Monday 25 August 2014

टीवी मीडिया पर ट्राई का पैमाना / वनिता कोहली-खांडेकर

पिछले सप्ताह भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने 'समाचार माध्यमों या मीडिया के मालिकाना हक से जुड़े मसलों' पर कुछ सिफारिशें कीं। उसने जिन मुद्दों पर चर्चा की, उनमें निजी समझौते (प्राइवेट ट्रीटी), पेड न्यूज, निजता, मीडिया संगठनों पर निगमित और राजनीतिक इकाइयों का मालिकाना हक आदि शामिल हैं। नियामक ने इन बातों को बहुलवादी, विविधतापूर्ण, तथ्यात्मक और स्वतंत्र समाचार माध्यम की राह में रोड़ा बताया है। अब ट्राई की सिफारिशों और उन्हें जारी करने के उसके अधिकार पर बहस छिड़ गई है। ट्राई के पास प्रसारण नियमन का अधिकार है और इसने भी स्वीकार किया है कि कई सिफारिशें इसके अधिकार क्षेत्र से बाहर हो सकती हैं।
मुझे लगता है कि न तो ट्राई महत्वपूर्ण है और न ही उसकी सिफारिशों का महत्व है। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक स्वतंत्र निकाय ने कुछ मुद्दे पहचाने हैं और उन्हें सबके सामने रखा है। जिस निकाय ने ऐसा किया है, उसने भारत में केबल के नियमन का काम काफी अच्छी तरह से किया है। हालांकि भारत में समाचार माध्यम उद्योग की दुखद स्थिति देखते हुए ट्राई के सुझावों पर विचार किया जाना चाहिए। जब तक मीडिया की स्व-नियामक इकाइयां अनैतिक और खराब गतिविधियों में लिप्त समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर सख्ती नहीं करती हैं, तब तक सरकार के पास पहल करने और उनकी मुश्कें कसने का मौका है। सरकार को इसके लिए केवल लोगों के समर्थन की जरूरत है। किसी नरम गठबंधन सरकार के राज में स्व-नियमन की जबानी खानापूरी करना आसान है। लेकिन मीडिया पर नजर रखने वाली, बहुमत की सरकार के राज में इस रिपोर्ट को नजरअंदाज करना खुदकुशी से कम नहीं होगा।
चर्चा का विषय ऐसा ताकतवर उत्पाद है, जिसका कारोबार गैर मुनाफे वाला और दुखदायी होता है। यह मुक्त बाजार में बिना किसी संस्थागत समर्थन और वित्तीय ढांचे के चलता है। परिणामस्वरूप इसमें गलत लोग निवेश करते हैं और कारोबार को भ्रष्टाचार का हिस्सा बना देते हैं। 2003 में पहली बार टीवी मीडिया की बाढ़ आने तक भारत में समाचार माध्यम का बाजार ठहरा हुआ था। 2005 में प्रिंट मीडिया में निवेश नियमों में ढील दी गई। उसके साथ ही निजी निवेशकों की फौज इस पर टूट पड़ी, जो तेजी से विकास कर रही अर्थव्यवस्था में खबरों की भूख और उसके साथ आने वाले विज्ञापनों को लेकर पूरे जोश में थी। हालांकि 2012 तक स्पष्टï हो गया कि कुछ न कुछ गलत हो रहा है।
135 न्यूज चैनलों में एक तिहाई की कमान राजनेताओं और रियल्टी कंपनियों के हाथ में है और खबरिया चैनलों का बाजार दु:स्वप्न से कम नहीं है। देश में 60 प्रतिशत से अधिक स्थानीय केबल तंत्र पर भी राजनेताओं का कब्जा है, जो मनमाने ढंग से किसी भी चैनल का प्रसारण बंद कर देते हैं। 2009 के आम चुनावों के बाद पता लगा कि कुछ बड़े अखबारों ने किसी उम्मीदवार के बारे में खबर छापने या नहीं छापने के एवज में मोटी रकम ली। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने इसमें लिप्त लोगों की सूची भी बना ली थी। चुनाव आयोग के मुताबिक 2014 के आम चुनावों के दौरान पेड न्यूज में खासा इजाफा दिखा।
2012 में मीडिया में कंपनियों ने बड़े निवेश किए। ए वी बिड़ला ने अरुण पुरी के इंडिया टुडे ग्रुप में 27.5 प्रतिशत हिस्सेदारी खरीद ली। मुकेश अंबानी के नियंत्रण वाले ट्रस्ट ने नेटवर्क 18 के साथ इनाडु टीवी के विलय के लिए रकम मुहैया कराई। इस साल के आरंभ में अंबानी ने नेटवर्क 18 का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। मई 2012 में सरकार ने ट्राई को मीडिया में नियंत्रण पर नजर रखने को कहा। 2013 में जो पत्र सामने आया उनमें संबंधित पक्षों के विचार शामिल थे।
इस दो साल की प्रक्रिया से कई प्रमुख सिफरिशें सामने आई हैं। पहला है मालिकाना हक और नियंत्रण में स्पष्टï अंतर। ट्राई मानता है कि बिना बहुलांश हिस्सेदारी के भी मीडिया इकाइयों पर नियंत्रण हो सकता है। यह नियंत्रण को विस्तार से परिभाषित करता है और मीडिया की सघनता और सभी प्रकार के मीडिया पर बंदिशें लगाने के लिए वैश्विक स्तर पर मान्य हरफिंडाल हर्शमैन इंडेक्स के इस्तेमाल की सिफारिश करता है। हालांकि इनका क्रियान्वयन आसान नहीं होगा लेकिन तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे बाजार में ऐसा जरूरी है। दूसरी बात किसी न्यूज ब्रांड में शेयरधारिता के ढांचे और प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष हितों के खुलासे की अनिवार्यता।  तीसरी बात आंतरिक बहुलता से निपटने के लिए पत्र में 2008 का एक सुझाव दोहराया गया है कि राजनीतिक, सरकारी या धार्मिक इकाइयों या इनसे जुड़े लोगों को बाहर करना चाहिए।
चौथी बात यह कि पीसीआई संपादकीय मंडल में निजी समझौते या पेड न्यूज या विज्ञापन से जुड़े किसी हस्तक्षेप की मजम्मत की गई है। पांचवीं सिफारिश मीडिया को कंपनियों के नियंत्रण से मुक्त रखने की है। छठी बात, दूरदर्शन को स्वायत्त बनाया जाए ताकि यह मजबूत, स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से प्रसारण कर सके। सातवीं बात प्रिंट और टीवी के लिए मीडिया नियामक की स्थापना है। हालांकि इसमें कई खामियां हैं। इंडियन रीडरशिप सर्वे के आंकड़ों के आधार पर यह इंटरनेट को खारिज करता है। लेकिन ट्राई की वेबसाइट पर मार्च 2014 के आंकड़ों के अनुसार लगभग 32.5 करोड़ भारतीय ऑनलाइन थे, जो प्रिंट की पाठक संख्या के लगभग बराबर है। इंटरनेट को इस रिपोर्ट के बाहर नहीं रखा जा सकता है।
एक दूसरी खामी यह है कि पेपर में किसी तरह की आर्थिक समझ नहीं दशाई गई है क्योंकि एक अच्छी गुणवत्ता वाला समाचार लाने लाने में काफी रकम लगती है। विज्ञापनदाता पूरी रकम मुहैया नहीं कर सकते और लोग भी अपनी जेब से भुगतान करने की स्थिति में नहीं होते। इस स्थिति में वैश्विक समाचार कंपनियां भी फंस जाती हैं और इनमें से कई ने भरपाई के लिए पेड न्यूज या निजी समझौते  का सहारा नहीं लिया है। नैतिक स्तर पर यह हमारे उद्योग के लिए हार की स्थिति है। पेपर मीडिया मालिकों, संपादकों और हर संबंधित व्यक्ति को सरकार या ट्राई से उलझने के बजाय समाधान खोजने के लिए कहता है। ऐसा न करना देश के लोगों के साथ छलावा और पेे्रस की स्वतंत्रता पर कुठाराघात होगा।
(साभार : बिजनेस स्टैंडर्ड)