Thursday 30 October 2014

हम औरतें / वीरेन डंगवाल

रक्त से भरा तसला है,
रिसता हुआ घर के कोने-अंतरों में
हम हैं सूजे हुए पपोटे
प्यार किए जाने की अभिलाषा सब्जी काटते हुए भी
पार्क में अपने बच्चों पर निगाह रखती हुई प्रेतात्माएँ
हम नींद में भी दरवाज़े पर लगा हुआ कान हैं
दरवाज़ा खोलते ही
अपने उड़े-उड़े बालों और फीकी शक्ल पर
पैदा होने वाला बेधक अपमान हैं
हम हैं इच्छा-मृग,
वंचित स्वप्नों की चरागाह में तो चौकड़ियाँ
मार लेने दो हमें कमबख्तो !

एक पूर्णकालिक लेखक का अवसान

वरिष्ठ हिंदी साहित्यकार रॉबिन शॉ पुष्प नहीं रहे। आजीवन स्वतंत्र लेखक रहे रॉबिन शॉ पुष्प की पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। इनमें उपन्यास, कहानियां, कविताएं, लेख, नाटक और बाल साहित्य आदि शामिल है। अन्याय को क्षमा, दुल्हन बाजार जैसे उपन्यास, अग्निकुंड, घर कहां भाग गया कहानी संग्रह और फणीश्वर नाथ रेणु पर लिखी संस्मरण पुस्तक सोने की कलम वाला हिरामन उनकी चर्चित कृतियां हैं। उनकी पत्नी गीता पुष्प शॉ भी ख्यात लेखिका हैं। उनका अंतिम संस्कार शुक्रवार को आज तीन बजे पटना के पीरमुहानी स्थित कब्रिस्तान में होगा।

'दैनिक हिंदुस्तान' में हृषिकेश सुलभ लिखते हैं -

' हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक, कथाकार और उपन्यासकार रॉबिन शॉ पुष्प का अवसान साहित्य की, एक ऐसी क्षति है, जिसकी भरपाई संभव नहीं। वह उस पीढ़ी के लेखक थे, जिसने साहित्य को मनसा, वाचा कर्मणा जिया। उन्होंने कहानी, उपन्यास, नाटक, रेडियो नाटक, बाल साहित्य, संस्मण से लेकर साहित्य की लगभग तमाम विधाओं में लिखा। वह पूर्णकालिक लेखक थे। उनकी पहली कहानी 1957 में धर्मयुग में छपी। तब से वह अनवरत लिखते रहे। लेकिन आज उनकी यात्रा सदा के लिए थम गई।

' पटना से बाहर हूं। मोतीहारी के पास एक गांव में। कुआं के जगत की मुंड़ेर पर बैठा एक युवा सेमल के कांटेदार तने को एकटक निहार रहा हूं। सामने कई तरह के वृक्षों का सघन विस्तार है। सूर्य अस्ताचल को जा रहे हैं। कल सांझ असंख्य लोगों ने विदा और आज सुबह ही स्वागत किया है जिनका, वे विदा हो रहे हैं। खिन्न, उदास मन जाते सूर्य को निहार रहा हूं। भीतर कुछ टूट रहा है। जलते बांस की तरह चटख रहा है कुछ मेरी आत्मा के अतल में! कि अचानक एक मित्र का फोन आता है। पुष्पजी नहीं रहे।

' बहुत दिनों से उनसे मुलाकात नहीं हुई थी। हां, फोन पर कभी-कभार बातें होती रहीं, पर यह सिलसिला भी इन दिनों बन्द ही था। अपने को कोस रहा हूं। स्वार्थी..कृतघ्न! आज का काम कल पर टालकर समय से मुंह चुरा कर जीने की अपनी आदत पर स्यापा कर रहा हूं! अचानक उनकी छवि कौंधती है। अंगुलियों में फंसी सिगरेट ,मुट्ठी बांध कर लम्बा कश और बेफिक्री के आलम में सिगरेट का धुआं। वे सन् 1976 के दिन थे। प्रेमचंद के बड़े सुपुत्र श्रीपत राय की पत्रिका ‘‘कहानी‘‘ में मेरी एक छोटी-सी कहानी छपी थी और उनसे आकाशवाणी पटना में मुलाकात हो गई। यह पता चलते कि उस कहानी का लेखक मैं हूं, उन्होंने मेरे कांधे पर अपना हाथ रखा था। उनकी हथेली का वो स्पर्श आज तक जिन्दा है, एक भरोसे की तरह। वे मुझसे मेरे बारे में पूछते रहे थे। मैं प्रतीक्षा में था कि शायद कहानी के बारे में कुछ कहें, पर ऐसा कुछ नहीं कहा उन्होंने। हमने साथ चाय पी। वे मुझे दुनिया की श्रेष्ठ कहानियों के बारे में बताते रहे। मैंने अब तक क्या-क्या पढ़ा है और अब मुझे क्या-क्या पढ़ना चाहिए पूछते और बताते रहे। मैं उन्हें निहारता रहा़..उनकी लम्बी ज़ुल्फों को अपनी उत्सुक नजरों से टेरता रहा। उनकी सिगरेट पीने की अदा और आत्मीयता भरी बातों पर मुग्ध होता रहा। विदा के समय़..चलते हुए उन्होंने शायद मात्र एक छोटे से वाक्य में मेरी कहानी की प्रशंसा की और घर आने का निमंत्रण दिया। अगले ही दिन मैं सब्जीबाग स्थित उनके घर पर था। मैं एक लेखक के घर में था, जिसकी कई कहानियां पढ़ चुका था़...रेडियों पर जिसके नाटक सुन चुका था, धर्मयुग और सारिका जैसी ख्यात पत्रिकाओं में जिसकी तस्वीरें और कहानियां लगातार देखता-पढ़ता रहता था,....जिसकी आंखों पर चढ़े काले चश्में के भीतर छुपी अनन्त कथाओं की दुनिया मेरे लिए कौतूहल का विषय थी! ...चाय आई। बेहद सुघड़ ढंग से व्यवस्थित कमरे में बैठे थे हमदोनों। कहीं कोई अतिरेक नहीं,...प्रदर्शनप्रियता नहीं। मेरी हर उत्सुकता के प्रति सम्मान-भाव और मेरी हर जिज्ञासा के लिए आत्मीय लहजे में समाधान।

' वह जो थोड़ी देर पहले मेरी आत्मा के अतल में जो चटख रहा था, अब भी चटख रहा है।.... यादों की कौंध के साथ। ....अमली के प्रकाशित होते ही एक पोस्टकार्ड, जिसमें आशीष और शुभकामनाएँ और जल्दी मिलने का निमंत्रण था, मिला। ....मैं पहुँचा। मैंने कहा, मैं आपकी तरह आत्मीय कथाएँ लिखना चाहता हूँ। उन्होंने कहा, अपनी तरह लिखो। ज्यादा से ज्यादा पाठकों का भरोसा अर्जित करो।....वे जीवन भर अपनी तरह ही लिखते रहे। उन्होंने बदलते दौर के ट्रेंड की फिक्र किए बग़ैर अपनी भाषा की संवेदना, शिल्प के हुनर और कथ्य की बहुस्तरीयता को बरक़रार रखा। वे अपनी कथाओं को रचते हुए एक छोर पर कथ्य के अंतर्द्वंद्वों के लिए बेहद निर्मम होते थे तो दूसरे छोर पर इतने आत्मीय कि पाठक उनकी बाँह पकड़ चलता था।.... वे पाठकों के सहचर बने रहे। उन्होंने कभी आलोचना की दुरभिसंधियों की चिन्ता नहीं की और न ही उसका मुखापेक्षी बने।
 '....सूरज जा चुका है। क्षितिज की गोद में।.... मैं वसंत की उस दोपहर को याद कर रहा हूँ....सन् 1985 की दोपहर को, जब अपने द्वारा सम्पादित ‘बिहार के युवा हिन्दी कथाकार‘ पुस्तक की प्रति मुझे देते हुए उन्होंने कहा था कि ‘‘लेखक का काम केवल लिखना नहीं, अपने समय की युवा पगघ्वनियों की आहट को सुनना भी होता है!‘‘....मेरी यादें आत्मीयता के इस दुर्भिक्ष-काल में जीते हुए आदमी की यादें हैं। ....मैं जल्दी से जल्दी उन्हें एक बार फिर से पूरा का पूरा पढ़ना चाहता हूँ। नमन!'