Thursday 10 March 2016

शब्द हैं वहां तक / जयप्रकाश

जहां तक पृथ्वी, आकाश, आग-पानी, हवा है,
अंधेरे को चीरते हुए जहां तक रोज सुबह होती है,
सूरज उगता है, दिन खिलखिला उठते हैं,
थिर-स्थिर होकर भी दिशाएं बतियाती-चहचहाती हैं,
पक्षी उड़ान भरते हैं, जीवन जोर-जोर से चल पड़ता है,
रंग-विरंगे सुर गूंजते हैं जहां तक विविध भाषा-बोलियों में, हंसते-विहसते थक जाती है शाम, रात थपकियाती है, सुनहरे सपने देखता है आदमी जहां तक, सब ओर-छोर तक शब्द हैं वहां, तृण-तृण, बूंद-बूंद में.....