Sunday 14 September 2014

मुक्तिबोध 'एक गोत्रहीन कवि' / अशोक वाजपेयी

मुक्तिबोध गोत्रहीन कवि हैं. हिन्दी में उनका कोई पूर्वज नहीं खोजा जा सकता. असल में उनके पूर्वज तोल्सतोय, दोस्तोवस्की, गोर्की इत्यादि रूसी उपन्यासकार थे. 

ऐसा कोई कवि पहले नहीं हुआ जिसकी प्रेरणा कविता के अलावा उपन्यासों से आई हो. मुक्तिबोध के बाद भी किसी ने उस तरह के शिल्प में उतनी कविता लिखने की हिम्मत नहीं की. क्योंकि उन जैसा लिखना वैसे भी संभव नहीं था. इस तरह अपने समय के अंधेरे को पहचानने की चेष्टा करना, अपने समय के अंधेरे को टटोलना और उस अंधेरे में अपनी हिस्सेदारी, अपनी शिरकत को, आत्म-निर्ममता को स्वीकार करना, यह सब सीखा मुक्तिबोध से. बीसवीं सदी के महान भारतीय लेखकों में मुक्तिबोध का नाम हमेशा रहेगा.
मुक्तिबोध से मेरा परिचय तब हुआ जब मेरी उम्र करीब 18 वर्ष थी. वो थोड़े ही दिनों पहले राजनांदगाँव के एक महाविद्यालय में शिक्षक के रूप में आए थे. उसके बाद इलाहाबाद में आयोजित हुए एक बड़े साहित्य सम्मेलन में मैं शामिल होने गया था. मैं और मुक्तिबोध ट्रेन के एक ही डिब्बे से वापस आए. तब उन्हें थोड़ा निकट से जानने का अवसर मिला. उसी समय मुक्तिबोध की कविता से हम सबका साबका हुआ. संभवतः 'अंधेरे में' कविता का पहला पाठ और शायद मुक्तिबोध द्वारा किया गया अंतिम पाठ हम पाँच-छह लोगों ने 1959 में सुना था. जो इस कविता का एक तरह का पहला प्रारूप था. इतनी लंबी कविता, इतनी अंधेरी कविता, इतनी विचलित करती कविता, लेकिन सिर्फ दूसरों को दोष देनी वाली नहीं, अपनी ज़िम्मेदारी भी मानने वाली कविता और शिल्प के माध्यम में लगभग अराजक कविता, लेकिन यथार्थ को अपने पंजों में दबोचे हुए कविता... ये हम सब के लिए बहुत चकित करने वाली थी. तब से उनसे मेरा संबंध गाढ़ा हुआ.
1964 में हमें पता चला कि मुक्तिबोध की तबीयत ख़राब है और उनको पक्षाघात हो गया है. कवि श्रीकांत वर्मा उनके बहुत प्रशंसक और घनिष्ठ थे. मध्य प्रदेश के तात्कालीन मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र से बात हुई. राजनांदगाँव से उन्हें भोपाल के हमीदिया अस्पताल में लाया गया. मैं मई, 1964 में सागर से मुक्तिबोध से मिलने भोपाल गया. तब तक हम लोगों ने भारतीय ज्ञानपीठ को इस बात पर सहमत कर लिया था कि वो उनका पहला कविता संग्रह प्रकाशित करेगा. मुझे संग्रह के अनुबंध पत्र पर मुक्तिबोध के दस्तख़त करवाने थे. उस समय मुक्तिबोध लेटे रहते थे और आधी-आधी सिगरेट पीते रहते थे. अनुबंध पर दस्तख़त करते हुए मुक्तिबोध का हाथ जिस तरह कांप रहा था उसे देखकर मैं थोड़ा भयातुर हुआ. मुझे लगा कि उनकी हालत ठीक नहीं है और यहाँ जो प्रबंध है वो शायद पर्याप्त नहीं है.
मैं लौटकर दिल्ली आया और श्रीकांत जी से मैंने कहा कि हमें मुक्तिबोध को दिल्ली लाना चाहिए. इसके लिए हरिवंश राय बच्चन के नेतृत्व में लेखकों का एक प्रतिनिधि मंडल तब के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री से मिला. इस प्रतिनिधि मंडल में बच्चन जी के अलावा रघुवीर सहाय, नेमीचंद्र जैन, प्रभाकर माचवे, श्रीकांत वर्मा, भारतभूषण अग्रवाल, अजित कुमार और मैं भी था. शास्त्री जी ने फौरन कहा कि उनको एम्स(भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान) में लाया जाए. वहीं से रघुवीर सहाय ने भोपाल के मेडिकल कॉलेज के डीन को फ़ोन किया कि मुक्तबोध को फौरन दिल्ली लाया जाए. तब तक मुक्तिबोध अचेतावस्था में पहुँच चुके थे. दो-तीन दिन बाद हरिशंकर परसाई उन्हें लेकर दिल्ली आए. लेकिन मुक्तिबोध उस अचेतावस्था से अगले दो-तीन महीने तक उबरे नहीं और उसी के दौरान उनकी मृत्यु हो गई. उन्हें ट्यूबरकूलर मेनेंजाइटिस नामक बीमारी थी.
उससे पहले मुक्तिबोध की प्रशंसक अग्नेश्का सोनी नामक पोलिश महिला अनुवादक उनकी बीमारी की ख़बर सुनकर उनसे मिलने राजनांदगाँव गई थीं. वो अपने साथ 'अंधेरे मेः आशंका के द्वीप' शीर्षक से लंबी कविता की प्रति दिल्ली लाई थीं. यह तय हुआ कि उस कविता का पाठ किया जाए. उसका पाठ श्रीकांत वर्मा और मैंने मिलकर किया. सबको लगा कि यह बहुत अद्भुत कविता है. उस पाठ के बाद तय हुआ कि इसे कल्पना के प्रशासक बद्री विशाल पित्ति को प्रकाशन के लिए भेज दिया जाए. मुक्तिबोध के अपने जीवनकाल में उनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हुईं - एक, कामायनी एक पुनर्विचार और दूसरी, भारतीय इतिहास और संस्कृति पर एक पाठ्य पुस्तक. एक साहित्यिक की डायरी तब प्रकाशित हुई जब वो अचेत थे. 'अंधेरे में' कविता कल्पना में तब प्रकाशित हुई जब वो दिवंगत हो चुके थे. उनका पहला काव्य संग्रह 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' भी उनके जाने के बाद प्रकाशित हुआ. एक तरह से उनकी सारी कीर्ति, मरणोत्तर कीर्ति है, जिसमें उनकी अपनी, सिवाय अपनी रचना एवं आलोचना के कोई और भूमिका नहीं है. उनकी कोई दृश्य उपस्थिति नहीं है. हिन्दी में मुक्तिबोध अनोखा आश्चर्य है. (बीबीसी हिन्दी से साभार)