Friday 12 September 2014

अंग्रेजी भाषा का रोग / प्रेमचंद

हमें यह लिखते हुए दु:ख होता है कि हमारे राष्ट्रीय कार्यकर्ता भी इस रोग में उतने ही ग्रस्त हैं, जितने सरकार के कर्मचारी या वकील या कालेजों के अध्यापक। इसमें संदेह नहीं कि वे खद्दर पहनने लगे हैं, पर उनके मनोभावों में लेशमात्र भी संस्कृति नहीं आयी। किसी कमेटी की बैठक में चले जाइए, आप खद्दरधारी महाशयों को फर्राटे से अंग्रेजी झाडते हुए पायेंगे। वह शब्द और वाक्य जो उन्होंने दैनिक पत्रों या अंग्रेजी पत्रों में पढ़े हैं, बाहर निकलने के लिए अकुलाते रहते हैं और अवसर पाते ही फूट निकलते हैं। हँसी तो तब आती है जब यह हज़रत अंग्रेजी न जाननेवाली महिलाओं के सामने भी अपने वाग्विलास से बाज़ नहीं आते। अंग्रेजी भाषा का यह जादू कब तक हमारे सिरों पर रहेगा? कब तक हम अंग्रेजों के गुलाम बने रहेंगे. इससे तो यही टपकता है कि राष्ट्रीयता अभी हृदय की गहराई तक नहीं पहुँचने पायी। महात्मा गाँधी के सिवाय हम किसी नेता को हिन्दी भाषा के प्रचार पर जोर देते नहीं देखते। यह विदित रहे कि जब तक हमारी राष्ट्रभाषा का निर्माण न होगा, भारतीय राष्ट्र का निर्माण ख्वाब और खयाल है। जापानी, जापानी में अपने भावों को प्रकट करता है, चीनी, चीनी भाषा में. ईरानी, फारसी में, लेकिन भारत की शिक्षित जनता अंग्रेजी पढ़ने और बोलने में अपना गौरव समझती है। कितने ही सज्जन तो यह कहने में संकोच नहीं करते कि हिन्दी लिखने या बोलने में उन्हें असुविधा होती है। यह सीधी-सादी मानसिक दासता है। बड़े से बड़ा हिन्दुस्तानी भी एक गोरे से बात करता है तो अंग्रेजी में। वह यह भूलकर भी नहीं सोचता कि अंग्रेज हिन्दुस्तानी में क्यों न बात करे। खैर अंग्रेजों से अंग्रेजी में बात करने को किसी हद तक क्षम्य भी मान लिया जा सकता है, लेकिन आपस में अंग्रेजी में बातचीत करने के लिए तो कोई दलील ही नहीं।

नागार्जुन

बताऊँ !
कैसे लगते हैं
दरिद्र देश के धनिक 
कोढ़ि कुढब तन पर मणिमय आभूषण.

इतिहास / जयप्रकाश त्रिपाठी

जब तक हमारे पास बारिश और सुबहों का,
असीमित प्रकृति के विश्व-विस्तार का,
सृजन और सभ्यताओं का / जीवन की वास्तविकताओं का
भावना और विवेक का / शब्दों और विचारों का,
भूख और गुस्से का इतिहास है,
तब तक तुम हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते !