Sunday 5 January 2014

नाती पूछे नानी से, चलोगी नानी गौने!


काकी की कहावत-2


उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल के गांवों में लोकप्रचलित यह कहावत मूलतः इस रूप में है- 'नाती सिखवैं नानी के, चलबू नानी गौने?'। इसक कई अर्थ ध्वनित होते हैं, जैसेकि छोटे मुंह बड़ी बात या बड़बोलापन। यह कहावत बाबा रामदेव के बड़बड़ाने पर भी सध जाती है। योगासन सिखाते-सिखाते वनस्पतियों के सबसे बड़े कारोबारी बन बैठे रामदेव अब अरविंद केजरीवाल से पूर्वमुख्यमंत्री शीला दीक्षित के भ्रष्टाचार की जांच की मांग कर रहे हैं। इसे एक मुहावरे में नत्थी कर सकते हैं- सात चूहे खा कर बिलार बनी भगतिन...

नकली टीटी आम आदमी पार्टी का स्वयंभू नेता....


'जिंदगी इम्तहान लेती है', कभी अक्सर गूंजा करता था ये फिल्मी गीत।
आज सुबह सुबह का ताजा वाकया सियासत के बारे में वही सुर-ताल सुना गया।
मेरे होश फाख्ता।
मित्र ने बताया कि अपने शहर में कल 'उन्होंने' भी अपने घर में 'आप' का दफ्तर खोल लिया। 'वो' अभी कुछ महीने पहले ही जेल से छूट कर आए हैं।
मैंने पूछा, किस जुर्म में?
मित्र ने बताया, ट्रेनों में नकली टीटी बन कर यात्रियों से किराया वसूलते थे। किसी रेलकर्मी पर किराये के लिए रौब गालिब करते समय पहुंचा दिए गए नैनी जेल।
अब ये सजायाफ्ता नकली टीटी आम आदमी पार्टी का स्वयंभू नेता तो बन बैठा है। कौन जाने कल को अपने शहर का सांसद भी बन बैठे। तब अपनी जनता के सिर मुड़ाते ओले पड़ने से कौन रोक लेगा।

आज एक फोटो को देखा तो ऐसा लगा


मधुमेह का मारा मैं आज सुबह मॉर्निंग वॉक की कठदौड़ से लौटा तो घर में अखबार की एक फोटो पर आंख ठहर गई। ठहर क्या चिपक-सी गई। टकटकी लगाए रहा देर तक। खामख्वाह। बात क्या थी कि यहां कुछ लिखा नहीं जा रहा लेकिन इस हवाई दोस्त मंडली में उस सच को साझा कर लेने को जी बहुत जोर मार रहा है। जैसे गले में कुछ अटक गया हो या कलेजे का पत्थर हल्का कर लेने की बेताबी...
फोटो के पीछे क्या है। जितना फूहड़ और विद्रूप, उससे हजारगुना ज्यादा डरावना स्मृतियों का एक गंदा झोका। फोटो मंत्री का। ये मंत्री केंद्र में है या किसी प्रदेश में, भेद खोलना ठीक नहीं रहेगा। बस इतना जान लीजिए कि उसके चेहरे और वस्त्र की शालीनता-सुघरता देख कर रोंगटे खड़े हो गए। फोटो को बड़े गौर से घूरा। बार-बार चित्र के नीचे लिखा परिचय पढ़ा। उसी झटके में वह पूरी खबर पढ़ गया।
स्कूल के दिनो में हमारे घर गांव क्या, पूरे जिले में तीन बड़े डाकुओं का आतंक हुआ करता था। उनमें एक डाकू मेरी मौसी के गांव शिवरामपुर का निवासी था। दीना नाम था उसका। पूरे गांव की महिलाएं सोने-चांदी से लदी-फदी उसकी बीवी के पांव छुआ करती थीं। मौसी ने बताया था कि ये दीना डाकू की मेहरारू (बीवी) है। दीना डाकू के प्रशंसकों में मेरी मौसी का परिवार भी शामिल था। प्रशंसा इसलिए कि दीना शिवरामपुर समेत आसपास के गांवों में चोरी-डकैती नहीं पड़ने देता था। पुलिस भी किसी परेशान नहीं करती थी। बस, अपने गांव-जवार पर यही दीना की बहुत बड़ी नियामत थी।
दीना शरीर से जितना हट्टा-कट्टा, लंब-तड़ंग, उतना खूबसूरत। बोलचाल में मिठबोलवा। किसी से अकड़ के, ऊल-जुलूल नहीं बोलता था। गांव के हर बड़े बुजुर्ग के पांव छूता था। आज के राजनेताओं की तरह यह सब करना दीना की रणनीति का एक हिस्सा था क्योंकि लोगों का विश्वास जीत कर वह बड़े आराम से अपने घर-गांव में छिपा रहता था। पुलिस लाख कोशिश कर भी बगल के घर में छिपे दीना के बारे में भनक नहीं ले पाती थी।
उन्हीं तीन खूंख्वार डकैतों में से एक के वंशज की ये फोटो। लंबे समय तक जेल में गुजारे इसने भी। मैंने इसे कभी देखा नहीं था। फोटो ने चिंतित कर दिया। क्या दिन आ गये इस देश की राजनीति के। फोटो में अफसर उसके पीछे-पीछे फाइलें लिए दौड़े जा रहे थे। वह राहुल सांस्कृत्यायन की तरह गंभीर मुद्रा में अपनी वैसी ही सौम्यता से अफसरों को कृतकृत्य कर रहा था, जैसे मौसी के गांव को दीना.......
वंशावली खोलो तो कइयों की ऐसी ही पता चलेगी। कौन खोले बिल्ली के गले की घंटी। कविता-सविता लिख कर काम चल जा रहा है अपुन का। खामख्वाह आफत गले कौन लगाए....जयसियाराम! जयरामजीकी!

भोजपुरी को रौंद रहे बाजार के बहेलिये


फिल्मों और फूहड़-शर्मनाक गीत-गानों से भोजपुरी की भाषायी पहचान और साहित्यिक संपन्ना को पिछले एक दशक से जिस तरह रौंदा-नोंचा जा रहा है, अकल्पनीय लगता है। पीड़ा होती है। यह अपसांस्कृतिक हमला जैसे मां की दुर्दशा मां के बोल-बचन, ममत्व की मिठास पर लगता है। भोजपुरी भाषा, साहित्य, बोलचाल, लोकजीवन ऐसा है नहीं, जैसा कि अश्लील नृत्य-गायकी से शोहरत और पैसा बटोरने वाले आज के कुख्यात लोक गायकों, फिल्मी लुच्चों-लफंगों ने बना दिया है। राष्ट्रीय पटल पर भोजपुरी की बदनामी के लिए जो चार-पांच नामवर चेहरे जिम्मेदार हैं, वह चाहे जितना चालू मीडिया की सुर्खियों में हों, उनका नाम भी लेने लायक नहीं रह गया है। इन बाजार के बहेलियों ने भोजपुरी की समूची पहचान को छिन्न-भिन्न-सा कर देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। ऐसे में पुनरावृत्ति ही सही, भोजपुरी की अस्मिता और इतिहास को एक बार पुनः जानने-बताने का मन करता है।
भोजपुरी मुख्य रुप से पश्चिम बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी झारखण्ड में बोली जाती है। भोजपुरी जानने-समझने वालों का विस्तार दुनिया के कोने-कोने में सूरिनाम, गुयाना, त्रिनिदाद, टोबैगो, फिजी, मारिसस आदि देशों तक हैं। यह हिन्दी की उपभाषा-बोली है। इसकी शब्दावलियां मुख्यतः संस्कृत और हिन्दी पर निर्भर रही हैं। इसने उर्दू से भी शब्द ग्रहण किये हैं। भारत में लगभग 3.3 करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं। पूरे विश्व में भोजपुरी जानने वालों की संख्या पांच करोड़ बतायी गयी है। क्षेत्रविस्तार और भाषा की दृष्टि से भोजपुरी अपनी बहनों मैथिली और मगही में सबसे बड़ी है। भोजपुरी भाषा का नामकरण बिहार राज्य के आरा (शाहाबाद) जिले में स्थित भोजपुर गाँव के नाम पर हुआ है। पूर्ववर्ती आरा जिले के बक्सर सब-डिविजन में भोजपुर नाम का एक बड़ा परगना है जिसमें 'नवका भोजपुर' और 'पुरनका भोजपुर' दो गाँव हैं। मध्य काल में इस स्थान को मध्य प्रदेश के उज्जैन से आए भोजवंशी परमार राजाओं ने बसाया था। उन्होंने अपनी इस राजधानी को अपने पूर्वज राजा भोज के नाम पर भोजपुर रखा था। इसी कारण इसके पास बोली जाने वाली भाषा का नाम 'भोजपुरी' पड़ गया। भोजपुरी भाषा का इतिहास सातवीं सदी से शुरू होता है। 'आदर्श भोजपुरी', जिसे डॉ0 ग्रियर्सन ने स्टैंडर्ड भोजपुरी कहा है, बिहार के आरा और उत्तर प्रदेश के बलिया, गाजीपुर जिले के पूर्वी भाग, घाघरा एवं गंडक के दोआब में बोली जाती है। 'पश्चिमी भोजपुरी' जौनपुर, आजमगढ़, बनारस, गाजीपुर के पश्चिमी भाग और मिर्जापुर में बोली जाती है। आदर्श भोजपुरी और पश्चिमी भोजपुरी में बहुत अधिक अन्तर है। मधेसी तिरहुत की मैथिली बोली और गोरखपुर की भोजपुरी के बीचवाले स्थानों में बोली जाती है, अत: इसका नाम मधेसी पड़ गया है। यह बोली चंपारण जिले में बोली जाती और प्राय: 'कैथी' लिपि में लिखी जाती है। 'थारू' लोग नेपाल की तराई में रहते हैं। ये बहराइच से चंपारण जिले तक पाए जाते हैं और भोजपुरी बोलते हैं। यह विशेष उल्लेखनीय बात है कि गोंडा और बहराइच जिले के थारू लोग भोजपुरी बोलते हैं जबकि वहाँ की भाषा पूर्वी हिन्दी (अवधी) है।
भोजपुरी प्रदेश के निवासियों को अपनी भाषा से बड़ा प्रेम है। अनेक पत्रपत्रिकाएँ तथा ग्रन्थ इसमें प्रकाशित होते रहे हैं तथा भोजपुरी सांस्कृतिक सम्मेलन, वाराणसी इसके प्रचार में संलग्न है। विश्व भोजपुरी सम्मेलन समय-समय पर आंदोलनात्म, रचनात्मक और बैद्धिक तीन स्तरों पर भोजपुरी भाषा, साहित्य और संस्कृति के विकास में निरंतर जुटा हुआ है। विश्व भोजपुरी सम्मेलन से ग्रन्थ के साथ-साथ त्रैमासिक 'समकालीन भोजपुरी साहित्य' पत्रिका का प्रकाशन हो रहा है। विश्व भोजपुरी सम्मेलन, भारत ही नहीं ग्लोबल स्तर पर भी भोजपुरी भाषा और साहित्य को सहेजने और इसके प्रचार-प्रसार में लगा हुआ है। देवरिया (यूपी), दिल्ली, मुंबई, कोलकता, पोर्ट लुईस (मारीशस), सूरीनाम, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड और अमेरिका में इसकी शाखाएं हैं।
पं.रामचंद्र शुक्ल, डॉ.हजारी प्रसाद द्विवेदी, अयोध्या प्रसाद उपाध्याय हरिऔध, उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद, कथाकार विवेकी राय, ललित निबंधकार कुबेरनाथ राय, भिखारी ठाकुर, धूमिल, मोती बीए, जनकवि रमाकांत द्विवेदी रमता, गोरख पांडेय, भोलानाथ गहमरी, बाबू रघुबीरनारायन, महेन्द्र शास्त्री, मनोरंजन बाबू, दण्डिस्वामी विमलानन्द, परीक्षण मिश्र, पाण्डे नर्मदेश्वर सहाय, डा॰ रामविचार पाण्डेय, प्रसिद्धनारायण सिंह, अवधेन्द्र नारायण, जगदीश ओझा 'सुन्दर', प्रभुनाथ मिश्र, चन्द्रशेखर मिश्र, रामजियावन दास 'बावला', अनिरुद्ध, अर्जुन सिंह, 'अशान्त', सतीश्वर सहाय 'सतीश', सुन्दर जी, रामनाथ पाठक 'प्रणयी', रामदेव द्विवेदी 'अलमस्त', मनोज भावुक, 'अनुरागी', राही, तारकेश्वर 'राही', कमला प्रसाद 'बिप्र', अविनाशचन्द्र 'विद्यार्थी', मधुकर सिंह, दूधनाथ शर्मा, कुंज बिहारी 'कुंज', सत्यनारायण सौरभ, रामबृक्ष राय 'विधुर', रामबचन शास्त्री 'अँजोर', सर्वेन्द्रपति त्रिपाठी, जैसे अनगिनत रचनाकार, मंगल पांडे, वीर कुंवर सिंह जैसे स्वातंत्र्य योद्धा, प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, अभिनेता नजीर हुसैन, अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, शेखर सुमन, मनोज वाजपेयी और राजनीतिक क्षेत्र में पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, बाबू जगजीवन राम, लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार इसी माटी की देन रहे हैं। 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबों', भिखारी ठाकुर की ‘विदेशिया', 'लागी नाही घूटे रामा', 'नइहर छूटल जाय', 'हमार संसार', 'बलमा बडा नादान', 'सीता मइया', 'सइयां से अइसे मिलनवा', 'भौजी', 'गंगा' आदि प्रमुख भोजपुरी फिल्में रही हैं। मोती बीए भोजपुरी के प्रथम फिल्म गीतकार माने जाते हैं।
डॉ. उदय नरायन तिवारी कहते हैं कि ‘भोजपुरी में सबसे बड़ी कमी इसमें प्रकाशित उच्च श्रेणी के साहित्य का अभाव है। भोजपुरियों को अपनी भाषा के प्रति इतना अनुराग होने पर भी यह बड़े आश्चर्य की बात है कि इस भाषा की श्रीवृद्धि नही हुई है और प्राचीन काल में भी इसकी बहनें, बंगाली, मैथिली, कौशली के मुकाबले में इसमें साहित्य रचना विशेष नहीं हुई है।’
मयंक मुरारी लिखते हैं- 'भोजपुरी लोक साहित्य ग्राम्यता के साथ जीवन के मर्म को बखूबी समेटे हुए है, जिसकी मौलिकता और विश्वसनीयता अटूट है। भोजपुरी लोक साहित्य व गीतों का क्षेत्र काफी विस्तृत है, जिसमें इतिहास, संस्कृति से लेकर जनजीवन के सभी पहलूओं का समावेश है। उत्तर भारतीय इन लोकगीतों में जैतसारी, कीर्तन, निर्गुण, पूर्वी, भरथरी, आल्हा, डोमकच, जट-जटनी आदि लोक धुनों में लोक की जिंदगी थिरकती है। बालक के जन्म पर महिलाओं द्वारा सोहर गायन का रिवाज है। उत्तर भारत में ‘पवरिया ’ का घर-घर जाकर प्रसन्नता व्यक्त करने की परिपाटी है। अपवाद ही सही अब भी नानी-दादी की कविता, कहानी,लोरियांे के ताल एवं नाद पर बच्चों की नींद आती है। विवाह में तो हरेक अनुष्ठान के लिए अलग-अलग गीतों का परिचलन है। अब भी भोजपुरी इलाकों में वर्षा में कजरी, फागुन में फाग और गरमी में चईता की धून पर सरकते जीवन का दिग्दर्शन किया जा सकता है।'
भोजपुरी के भगीरथ भिखारी ठाकुर पर जगदीशचंद्र माथुर कहते हैं- 'अनेक व्यक्तियों को बड़े लोगों के हस्ताक्षर जमा करने का शौक बचपन से ही लग जाता है और कुछ तो नेताओं, अभिनेताओं, कवियों, खेल के विजेताओं इत्यादि को अपनी दस्तखत बही की पकड़ में लाकर ऐसे ही आहृलाद का अनुभव करते हैं जैसे बाज अपने शिकार को पंजे में पकड़ लेने पर। इसीलिये अंग्रेजी में इस शौक को 'ऑटोग्राफ हंटिंग' कहा जाता है। यह शौक मुझ पर कभी हावी नहीं हो पाया। पर अब एक बार-केवल एक बार मैंने एक व्यक्ति से ऑटोग्राफ मांगा, वह व्यक्ति थे भिखारी ठाकुर।..... भिखारी ठाकुर से जब मैंने उनके हस्ताक्षर की मांग की थी, तब उन्होंने मुझसे साफ कहा था- ' हमको लिखना कहां आता है? बस थोड़ी बहुत दस्तखती कर लेते हैं।' मैं ने कहा- बस, यही चाहिए।'