ था, अब भी बोल रहा था ।
“सब कुछ के बावजूद जीवन पहले से अधिक प्रशस्त और अधिक गहरा होता जा रहा है, लेकिन यह बहुत धीमी गति से हो रहा है, क्योंकि तुम्हारे पास इस गति को तेज़ बनाने के लायक न तो शक्ति है, न ज्ञान, जीवन आगे बढ़ रहा है और लोग दिन पर दिन अधिक और अधिक जानना चाहते हैं । उनके सवालों के जवाब कौन दें ? यह तुम्हारा काम है लेकिन क्या तुम जीवन में इतने गहरे पैठे हो कि उसे दूसरों के सामने खोल कर रख सको ? क्या तुम जानते हो कि समय की मांग क्या है ? क्या तुम्हें भविष्य की जानकारी है और क्या तुम अपने शब्दों से उस आदमी में नई जान फूंक सकते हो जिसे जीवन की नीचता ने भ्रष्ट और निराश कर दिया है ?”

यह कहकर वह चुप हो गया । मैंने उसकी ओर नहीं देखा. याद नहीं कौन-सा भाव मेरे हृदय में छाया हुआ था-शर्म का अथवा डर का । मैं कुछ बोल भी नहीं सका ।
“तुम कुछ जवाब नहीं देते?” उसी ने फिर कहा, “खैर, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, मैं तुम्हारे मन की हालत समझ सकता हूँ अच्छा, तो अब मैं चला.”
“इतनी जल्दी ?” मैने धीमी आवाज़ में कहा. कारण, मैंउ ससे चाहे जितना भयभीत रहा होऊँ, लेकिन उससे भी अधिक मैं अपने आपसे डर रहा था.
“हाँ, मैं जा रहा हूँ. लेकिन मैं फिर आऊँगा. मेरी प्रतीक्षा करना ।”
और वह चला गया । लेकिन क्या वह सचमुच चला गया ? मैंने उसे जाते हुए नहीं देखा । वह इतनी तेजी से और खामोशी से गायब हो गया जैसे छाया। मैं वहीं बाग में बैठा रहा- जाने कितनी देर तक-और न मुझे ठंड का पता था, न इस बात का कि सूरज उग आया है और पेड़ों की बर्फ से ढंकी टहनियों पर चमक रहा है.

ग़ालिब छुटी शराब

 रवीन्द्र कालिया

13 अप्रैल 1997। बैसाखी का पर्व। पिछले चालीस बरसों से बैसाखी मनाता आ रहा था। वैसे तो हर शब बैसाखी की शब होती थी, मगर तेरह अप्रैल को कुछ ज़्‍यादा ही हो जाती थी। दोपहर को बियर अथवा जिन और शाम को मित्रों के बीच का दौर। मस्‍ती में कभी कभार भांगड़ा भी हो जाता और अन्‍त में किसी पंजाबी ढाबे में भोजन, ड्राइवरों के बीच। जेब ने इजाज़त दी तो किसी पाँच सितारा होटल में सरसों का साग और मकई की रोटी। इस रोज़ दोस्‍तों के यहाँ भी दावतें कम न हुई होंगी और ममता ने भी व्‍यंजन पुस्‍तिका पढ़ कर छोले बटूरे कम न बनाये होंगे।

मगर आज की शाम, 1997 की बैसाखी की शाम कुछ अलग थी। सूरज ढलते ही सागरो मीना मेरे सामने हाज़िर थे। आज दोस्‍तों का हुजूम भी नहीं था-सब निमंत्रण टाल गया और खुद भी किसी को आमन्त्रित नहीं किया। पिछले साल इलाहाबाद से दस पंद्रह किलोमीटर दूर इलाहाबाद-रीवा मार्ग पर बाबा ढाबे में महफ़िल सजी थी और रात दो बजे घर लौटे थे। आज माहौल में अजीब तरह की दहशत और मनहूसियत थी। जाम बनाने की बजाए मैं मुंह में थर्मामीटर लगाता हूं। धड़कते दिल से तापमान देखता हूं- वही 99.3। यह भी भला कोई बुखार हुआ। एक शर्मनाक बुखार। न कम होता है, न बढ़ता है। बदन में अजीब तरह की टूटन है। यह शरीर का स्‍थायी भाव हो गया है- चौबीसों घण्‍टे यही आलम रहता है। भूख कब की मर चुकी है, मगर पीने को जी मचलता है। पीने से तनहाई दूर होती है, मनहूसियत से पिण्‍ड छूटता है, रगों में जैसे नया खून दौड़ने लगता है। शरीर की टूटन गायब हो जाती है और नस नस में स्‍फूर्ति आ जाती है। एक लम्‍बे अरसे से मैंने ज़िन्‍दगी का हर दिन शाम के इन्‍तज़ार में गुजारा है, भोजन के इन्‍तजार में नहीं। अपनी सुविधा के लिए मैंने एक मुहावरा भी गढ़ लिया था-शराबी दो तरह के होते हैंः एक खाते पीते और दूसरे पीते पीते। मैं खाता पीता नहीं, पीता पीता शख्‍स था। मगर ज़िन्‍दगी की हकीकत को जुमलों की गोद में नहीं सुलाया जा सकता। वास्‍तविकता जुमलों से कहीं अधिक वज़नदार होती है । मेरे जुमले भारी होते जा रहे थे और वज़न हल्‍का। छह फिट का शरीर छप्‍पन किलो में सिमट कर रह गया था। इसकी जानकारी भी आज सुबह ही मिली थी। दिन में डाक्‍टर ने पूछा था- पहले कितना वज़न था? मैं दिमाग पर ज़ोर डाल कर सोचता हूँ, कुछ याद नहीं आता। यकायक मुझे एहसास होता है, मैंने दसियों बरसों से अपना वज़न नहीं लिया, कभी जरूरत ही महसूस न हुई थी। डाक्‍टर की जिज्ञासा से यह बात मेरी समझ में आ रही थी कि छह फुटे बदन के लिए छप्‍पन किलो काफी शर्मनाक वज़न है। जब कभी कोई दोस्‍त मेरे दुबले होते जा रहे बदन की ओर इशारा करता तो मैं टके-सा जवाब जड़ देता--बुढ़ापा आ रहा है।

मैं एक लम्‍बे अरसे से बीमार नहीं पड़ा था। यह कहना भी ग़लत न होगा कि मैं बीमार पड़ना भूल चुका था। याद नहीं पड़ रहा था कि कभी सर दर्द की दवा भी ली हो। मेरे तमाम रोगों का निदान दारू थी, दवा नहीं। कभी खाट नही पकड़ी थी, वक्‍त ज़रूरत दोस्‍तों की तीमारदारी अवश्‍य की थी। मगर इधर जाने कैसे दिन आ गये थे, जो मुझे देखता मेरे स्‍वास्‍थ्‍य पर टिप्‍पणी अवश्‍य कर देता। दोस्त-अहबाब यह भी बता रहे थे कि मेरे हाथ कांपने लगे हैं। होम्‍योपैथी की किताब पढ़ कर मैं जैलसीमियम खाने लगा। अपने डाक्‍टर मित्रों के हस्‍तक्षेप से मैं आजिज़ आ रहा था। डा0 नरेन्‍द्र खोपरजी और अभिलाषा चतुर्वेदी जब भी मिलते क्‍लीनिक पर आने को कहते। मैं हँसकर उनकी बात टाल जाता। वेे लोग मेरा अल्‍ट्रासाउन्‍ड करना चाहते थे और इस बात से बहुत चिन्‍तित हो जाते थे कि मैं भोजन में रुचि नहीं लेता। मैं महीनों डाक्‍टर मित्रों के मश्‍वरों को नज़रअंदाज करता रहा। उन लोगों ने नया नया ‘डाप्लर' अल्‍ट्रासाउन्‍ड खरीदा था-मेरी भ्रष्‍ट बुद्धि में यह विचार आता कि ये लोग अपने पचीस तीस लाख के ‘डाप्लर' का रोब गालिब करना चाहते हैं। बाहर के तमाम डाक्‍टर मेरे हमप्‍याला और हमनिवाला थे। मगर कितने बुरे दिन आ गये थे कि जो भी डाक्‍टर मिलता, अपने क्‍लिनिक में आमन्‍त्रित करता। जो पैथालोजिस्‍ट था, वह लैब में बुला रहा था और जो नर्सिंगहोम का मालिक था, वह चैकअप के लिए बुला रहा था। डाक्‍टरों से मेरा तकरार एक अर्से तक चलता रहा। लुका-छिपी के इस खेल में मैंने महारत हासिल कर ली थी। डाक्‍टर मित्र आते तो मैं उन्‍हें अपनी मां के मुआइने में लगा देता। मां का रक्‍तचाप लिया जाता, तो वह निहाल हो जातीं कि बेटा उनका कितना ख्‍याल कर रहा है। बगैर मेरी मां की खैरियत जाने कोई डाक्टर मित्र मेरे कमरे की सीढ़ियां नहीं चढ़ सकता था। मां दिन भर हिन्‍दी में गीता और रामायण पढ़तीं मगर हिन्‍दी बोल न पातीं, मगर क्‍या मजाल कि मेरा कोई भी मित्र उनका हालचाल लिए बगैर सीढ़ियां चढ़ जाए; वह जिलाधिकारी हो या पुलिस अधीक्षक अथवा आयुक्‍त। वह टूटी फूटी पंजाबी मिश्रित हिन्‍दी में ही संवाद स्‍थापित कर लेतीं। धीरे धीरे मेरे हमप्‍याला हमनिवाला दोस्‍तों का दायरा इतना वसीह हो गया था कि उसमें वकील भी थे और जज भी। प्राशासनिक अधिकारी थे तो उद्यमी भी, प्रोफेसर थे तो छात्र भी। ये सब दिन ढले के बाद के दोस्‍त थे। कहा जा सकता है कि पीने पिलाने वाले दोस्‍तों का एक अच्‍छा खासा कुनबा बन गया था। शाम को किसी न किसी मित्र का ड्राईवर वाहन लेकर हाज़िर रहता अथवा हमारे ही घर के बाहर वाहनों का ताँता लग जाता। सब दोस्‍तों से घरेलू रिश्‍ते कायम हो चुके थे। सुभाष कुमार इलाहाबाद के आयुक्‍त थे तो इस कुनबे को गिरोह के नाम से पुकारा करते थे। आज भी फोन करेंगे तो पूछेंगे गिरोह का क्‍या हालचाल है।

आज बैसाखी का दिन था और बैसाखी की महफ़िल उसूलन हमारे यहाँ ही जमनी चाहिए थी। मगर सुबह सुबह ममता और मन्‍नू घेर घार कर मुझे डा0 निगम के यहाँ ले जाने में सफल हो गये थे। दिन भर टेस्‍ट होते रहे थे। खून की जांच हुई, अल्‍ट्रासाउंड हुआ, एक्‍सरे हुआ, गर्ज़ यह कि जितने भी टेस्‍ट संभव हो सकते थे, सब करा लिए गये। रिपोर्ट वही थी, जिस का खतरा था- यानी लिवर (यकृत) बढ़ गया था। दिमागी तौर पर मैं इस खबर के लिए तैयार था, कोई खास सदमा नहीं लगा।

‘आप कब से पी रहे हैं?' डाक्‍टर ने तमाम काग़ज़ात देखने के बाद पूछा।

‘यही कोई चालीस बरस से।' मैंने डाक्‍टर को बताया, ‘पिछले बीस बरस से तो लगभग नियमित रूप से।'

‘रोज़ कितने पैग लेते हैं?

मैंने कभी इस पर ग़ौर नहीं किया था। इतना जरूर याद है कि एक बोतल शुरू में चार पांच दिन में खाली होती थी, बाद में दो तीन दिन में और इधर दाे एक दिन में। कम पीने में यकीन नहीं था। कोशिश यही थी कि भविष्‍य में और भी अच्‍छी ब्राण्‍ड नसीब हो। शराब के मामले में मैं किसी का मोहताज न ही रहना चाहता था, न कभी रहा। इसके लिए मैं कितना भी श्रम कर सकता था। भविष्‍य में रोटी नहीं, अच्‍छी शराब की चिन्‍ता थी।

‘आप जीना चाहते हैं तो अपनी आदतें बदलनी होंगी।' डाक्‍टर ने दो टूक शब्‍दों में आगाह किया, ‘जिन्‍दगी या मौत में से आप को एक का चुनाव करना होगा।'

डाक्‍टर की बात सुनकर मुझे हंसी आ गयी। मूर्ख से मूर्ख आदमी भी ज़िन्‍दगी या मौत में से ज़िन्‍दगी का चुनाव करेगा।

‘आप हंस रहे हैं, जबकि मौत आप के सर पर मंडरा रही है।' डाक्‍टर को मेरी मुस्‍कराहट बहुत नागवार गुजरी।

‘सॉरी डाक्टर! मैं अपनी बेबसी पर हंस रहा था। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि यह दिन भी देखना पड़ेगा।'

‘आप यकायक पीना नहीं छोड़ पायेंगे। इतने बरसों बाद कोई भी नहीं छोड़ सकता। शाम को एकाध, हद से हद दो पैग ले सकते हैं। डाक्‍टर साहब ने बताया कि मैं ‘विदड्राल सिम्‍पटम्स' (मदिरापान न करने से उत्‍पन्‍न होने वाले लक्षण) झेल न पाऊंगा।'

इस वक्‍त मेरे सामने नयी बोतल रखी थी और कानों में डाक्‍टर निगम के शब्‍द कौंध रहे थे। मुझे जलियांवाला बाग की खूनी बैसाखी की याद आ रही थी। लग रहा था कि रास्‍ते बंद हैं सब, कूचा-ए-कातिल के सिवा। चालीस बरस पहले मैंने अपना वतन छोड़ दिया था और एक यही बैसाखी का दिन होता था कि वतन की याद ताज़ा कर जाता था।

बचपन में ननिहाल में देखी बैसाखी की ‘छिंज' याद आ जाती। चारों तरफ उत्‍सव का माहौल, भांगड़ा और नगाड़े । मस्‍ती के इस आलम में कभी कभार खूनी फसाद हो जाते, रंजिश में खून तक हो जाते। हम सब लोग हवेली की छत से सारा दृश्‍य देखते। नीचे उतरने की मनाही थी। अक्‍सर मामा लोग आंखे तरेरते हुए छत पर आते और मां और मौसी तथा मामियों को भी मुंडेर से हट जाने के लिए कहते। बैसाखी पर जैसे पूरे पंजाब का खून खौल उठता था। जालन्धर, हिसार, दिल्‍ली, मुम्‍बई और इलाहाबाद में मैंने बचपन की ऐसी ही अनेक यादों को सहेज कर रखा हुआ था । आज थर्मामीटर मुझे चिढ़ा रहा था। गिलास, बोतल और बर्फ की बकट मेरे सामने जैसे मुर्दा पड़ी थीं।

मैने सिगरेट सुलगाया और एक झटके से बोतल की सील तोड़ दी।

‘आखिर कितना पिओगे रवीन्‍द्र कालिया?' सहसा मेरे भीतर से आवाज़ उठी।

‘बस यही एक या दो पैग।' मैंने मन ही मन डाक्‍टर की बात दोहरायी।

‘तुम अपने को धोखा दे रहे हो।' मैं अपने आप से बातचीत करने लगा, ‘शराब के मामले में तुम निहायत लालची इन्‍सान हो। दूसरे से तीसरे पैग तक पहुँचने में तुम्‍हें देर न लगेगी। धीरे धीरे वही सिलसिला फिर शुरू हो जाएगा।'

मैंने गिलास में बर्फ के दो टुकड़ डाल दिये, जबकि बर्फ मदिरा ढालने के बाद डाला करता था । बर्फ के टुकड़े देर तक गिलास में पिघलते रहे । बोतल छूने की हिम्‍मत नहीं जुटा पा रहा था। भीतर एक वैराग्‍य भाव उठ रहा था, वैराग्य, निःसारता और दहशत का मिला-जुला भाव। कुछ वैसा आभास भी हो रहा था जो भरपेट खाने के बाद भोजन को देखकर होता है। एक तृप्‍ति का भी एहसास हुआ। क्षण भर के लिए लगा कि अब तक जम कर पी चुका हूँ, पंजाबी में जिसे छक कर पीना कहते हैं। आज तक कभी तिशना-लब न रहा था। आखिर यह प्‍यास कब बुझेगी? जी भर चुका है, फकत एक लालच शेष है।

मेरे लिए यह निर्णय की घड़ी थी। नीचे मेरी बूढ़ी मां थीं- पचासी वर्षीया। जब से पिता का देहान्‍त हुआ था, वह मेरे पास थीं। बडे़ भाई कैनेडा में थे और बहन इंगलैण्‍ड में। पिता जीवित थे तो वह उनके साथ दो बार कैनेडा हो आई थीं। एक बार तो दोनों ने माइग्रेशन ही कर लिया था, मन नहीं लगा तो लौट आए। दो एक बरस पहले भाभी भाई तीसरी बार कैनेडा ले जाना चाहते थे, मगर वय को देखते हुए वीज़ा न मिला।

मेरे नाना की ज्‍योतिष में गहरी दिलचस्‍पी थी। मां के जन्‍म लेते ही उनकी कुंडली देखकर उन्‍होंने भविष्‍यवाणी कर दी थी कि बिटिया लम्‍बी उम्र पायेगी और किसी तीर्थ स्‍थान पर ब्रह्यलीन होगी। हालात जब मुझे प्रयाग ले आये और मां साथ में रहने लगीं तो अक्‍सर नाना की बात याद कर मन को धुकधुकी होती। पिछले ग्‍यारह बरसों से मां मेरे साथ थीं। बहुत स्‍वाभिमानी थीं और नाजुकमिजाज़। आत्‍मनिर्भर। ज़रा सी बात से रूठ जातीं, बच्‍चों की तरह। मुझे से ज्‍यादा उनका संवाद ममता से था। मगर सास बहू का रिश्‍ता ही ऐसा है कि सब कुछ सामान्‍य होते हुए भी असामान्‍य हो जाता है। मैं दोनों के बीच संतुलन बनाये रख्‍ाता। मां को कोई बात खल जाती तो तुरंत सामान बांधने लगतीं यह तय करके कि अब शेष जीवन हरिद्वार में बितायेंगी। चलने फिरने से मजबूर हो गईं तो मेहरी से कहतीं- मेरे लिए कोई कमरा तलाश दो, अलग रहूंगी, यहां कोई मेरी नहीं सुनता। अचानक मुझे लगा कि अगर मैं न रहा तो इस उम्र में मां की बहुत फजीहत हो जायगी। वह जब तक जीं अपने अंदाज से जीं। अन्‍तिम दिन भी स्‍नान किया और दान पुण्‍य करती रहीं, यहाँ तक कि डाक्‍टर का अन्‍तिम बिल भी वह चुका गयीं, यह भी बता गयीं कि उनकी अन्‍तिम क्रिया के लिए पैसा कहाँ रखा है। मुझे स्‍वस्‍थ होने की दुआएं दे गईं और खुद चल बसीं।

गिलास में बर्फ के टुकड़े पिघल कर पानी हो गये थे। मुझे अचानक मां पर बहुत प्‍यार उमड़ा । मैं गिलास और बोतल का जैसे तिरस्‍कार करते हुए सीढ़ियाँ उतर गया। मां लेटी थीं। वह एम.एस. सुब्‍बलक्ष्‍मी के स्‍वर में विष्‍णुसहस्रनाम का पाठ सुनते-सुनते सो जातीं। कमरे में बहुत धीमे स्‍वर में विष्‍णुसहस्रनाम का पाठ गूंज रहा था और मां आंखें बन्‍द किये बिस्‍तर पर लेटी थीं। मैंने उनकी गोद में बच्‍चों की तरह सिर रख दिया। वह मेरे माथे पर हाथ फेरने लगीं, फिर डरते डरते बोलीं- ‘किसी भी चीज़ की अति बुरी होती है।' मैं मां की बात समझ रहा था कि किस चीज़ की अति बुरी होती है। न उन्‍होंने बताया न मैंने पूछा। मद्यपान तो दूर, मैंने मां के सामने कभी सिगरेट तक नहीं पी थी। किसी ने सच की कहा है कि मां से पेट नहीं छिपाया जा सकता। मैं मां की बात का मर्म समझ रहा था, मगर समझ कर भी शांत था। आज तक मैंने किसी को भी अपने जीवन में हस्‍तक्षेप करने की छूट नहीं दी थी, मगर मां आज यह छूट ले रही थीं, और मैं शांत था। आज मेरा दिमाग सही काम कर रहा था, वरना मैं अब तक भड़क गया होता । मुझे लग रहा था, मां ठीक ही तो कह रही हैं । कितने वर्षों से मैं अपने को छलता आ रहा हूँ। मां की गोद में लेटे लेटे मैं अपने से सवाल करने लगा-और कितनी पिओगे रवीन्‍द्र कालिया? यह रोज़ की मयगुसारी एक तमाशा बन कर रह गयी है, इसका कोई अंत नहीं है। अब तक तुम इसे पी रहे थे, अब यह तुम्‍हें पी रही है।

मां एकदम खामोश थीं। वह अत्‍यन्‍त स्‍नेह से मेरे माथे को, मेरे गर्म माथे को सहला रही थीं। मुझे लग रहा था जैसे जिन्‍दगी मौत को सहला रही है। लग रहा था यह मां की गोद नहीं है, मैं जिन्‍दगी की गोद में लेटा हूँ। कितना अच्‍छा है, इस समय मां बोल नहीं रहीं। उन्‍हें जो कुछ कहना है, उनका हाथ कह रहा है। उनके स्‍पर्श में अपूर्व वात्‍सल्‍य तो था ही, शिकवा भी था, शिकायत भी, क्षमा भी, विवशता और करुणा भी। एक मूक प्रार्थना। यही सब भाषा में अनूदित हो जाता तो मुझे अपार कष्‍ट होता। अश्‍लील हो जाता। शायद मेरे लिए असहनीय भी। मां की गोद में लेटे लेटे मैं केसेट की तरह रिवाइन्‍ड होता चला गया, जैसे नवजात शिशु में तब्‍दील हो गया। मां जैसे मुझे जीवन में पहली बार महसूस कर रही थीं और मैं भी बन्‍द मुटि्‌ठयां कसे बंद आँखों से जैसे अभी अभी कोख से बाहर आ कर जीवन की पहली सांस ले रहा था। मैं बहुत देर तक मां के आगोश में पड़ा रहा। लगा जैसे संकट की घड़ी टल गयी है। अब मैं पूरी तरह सुरक्षित हूं। मां शायद नींद की गोली खा चुकी थीं। उनके मीठे मीठे खर्राटे सुनाई देने लगे। मैं उठा, पंखा तेज़ किया और किसी तरह हांफते हुए सीढ़ियाँ चढ़ गया।

ममता मेरे अल्‍ट्रासाउण्ड, खून की जांच की रिपोर्टों और डाक्‍टर के पर्चों में उलझी हुई थी। मैंने उससे कहा कि वह यह गिलास, यह बोतल नमकीन और बर्फ उठवा ले। आलमारी में आठ दस बोतलें और पड़ी थीं। इच्‍छा हुई अभी उठूँ और बाल्‍कनी में खड़ा हो कर एक एक कर सब बोतलें फोड़ दूँ। एक दो का ज़िक्र क्‍या सारी की सारी फोड़ दूं, ऐ ग़मे दिल क्या करूं? मेरे ज़ेहन में एक खामोश तूफान उठ रहा था, लग रहा था जैसे शख्‍सीयत में यकायक कोई बदलाव आ रहा है। मैं बिस्‍तर पर लेट गया। शरीर एकदम निढाल हो रहा था। वह निर्णय का क्षण था, यह कहना भी गलत न होगा कि वह निर्णय की बैसाखी थी।

किसी शायर ने सही फ़रमाया था कि छुटती नहीं यह काफिर मुँह को लगी हुई। मैं रात भर करवटें बदलता रहा। पीने की ललक तो नहीं थी, शरीर में अल्‍कोहल की कमी ज़रूर खल रही थी। बार बार डाक्‍टर की सलाह दस्‍तक दे रही थी कि यकायक न छोड़ूँ कतरा कतरा कम करूं। मैं अपनी सीमाओं को पहचानता था। शराब के मामले में मैं महालालची रहा हूं। एक से दो, दो से ढाई और ढाई से तीन पर उतरते मुझे देर न लगेगी। मैं अपने कुतर्कों की ताकत से अवगत था। तर्कों-कुतर्कों के बीच कब नींद लग गयी, पता ही नहीं चला। शायद यह ‘ट्रायका' का कमाल था। सुबह नींद खुली तो अपने को एकदम तरोताज़ा पाया। लगा, जैसे अब एकदम स्‍वस्‍थ हूं। तुरन्‍त थर्मामीटर जीभ के नीचे दाब लिया। बुखार देखा-वही निन्‍यानबे दशमलव तीन। पानी में चार चम्‍मच ग्‍लूकोज घोलकर पी गया। जब तक ग्‍लूकोज़ का असर रहता है, यकृत को आराम मिलता है।

बाद के दिन ज्‍यादा तकलीफदेह थे। अपना ही शरीर दुश्‍मनों की तरह पेश आने लगा। कभी लगता कि छाती एकदम जकड़ गयी है, सांस लेने पर फेफड़े का रेशा रेशा दर्द करता, महसूस होता सांस नहीं ले रहा, कोई जर्जर बांसुरी बजा रहा हूं। निमोनिया का रोगी जितना कष्‍ट पाता होगा, उतना मैं पा रहा था। कष्‍ट से मुक्‍ति पाने के लिए मैं दर्शन का सहारा लेता-रवीन्‍द्र कालिया यह सब माया है, सुख याद रहता है न दुःख। लोग उमस भरी काल कोठरी में जीवन काट आते हैं और भूल जाते है। अस्‍पतालों में लोग मर्मांतक पीड़ा पाते हैं, अगर स्‍वस्‍थ हो जाते हैं तो सब भूल जाते हैं। चालीस बरस नशा किया, कल तक का सरूर याद नहीं। क्‍या फायदा ऐसे क्षण भंगुर सुख का। मुझे अश्‍कजी का तकियाकलाम याद आता है-दुनिया फ़ानी है। दुनिया फ़ानी है तो मयनोशी भी फ़ानी है।

एक दिन बहुत तकलीफ में था कि डाक्‍टर अभिलाषा चतुर्वेदी और डा0 नरेन्‍द्र खोपरजी आये। मैंने अपनी दर्द भरी कहानी बयान की। अभिलाषाजी ने कहा, ‘यह सब सामान्‍य है। ये विदड्राअल सिम्‍पटम्‍स हैं, आप को कुछ न होगा, जी कड़ा करके एक बार झेल जाइए। मैं आप को एक कतरा भी पीने की सलाह न दुँगी। मेरी मानिये, अपने इरादे पर कायम रहिए।' डा0 खोपरजी घर से अपना कोटा लेकर चले थे, और महक रहे थे, मेरे नथुनों में मदिरा की चिरपरिचित गंध समा रही थी। मुझे गंध बहुत परायी लगी, जैसे सड़े हुए गुड़ की गंध हो। मुझे उस महक से वितृष्‍णा होने लगी। डाक्‍टर लोग विदा हुए तो मैंने ग़ालिब उग्र मंगवाया और पढ़ने लगा। पढ़ने में श्रम पड़ने लगा तो बेगम अख्‍तर की आवाज़ में ग़ालिब सुनने लगा। ग़ालिब का दीवान, पाण्‍डेय बेचन शर्मा उग्र की टीका और बेगम अख्‍तर की आवाज़। शाम जैसे उत्‍सवधर्मी हो गयी। मैं अपने फेफड़े को भूल गया, दर्द को भूल गया। लेकिन यह वक्‍ती राहत थी, शरीर ने विद्रोह करना जारी रखा।

एक रोज़ में मेरी दुनिया बदल गयी थी। एक दिन पहले तक मैं दफ्‍तर जा रहा था। डाक्‍टर को दिखाने और परीक्षणों के बाद मैं जैसे अचानक बीमार पड़ गया। डाक्‍टरों ने जी भर कर हिदायतें दी थीं। हिदायतों के अलावा उन के पास कोई प्रभावी उपचार नहीं था-ले देकर वही ग्‍लूकोज़। दिन भर में दो ढाई सौ ग्राम ग्‍लूकोज़ मुझे पिला दिया जाता। कुछ रोज़ पहले तक जिस रोग को मैं मामूली हरारत का दर्जा दे रहा था, उसे लेकर सब चिंतित रहने लगे। मालूम नहीं यह शारीरिक प्रक्रिया थी अथवा मनोवैज्ञानिक कि मैं सचमुच अशक्त, बीमार, निरीह और कमज़ोर होता चला गया। करवट तक बदलने में थकान आ जाती। डाक्‍टरों ने हिदायत दी थी कि बाथरूम तक भी जाऊं तो उठने से पहले एक गिलास ग्‍लूकोज़ पी लूं, लौट कर पुनः ग्‍लूकोज का सेवन करूं। डाक्‍टरों ने यह भी खोज निकाला था कि मेरा रक्‍तचाप बढ़ा हुआ है। मैं सोचा करता था कि मेरा रक्‍तचाप मन्‍द है, शायद बीसियों बरस पहले कभी नपवाया था। दवा के नाम पर केवल ग्‍लूकोज़, ट्रायका(ट्रांक्‍यूलाइज़र) और लिव 52 (आयुर्वेदिक)।

एक दिन बाल शैम्‍पू करते समय लगा कि सांस उखड़ रही है। बालों पर शैम्‍पू की गाढ़ी झाग बनते ही सांस उखड़ने लगी। बाथरूम में मैं अकेला था, हाथ-पांव फूल गये। हाथों में बाल धोने कि कुव्‍वत न रही। किसी तरह खुली हवा में बाल्‍कनी तक पहुँचा और वहां रखी कुर्सी पर निढाल हो गया। देर तक बैठा रहा। किसी को आवाज़ देने की न इच्‍छा थी न ताकत। सांस लेने पर महसूस हो रहा था, फेफड़ों में जैसे ज़ख्‍़म हो गये हैं।

शरीर के साथ अनहोनी घटनाओं का यह सिलसिला जारी रहा। डाक्‍टरों का मत था कि यह सब मनोवैज्ञानिक है। एक दिन मैं दांत साफ कर रहा था कि क्‍या देखता हूं कि मुंह का स्‍वाद कसैला-सा हो रहा है। पानी से कुल्‍ला किया तो देखा मुंह से जैसे खून जा रहा हो। अचानक मसूढ़ों से रक्त बहने लगा। मुझे यह शिकायत कभी नहीं रही थी। मैंने सोचा मुंह का कैंसर हो गया है। घबराहट में जल्‍दी जल्‍दी कुल्‍ला करता रहा, दो चार कुल्‍लों के बाद सब सामान्‍य हो गया। अब आप ही बताए, यह भी क्‍या मनोविज्ञान का खेल था? अगर यह खेल था तो एक और दिलचस्‍प खेल शुरू हो गया। सोते सोते अचानक अपने आप टाँग ऊपर उठती और एक झटके के साथ नीचे गिरती। तुरन्‍त नींद खुल जाती। दोनों टांगों ने जैसे तय कर लिया था कि मुझे सोने नहीं देंगी। रात भर टांगों की उठा-पटक चलती रहती और मेरा उन पर नियंत्रण नहीं रह गया था। डाक्‍टरों से अपनी तकलीफ बतलाता तो वे ‘मनोविज्ञान' कह कर टाल जाते अथवा इन्‍हें फकत ‘विद्‌ड्राअल सिम्‍पटम्स' कह कर रफ़ा दफ़ा कर देते। एक दिन पत्रकार मित्र प्रताप सोमवंशी ने फोन पर पूछा कि क्‍या मैं जाड़े में च्‍यवनप्राश का सेवन करता हूँ? ‘हाँ तो' मैंने बताया कि जाड़े में सुबह दो एक चम्‍मच दूध के साथ च्‍यवनप्राश ज़रूर ले लेता था कि भूख न लगे न सही, इसी बहाने कुछ पौष्‍टिक आहार हो जाता था। देखते देखते मुझे भोजन से इतनी अरुचि हो गयी थी कि एक कौर तक तोड़ने की इच्‍छा न होती। किसी तरह पानी से दो एक चपाती निगल लेता था। अन्‍न से जैसे एलर्जी हो गयी थी। बाद में मां ने दलिया खाने का सुझाव दिया। मेरे लिये दूध में दलिया पकाया जाता और सुबह नाश्‍ते के तौर पर मैं वही खाता। आज भी खाता हूँ।

प्रताप ने बताया कि नेपाल से एक बुजुर्ग वैद्यजी आए हुए थे, उन्‍होंने बताया कि ज़्‍यादातर लोगों को इस उम्र में यकृत बढ़ने से पक्षाघात हो जाया करता है, च्‍यवनप्राश का सेवन करने वाले इस प्रकोप से बच जाते हैं। मैंने राहत की सांस ली वरना जिस कद्र मेरी टांगों को झटके लग रहे थे उस से यही आशंका होती थी कि अब अन्‍तिम झटका लगने ही वाला है।

जब से मां मेरे साथ थीं, होम्‍योपैथी का अध्‍ययन करने लगा था। अच्‍छी खासी लायब्रेरी हो गयी थी। मां का वृद्ध शरीर था, कभी भी कोई तकलीफ उभर आती। कभी कंधे में दर्द, कभी पेट में अफारा। घुटनों के दर्द से तो वह अक्‍सर परेशान रहतीं। कभी कब्‍ज और कभी दस्‍त। रात बिरात डाक्‍टरों से सम्‍पर्क करने में कठिनाई होती। मैंने खुद इलाज करने की ठान ली और बाजार से होम्‍योपैथी की ढेरों पुस्‍तकें खरीद लाया। मैडिकल की पारिभाषिक शब्‍दावली समझने के लिए कई कोश खरीद लाया था। होम्‍योपैथी के अध्‍ययन में मेरा मन भी रमने लगा। केस हिस्‍ट्रीज का अध्‍ययन करते हुए उपन्‍यास पढ़ने जैसा आनन्‍द मिलता। कुछ ही दिनों में मैं मां का आपातकालीन इलाज स्‍वयं ही करने लगा। शहर के विख्‍यात होम्‍योपैथ डाक्‍टरों से दोस्‍ती हो गयी। उनका भी परामर्श ले लेता। कुछ ही दिनों में मां का मेरी दवाओं में विश्‍वास जमने लगा। होम्‍योपैथी पढ़ने का अप्रत्‍यक्ष लाभ मुझे भी मिला। बीमार पड़ने से पूर्व ही मैं स्‍नायविक दुर्बलता पर एक कोर्स कर चुका था। शायद यही कारण था कि टांग के झटकों से मुझे ज्‍यादा घबराहट नहीं हो रही थी। मैं खामोशी से अपना समानांतर इलाज करता रहा। बीच-बीच में डाक्‍टर शांगलू से परामर्श ले लेता। यकृत के इलाज के लिए दो औषधियां मैंने ढूँढ निकाली थीं। आयुर्वेदिक पुनर्नवा के बारे में मुझे डाक्‍टर हरदेव बाहरी ने बताया था और होम्‍योपैथिक कैलिडोनियम के बारे में मुझे पहले से जानकारी थी। इन दवाओं से आश्‍चर्यजनक रूप से लाभ होने लगा। अब मैं अपनी तकलीफ के प्रत्‍येक लक्षण को होम्‍योपैथी के ग्रन्‍थों में खोजता। होम्‍योपैथी में लक्षणों से ही रोग को टटोला जाता है। कई बार किसी औषधि के बारे में पढ़ते हुए लगता जैसे उपन्‍यास पढ़ रहा हूं। होम्‍योपैथी में झूठ बोलना भी एक लक्षण है, शक करना भी। पढ़ते पढ़ते अचानक मन में चरित्र उभरने लगते। मैंने तय कर रखा था कि स्‍वस्‍थ होने पर शुद्ध होम्‍योपैथिक कहानी लिखूंगा-शीर्षक अभी से सोच रखा है। जितना पुराना साथ शराब का था उससे कम साथ अपनी पीढ़ी के कथाकारों का नहीं था। अपने साथियों की मैं रग रग पहचानने का दंभ भर सकता हूँ। शायद यही कारण है कि मैंने दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन और काशी के लिए उपयुक्‍त होम्‍योपैथिक औषधियां खोज रखी हैं। कई बार तो किसी महिला मित्र से बात करते करते अचानक यह विचार कौंधता है कि इसे पल्‍सटिला-200 की ज़रूरत है।

अपनी बीमारी के दौरान डाक्‍टरों का मनोविज्ञान समझने में खूब मदद मिली। शहर के अधिसंख्‍य डाक्‍टर मुझ से फीस नहीं लेते थे। घर आकर देख भी जाते थे। उनके क्‍लीनिक में जाता तो ‘आउट आफ टर्न' तुरन्‍त बुलवा लेते। पत्रकार लेखक होने के फायदे थे, जिनका मैंने भरपूर लाभ उठाया। कुछ डाक्‍टर ऐसे भी थे, जो फीस नहीं लेते थे मगर हजारों रुपये के टेस्‍ट लिख देते थे। डाक्‍टर विशेष से ही अल्‍ट्रासाउण्‍ड कराने पर जोर देते। मुझे लगता है, वह फीस ले लेते तो सस्‍ता पड़ता। कमीशन ही उनकी फीस थी।

इसी क्रम में और भी कई दिलचस्‍प अनुभव हुए। एक दिन डाक्‍टर निगम के यहां वज़न लिया तो साठ किलो था, रास्‍ते में रक्‍तचाप नपवाने के लिए दूसरे डाक्‍टर के यहां रुका तो उसकी मशीन ने 58 किलो वज़न बताया। सचाई जानने के लिए कालोनी के एक नर्सिंग होम में वज़न लिया तो 56 किलो रह गया। तीन डाक्‍टरों की मशीनें अलग अलग वज़न बता रही थीं। यही हाल रक्‍तचाप का था। हर डाक्‍टर अलग रक्‍तचाप बताता। करोड़ों रुपयों की लागत से बने नर्सिंग होम्‍स में भी वज़न और रक्‍तचाप के मानक उपकरण नहीं थे। इनके अभाव में कितना सही उपचार हो सकता है, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। आखिर मैंने तंग आकर रक्‍तचाप और वज़न लेने के उपलब्‍ध सर्वोत्तम उपकरण खरीद लिए। एक ही मशीन पर भरोसा करना ज़्‍यादा मुनासिब लगा। एक मशीन गलत हो सकती है मगर धोखा नहीं दे सकती। वज़न बढ़ रहा है या कम हो रहा है, मशीन इतनी प्रामाणिक जानकारी तो दे ही सकती है।

खाट पर लेटे लेटे मैं कुछ ही दिनों में अपने दफ़्‍तर का भी संचालन करने लगा। हिम्‍मत होती तो जी भर कर समाचार पत्र, पत्रिकाएं, साहित्‍य पढ़ता, टेलीविजन देखता और सोता। सुबह शाम मिजाज़पुर्सी करने वालों का तांता लगा रहता। दिल्‍ली से ममता का एक प्रकाशक आया तो मुझे बातचीत करते देख बहुत हैरान हुआ। उसने बताया कि दिल्‍ली में तो सुना था कि आप अचेत पड़े हैं और कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। शहर में भी ऐसी कुछ अफवाहें थीं। मुझे मालूम है कि जिसको आप जितना चाहते हैं, उसके बारे में उतनी ही आशंकाए उठती हैं। कई बार आदमी अपने को अनुशासन में बांधने के लिए स्‍थितियों की भयावह परिणति की कल्‍पना कर लेता है। मगर मैं अभी मरना नहीं चाहता था -स्‍वस्‍थ होकर मरना चाहता था। मुझे लगता था कि इस बीच चल बसा तो लोग यही सोचेंगें कि एक लेखक नहीं, एक शराबी चल बसा। अभी हाल में इन्‍दौर में श्रीलाल शुक्‍ल ने भी ऐसी ही आशंका प्रकट की थी। वह बहुत सादगी से बोले, ‘देखो रवीन्‍द्र, मैं चौहत्‍तर बरस का हो गया हूँ। अब अगर मर भी गया तो लोग यह नहीं कहेंगे कि एक शराबी मर गया-मरने के लिए यह एक प्रतिष्‍ठाजनक उम्र है, क्‍यों?'

चिड़चिड़ेपन से मुझे हमेशा सख्‍त नफरत है। जिन लोगों के चेहरे में चिड़चिडा़पन देखता हूँ, उनसे हमेशा दूर ही भागता हूँ। बीमारी के दौरान मैं यह भी महसूस कर रहा था कि मैं भी किचकिची होता जा रहा हूँ। छोटी सी बात पर किचाइन करने लगता। मेरे पास एक सुविधाजनक जवाब था। अपनी तमाम खामियों को मैं ‘विद्‌ड्राअल सिम्‍पटम्स' के खाते में डाल कर निश्‍चिंत हो जाता। एक दिन वाराणसी से काशीनाथ सिंह मुझे देखने आया। बहुत अच्‍छा लगा कि शहर के बाहर भी कोई खैरख्‍वाह है।

‘अब जीवन में कभी दारू मत छूना।' काशी ने भोलेपन से हिदायत दी। काशी हम चारों में सबसे अधिक सरल व्‍यक्‍ति हैं, मगर मैं उसकी इस बात पर अचानक ऐंठ गया।

‘देखो काशी, मैंने पीना छोड़ा है, इसका निर्णय खुद लिया है। किसी के कहने से पीना छोड़ा है, न शुरू करूंगा।'

काशी स्‍तब्‍ध। उसे लगा होगा, मेरा दिमाग भी चल निकला है। सद्‌भावना में कही गयी बात भी मेरे हलक के नीचे नहीं उतर रही थी। जाने दिमाग में क्‍या फितूर सवार हो गया कि मैं देर तक काशी से इसी बात पर जिरह करता रहा। काशी लौट गया। मुझे बहुत ग्‍लानि हुई। आपका कोई भी हितैषी आप को यही राय देता यह दूसरी बात है कि बहुत से मित्र मुझे बहलाने के लिए यह भी कह देते थे कि जिगर बहुत जल्‍दी ठीक होता है, आश्‍चर्यजनक रूप से ‘रिकूप' करता है, महीने दो महीने में पीने लायक हो जाओगे।

मगर मैं तय कर चुका था कि, अब और नहीं पिऊंगा । इस जिन्‍दगी में छककर पी ली है । अपने हिस्‍से की तो पी ही, अपने पिता के हिस्‍से की भी पी डाली। यही नहीं, बच्‍चों के भविष्‍य की चिन्‍ता में उनके हिस्‍से की भी पी गया। दरअसल मेरे ऊपर कुछ ज्‍यादा ही जिम्‍मेदारियां थीं।

मैंने अत्‍यन्‍त ईमानदारी से इन जिम्‍मेदारियों का निर्वाह किया था। भूले भटके कहीं से फोकट की आमदनी हो जाती, मेरा मतलब है रायल्‍टी आ जाती या पारिश्रमिक तो मैं केवल दारू खरीदने की सोचता। यहां दारू शब्‍द का इस्‍तेमाल इसलिए कर रहा हूँ कि यह एक बहुआयामी शब्‍द है, इसके अर्न्‍तगत सब कुछ आ जाता है जैसे विस्‍की, रम, जिन, वाइन, बियर आदि। इस पक्ष की तरफ मैंने कभी ध्‍यान नहीं दिया कि मेरे पास जूते हैं या नहीं, बच्‍चों के कपड़े छोटे हो रहे हैं या उन्‍हें किसी खिलौने की जरूरत हो सकती है। यह विभाग ममता के जिम्‍मे था। वह अपने विभाग का सही संचालन कर रही थी। मैं पहली फुर्सत में दारू का स्‍टाक खरीद कर कुछ दिनों के लिए निश्‍चिंत हो जाता। घर मे दारू का अभाव मैं बर्दाश्‍त नहीं कर सकता था। मुझे सोना आकर्षित करता था, न चांदी। फिल्‍म में मेरा मन न लगता था, नाटक तो मुझे और भी बेहूदा लगता था । संगीत में मन ज़रूर रम जाता था। देखा जाए तो मद्यपान ही मेरे जीवन की एकमात्र सच्‍चाई थी। मद्यपान एक सामाजिक कर्म है, समाज से कट कर मद्यपान नहीं किया जा सकता। जो लोग ऐसा करते हैं वह आत्‍मरति करते हैं। वे पद्य की रचना तो कर सकते हैं, गद्य की नहीं । मद्यपान से मुझे अनेक शिक्षाएँ मिली थीं। सबसे बड़ी शिक्षा तो यही कि सादा जीवन उच्‍च विचार। यानी सादी पोशाक और सादःलौह जीवन। बहुत से लोगों को भ्रम हो जाता था कि मैं सादःलौह नहीं सादःपुरकार (देखने में भोले हो पर हो बड़े चंचल) हूँ। कुर्ता पायजामा मेरा प्रिय परिधान रहा है। गाँधी जयन्‍ती पर जब खादी भवन में खादी पर तीस पैंतीस प्रतिशत छूट मिलती तो ममता साल भर के कुर्ते पायजामें सिलवा देती। उसे कपड़े खरीदने का जुनून रहता है । अपने लिए साड़ियां खरीदती तो मेरे लिए भी बड़े चाव से शर्ट वगैरह खरीद लाती। मेरी डिब्‍बा खोलकर शर्ट देखने की इच्‍छा न होती। वह चाव से दिखाती, मैं अफसुर्दगी से देखता और पहला मौका मिलते ही आलमारी में ठूंस देता। आज भी दर्जनों कमीजें और अफ़गान सूट मेरी आलमारी की शोभा बढ़ा रहे हैं। मुझे खुशी होती जब बच्‍चे मेरा कोई कपड़ा इस्‍तेमाल कर लेते। अन्‍नू काम करने लगे तो वह भी मां के नक्‍शेकदम पर मेरे लिए कपड़े खरीदने लगा। वे कपड़े उसके ही काम आये होंगे या आयेंगे या मेरी वार्डरोब में पड़े रहेंगे।

विद्‌ड्राअल सिम्‍पटम्‍स के वापिस लौटने से तबीयत में सुधार आने लगा। सब से अच्‍छा यह लगा कि मुझे दारू की गंध से ही वितृष्‍णा होने लगी। शराबी से बात करने पर उलझन होने लगी। शराब किसी धूर्त प्रेमिका की तरह मन से पूरी तरह उतर गयी। शराब देख कर लार टपकना बंद हो गया। मैं आज़ाद पंछी की तरह अपने को मुक्‍त महसूस करने लगा। शारीरिक और मानसिक नहीं, आर्थिक स्थिति में भी सुधार दिखायी देने लगा। एक ज़माना था, शराब के चक्‍कर में जीवन बीमा तक के चैक ‘बाऊंस' हो जाते थे। कोई बीस साल पहले मैंने खेल ही खेल में गंगा तट पर आवास विकास परिषद से किस्‍तों पर एक भवन लिया था। उन दिनों मुझे गंगा स्‍नान का चस्‍का लग गया था। मैं और ममता सुबह सुबह रानीमंडी से रसूलाबाद घाट पर स्‍नान करने आया करते थे। रानीमंडी से रसूलाबाद घाट नौ दस किलोमीटर दूर था, सुबह सुबह मुँह अँधेरे स्‍कूटर पर आना बहुत अच्‍छा लगता। घाट के पास ही मेहदौरी कालोनी थी। उन दिनों फूलपुर में इफ्‍को के एशिया के सबसे बड़े खाद कारखाने का निर्माण चल रहा था। विदेशों से आये विशेषज्ञ मेहदौरी कालोनी में ही ठहराये गये थे। दो एक बरस में ये विशेषज्ञ लौट गये तो सरकार ने इन भवनों का आवंटन प्रारम्‍भ कर दिया। शहर की चहल पहल और हलचल से दूर एकांत स्‍थान पर जा बसने का जोखिम बहुत कम लोगो ने उठाया। मैंने एक हसीन सपना देखा कि गंगा तट पर बैठ कर अनवरत लेखन करूँगा। मन ही मन मैंने सम्‍पूर्ण जीवन साहित्‍य के नाम दर्ज़ कर दिया और नागार्जुन की पंक्‍तियां जेहन में कौंधने लगीः

चन्‍दू, मैंने सपना देखा, फैल गया है सुजश तुम्‍हारा,

चन्‍दू मैंने सपना देखा, तुम्‍हें जानता भारत सारा।

मैंने मन्‍त्री के नाम एक पत्र प्रेषित किया कि हमारे ऋषि मुनि सदियों से पावन नदियों के तट पर बैठ कर साधना आराधना करते रहे हें, मैं भी इसी परम्‍परा में गंगा तट पर साहित्‍य सेवा करना चाहता हूं, मेरा यह संकल्‍प तभी पूरा होगा यदि मेहदौरी कालोनी का एक भवन किस्‍तों पर मेरे नाम आवंटित कर दिया जाय। उन दिनों समाज में लेखकों के प्रति आज जैसा उदासीनता का भाव न था। मेरे आश्‍चर्य की सीमा न रही जब शीघ्र ही भवन के आबंटन का पत्र मुझे प्राप्‍त हो गया। केवल पांच हजार रुपये का भुगतान करने पर भवन का कब्‍जा़ भी मिल गया। शुरू में मैंने साल छह महीने तक निष्‍ठापूर्वक किस्‍तों का भुगतान किया, उसके बाद नियमित रूप से किस्‍तें भरने का उत्‍साह भंग हो गया। ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्‍न थी। बकाया राशि और सूद बढ़ने लगा। लिखना पढ़ना तो दरकिनार, सप्‍ताहांत पर मदिरापान करने के लिए एक रंगभवन आकार लेने लगा। मौज मस्‍ती का एक नया अड्‌डा मिल गया। हम लोग शनिवार को आते और सोमवार सुबह गंगा स्‍नान करते हुए रानीमंडी लौट जाते। ब्‍याज और दण्‍ड ब्‍याज की राशि पचास हज़ार के आसपास हो गयी। यह भवन हाथ से निकल जाता अगर मेरे हमप्‍याला वकील दोस्‍त उमेशनारायण शर्मा, जो बाद में वर्षों तक इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय में भारत सरकार के वरिष्‍ठ स्‍थायी अधिवक्‍ता रहे, मुझे कानूनी मदद न पहुँचाते। मयपरस्‍ती ने ज़िन्‍दगी में बहुत गुल खिलाए। अपने इस इकलौते शौक के कारण बहुत तकलीफें झेलीं, बहुत सी यंत्रणाओं से गुज़रना पड़ा, बकायेदारी के चक्‍कर में कुर्की के आदेशों को निरस्‍त करवाना पड़ा। मगर ज़िन्‍दगी की गाड़ी सरकती रही, एक पैसेंजर गाड़ी की तरह रफ्‍तः रफ्‍तः, हर स्‍टेशन पर रुकते हुए। कई बार तो एहसास होता कि मैं बग़ैर टिकट के इस गाड़ी में यात्रा कर रहा हूँ।


स्टीफन स्वाइग की आत्मकथा (5-अंतिम)


ओमा शर्मा

फ्रायड का साथ और वे स्याह दिन 

माहौल कितना ही गमगीन हो, किसी बडे शख्स से उदात्त नैतिक फलक पर बात करने से दिल को सुकून मिलता है और मन मजबूत हो सकता है. युद्ध से पहले, सिगमंड फ्रायड के साथ बिताये उन यादगार दोस्ताना घंटों ने मुझे यह खुशनसीबी मुहैया करवा दी. हिटलर के वियना में खट रहे उस तिरासी वर्षीय अपाहिज का खयाल कई महीने से मेरे दिमाग में चकरघिन्नी कर रहा था आखिर में राजकुमारी मारिया बोनापार्ट (उसकी सबसे वफादार शार्गिद) इस मनुष्य-श्रेष्ठ को, दमित वियना से निकाल लंदन ले जाने में कामयाब हो गयी1. उस दिन को मैं अपनी जिन्दगी के खुशी के दिनों में शुमार करता हूं जिस रोज मैंने अखबार में पढा कि वे आ गये हैं. मौत के मुँह से लौटे अपने इस परम आदरणीय मित्र को मैं तो कब का खोया हुआ मान बैठा था.
जिस शख्स ने इन्सान की रूह के बारे में हमारे ज्ञान को, दौर में किसी और की बनिस्बत ज्यादा वृहत्तर और गहरा किया, उस महान और सादगी भरे शख्स, सिगमंड फ्रायड के साथ मेरा वियना के उन दिनों से उठना-बैठना था जब उसकी अभी पैमाइश ही की जा रही थी एक अक्खड और दुरूह बौद्धिक इक्लखुरे के रूप में तब उनका विरोध होता था. तमाम सत्यों की सीमाओं से पूरा चैतन्य होते हुए भी वे सत्य के मुरीद थे (एक बार उन्होंने मुझसे कहा ''परम सत्य तक पहुँचना परम शून्य तापक्रम हासिल करने की तरह ही असम्भव है''). सहजवृत्ति के भीतर-बाहर अभी तक के अछूते और निषिद्ध क्षेत्रों में (वही जिन पर दौर ने पावन प्रतिबन्ध लगा रखा था) साहसिक ढंग से हाथ ड़ालने की अपनी निर्विकार आदत के कारण उन्होंने विश्वविद्यालय और उसके अकादमिक आकाओं को अपने से अलग-थलग कर लिया था. आशावादी, उदारवादी दुनिया को अनजाने ही यह लगने लगा कि इस हठीले आदमी का सुभाषित मनोविज्ञान तो सहजवृत्ति को 'तर्क' और 'तरक्की' के मार्फत आहिस्ता-आहिस्ता दबाने-ढकने की उनकी अवधारणा को ही फिजूल करके रख देगा. सहजवृत्ति में जो चीजें खटकती हैं, उन्हें नजरअन्दाज करने के उनके तरीके को वह हर हालत में उभारने-उजागर करने की अपनी तरकीब से चुनौती दे रहा था मगर सिर्फ विश्वविद्यालय या पुरातनपंथी तंत्रिका-विशेषज्ञों (न्यूरोलोजिस्ट्स) का ही गुट नहीं था जो कबाब की हड्डी बने इस ''आउटसाइडर'' का विरोध कर रहा था, बल्कि गये जमाने की सोच, ''मर्यादा'' और पूरी दुनिया ने ही उनके खिलाफ मोर्चा खड़ा कर रखा था. पूरे दौर को ही डर था कि वह उन्हें बेपर्दा कर देगा. डॉक्टरी बहिष्कार के कारण धीरे-धीरे उनका कारोबार2 घटने लगा. मगर उनकी अवधारणाएँ और साहसपूर्ण सिध्दान्त चूँकि वैज्ञानिक तरीके से अखंडनीय थे तो सपनों के बारे में बनाये उनके सिध्दान्त को, वियना के चलन के मुताबिक, उन्होंने व्यंग्योक्ति या सस्ती नुक्क्ड ठिठोली के सहारे रफा-दफा करने की कोशिश की. इस तन्हा शख्स के घर चन्द वफादार लोगों के एक गुट की हफ्ते में एक बार बैठक होती थी. उन्हीं शामों के विमर्श में मनोविश्लेषण का एक नया विज्ञान आकार लेता था फ्रायड के शुरूआती आधारभूत श्रम से धीमे-धीमे निकलने वाले बौध्दिक आन्दोलन के निहितार्थों को समझने से बहुत पहले मैं इस बेमिसाल शख्स की नैतिक ताकत और मेहनत का लोहा मान चुका था. उनमें मुझे किसी नौजवान की कल्पनाओं में बसा विज्ञान का ऐसा चितेरा नजर आता था जिसे बिना सच्चे सबूत के कुछ भी बोलना गवारा नहीं था. मगर अपनी अवधारणा की प्रामाणिकता के बारे में एक बार यदि वह आश्वस्त हो जाये तो फिर पूरी दुनिया के विरोध को ठेंगा दिखा दे. एक ऐसा इन्सान जिसकी निजी तौर पर एकदम मामूली जरूरतें थीं मगर अपने रचे सिद्धान्तों के एक-एक कतरे के लिए अपनी जान पर खेल जाये, उनके अन्तरनिहित सत्य से ताउम्र बन्धा रहे बौद्धिक रूप में उनसे ज्यादा निर्भीक इन्सान अकल्पनीय था जो वह सोचते हमेशा उसी को कहने की हिम्मत करते थे, चाहे पता हो कि उनकी सीधी सपाट बात किसी को खराब लगेगी या अखरेगी. औपचारिक रियायतों में भी उन्हें कभी पगडंडियों की तलाश नहीं होती. मुझे पक्का यकीन है कि अपने विचारों को फ्रायड थोडी सावधानी से परोसने को राजी हो जाते जैसे ''लैंगिकता'' (सेक्सुअलटी) की जगह ''कामुकता'' (इरोटिसिज्म), ''कामलिप्सा'' (लिबीडो) की जगह ''श्रृंगार'' (इरोज) का इस्तेमाल करते और हमेशा अपने निष्कर्षों से चिपके रहने की जिद के बजाय उनकी तरफ इशारा-भर करते, तो उनकी अस्सी फीसदी उपपत्तियों को किसी भी अकादमिक संस्था के समक्ष बेहिचक पेश करना सम्भव हो जाता मगर सिद्धान्त और सत्य की बात आते ही वह जिद पकड लेते विरोध जितना ज्यादा, उनका हौसला उतना ही बुलन्द. मैं अगर नैतिक साहस के एक प्रतीक को खोजने चलूँ ऐसा सांसारिक नायकत्व जो केवल अकेले ही सम्भव है तो मेरे सामने टकटकी लगी थिर, कजरारी आँखोंवाले फ्रायड का ही सुन्दर, पौरूषपूर्ण निष्कपट चेहरा नजर आता है.अपनी जन्मभूमि, जिसे पूरी दुनिया में उन्होंने हमेशा के लिए मशहूर करवा दिया था, से पलायन कर लंदन आते समय वे काफी बूढे हो चले थे काफी बीमार भी थे लेकिन थके-माँदे या ढुलमुल हर्गिज नहीं.
मैंने मन ही मन सोचा था कि वियना में झेली तमाम पीड़ा-प्रताडना ने उन्हें निराशा और कडवाहट से भर दिया होगा. मगर वे मुझे पहले से भी कहीं ज्यादा खुश और खुले-खुले नजर आये वे मुझे लंदन के सीमाने पर बने अपने घर के बगीचे में ले गये और चमकती हँसी बिखेरकर बोले ''क्या मेरे पास इससे बढिया घर कभी था?'' उन्होंने मुझे मिस्र की अपनी वे प्रिय मूर्तियाँ3 दिखायीं जो मारिया बोनापार्ट की बदौलत छुडवायी गयी थीं. ''यह भी तो घर है'' उनकी मेज पर बंडल बँधे कागजों की एक पांडुलिपि रखी थी जिसे तिरासी बरस की उम्र में, अपनी जानी-पहचानी साफ वर्तुल लिखावट में वे हर रोज लिखते थे. आला दिनों के अपने जेहन की तरह ही लकालक और चुस्त बीमारी4, उम्र और कैद को धता बताता उनका मनोबल इन सब चीजों पर इक्कीस पडता था. बरसों की जद्दोजहद से भोंथरी हुई उनकी रहमदिली पहली बार उनके वजूद से खुलकर रिसने लगी थी. उम्र ने उन्हें और नरम दिल कर दिया था इम्तहानों की आँच झेल-झेलकर वे और ज्यादा सहनशील हो गये थे. किसी जमाने में वे मितभाषी थे मगर अब वे अपने जाने-पहचाने अन्दाज में बतियाते अपने बाजू को वे मेरे कन्धे पर टिका देते चश्मे के भीतर से ही उनकी नजरों की चमक और प्रखर हो उठती. गुजरे बरसों के दौरान फ्रायड के साथ हुई गुफ्तगू मुझे हमेशा सुकूनदेह लगती रही थी. उनसे सीखने में भी क्या खूब मजा आता था यह निर्मल विराट आदमी आपके कहे एक-एक शब्द को गले उतारता उनके साथ आप मन का कुछ भी बाँट लो, कुछ भी कह दो, वे न चौंकते न हडबड़ाते दूसरे लोग बेहतर ढंग से चीजों को समझ सकें, महसूस कर सकें, यही उनकी जिन्दगी की चाहत बन गयी थी मगर उस स्याह बरस (जो उनकी जिन्दगी का आखिरी5 था हुई बातचीत की नायाबी का मैं खास तौर से एहसानमन्द था उनके कमरे में घुसते ही लगता जैसे दुनिया का सारा पागलपन तिरोहित हो गया हो हर घोर-दारूण चीज छिन्न-भिन्न होने लगती परेशानी खुद-ब-खुद छँटने लगती बची रहती तो बस मुद्दे की बात किसी वास्तव के महात्मा से यह मेरा पहला साबका था वे अपने से भी बडे हो गये थे दुख या मृत्यु उनके लिए निजी अनुभव की चीज नहीं बल्कि निरीक्षण और चिन्तन का निजतम माध्यम बन गयी थी उनके जीवन की तरह उनकी मृत्यु भी कोई कम बड़ा नैतिक हासिल नहीं थी वे पहले ही उस बीमारी से बुरी तरह पीडित थे जिसने जल्द ही उन्हें हमसे छीन लिया उन्हें देखने से ही लगता था कि मुँह में लगे कृत्रिम तालू से उन्हें बोलने में कितना कष्ट होता है. उनके बोले हर लफ्ज पर हम शर्मसार से हो उठते क्योंकि इससे उन्हें थकान होती थी. मगर वे किसी को खाली नहीं जाने देते अपनी फौलादी रूह के गर्व से, दोस्तों के बीच वे इस बात की मिसाल थे कि शारीरिक कष्टों के मुकाबले उनकी संकल्प शक्ति कहीं ज्यादा ताकतवर थी. दर्द से उनका मुँह विकृत हो जाता. आखिरी दिनों तक वे अपनी डेस्क पर बैठकर लिखते रहे. दर्द ने जब रात की उनकी नींद हराम कर दी वह खूब गहरी नींद जो अस्सी बरस तक उनकी ताकत का प्रमुख जरिया थी, तब भी नींद की गोलियाँ या नशीली दवाएँ लेना उन्हें गवारा नहीं हुआ. पल भर के लिए भी अपने दिमाग की प्रांजलता को वे ऐसे उपचारों से शिथिल नहीं होने देना चाहते थे. चौकन्ना रहने पर दर्द होता है तो हो. कुछ न सोचने की बजाये दर्द बर्दाश्त करते हुए सोचना मन्जूर. मन के आखिरी कतरे तक जांबाज उनका संघर्ष बड़ा विकराल था जो दिनोंदिन और भव्य होता जा रहा था. उनके चेहरे पर मौत की परछांई हर रोज गहराती जा रही थी. गाल पोपले हो गये थे कनपटियाँ पिचक आयी थीं मुँह टेढा पड ग़या होंठों से बोल निकलने में तकलीफ होती बस आँखों की पुतलियाँ ही थीं जिनके सामने मौत बेबस थी और यही वह अविजेय स्तम्भ था जहाँ से वह सिद्ध दिमाग दुनिया पर नजर फेरता था. उनसे हुई अपनी किसी आखिरी मुलाकात में मैं सल्वाडोर ड़ाली6 को अपने साथ ले गया जो मेरे खयाल से युवा पीढी क़ा सबसे प्रतिभासम्पन्न चित्रकार हैं. फ्रायड का बहुत मुरीद मैं जब फ्रायड से बोल-बतिया रहा था तो वह उनका रेखांकन करता रहा. उस रेखांकन को फ्रायड को दिखाने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी क्योंकि बडी अलोकदर्शिता से उसने चित्र में मृत्यु भी दिखा दी थी.
हमारे वक्त के इस कुशाग्र मस्तिष्क की पुख्ता संकल्प-शक्ति का विनाश के विरूद्ध संघर्ष और ज्यादा क्रूर होता गया. जब उन्हें अच्छी तरह एहसास हो गया (स्पष्टता उनकी सोच का सबसे बड़ा गुण थी) कि अब वे न लिख पायेंगे और न कुछ दूसरा काम कर सकेंगे तो, एक रोमन योद्धा की तरह दर्द से निजात के लिए उन्होंने डॉक्टर को इजाजत दे दी7. एक गौरवपूर्ण जीवन का यह एक गौरवपूर्ण पटाक्षेप था. उस खूनी वक्त में हो रहे जन-संहारों के बीच भी यह एक यादगार मौत थी. हम दोस्तों ने उनका ताबूत जब इंग्लैंड की मिट्टी को सौंपा तो हम जानते थे कि अपने वतन के मुताबिक जो हमसे हो सकता था, हमने किया है.
हिटलर की दुनिया के संत्रास और युद्ध को लेकर उन दिनों अकसर मेरी फ्रायड से बातें होतीं. एक मानवतावादी के तौर पर पाशविकता के प्रस्फोट ने उन्हें गहरे दहलाया था मगर एक विचारक के तौर पर वे कतई हैरान नहीं थे, बताने लगे कि उन्हें हमेशा निराशावादी कहकर फटकारा जाता रहा क्योंकि सहजवृत्ति के ऊपर संस्कृति के आधिपत्य का उन्होंने खंडन किया था. मगर उनके इस विचार की बडे ख़ौफनाक ढंग से पुष्टि हो गयी थी कि आदमी के भीतर की बर्बर और मूलतः विनाशकारी वृत्तियों को उखाडक़र नहीं फेंका जा सकता है और ऐसा भी नहीं था कि अपने को सही साबित करने में उन्हें कोई संतोष मिलता था. कम-से-कम लोगों की आम चिन्ताओं के मद्देनजर, आने वाली सदियाँ शायद उन वृत्तियों पर काबू पाने का कोई फार्मूला निकाल लें मगर रोजमर्रा के जीवन और आदमी के भीतर यही सहजवृत्तियाँ पैठी रही हैं, हो सकता है उनकी कोई उपयोगी भूमिका भी हो. यहूदी समस्या और उसकी हाली दुर्दशा से उन दिनों वे और भी परेशान रहते थे मगर उनके विज्ञान के पास इसका कोई फार्मूला नही था. उनके सुलझे दिमाग को इसका कोई समाधान नहीं दिखता था. कुछ दिनों पहले ही मोजेस8 पर लिखी उनकी किताब छपी थी जिसमें उन्होंने उसे एक गैर¬यहूदी मिस्रवासी की तरह पेश किया था. इस कारण धार्मिक यहूदियों और राष्ट्रवादी विचार रखने वाले लोगों में उनकी वैज्ञानिक उपादेयता के प्रति शंकाएँ और भडक़ उठी थीं. यहूदियत के सबसे दारूण वक्त के दौरान ही वह किताब छपवाने पर उन्हें अफसोस होने लगा था. ''उनकी हर चीज छीनी जा रही है तो मुझे भी उनका सबसे आला आदमी लेना पड़ा''. उनकी इस बात से मेरा पूरा इत्तफाक था कि उस मोड पर हर एक यहूदी की सम्वेदना सात गुनी बढ ग़यी थी क्योंकि दुनिया में हो रही तबाही का हर तरफ से असली शिकार तो वही थे. विनाश से पहले ही मारे-मारे फिर रहे उन लोगों को खबर थी कि अनिष्ट चाहे कुछ भी हो, सबसे पहले गाज उन्हीं पर गिरेगी (और वह भी सात गुनी ताकत से). नफरत की सनक से सना एक आदमी खासकर उन्हीं का मान-मर्दन करना चाहता है, उन्हें उजाडक़र दुनिया से नेस्तनाबूद कर देना चाहता है. हर सप्ताह और महीने, शरणार्थियों की तादाद बढने लगी. उनका हर जत्था पिछले की तुलना में और ज्यादा दरिद्र और भयाकुल होता. जिन लोगों ने आनन-फानन में ही जर्मनी और ऑस्ट्रिया को छोड दिया था, वे तो फिर भी अपने साथ कुछ लत्ते-कपडे और घर-बार का माल-सामान ले आये थे, कुछ लोग रोकड़ा भी बचा लाये थे मगर जिन लोगों ने जर्मनी पर जितनी ज्यादा देर भरोसा किया, खुद को अपनी प्यारी जन्मभूमि से छिटकने में जितनी ज्यादा अनमन की, उसे उतनी ही ज्यादा सख्त सजा भुगतनी पडी. यहूदियों को पहले उनके काम-काज से बेदखल किया गया. थिएटर, सिनेमाघर और संग्रहालयों के दरवाजे उनके लिए बन्द हो गये. उनके पढे-लिखे लोगों की लाइब्रेरियाँ हराम हो गयीं वे फिर भी रूके रह गये थे तो केवल अपनी वफादारी, सुस्ती, बुजदिली या शान के कारण परदेश में भिखारियों की तरह अपने को बेइज्जत कराने से अच्छा उन्हें यही लगा कि अपनी ही धरती पर बेइज्जत हों. वे नौकर-चाकर नहीं रख सकते थे. उनके घरों से रेडियो-टेलिविजन छीन लिये गये और बाद में घरों को ही छीन लिया गया. उन्हें डेविड का स्टार9 पहने रहना होता ताकि उन्हें अलग से पहचाना जा सके, कोढियों की तरह उनसे बचा जा सके, उनकी खिल्ली उड़ायी जा सके, उन्हें दुत्कारा-फटकारा जा सके. उनका हर हक छीन लिया गया. हर तरह की मानसिक और शारीरिक क्रूरता उन पर बडे चुहुल परपीडन से आजमाई जाती. ''भिखारी की गठरी और जेल से कोई बच न पायेगा''.यह पुरानी रूसी कहावत अचानक ही हर यहूदी का क्रूर सत्य बन गयी जो कोई वहाम् से नहीं गया, उसे यातना शिविर में झोंक दिया गया, जिसका जर्मन अनुशासन ऊँची से ऊँची नाकवाले की भी कमर तोड ड़ालता. उसके बाद सब तरफ से लुटे-पिटों को बिना कुछ सोचे सीमा के बाहर खदेड दिया जाता उनकी कमर पर लदी होती एक अटैची और जेब में होते दस क्राउन वे दूतावासों पर गुहार करते मगर हमेशा खाली हाथ लौटते क्योंकि रग-रग तक लुटे-पिटे नवागंतुकों, भिखारियों को कौन देश घास ड़ालता? लंदन की एक ट्रेवल ब्यूरो में दिखे एक नजारे को मैं कभी नहीं भूल पाता. वहाँ शरणार्थियों का ताँता लगा था तकरीबन सारे यहूदी हरेक को जाने की पडी थी, जगह चाहे कोई हो सहारा के टुंड्रा प्रदेश से लेकर धु्रवीय शीत प्रदेश, कुछ भी चलेगा बस दूसरा प्रदेश हो, वे कहीं भी जाने को तैयार क्योंकि कामचलाऊ वीजा की म्याद खत्म हो जाने के बाद उन्हें अपने बीवी-बच्चों को लेकर कहीं तो जाना था जहाँ दूसरी जुबान बोली जाती थी उन लोगों के बीच जो उन्हें जानते तक नही और जो उन्हें अपनाने को राजी नहीं वहाँ मुझे वियना से आया एक समय खूब समृद्ध रहा उद्योगपति मिला. कभी वह हमारा एक समझदार कला संग्रहक हुआ करता था. वह इतना बूढा, भदैला और मरियल लग रहा था कि पहले तो मैं उसे पहचान ही नहीं पाया. निस्तेज हाथों से वह मेज से सटा पड़ा था. मैंने उससे पूछा कि वह कहाँ जा रहा है तो उसने कहा ''पता नहीं इन दिनों हमारी मर्जी को पूछता कौन है जहाँ जगह मिल जायेगी, चले जायेंगे. कोई बता रहा था कि यहाँ से मुझे शायद हैटी10 या सेन डोमिनगो का वीजा मिल जाये'' एक पल को तो मेरा दिल बैठ गया अपने पोतों-परपोतों को साथ लिये एक निचुड़ा-मुचड़ा बुढऊ दिल थामकर किसी ऐसे देश जाने की उम्मीद कर रहा है जिसे कल तक वह नक्शे में नहीं ढूँढ सकता था और वह भी किसी अजनबी की तरह बेमकसद भटकने और भीख माँगने के लिए. उसके बगलगीर ने बडी ज़िज्ञासु हताशा में पूछा कि शंघाई कैसे जाया जाये क्योंकि उसे खबर लगी थी कि शरणार्थियों के लिये चीन के दरवाजे अभी भी खुले थे. अभी तक रहे विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, बैंकर्स, कारोबारी, जमींदार, संगीतकार वहाँ सभी का जमघट था. अपने अस्तित्व के दयनीय घूरे को जल-थल में कहीं भी घसीटने को तत्पर मगर जाना बाहर है, यूरोप के बाहर बड़ा दारूण जमघट था मगर मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ इस बात से हो रही थी कि ये पचासेक पीडित तो पीछे आ रहे पचास-सौ लाख लोगों के हुजूम की चोंच भर हैं जो आगे चलने के लिए पीछे कहीं तंबू ताने पडे होंगे. वे बेशुमार लोग जिन्हें पहले लूटा गया, फिर युद्ध ने रौंदा वे जो आस लगाये थे कि धर्मार्थ संस्थाएँ कुछ मदद कर देंगी, अधिकारिक परमिट मिल जायेंगे और गुजारा करने का जुगाड बैठ जायेगा. हिटलरी जंगली आग से बचने के लिए लोगों का हुजूम बदहवास भागे जा रहा था. हर यूरोपिय सरहद के रेलवे स्टेशन खचाखच हो गये, जेलें भर गयीं. यह निष्कासित जाति वही थी जो किसी राष्ट्रीयता से वंचित थी मगर एक ऐसी जाति जिसने दो हजार वर्ष, दर-बदर की भटकन रोकने से ज्यादा और कुछ नही माँगा ताकि वह इस धरती पर अमन-चैन से बसर कर सके.
बीसवीं सदी की इस यहूदी त्रासदी की सबसे त्रासद बात यह थी कि इसके भुक्तभोगी जानते थे कि इसकी कोई तुक नहीं है और वे बेकसूर हैं. मध्यकाल में उनके दादों-परदादों को कम से कम यह खबर तो थी कि उन्हें किस बात की सजा मिल रही है. उनकी आस्था के लिए, उनके कानून के लिए उनके पास अपनी आत्मा का वह ताबीज यानी उन्हें अपने भगवान में वह अटूट आस्था तो थी जिसे आज की पीढी कब का गँवा चुकी है. वे इस गर्वित तृष्णा में मर-जी रहे थे कि भगवान ने उन्हें खास नियति और खास मकसद के लिए चुना है बाइबल का वायदा ही उनके लिए कानून की कमान थी. चिता पर चढते वक्त भी वे अपने पवित्र ग्रंथ को सीने से लगाकर जपते रहते अपनी अन्दरूनी आग के बरक्स बाहर की खूनी लपटें उन्हें कम चुभती थीं जमीं दर जमीं दुरदुराए उन लोगों का अभी एक ठिकाना तो महफूज था ही भगवान का ठिकाना जहाँ से कोई दुनियावी ताकत, कोई राजा-बादशाह, कोई अदालत उन्हें बेदखल नहीं कर सकती थी. जब तक उनके बीच धर्म की डोर बँधी थी, वे एक बिरादरी के थे और यही उनकी ताकत थी. जब वे अलग-थलग हो गये और निष्कासित कर दिये गये तब वे अपनी गलती का प्रायश्चित करने लगे कि अपने धर्म और रीति-रिवाजों के चलते क्यों वे एक-दूसरे से अलग हो गये. मगर बीसवीं सदी के यहूदी तो अरसे से ही एक-दूसरे के साथ नहीं रह रहे थे, उनकी कोई आस्था साझी नहीं थी. किसी शान की बजाये यहूदी धर्म उन्हें एक बोझ अधिक लगता था. न ही वे उसके किसी मिशन से बाखबर थे. अपने पवित्र धर्मग्रंथ की शिक्षाओं से वे कोसों दूर रहते अपने आसपास के लोगों के साथ खूब मिल-जुलकर उन्हीं की तरह बसर करना उनका मकसद था ताकि उत्पीडन से निजात मिल सके इसलिए एक समुदाय के सरोकार दूसरे के पल्ले नहीं पडते थे. दूसरों की जिन्दगी में वैसे ही घुलमिलकर अब वे यहूदी कम, फ्रांसीसी, जर्मन, अंग्रेज और रूसी ज्यादा हो गये थे. वो तो अब कहीं जाकर जब गली के गन्द की तरह समेटकर उनका ढेर लगा दिया गया बर्लिन के महलों के बैंकर्स और सिनेगॉग में घंटी बजाने वाले पंडे, पैरिस में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर और रूमानिया के टैक्सी चालक, शवयात्रा संचालक के सहायक और नोबेल पुरस्कार विजेता, कन्सर्ट गायक और भाडे क़े मातमी, लेखक और मद्य-आसवक , अमीर और गरीब, बडे और छोटे, धार्मिक और उदारवादी, हडपखोर और ज्ञानी, इकलखुरे और मिलनसार, अस्कीनाजिम और सीफार्डिम, कायदेसर और बेकायदेसर के अलावा बपतिस्मा किये और नीम¬यहूदी लोगों का ऐसा गड्डमड्ड झुंड भी था जो बरसों से ही इसके अभिशाप से बचता आया था तब जाकर सैकडों बरस बाद यहूदियों को अपनी एक बिराददी के रूप में रहने का मजबूरन खयाल आया मगर यह बदनसीबी केवल और हमेशा उन्हीं के मत्थे क्यों? इस वाहियात उत्पीडन का कोई कारण, अर्थ या उद्देश्य? उन्हें दूसरा वतन मुहैया कराये बगैर ही जलावतन किया जा रहा था. उन्हें एक जगह से बेदखल तो किया जा रहा था मगर यह नहीं बतलाया जा रहा था कि वे कबूल कहाँ होंगे? उन्हें दोषी तो ठहराया जा रहा था मगर उन्हें प्रायश्चित करने की छूट नहीं दी जा रही थी. इसलिए पलायन के अपने रास्ते में वे एक-दूसरे को टीस भरी नजरों से देखते, मानो कह रहे हों : मैं ही क्यों? तुम ही क्यों? आपस में हम एक-दूसरे को जानते नहीं, हमारी जुबान अलग, सोच अलग, हमारे बीच कुछ भी तो एक-सा नहीं फिर हम ही क्यों इस नियति को भुगत रहे हैं? जवाब मगर किसी के पास नहीं होता इस दौर को सबसे होशियारी से समझने वाले फ्रायड भी भौचक थे जिनसे उन दिनों मेरी खूब बातें होती थीं, निरर्थक से वे भी क्या अर्थ निकालते और कौन जाने कि यह यहूदीवाद के रहस्यमय ढंग से बचे रहने के पीछे जोब 12 की भगवान के आगे की गयी उस शाश्वत रूदाली की पुनरावृत्ति ही हो ताकि उसे दुनिया में कोई बिसरा न दे. (hindisamay.com से साभार)

स्टीफन स्वाइग की आत्मकथा-4


ओमा शर्मा

रिचर्ड स्ट्रॉस और 'खामोश औरत' का किस्सा

जर्मनी में अपने लेखकीय अस्तित्व के संपूर्ण विध्वंस के नसीब को थामस मान, हाइनरिख मान, वर्फेल, फ्रायड, आइंस्टीन जैसे उत्कृष्ट समकालीनों के साथ शेयर करने की छूट को मैंने असम्मान के बजाय अपना सम्मान अधिक समझा इन जैसे दूसरे कइयों के अवदान को मैं अपने से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण समझता हूं किसी तरह का शहादताना संकेत देना मेरे गले नहीं उतरता है. इसलिए इन सबके साथ खुद को मैं बडे बेमन से शामिल कर रहा हूं लेकिन क्या अजीब संयोग कि नेशनल सोशलिस्टों और एडोल्फ हिटलर तक को जाती तौर पर शर्मसार स्थिति में ड़ालना मेरे हिस्से ही बदा था बर्शेटेसगार्डन कस्बे के ऊँचे लोगों के बीच लंबी-तगडी और गरमागरम बहसों का छीका, साहित्यिक बहसों में बार-बार मेरे सिर पर ही फूटना था नतीजतन, आधुनिक काल के सबसे ताकतवर शख्स एडोल्फ हिटलर को नाखुश करने का मुझे फुरफुरा संतोष है जिसे मैं जिंदगी की दूसरी खुशगवार चीजों के साथ दर्ज कर सकता हूं.
नयी हुकूमत के बहुत शुरूआती दिनों में, बडे अनजाने ही मेरी वजह से बवाल-सा मच गया मेरी कहानी 'द बर्निंग सीक्रेट' पर उसी नाम की फिल्म बनी थी जिसे पूरे जर्मनी में दिखाया जा रहा था किसी ने उस पर रत्तीभर एतराज नहीं जताया मगर राइशटेग की आग के अगले रोज (नेशनल) सोशलिस्टों ने खामखां ही उसकी जिम्मेवारी कम्युनिस्टों के मत्थे मढने की कोशिश की थी, देखने में आया कि थिएटर में लगे इस्तिहार के नीचे लोग एक दूसरे को धकमपेल कर रहे हैं, नैन मटका रहे हैं, खिलखिला रहे हैं जीस्टेपो को समझने में ज्यादा देर नहीं लगी कि इस नाम में क्या चीज हास्यप्रद है क्योंकि शाम तक तो पुलिस वालों का जमघट हो गया था फिल्म के प्रदर्शन पर पाबंदी लगा दी गई और अगले रोज तो सभी अखबारों, विज्ञापनों और पोस्टरों से मेरी कहानी का शीर्षक 'द बर्निंग सीक्रेट' नामोनिशां छोडे बगैर गायब हो गया. उनके लिए बहुत आसान था कि चिढाने वाले किसी भी लफ्ज पर पाबंदी लगा दें या, उन किताबों को ही जला-फाड दें जिनके लेखक उन्हें नापसंद हों मगर एक खास मामले में वे मुझ अकेले का नुकसान नहीं कर पाये साथ-साथ उस आदमी को भी नुकसान उठाना पड़ा जिसकी दुनिया के सामने अपनी प्रतिष्ठा की खातिर, उन्हें सबसे ज्यादा जरूरत थी यह थे जर्मन राष्ट्र के सबसे बडे ज़ीवित संगीतकार रिचर्ड स्ट्रॉस जिनकी संगत में मैंने तभी एक ओपेरा पूरा किया था.
रिचर्ड स्ट्रॉस के साथ यह मेरी पहली जुगलबंदी थी 'इलेक्ट्रा - 2 ' और 'रोजेनकैवेलियर' के जमाने से ही ह्यूगो फान हाफमंसथाल ने उनके सभी ओपेरा पाठ लिखे थे निजी तौर पर कभी रिचर्ड स्ट्रॉस से मैं तो कभी मिला नहीं था हाफमंसथाल की मौत के बाद उन्होंने मेरे प्रकाशक को सूचित किया कि वे एक नयी प्रस्तुति शुरू करना चाहते हैं और तफतीश की कि क्या उनके लिए ओपेरा पाठ लिखने का मेरा मन है इस पेशकश के सम्मान की मुझे खूब खबर थी मैक्स रीगर द्वारा अपनी शुरूआती कविताओं को संगीतबद्ध किए जाने के जमाने से ही मैं संगीत और संगीतकारों के बीच उठता-बैठता आया था बुसौनी तोस्कानिनी, बू्रनो वाल्टर और अल्बन बर्ग के साथ मेरी करीबी दोस्ती थी हान्डल से लेकर बाख और बीथोविन से चलकर हमारे जमाने के ब्रहम्स तक के सिद्धहस्त संगीतकारों की शानदार परंपरा की वे आखिरी कडी थे. रिचर्ड स्ट्रॉस से बेहतर सृजनात्मक संगीतकार और कौन हो सकता था जिसके साथ मैं खुशी-खुशी काम करना चाहता. मैंने तुरंत हामी भर दी. पहली मुलाकात में ही मैंने बेन जोन्सन की 'द साइलेंट वोमेन' के थीम को ओपेरा का आधार बनाने का मशविरा दिया. जितनी फुर्ती और साफगोई से रिचर्ड स्ट्रॉस ने मेरे सुझावों पर दिल छिडक़ा, उसे देखकर मुझे बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि उनके पास कला के प्रति ऐसी चौकन्नी निगाह और नाटयकला का ऐसा चौंकाने वाला ज्ञान होगा अभी उन्हें चीजों की फितरत समझाई ही जा रही थी कि नाटयांतरण के लिहाज से उन्होंने उसे ढालना-सँवारना और हैरतन ढंग से अपनी काबिलियत जिसके प्रति वे अलौकिक रूप से सचेत थे, की हदों से ताल-मेल बैठाना भी शुरू कर दिया. जिंदगी में मेरा बहुत सारे बडे क़लाकारों से वास्ता पड़ा है मगर ऐसा कोई नहीं था जिसे खबर हो कि अपने प्रति अमूर्त और अचूक वस्तुपरकता कैसे बनाए रखी जाए. हमारी मुलाकात के पहले घंटे में ही स्ट्रॉस ने खुलेआम कबूल किया कि सत्तर की उम्र में उनकी झोली में संगीत की वैसी प्रेरणाएं नहीं बची हैं जिनका कभी जलवा जवान था 'शेखचिल्ली होने तक' (टिल यूलेनस्पीगल) और 'मौत और रूपांतरण' (ट्रांसफिगरेशन) जैसी स्वरलहरियाँ (सिम्फनी) रचने में वे शायद ही कामयाब हो पाएँ क्योंकि विशुद्ध संगीत को चरम सृजनात्मक ताजगी चाहिए होती है लेकिन अल्फाज उन्हें अभी भी गुदगुदाते थे. ठोस शक्ल की कोई चीज, ऐसा पदार्थ जिस पर पाड बँध चुकी हो, उन्हें पूरे नाटयांतरण के लिए ललचाती थी क्योंकि हालात और अल्फाज से खुद-ब-खुद उन्हें संगीत के थीम सूझते थे. बाद के बरसों में इसीलिए वे अपना पूरा वक्त ओपेरा में ही लगा रहे थे. उन्होंने कहा कि वे मानते हैं कि कला-प्रस्तुति के रूप में ओपेरा के दिन लद गए हैं वैगनर तो ऐसा शिखर था कि उससे आगे कोई जा ही नहीं सकता अपनी चौडी बावेरियाई खीस के साथ वे बोले ''मगर मैंने समस्या सुलझाई, उसके आसपास एक घुमावदार रास्ता निकालकर'' जब हम मसौदे पर राजी हो गए तो उन्होंने मुझे छुटपुट हिदायतें दीं वे चाहते थे कि मैं बेखटक होकर लिखूँ क्योंकि विरदी ओपेरा पाठ के बाद किसी बनी-बनाई किताब ने उन्हें कभी नहीं गुदगुदाया उन्हें तो बस ऐसे काम में रस आता है जो काव्यात्मक ढंग से सँवारा गया हो. मैं यदि किसी जटिल प्रभाव की रचना मुहैया करा सकूँ तो भी उन्हें मुफीद रहेगा क्योंकि इससे उन्हें अलग मिजाज इस्तेमाल करने की गुंजाइश मिल जाएगी ''मैं मोजार्ट जैसी लंबी धुनें नहीं बनाता छोटे-छोटे कथानकों से आगे मैं जा ही नहीं सकता मगर मैं इनका इस्तेमाल जरूर कर सकता हूं .उनके भावानुवाद की मार्फत उनका पूरा अर्क निकाल सकता हूं और मैं नहीं समझता कि इसमें आज कोई मेरे मुकाबिल हो सकता है'' उनकी साफगोई से मैं एक बार फिर हक्का-बक्का रह गया क्योंकि यह बिल्कुल सही है कि स्ट्रॉस की शायद ही कोई धुन चंद तालों से लंबी होगी मिसाल के तौर पर 'रोजेनकैवेलियर' के संगीत को ही लो यही चन्द ताल मिलकर कैसे समृद्ध सुकून का दो-गाना बन जाते हैं
अपनी रचनाओं को वह बुढऊ उस्ताद जिसे निस्संदेह और निष्पक्षता से आँकते थे इस बाबत अगली मुलाकातों ने उनके प्रति मेरी इज्जत और पुख्ता कर दी साल्जबर्ग नाटय उत्सव में उनकी 'मिस्र की हैलेना'की निजी रिहर्सल के मौके पर मैं उनके साथ अकेला बैठा था दूसरा और कोई नहीं निबिड अँधेरी जगह स्ट्रॉस ध्यान से सुनते रहे फिर एकाएक बेसब्री में अपनी ऊँगलियों से उन्होंने कुर्सी के हत्थे पर कानफोडू शोर निकालना शुरू कर दिया फिर मुझसे फुसफुसाए ''खराब, एकदम खराब वह जगह सूनी पडी है''..... कुछ पल बाद फिर बोले ''इसे भी निकाल फेंका जाए, हे भगवान, वह तो एकदम खोखली है लंबी है, बहुत ज्यादा लंबी है'' फिर कुछ देर बाद..... ''तुम देखो, वो ठीक है . अपने ही संगीत का वह ऐसा वस्तुपरक और निरपेक्ष आंकलन करते जैसे उसे पहली दफा सुन रहे हों; गोकि उसके रचयिता से अनजान हों अपनी क्षमताओं के इस विस्मयकारी बोध ने उन्हें कभी दगा नहीं दिया अपनी हैसियत और अहमियत का उन्हें हमेशा मुकम्मल एहसास रहता खुद के बरक्स दूसरे कहाँ ठहरते हैं इससे उन्हें वास्ता नहीं था या था भी तो उतना ही जितना दूसरों को उनसे होगा बस, सृजन से ही उन्हें आनंद मिलता था
और स्ट्रॉस के काम करने का तरीका था भी काफी निराला कुछ भी महिमामंडन नहीं कलाकारों जैसा कोई फितूरी उल्लास नहीं अवसाद और निराशा के जो किस्से हमने बीथोविन और वैगनर के बारे में सुन रखे थे, ऐसा-वैसा भी कुछ नहीं स्ट्रॉस एकटक होकर काम करते हैं और धुन बनाते हैं जॉन सैबस्टियन बाख की तरह 5 अपनी कला के उन तमाम उदात्त शिल्पियों की तरह चुपचाप और सिलसिलेवार सुबह नौ बजे वह गए रोज के अधूरे काम को आगे बढाने बैठेंगे धुन के पहले मसौदे को हमेशा पेंसिल से लिखते हैं और पियानों के गीत को स्याही से यह सब बेनागा दोपहर बारह या एक बजे तक चलता है. दोपहर बाद वे पत्तों का जर्मन खेल 'स्कैट' खेलते हैं, धुन के दो-तीन पन्नों को अंतिम रूप देते हैं और शाम को ओपेरा संचालित करते हैं. तमकना क्या होता है, वे बेखबर हैं दिन हो या रात, उनका कलाकार मन चौकस चहकता रहता है उनका नौकर जब शाम की पोशाकें लेकर दरवाजे पर दस्तक देता है तब वे काम से उठ जाते हैं. कपडे पहने और थिएटर की तरफ गाडी रवाना और वहाँ उसी विश्वास और शांतभाव से संगीत संचालन करते हैं, जिससे दोपहरिया में वे 'स्कैट' के पत्ते खेलते हैं, अगली सुबह अंतःप्रेरणा फिर उनकी गोदी में आ बैठेगी. गेटे के शब्दों में कहूं तो स्ट्रॉस अपनी कल्पनाओं पर 'पकड' रखते हैं. उनके लिए कला का मतलब है जानना, सब कुछ जानना. ठिठोली में उन्होंने जतलाया भी ''कोई अगर सच्ची का संगीतकार बनना चाहता है तो उसमें साग-भाजी के नाम की फेहरिस्त तक को सुरों में साधने की कूवत होनी चाहिए''.
डराने के बजाय मुश्किलें उसकी रचनात्मक उस्तादी को और फुरफुराती हैं. मुझे याद करते हुए खुशी होती है कि किसी मुखडे क़े बारे में बताते हुए उनकी आँखें हुमस से कैसी चमक उठती थीं. ''मैंने गायिका को लोहे का चना चबाने को दे दिया है फोडने के लिए करने दो उसे जमीन-आसमान एक करने की मशक्कत'' ऐसे विरल क्षणों में उनकी आँखें चमक उठतीं तो लगता इस लाजवाब शख्स के भीतर एक अलौकिक एकांत है. उसकी समयनिष्ठा, सिलसिलेवार तरीका, उसकी प्रतिष्ठा, उसका हुनर और काम के दौरान उसकी बेफिक्र भंगिमा को देख पहले-पहल किसी को बदगुमानी हो जाए. वैसे ही जैसे उसके गोल-मटोल मामूली चेहरे के बच्चों से गाल, नैन-नक्स की बेहद मामूली गोलाई और शर्माती सिकुडती भवें पहले-पहल किसी को मोह लें लेकिन उनकी नीली, कान्तिमय इन्हीं चमकीली आँखों में कोई एक बार झाँक ले तो उस बुर्मुआजी मुखौटे के पीछे के किसी जादू का एहसास कर ले. किसी संगीतकार की मेरी देखी वे शायद सबसे भव्य-चैतन्य आँखें होंगी जो अलौकिक न सही पर कहीं न कहीं अलोकदर्शी हैं उस आदमी की आँखें जो अपने सृजन की पूरी अहमियत से वाकिफ हो.
इतनी प्रेरणाप्रद मुलाकात के बाद साल्जबर्ग लौटकर मैंने तुरन्त काम शुरू कर दिया. मेरे लिखे छंदों को उनके विचारों की सम्मति मिल पाएगी, इस बारे में मैं स्वयं उत्सुक था इसलिए दो हफ्ते के अंदर ही मैंने उन्हें पहला भाग भेज दिया 'द मीस्टर सिंगर' को उद्धृत करते हुए उन्होंने फौरन लिखा, ''पहली ॠचा कामयाब हुई''. दूसरे भाग के बारे में उनकी राय और भी तबीयत भरी थी गीत के बोलों ''ओ मेरे दुलारे बच्चे, मिल गया जो तू मुझे'' पर उनके आनंद और उत्साह ने काम करने में मेरे तईं बेशुमार खुशी भर दी. स्ट्रॉस ने मेरे ओपेरा पाठ की एक लाइन भी नहीं बदली बस उसके पूरक के लिहाज से तीन-चार लाइनें और जोडने को कहीं इस तरह हमारे दरमियाँ बडे ज़िगरी ताल्लुक कायम हो गए वे हमारे घर आए और मैं उनसे मिलने गारमिश जाता जहाँ अपनी लंबी पतली उंगलियों से, स्कैच के सहारे, पिआनो पर वे आहिस्ता-आहिस्ता मेरे लिए पूरी ओपेरा धुन बजाते बिना किसी शर्त या बंदिश के हमने यह मान-स्वीकार लिया था कि इस ओपेरा के बाद मैं दूसरे ओपेरा की तैयारी में जुट जाऊँ जिसकी योजना उन्होंने पहले ही मंजूर कर दी थी.
1933 की जनवरी में जब हिटलर ने सत्ता संभाली तो हमारे ओपेरा ''खामोश औरत'' की धुन पूरी हो चुकी थी. उसका पहला भाग लगभग मंचित हो चुका था. चंद हफ्ते बाद जर्मनी के थिएटरों को सख्त आदेश जारी किया गया कि वे किसी गैर आर्य की कोई रचना मंचित नहीं करें कोई यहूदी उसमें शामिल-भर हो, तब भी नहीं. यह व्यापक पाबंदी मुर्दों तक पहुँच गयी. हर तरफ संगीत-प्रेमियों को बेइज्जत करते हुए मेंडलसॉ के बुत को लीपसिग में गेवनहाउस के सामने से हटा दिया गया. मुझे लगा, अब तो हो लिया. अपना ओपेरा कहने की जरूरत नहीं थी कि उस पर आगे के काम को रिचर्ड स्ट्रॉस खारिज कर देंगे और किसी और के साथ दूसरा शुरू करेंगे. उल्टे उन्होंने मुझे चिट्ठियाँ लिख-लिखकर गुहार की कि मुझे क्या हो गया है. उन्होंने बतलाया कि वह पहले की प्रस्तुतियों में लगे हुए हैं इसलिए चाहते हैं कि मैं अगले ओपेरा के लेखन में लग जाऊँ. वह किसी को इजाजत नहीं देंगे कि हमारी जुगलबंदी नहीं हो और मैं मानता हूं कि पूरे वाकये के दौरान जहाँ तक बन पड़ा उन्होंने मुझ पर यकीन बनाए रखा इसी के साथ उन्होंने ऐसे कदम भी उठाए जो मुझे कम-पसंद थे यानी उन्होंने सत्तासीन लोगों की पैरवी की. कई बार हिटलर, गोरिंग और गोएबल्स से मिले और ऐसे वक्त जब फूर्तव्यूंगलर तक में विद्रोह भडक़ा हुआ था, उन्होंने खुद को नाजियों के संगीत सदन का अध्यक्ष बन जाने दिया.
इस मकाम पर स्ट्रॉस की खुलेआम भागेदारी नेशनल सोशलिस्टों के लिए बडे अहम की चीज थी. अव्वल लेखकों और बडे-बडे संगीतकारों ने उन्हें सरासर दुत्कार दिया था. जो थोडे बहुत उनके साथ चिपके रहे या चौहद्दी पर बैठने आए, जन-साधारण के लिए तो अनजान ही थे. ऐसे शर्मसार वक्त में, ऊपरी साज-सज्जा के लिहाज से, जर्मनी के सबसे मशहूर संगीतकार को अपने पाले में लेना गोएबल्स और हिटलर की बहुत बडी ज़ीत थी. स्ट्रॉस ने मुझे बताया कि अपनी आवारगी के दिनों में हिटलर ने इतना धन जोड लिया था कि ग्राज में 'सलोम' का प्रीमियर देखने आया था हिटलर दिखा-दिखाकर उनका सम्मान कर रहा था. बर्शेस्टगेडन की उत्सव-संध्याओं पर वैग्नर के अलावा स्ट्रॉस के गाने ही तकरीबन पूरी तरह बजते थे मगर स्ट्रॉस का सहयोग ज्यादा मतलबपरक था जिसे अपने कला अहूं के बावजूद वह खुले तौर पर स्वीकारते थे हुकूमत चाहे कोई हो, उसके प्रति वह अंदर से बेमने ही रहते वादक के तौर पर उन्होंने जर्मन काइजर को अपनी सेवाएँ दी थीं उसके लिए फौजी रवायतों का इंतजाम किया था. बाद में उन्होंने ऑस्ट्रिया बादशाह के सरकारी वादक के तौर पर वियना में भी काम संभाला. ऑस्ट्रिया और जर्मनी, दोनों ही गणराज्यों में उन्हें एक-सा सरकारी संरक्षण हासिल था. इसके अलावा नेशनल सोशलिस्टों की सोहबत उठाना उनके बडे अहम हित की बात थी क्योंकि नेशनल सोशलिस्टों के हिसाब से तो उँगली उनकी तरफ भी उठ सकती थी, उनके बेटे ने एक यहूदी लडक़ी से ब्याह किया था. उन्हें डर था कि उनके पोतों को स्कूल में मैल की तरह अलग न छिटक दिया जाए, उन्हीं को तो वे दुनिया में सबसे ज्यादा चाहते थे. उनका नया ओपेरा मेरी वजह से दागी हो गया था और इसके पहले वाला ओपेरा नीम¬यहूदी ह्यूगो फान हाफमंसथाल की वजह से.
इसलिए किसी तरह का संबल और कवच खड़ा करना उनके लिए और भी लाजमी हो गया था बडी ज़ी-तोड मेहनत से उन्होंने किया भी यही जहाँ-जहाँ उनके हाकिम उनसे संगीत प्रस्तुतियाँ करवाना चाहते थे, वहाँ-वहाँ उन्होंने की उन्होंने ओलंपिक खेलों की धुन बनाई मगर साथ-साथ इस भूल की सफाई में बिना किसी जोश के मुझे खरे-खरे खत भी लिखे. दरअसल अपने स्वांतः सुखाय के चलते उन्हें एक ही चीज की परवाह थी, अपने सृजन को बचाए रखना और अपनी दिली चाहत के काम यानी ओपेरा प्रस्तुति को सर्वोपरि रखना.
कहने की दरकार नहीं कि नेशनल सोशलिस्ट पार्टी को इस तरह की रियायतें बख्शना मेरे लिए बड़ा तकलीफदेह था इससे लोगों पर बडी अासानी से यह छाप पड सकती थी कि मैंने उनसे साठ-गांठ की या इस बात के लिए तैयार हुआ कि उनके शर्मनाक बॉयकाट से मुझे बरी रखा जाए सारे दोस्त मुझे समझाने लगे कि नेशनल सोशलिस्टों की जर्मनी में की जाने वाली प्रस्तुति के खिलाफ मुझे सार्वजनिक विरोध दर्ज करना चाहिए लेकिन सार्वजनिक और दयनीय दिखावों से मुझे बडी चिढ है अलावा इसके, मैं उन जैसे जीनियस की मुश्किलों की वजह बनने से कतरा रहा था. आखिर स्ट्रॉस महानतम जिंदा संगीतकार थे. सत्तर की उमर... इस काम पर तीन बरस खपा चुके थे इस दौरान उन्होंने हमेशा ही सबसे दोस्ताना जज्बात और नीयत (यहाँ तक कि हिम्मत भी) का परिचय दिया था इसलिए मैंने सोचा कि चुपचाप बैठकर इंतजार करूँ जो होगा देखा जाएगा. दूसरे, मुझे खबर थी कि पूरी तरह निष्क्रिय रहकर मैंने जर्मन संस्कृति के नए सिपहसालारों की दिक्कतों में इजाफा कर दिया था .
नेशनल सोशलिस्ट चैम्बर के लेखक और सूचना मंत्रालय तो थे ही इस फिराक में कि किस वजह या बहाने की आड में अपने सबसे बडे संगीतकार के खिलाफ जमकर प्रतिबंध लगा सकें और हुआ ये कि हर ऐरा-गैरा दतर और शख्स, कोई न कोई बहाना खोजने की पोशीदा उम्मीद में उस ओपेरा पाठ की कॉपी माँगने लगा. 'खामोश औरत' में 'रोजनकैवेलियर' जैसा कोई दृश्य होता जिसमें एक नौजवान, विवाहित औरत के बैडरूम से बाहर निकलता है तो उनके लिए बडी सहूलियत रहती क्योंकि तब वे जर्मन नैतिकता के बचाव की दुहाई दे सकते थे मगर उनकी बदनसीबी कि मेरी किताब में वे कुछ भी अनैतिक नहीं खोज पाए. तब मेरी सभी किताबें और जीस्टेपो की सभी फाइलें खंगाल मारी गईं मगर वहाँ भी ऐसा कुछ हाथ नहीं लगा जिससे लगे कि मैंने जर्मनी (या धरती के दूसरे किसी मुल्क) के खिलाफ एक लफ़्ज भी कहा हो या कि मैं राजनीतिक रूप से सक्रिय था. मगर उन्होंने चाल चली, फैसला तो उन्हीं के हक में आना था. जिस बुजुर्ग उस्ताद के हाथों उन्होंने खुद नेशनल सोशलिस्ट की परचम थमाई थी, क्या उसी को वे ओपेरा मंचित करने की मनाही कर सकते थे? या कितने राष्ट्रीय अपमान की बात होगी अगर स्टीफन स्वाइग का नाम ओपेरा पाठ की प्रस्तुति में चला जाए? रिचर्ड स्ट्रॉस ने तो अपनी जिद पकड रखी थी खैर, जर्मनी के थिएटरों में यह तो पहले भी न जाने कितनी बार हो चुका था. उनकी इन चिंताओं और सरदर्दी ने मन ही मन मुझे कितना सुकून दिया मुझे लगा कि मेरे बिना कुछ करे-धरे या इधर-उधर कुछ किए बगैर भी मेरी संगीत-प्रहसनिका अंततः दलगत राजनीति का अखाड़ा बन गई. जब तक मुमकिन रहा, पार्टी फैसला करने से कन्नी काटती रही. मगर 1934 की शुरूआत में इसे फैसला करना था कि अपने कानून के खिलाफ जाए या दौर के सबसे बडे संगीतकार के ओपेरा की तारीख को और टालना मुमकिन नहीं था ओपेरा पाठ का पिआनो संस्करण छप गया था ड्रेसडन थिएटर ने पोशाकों के आर्डर दे दिए थे किरदार न सिर्फ बँट चुके थे बल्कि तह तक समझ लिए गए थे मगर विभिन्न सत्ता केन्द्र, गोरिंग और गोएबल्स, लेखक संघ, संस्कृति परिषद, शिक्षा मंत्रालय और प्रहरी-प्रभाग (स्ट्राइशर गार्ड) राजी ही नहीं हो पा रहे थे13 इनमें से कोई विभाग हाँ या ना कहने की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहा. जब कोई रास्ता नहीं बचा तो मामले को जर्मनी और पार्टी के सर्वेसर्वा, एडोल्फ हिटलर के निजी फैसले के लिए छोड दिया गया नेशनल सोशलिस्टों के बीच मेरी किताबें खूब पढी ज़ाती थीं. राजनीतिक इखलाक के लिए 'फाउश' को पढक़र उन्होंने खास सराहा था मगर सच, मैंने कभी यह उम्मीद नहीं रखी थी कि मैं निजी तौर पर एडोल्फ हिटलर को अपने छन्दबद्ध ओपेरा पाठ के तीन भागों को पढने की जहमत उठवाऊँगा. उसके लिए भी फैसला आसान नहीं था. मुझे बाद में पता चला कि इस मामले में घूम-फिरकर कई बैठक हुईं. अंत में, रिचर्ड स्ट्रॉस की सर्वशक्तिमान हिटलर के सामने पेशी हुई. हिटलर ने उनसे रूबरू कहा कि इस प्रस्तुति की अनुमति वह एक अपवाद के तौर पर देगा. हालांकि नए जर्मनी के सारे कानूनों के मुताबिक यह गुनाह बनता है यह फैसला उसने संभवतः उसी अनिच्छा और बदनीयती से लिया था जिसके साथ उसने स्तालिन और मोलोतोव के साथ करारों पर दस्तखत किए थे.
ओपेरा प्रस्तुति के पोस्टरों पर जैसे ही स्टीफन स्वाइग का मनहूस नाम दिखा, नेशनल सोशलिस्ट जर्मनी में कहर बिफर गया. मैं तो खैर उस प्रस्तुति में नहीं गया था क्योंकि पता था उसमें कत्थई वर्दीधारी दर्शकों की भरमार होगी. खुद हिटलर एक शो देखने आने वाला था. ओपेरा खूब कामयाब रहा. संगीत पारखियों की शान में कहना होगा कि नब्बे फीसदियों ने इस मौके पर नस्ली सिद्धान्त की अंदरूनी खिलाफत करने का सबूत पेश करते हुए एक बार फिर और आखिरी बार मेरे ओपेरा पाठ के बारे में हर मुमकिन दोस्ताना लज लिखे. जर्मनी के सभी थिएटरों बर्लिन, हमबर्ग, फ्रैंकफर्ट, म्यूनिख ने अगले सत्रा में ओपेरा प्रस्तुति की तुरंत घोषणा कर दी.
दूसरे शो के बाद अचानक ही आसमान टूट पड़ा. रातों-रात हर चीज रद्द कर दी गई. डेसडन और पूरे जर्मनी में ओपेरा पर पाबन्दी लगा दी गई और तो और, लोग पढक़र सकते में आ गए कि रिचर्ड स्ट्रॉस नये संगीत के राइखचेम्बर से इस्तीफा दे दिया है. सबको खबर थी कि जरूर कोई खास बात हुई होगी मगर थोडे समय बाद मुझे सारी सच्चाई पता चल गई स्ट्रॉस ने एक बार फिर मुझे खत लिखकर गुजारिश की कि मैं नए ओपेरा पाठ लिखने की शुरूआत कर दूँ. अपने निजी मिजाज के बारे में उन्होंने कुछ ज्यादा साफगोई से अपने ख्याल जाहिर कर दिए थे. यह खत जीस्टेपो के कारिन्दों के हाथ पड ग़या. स्ट्रॉस की पेशगी हुई. उन्हें तुरंत इस्तीफा देने को कहा गया और उनके ओपेरा पर पाबंदी लगा दी गई. जर्मन भाषा में इसे सिर्फ स्वतंत्र स्विट्जरलैंड और प्राग में ही दिखाया गया है. बाद में, मुसोलिनी की विशेष अनुमति से, इसे मिलान के स्काला में इतालवी में भी पेश किया गया क्योंकि तब तक मुसोलिनी को हिटलर के नस्ली विचारों को मानने की मजबूरी नहीं थी. जर्मन जनता को मगर यह इजाजत नहीं मिली कि वह अपने महानतम जीवित संगीतकार द्वारा बुढापे में बनाए इस मुग्धकारी ओपेरा की एक भी धुन दोबारा सुन ले, इसमें मेरा कसूर नहीं है. (hindisamay.com से साभार)