Tuesday 30 July 2013

प्यार एक बुर्जुआ स्थिति

 ज्यां-पाल सार्त्र

ज्यां-पाल सार्त्र अस्तित्ववाद के पहले विचारकों में से माने जाते हैं । वह बीसवीं सदी में फ्रान्स के सर्वप्रधान दार्शनिक कहे जा सकते हैं । कई बार उन्हें अस्तित्ववाद के जन्मदाता के रूप में भी देखा जाता है। अपनी पुस्तक "ल नौसी" में सार्त्र एक ऐसे अध्यापक की कथा सुनाते हैं जिसे ये इलहाम होता है कि उसका पर्यावरण जिससे उसे इतना लगाव है वो बस किंचित निर्जीव और तत्वहीन वस्तुओं से निर्मित है किन्तु उन निर्जीव वस्तुओं से ही उसकी तमाम भावनाएँ जन्म ले चुकी थीं। सार्त्र का निधन अप्रैल १५, १९८० को पेरिस में हआ।
ज्यां पाल सार्त्र समय के हाथ आया हुआ विडम्बनाओं का ऐसा गोलक थे जो घटनाओं के दबाव में खुलता और बंद होता रहा। इसी प्रक्रिया में उनका दर्शन अर्थ प्राप्त करता है। उनकी व्यक्तिवादी, स्वतन्त्र, स्वनियन्ता स्थितियों को वक्त के हाथों पूरी तरह खारिज होना था। मानव की अपने प्रति एक अनैतिक अनास्था अन्ततः एक घोर नैतिक युद्ध में परिणित होनी थी। उन का जीवन अभिशप्त स्थितियों के घेरों को तोड़ कर एक सक्रिय सामाजिक जुझारू बौद्धिक के रूप में सामने आया। उद्देश्यहीनता, अर्थहीनता और निरन्तर मृत्युबोध की स्थितियाँ कब समय की क्रूरता और अन्यायों से लड़ते लड़ते छिन्न-भिन्न हो गईं, सार्त्र को स्वयं इस का अहसास तब हुआ जब उन्हें दूसरे विश्वयुद्ध में नाज़ियों ने बन्दी बना लिया। कुछ हो सकने की प्रतीक्षारत रिक्तता में बैठ रहने का अस्तित्वादी दर्शन उस समय की विस्तृत, विशाल लेकिन क्रूर ऐतिहासिक घटनाओं की पृष्ठभूमि में प्रमाणित से अधिक खंडित ही हुआ।
सार्त्र बहुत कम स्थितियों में अपना चुनाव स्वयं कर पाने की परिस्थिति में रहे। 3 वर्ष की आयु में उन की दायीं आँख की रोशनी लगभग जाती रही थी। 18 महीने की आयु में उन के पिता का देहान्त हो गया। वे बारह वर्ष के थे जब उन की माँ ने दूसरी शादी कर ली। ये ऐसी परिस्थितियाँ थीं जिन के वे नियन्ता नहीं हो सकते थे। दो विश्वयुद्ध हुए। दूसरे विश्वयुद्ध में उनकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता छिन गई। इस के एक दम बाद 1950 में कोरिया का युद्ध हुआ। फ्रांस और वियतनाम के बीच उपनिवेशिकता के विरुद्ध घोर संघर्ष हुआ। फिर फ्रांस के विरुद्ध अल्जीरिया का स्वतन्त्रता संघर्ष चला जिस में सार्त्र की अहम्‌भूमिका रही। वियतनाम पर अमरीका का साम्राज्यवादी आक्रमण हुआ। सार्त्र अमरीका के विरुद्ध एक अन्तर्राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष रहे। रूस में स्टालिन के अधिनायकवाद ने कम्यूनिस्ट पार्टी की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचाया। हंगरी और चेकास्लोवालिया में रूस का सैनिक हस्तक्षेप सार्त्र को पूरी तरह निराश कर गया और वे कम्यूनिस्ट पार्टी से विमुख हो गये। समय की इन महानियन्ता घटनाओं ने व्यक्ति के स्वनियन्ता होने के बोध को जहां खंडित किया वहां व्यक्ति की पारस्परिक स्वतन्त्रता के सिद्धान्त को बहुत पुष्ट भी किया। इस समस्त समय में विज्ञान और दर्शन एक दयनीयता के शिकार हुए लेकिन सार्त्र इस संत्रास की दयनीयता से उभर कर मानव जाति के एक राजनीतिक भविष्य में विश्वास करने लगे।
सार्त्र के अस्तित्ववादी दर्शन का प्रभाव उनके जीवन काल में ही झीना पड़ गया था। उन्होंने व्यक्ति की स्वतन्त्रता और उसकी नियन्ता स्थिति के साथ सामाजिक ज़िम्मेवारी का समावेश करके अस्तित्ववाद को मार्क्सवाद की स एक अंतर्धार के रूप में देखने की ईमानदार कोशिश की थी। इसके फलस्वरूप वह सिरोन कीर्कगार्द के मौलिक सिद्धांतों से दूर जा पड़े। कीर्कगार्द वस्तुतः अपनी प्रेरणाओं में पूर्णतः अनीश्वरवादी नहीं थे। उनका विश्वास था कि ईश्वर मनुष्य से बहुत दूर है और उसे एक गहन विश्वास से ही महसूस किया जा सकता है। व्यक्ति की दैनिक वास्तिवक स्थितियों में अनिर्षित विश्वास का बहुत परोक्ष आधार ही हो सकता है फिर भी आधार की स्वीकृति थी ही। लेकिन सार्त्र ईश्वर की सत्ता को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते थे। ईश्वर का अस्तित्व मानव-मात्र के लिए पहले से ही बहुत कुछ निश्चित कर देता है। और इंसान की स्वतंत्रता तथा अपने प्रयत्नों द्वारा अपना निर्माता होने की स्थिति को खंडित करता है। इससे एक विचार-स्थिति और आगे जाकर सार्त्र ने अकेले व्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता के अर्थ को भी संशोधित किया। वे सामूहिक स्वतंत्रता के पक्ष में रख कर ही व्यक्ति की स्वतंत्रता को देखने लगे थे।
महज़ एक अस्तित्ववादी, दार्शनिक, उपन्यासकार, नाटककार या अन्य विधाओं के लेखक के रूप में ही नहीं, हमें सार्त्र के राजनीतिक दर्शन और सामाजिक कर्मशीलता को भी बराबर ध्यान में रखकर ही उनके समग्र व्यक्तित्व का जायज़ा लेना होगा। सार्त्र के अंतिम दस या कुछ अधिक वर्ष उनकी आंतरिकता के बाह्यीकरण का इतिहास हैं। अंतिम वर्षो में उनका बिगड़ता हुआ स्वास्थ्य उन्हें काफी सीमित करता था। इसलिए उन्होंने अलग-अलग माध्यमों द्वारा अपने चिंतन को अंकित किया। रेडियो, टेपरिकार्डिंग, भाषणों और विस्तृत साक्षात्कारों और अपने कुछ अंतरंग मित्रों के साथ डायलाग के द्वारा वे सामाजिक मुद्दों से बड़े सक्रिय रूप में जुड़े रहे। ये माध्यम उनकी लिखित वैचारिक निधि से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। उनके सारे अंतर्विरोध इन माध्यमों में खुलकर सामने आते हैं। जो बातें लेखन में अनकही, अधूरी या अस्पष्ट रह जाती हैं, उनकी बातचीत के लम्बे सत्रों में इस तरह प्रकट होती हैं जैसे एक मासूम व्यक्ति कई तरह से अपनी बात समझाने की कोशिश करता है। लेकिन फिर भी जैसे सब कुछ अपूर्ण ही रह जाता है। कहने-सुनने वाले असंतुष्ट ही रह जाते हैं। इस अपूर्णता और असंतुष्टि का चित्र जब एक महान दार्शनिक का अपने अंतिम वर्षों में उभरता है तो लगता है कि वे पूरी तरह समाजवादी होकर भी अपने गहनतम अलक्षित अंतस में मूलतः अस्तित्ववादी ही बने रहे। अपनी अपूर्णताओं की रिक्तता को विचारों से नहीं भरा जा सकता। वास्तविकताओं और दर्शन को परस्पर स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। यह गहन एकांत व्यक्तिवादिता उन्हें उद्वेलित करती ही रहती थी। अपने उद्देश्य निर्धारित करने में और उन्हें पूरा करने में जिस अस्तित्ववादी स्वतंत्रता की आवश्यकता होती है वह मिल जाने पर भी उद्देश्यों की पूर्ति अकेले इंसान की स्वतन्त्रता से नहीं हो सकती, इस बात का अहसास जितना गहरा होता गया, उतनी ही निराशा उन्हें इसके विपरीत और अपने पक्ष में खड़े दर्शन को कार्यान्वित करने वाली कम्यूनिस्ट पार्टी से हुई और वे दोनों विचार-पद्धतियों के बीच समन्वय का रास्ता ढूंढते रहे।
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1960-80 के बीच विश्वस्तर पर सार्त्र की अपनी लेखकीय और सामाजिक मान्यताओं के स्तर पर बहुत कुछ महत्वपूर्ण घटा। फ्रांस और अल्जीरिया के बीच संघर्ष अपनी निर्णायक स्थिति में था। अल्जीरिया के लिए यह अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई थी और फ्रांस के लिए अपना साम्राज्य बनाए रखने का संघर्ष था। सार्त्र ने अपनी सरकार का घोर विरोध किया। अल्जीरिया के युवकों का साथ दिया, फ्रांस में भी एक जनआंदोलन अल्जीरिया के पक्ष में उभरा जिसके प्रणेताओं में सार्त्र रहे। कुछ राष्ट्रवादी फ्रांसीसी युवकों ने दो बार सार्त्र के निवास पर बम फेंके, उन्हें रास्ते से हटा देने के लिए। उधर अमेरिका में सिविल लिबर्टीज़ का आंदोलन मार्टिन लूथर किंग चला रहे थे। छोटे छोटे और बड़े जनसमूहों को साथ लेकर। सार्त्र की पुस्तक Critique में जिन छोटे बड़े समूहों ने मिलकर सत्ताधारियों के लगातार विरोध की बात की थी, इन अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं ने उस सिद्धांत की एक क्रियात्मक पूर्ति ही की। ये लड़ाईयाँ एक ही स्थिति में निर्णायक न होकर अपना प्रभाव समूचे समाज की मानसिकता बदलने में रखती हैं। इसके विपरीत एक छोटे से समयांश पर फैली हुई हिंसात्मक क्रांति उसी समय यदि सफ़ल हो भी जाए, तो क्या मानसिकता को लंबे समय तक बदल सकती है? स्वतन्त्र मानव समूहों के अलग-अलग समयों और स्थानों पर चलने वाले आंदोलनों और विरोधों को सार्त्र पारंपरिक मार्क्सवादी विशाल जनसमूहों के उभार और छोटे से समय में सब कुछ बदलने वाली निर्णायक स्थितियों के विरोध में खड़ा देखते थे।
अमेरिका उन्हीं दिनों बड़े पैमाने पर वियतनाम पर अपनी घोर साम्राज्यवादी क्रूरता थोपने में लगा हुआ था। सार्त्र ने इसका भी ज़ोरदार विरोध किया। इंग्लैण्ड के महान दार्शनिक बरट्रेंड रसल द्वारा वियतनाम युद्ध की जाँच समिति जब गठित की गई तो सार्त्र को उस समिति का अध्यक्ष बनने को कहा गया। उस समिति ने अमेरिका को मासूम जनसमूहों पर अत्याचार करने और दूसरे देश पर अपना आधिपत्य थोपने के अपराध का स्पष्ट शब्दों में दोषी ठहराया और साम्राज्यवाद की भर्त्सना की। इस जांच समिति की दूसरी बैठक फ्रांस में करने का प्रस्ताव रखा गया, लेकिन 'दिगाल' की सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी। इसी दशक में रूस ने चैकोस्लोवाकिया के सुधार आंदोलन को बुरी तरह कुचला। सभी को रूस की कम्यूनिस्ट पार्टी से बहुत निराशा हुई। 1968 में पेरिस में प्रमुख रूप से युवकों के जनआंदोलन को 'दिगाल' की सरकार ने अपने छोटे-छोटे उद्देश्यों की पूर्ति में असफ़ल कर दिया। उसका कारण काफ़ी हद तक यही रहा कि फ्रांस की शक्तिशाली कम्यूनिस्ट पार्टी ने उन युवकों को बिल्कुल समर्थन नहीं दिया। वह सत्ता में आने की या शासन पलट देने की लड़ाई नहीं थी जिसके लिए कोई बड़ी क्रांति दरकार थी। फिर भी पार्टी की चुप्पी ने सार्त्र को बहुत निराश किया। उधर क्यूबा में फिदैल कास्त्रो की ज्वलन्त क्रांतिकारिता ने सबको आशान्वित किया था। सार्त्र फ़िदैल से क्यूबा जाकर मिले भी थे। लेकिन रूस के प्रभाव में आकर उस क्रांति का स्वरूप एक दमनकारी राज्य में बदल गया। सार्त्र ने उसका विरोध किया जिसके लिए फ़िदैल ने खुले तौर पर सार्त्र की निंदा की थी।
समाजवाद और स्वतन्त्रता के सिद्धांतों में विश्वास करने वाले छोटे-छोटे जनसमूहों से सार्त्र का मित्रतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो गया। ये समूह अपने आपको माओज़ (Maos) कहलाते थे। ये वामपन्थी थे, लेकिन कम्यूनिस्ट पार्टी से इनका कोई सम्बन्ध नहीं था। इन्होंने एक पत्र La Cause Du Peuple नाम से प्रकाशित करना शुरू किया। इस प्रकाशन का कोई मालिक नहीं था। इस में सरकार की नीतियों के विरुद्ध कोई भी आम आदमी लिख सकता था। एक तरह के उग्रवादी कर्मियों द्वारा ही यह पत्र गलियों, चौराहों पर बेचा जाता था। सरकार के आदमी प्रेस में जाकर इसकी प्रतियाँ ज़ब्त कर लेते थे। दो सम्पादकों को गिरफ्तार भी कर लिया गया। सबने कहा कि सार्त्र को स्वयं सम्पादक के रूप में इसे शहर की गलियों में बेचना चाहिए। मई एक, 1970 को सार्त्र अपने वामपंथी साथियों के साथ चौराहों पर यह पत्र बेचते रहे। उनकी शक्ति और ख्याति को देखकर उन्हें तो गिरफ़्तार नहीं किया गया, लेकिन दूसरे विक्रेताओं को पकड़ कर उन पर मुकद्दमा चलाया गया। जून, 1970 में सार्त्र ने प्रमुख वामपन्थी संगठनों के साथ मिल कर Secours-Rouge की स्थापना की। इस संस्था का घोषणापत्र सार्त्र ने लिखा जिस में कहा गया था कि सरकारी नीतियों से प्रताड़ित व्यक्तियों और उनके परिवारों की मदद के लिए संस्था काम करेगी, उनकी नैतिक आर्थिक सहायता करेगी। उन के संघर्ष में उनका साथ देगी। हज़ारों की संख्या में फ्रांस के लोग इस संस्था के सदस्य बने।
अपने लेखन में भी सार्त्र ने अपने समय में फैले हुए राजनैतिक, औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ उठाई। तीसरी दुनिया में राजनैतिक आज़ादी आने पर भी तरह-तरह की साम्राज्यवादी ताकतें उन्हें उपनिवेश बनाए रखना चाहती थीं। फ्रांज़ फ़ैनन की The Wretched of the World पुस्तक का पूर्वकथन सार्त्र ने उन दिनों लिखा जब अल्जीरिया अपनी स्वतन्त्रता संघर्ष के अंतिम चरण में था। साम्राज्यवादी ताकतें किस तरह अपने उपनिवेशों का शोषण करती हैं और उन्हें राजनैतिक आज़ादी देने के बाद भी किसी न किसी तरह उनकी औपनिवेशिक स्थिति बनाए रखना चाहती हैं, इस बात का चित्रण एक साहसिक दस्तावेज़ है। फ़ैनन अल्जीरिया की अंतरिम सरकार के अधिकारी थे। इन्हीं दिनों कांगो के नेता पैट्रिक लुमुम्बा के प्रसिद्ध भाषणों की पुस्तक का प्राक्कथन भी सार्त्र ने लिखा। इसमें स्पष्ट रूप से उन्होंने कहा कि यूरोप दुनिया का केंद्र कभी नहीं बन सकता। उसका साम्राज्यवादी सपना कभी पूरा नहीं हो सकता। लुमुम्बा की हत्या के पीछे कुछ बाहर की पूंजीवादी ताकतें थीं और कुछ कांगो के ही बुर्जुवा कोयला खानों के मालिक थे।
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सिर्फ़ लेखन ही नहीं, सार्त्र अपने व्यक्तिगत दैनिक जीवन में भी सिर्फ़ गुम्बद में बैठकर सोचने वाले बौद्धिक नहीं रह गए थे। कैफ़े में बैठे हुए, चुरूट पीते हुए, दूसरे बौद्धिकों के धुएं को अपने धुएं से गहराते हुए आत्मलिप्त सार्त्र नहीं रह गए थे। रातों को शराब और दिन में Corydrane, Metamethane खाने वाले सार्त्र अब अपने अंतिम दिनों में एक आम मज़दूर कार्यकर्ता के साथ, जुलूस निकालने वाले जनसमूहों के साथ, विद्रोही विद्यार्थियों की टोली के साथ, शहर की गलियों, चौराहों पर उन्हीं में से एक बन कर, कभी इन के अगुआ बन कर, उन्हें भाषण देते हुए, कभी कुछ भी न होकर एक आम आदमी की तरह उन में शामिल होकर अपने समय की जीवन्त शक्ति बन गए थे। Being and Nothingness की एकान्तिक स्वतन्त्र यात्रा, उद्देश्यहीन, अन्ततः कुछ न हो सकने का अपने ही अनिश्चयों का फैलाव अब एक निश्चित रूप से अस्तित्ववादी और समाजवादी चिन्तन के आधार का कार्यान्वित उदाहरण बन गया था। इस अन्तर की प्रामाणिकता के लिए उन के आरंभिक दिनों में लिखे हुए उपन्यास Nausea के मुख्यपात्र रौक्वैन्टिन की मनस्थिति का एक चित्र काफ़ी है। यह उपन्यास सार्त्र की अस्तित्ववादी कृति Being and Nothingness के दर्शन का ही कथात्मक अंकन है।
अपनी आत्कथात्मक अभिव्यक्ति Word में सार्त्र ने कहा था, तीस वर्ष की उम्र में मैंने अपनी पूर्ण लेखन शक्ति के साथ Nausea में कहा था, विश्वास करो, मैंने पूरी ईमानदारी के साथ कहा था कि हम सब का जीवन एक कड़वाहट है, एक अनाधिकार चेष्टा है जीने की। मैंने अपने-आप को ही उस अनाधिकृत स्थिति से मुक्त करने के लिए ऐसा लिखा था। मैं स्वयं ही रौक्वैन्टिन (Nausea का मुख्यः पात्र) था। मैंने बिना किसी अनिश्चय के अपने ही जीवन की बुनावट व्यक्त करने की कोशिश की थी।
उपन्यास में रौक्वैन्टिन कहता है - इस ज़िंदगी का तानाबाना हास्यास्पद नाटिका है। ये सब लोग जो यहां बैठे खा-पी रहे हैं, देखने में गंभीर लग रहे हैं - इन सब की अपनी-अपनी कठिनाईयां हैं जो इन्हें अपने अस्तित्व का अहसास नहीं होने देतीं। इन में से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो स्वयं को किसी और के लिए अत्यावश्यक समझता हो, यह समझता हो कि उसका होना किसी और के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।... वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है, कुछ भी नहीं। जीवित रहने का कोई भी कारण नहीं है। हम एक दूसरे के अस्तित्व को सीमित कर रहे हैं। यही वह अर्थहीनता है जो चारों तरफ फैली हुई है। इस अर्थहीनता में मैं आज़ाद हूँ, अकेला हूँ - लेकिन आज़ाद हूँ। और यही वह सार्त्र हैं जिन्होंने 1964 में एक साक्षात्कार में कहा था, एक मरते हुए बच्चे के बराबर रखकर देखने से Nausea का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
इस तरह की आंतरिकता का बाह्यीकरण सार्त्र के अंतिम वर्षों में हर जगह उनके कार्यों और मान्यताओं में देखने को मिलता है। उसी दृष्टि से सार्त्र ने 1965 में कहा था - कि मेरे लिए व्यक्तिवाद बाह्य वास्तविकताओं का ही अन्तरीकरण है। करीब करीब यही उनका आधारभूत विश्वास बना रहा कि एक ही व्यक्तित्व में वैश्विक वास्तविकताएं समाहित हैं और यही तथ्य व्यक्ति के संसार में उत्तरदायित्व पूर्ण ढंग से जीने का तर्क भी है। इसी तर्क को सार्त्र ने हमेशा प्रयोग किया, और वे हमेशा शुद्ध व्यक्तिवादियों की अवांछनीयता से बचते रहे जो पाश्चात्य दर्शन पद्धतियों में भरी पड़ी हैं। उन्होंने अपने इस Singular Universal वाले तर्क को केवल कवच के रूप में इस्तेमाल नहीं किया। वरना The Critique of Dialectical Reason से आगे का विकास एक लगातार बहती हुई विचार प्रक्रिया के रूप में देखना आसान नहीं होता। उनका कोई भी विचार अपनी पूर्णता प्राप्त करने के पश्चात एक बिंदु पर आकर समाप्त नहीं हो जाता। उसके आगे हमेशा कुछ और संभावनायें, एक खुलापन बचा रहता है। इसीलिए विचार अपनी अन्तरिम स्थिति में ही रहते हैं। सभी दर्शनों के Absolutism के सार्त्र विरोधी थे। एक Open Endedness जीवन का मूलभूत सिद्धांत है। जिस तरह कोई भी क्षण निश्चित नहीं है, सिर्फ़ उस का अहसास निश्चित है, उस की संभावना निश्चित है। विकास एक गतिमान और अस्थायी स्थिति है चाहे वह विचारों की हो या स्थितियों की। यही कारण था कि पार्टी की कट्टरपंथी प्रणालियों से मोहभंग होने पर भी सार्त्र समाजवाद में विश्वास रखते रहे। लेकिन उसके साथ ही मार्क्सवाद के आगे भी कुछ संभावनाएं हैं, इस के आधारभूत उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए और उपाय भी इस में जोड़े जा सकते है, ऐसा विश्वास उन्हें हमेशा रहा। 70 वर्ष की आयु में Michel Contac के साथ एक लंबे साक्षात्कार में (जून 23-जुलाई 7,1975) जब सार्त्र से पूछा गया कि आप अब मार्क्सवादी दर्शन में विश्वास रखते हैं लेकिन आपको तो लोग अस्तित्वादी दार्शनिक के रूप में ही जानते हैं। अगर आप को दोनों में से एक लेबल चुनना पड़े तो कौन सा लेबल आप अपने लिए चुनेंगे? आप अपने को मार्क्सवादी कहलाना पसंद करेंगे या अस्तित्वादी? सार्त्र का उत्तर था कि वे अस्तित्वादी कहलाना पंसद करेंगे। क्योंकि उसमें विकास की स्थिति मौजूद है।
अपने समाजवादी दृष्टिकोण और व्यक्ति की स्वतंत्रता को एक प्रकार से नैतिक आधार पर समन्वित करते हुए सार्त्र Benny Levy द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हैं। Levy का प्रश्न था कि स्वतन्त्रता को आप किस प्रकार सामाजिक उद्देश्य के लिए प्रयोग करेंगे? जिन लोगों के पास शक्ति है, वे स्वतन्त्र होकर दूसरों पर उसे थोपते हैं। इन दोनों तरह की स्वतंत्रताओं को आप किस तरह अलग करेंगे? इस का उत्तर देते हुए सार्त्र ने कहा था कि वे सब लोग जो समाजवाद चाहते हैं, चाहे वे इस बात को कहें या न कहें, एक स्वतन्त्रता की स्थिति की खोज में हैं। और जिस क्रांतिकारी व्यक्ति की बात हम करते हैं, वह ऐसे ही समाज/व्यवस्था की कल्पना करता है जहां स्वतन्त्रता भविष्य की एक सच्ची वास्तविकता होगी। समाजवाद और स्वतंत्रता उन के चिंतन के केन्द्र में रहे।
Flaubert के जीवन पर लिखे गए अपने अंतिम महाख्यान Family Idiot के विषय में वे कहते हैं कि वह एक समाजवादी कृति है। अपनी मृत्यु से एक वर्ष पहले अपनी उम्र भर की साथी सिमोन द बोआ के साथ 'डायलाग' में सार्त्र लगभग घोषणा करते हैं - बीस वर्ष की उम्र में मेरे कोई राजनैतिक विचार नहीं थे, यह कहना भी अपने आप में एक राजनैतिक मुद्‌दा है। अब मेरा अंत हो रहा है - सोशलिस्ट-कम्यूनिस्ट के रूप में और मैं मानवमात्र के लिए एक राजनैतिक भविष्य की अपेक्षा रखता हूँ। सिमोन को शायद ज़रूर याद आया होगा 1939 का वह सार्त्र जिसने अपनी तीन डायरियां - सिमोन को मिलिट्री बेस से भेजी थीं। एक Nothingness के बारे में, दूसरी Violence पर और तीसरी Bad Faith पर जो तीनों मिलकर Being and Nothingness का आधार बनी थीं।
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विश्व के जिस राजनैतिक भविष्य की बात अपने अंतिम दिनों में सार्त्र सोचते रहे, उसके कई आयाम थे। तीसरी दुनिया का अस्तित्ववाद, नवउपनिवेशवाद, समाजवाद और उस के अन्तर्गत व्यक्ति की स्वतन्त्रता और मध्यपूर्व में नई राजनैतिक इकाईयों का उदय ऐसे ही महत्वपूर्ण मुद्दे थे। अरब-इसराइली संघर्ष को सार्त्र काफी गंभीर रूप से लेते थे। 1979 में उन्होंने अपने पत्र Les Modernes के तत्वाधान में बौद्धिकों की एक बैठक पेरिस में बुलाई। इस में अमेरिका से एडवर्ड सईद भी आमंत्रित थे। यह सिर्फ़ बौद्धिकों का सम्मेलन था। इस के पास कोई निर्णायक राजनैतिक शक्ति नहीं थी, केवल लोकमत बनाना ही इस का उद्देश्य था। लेकिन अपने बुरे स्वास्थ्य के कारण सार्त्र अपने साथी विक्टर पर अधिक आश्रित हो गए थे। इसलिए इस सम्मेलन का स्वरूप किसी भी प्रकार व्यवस्थित या संतोषजनक नहीं हुआ। एडवर्ड सईद नाराज़ होकर पेरिस से अमेरिका लौटे। इन बातों का ब्यौरा देते हुए सिमोन विक्टर को दोषी मानती हैं जिन्होंने उन दिनों सार्त्र की मानसिकता को हड़प रखा था। विचार-स्थापना के लिए हो या हितों की रक्षा के लिए, शक्तिप्रयोग को सार्त्र इतिहास विरोधी हथकंडा मानते थे। शक्तिप्रयोग मानव विकास की अवधारणा में अन्तरिम (Interim) रूप से भी नहीं आता, अस्थाई उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी उसे मान्यता नहीं दी जा सकती, सार्त्र ऐसा मान कर अपने उत्तरदायित्व का लेखा-जोखा करते रहे। जनवरी 1980 में इसी शक्ति प्रयोग का विरोध उन्होंने किया जब Andrei (आन्द्र) सख़ारोव को गृहबंदी बनाया गया। उन्होंने मास्को-ओलम्पिक्स के बायकाट का समर्थन भी किया। उन के प्रयासों में अन्तर्विरोध उन्हें एक ऐसी मानवीय ऊँचाई पर स्थापित करते हैं जो राजनैतिक सामयिक मुदों और अस्थाई उद्देश्यों से उन्हें बहुत ऊपर बना रहने देती है। सिर्फ़ एक पक्ष का विचारक उन्हें आसानी से खारिज करके आगे बढ़ सकता है, लेकिन ऐतिहासिक समग्रता उन के दायें-बायें खड़ी दिखाई देती है।
जब नाज़ियों ने फ्राँस पर कब्ज़ा कर रखा था तो सार्त्र ड्राफ्ट होकर सैनिक बन गए थे, उसके बाद वे फ्रांसीसी लेखकों के साथ मिलकर युद्ध के विरोध में सक्रिय थे। इस युद्ध ने उनका अकादमिक और सैद्धांतिक स्तर पर जीने वाले बौद्धिक का स्वरूप बदल दिया था। वे खुली सड़कों पर सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में अपने आप को देखने लगे थे। यह परिवर्तन अनुशासित या नियंत्रित नहीं था। यह बाह्यीकरण एक स्वतःस्फूर्त विरोध स्थिति थी जो सिर्फ़ इसी बिंदु पर आकर ठहर नहीं गई। एक सोशेलिस्ट दृष्टि की पहली स्वीकृति और विश्वस्तता यहीं से शुरू हुई जो अंत तक बनी रही। सार्त्र के लिए मार्क्सवाद एक 'वाद' के रूप में या संपूर्ण जीवन-पद्धति के रूप में कम प्रासंगिक रहा। लेकिन मनुष्य के सामूहिक विघटन के विरोध में एक संयत सामूहिक कार्यविधि के चिन्तन स्वरूप वे हमेशा के लिए इस विचार से जुड़ गये थे। मनुष्य की एकल स्वतंत्रता और नियन्ता होने की अभिशप्त स्थिति से यह कितनी भिन्न स्थिति है, इसका जायज़ा लेने के लिए सार्त्र के उपन्यास Age of Reason के एक पात्र का आर्तनाद काफ़ी है, वह स्वतंत्र था, हर बात के लिए स्वतंत्र, एक जानवर की तरह व्यवहार करने के लिए स्वतंत्र, या किसी मशीन की तरह.......। वह जो कुछ भी चाहे कर सकता था, किसी को उसे कुछ भी सुझाने का अधिकार नहीं था। वह एक राक्षसी मौन में अकेला है, किसी कारणवश नहीं। किसी भी संभावित उद्देश्य के बिना वह अपने निर्णय लेने के लिए अभिशप्त है अबाध रूप में स्वतंत्र होने के लिए अभिशप्त।
विडंबना इतनी सघन और वास्तविक हो सकती है, इसकी प्रमाणिकता उस विकास में लक्षित होती है, जो हम सार्त्र की अपनी कृतियों और जीवन में देखते हैं। अपने अंतिम दिनों में उन्होंने बहुत कुछ बोल कर व्यक्त किया। 72 वर्ष तक आते-आते उनकी दूसरी आँख भी हेमरेज से खराब हो गई थी। वह बिल्कुल पढ़ नहीं सकते थे, सिमोन उन्हें किताबें पढ़ कर सुनाती थी। 70 वर्ष की आयु में जो सार्त्र हमारे सामने आते हैं, उससे एक लोमहर्षक एहसास उभरता है। उनकी पूरी जीवित मरणासन्नता में जो कुछ हम देखते-सुनते हैं, वह जिंदगी के तमाम ऊसरों बंजरों, पर्वतों, जंगलों, नदियों से होते हुए मनुष्य के उच्छवासों, प्रेरणाओं, वासनाओं, प्रणयस्थितियों, अनगिनत धूप-छांह, उजालों-अंधेरों के बीच से गुजरते हुए अपने शारीरिक अंत में विलय होने की सौम्य और निर्विकार स्थितियाँ हैं। ऐसी स्थितियाँ जिनसे सांझा करने के बाद हम सार्त्र से प्यार कर उठते हैं। हालांकि प्यार सार्त्र के लिए एक बुर्जुआ स्थिति थी जिसमें एक व्यक्ति अपने-आप को दूसरे पर सिर्फ़ थोपता है।
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उनके इन अंतिम वार्तालापों, परिवर्तनों और शारीरिक स्थितियों तक आने से पहले उन की बौद्धिक यात्रा चरमस्थल The Critique of Dialectical Reason को देखना ज़रूरी है जो उन्होंने काफ़ी हद तक मार्क्सवाद के प्रतिदर्शन के रूप में लिखा। The Critique of Dialectical Reason के भाग दो में उनकी निराशा-स्वीकृति दर्ज़ है कि बीसवीं सदी की घटनाओं की विभीषिका के उपरांत यदि भविष्य के प्रति आशावान होना संभव न भी हो, कम से कम इन प्रक्रियाओं को समझने का प्रयत्न तो किया ही जा सकता है।
मानव जाति का विनाश किसी प्राकृतिक दुर्घटना से भी हो सकता है और परमाणु बम से भी। मनुष्य अगर अपनी नियन्ता स्थिति तक पहुँच कर प्राकृतिक दुर्घटनाओं को नियंत्रित कर पाने में सफल हो भी जाए, फिर भी भिन्न-भिन्न संहारक शक्तियों के प्रयोग की स्थितियों पर नियंत्रण की संभावना अभी न है, और न ही अभी उसकी कल्पना की जा सकती है। इस कारण अस्तित्व किसी उद्देश्य की कल्पना मात्र को ही हास्यास्पद बना देता है। क्रमों में घटती हुई स्थितियों का जोड़ एक लंबी स्थिति की परिकल्पना नहीं करता। प्रत्येक क्षण अपने आप में एक निश्चित और सामायिक स्थिति है। इन्हें जोड़ कर देखना किसी घटना का प्रतिफलन नहीं हो सकता। स्थितियों का क्रमिक संघर्ष एक इतिहास के रूप में नज़र आता है। पर, वास्तविकता यही है कि वे अर्न्तविरोधों की अलग-अलग कड़ियां है। उन्हें जोड़ कर देखने से एक कथा नहीं बुनी जा सकती, न ही उनके घटने के मूल कारणों को पकड़ा जा सकता है। The Critique of Dialectical Reason भाग दो, में सार्त्र कहते हैं यदि प्रकृति का कोई तार्किक सिद्धांत हो तब भी इन स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं होगा। दूसरी ओर, इसमें भी संदेह नहीं कि विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र का विकास इस सीमा तक हो सकता है कि वे प्रकृति की संहारक घटनाओं को कुछ समय के लिए टाल कर रख सकें। यह भी संभव हो सकता है कि मानव नक्षत्रीय महाकाश के पार जाकर भी अपने अस्तित्व को हमेशा बचाये रखने के उपाय ढूँढ निकाले। लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि प्रकृति की संहारक घटनाओं को ऐसी उपलब्धियां प्राप्त होने तक रोका जा सके। इस का कोई प्रमाण हो भी नहीं सकता क्योंकि हम दो भिन्न प्रकार के घटना-क्रमों का सामना कर रहे हैं।
इसी तरह सार्त्र का विश्वास था कि मानवमात्र के क्रियाकलापों का जोड़ मिला कर कुछ सांझे तत्व नहीं निकाले जा सकते जो सभी मनुष्यों पर लागू हों। मानव स्वभाव को एक परिभाषा के अर्न्तगत रखकर उनका सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। Critique के Volume 1 में सार्त्र कहते हैं मित्रता का अर्थ या कार्यकारी स्वरूप Socrates के ज़माने में वही नहीं था जो हमारे ज़माने में है। इस अन्तरीकरण के आधार पर मानव-प्रकृति के सिद्धांत को पूरी तरह खारिज किया जा सकता है। केवल आदान-प्रदान और परस्परता का सम्बंध ही उजागर होता है जिसे हम वैश्विक व्यक्तिकरण कह सकते है, और वही सारे मानव-संबंधों का आधार बनता है। इस तरह के एकल व्यक्तित्ववादी, प्रकृति और मानव अस्तित्व में क्रमों की क्षणिक निश्चितता, असम्बद्धता और अपूर्णता की एक सैद्धांतिकी निर्मित करने वाले दार्शनिक अपने अनुभवों, क्रियात्मक अनिवार्यताओं और घटनाओं की तर्क-सम्बद्धता में एक अस्तित्ववादी संयोग ढूँढते ढूँढते समाजवादी सामूहिकता तक पहुँचते हैं। लेकिन उन सामूहिक प्रयासों की परिणिति को वे फिर भी व्यक्ति की स्वतंत्रता में ही समान्वित होते हुए देखते हैं।
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अपने बिल्कुल अंतिम वर्षों में सार्त्र की सिमोन के साथ हुई एक लम्बी बातचीत सिमोन की पुस्तक Adieux में सम्मिलित है। एक वर्ष युद्धबंदी रहने के बाद के अनुभवों की बात करते हुए सार्त्र कहते हैं कि वे सत्ता के शांतिपूर्ण ढंग से विरोध करने की उपयोगिता और शक्ति को जेल से आने के बाद ही समझने लगे। अपनी इच्छा के विरुद्ध थोपे गए कानूनों और सरकारी आज्ञायों की वे अवज्ञा करते थे और इस में ही अपनी स्वायत्ता देखने लगे थे। 1940 से नवम्बर 1942 तक फ्रांस का दक्षिणी भाग नाज़ियों का गुलाम नहीं था। उस स्वतंत्र प्रदेश में दूसरी तरफ के लोगों को जाने की अनुमति नहीं थी। लेकिन सार्त्र अपने साथियों के साथ गैरकानूनी ढंग से वहां जाते थे। पहिले वे सत्ताधारियों को सिर्फ़ नफ़रत करते थे, उनका विरोध नहीं। लेकिन अब इस विरोध में ही वे अपनी स्वतन्त्रता देखते थे। नाज़ियों के फ्रांस से बाहर चले जाने पर ही वे अपने उपन्यासों को अर्थ प्राप्त करते हुए देखते थे। सिमोन को वे बताते हैं, जब मैं Being and Nothingness पर काम कर रहा था, तो मानता था कि व्यक्ति मृत्यु के निकट ले जाने वाले भीषण क्षणों में भी अपनी स्वतन्त्रता बनाए रख सकता है। पर अब मेरी मान्यता बदल गई है। Devil and the Good Lord का ज़िक्र करते हुए वे पादरी हैनरिक की नियति की चर्चा करते हैं। उस पादरी की धार्मिक मान्यता केवल उसके चर्च के भीतर ही सुरक्षित और स्वतंत्र थी। बाहर के लोगों से भी पादरी के सम्बन्ध थे जो उसके चर्च में विश्वास नहीं करते थे। जब भी वह उन से मिलता था, तो एक विरोध की स्थिति पैदा होती थी। ये सारी स्थितियाँ उसके भीतर के विरोध की स्थितियाँ भी थीं, सिर्फ़ बाहर की ही नहीं। वह अपनी सामाजिक स्थापनाओं में स्वतन्त्र नहीं था।
अपनी 71 वर्ष की आयु में सार्त्र बड़े रोचक ढंग से सिमोन को वह किस्सा बताते हैं जब अचानक उन्हें बोध हुआ कि 'ईश्वर नहीं है।' अपनी पुस्तक The Words में सार्त्र ने बताया है कि जब वह बारह वर्ष के थे तो वह अपने पास माचिस की डिब्बियां रखा करते थे और छोटी-छोटी आग लगा दिया करते थे। तब उनका ईश्वर के साथ एक पड़ोसी जैसा सम्बन्ध था। उन्हें आभास होता था जैसे वह उन्हें आग लगाते हुए देख रहा है। लेकिन एक दिन वह अपने अपार्टमेण्ट में सुबह स्कूल जाने के लिए निकले और उन तीन ब्राज़ीलियन लड़कियों की प्रतीक्षा करने लगे जो उनके साथ स्कूल जाती थीं और अभी तक तैयार होकर बाहर नहीं आई थीं - तो उन्हें अचानक जैसे एक अन्तर्नाद हुआ कि ईश्वर तो है ही नहीं। ईश्वर होता ही नहीं। उस क्षण के बाद वे हमेशा के लिए निश्चिन्त हो गए कि ईश्वर नहीं है, फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। यह घटना वही 'तूर पर जलवा' जैसी लगती है, अविश्वसनीय भी, ईश्वरीय भी - जो अनीश्वरता को उस किशोर मन में स्थापित कर गई। सार्त्र के दर्शन को देखते हुए यह कहानी बेतुकी लगती है। लेकिन यह भी सही है कि बड़े-बड़े परिवर्तनों की झलक कई चमकीले क्षणों में आकस्मिक रूप से ही मिल जाती है, तर्क उसे चाहे जितना ही खारिज करे।
Roland Barthes का कहना था कि सार्त्र को इक्कीसवीं सदी में दोबारा खोजा जाएगा। सार्त्र से इस विषय में जब Contac ने पूछा कि उनकी कौन सी कृतियां वे चाहते हैं कि भविष्य में लोग पढ़ें, तो सार्त्र ने Sations, Saint Genet, The Critique of Dialectical Reason और Good Lord का ज़िक्र किया। Nausea को वे अपनी सर्वोत्तम साहित्यिक कृति मानते थे। कई लोगों ने कहा कि वे 21 वीं सदी के मार्क्स के रूप में जाने जायेंगे। इस के उत्तर में सार्त्र कहते थे कि वे सिर्फ़ यही उम्मीद करते हैं कि आने वाले लोग उन्हें पढ़ें, उनके काम से परिचित रहें, इससे अधिक कुछ नहीं। एक व्यक्तिगत स्वतंत्रता सुरक्षित रखने वाले समाजवादी के रूप में वे स्वयं को देखते हैं। एक शून्य अराजकता और शक्तिविरोध का अन्तर जानना ज़रूरी है।
बहुत से अजाने पक्ष हैं सार्त्र के जीवन के। वे अपने एकान्त क्षणों में घंटों संगीत सुना करते थे। बेथावन, शापिन, शूमन के अलावा वे शोनवर्ग और वेबर्न को भी पसंद करते थे। सिमोन जब अपने-आप में व्यस्त होती थी तो सार्त्र कई बार सिर्फ़ संगीत सुनते थे। सार्त्र के दादा, दादी और माँ बहुत अच्छे संगीतकार थे। उन्हीं से सार्त्र ने भी संगीत सीखा। कभी कभी पियानो पर बैठकर कुछ धुनें वे खुद भी बनाया करते थे। वे शराब भी बहुत पीते थे। अपने अंतिम दिनों तक अपनी नारी मित्रों के साथ बैठकर देर रात तक पीते रहते थे। सिमोन और आर्लेट (Arlette) को उनकी बोतलें छिपा कर रखनी पड़ती थीं। बेशुमार स्त्रियों से उनकी मित्रता या सतही सम्बन्ध रहे। लेकिन किसी भी तरह वे अपने भावनात्मक क्षणों को इन सम्बन्धों से नहीं भरना चाहते थे। सिर्फ़ सिमोन ही 1929 के बाद से उनके मन और काम की साथी रही। उन्हें हमेशा लगता था कि उन के पास काम ज़्यादा है और वक्त कम। मानसिक उत्तेजना बढ़ाने वाली नशे की गोलियां खाकर उन्होंने अपनी प्रख्यात कृति (The Critique of Dialectical Reason - 1960) लिखी थी। कई दफ़ा वे कोरीड्रेन की बीस-बीस गोलियां दिन भर में प्रयोग कर लेते थे। अपने काम के बारे में वे सन्तुष्टि के साथ स्वीकारते हैं कि जो उन्हें कहना था, वे कह चुके, उन्हें कोई आश्चर्य या पछतावा नहीं है। अपने पत्र Les Temps Moderens के लिए वे बिल्कुल अन्तिम दिन तक काम करते रहे।
सार्त्र की अन्तिम स्थिति का चित्रण सिमोन ने मार्मिक ढंग से किया है। बुधवार, मार्च 19,1980 की शाम उन्होंने बड़ी अच्छी तरह गुज़ारी। लेकिन रात को ही उनका सांस उखड़ गया। उन्हें ब्रोसाई के हस्पताल ले जाया गया। उसके बाद वे घर वापिस नहीं आ सके। उन्हें यूरीमिया हो गया था क्योंकि उनके गुर्दे काम करना बन्द हो गये थे।शरीर के और हिस्से भी शिथिल पड़ते गये। सिमोन और Arlette (उनकी मुँह बोली बेटी आर्लेट) बारी-बारी उनके पास बने रहते थे। मृत्यु से दो दिन पहिले सिमोन ने बहुत निराशा में डाक्टर की छाती से लग कर रोते हुए कहा वायदा करो, सार्त्र को पता नहीं लगने दोगे कि वे मर रहे हैं। उन्हें मानसिक यातना से बचा कर रखोगे और उन्हें कोई दर्द नहीं होने दोगे। मृत्यु से एक दिन पहिले सार्त्र ने सिमोन का हाथ थाम कर कहा 'मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ Castor'। वे सिमोन को Castor कह कर बुलाया करते थे। अपने होठों से इशारा कर के उन्होंने सिमोन को चूमा। 15 अप्रैल रात को नौ बजे आर्लेट का सिमोन को फोन आया कि सार्त्र नहीं रहे। अगली सुबह सिमोन सार्त्र के मृत शरीर के साथ चादर हटा कर कुछ देर को लेटी रही। सार्त्र की इच्छा थी कि उन का दाह संस्कार किया जाए। परन्तु उनके शरीर को पहले मोन्टपारनेस में दफ़नाया गया। कुछ दिन बाद उनके शरीर को कब्र से निकाल कर दाह संस्कार के लिए ले जाया गया। पचास हज़ार से अधिक व्यक्ति उनकी शव यात्रा में शामिल थे। एक दार्शनिक, उपन्यासकार, नाटककार और एक सामाजिक सक्रिय कर्मी का अन्त उस नाटक के अन्त की तरह था जिस का हर दृश्य एक रोचक अपेक्षा के साथ खुलता था। रूसो, कान्त, हीगेल और मार्क्स की अगली कड़ी थे सार्त्र या मार्क्सवाद के विशाल भवन का ही एक छोटा सा कक्ष या सिर्फ़ शुद्ध अस्तित्ववादी जिन्होंने घटनाओं की आंधियों का सामना करने के लिए समाजवादी कवच पहन लिया था। इस बात का फैसला वक्त के हाथ में है।

अज्ञात व्यक्ति के नाम मैक्सिम गोर्की का पत्र



रूपसिंह चंदेल

आपको पत्र भेजने के तुरन्त बाद 'तोल्स्तोय के पलायन' की सूचना का तार प्राप्त हुआ। और जैसा कि आप जानते हैं मैं आपको पुनः लिख रहा हूं, जबकि अभी भी मैं आपके साथ मानसिक जुड़ाव अनुभव कर रहा हूं।
निःसंदेह मैं जो कुछ भी कहने की इच्छा अनुभव कर रहा हूं वह इस समाचार से संबन्धित है जो अस्तव्यस्त कर देने वाला, संभवतः डरावना और कठोर है। आप मुझे क्षमा करेंगे। मैं ऐसा अनुभव करता हूं कि किसी ने गले से मुझे दबोच लिया है और मेरा गला घोंट रहा है।
उन्होंने मुझसे बहुत अधिक और बहुत लंबी बातें की थीं। जब मैं क्रीमिया में गास्परा में रहता था, प्रायः उनसे मिलने जाता, और उन्हें भी मेरे यहां आना प्रिय था।उनकी पुस्तकें मैं गंभीरतापूर्वक ध्यान और प्रेम के साथ पढ़ता था, अतः मुझे लगता है कि उनके विषय में मैं जो कुछ भी सोचता हूं वह कहने का मुझे अधिकार है। जैसा कि मैं जानता हूं और दूसरे भी जानते हैं कि बहुत अधिक प्रतिभाशाली कहे जाने की पात्रता रखने वाला, बहुत अधिक जटिल और अंतर्विरोधी, और हर प्रकार से महान--हर प्रकार से-- कभी कोई व्यक्ति नहीं होता। वह विशिष्ट और व्यापक दोनों ही अर्थों में महान हैं, इसप्रकार कि जिसे शब्दों में व्यक्त करना नितांत असंभव है। उनमें कुछ ऐसा है कि जो मुझमें इस इच्छा को भड़काता है कि चीखकर सभी को कहूं-- देखो, हमारे ग्रह में कितना अद्भुत व्यक्ति रह रहा है! जिस निमित्त वह हैं, ऐसे ही कहें, पूर्णरूप से एक मनुष्य के रूप में--सही अर्थों में एक व्यक्ति के रूप में, उन्हें अंगीकार करो।
लेकिन काउण्ट लेव निकोलाएविच के जीवन को 'संत जैसे पिता लेव के जीवन' में परिवर्तित करने के उनके हठीले और निरंकुश प्रयास को मैंने सदैव अस्वीकार किया है। आप जानते हैं, वह बर्दाश्त करने तक काम करते रहे हैं। उन्होंने येव्गेनी सोलाव्योव और सुलर से कहा कि उन्हें इसे न रोक पाने का कितना अफसोस है। लेकिन सुस्पष्ट रूप से--मैं दोहराता हूं--अपने मत का वजन बढ़ाने, अपने उपदेश को अत्यंत सम्मोहक बनाने, अपने दुख भोग द्वारा लोगों की दृष्टि में संत दिखने और उसे उन्हें स्वीकार करने के लिए विवश करने--उन्हें विवश करने, आप समझे, का एक हठीला उद्देश्य है उनका। इस विषय में वह जानते हैं कि उनके उपदेश पर्याप्त विश्वासोत्पादक नहीं हैं। जब उनकी डायरियां प्रकाशित होगीं आपको संदेहवाद के उनके द्वारा अपने स्वयं पर प्रयोग किए गए कुछ अच्छे नमूने मिलेंगे। वह जानते हैं कि “यंत्रणा और दुख भोगने वाले लगभग निरपवादरूप से निरंकुश और तानाशाह होते हैं”--वह सब कुछ जानते हैं। और फिर भी वह कहते हैं--”यदि मैंने अपने विचारों के लिए कष्ट उठाया तो वे बिल्कुल भिन्न प्रभाव स्थापित करेंगे।”
उन्होंने सदैव और सर्वत्र दूसरी दुनिया में अमरत्व का स्तुतिगान किया, लेकिन उनकी रुचि इसी दुनिया में अमरत्व प्राप्त करने में होगी। एक राष्ट्रीय लेखक वास्तविक अनुभव को व्यक्त करता है। वह अपनी आत्मा से राष्ट्र के समस्त बुरे स्वरूपों, हमारे इतिहास की यंत्रणाओं द्वारा दी गई समस्त विकृतियों को प्रस्तुत करता है। उनमें सभी कुछ राष्ट्रीय है, और उनके सम्पूर्ण उपदेश मात्र प्रतिक्रिया, और पुनरुद्भव हैं, जिनसे हमने पीछा छुड़ाना और पार पाना प्रारंभ कर दिया है। याद करें 1905 में लिखे उनके पत्र, “बौद्धिक, राज्य और जनता”--कितनी अप्रिय, विद्वेषपूर्ण चीज थी वह! आद्योपांत उसमें मतभेद रखनेवालों के लिए विद्वेषपूर्णता खोजी जा सकती है, “मैंने आपसे ऐसा ही कहा!” उनके शब्दों के आधार पर उस समय मैंने उन्हें उत्तर दिया दिया था कि वह “बहुत पहले ही रूसी लोगों के विषय में और उनके नाम में बोलने का अधिकार खो बैठे थे।” मेरा पत्र कठोर था और मैंने उसे भेजा नहीं था।
लेव निकोलाएविच में बहुत कुछ ऐसा है जो मेरी भावनाओं में घृणा जैसा उत्पन्न करता है, बहुत कुछ ऐसा जो एक भारी बोझ की भांति मेरी आत्मा पर रखा है। उनका अत्यधिक फूला हुआ अहम एक निरर्थक तथ्य है, लगभग असामान्य, उसमें बोगेतर स्व्यातोगोर जैसा कुछ है, जिसका वजन पृथ्वी संभाल नहीं सकी। हां, वह महान हैं। मैं गंभीरतापूर्वक स्वीकार करता हूं कि वह जो कुछ भी बोलते हैं, उसके अतिरिक्त बहुत कुछ ऐसा है जिस पर वह चुप रहते हैं--यहां तक कि अपनी डायरियों में भी--और उनके विषय में शायद वह कभी नहीं कहेंगे। यह 'कुछ' यदा-कदा, अस्थाई रूप से उनकी बातचीत में प्रकट हुआ है, और उसके संकेत उनकी उन दो डायरियों में मिलते हैं जो उन्होंने मुझे और सुलेर्जित्स्की को दिया था।
सारी जिन्दगी वह मृत्यु से भयभीत रहे और उससे घृणा किया। सारी जिन्दगी वह अर्जमास दुर्भिक्ष की काली छाया से भूताविष्ट रहे। पूरी दुनिया की आंखें उन पर टिकी हुई थीं। सजीव स्पंदित धागे चीन, भारत, अमेरिका तक फैले हुए थे। उनकी आत्मा सभी लोगों और सभी समय उपलब्ध थी। प्रकृति अपने नियम में कुछ अपवाद उत्पन्न कर उन्हें अर्पित क्यों नहीं करती--और मनुष्यों में केवल उन्हें शारीरिक अमरता प्रदान करती? वह एक नए रंगरूट की भांति अज्ञात बैरक के बारे में सोचकर भयभीत और निराश हैं। मुझे याद है गास्परा में स्वस्थ होने के बाद लेव शेस्तोव का 'गुड एण्ड एविल इन दि टीचिग्सं ऑफ नीत्से एण्ड काउण्ट तोल्स्तोय” (Good and Evil in the Teachings of Nietzshe and Count Tolstoy) पढ़कर वह ए.पी. चेखव की टिप्पणी के उत्तर में बोले थे, “पुस्तक पसंद नहीं।” फिर बोले :
“और मैंने उसे मनोरंजक पाया। कृत्रिम ढंग से लिखित, लेकिन बुरी नहीं, दिलचस्प। तुम जानते हो मुझे दोषदर्शी पसंद हैं, यदि वे निष्कपट हैं। उन्होंने कहीं कहा: सत्य आवश्यक नहीं है। और वह बिल्कुल सही हैं--उनके लिए सत्य क्या है? कुछ भी हो वह मर जाएगें।”

धीरे-धीरे हंसते हुए उल्लसित हो वह आगे बोले:

“एक बार एक व्यक्ति ने सोचना सीखा, और उसके विचार अपनी मृत्यु के विचार से बंधे हुए थे। सभी दार्शनिक ऐसे ही होते हैं। और सत्य का लाभ क्या जब मृत्यु आना सुनिश्चित है!”

उन्होंने आगे व्याख्या करते हुए कहा कि सत्य सभी के लिए समान है-- “ईश्वर का प्रेम”, लेकिन वह विषय पर उदासीनतापूर्वक और उकताहटपूर्वक बोले। लंच के बाद बराम्दे मे उन्होंने पुनः पूस्तक उठा ली और उस स्थान को खोजकर जहां लेखक ने कहा था, “तोल्स्तोय, दॉस्तोएव्स्की और नीत्शे उनके उत्तर के बिना जीवित नहीं रह सकते और कुछ भी नहीं के बजाय उनके लिए कोई भी उत्तर अच्छा होगा।”

“कैसा निर्भीक हज्जाम”,”उन्होंने सीधे कहा,'मैं अपने साथ विश्वासघात करूं, जिसका अर्थ है कि मैं दूसरों को भी धोखा दूं। स्पष्टतया यही निष्कर्ष है--।”

सुलर ने पूछा, “लेकिन हज्जाम क्यों?”

“हां, “विचारमग्न होते हुए उन्होंने कहा, “मेरे मस्तिष्क में यह अभी आया कि वह एक फैशनेबुल छैला है, और मुझे गांव में उसके किसान अंकल के विवाह के समय मास्को से आए एक हज्जाम की याद आई। आश्चर्यजनक आचरण था उसका। वह लांसर (इंग्लैंड का एक नृत्य) कर सकता था, और इसलिए सभी की उपेक्षा की थी उसने।”

यह बातचीत मैंने शब्दशः प्रस्तुत की है। मुझे याद है कि यह बहुत अलग ढंग की थी। मैंने इसे लिख लिया था, क्योंकि जो कुछ मुझे प्रभावित करता है लिख लेता हूं। सुलर ने और मैंने बहुत से नोट्स तैयार किए थे, लेकिन अर्जमास के रास्ते सुलर ने अपने नोट्स खो दिए, जहां वह मुझे मिलने आया था--वह बहुत ही लापरवाह है, तथापि वह लेव निकोलाएविच को स्त्रियोचित ढंग से प्रेम करता है। उनके प्रति उसका व्यवहार कुछ विलक्षण, प्रायः विनीत होता है। मैंने भी अपने नोट्स कहीं रख दिए थे और वह मुझे नहीं मिले। शायद वे रूस में हैं। मैंने बहुत निकट से तोल्स्तोय को देखा, जिन्हें मैंने सदैव चाहा और अपनी मृत्यु के दिन तक चाहता रहूंगा, क्योंकि वह सजीव आस्था वाले सच्चे व्यक्ति हैं।

कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता कि जैसे यह प्रतिभाशाली व्यक्ति मृत्यु से खेल रहा है, उसके साथ चोंचलेबाजी कर रहा है। किसी प्रकार उससे कुछ बेहतर हासिल करने का प्रयत्न कर रहा है।

'मैं तुमसे भयभीत नहीं हूं। मैं तुमसे प्रेम करता हूं। मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं।' और पूरे समय उनकी छोटी, तीक्ष्ण आंखें चारों ओर देख रही हैं-- तुम किसके समान हो? और वहां तुम्हारे पीछे क्या है? क्या तुम मुझे पूरी तरह नष्ट कर देना चाहती हो--अथवा मेरे लिए कुछ छोड़ दोगी?”

उनके शब्द: “मैं प्रसन्न हूं, अत्यधिक प्रसन्न हूं, बहुत अधिक प्रसन्न हूं!” आश्चर्यजनक प्रभाव छोड़ते हैं।और उसके तरंत बाद: “ओह, फिर दुख भोग।” मुझे एक क्षण के लिए भी आशंका नहीं हुई कि जब वह बीमार थे, वह अपने को कैदखाने में, निर्वासन में, एक शब्द में शहीदी ताज स्वीकार कर, ईमानदारी से प्रसन्न थे। क्या वह ऐसा अनुभव करते थे कि प्राणोत्सर्ग किसी प्रकार मृत्यु को उचित सिद्ध करेगा, उसे और अधिक बोधगम्य, बाह्य और औपचारिक दृष्टिकोण से सहज स्वीकार्य बनाएगा। मुझे विश्वास है कि वह कभी प्रसन्न नहीं थे--उन्होंने न तो “पुस्तकों के कलाकौशल” में, “न घोड़े की पीठ पर”, “न औरत की बाहों में” सांसारिक स्वर्ग का परमानंद प्राप्त किया। इसके लिए उनकी बुद्धि तर्कणापरक थी, और वह जीवन और जगत को भी समझते थे। उनके कुछ और शब्द:

“खलीफा अब्द-एर-रहमान के पास चौदह खुशी के दिन थे, और मैं नहीं मानता कि मेरे पास कभी इतने अधिक थे। और यह सब इसलिए कि मैं कभी सक्रिय नहीं रहा--सक्रिय कैसे रहा जाए,मुझे नहीं मालूम--अपने लिए, अपनी अंतरात्मा के लिए,लेकिन सदैव अर्थ के लिए, दूसरों के लिए जिया।”

जब हम लौट रहे थे, चेखव ने कहा, “मैं विश्वास नहीं करता कि वह कभी खुश नहीं रहे।” मैं मानता हूं। वह नहीं रहे। लेकिन यह सच नहीं कि वह “अर्थ के लिए” जिए। उन्होंने सदैव दूसरों को दिया, जैसे कि अपना अतिरिक्त (बचत) भिखारियों को दिया। चीजों का पालन करना उन्हें प्रिय था--पढना, टहलना, सब्जियों पर जीवित रहना, मुझिकों को प्यार करना और लेव तोल्स्तोय के विवेकपूर्ण और अमोघत्व पर विश्वास करना---।”

नेपल्स से कुछ पत्रकार आए हैं--एक रोम से आया है। उन्होंने मुझसे पूछा कि तोल्सतोय के 'पलायन' के विषय में मैं क्या सोचता हूं--वे उसे तोल्स्तोय का 'पलायन' कहते हैं। मैंने उनसे बात करने से इंकार कर दिया। निश्चित ही आप समझ लें कि मेरी आत्मा में भयानक हलचल है--मैं तोल्स्तोय को संत में परिवर्तित होता नहीं देखना चाहता। उन्हें पातकी ही रहने दें---पुश्किन ओर उनसे महान और प्रिय हमारे लिए कुछ नहीं है---।

.........

लेव तोल्स्तोय की मृत्यु हो गयी।

एक टेलीग्राम आया, जिसमें घिसे-पिटे शब्दों में कहा गया है--वह मर गए।

मेरे हृदय पर यह आघात था। पीड़ा और दुख से मैं रोया। अर्द्ध पागल अवस्था में मैं उनके चित्र देखने लगा, जैसा मैंने उन्हें जाना था, जैसा उन्हें देखा था, उनके विषय में बातचीत करने की वेदनापूर्ण इच्छा हुई। मैंने ताबूत में उनकी कल्पना की मानो सरित प्रवाह के बिस्तर पर शांत एक पत्थर रखा हो। निसंदेह अपनी भ्रामक मुस्कान--पूर्णरूप से निर्लिप्त--शांतिपूर्वक उनकी सफेद दाढ़ी में छुपी हुई है। और अंततः उनके हाथ शांतिपूर्वक मुड़े हुए हैं--उन्होंने अपने दुस्साध्य कार्य सम्पन्न कर लिए हैं।

मुझे उनकी उत्सुक आंखें--जो सभी चीजों को आर-पार देख लेती थीं--और उनकी उंगलियां, जो हवा में सदैव कुछ प्रतिरूपण करती रहती थीं, उनकी बातचीत, उनका हंसी-मजाक, उनके परम प्रिय किसानी शब्द, और उनकी अनूठी अस्पष्ट आवाज याद हैं।

एक बार मैंने उन्हें इस प्रकार देखा जैसा किसी ने कभी नहीं देखा होगा। मैं गास्परा के समुद्र तट पर टहल रहा था और ठीक युसुपोव जागीर के बाहर, चट्टानों के बीच अचानक मैंने उनके छोटे दुबले शरीर को सिलवटदार भूरे सूट और मुचड़ी हैट में देखा। वह वहां बैठे हुए थे। ठोढ़ी हाथ पर टेक रखी थी और उनकी दाढ़ी के भूरे बाल उनकी उंगलियों के बीच छितराए हुए थे। वह समुद्र की ओर देख रहे थे, जबकि उनके पैरों पर हरिताभ तरंगिकाएं (लघु लहरें) विनम्रतापूर्वक और स्नेहमयभाव से आलोड़ित थीं, मानो उस वृद्ध प्रतिभाशाली व्यक्ति को अपनी कहानी सुना रही थीं। वह एक चमकदार दिन था, चट्टानों पर बादलों की छायाएं रेंग रही थीं, इसलिए वृद्ध व्यक्ति और चट्टानें बारी-बारी से चमकती और छाया में छुप जाती थीं। चट्टानें, विशाल थीं और उनमें गहरी दरारें थीं। उनमें समुद्री शैवाल की तीखी गंध व्यप्त थी। वहां एक दिन पहले समुद्र किनारे से टकराने वाली बड़ी लहरें आयी थीं। और वह मानो कोई प्राचीन चट्टान थे जो अकस्मात सभी चीजों के आदि और प्रयोजन को जानते हुए जीवित रूप में आ उपस्थित हुए थे और इस बात से आश्चर्ययकित थे कि पृथ्वी पर पत्थरों और घास का, समुद्र में जल का, और मनुष्य और सम्पूर्ण संसार का--चट्टानों से लेकर सूर्य तक का कब और कैसा अंत होगा। समुद्र उनकी आत्मा के एक हिस्से की भांति था, और वह सब जो उनके चारों ओर था, उनका ही हिस्सा था। और अचानक एक उत्तेजित क्षण में मैंने अनुभव किया कि वह, हाथ ऊपर हिलाते हुए उठने जा रहे थे। इससे समुद्र निश्चल, भावशून्य हो जाएगा, चट्टानें हिलने-डुलने और चीखने लगेंगी, सभी चीजों को अपनी आवाज मिल जाएगी और वे अपनी वाणी में स्वयं उनके विषय में, उनके सामने बोलने लगेंगे। उस क्षण मैंने जो अनुभव किया शब्दों में व्यक्त करना कठिन है--मेरी आत्मा में आनंदातिरेक और दहल था, और फिर सब कुछ सुखद विचारों में पिघल गया था।

“मैं इस संसार में अनाथ नहीं हूं जब तक यह व्यक्ति इसमें वास कर रहा है। ”

फिर, सावधानीपूर्वक, मैं इस प्रकार वापस मुड़ा कि पैरों के नीचे रोड़े न खडखड़ाएं और उनके चिन्तन में खलल न पड़े। लेकिन अब मैं अनुभव करता हूं कि मैं अनाथ हो गया हूं। लिखते हुए मेरे आंसू बह रहे हैं--इससे पहले कभी मैं इस प्रकार विषण्ण होकर, इतनी हताशा, इतने दुख से नहीं रोया। मैं यह भी नहीं जानता कि मैं उन्हें प्यार करता था, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है कि उनके लिए मैंने प्रेम अनुभव किया या घृणा? उन्होंने सदैव मेरी आत्मा में विपुल, अजीब अशांत भाव आलोड़ित किया। वह बहुत प्रभावशाली होते थे जब, दबंग ढंग से अपने पैरों के तलवों को रगड़ते हुए दरवाजे के पीछे से या एक गोल कोने से अचानक प्रकट होकर संसार की सतह पर निरंतर चलने वाले एक अभ्यस्त व्यक्ति की भांति छोटे, हल्के, तेज कदमों से आगे बढ़ते थे। उनके अंगूठे उनकी बेल्ट में ठुंसे होते थे। वह एक क्षण के लिए रुकते और अपने चारों और कुछ खोजती-सी दृष्टि से देखते।

बहुत से ऐसे लोग थे जिन्होंने उन्हें प्रसन्नता प्रदान करने का प्रयास किया, लेकिन मैंने नहीं देखा कि कोई अच्छे प्रकार से यह कर पाया। अपने साधारण विषयों पर कभी-कभार ही मुझसे बात करते थे--व्यापक क्षमाशीलता, पड़ोसियों के लिए प्रेम, नया टेस्टामेण्ट और बौद्धिज्म-- स्पष्टतया प्रारंभ से ही मैंने महसूस किया कि वह सब--मेरी पसंद की नहीं हैं। लेकिन मैंने गहराई से इन सबकी कद्र की।

जब वह प्रसन्न होते, वह सौम्य, व्यावहारिक, सहृदय और सज्जन हो जाते, और तब उनकी बात मनोहर, सहजतापूर्ण और शालीन होती थी, लेकिन कभी-कभी उन्हें सुनना पर्याप्त अप्रिय होता था। महिलाओं के विषय में वह जिस ढंग से बातें करते मुझे कभी पसंद नहीं आया--इस विषय में वह एक 'सामान्य व्यक्ति की भांति बहुत अधिक बोलते थे, और उनके शब्दों से कुछ अस्वाभाविक, कुछ अगंभीर ध्वनि निकलती थी, और नितांत वैयक्तिक भी। यह वैसा ही था मानो कभी किसी द्वारा आहत किए गए थे और न ही अपनी चोट को भूले थे और न ही उसे क्षमा किया था। उनसे पहली मुलाकात की शाम वह मुझे अपनी स्टडी में ले गए थे--यह खामोव्निकी—में हुई थी--मुझे अपने सामने बैठाया और 'वारेन्का ओलेसोवा' और 'ट्विण्टी सिक्स मेन एण्ड वन गर्ल' पर बात करने लगे। उन्होंने जिस अशिष्टता और निष्ठुरता से मुझसे यह मनवाने का प्रयास किया कि “एक स्वस्थ युवती की लज्जाशीलनता अस्वाभाविक है” मैं उनकी आवाज से खिन्न, और पूरी तरह क्षुब्ध हो उठा था।

“यदि लड़की पन्द्रह वर्ष की हो गई है तब वह चाहती है कि कोई उसे चूमे और खींचे।” उन्होंने कहा, “उसका मस्तिष्क उससे झिझकता है जिसे न वह जानता है, न समझता है, और उसे ही लोग शुचिता और लज्जा कहते हैं? लेकिन उसका शरीर, उसके मस्तिष्क के बावजूद, पहले से ही जानता है कि यह अनिवार्य और तर्कसंगत है और इस स्वभावगत धर्म की प्रतिपूर्ति की पहले से ही मांग करता है। तुम्हारी वारेन्का ओलेसोवा स्वस्थ चित्रित की गयी है, लेकिन उसकी भावनाएं आरक्तक प्राणी की हैं, जो कि गलत है।”

उसके बाद वह 'ट्वेण्टी सिक्स' की लड़की के बारे में सरलता के साथ एक के बाद दूसरी अश्लीलता प्रकट करते हुए बोले जो मुझे क्रूर लगा और जिसने मुझे खिजा भी दिया। इसके बाद मैंने महसूस किया कि उन्होंने केवल वे ही 'निषिद्ध' शब्द प्रयुक्त किए थे जिन्हें उन्होंने सही और सारगर्भित पाया था, लेकिन उस समय उनके बोलने का ढंग अप्रिय लगा था। अचानक मेरे जीवन , मेरी स्टडीज और मेरे पढ़ने को लेकर वह बहुत स्नेही और गंभीर हो गए थे।

“जैसा लोग कहते हैं, क्या तुम सच में उतना पढ़ते हो? कोरेन्को क्या एक संगीतकार है?”

“मैं ऐसा नहीं सोचता। मैं नहीं जानता।”

“तुम नहीं जानते? तुम्हे उनकी कहानियां पसंद हैं?”

“बहुत अधिक।”

“वैषम्यता के कारण। वह एक कवि हैं, और तुम्हारे आस-पास कवि जैसा कुछ नहीं है। तुमने वालमैन (Waltmann) को पढ़ा?”

“हां।”

“एक अच्छे लेखक, क्या वह नहीं हैं? सुस्पष्ट, सटीक और कभी अतिरंजन न करने वाले। कभी-कभी वह गोगोल से बेहतर लगते हैं। वह बॉल्जाक को जानते हैं। तुम जानते हो, गोगोल ने मर्लिन्स्की का अनुकरण किया है?”

जब मैंने कहा कि गोगोल संभवतः हॉफमैन (Hoffmann), स्टर्न (Sterne ), और शायद डिकेंस से प्रभावित थे, उन्होंने मुझ पर एक दृष्टि डाली और पूछा:

“तुमने यह कहां पढ़ा? तुमने पढ़ा नहीं है? यह सही नहीं है। मैं नहीं समझता कि गोगोल ने डिकेंस को पढ़ा था। लेकिन तुमने सच में बहुत पढ़ा है--अपना खयाल रखो--यह खतरनाक है। कोल्त्सोव ने इस तरह अपने को तबाह कर लिया था।”

जब उन्होंने मानसिकरूप से मुझे अनुपस्थित देखा मेरे चारों ओर अपनी बाहें डाल दीं और मुझे यह कहते हुए चूमा:

“तुम वास्तव में एक मुज़िक हो। लेखकों के मध्य तुम्हें संघर्ष करना होगा, लेकिन किसी बाधा से तुम्हें भयभीत नहीं होना चाहिए। सदैव वही कहो जो सोचते हो, कभी मत सोचो यदि कभी वह कुछ कठोर हो। बुद्धिमान लोग उसे समझ लेंगे।”

इस पहली मुलाकात ने मुझपर दोहरा प्रभाव डाला--तोल्स्तोय से मिलकर मैं प्रसन्न और गौरवान्वित था, लेकिन उनकी बातचीत प्रति-परीक्षण जैसी थी, और मैंने महसूस किया कि मैं 'दि कज्जाक', 'खोल्स्तमर (Kholstomer) और 'वार एण्ड पीस' के लेखक से नहीं, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति से मिला था, जिसने मुझपर कृपा की थी, और मुझसे सामान्य ढंग से सड़क छाप भाषा का प्रयोग करते हुए बातचीत करना आवश्यक समझा था, और इसने मेरी धारणा को अस्त-व्यस्त कर दिया था--धारणा जिसका मैं आदी हो गया था, और जो मुझे प्रिय थी।

अगली बार मैं उनसे यास्नाया पोल्याना में मिला। वह एक अच्छी फुहार वाला उदास दिन था, और उन्होंने भारी ओवर कोट, ऊंचे चमड़े के जूते, और नियमित पहनने वाले जलसह जूते पहन रखे थे और मुझे भुर्ज के छोटे वृक्षों , जिन्हें नियमित काटा जाता था, की ओर टहलने के लिए साथ ले गए थे। वह जवानों जैसी फुरती से गड्ढों और कीचड़ को फांद जाते थे। पेड़ों की शाखाओं से पानी की बूंदें उनके सिर पर टपक रही थीं। पूरे समय वह मुझे विस्तृत विवरण सुनाते रहे कि किस प्रकार शेन्शिन; (Shenshin)(फेत- अनुवादक) ने उन्हें उसी स्थान पर शॉपेनहावर (Schopenhauer) के विषय में समझाया था। और उन्होंने भुर्ज के कोमल कौशेय तने को प्यार से सहलाया था।

मैंने कुछ पंक्तियां हाल में पढ़ीं--

“मशरूम अधिक नहीं हैं, बल्कि सब निस्सार है,
क्या मशरूम की आर्द्र गंध से सुगन्धित--।
अच्छी है, बहुत अच्छी तरह अवलोकित।”

अचानक एक खरगोश हमारे पैरों के पास चीखने लगा। एल.एन. उत्तेजित हो तेजी से उछले। उनके गाल लाल हो गए और वह ऊंचे स्वर में लिहो! लिहो! चीख उठे। फिर वर्णनातीत मुस्कान के साथ उन्होंने मेरी ओर देखा और समझदार और मानवोचित हंसी हंसे। उस क्षण वह श्लाघ्य थे।

दूसरी बार, पार्क में, उन्होंने बाज को एक पशु अहाते पर मंडराते, उसके चक्कर काटते, और फिर आसमान में अचल लटके हुए देखा। उसके पंख हल्के-हल्के हिल रहे थे, मानो वह इस अनिश्चय में था कि अभी झपट्टा मारे या कुछ देर प्रतीक्षा करे। एल.एन. तुरंत चौकन्ना हो गए। उन्होंने अपनी आंखें अपनी गदोली से ठांप लीं और आशंकित हो फुसफुसाने लगे।

“बदमाश हमारे मुर्गी के बच्चों के पीछे पड़ा है। देखो-देखो--अब--ओह”, वह भयभीत थे। “संभवतः कोचवान वहां है--हमें कोचवान को बुलाना चाहिए--। ”

और उन्होंने उसे पुकारा। जब वह चीखे, बाज डरा और उड़ गया।

एल.एन. ने आह भरी और स्पष्टतः अपने को फटकारते से बोले--

“मुझे चीखना नहीं चाहिए था--हर हालत में वह बहुत दूर चला गया होगा---।”

एक बार तिफ्लिस के विषय में बात करते हुए मैंने वी.वी. फ्लेरोव्स्की - बेर्वी का जिक्र किया--

“तुम उन्हें जानते थे?” एल.एन. ने सोत्सुक हो पूछा, “उनके विषय में कुछ बाताओ।”

मैंने बताना प्रारंभ किया कि फ्लेरोव्स्की दुबले-पतले, लंबी दाढ़ी और बड़ी आंखों वाले लंबे व्यक्ति थे। पाल के कपड़े के वस्त्र पहनते थे। उनकी बेल्ट से लाल शराब में उबले चावलों का छोटा बैग लटकता रहता था और विशाल कैनवस का छाता लेकर चलते थे। वह मेरे साथ काकेशस के पार के पहाड़ी रास्तों में घूमते थे, जहां एक बार, एक संकरे रास्ते में हम एक सांड़ से टकरा गए थे। उस बदमिजाज जानवर को खुले छाते से धमकाते हुए हम किसी प्रकार बच निकले थे। पीछे हमें रसातल में गिरने का पूरे समय जोखिम बना रहा था। अचानक मैंने एल.एन. की आंखों में आंसू और घबड़ाहट देखी थी।

“कोई बात नहीं, जारी रखो, जारी रखो! यह केवल एक अच्छे व्यक्ति के विषय में सुनने के कारण था। वह कितने दिलचस्प व्यक्ति रहे होगें। मैंने उनके विषय में अभी इसी प्रकार की कल्पना की थी। वह दूसरे व्यक्तियों जैसे नहीं थे। वह बहुत परिपक्व, उग्र विचारधारा वाले लेखकों में सबसे अधिक बुद्धिमान हैं। उन्होंने ए.बी.सी. में अत्यन्त कुशलतापूर्वक यह प्रतिपादित किया कि हमारी संपूर्ण सभ्यता बर्बर है, जबकि संस्कृति जनजातियों का मामला है , कमजोरों का मामला, न कि शक्तिशालियों का।”

“उदाहरण के लिए, कोई फ्लेरोव्स्की के सिद्धांत के साथ योरोप के इतिहास में नोरमैन्स से मिलान कैसे कर सकता है?”

“ओह, नोरमैन्स, वह बिल्कुल भिन्न है।”

यदि उनके पास कोई उत्तर तैयार न होता, वह कहते, “वह भिन्न है।”

मैंने सदैव अनुभव किया कि एल.एन. साहित्य पर चर्चा करना पसंद नहीं करते थे, और मैं नहीं समझता कि मैं गलत सोच रहा था, लेकिन किसी लेखक के व्यक्तित्व में वह अत्यधिक रुचि दिखाते थे। मैंने प्रायः उनके प्रश्न सुने: “तुम उन्हें जानते हो? वह किस तरह के हैं? वह कहां पैदा हुए थे?” और उनका विचार विनिमय सदैव प्रायः व्यक्ति पर बहुत खास दृष्टिकोण प्रकट करता था।

वी.जी. कोरोलेन्को के विषय में विचारशील होते हुए उन्होंने कहा:

“वह एक उक्रेनी हैं और इसीलिए वह हमारी जिन्दगी को हमारी अपेक्षा कहीं बहुत बेहतर और बहुत स्पष्टता से देखने में समर्थ हैं।”

चेखव, जिन्हें वह अंतःकरण से प्रेम करते थे:

“उनके व्यवसाय ने उन्हें बरबाद कर दिया। यदि वह डाक्टर न होते तब वह और अधिक अच्छा लिखते।”

एक युवा लेखक के विषय में उन्होंने कहा: “वह अंग्रजों जैसा खेलता है, और मास्को के लोग उस जैसे अच्छे नहीं हैं।”

एक से अधिक बार उन्होंने मुझसे कहा: “तुम एक काल्पनिक कथा लेखक हो। तुम्हारी कुवाल्दा (Kuvaldas ) और दूसरे सभी विशुद्ध रूप से काल्पनिक हैं। ”

मैंने टिप्पणी की कि कुवाल्दा को जीवन से लिया है।

“बताओ कि तुम उससे कहां मिले थे।”

वह कजान के 'जस्टिस ऑफ दि पीस ' कोलोन्ताएव के कार्यालय के दृश्य से बहुत प्रसन्न हुए, जहां मैं कुवाल्दा नाम से चित्रित व्यक्ति से मिला था।

“अभिजातवर्गीय। अभिजातवर्गीय! वह यही है!” उन्होंने हंसते और अपनी आंखें पोंछते हुए कहा। “लेकिन कैसा मनोहर-मनोरंजक व्यक्ति है। तुम लिखने से कहीं बेहतर ढंग से कहानी कहते हो। तुम एक काल्पनिक कथा लेखक हो, तुम जानते हो--एक अन्वेषक, तुम्हे यह स्वीकार करना चाहिए।”

मैंने कहा कि सभी लेखकों ने कुछ हद तक अन्वेषण किया है। अपने जीवन में जिन लोगों को वे पसंद करते थे उन्हें प्रस्तुत किया। मैंने यह भी कहा, मैं सक्रिय लोगों को पसंद करता हूं जो अपनी पूरी शक्ति, यहां तक कि हिंसा से , जीवन में बुराई का विरोध करने की आकांक्षा रखते हैं।

“लेकिन हिंसा स्वयं में मुख्य बुराई है!” मेरी बांह पकड़कर वह चीखे।

मुझे अपनी कोहनी से हल्के से टहोका देते हुए वह मंद-मंद मुस्कराए, “इससे बहुत-बहुत खतरनाक निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए। तुम सच्चे समाजवादी नहीं हो। तुम एक कल्पना प्रधान व्यक्ति हो, ओर रोमानी व्यक्ति किचिंत राजतंत्रवादी होते हैं, जैसा कि सदैव होता रहा है।”

“विकटर ह्यूगो के विषय में क्या कहते हैं?”

“विक्टर ह्यूगो भिन्न है। मैं उसे पसंद नहीं करता। वह एक शोर मचाने वाला व्यक्ति है।”

वह प्रायः मुझसे पूछते कि मैं क्या पढ़ रहा हूं, और निरंतर वह मुझे मेरी पुस्तकों की खराब पसंद को जानकर झिड़कते थे।

“गिब्सन कोस्तोमारोव की अपेक्षा बदतर थे। तुम्हे मॉम को पढ़ना चाहिए। वह महा उबाऊ हैं, लेकिन वह बहुत ठोस हैं।”

जब उन्हें ज्ञात हुआ कि पहली जो पुस्तक मैंने पढ़ी वह ले फेरेस ज़िम्गानो (Les Freres Zemganno ) थी, वह पूर्णरूप से क्रोधाविष्ट हो उठे थे।

“तुमने--एक पूर्खतापूर्ण उपन्यास! इसीसे तुम तबाह हुए। तीन फ्रेंच लेखक---स्टेण्डल (Stendhal)] बाल्जॉक, और फ्लॉबर्ट--तुम मोंपासा को भी जोड़ सकते हो, लेकिन चेखव बेहतर हैं। गान्कर्ट केवल विदूषक हैं। वे गंभीर होने का अभिनय करते हैं। उन्होंने उन जैसे अन्वेषकों द्वारा लिखी पुस्तकों से ही जीवन को जाना है और वे उस सबको गंभीरता से लेते हैं, लेकिन किसी को उनके लेखन की आवश्यकता नहीं है।”

मैं उनसे सहमत नहीं था, और इसने एल.एन. को क्षुब्ध कर दिया। वह प्रतिवाद पर खड़े नहीं रह सके और उनके तर्क आश्यर्चजनकरूप से दुराग्रही थे।

“अपकर्ष जैसा कुछ नहीं होता।” वह बोले, “यह सब इटैलियन लाम्ब्रोसो (Italian Lombroso) के अन्वेषण हैं। यहूदी नॉर्दो (Jew Nordau) ने उसे तोते की तरह दोहराया। इटली धूर्त और तिकड़मियों का देश है--केवल अरेटिनो (Aretinos), कसनोवा (Casanovas) कैग्लिओस्ट्रस (Cagliostros) जैसे लोग वहां पैदा हुए।”

“गैरी-बॉल्डी के विषय में आपके विचार?”

“वह राजनीति है, वह भिन्न है!”

जब रूस के सौदागर परिवारों के इतिहास से एक के बाद दूसरे तथ्य प्रस्तुत किए, उन्होंने उत्तर दिया:

“यह सत्य नहीं है। यह सब चतुराई से लिखी गई पुस्तकों में प्राप्त होता है- - “ मैंने उन्हें अपने परिचित सौदागर परिवार की तीन पीढ़ियों की कहानी बतायी ---विशिष्ट बेरहमी के साथ हुए उनके अपक्षय की कहानी।

उत्तेजना में मेरी बांह पकड़कर उन्होंने कहा:

“वह सही है! वह मैं जानता हूं--तूला में दो ऐसे परिवार हैं। इसलिए तुम्हें उस विषय पर लिखना चाहिए। संक्षेप में--एक बड़ा उपन्यास। तुमने समझा मेरा मतलब क्या है? उसे करने का यही तरीका है।”

और उनकी आंखें उत्सुकता से चमक उठीं।

“उसका कुछ नहीं। यह बहुत महत्वपूर्ण है। कोई व्यक्ति अपने पूरे परिवार के लिए प्रार्थना करने हेतु सन्यासी हो जाता है--यह अद्भुत है। वही वास्तविक जीवन है। तुम पाप करो और मैं तुम्हारे पापों से उद्धार के लिए जाता हूं। और दूसरा--उकताऊ लोभी--वह भी सच है। उसके लिए, पियो, और जानवर और विलासी बन जाओ, और सभी को प्रेम करो, और अचानक हत्या करो-- यह सब कितना अच्छा है! इसीलिए तुम चोरों और आवारागर्दों के बीच हीरो खोजने के बजाय उस विषय पर लिखना चाहते हो।”

वह प्रायः मेरी कहानियों में अतिरंजनाओं की चर्चा करते, लेकिन एक बार 'डेड सोल' के दूसरे भाग पर बोलते हुए, उन्होंने स्वभाविक रूप से मुस्कराते हुए कहा:

“हम सभी पहले दर्जे के कल्पित कथाकार हैं, मैं भी हूं। कभी-कभी कोई लिखना प्रारंभ करता है, और फिर अचानक वह किसी चरित्र को कमजोर अनुभव करता है और उसे विशेष महत्व देने लगता है अथवा, दूसरे को हल्का करने लगता है, जिससे तुलना में पहला निराशाजनक प्रतीत न हो।”

और उसी समय, एक निर्णायक की दृढ़ और गंभीर आवाज में बोले :

“और इसीलिए मैं कहता हूं, कला झूठ, धोखा, निरंकुश चीज है, जो मानवता के लिए घातक है। वास्तविक जीवन जैसा है तुम उसे उसीप्रकार नहीं लिखते , लेकिन जीवन के प्रति तुम्हारे अपने विचार, तुम स्वयं जीवन के प्रति क्या सोचते हो--वह लिखते हो। किसीके यह जान लेने से क्या होगा कि मैं टावर , अथवा समुद्र, अथवा तातार को कैसे देखता हूं? कौन जानना चाहता है। उसका उपयोग क्या है?”

एक बार उन्होंने कहा:

“मई के अंत में मैं कीव के एक मुख्य मार्ग में टहल रहा था। धरती स्वर्ग थी, आकाश बादलों से रहित था, चिड़ियां चहचहा रही थीं, मधुमक्खियां भिनभिना रही थीं और मेरे चारों ओर सब कुछ आनंदमय था, मानवोचित--शानदार। मेरे आंसू निकल आए मानो मैं स्वयं एक मधुमक्खी था और दुनिया भर में प्यारे फूलों पर मडरा रहा था और मानों ईश्वर मेरी आत्मा के अतिनिकट था। अचानक मैंने क्या देखा? सड़क के किनारे झाड़ियों के नीचे, दो यात्री, एक पुरुष और एक स्त्री, एक-दूसरे पर हाथ-पैर चिमटाकर चढ़े हुए लेटे थे। दोनों व्यभिचारी, गंदे, बूढ़े, कीड़ो की भांति कुलबुला, फुसफुसा और कुड़बड़ा रहे थे। सूर्य निर्दयतापूर्वक उनके अनावृत्त विवर्ण पैरों पर रोशनी डाल रहा था। ओह, ईश्वर, सौन्दर्य के सृजनकर्ता--क्या तुम स्वयं पर लज्जित नहीं? मैंने बहुत बुरा अनुभव किया--।”

बोलते समय उनकी आंखों के भाव बहुत विशिष्ट प्रकार से बदल रहे थे, कभी वे बचकानी विषादपूर्ण होतीं, कभी उनमें एक कठोर शुष्क चमक दिखती। उनके होंठ फड़कते और मूंछे खड़ी होतीं। जब उन्होंने बोलना समाप्त किया उन्होंने अपने कुर्ते की जेब से रूमाल निकाला और जोरदार ढंग से अपने चेहरे को रगड़ा, हालांकि वह सूखा हुआ था।

एक दिन मैं ड्यूल्बर से अई.टोडोर तक निचली सड़क के समानान्तर सड़क पर उनके साथ टहल रहा था। एक युवक की भांति लंबे हल्के डग भरते हुए और अधिक उत्तेजना प्रकट करते हुए उन्होंने कही:

“आत्मा की अपेक्षा शरीर को सुप्रशिक्षित होना चाहिए। जहां कहीं भी आत्मा उसे भेजे उसे जाना चाहिए। और हमारी ओर देखो। शरीर विलासी और चंचल है, और आत्मा दयनीय निस्सहायता के साथ उसका अनुकरण करती है।”

उन्होंने ठीक हृदय के ऊपर अपनी छाती को जबर्दस्ती रगड़ा, अपनी भौंहे उठायीं, और ध्यानपूर्वक कहना जारी रखा:

“मास्को में सुखारेव टावर के निकट--यह शरद ऋतु की बात है,एक बार मैंने शराब में धुत्त एक युवती को देखा। वह एक गटर में पड़ी हुई थी। गंदे पानी की धार उससे एक गज दूर ठीक उसकी गर्दन और पीठ के नीचे टपक रही थी, और वहां वह ठण्डे पानी में कुड़बुड़ती, हिलती-डुलती, छटपटाती, लनगभग भीगी हुई, उठने में असमर्थ पड़ी हुई थी।”

वह कांपे, क्षण भर के लिए आंखें बंद कीं, सिर हिलाया और धीमे स्वर में बोले--

“यहां बैठते हैं। एक धुत्त स्त्री की अपेक्षा कुछ भी अधिक भयानक, अधिक घृणित नहीं होता। मैं जाकर उठने में उसकी सहायता करना चाहता था, लेकिन कर नहीं सका। मैंने अपने को उससे पीछे हटा लिया था। वह पूरी तरह गंदी और गीली थी। उसे छूने के बाद एक महीने तक आप अपने हाथ साफ करने में असमर्थ रहते--दारुण! और उसके निकट किनारे के पत्थर पर एक भूरी आंखों, सुन्दर बालों वाला छोटा लड़का गालों पर आंसू बहाता, सूं-सूं करता और असहाय-सा चीखता हुआ बैठा था।”

“मा--म-S-S-S-उठो--।”

“हर बार जब तब वह अपनी बाहें उठाती, फुफकारती, अपना सिर उठाती, और पुनः--कीचड़ में उसे गिरा देती।”

वह चुप हो गए और फिर, अपने चारों ओर देख घबड़ाए हुए लगभग फुसफुसाते हुए दोहराने लगे।

“घृण्य, घुण्य! तुमने बहुत-सी नशे में धुत्त स्त्रियां देखी होंगी? तुमने देखी हैं न--ओह, ईश्वर! उस विषय पर मत लिखना, तुम्हें नहीं लिखना चाहिए।”

“क्यों नहीं?”

मेरी आंखों में देखते हुए मुस्कराते हुए उन्होंने दोहराया:

“क्यों नहीं?”

फिर वह चिन्तनशील हो धीमे स्वर में बोले:

“मुझे मालूम नहीं। यह यूं ही कि मुझे---पाशविकता के विषय में लिखना शर्मनाक प्रतीत होता है। लेकिन अंततः-- क्यों नहीं? किसी को सभी विषयों पर लिखना चाहिए---।”

उनकी आंखों में आंसू छलक आए। उन्होंने उन्हें पोंछ डाला और पूरे समय मुस्कराते हुए अपनी रूमाल की ओर देखते रहे, तभी आंसू उनकी झुर्रियों पर पुनः टपक पड़े थे।

“मैं रो रहा हूं” वह बोले, “मैं एक बूढ़ा व्यक्ति हूं, जब मैं किसी भयानक चीज के विषय में सोचता हूं वह मेरे हृदय को कंपा देती है।”

फिर मुझे हल्के-से टहोका देते हुए--” सब कुछ अपरिवर्तित रहेगा, और तुम इससे अधिक दुखपूर्वक रोओगे जितना मैं इस समय रो रहा हूं, और अधिक आंसू टपकाओगे, जैसा कि किसानों की स्त्रियां करती हैं---लेकिन सभी विषयों पर लिखना चाहिए, सभी पर, अथवा सुन्दर बालों वाला छोटा लड़का आहत होगा, वह तम्हारी भर्त्सना करेगा---।”

उन्होंने पूरी तरह से अपने को हिलाया और खुशामदी ढंग से बोले:

“आओ, कुछ कहो, तुम बहुत अच्छे वक्ता हो। बच्चे के विषय में, अपने विषय में। यह विश्वास करना कठिन है कि कभी तुम भी बच्चे थे, तुम भी--- ऐसे विलक्षण व्यक्ति। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम बड़े ही जन्मे थे। तुम्हारे विचारों में बहुत कुछ बचकाना, अपरिपक्व है, और फिर भी तुम जीवन के बारे में बहुत कुछ जानते हो---तुम्हें और अधिक जानने की आवश्यकता नहीं है। आओ, मुझे कुछ सुनाओ---।”

और वह देवदारु वृक्ष की बाहर निकली जड़ पर, धूसर देवदारु के छेद से निकल रही चीटियों की घबड़ाहट और गतिविधियों को देखते हुए आराम से बैठ गए थे।

सड़क पर वह द्रुत, त्वरित चाल से एक अनुभवी भूपर्यटक की भांति चलते थे। उनकी उत्सुक आंखों से देखने, मापने, पर्यवेक्षण और तुलना करने से पत्थर ही नहीं, विचार भी बच नहीं पाते थे। और वह अपने अविच्छिन्न जीवंत विचारों को अपने चारों ओर बिखेरते रहते थे। उन्होंने सुलर से कहा:

“सुलर, तुम कभी नहीं पढ़ते, यह बहुत खराब है। यह दम्भ है, और यहां गोर्की बहुत पढ़ते हैं, और यह भी गलत है।--यह उसमें आत्मविश्वास की कमी प्रकट करता है। निश्चित ही मेरे सोचने का ढंग मेरे लिए अच्छा है, यद्यपि गोर्की सोचते हैं कि उनके लिए यह गलत है, और तुम बिल्कुल नहीं सोचते। तुम किसी चीज को पकड़कर दबोच लेने के लिए केवल आंखें झपकाते और देखते हो और तुम उन चीजों को पकड़ लेते हो जिनका तुम्हारे लिए कोई अर्थ नहीं--प्रायः तुमने वही किया है। तुम पकड़ लेते हो चिपका लेते हो, और जिस चीज को तुमने चिपकाया हुआ होता है वह जब तुमसे अलग होकर गिरने लगती है, तुम उससे अलग हो जाते हो। चेखव की एक बहुत अच्छी कहानी है--'दि डार्लिगं'--निश्चय ही उसमें वर्णित स्त्री तुम्हें पसंद है!”

“किस रूप में?” सुलर हंसा।

“तुम सदैव प्रेम के लिए तैयार रहते हो, लेकिन तुम नहीं जानते कि चयन कैसे करना है, और तुम उस छोटी-सी बात पर अपनी ऊर्जा नष्ट कर देते हो। ”

“क्या सभी को वह पसंद नहीं है?”

“सभी को?” मंद-मंद मुस्कराते हुए एल.एन. बोले, “नहीं--नहीं--सभी को नहीं। ” और अचानक उन्होंने मुझ पर प्रहार शुरू कर दिया:

“तुम ईश्वर में विश्वास क्यों नहीं करते?”

“मुझे विश्वास नहीं है, एल.एन.।”

“यह सही नहीं है। स्वभाव से तुम आस्तिक हो। ईश्वर के बिना तुम आगे नहीं बढ़ सकते। जल्दी ही तुम यह अनुभव करने लगोगे। तुम इसलिए विश्वास नहीं करते क्योंकि तुम दुराग्रही हो, और क्योंकि तुम खीजे हुए हो। संसार में ऐसे रास्ते नहीं बनते जैसा तुम चाहोगे। कुछ लोग अपने संकोच के कारण नास्तिक होते हैं। कभी-कभी नौजवान ऐसे होते हैं। वे किसी स्त्री की आराधना करते हैं, लेकिन उसे प्रकट होना बर्दाश्त नहीं कर सकते। उन्हें गलत समझे जाने का भय होता है, और इसके अतिरिक्त उनमें साहस भी नहीं होता। विश्वास के लिए प्रेम की भांति, साहस, और निर्भीकता की अपेक्षा होती है। तुम्हें स्वयं से कहना चाहिए, 'तुम विश्वास करते हो' और सब कुछ ठीक हो जाएगा और जैसा तुम चाहते हो सब वैसा ही प्रतीत होगा। सभी कुछ स्वयं तुम्हें स्पष्ट हो जाएगा, तुम्हें आकर्षित करेगा। बहुत कुछ है जिसे तुम प्रेम करते हो, उदाहरण के लिए, विश्वास प्रेम का केवल तीव्रीकरण है। तुम्हें और अधिक प्रेम करना चाहिए और प्रेम विश्वास में परिवर्तित हो जाएगा। संसार में स्त्री के लिए अच्छा है कि पुरुष उसे प्रेम करें, और संसार में सभी अच्छी स्त्री को प्रेम करें और एक तुम हो---वही विश्वास! विश्वास न करने वाला कभी प्रेम नहीं कर सकता। वह आज एक के साथ प्रेम में पड़ता है, और एक वर्ष बाद दूसरे के साथ--। ऐसे व्यक्ति की आत्मा आवारागर्द होती है, वह निर्जीव है, और यह सही नहीं है। तुम एक आस्तिक के रूप में जन्में हो ओर अपनी प्रकृति के विरुद्ध जाने का प्रयास उचित नहीं है। तुम सदैव कहते हो---सौन्दर्य। और सौन्दर्य है क्या? सर्वोच्च और सर्वाधिक परिपूर्ण है--ईश्वर।”

इससे पहले इन विषयों पर उन्होंने मुझसे बहुत कम बात की थी, और विषय का महत्व, उसकी अतार्किकता ने मेरी अनभिज्ञता को प्रभावित किया और मैं अभिभूत हो उठा था। मैंने कुछ नहीं कहा। वह सोफे पर बैठे थे। उन्होंने अपने पैर अपने नीचे कर लिए। उनकी दाढ़ी पर एक उल्लसित मुस्कान खिल उठी और मेरी ओर एक उंगली हिलाते हुए वह बोले:

“तुम जानते हो, तुम कुछ नहीं कहकर उससे भाग नहीं सकते।”

और मैंने, जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता, उन पर चुपचाप एक सरसरी दृष्टि डाली और स्वयं से कहा:

“यह व्यक्ति ईश्वर की भांति है।”

यूडित और ऐस्तैर


 जिग़मोन्द मोरित्स

हम लोग निर्धन थे।
भिखारियों से भी बढक़र गरीब।
खानदानी लोगो का गरीब हो जाना, इससे बढक़र बोझ है कोई?
एक छोटे से गांव में जाकर समेट लिया था अपने आपको, जहां एक टुकडा भी जमीन का हमारा न था और भीनी सुगंध देने वाले पेड भी दु:ख का ही आभास दिलाते थे। सिर्फ हमारी यादों में बसे थे, हमारे पेड-पौधे, मवेशी, अस्तबल, और बडे-बडे ख़ंभों वाला महल जैसा घर, तीसा नदी के किनारे। जगत के दूसरे कोने में जाकर बस गये थे अपनी गरीबी को छुपाने के ख्याल से। फिर भी ऐसी जगह आ पहुँचे, जहां रिश्तेदार निकल आये। पिताजी ने सोचा, रिश्तेदार होना तो अच्छा ही है, जरूरत पडने पर कभी काम आ सकते है। लोग भी अच्छे है। परन्तु श्राप था रिश्तेदारों का होना।

यह संबंधी गांव की सीमा पर रहते थे सबसे बडे मकान में, जो काफी फ़ैला हुआ था और अपनी संकीर्ण खिडक़ियों से बाहर की दुनिया को देखता था। हमारे विशालकाय पुराने महल के मुकाबले में कहां था यह मकान! पर कैसी कडवी, दिल को दुखाने वालीर् ईष्या जगाता था हमारे मन में। विन्सै चाचा, दोहरी ठोडी, सख्त हाथों और बडी घनी भौंहो वाले हमारे रिश्तेदार थे और हमें नौकरों की तरह रखने की व्यर्थ कोशिश कर चुके थे। नाराज थे कि पिताजी ने उनके साथ किसी तरह के गैरकानूनी काम करने से इंकार कर दिया था। जलते भी थे, क्योंकि उनके दादा के समय से ही उनका संबंध हमारे पुराने नवाबी खानदान से अलग हो गया था, जबकि हमारे खानदानी हिस्से में नवाबियत देर तक चलती रही थी। यह बात और है कि अब हम एक पकी नाशपाती की तरह जमीन पर गिर पडे थे और धूल में मिल गए थे।

और अब औरतों के बारे में बताता हूं। मेरी मां का नाम यूडित था शिमोनकौय यूडित । उनकी नानी बडी ज़मींदार घराने की लडक़ी थी,जिनका संबंध संसार के मशहूर खानदानों तक जाकर जुडता था। और विन्सै चाचा (जो एक तरह से माली ही थे) की पत्नी चितकै ऐस्तैर थी,जिनके पिता औलफल्द (हंगरी का वह भाग जहां के घोडे मशहूर है) में किसी सईस के यहां मुनीम का काम करते थे और ऐसा भी कहा जाता था कि वह काम कम, दोनों हाथों से लूटते ज्यादा थे।

दोनों औरतें ऐसी थी, मानो तेज छुरियां। मेरी मां कभी शिकायत नहीं करती थी। एकदम जड सी हो गई थी और बिना आह भरे अपनी जिंदगी का बोझ ढो रही थै। लेिकन गांव में इसकी चर्चा थी कि मां के लकीरों वाले मखमली बक्से के अंदर पुराने छोटे-छोटे फूलों की कढाई वाले स्कर्ट, कीमती सिल्क और इसी तरह की पुरानी बेशकीमती चीजें अब भी उनके बीते हुए दिनों की याद बनाए रखने के लिए रखी गई है।शायद इसमें कुछ सच भी होगा, पर थोडा सा। मेरे पिता घर आते थे, कभी गालियां बकते हुए, कभी हंसते हुए, कभी उम्मीद लगाए हुए। हर व्यक्ति पर भरोसा कर लेते थे और हए एक से धोखा खाते थे। कई बार मां और पिताजी में काफी झगडा होता था।

मां ने अपने आप को अपने मे ही समेट लिया था, इसलिए शायद मैं एक शर्मीला डरपोक बालक बन गया था, जिसे मां और संसार के बीच बिचौलिया बनन पडता था। लोगों से डरता था, किसी के सामने आते ही यूं बाहर निकलता था जैसे कोई घोंघा, जो ज़रा सी हरकत होते ही वापस अपने खोल में सिमट आने को तैयार हो। फिर भी मुझे बाहर जाना ही पडता था लोगो के बीच। मैं अपने परिवार का प्रतिनिधि जो था गांव के सामने। मेरे पिता तो अधिकतर घर पर होते नहीं थे और मां! वो तो घर के आंगन तक पैर नहीं रखती थी, जब तक बिल्कुल ही जरूरी नहीं हो जाता था। केवल मैं घर से बाहर निकलता था - स्कूल के लिए, दुकान की ओर और दूध के लिए।

दूध, हमारी छोटी सी जिंदगी की सबसे बडी क़मी। और कई मुसीबतों के बीच जिन पर हमें उलझन होती थी, यह मेरे लिए सबसे अधिक दु:ख का कारण था। मुझे दूध बहुत पसंद था और हमारे पास गाय नहीं थी। गांव में दूध मिलता नहीं था, कभी-कभी पैसे से भी नहीं, क्योंकि दूध तो बडे बाजारों में शहरों में बेचने वाली चीज थी। और पूरे गांव वालों के बीच लाइन में खडा होकर दूध खरीदने का विचार यूं भी दिल दहलाने के लिए काफी था। हां अगर मां अधिक बोलने वाली होती और पडोस की औरतों की चटपटी, बेबुनियाद बातों को सुन सकती थी तो दूध के लिए मुझे नहीं जाना पडता। दूधवालियां घर पर ही पहुंचा जाती। पर ऐसा संभव नहीं था। और इसके लिए मुझे अहंकार भी था मां पर,क्योंकि वे चाहे गरीब थीं ; पर सुंदर और अभिमानी थी।

क्रि्रसमस की एक शाम इस दूध के कारण हमारे साथ एक बडा हादसा हुआ। मैं पूरे गांव का चक्कर लगा आया था, अपने हाथों में सफेद भूरे पैसे पकडे ड़रते हुए। हे भगवान् कहीं से एक गिलास दूध मिल जाये। पर हर तरफ लोग त्योहार के कारण खुले दिल से खर्च कर रहे थे। मेरे सामने बडे-बडे पतीलों में, तीन पैरों वाले मिट्टी के बर्तनों में दूध की खरीद-फरोख्त हो रही थी, पर मेरे मांगने पर तेज आंखो वाली पैसे की लालची गांव की औरतें अपना हाथ झाड देती और अपनी कमर पर कोहनियां जमाकर खडी हो जाती थी और दुखडा रोने लगती थी, '' बेटा है नहीं। दे नहीं सकते। दूध जमा करना है। त्योहार आने वाला है। पकवान बनाने है, बडे बाजार में बेचने जाना है, वहां दूध के अच्छे पैसे मिल जायेंगे।

थका हुआ बुडबुडाता हुआ घर पहुंचा, ''नहीं मिला, कोई नहीं देता।'' मां की बर्डीबडी क़ाली आंखे और बडी हो गई, बस यूं चमकी। वे न बोली,न उन्होने आह भरी, न उनके आंसू निकले। मगर मैं दुबक कर ऐसे बैठ गया, मानो एक छोटा चूहा, ऐसा महसूस कर रहा हो, मानो अभी बिजली गिरेगी। मां भी पकवान बनाना चाहती थी, मैदा दूध से गूंधना था, पर बोली कुछ नहीं। पानी का बर्तन लाई और पानी से ही गूंधने लगी। मैं पलक झपकाये बगैर देखता रहा। बाहर अंधेरा तेजी से बढ रहा था। जैसे ही मां ने मैदा सानना शुरू किया, मेरे दिमाग में एक बहुत साहसी विचार पनपा,

'' मां!'' मां ने मेरी तरफ आंख उठाई, मैने अपना विचार उनके सामने रखा,'' मैं ऐस्तैर चाची के यहां जाऊं।''

मां ने पलक भी न झपकाई, हालांकि मैने बहुत बडी बात कह दी थी। अगर इस वक्त अलमारी पर चमकती हुई पीतल से मढी बाइबल अपने-आप अचानक उडक़र मेरे सर से टकरा जाती तो भी मैं इतना हैरान नहीं होताऐस्तैर चाची से हमने कभी कुछ नहीं मांगा था, चाहे भूख से हम मर ही क्यूं न रहे हो। उनके पास छ: गायें थी और हमारे घर में तीन-तीन दिन तक एक चम्मच दूध भी नहीं होता था। रोज आलू का सूप बनाकर पी लेते थे। अब तक मेरा दिल थोडे से दूध के लिए टूट ही चुका था। खिडक़ियों पर बर्फ चमकने लगी थी, सूर्य की किरणें भूरे रंग की हो चुकी थी। मां गूंधती रही, गूंधती रही, फिर अचानक बोली, ''जा।'' मैने सोचा शायद मैने ठीक से नहीं सुना हैं। एक क्षण को रुका,फिर मेज पर से पैसे उठाये और पकड क़र तेजी से भागा। फिर एक बार दरवाजे पर ठिठका, रुका, मां की ओर फिर से मुडक़र देखा,''जाऊं?''
'' जा।''

पूरे रास्ते मेरा दिल धडक़ता रहा, कहीं कुत्ते न पकड लें। कितना घबराता था मैं उनसे। मगर रास्ते-भर इतने खूंखार कुत्तों से सामना नहीं हुआ, जितना रिश्तेदारों के अहाते में। एक नौकरानी सामने से आई और उसने मुझे कुत्तों से बचाया।

'' ऐस्तैर चाची कहां है?''

भडक़ीले कपडे पहने वो नौकरानी शायद कुछ उदास सी थी और कुछ गुस्सा भी, ''उधर हैं पशुओं के बाडे क़ी ओर,'' गुर्राकर बोली, मानो अपने कुत्तों की तरह अपने पैने दांत मुझमें गडाना चाहती हो। मैं सहमा सा, धीरे-धीरे, आधा ध्यान कुत्तों की ओर लगाए बाडे क़ी तरफ बढा। पैरों को यूं दबाकर रखता हुआ कि पत्ते तक के खडक़ने की आवाज न सुनाई दे पैरों तले। बाडे क़े दरवाजे पर गहरा कोहरा छाया हुआ था। अचानक मैं रुक गया, मानो बर्फ क़ा छोटा का पुतला बनकर रह गया हूं। बाडे में से अजीब सी आवाजें आ रही थी।

'' छोडो मुझे।'' ऐस्तैर चाची की आवाज सुनाई दी,पर ऐसे जैसे चिल्लाना चाह रही हों।कुछ झगडा सा सुनाई दिया। फिर कोई तख्त या कोई चारा रखने के लकडी क़े बक्से की चिरमिराने की आवाज सुनाई दी।
'' बदमाश!'' ऐस्तैर चाची हांफते हुए बोली,'' सुअर, बदमाश!''

कोई मर्दानी हंसी सुनाई दी, हलके से हिनहिनाते हुए। मैं पहचानता था यह आवाज। उनके ड्राइवर की थी, फैरी पाल की, जिनके बारे में मैंने सुना था कि वो चाची की नौकरानी की वजह से यहां काम करने लगा था।

'' क्या चाहते हो?'' फुर्सफुसाकर चाची बोली।
'' आओ ना!'' पाल बोला। फिर शांति हो गई।

मैं ऐसे खडा रहा, मानो एक प्रतिमा। एक जडी हुई, अजीब सी, एक छोटी सी बाल प्रतिमा, पर मुझे इस बातचीत का एक शब्द भी समझ में न आया।

'' जाने दो।'' फुसफुसाकर फिर से चाची बोली।
'' आओ, अगर नहीं आई तो मैं बाडा जला दूंगा। मुझे पागल न बनाओ....जब प्यास जगायी है तो बुझाओ भी तो।''

बाडे में हलचल हुई और चाची तेजी से बाहर दौडी। ज़ब उन्होने डरते हुए, फटी-फटी आंखे लिए दरवाजे पर कदम रखा तो फौरन उनकी निगाह मुझ पर पडी। समझीं कि मैने सब कुछ देख, सुन और समझ लिया। इससे वे बेहद डर गई।

'' क्या चाहिए?'' मेरी ओर कातिलाना नजर डालती हुई बोली।
'' मेरी मममां ने।'' मै हकलाते हुए बोला,'' आपको सलाम भेजा है और एक जग दूध आपसे लाने को कहा है।''
'' नहीं है।'' वो चिल्लायी।

लगा जैसे मैं लडख़डा गिर जाऊंगा। इसके साथ ही वो घर की तरफ बढ ग़ई। मेरे दिमाग में एक अक्ल की बात कौंधी, ''पैसे से ले लेना चाहता हूं।'' मै चिल्लाया, जिससे मैं खुद भी अचंभित हो गया।
वे फिर मुडी, ज़ैसे एक दांत गडाने वाले कुत्ते से अपने आप को बचाने की कोशिश में आदमी।'' जब कह दिया न, नहीं है।'' और कहकर आगे बढ ग़ई। उसके बाद फिर से मेरी ओर देखा, ''मुझे तीन तंदूर भरकर दूध की रोटियां बनानी है।''

मुझे अपनी पीठ के पास किसी के जोर से ठट्ठा लगाने की आवाज सुनाई दी। फैरी पाल मेरे पीछे खडा था और मुझे अब ऐस्तैर चाची पर इतना क्रोध नहीं आ रहा था जितना उस जानवर पर। मैं उबलता हुआ घर लौटा। दरवाजे पर देर तक खडा रहा, जब तक दरवाजा खोलने की हिम्मत मुझमें नहीं आ गई। मां ने तेल की लालटेन जला ली थी। इस गांव में शीशे की लालटेन इस्तेमाल करते थे घरों में भी, जैसी अस्तबलों में की जाती है। मै अच्छी तरह जानता था कि लालटेन में तेल नहीं है और न अब शीशी में बचा है। मैने पैसे मेज पर रख दिए और बडबडाया,'' वे नहीं दे सकती, उनके पास है नहीं।''

मां सीधी खडी हो गई, सख्त बन गई। मैं प्रतीक्षा में था कि अब चिल्लायेगी, फटकारेंगी, पर कुछ न बोली, कुछ भी न बोली। माथे पर पसीना अच्छे से पोछा और बस कहा,'' ठीक है।''

उदास बोझिल शाम थी। हम दोनो में से कोई कुछ नहीं बोला। मैं एकटक लालटेन की बत्ती को ताकता जा रहा था, लंबे धुएं की लकीर को,बुझती हुए लौ को और सोच रहा था कितना तेल खाती है यह लालटेन, कि फिर से एक बूंद भी तेल नहीं बचा है बोतल में। यह भी सोच रहा था कि क्रिसमस पर तो कम-से-कम पिताजी घर आ जाते, त्योहार के लिए। पर उनके लिए अच्छा ही है कि न आयें, क्योंकि उनको हमारी यह भारी गरीबी देखनी अच्छी नहीं लगेगी। वे तो जब जाते है तो बडे आदमियों के साथ ही बैठते है, क्योंकि व्यापार का जुगाड ऐसे ही लोगो के साथ बन सकता है, पर ऐसा दिखता है कि उनके साथ भी अब नहीं होगे। बिना पैसे खर्च किये पैदल घर के लिए चल दिए होंगे।

जल्दी ही मैं लेट गया। उस वक्त भी कुछ दिमाग में नहीं आया, सिवाय इस तरह के गंभीर बडे लोगो वाले विचारों के। रात गहरी हो चुकी थी,जब किसी ने खिडक़ी जोर से खटखटायी।

'' यूडित, यूडित!'' हमें सुनाई दिया।
'' ऐस्तैर!'' मां चिल्लाई,'' तुम हो क्या?''
'' मै हूं। भगवान के लिए अंदर आने दो।''

मां ने उसको अंदर आने दिया। मैं पलंग पर सहमा सा लेटा रहा। ठंड खाता रहा। एक माचिस के जलने की आवाज सी आई पर वो जली नहीं। चाची डरी हुई आवाज में फुसफुसाने लगी,'' अरे मत जलाओ, अगर मेरी मौत नहीं चाहती। मेरे लिए पलंग ले आओ। मेरा वक्त आ गया है।''

मां ने पिताजी का पलंग बिछा दिया, चाची उसपर लेट गई। उन्ही कपडों में। केवल एक दफा अचानक चिल्ला पडी, ''हाय मुझे छुओ मत, दर्द होता है। मैं बुरी तरह से घायल हूं।'' रोते-रोते उछलकर बैठ गई,'' मुझे पीटा, बुरी तरह से पीटा। तुम्हारे अलावा और किसी के पास जाती तो इस बात का पूरे गांव में ढिंढ़ोरा पिट जाता।''

मैने आंख फाडक़र देखना चाहा, पर कुछ भी नहीं दिखा। लगा मां वहां है ही नहीं। कोई आवाज नहीं हो रही रही थी।
धीमे-धीमे सिसकती रही चाची,'' मैं, मैं पगली बेवकूफ! रंगे हाथों पकडी ग़ई।'' दांत पीसकर बोली,'' ऐसा मारा मुझे कि बाहर आंगन में गिरी।एक घंटे तक वहीं ठंड में पडी रही। जाती भी कहां। दरवाजा तो उसने बंद कर लिया था। केवल तुम्हारे पास आ सकती थी। अगर कहीं और जाती तो मेरा अंत हो जाता। तुम्हारे अलावा कोई भी मेरा हाल सब जगह सुना देता।'' कराहती रही, सिसकती रही, और रोती रही,'' मैं जानती थी तुम्हारे पति घर पर नहीं है और इसके अलावा तुम तो वैसे भी जानती ही हो।''
'' मैं?'' मां बोली।
'' बताया नहीं बच्चे ने?''

मै शायद चक्कर खाकर पलंग से गिर ही जाता।

मां बोली, उस रौबीली शांत आवाज में, जिससे मैं भी कांपता था और पिताजी भी घबरा जाते थे, '' मेरा बच्चा ऐसी बातें नहीं करता।''

ऐस्तैर चाची एकदम शांत हो गई। उसके आगे एक शब्द नहीं बोली, न रोयी न सिसकी। मां लेट गई और मैं जो उसके पैरों पर लेटा था ऐसा महसूस कर रहा था, मानो वह बर्फ सी ठंडी थी।

सुबह जब मैं सोकर उठा सब कुछ तरतीब से लगा था। तंदूर गर्म हो चुका था। मां काम में लगी थी। मैने कपडे पहने और नाश्ते का इंतजार करने लगा। इसी समय ऐस्तैर चाची की नौकरानी अंदर आई। बडी चहक रही थी। वैसी गुस्सैल और खूंखार नहीं थी जैसे पिछली शाम को।मुस्कराते हुए बोली,'' मेरी मालकिन ने एक मटका दूध भेजा है। शाम को जितना दूध दुआ गया सब यही है। केवल ऊपर की क्रीम निकाली है जो पेस्ट्री बनाने में इस्तेमाल करनी है हमें।''
'' ठीक है सूजन, अपनी मालकिन से मेरा धन्यवाद कहना....और रुको, उनके लिए यह कान के बुंदे लेती जाओ, यादगार के लिए पहन ले।''

मां ने मखमली बक्सा खोला और उसमें से सबसे खूबसूरत बुंदे निकालकर दे दिये। मैं दूध को शायद सबसे कीमती समझता था। क्योंकि जिस प्रकार सूजन बुंदो को देखकर विभोर हो रही थी, उसी दिलीखुशी के साथ मैं उस शक्तिशाली मटके को देख रहा था। इंतजार में था कि फिर से एक बार नाश्ते में दूध पीऊंगा। पर मां ने वो मटका उठाया और शांति से, आराम से, उसे बर्तन धोने वाली जगह पर उडेलना शुरू कर दिया।हमारे पास जो इकलौता भालू था शायद उसके लिए। मेरा रंग फीका पड ग़या और भयानक डर से मेरा खून सुखा दिया मानो। मां ने मेरी तरफ देखा। चौंक गई और हाथ एक क्षण को ढीला पड ग़या। दूध को उंडेलने की गति मध्दम पड ग़ई। अंत में लम्बी सी आह भरी। जैसे उनके हृदय को चोट सी लगी। दु:ख भरे खूबसूरत चेहरे पर एक आंसू ढुलक आया।

बोली, ''ला बेटे अपना कप मुझे दे दे।''

गँजहों के गाँव का लोकतंत्र


श्रीलाल शुक्ल

तहसील का मुख्यालय होने के बावजूद शिवपालगंज इतना बड़ा गाँव न था कि उसे टाउन एरिया होने का हक मिलता। शिवपालगंज में एक गाँव-सभा थी और गाँववाले उसे गाँव-सभा ही बनाए रखना चाहते थे ताकि उन्हें टाउन एरियावाली दर से ज्यादा टैक्स न देना पड़े। इस गाँव-सभा के प्रधान रामाधीन भीखमखेड़वी के भाई थे जिनकी सबसे बड़ी सुंदरता यह थी कि वे इतने साल प्रधान रह चुकने के बावजूद न तो पागलखाने गए थे, न जेलखाने। गँजहों में वे अपनी मूर्खता के लिए प्रसिद्ध थे और उसी कारण, प्रधान बनने के पहले तक, वे सर्वप्रिय थे। बाहर से अफसरों के आने पर गाँववाले उनको एक प्रकार से तश्तरी रख कर उनके सामने पेश करते थे। और कभी-कभी कह भी देते थे कि साहेब, शहर में जो लोग चुन कर जाते हैं उन्हें तो तुमने हजार बार देखा होगा, अब एक बार यहाँ का भी माल देखते जाओ।

गाँव-सभा के चुनाव जनवरी के महीने में होने थे और नवंबर लग चुका था। सवाल यह था कि इस बार किस को प्रधान बनाया जाए? पिछले चुनावों में वैद्य जी ने कोई दिलचस्पी नहीं ली क्योंकि गाँव-सभा के काम को वे निहायत जलील काम मानते थे। और वह एक तरह से जलील था भी, क्योंकि गाँव-सभाओं के अफसर बड़े टुटपुँजिया क़िस्म के अफसर थे। न उनके पास पुलिस का डंडा था, न तहसीलदार का रुतबा, और उनसे रोज-रोज अपने काम का मुआयना करने में आदमी की इज्जत गिर जाती थी। प्रधान को गाँव-सभा की जमीन-जायदाद के लिए मुकदमे करने पड़ते थे और शहर के इजलास में वकीलों और हाकिमों का उनके साथ वैसा भी सलूक न था जो एक चोर का दूसरे चोर के साथ होता है। मुकदमेबाजी में दुनिया-भर की दुश्मनी लेनी पड़ती थी और मुसीबत के वक़्त पुलिसवाले सिर्फ मुस्करा देते थे उन्हें मोटे अक्षरों में 'परधान जी' कह कर थाने के बाहर का भूगोल समझाने लगते थे।

पर इधर कुछ दिनों से वैद्य जी की रुचि गाँव-सभा में भी दिखने लगी थी, क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री का एक भाषण किसी अखबार में पढ़ लिया था। उस भाषण में बताया गया था कि गाँवों का उद्धार स्कूल, सहकारी समिति और गाँव-पंचायत के आधार पर ही हो सकता है और अचानक वैद्य जी को लगा कि वे अभी तक गाँव का उद्धार सिर्फ कोऑपरेटिव यूनियन और कॉलिज के सहारे करते आ रहे थे और उनके हाथ में गाँव-पंचायत तो है ही नहीं। 'आह!' उन्होंने सोचा होगा, 'तभी शिवपालगंज का ठीक से उद्धार नहीं हो रहा है। यही तो मैं कहूँ कि क्या बात है?'

रुचि लेते ही कई बातें सामने आईं। यह कि रामाधीन के भाई ने गाँव-सभा को चौपट कर दिया है। गाँव की बंजर जमीन पर लोगों ने मनमाने कब्जे कर लिए हैं और निश्चय ही प्रधान ने रिश्वत ली है। गाँव-पंचायत के पास रुपया नहीं है और निश्चय ही प्रधान ने गबन किया है। गाँव के भीतर बहुत गंदगी जमा हो गई है और प्रधान निश्चय ही सुअर का बच्चा है। थानेवालों ने प्रधान की शिकायत पर कई लोगों का चालान किया है जिससे सिर्फ यही नतीजा निकलता है कि वह अब पुलिस का दलाल हो गया है। प्रधान को बंदूक का लाइसेंस मिल गया है जो निश्चय ही डकैतियों के लिए उधार जाती है और पिछले साल गाँव में बजरंगी का कत्ल हुआ था, तो बूझो कि क्यों हुआ था?

भंग पीनेवालों में भंग पीसना एक कला है, कविता है, कार्रवाई है, करतब है, रस्म है। वैसे टके की पत्ती को चबा कर ऊपर से पानी पी लिया जाए तो अच्छा-खासा नशा आ जाएगा, पर यहाँ नशेबाजी सस्ती है। आदर्श यह है कि पत्ती के साथ बादाम, पिस्ता, गुलकंद दूध-मलाई आदि का प्रयोग किया जाए। भंग को इतना पीसा जाए कि लोढ़ा और सिल चिपक कर एक हो जाएँ, पीने के पहले शंकर भगवान की तारीफ में छंद सुनाए जाएँ और पूरी कार्रवाई को व्यक्तिगत न बना कर उसे सामूहिक रूप दिया जाए।

सनीचर का काम वैद्य जी की बैठक में भंग के इसी सामाजिक पहलू को उभारना था। इस समय भी वह रोज की तरह भंग पीस रहा था। उसे किसी ने पुकारा, 'सनीचर!' सनीचर ने फुँफकार कर फन-जैसा सिर ऊपर उठाया। वैद्य जी ने कहा, 'भंग का काम किसी और को दे दो और यहाँ अंदर आ जाओ।'

जैसे कोई उसे मिनिस्टरी से इस्तीफा देने को कह रहा हो। वह भुनभुनाने लगा, 'किसे दे दें? कोई है इस काम को करनेवाला? आजकल के लौंडे क्या जानें इन बातों को। हल्दी-मिर्च-जैसा पीस कर रख देंगे।' पर उसने किया यही कि सिल-लोढ़े का चार्ज एक नौजवान को दे दिया, हाथ धो कर अपने अंडरवियर के पीछे पोंछ लिए और वैद्य जी के पास आ कर खड़ा हो गया।

तख्त पर वैद्य जी, रंगनाथ, बद्री पहलवान और प्रिंसिपल साहब बैठे थे। प्रिंसिपल एक कोने में खिसक कर बोले, 'बैठ जाइए सनीचरजी!'

इस बात ने सनीचर को चौकन्ना कर दिया। परिणाम यहाँ हुआ कि उसने टूटे हुए दाँत बाहर निकाल कर छाती के बाल खुजलाने शुरू कर दिए। वह बेवकूफ-सा दिखने लगा, क्योंकि वह जानता था चालाकी के हमले का मुकाबला किस तरह किया जाता है। बोला, 'अरे प्रिंसिपल साहेब, अब अपने बराबर बैठाल कर मुझे नरक में न डालिए।'

बद्री पहलवान हँसे। बोले, 'स्साले! गँजहापन झाड़ते हो! प्रिंसिपल साहब के साथ बैठने से नरक में चले जाओगे?' फिर आवाज बदल कर बोले, 'बैठ जाओ उधर।'

वैद्य जी ने शाश्वत सत्य कहनेवाली शैली में कहा, 'इस तरह से न बोलो बद्री। मंगलदास जी क्या होने जा रहे हैं, इसका तुम्हें कुछ पता भी है?'

सनीचर ने बरसों बाद अपना सही नाम सुना था। वह बैठ गया और बड़प्पन के साथ बोला, 'अब पहलवान को ज्यादा जलील न करो महाराज। अभी इनकी उमर ही क्या है? वक़्त पर सब समझ जाएँगे।'

वैद्य जी ने कहा, 'तो प्रिंसिपल साहब, कह डालो जो कहना है।'

उन्होंने अवधी में कहना शुरू किया, 'कहै का कौनि बात है? आप लोग सब जनतै ही।' फिर अपने को खड़ीबोली की सूली पर चढ़ा कर बोले, 'गाँव-सभा का चुनाव हो रहा है, यहाँ का प्रधान बड़ा आदमी होता है। वह कॉलिज-कमेटी का मेंबर भी होता है - एक तरह से मेरा भी अफ़सर।'

वैद्य जी ने अकस्मात कहा, 'सुनो मंगलदास, इस बार हम लोग गाँव-सभा का प्रधान तुम्हें बनाएँगे।'

सनीचर का चेहरा टेढ़ा-मेढ़ा होने लगा। उसने हाथ जोड़ दिए - पुलक गात लोचन सलिल। किसी गुप्त रोग से पीड़ित, उपेक्षित कार्यकर्ता के पास किसी मेडिकल असोसिएशन का चेयरमैन बनने का परवाना आ जाए तो उसकी क्या हालत होगी? वही सनीचर की हुई। फिर अपने को क़बू में करके उसने कहा, 'अरे नहीं महाराज, मुझ-जैसे नालायक को आपने इस लायक समझा, इतना बहुत है। पर मैं इस इज्जत के काबिल नहीं हूँ।'

सनीचर को अचंभा हुआ कि अचानक वह कितनी बढ़िया उर्दू छाँट गया है। पर बद्री पहलवान ने कहा, 'अबे, अभी से मत बहक। ऐसी बातें तो लोग प्रधान बनने के बाद कहते हैं। इन्हें तब तक के लिए बाँधे रख।'

इतनी देर बाद रंगनाथ बातचीत में बैठा। सनीचर का कंधा थपथपा कर उसने कहा, 'लायक-नालायक की बात नहीं है सनीचर! हम मानते हैं कि तुम नालायक हो पर उससे क्या? प्रधान तुम खुद थोड़े ही बन रहे हो। वह तो तुम्हें जनता बना रही है। जनता जो चाहेगी, करेगी। तुम कौन हो बोलनेवाले?'

पहलवान ने कहा, 'लौंडे तुम्हें दिन-रात बेवकूफ बनाते रहते हैं। तब तुम क्या करते हो? यही न कि चुपचाप बेवकूफ बन जाते हो?'

प्रिंसिपल साहब ने पढ़े-लिखे आदमी की तरह समझाते हुए कहा, 'हाँ भाई, प्रजातंत्र है। इसमें तो सब जगह इसी तरह होता है।' सनीचर को जोश दिलाते हुए वे बोले, 'शाबाश, सनीचर, हो जाओ तैयार!' यह कह कर उन्होंने 'चढ़ जा बेटा सूली पर' वाले अंदाज से सनीचर की ओर देखा। उसका सिर हिलना बंद हो गया था।

प्रिंसिपल ने आखिरी धक्का दिया, 'प्रधान कोई गबड़ू-घुसड़ू ही हो सकता है। भारी ओहदा है। पूरे गाँव की जायदाद का मालिक! चाहे तो सारे गाँव को 107 में चालान करके बंद कर दे। बड़े-बड़े अफ़सर आ कर उसके दरवाजे बैठते हैं! जिसकी चुगली खा दे, उसका बैठना मुश्किल। कागज पर जरा-सी मोहर मार दी और जब चाहा, मनमाना तेल-शक्कर निकाल लिया। गाँव में उसके हुकुम के बिना कोई अपने घूरे पर कूड़ा तक नहीं डाल सकता। सब उससे सलाह ले कर चलते हैं। सब की कुंजी उसके पास है। हर लावारिस का वही वारिस है। क्या समझे?'

रंगनाथ को ये बातें आदर्शवाद से कुछ गिरी हुई जान पड़ रही थीं। उसने कहा, 'तुम तो मास्टर साहब, प्रधान को पूरा डाकू बनाए दे रहे हो।'

'हें-हें-हें' कह कर प्रिंसिपल ने ऐसा प्रकट किया जैसे वे जान-बूझ कर ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें कर रहे हों। यह उनका ढंग था, जिसके द्वारा बेवकूफी करते-करते वे अपने श्रोताओं को यह भी जता देते थे कि मैं अपनी बेवकूफी से परिचित हूँ और इसलिए बेवकूफ नहीं हूँ।

'हें-हें-हें, रंगनाथ बाबू! आपने भी क्या सोच लिया? मैं तो मौजूदा प्रधान की बातें बता रहा था।'

रंगनाथ ने प्रिंसिपल को गौर से देखा। यह आदमी अपनी बेवकूफी को भी अपने दुश्मन के ऊपर ठोंक कर उसे बदनाम कर रहा है। समझदारी के हथियार से तो अपने विरोधियों को सभी मारते हैं, पर यहाँ बेवकूफी के हथियार से विरोधी को उखाड़ा जा रहा है। थोड़ी देर के लिए खन्ना मास्टर और उनके साथियों के बारे में वह निराश हो गया। उसने समझ लिया कि प्रिंसिपल का मुक़ाबला करने के लिए कुछ और मँजे हुए खिलाड़ी की जरूरत है। सनिचर कह रहा था, 'पर बद्री भैया, इतने बड़े-बड़े हाकिम प्रधान के दरवाज़े पर आते हैं ... अपना तो कोई दरवाजा ही नहीं है; देख तो रहे हो वह टुटहा छप्पर!'

बद्री पहलवान हमेशा से सनीचर से अधिक बातें करने में अपनी तौहीन समझते थे। उन्हें संदेह हुआ कि आज मौका पा कर यहाँ मुँह लगा जा रहा है। इसलिए वे उठ कर खड़े हो गए। कमर से गिरती हुई लुंगी को चारों ओर से लपेटते हुए बोले, 'घबराओ नहीं। एक दियासलाई तुम्हारे टुटहे छप्पर में भी लगाए देता हूँ। यह चिंता अभी दूर हुई जाती है।'

कह कर वे घर के अंदर चले गए। यह मजाक था, ऐसा समझ कर पहले प्रिंसिपल साहब हँसे, फिर सनीचर भी हँसा। रंगनाथ की समझ में आते-आते बात दूसरी ओर चली गई थी। वैद्य जी ने कहा, 'क्यों? मेरा स्थान तो है ही। आनंद से यहाँ बैठे रहना। सभी अधिकारियों का यहीं से स्वागत करना। कुछ दिन बाद पक्का पंचायतघर बन जायेगा तो उसी में जा कर रहना। वहीं से गाँव-सभा की सेवा करना।'

सनीचर ने फिर विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़े। सिर्फ़ यही कहा, 'मुझे क्या करना है? सारी दुनिया यही कहेगी कि आप लोगों के होते हुए शिवपालगंज में एक निठल्ले को ...'

प्रिंसिपल ने अपनी चिर-परिचित 'हें-हें-हें' और अवधी का प्रयोग करते हुए कहा, 'फिर बहकने लगे आप सनीचर जी! हमारे इधर राजापर की गाँव-सभा में वहाँ के बाबू साहब ने अपने हलवाहे को प्रधान बनाया है। कोई बड़ा आदमी इस धकापेल में खुद कहाँ पड़ता है।'

प्रिंसिपल साहब बिना किसी कुंठा के कहते रहे, 'और मैनेजर साहब, उसी हलवाहे ने सभापति बन कर रंग बाँध दिया। किस्सा मशहूर है कि एक बार तहसील में जलसा हुआ। डिप्टी साहब आए थे। सभी प्रधान बैठे थे। उन्हें फर्श पर दरी बिछा कर बैठाया गया था। डिप्टी साहब कुर्सी पर बैठे थे। तभी हलवाहेराम ने कहा कि यह कहाँ का न्याय है कि हमें बुला कर फर्श पर बैठाया जाए और डिप्टी साहब कुर्सी पर बैठें। डिप्टी साहब भी नए लौंडे थे। ऐंठ गए। फिर तो दोनों तरफ़ इज्जत का मामला पड़ गया। प्रधान लोग हलवाहेराम के साथ हो ग। 'इंकलाब जिंदाबाद' के नारे लगने लगे। डिप्टी साहब वहीं कुर्सी दबाए 'शांति-शांति' चिल्लाते रहे। पर कहाँ की शांति और कहाँ की शकुंतला? प्रधानों ने सभा में बैठने से इनकार कर दिया और राजापुर का हलवाहा तहसीली क्षेत्र का नेता बन बैठा। दूसरे ही दिन तीन पार्टियों ने अर्जी भेजी कि हमारे मेंबर बन जाओ पर बाबू साहब ने मना कर दिया कि खबरदार, अभी कुछ नहीं। हम जब जिस पार्टी को बताएँ, उसी के मेंबर बन जाना।'

सनीचर के कानों में 'इंकलाब जिंदाबाद' के नारे लग रहे थे। उसकी कल्पना में एक नग-धड़ंग अंडरवियरधारी आदमी के पीछे सौ-दो सौ आदमी बाँह उठा-उठा कर चीख रहे थे। वैद्य जी बोले, 'यह अशिष्टता थी। मैं प्रधान होता तो उठ कर चला आता। फिर दो मास बाद अपनी गाँव-सभा में उत्सव करता। डिप्टी साहब को भी आमंत्रित करता। उन्हें फर्श पर बैठाल देता। उसके बाद स्वयं कुर्सी पर बैठ कर व्याख्य़ान देते हुए कहता कि 'बंधुओ! मुझे कुर्सी पर बैठने में स्वाभाविक कष्ट है, पर अतिथि-सत्कार का यह नियम डिप्टी साहब ने अमुक तिथि को हमें तहसील में बुला कर सिखाया था। अत: उनकी शिक्षा के आधार पर मुझे इस असुविधा को स्वीकार करना पड़ा है।' कह कर वैद्य जी आत्मतोष के साथ ठठा कर हँसे। रंगनाथ का समर्थन पाने के लिए बोले, 'क्यों बेटा, यही उचित होता न?'

रंगनाथ ने कहा, 'ठीक है। मुझे भी यह तरकीब लोमड़ी और सारस की कथा में समझाई गई थी।'

वैद्य जी ने सनीचर से कहा, 'तो ठीक है। जाओ देखो, कहीं सचमुच ही तो उस मूर्ख ने भंग को हल्दी-जैसा नहीं पीस दिया है। जाओ, तुम्हारा हाथ लगे बिना रंग नहीं आता।'

बद्री पहलवान मुस्करा कर दरवाजे पर से बोला, 'जाओ साले, फिर वही भंग घोंटो!'

अर्द्धांगिनी एक महात्मा की




वह थी 18 वर्ष की मासूम युवती और वह था 34 वर्ष का जवान मर्द, न जाने कितने नारी ह्रदयों को अब तक वशीभूत कर चुका था| युवती थी सोफिया बेर्स और पुरुष लेव तोल्स्तोय| इस दंपति के निजी जीवन की समाज में जितनी चर्चा रही उतनी रूस के सारे इतिहास में शायद और किसी दंपति की नहीं रही| इतनी अटकलें लगाई गईं, इतनी अफवाहें उड़ाई गईं उनके बारे में| उनके संबंधों के हर पहलू को, हर छोटी से छोटी बात को पूरी बारीकी से देखा, कुरेदा और उघाडा गया|

काउंट लेव तोल्स्तोय का जन्म उनकी पुश्तैनी जागीर ‘यास्नया पोल्याना’ {धौला मैदान} में 28 अगस्त 1828 को हुआ| उनके पूर्वज रूस के कई उच्च संभ्रांत वंशों के थे| उनके माता-पिता का विवाह प्रेम-विवाह नहीं था, लेकिन उनके दाम्पत्य संबंध बड़े सौहार्दपूर्ण और सुकोमल थे| इस पारिवारिक सुख की छाया में ही शिशु लेव का बचपन बीता, हालांकि मातृ-सुख से वह अल्पायु में ही वंचित हो गए थे| डेढ़ वर्ष के ही थे जब माता का देहांत हो गया| बुआओं ने उन्हें पाला-पोसा, उन्हींने बालक को पारिवारिक सुख की बातें सुनाईं| तभी लेव के मन में एक आदर्श अर्द्धांगिनी का बिम्ब बन गया था| वह अगर किसी से प्रेम करेंगे तो केवल ऐसी आदर्श नारी से, विवाह करेंगे तो ऐसी आदर्श नारी से| लेकिन जीवन में आदर्श खोज पाना कोई आसान काम नहीं, इसीलिए जवानी में कितने ही प्रेम के रिश्ते बने-टूटे|

सोफिया बेर्स का जन्म एक कुलीन परिवार में हुआ, जहां आठ संतानें थीं| बेर्स परिवार सादगी की, बल्कि यह कहना चाहिए कि गरीबी की ज़िंदगी जी रहा था| तोल्स्तोय उनके कुलपिता को जानते थे| एक बार मास्को जाने का अवसर बना तो बेर्स परिवार से भी मिलने गए| अपनी डायरी में उन्होंने इस परिवार के सादे रहन-सहन के अलावा इस बात का भी ज़िक्र किया कि उनकी बच्ची “बड़ी प्यारी है”| साल भर बाद बेर्स परिवार ‘यास्नया पोल्याना’ में ठहरा| अब चौंतीस वर्षीय लेव तोलस्तोय ने देखा कि सोफिया “प्यारी बच्ची” नहीं, अनुपम युवती है, जिसे देखकर दिल की धड़कन तेज़ हो जाती है|.. दिन ढले दोनों छज्जे पर खड़े बातें करते रहे| सोफिया तो संकोच के मारे कुछ बोल ही नहीं पा रही थी, पर लेव ने धीरे-धीरे उसका यह संकोच दूर कर दिया और फिर देर तक उसकी बातें सुनते रहे| विदा होते समय कहा: “कितनी सरल हैं आप, कितना उजला मन है आपका!”

बेर्स परिवार मास्को के पास अपनी कोठी में लौट गया| तोल्स्तोय सोफिया से विछोह अधिक दिन नहीं सह पाए| वह उनके घर चले गए| यहां संध्या समय बाल-नृत्य का आयोजन हुआ| कितनी गरिमा थी सोफिया के नृत्य में, कितनी कमनीय लग रही थी वह! तोल्स्तोय बार-बार अपने से कह रहे थे, “नहीं, यह तो अभी बच्ची ही है!” लेकिन उसकी कमनीयता मन को हरती जा रही थी, उसका नशा प्रतिपल सिर को चढता जा रहा था| कालांतर में उन्होंने ‘युद्ध और शांति’ उपन्यास में अपनी इन भावनाओं का वर्णन किया –

उस प्रसंग में, जब प्रिंस आंद्रेई बोल्कोंसकी नताशा रोस्तोवा के साथ बाल-नृत्य करता है और उस पर मोहित हो जाता है|

शीघ्र ही वह दिन भी आ गया जब तोल्स्तोय ने निश्चय किया कि जिसने उनका मन हरा है उसे अपने मन की सारी बात बता देनी चाहिए| सोफिया के नाम एक लंबा पत्र उन्होंने लिखा, जिसमें उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा और साथ ही बारम्बार यह अनुरोध किया कि अगर उनके मन में ज़रा सा भी संदेह है, असमंजस है तो साफ़ इनकार कर दें| सोफिया पत्र लेकर अपने कमरे में चली गईं| भयानक मानसिक तनाव में बीते ये पल – लगता था यह प्रतीक्षा कभी खत्म ही नहीं होगी| आखिर सोफिया नीचे आईं, तोल्स्तोय के पास गईं और मौन हामी भर दी| तोल्स्तोय के जीवन में यह परम सुख का क्षण था| “इससे पहले कभी भी मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ था कि मैं पत्नी के साथ अपने भावी जीवन की कल्पना करूं और मन इतना शांत हो, सब कुछ इतना स्पष्ट लगे और इतना सुखद भी,” उन्होंने अपनी डायरी में लिखा| अब बस एक बात और बची थी: तोल्स्तोय का यह मानना था कि विवाह की वेदी पर पाँव धरने से पहले वर-वधू के बीच एक दूसरे से कोई भेद नहीं रहना चाहिए| मासूम सोनिया का मन तो कोरा कागज था, उसका सारा जीवन एक खुली किताब था, किंतु तोल्स्तोय के चौंतीस वर्ष न जाने कितने भेद समेटे हुए थे|

तोल्स्तोय ने अपनी सारी डायरियां, जिनमें वह सदा अपने सारे भावावेग उतारते आए थे, अपनी मंगेतर को पढ़ने को दे दीं| सोनिया (सोफिया को ही रूस में घर पर सोनिया कहते हैं) इन्हें पढकर सकते में आ गईं| मां से लंबी बातचीत के बाद वह इस सदमे से उबर पाईं| भावी दामाद की इस कारस्तानी से उन्हें भी ठेस पहुंची थी, परंतु बेटी को उन्होंने समझाया कि इस उम्र का जो भी पुरुष होगा उसका अपना अतीत तो रहा ही होगा| फर्क बस इतना है कि ज़्यादातर पुरुष अपनी भावी पत्नियों को ये सारी बातें नहीं बताते| सोनिया को अपने पर, अपने प्रेम पर पूरा विश्वास था, सो उन्होंने निश्चय किया कि वह अपने भावी पति को क्षमा कर सकती हैं| अब उधर तोल्स्तोय के मन में फिर से यह सवाल उठने लगा कि क्या उन दोनों का निर्णय सही है| ऐन विवाह वाले दिन सुबह-सुबह सोनिया से बोले: “सोच लीजिए, कहीं ऐसा तो नहीं कि आपका मन इस विवाह को न मानता हो?” बेचारी सोनिया फूट-फूटकर रो पड़ी| आंसू भरी आँखे लिए ही वह विवाह की वेदी पर पहुंची| उसी दिन शाम को नव-दम्पति ‘यास्नया पोल्याना’ चले गए| इस प्रकार उनका विवाहित जीवन आरंभ हुआ|

उन दिनों तोल्स्तोय ने अपनी डायरी में लिखा: “पारिवारिक जीवन के इस नए सुखद वातावरण में ऐसा डूबा हूं कि जीवन का अर्थ क्या है इस शाश्वत प्रश्न की ओर अब ध्यान ही नहीं जाता”| अंततः, नव-दम्पति की पहली संतान हुई – बेटा सेर्गेई| इसके साल भर बाद युवा काउंटेस ने बेटी तत्याना को जन्म दिया और उसके डेढ़ साल बाद बेटे इल्या को| फिर तो उनके दस और संतानें हुईं| तेरह बच्चों में से पांच छोटी उम्र में ही गुज़र गए| इनमें से तीन तो एक के बाद एक गुज़रे| उनके इस दुख में पति ने उनका पूरा साथ दिया, इसी की बदौलत इतना भारी सदमा भी सोनिया ने सह लिया| दाम्पत्य जीवन के पहले बीस वर्षों में लेव और सोनिया का एक दूसरे से प्रेम इतना गहरा था कि “दो जिस्म एक जान” की बात उन पर पूरी तरह लागू होती थी| वे मानो एक-दूसरे में खो गए थे| सोनिया के लिए पति का साथ क्या मायने रखता था, इसका अनुमान हम उनके पत्र की इन पंक्तियों से लगा सकते हैं: “तुम्हारे बिना मुझे बस वही अच्छा लगता है जो तुम्हें अच्छा लगता है| अक्सर मैं भ्रम में पड़ जाती हूं कि यह मुझे खुद को अच्छा लगता है या सिर्फ इसलिए पसंद है कि तुम्हें अच्छा लगता है”|

अपने बच्चों के लालन-पालन का सारा काम सोफिया खुद ही करती थीं – कोई आया कभी उनके घर में नहीं थी| खुद ही वह बच्चों के लिए कपडे सीती थीं, खुद ही उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाती थीं, संगीत की शिक्षा देती थीं| यही नहीं, पति के लेखन-कार्य में भी पूरी मदद करती थीं| तोल्स्तोय की लिखावट को अकेली वही समझ पाती थीं – सारी पांडुलिपियों की साफ नक़ल तैयार करती थीं|

दाम्पत्य जीवन के अठारह वर्ष पूरे हो चके थे; तोल्स्तोय ने ‘आन्ना करेनिना’ उपन्यास पूरा कर लिया था – इन्हीं दिनों उनके मन पर एक आध्यात्मिक संकट घिर आया| उनका जीवन भरा-पूरा था, लेकिन मन में संतोष नहीं था; एक लेखक के नाते उनके नाम की तूती बज रही थी पर मन में इससे कहीं कोई खुशी नहीं थी| उधर सोफिया ने दाम्पत्य जीवन के ये सारे वर्ष ‘यास्नया पोल्याना’ में ही बिता दिए थे – घर-गृहस्थी और बाल-बच्चों को समेटते हुए| एक बार भी विदेश नहीं गईं, भद्र-समाज के मनोरंजन, बाल-नृत्य संध्याओं में जाना और थियेटर देखना क्या होता है – यह सब वह भूल ही गई थीं; सुंदर-सजीले परिधान, नए-नए वस्त्र और पोशाकें – इन सब का तो उन्हें कभी ख्याल तक नहीं आया| देहाती जीवन के लिए जो सुविधाजनक और आरामदेह हों – वही सीधे-सादे वस्त्र वह पहनती आई थीं| तोल्स्तोय का यह मानना था कि एक अच्छी पत्नी को “भद्र-समाज” की इस तड़क-भड़क की कतई कोई आवश्यकता नहीं है|

सोफिया ने कभी पति को निराश नहीं होने दिया, हालांकि शहर में जन्मी और पली स्त्री के लिए गांव का जीवन बेगाना और नीरस था| इस पर जब तोल्स्तोय जीवन में कोई दूसरे मूल्य ढूँढने लगे, यह खोजने लगे कि जीवन की सार्थकता किस बात में है, तो उनकी पत्नी के लिए इससे बड़ी ठेस की बात कोई नहीं हो सकती थी, क्योंकि इसका अर्थ यह था कि उन्होंने जो कुर्बानियां कीं उन सब की कद्र करना तो दूर, उन्हें अब निरर्थक और अनावश्यक मानकर त्यागा जा रहा था, मानो वह सब कोई भूल थी, भ्रम था|..

उधर तोल्स्तोय के मन को चैन नहीं था| उन्हें यही लगता था कि उनका जीवन एकदम निरर्थक है| इस अहसास से प्रायः मन की व्यथा असहनीय हो उठती थी, यहाँ तक कि लगता बस यह जीवन त्यागकर ही सदा-सदा के लिए इस व्यथा से छुटकारा मिलेगा| बड़ी मुश्किल से वह ऐसे क्षणों में अपने को संभालते| जीवन के अर्थ की खोज में वह धर्म की शरण में भी गए परंतु वहाँ भी उत्तर नहीं पा सके| तब वह स्वयं अपने दार्शनिक विचारों की रूप-रेखा बनाने लगे : “इस संसार में हर मनुष्य ईश्वर की इच्छा से जन्म लेता है| ईश्वर ने मनुष्य को ऐसे रचा है कि वह चाहे तो अपनी आत्मा को अधोगर्त में पहुंचा सकता है और चाहे तो उसे उबार सकता है| इस जीवन में मनुष्य का कर्तव्य यही है कि वह अपनी आत्मा को उबारे: आत्मा को उबारने के लिए यह ज़रूरी है कि मनुष्य ईश्वर की इच्छा के अनुसार जिए और ईश्वर की इच्छा के अनुसार जीने का अर्थ है यह है कि मनुष्य लौकिक सुखों का त्याग करे. परिश्रमी, विनम्र, सहनशील, और दयालु बने”|

घर-गृहस्थी के बोझ ने अर्द्धांगिनी के लिए एक पल ऐसा नहीं छोड़ा था जिसमें वह पति के मन में हो रहे मंथन को अनुभव कर पाती, उनके इन नए विचारों को सुन और समझ पाती| बच्चों की बात अलग थी| उनके लिए तो पिता देव-तुल्य थे| वही उनकी नई शिक्षा के पहले अनुयायी बने|

अपनी रौ में बहना तोल्स्तोय का स्वभाव ही था| बस इसी रौ में कई बार वह सहज बुद्धि की हद पार कर जाते थे| कभी कहते कि सादे जन-जीवन के लिए जिन बातों की कोई ज़रूरत नहीं है, जैसे कि संगीत और विदेशी भाषाएं, वे सब बच्चों को सिखाने की कोई ज़रूरत नहीं| कभी यह ठान लेते कि वह अपनी सारी जायदाद से इनकार कर देंगे, या फिर अपनी रचनाओं की रायल्टी पाने से इनकार की बातें करने लगते| इस पर उनकी अर्द्धांगिनी को, एक गृहिणी को ही अपनी गृहस्थी की, अपनी संतानों के रहन-सहन की रक्षा के लिए आगे आना पड़ता| पहले तो इन सवालों पर बहसें होती रहीं, फिर नौबत झगड़ों की आने लगी| पति-पत्नी एक-दूसरे से दूर होते जा रहे थे, इस बात से बेखबर कि यह दूरी उन्हें कितना कष्ट देगी|

सोफिया के अगली संतान होने ही वाली थी, जब पति-पत्नी में फिर से झगडा हो गया| तोल्स्तोय पत्नी को यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि वह क्यों अपने को मानवजाति के प्रति दोषी मानते हैं| पत्नी के लिए इससे बड़ी चोट और क्या हो सकती थी – मानवजाति के सामने तो अपने दोष को महसूस करते हैं, लेकिन पत्नी के प्रति दोष को कभी भी नहीं| लगता था, तोल्स्तोय परिवार में पहले जैसा अमन-चैन कभी नहीं लौटेगा| तभी उनके चार साल के बेटे अलेक्सेई की मृत्यु हो गई| पति-पत्नी पूरी तरह एक दूसरे का सहारा बने, इतने समीप आ गए कि तोल्स्तोय ने इस मृत्यु को ईश्वर का “वरदान” ही माना| “इस मृत्यु ने हम सब को प्रेम के बंधन में पहले से भी अधिक कसकर बाँध दिया है,” उन्होंने अपनी डायरी में लिखा|

सोफिया 44 वर्ष की थीं जब उन्होंने अपनी आखिरी संतान को जन्म दिया| सभी घर-परिवार वालों ने अपने संस्मरणों में लिखा कि बालक इवान बहुत ही प्यारा था, सब का मन मोह लेता था, नन्ही उम्र में ही दूसरों के मनोभावों को अच्छी तरह समझता था, बड़ा ही कोमलहृदय था| सात साल का भी नहीं हुआ था कि स्कारलेट ज्वर ने उसकी जान ले ली| मां पर तो दुख का पहाड़ टूट पड़ा| घरवालों को डर लगने लगा कि वह पागल हो जाएंगी| इस दुख से पति-पत्नी उबर नहीं पाए| ऊपर से सोफिया के मन में यह वहम बैठ गया कि उनके पति अब उन्हें नहीं चाहते| बेटे इवान की मृत्यु के बाद सोफिया ने बगावत कर दी|

उन्होंने अपने लिए नए-नए फैशन के वस्त्र खरीद लिए| अक्सर मास्को जाने लगीं – कभी कोई कंसर्ट सुनने, तो कभी थियेटर में नाटक देखने| तोल्स्तोय परिवार के मित्र, संगीतकार और पियानोवादक अलेक्सांद्र तनेयेव से संगीत के पाठ लेने लगीं| तनेयेव की संगत और उनके संगीत से उन्हें सांत्वना मिलती थी| परंतु फिर धीरे-धीरे सबको यह दिखने लगा कि वह तनेयेव पर फ़िदा हो गई हैं| वह बावन वर्ष की थीं, उनके बच्चों को यह देखकर शर्म आती थी कि मां इस तरह नौजवान औरतों के जैसे वस्त्र पहनती है और पराये मर्द की संगत में इतना समय बिताती है| तोल्स्तोय भी ईर्ष्या की आग में तड़प रहे थे, कई बार उनके मन में पत्नी से पूर्ण संबंध-विच्छेद का विचार आया और कभी तो आत्म-हत्या तक का|

एक तनेयेव ही थे, जिन्हें इस बात का कोई अहसास ही नहीं था कि उनके इर्द-गिर्द क्या हो रहा है, और यही शायद सोफिया के लिए सबसे बड़ी त्रासदी थी| तनेयेव तो यही सोचते थे कि वह दुख की घड़ी में अपनी परिचिता को कुछ आसरा दे रहे हैं|.. बरसों बाद सोफिया जब मृत्यु-शय्या पर थीं तो उन्होंने अपनी बेटी तत्याना से कहा था: “अठारह वर्ष की थी जब मेरा विवाह हुआ, और जीवन भर अकेले अपने पति से ही मैंने प्यार किया”|

परंतुतोल्स्तोय पर क्या गुज़र रही थी? वह सत्य की खोज के रास्ते पर अपने विचारों में, चिंतन-मनन में गहरे ही गहरे उतरते जा रहे थे| इस रास्ते पर वह अकेले ही थे, पत्नी से बातचीत अब बहुत कम ही होती थी| जीवन के बंधे-बंधाए ढर्रे को त्याग कर वह किसी नए रास्ते पर, जीवन के सत्य-पथ पर निकल पड़ना चाहते थे| संन्यासी जीवन उन्हें आकर्षित करने लगा था, उन्हें लगता था कि यही सच्चे आस्थावान का जीवन-पथ है| उम्र अपना असर दिखा रही थी – शरीर दुर्बल हो रहा था, बीमारियां घेरने लगी थीं| पत्नी के मन में एक और भय घर कर गया था – कहीं उन्हें ऐसी नारी के रूप में न याद किया जाए जिसने पति का साथ नहीं निभाया, लोग उनकी तुलना सुकरात की बदमिजाज बीवी से न करने लगें| हर वक्त उन्हें यही भय सताता रहता था, दूसरों से बातचीत में और अपनी डायरी में बार-बार इसी का ज़िक्र करती थीं| साथ ही सिर पर एक और अजीब धुन सवार हो गई – तोल्स्तोय अब अपनी डायरियां उनसे छिपाने लगे थे, सो सोफिया इसी कोशिश में लगी रहती थीं कि किसी तरह पति की डायरी उनके हाथ लग जाए और पति ने उनके बारे में जो कुछ भी “गलत” बातें लिखी हैं उन सब को काट दें|

अगर वह डायरी न ढूँढ पातीं, तोपति के आगे हाथ जोड़तीं, आंसू बहाते हुए अनुरोध करतीं कि उन्होंने गुस्से में आकर जो कुछ उल्टा-सीधा लिखा है वह सब काट दें|

तोल्स्तोय भली-भांति समझते थे कि भले ही अब वे दोनों एक दूसरे को बिलकुल नहीं समझ पाते तो भी उनकी पत्नी सोफिया ने उनके लिए बहुत कुछ किया है और अब भी कर रही हैं, किंतु उनके लिए यह “बहुत कुछ” अब पर्याप्त नहीं था| आखिर वह घड़ी भी आ गई जब तोल्स्तोय ने फैसला किया कि वह अब यास्नया पोल्याना में एक दिन भी और नहीं रह सकते| 27-28 अक्टूबर 1910 की रात को पति-पत्नी में आखिरी बार झगड़ा हुआ| आधी रात को सोफिया उठकर पति के कमरे में गईं – उनकी नब्ज़ देखने| पत्नी की इस “चौकीदारी” पर तोल्स्तोय गुस्से से आग बबूला हो उठे: “न दिन को, न रात को चैन है – मैं ज़रा सा हिलूं-डुलूं तो, मेरे मुंह से कोई आवाज़ निकले तो - हर गति की, हर शब्द की इसे खबर चाहिए, उस पर नियंत्रण चाहिए| फिर से कदमों की आहट आई...हौले से दरवाज़ा खुला... नहीं, मुझसे और नहीं लेटा जाता, बस आखिरी फैसला कर लिया मैंने|”

यास्नया पोल्याना छोड़कर जाते समय 82-वर्षीय तोल्स्तोय ने अपनी पत्नी के नाम पत्र छोड़ा: “यह मत सोचना कि मैं इसलिए जा रहा हूं कि तुमसे प्यार नहीं करता| मैं तुमसे प्रेम करता हूं और रोम-रोम से तुमसे सहानुभूति रखता हूं, किंतु जो मैं कर रहा हूं उसके अलावा और कुछ नहीं कर सकता|” निकटतम स्टेशन तक पहुंचकर तोल्स्तोय वहाँ से गुज़र रही पहली पैसंजर ट्रेन में बैठ गए| रास्ते में ठंड लग गई जो निमोनिये में बदल गई| अस्तापोवो नाम के एक छोटे से स्टेशन पर वह ट्रेन से उतरे| बस इसी के प्रतीक्षा कक्ष में महान लेखक ने अपने आखिरी दिन काटे| बच्चों से वह मिलना नहीं चाहते थे, पत्नी की तो बात ही दूर रही| अस्तापोवो स्टेशन से महान तोल्स्तोय के स्वास्थ्य के बारे में बुलेटिन के तार सारे रूस को जाने लगे| यास्नया पोल्याना में पत्नी सोफिया दुख के मारे बुत बनकर रह गईं – उनके पति उन्हें त्याग कर चले गए, उनका प्रेम, उनकी देख-रेख ठुकरा डाली, उनके सारे जीवन को रौंद डाला...

7 नवंबर 1910 को तोल्स्तोय इस संसार में नहीं रहे| सारा रूस उन्हें दफनाने उमड़ पड़ा था| उनकी मृत्यु के बाद सोफिया को जगत-भर्त्सना का शिकार होना पड़ा| तोल्स्तोय घर छोड़कर चले गए, ऐसे बुरे हालात में उन्होंने अंतिम दिन बिताए – इस सब के लिए उन्हें ही दोषी ठहराया जाने लगा| आज भी ऐसा करने वाले कम नहीं हैं| किंतु वे यह नहीं समझते कि कितना भारी बोझ था उनके कंधों पर – एक महात्मा की अर्द्धांगिनी होने का बोझ, तेरह बच्चों की मां का बोझ, जागीर की मालकिन का बोझ| और इस नारी ने कभी स्वयं अपनी सफाई में एक शब्द नहीं कहा|

अपने दिवंगत पति के कागज़ात समेटते हुए उन्हें एक बंद लिफाफा मिला| यह उन्हीं के नाम पति का पत्र था जो उन्होंने 1897 की गर्मियों में लिखा था| तब तोल्स्तोय ने पहली बार घर छोड़ने की बात सोची थी| उस समय उन्होंने अपना यह इरादा पूरा नहीं किया, किंतु पत्र भी नहीं फाड़ा| अब मानो परलोक से उनकी आवाज़ आ रही थी: “...हमारे जीवन के इन लंबे 35 वर्षों को मैं बड़े प्रेम से और साभार याद करता हूं, खास तौर पर पहले के दस-बीस वर्षों को, जब तुमने इतने उत्साह से और इतनी दृढता से वह सब किया जिसे तुम अपना कर्तव्य मानती थीं और वह सब करते हुए मां का परम-त्यागी स्वभाव दर्शाया| तुमने मुझे और संसार को वह सब दिया है जो तुम दे सकती थीं – अपार ममता दी है और परम आत्मत्याग किया है| इसके लिए तुम्हारी कद्र किए बिना नहीं रहा जा सकता| जो कुछ तुमने मुझे दिया है – उस सब के लिए मैं तुम्हारा आभारी हूं, सदा गदगद होकर वह सब याद करता हूं और करता रहूँगा”|

तोल्स्तोय के प्रस्थान के नौ वर्ष बाद उनकी पत्नी सोफिया भी चली गईं| उनकी बेटी तात्याना ने अपने संस्मरणों में लिखा: “अपने अंतिम क्षणों में मां बच्चों से, नाती-पोतों से घिरी थीं| उन्हें इस बात का पूरा अहसास था कि उनका अंतिम समय आ गया है| शांत मन से और दीन भाव से उन्होंने इस अंत को स्वीकार किया”|
(योगेन्द्र नागपाल)