Friday 26 September 2014

आज की रात पैदा हुए थे शहीदेआजम

धिक्कार है ऐसी सरकार को, जो भगत सिंह को शहीद नहीं मानती है। फिर भी गोरी हुकूमत को खौफ से धर्रा देने वाले भगत सिंह हमेशा-हमेशा भारत के हर दिल अजीज थे, हैं और रहेंगे, कोई कृतघ्न भी उनकी कुर्बानियों को विस्मृत नहीं कर सकता। इंकलाब जिंदाबाद .....भगत सिंह प्रायः ये शेर गुनगुनाया करते थे- 'जबसे सुना है मरने का नाम जिन्दगी है, सर से कफन लपेटे कातिल को ढूँढ़ते हैं।' वर्ष 1907 में आज ही के दिन (27-28 सितंबर की रात)  लायलपुर (अब पाकिस्तान में फैसलाबाद) जिले के बांगा गांव में पैदा हुए थे शहीद-ए-आजम भगत सिंह। 

होनहार बिरवान के
होत चीकने पात, बचपन से ही उनके हाव-भाव, तौर-तरीके देखकर लोग कहने लगे थे कि बड़ा होकर ये लड़का जरूर कुछ न कुछ कर दिखायेगा। भगत सिंह के पौत्र यादविंदर सिंह संधु बताते हैं कि पांच साल की उम्र में एक बार भगत सिंह अपनी मां विद्यावती के साथ खेतों पर पहुंच गए। मां ने उन्हें बताया कि किस तरह गन्ने का एक टुकड़ा खेत में रोपने से कई गन्ने पैदा हो जाते हैं। भगत पर इस बात का इतना प्रभाव हुआ कि दूसरे ही दिन वह यह सोचकर खिलौना बंदूक लेकर खेत पर पहुंच गए कि इसे रोपने से कई बंदूकें पैदा हो जाएंगी। जो भगत सिंह देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गये, आज तक वह भारत सरकार की नजर में 'शहीद' नहीं हैं। शहीद-ए-आजम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को सरकारी दस्तावेजों में शहीद घोषित करने के मुद्दे पर भारत सरकार अभी तक सिर्फ बयानबाजियां करती आ रही है। इस मसले पर नरेंद्र मोदी से भी मुलाकात कर चुके हैं। गांधीनगर (गुजरात) में इस मुद्दे पर मोदी से उनकी लगभग 40 मिनट तक बातचीत हुई थी। इस रवैये से क्षुब्ध यादवेंद्र सिंह संधू कहते हैं कि अब इसके लिए सरकार से कत्तई किसी तरह की याचना नहीं की जाएगी। अब संधू उन सभी क्रांतिकारियों को दस्तावेजों में शहीद घोषित करने की मांग कर रहे हैं, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था।
हिन्दी के प्रखर चिन्तक रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक स्वाधीनता संग्राम: बदलते परिप्रेक्ष्य में भगत सिंह के बारे में टिप्पणी की है - 'ऐसा कम होता है कि एक क्रान्तिकारी दूसरे क्रान्तिकारी की छवि का वर्णन करे और दोनों ही शहीद हो जायें। रामप्रसाद बिस्मिल 18 दिसम्बर 1927 को शहीद हुए, उससे पहले मई 1827 में भगतसिंह ने किरती में 'काकोरी के वीरों से परिचय' लेख लिखा। उन्होंने बिस्मिल के बारे में लिखा - 'ऐसे नौजवान कहाँ से मिल सकते हैं? आप युद्ध विद्या में बड़े कुशल हैं और आज उन्हें फाँसी का दण्ड मिलने का कारण भी बहुत हद तक यही है। इस वीर को फाँसी का दण्ड मिला और आप हँस दिये। ऐसा निर्भीक वीर, ऐसा सुन्दर जवान, ऐसा योग्य व उच्चकोटि का लेखक और निर्भय योद्धा मिलना कठिन है।' सन् 1822 से 1827 तक रामप्रसाद बिस्मिल ने एक लम्बी वैचारिक यात्रा पूरी की। उनके आगे की कड़ी थे भगतसिंह।'

संतोष सिंह के साथ अपने कानपुर आवास में

जय प्रकाश त्रिपाठी जी से हमारी मुलाकात यशवंत भाई के जरिए हुई.... प्रगतिशील सोच के साथ मीडिया के क्षेत्र में उन्होंने एक पूरा करियर अपने मूल्यों पर अडिग रहते हुए जिया है. जितने अच्छा ये लिखते है, पहली मुलाकात में ही मुझे उससे अधिक एक अच्छे इन्सान लगे...जयप्रकाश जी ने पूरी भारतीय मीडिया का इतिहास, उसका उतार-चढ़ाव और विकास, मूल-तत्व और सिद्धांत, और इस क्षेत्र के अपने संस्मरण/रिपोर्ताज को बड़े ही रोचक और सरल तरीके से अपनी किताब "मीडिया हूँ मैं" में उतारा है. पत्रकारों के लिए जरुरी इस किताब को मेरे जैसे अ-पत्रकार के पास होना तो बनता था....चित्र में मूल लेखक से उसकी किताब "मीडिया हूँ मैं" को प्राप्त करता हुआ.


मोदी और मीडिया में अनबन के मायने

भारतीय मीडिया इस बात को लेकर परेशान है कि प्रधानमंत्री बहुत बातें करते हैं और अच्छी बातें करते हैं लेकिन वे मीडिया से बात नहीं करते हैं. लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने अपने आप को पत्रकारों के लिए सहज सुलभ बनाया हुआ था, ख़ासकर टीवी इंटरव्यू के लिए. लेकिन अब वे अपने पुराने तरीक़े पर लौट चुके हैं जिसके तहत वे सोशल मीडिया और भाषणों के माध्यम से ही मीडिया से रूबरू हो रहे हैं बजाए कि इंटरव्यू और प्रेस कांफ्रेंस के ज़रिए.
प्रधानमंत्री बनने के बाद फ़रीद ज़कारिया इकलौते ऐसे पत्रकार हैं जिनको मोदी ने इंटरव्यू दिया है. यह इंटरव्यू एक नरम रूख़ वाला और भारतीय नेता का दुनिया के सामने परिचय कराने वाला था. अब एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया जो कि आम तौर पर एक निष्क्रिय संगठन है और जिसपर पेशेवर संपादकों के बजाए मालिकों का नियंत्रण रहता है, ने मोदी के इस रवैए पर शिकायत दर्ज की है. इस हफ़्ते जारी एक बयान में संगठन ने कहा, "सरकार के संचालन में एक हद तक पारदर्शिता की कमी है."
संगठन ने कहा, "प्रधानमंत्री दफ़्तर में मीडिया इंटरफ़ेस की स्थापना में देरी, मंत्रियों और नौकरशाहों तक आसानी से पहुंच नहीं होना और सूचनाओं के प्रसार में कमी से यह लगता है कि सरकार अपने शुरुआती दौर में लोकतांत्रिक तरीक़े और जवाबदेही के क़ायदे के अनुरूप नहीं है."
जून में वेबसाइट scroll.in की एक रिपोर्ट ने कहा गया, "मोदी के साथ वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक जिसमें उन्होंने अधिकारियों को मीडिया से दूर रहने का निर्देश दिया था, एक ऐसा तथ्य है जिसपर लोगों ने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया." प्रधानमंत्री ने अपने कैबिनेट के सहयोगियों को भी पत्रकारों से दूर रहने को कहा था और इसके बदले सरकार के आधिकारिक प्रवक्ताओं को उनके बदले बात करने को कहा था. "यह नई दिल्ली को गांधीनगर में तब्दील करने का पहला गंभीर प्रयास था. गांधीनगर में मोदी के तीन बार मुख्यमंत्री रहते हुए उनके मंत्रिमंडल के लोग बिना उनकी इजाज़त के मीडिया से बात नहीं करते थे. यहां तक कि गुजरात में मंत्रिमंडल की बैठक के बाद भी मंत्री मीडिया से बात नहीं करते थे जबकि दूसरे राज्यों में परंपरागत रूप से मंत्री इस बैठक के बाद मीडिया से बात करते है."
जब कभी भी मोदी ने महसूस किया कि उन्हें कुछ कहना है तब उन्होंने ट्वीट और अपने भाषणों का सहारा लिया. गिल्ड का कहना है कि यह पर्याप्त नहीं है.
संगठन का कहना है, "एक ऐसे देश में जहां इंटरनेट की पहुंच सीमित है और तकनीकी जागरूकता भी कम वहां इस तरह का एकतरफ़ा संवाद इतनी बड़ी पाठक, दर्शक और श्रोताओं की आबादी के लिए पर्याप्त नहीं है. बहस, संवाद और वाद-विवाद लोकतांत्रिक प्रक्रिया के आवश्यक तत्व हैं."
2002 दंगों के बाद मोदी का रिश्ता मीडिया के साथ बहुत हद तक विरोधात्मक हो गया था.
गुजरात में सबसे अधिक प्रसारित होने वाले अख़बार गुजरात समाचार को वे लंबे अर्से से पसंद नहीं करते आ रहे हैं. राज्य सरकार ने इस अख़बार के जवाब में गुजरात सत्य समाचार नाम का अख़बार निकाला जो सभी घरों में मुफ़्त में पहुंचाया जाता था. यह मोदी की उन उपलब्धियों का बखान करने वाला एक पैम्फ़लेट था जिन उपलब्धियों के ऊपर मोदी का मानना था कि अन्य अख़बार ध्यान नहीं देते हैं.
मोदी ने मुख्यधारा के मीडिया को इंटरनेट का सहारा लेकर दरकिनार कर दिया है. मोदी की सोशल मीडिया टीम में 2000 लोग हैं और इसका नेतृत्व हीरेन जोशी करते हैं. मोदी सोशल मीडिया प्रौपेगेंडा के मामले में चीनी सरकार के बाद शायद सबसे अधिक प्रभावशाली व्यक्ति हैं. वे मध्यमवर्गीय युवा पीढ़ी के चहेते हैं और मोदी भी उनसे अच्छे से जुड़ पाते हैं. उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान सभी तरह के तंत्रों का इस्तेमाल किया क्योंकि उस वक़्त उन्हें इसकी ज़रूरत थी लेकिन अब वे इस पर सोच रहे हैं. वे एक कुशल वक्ता हैं और अपने श्रोताओं तक मीडिया के बग़ैर सीधे पहुंच सकते हैं. यह उनको उन दूसरे नेताओं से अलग करता है जिन्हें मीडिया की ख़ास ज़रूरत पड़ती है. सरकार के अंदरख़ाने में क्या चल रहा है यह जानने के लिए पत्रकारों को उनके इर्द-गिर्द रहने वाले लोगों से बात करने की ज़रूरत पड़ेगी. यह आसान नहीं होगा.
(बीबीसी हिंदी से आकार पटेल का विश्लेषण साभार)