Tuesday 31 March 2015

'मजीठिया समय' में कहां दुबके हैं जमा-जुबानी गरिष्ठ-वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार / जयप्रकाश त्रिपाठी

क्षमा करें कि एक चलताऊ मुहावरे के बहाने इतनी गंभीर बात कहनी पड़ रही है, लेकिन जनभाषा में सधती इसी तरह से लगी ये बात - जो डर गया, सो मर गया। भारतीय मीडिया के लिए हम अपने दौर को 'मजीठिया समय' नाम दें तो इससे बड़ा अर्थ निकलता है। 'मजीठिया समय' के हीरो वे हैं, जो डरे नहीं हैं, जो सुप्रीम कोर्ट तक देश भर के श्रमजीवी पत्रकारों के हित के लिए आज अपना सब कुछ दांव पर लगाकर जूझ रहे हैं, न्याय दिलाने के लिए अपने संकल्प पर अडिग हैं। बाकी वे सब डरपोक हैं, जो मजीठिया का लाभ तो लेना चाहते हैं लेकिन चुपचाप, नियोक्ता कहीं उन्हें जान-पहचान न जाए।
इसलिए और साफगोई से कहें तो 'मजीठिया समय' एक विभाजक रेखा है हिम्मतवर और डरपोक पत्रकारों के बीच। 'मजीठिया समय' उन लेखकों-साहित्यकारों-कवियों और गरिष्ठ-वरिष्ठ पत्रकारों को भी माफ नहीं करेगा, जो अखबार के पन्नों और टीवी स्क्रीन पर छाए रहने की गंदी (छपासी) लालसा में 'मजीठिया समय' पर अपना पक्ष चुराए पड़े हैं। और वे संगठन भी, जो पत्रकार-हितों के नाम पर तरह तरह की गोलबंदियां कर अपनी कमाई-धमाई में जुटे रहते हुए मालिकानों, अधिकारियों और सरकारों के गुर्गे हो चुके हैं।
कुछ मित्रों का कहना है कि भूखे भजन न होइ गोपाला। मेरा सोचना है कि भूख तो उन्हें भी लगती है, उनका भी घर परिवार है, जो 'मजीठिया समय' में शोषितों के साथ हैं और जिनमें से कइयों की नौकरी चली गई, कइयों की दांव पर लगी है, लेकिन जो कत्तई कदम पीछे लौटाने को तैयार नहीं हैं। सबसे बड़ी दिक्कत क्या है कि सुंदर-सुंदर साहित्य लिखने वाले, क्रांतिकारी बहस-राग सुनाने वाले, समाज के दुख-दर्द पर जमा-जुबानी हमदर्दी लुटाने वाले पत्रकारों ही नहीं, किसी भी वर्ग के संघर्ष के समय कुतर्कों की आड़ में मुंह छिपा लेते हैं क्योंकि किसी न किसी के हिस्से की उन्हें मलाई सरपोटनी होती है, किसी न किसी (कारपोरेट मीडिया आदि) के भरोसे उन्हें अपनी छद्म महानता का सार्वजनिक प्रदर्शन करना होता है, मंच से अथवा मुंह-मुंह मिट्ठुओं की तरह। साहित्य और सूचना के नाम पर गोबर थापने वाले ऐसे बात बहादुरों की बड़ी लंबी-लंबी कतारें हैं।
 इस 'मजीठिया समय' में उस कारपोरेट मीडिया का चरित्र देखिए कि हर दिन वह सौ रंग इसलिए बदल रहा है ताकि पत्रकारों का शोषण जारी रहे। एक अखबार (हिंदुस्तान) ने तो अपने यहां एडिटर शब्द पर ही स्याही फेर दी है क्योंकि एडिटर कहलाएगा तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उसे संपादकनामा कर्मियों को वेजबोर्ड के अनुसार वेतन देना पड़ जाएगा। एक अखबार (भास्कर) ने मजीठिया की लड़ाई लड़ रहे मीडियाकर्मियों को तो श्रम न्यायालय में चोर करार दिया है। एक अखबार (अमर उजाला) अपनी कंपनी की सभी यूनिटों को अलग अलग दर्शाने का नाटक कर रहा है। एक अखबार (दैनिक जागरण) ने तो सुप्रीम कोर्ट में मजीठिया सिफारिशों और अदालती आदेशों को ही चैलेंज कर दिया है। यद्यपि सा-साफ ये सब के सब उच्चतम न्यायालय के मजीठिया संबंधी आदेश का अनुपालन न कर मानहानि के गुनहगार हैं। और हमारे राज्य की नीयत देखिए कि वह न्यायपालिका में कितनी आस्था रखता है। मजीठिया मामले पर उसने गंभीर चुप्पी साध रखी है क्योंकि वर्तमान या भविष्य के (पेड-सेट न्यूज वाला) चुनावी सर्कस खेलने में कारपोरेट मीडिया की पक्षधरता उसके लिए अपरिहार्य है।
अखबार, न्जूज चैनल और फिल्मों वाला ये वही धन-मीडिया है, जिसने अपसंकृति को कलेजे से लगा रखा है। सत्ता का पत्ता-पत्ता चाटने के लिए। प्रकट-अप्रकट तौर पर इस 'मजीठिया समय' में जो भी धन-मीडिया के साथ हैं, वे सभी हमारे वक्त में शोषित पत्रकारों और न्यायपालिका, दोनों के गुनहगार हैं। समय ये सन्नाटा भी तोड़ेगा, साथ ही उन गुनहगारों की शिनाख्त कर उनके खोखले विचारों और गतिविधियों पर सवाल भी जरूर जड़ेगा।  

भारत रत्न रजत शर्मा यानी किस पर शर्म करें / कौस्तुभ उपाध्याय

पद्म और भारत रत्न पुरस्कार प्रदान किए जाने के लिए राष्ट्रपति भवन के दरबार हाल में आयोजित पारंपरिक समारोह में कल टीवी एंकर और पत्रकार रजत शर्मा को पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। रजत को यह पुरस्कार शिक्षा और साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए दिया गया। यह जानकर मन में जिज्ञासा हुई कि रजत बाबू के कभी किसी शैक्षणिक गतिविधि में संलग्न होने के बारे में तो सुना नहीं और न ही उनकी किसी किताब, कविता, कहानी या अन्य कोई साहित्यिक रचना के बारे में कभी सुना, ...तो फिर शिक्षा और साहित्य में योगदान के लिए इतना बड़ा पुरस्कार कैसे ?
मन में सहज ही सवाल उठा और यह उत्कंठा तत्काल मुझे ले गई सर्वज्ञानी गूगल बाबा की शरण में। तरह-तरह के कई की वर्ड मार कर काफी देर तक खंगाल डाला दुनिया में सबसे ज्यादा दक्ष माने जाने वाले इस सर्च इंजन पर, गूगल बाबा भी गुगली खा गए रजत बाबू के मामले में। शिक्षा या साहित्य में उनका कोई योगदान नहीं दिखा पाए मुझे। अतबत्ता उनकी बायोग्राफी, बैकग्राउंड पर कई तरह के मैटर जरूर दिखे। 
‘महानुभाव’ की जीवन गाथा जानने के ‌लिए रिजल्ट में दिख रहे विकीपीडिया के पेज पर झट से जा पहुंचा। इसमें उनके व्यक्तिगत जीवन, पत्नी ऋतु धवन के उल्लेख के साथ कंट्रोवर्सीज यानी कि शर्मा जी से जुड़े विवादों का भी एक शीर्षक दिखा जिसके तहत दी गई जानकारी के मुताबिक उनका नाम इंडिया टीवी की रिपोर्टर रही तनु शर्मा की खुदकुशी के मामले में भी आया था। लिखा था कि इससे मीडिया के पावर के मिसयूज को लेकर उस वक्त विवाद खड़ा हुआ था। रजत शर्मा द्वारा तनु को जून 2014 में इस संबंध में लीगल नोटिस भेजे जाने का जिक्र भी था। अन्य विवादों में भड़ास4मीडिया साइट चलाने वाले यशवंत सिंह को भी लीगल नोटिस भेजने का जिक्र था। 
इसके अलावा गूगल पर विवादों की पड़ताल करने पर रजत शर्मा द्वारा इंडिया टीवी पर नरेंद्र मोदी के ‌‘फिक्‍स्ड’ और ‘ओवर स्क्रिप्टेड’ इंटरव्यू चलाने के चलते कमर वाहिद नकवी द्वारा इंडिया टीवी से इस्तीफा दिए जाने की खबर भी दिखी। हालिया बात होने के कारण याद आ गया चुनाव की बेला में शर्मा जी के चैनल पर बार-बार चलाया गया मोदी का यह ‘करामाती’ इंटरव्यू। खूब ‘माहौल’ बना था इससे उस वक्त। वैसे मेरे ‘खुराफाती’ दिमाग ने पता नहीं क्यों उस वक्त ही यह सोचने की धृष्टता कर ली थी कि मोदी सरकार में आए तो रजत बाबू की तो बल्ले-बल्ले। कोई बड़ा पद और पुरस्कार जरूर मिलेगी। 
अब इसे सेटिंग-गेटिंग समझ लीजिए या विधि का विधान। हुआ भी ठीक ऐसा ही। रजत बाबू को सरकार की ओर से ‌गठित किसी कमेटी या ग्रुप (नाम याद नहीं आ रहा) में शामिल करने की खबर आई थी पिछले दिनों और तकरीबन उसके साथ ही उन्हें पद्म भूषण दिए जाने की घोषणा हुई। वहीं सरकार ने ग्लोबल स्तर पर पहचान बनाने वाले भारत के पहले कॉमिक कैरेक्टर को जन्म देने वाले कार्टूनिस्ट प्राण को मरणोपरांत महज पद्म श्री देकर निपटा दिया। 
इन बातों और विवादों में कौन सच्चा, कौन झूठा है इस बहस में मैं नहीं पड़ना चाहता। मेरी तो बस इतनी सी अर्ज है कि मोदी और जेटली को शर्मा की से यारी निभानी थी तो जरा सलीके से निभा लेते। इस साल पद्म श्री दे देते और बाद में पद्म भूषण, पद्म विभूषण और फिर भारत रत्न ही दे देते। अभी तो चार साल से भी ज्यादा वक्त पड़ा है। पर यारों ने शायद सोचा होगा कि भई ‘कल हो न हो’। अरे भइया तो फिर डायरेक्ट भारत रत्न ही दे डालते ना शर्मा जी को। कितनी मेहनत करते हैं बेचारे प्लांटेड इंटरव्यू को नेचुरल और स्पांटिन्युअस दिखाने के लिए। इस कला में भला है कोई जोड़ उनका?

Sunday 29 March 2015

मजीठिया की सिफारिशें और मीडिया मालिकों के घृणा का पाठ-4

ऐसे में 'मीडिया हूं मैं' के अंतिम पृष्ठ की ये टिप्पणी भी एक जरूरी आग्रह के प्रति हमे आगाह करती है कि '' मैं सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं। लड़ने के लिए भी। मनुष्यता जिनका पक्ष है, उनके लिए। जो हाशिये पर हैं, उनका पक्ष हूं मैं। उजले दांत की हंसी नहीं। 'मीडिया हूं मैं'। सूचनाओं की तिजारत और जन के सपनों की लूट के विरुद्ध। जन के मन में जिंदा रहने के लिए पढ़ना मुझे बार-बार। मेरे साथ आते हुए अपनी कलम, अपने सपनों के साथ। अपने समय से जिरह करती बात बोलेगी। भेद खोलेगी बात ही। एक-जनता का दुःख एक। जैसे पाब्लो चाहता था- आ जाओ मेरी सिराओं और मेरे मुख में। बोलो मेरे शब्दों और मेरे लहू में। नाजिम ने रोका था कभी कि 'भले ही उस घर में घुस जाओ, जहां प्लेग हो लेकिन उस घर की देहरी भी मत लांघना, जहां दलाल रहता हो।'
'कितना समय बीता होगा मुझे लिखे जाने में। और अभी कितना वक्त गुजर जाना है पढ़ते-पढ़ते मुझे। इस भरोसे के साथ कि इसी तरह होती है हर अच्छी शुरुआत। पढ़ना और रचना स्वयं को। मुझे बांचते हुए विश्वास देना अपना और बताना कि जन-गण का सच कह कर गलत क्या किया है मैंने। पूछना कि इतने चुप क्यों हैं हमारे समय के लेखक, कलाकार, चित्रकार। क्या है उनका पक्ष-विपक्ष। जैसे ब्रेष्ट ने पूछा था- कैसा है ये वक्त कि पेड़ों पर बातें करना लगभग जुर्म है, क्योंकि उसमें कितनी दरिंदगियों पर खामोशी शामिल है। याद रहने देना गोएठ के शब्द कि लक्ष्य जितना निकट आता है, कठिनाइयां बढ़ती जाती हैं। सहेजना मुझमें संकलित मीडिया मनस्वियों के शब्द। चुन-चुन कर रची गई हूं मैं। न थकते हुए, न जीतते, न हारते हुए। पाश ने कहा था- उनकी पुस्तक मर चुकी है, न पढ़ना उसे। उनके शब्दों में मौत की ठंडक है और एक-एक पृष्ठ जिंदगी के आखिरी पल जैसा भयानक।' पीट रहे हैं वे हमे लकीरों की तरह। विचारों की वेश्यावृत्ति में डूबे पेज-थ्री के लंपट। सूचनाओं के जनविश्वास और उत्पीड़ितों की गहरी उदासी से खेलते हुए। न कविता हूं मैं, न गीता के श्लोक। जयघोष हूं अपने श्रमजीवी अतीत का। अपने अस्सी प्रतिशत जन-गण-मन का। भगत सिंह, गणेश शंकर विद्यार्थी, बारींद्रनाथ घोष की मशालों की चिंगारी हूं मैं। एक और आजादी के आंदोलन की ओर। बिल्कुल निहत्था। हाथ बिना ऊपर उठाए। उनकी तरफ से, जो सबसे कमजोर हैं। 'सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो... कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी।'

मजीठिया की सिफारिशें और मीडिया मालिकों के घृणा का पाठ-3

ऐसे में मीडिया का ये शोषित वर्ग श्रमकानूनों को रौंदकर मालदार होते जा रहे मालिकों और उनकी दलाल मंडलियों से मामूली सांस्थानिक बातों पर भी खुद को जिरह के काबिल नहीं पाता है। एक-एक मीडियाकर्मी अपने संस्थानों में अलग-थलग पड़ गया है। बड़े-बड़े विचार हांकने वाले संपादकनुमा 'दोमुंहे' उनसे कोरे कागजों पर हस्ताक्षर कराते डोल रहे हैं कि 'मुझे मजीठिया वेतनमान नहीं चाहिए अथवा मुझे तो पहले से उस वेतनमान से अधिक पैसा मिल रहा है।' मैंने तो ऐसे भी तत्व देखे हैं, जो ऐसे मौकों तक का फायदा उठाने पर आमादा रहते हैं कि परोक्ष-प्रकट तौर पर कोई मीडियाकर्मी ईमानदारी से अपनी बात कहीं रख रहा हो, वे अपनी योग्यता पर भरोसा करने की बजाए भेदिये की तरह उन बातों को मीडिया मालिकों और उनकी दलाल मंडलियों के कानों तक पहुंचाकर इंक्रिमेंट और प्रमोशन की इमदाद पाना चाहते हैं।
इसलिए आज मीडिया संस्थानों में शोषित पत्रकारों की जुबान पर ताले जड़े हुए हैं। इसलिए आज मीडिया में खबरों के पीछे की खबरें दहला रही हैं। जब इन दिनों पत्रकारों के मुश्किल हालात की विचलित कर देने वाली सूचनाएं पढ़ने-सुनने को मिल रही हैं। लेकिन ये स्थितियां हमारे समय के मीडिया का कोई अंतिम सच नहीं। रास्ते हैं। कई-कई रास्ते हैं। कई तरह के रास्ते हैं। जरूरत है तो सिर्फ अपने भीतर के लालची और सुविधाजीवी मनुष्य को समझा-बुझाकर रास्ते पर ले आने की। वही आखिरी रास्ता है, उपाय है, इस धुंआकश से बाहर निकलने का। और कोई जतन नहीं। माखनलाल चतुर्वेदी के इन शब्दों के साथ - 'उठ महान, तूने अपना स्वर यों क्यों बेंच दिया!'

मजीठिया की सिफारिशें और मीडिया मालिकों के घृणा का पाठ-2

यहां हम यदि सिर्फ तीन मीडिया मनीषियों माखनलाल चतुर्वेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी और बाबूराव विष्णु पराड़कर की टिप्पणियों पर ध्यान दें तो आधुनिक मीडिया में सिक्के के दूसरे पहलू पर नजर जाती है। और वह है, मीडियाकर्मियों की सुविधाजीवी लाइफ स्टाइल। बड़े-बड़े सैलरी पैकेज लेकर उनका सारा चिंतन, सारी नैतिकता मुनाफाखोर मालिकों के तंत्र की हिफाजत और अपने घर-परिवार की सुख-सुविधाओं तक सिमट कर रह गया है। उन्हें मेट्रोपॉलिटिन सिटी में गाड़ी, बंगला चाहिए पत्रकारिता के नाम पर। ये तभी संभव है, जब उनके भीतर का 'दोगला' हरकत में आ जाए। वे विचारों और शब्दों को दलाली का उपकरण बनाकर अपने और अपने मालिकों के बारे में ये भ्रम बनाए रखना चाहते हैं कि वे ही चौथा खंभा के सबसे बड़े चौकीदार हैं। और उस चौकीदारी के एवज में उन्हें भी वह सब चाहिए, जो कथित कुलीन परिवारों में देखा-भोगा जाता है।
 हमारे समय में आज माखनलाल चतुर्वेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी और बाबूराव विष्णु पराड़कर की टिप्पणियां इसलिए बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाती हैं कि वह सिर्फ बड़े वेतनभोगी पत्रकारों के लोभ-लालच का खुलासा ही नहीं करतीं, उस 'भय' की ओर भी हमारी दृष्टि ले जाती हैं, जिसने मीडिया प्रतिष्ठानों में आज श्रम कानूनों और मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों जैसे मसले पर ज्यादातर पत्रकारों को बेजुबान-सा कर दिया है। वह 'भय' क्या है? वही है, छोटी चादर में लंबे पैर के सपने देखना। उनके भय में वह भूख समायी हुई है, जिसके उद्देश्यों में शब्द और मनुष्यता नहीं, सुविधाओं के हसीन सपने हैं। जब कोई अपनी औकात से बाहर जाकर अपने भीतर के ऐसे निराधार और नितांत व्यक्तिवादी सपनों में जीने लगता है, उसे ये भय हमेशा सताता रहता है कि नौकरी से निकाल दिया गया तो ये सुविधाएं उसे कैसे मयस्सर हो पाएंगी। और निरंतर, सालोसाल ऐसी मनःस्थितियों में रहते-जीते हुए वह इतना कूपमंडूक हो जाता है कि मजीठिया जैसे संघर्षों के मौके पर वह वेजबोर्ड के वेतनमान पर तो अपनी ललचायी दृष्टि टिकाए रहता है लेकिन नौकरी छूट जाने के डर से उसकी घिग्घी बंधी रहती है। दिनचर्या के स्तर पर उसका ज्यादातर समय कुछ अच्छा पढ़ने-लिखने, कुछ क्रिएटिव करने-धरने, हाशिये के लोगों, वंचितों के दुख-दर्द को जानने-समझने में बीतने की बजाए लंपट संवादों में बीतता रहता है।

मजीठिया की सिफारिशें और मीडिया मालिकों के घृणा का पाठ-1

ऐसे में एक सवाल पीछा करता है कि क्या मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशें लागू करने की लड़ाई वर्ग संर्घष की लड़ाई नहीं हैं? फिर लगता है कि शोषण करने वाले सभी प्रकार के मानवद्रोहियों का वर्ग एक है। वे सब अलग-अलग मोरचों पर, अलग-अलग तरीके से शिकार कर रहे हैं। और इसीलिए साम्यवादी विचारधारा के प्रति घृणा का पाठ पढ़ाते रहते हैं। इसीलिए मैं लगातार अपने अभियान पर अटल हूं कि 'मीडिया हूं मैं', सिर्फ किताब नहीं, एक बड़े अभियान का हिस्सा है, उन मानवद्रोहियों के खिलाफ, जो मीडिया साम्राज्य स्थापित कर बेरोजगारी और अशिक्षा का फायदा उठाते हुए उन श्रमजीवी पत्रकारों को निरक्षर मेहनतकशों की तरह बस दिहाड़ी पर इस्तेमाल करते रहना चाहते हैं। जबकि मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशें भी कोई उतनी न्यायसंगत नहीं, जो मीडिया मालिकानों के अकूत मुनाफे का प्रभाव रोक सकें। वह तो पत्रकारों के जीवन यापन भर की सिफारिशें हैं, मीडिया मालिकानों को उतनी मामूली सिफारिशें भी कुबूल नहीं। इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि अखबारों और न्जूज चैनलों के भीतर की क्रूरता की पराकाष्ठा क्या है।
इसीलिए पुस्तक 'मीडिया हूं मैं' अपने कवर पेज से ही इस तरह के वाक्यों को पढ़ने का आग्रह करती है - कुछ तो होगा, कुछ तो होगा, अगर मैं बोलूंगा, न टूटे, न टूटे तिलिस्म सत्ता का, मेरे अंदर का एक कायर टूटेगा (रघुवीर सहाय)। समाचारपत्र पैसे कमाने, झूठ को सच, सच को झूठ करने के काम में उतने ही लगे हुए, जितने कि संसार के बहुत से चरित्रशून्‍य व्‍यक्ति (गणेश शंकर विद्यार्थी)। पत्रकार बनना चाहते हो! कीमत एक बार लगेगी, नहीं लगने दी तो कीमत लगातार बढ़ती जायेगी। लगा दी तो दूसरे दिन से कीमत शून्य हो जायेगी (माखनलाल चतुर्वेदी)। एक समय आएगाए जब संपादकों को ऊंची तनख्वाहें मिलेंगीए किन्तु उनकी आत्मा मर जाएगीए मालिक का नौकर हो जायेगा (बाबूराव विष्णु पराड़कर)। मीडिया मालिकों का दृष्टिकोण मुनाफाखोर हो गया है, बाजारू हो गया है ये। नैतिकता दिखाने वाले संपादकों को मालिक कान पकड़कर बाहर कर देते हैं (जवरीमल्ल पारख)। पत्रकारिता का व्यवसाय, जो ऊंचा समझा जाता थाए गंदा हो गया है (भगत सिंह)। पत्रकार को जिंदा रहने के लिए लिखना है, धन के लिए नहीं। वह प्रेस, जिसका व्यापार के लिए संचालन होता है, जिसका नैतिक पतन हो चुका है, क्या वह स्वतंत्र है (कार्ल मार्क्स)! समाचार पत्र सर्च लाइट के झोंके की तरह कभी एकए कभी दूसरे को हर अंधकार से घसीट लाता है (लिप मैन)। मीडिया ने लोभ-लालच में विश्वसनीयता को खत्म कर डाला है (मैकलुहान)।

मीडिया में खबरों के पीछे की खबरें दहला रही हैं

इन दिनों में पत्रकारों के मुश्किल हालात की कुछ ऐसी सूचनाएं पढ़ने को मिल रही हैं.......
 - अपने मीडिया संस्थान से लगातार कई-कई महीने वेतन नहीं मिलने पर एक पत्रकार ने दो दिन फांका करने के बाद अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए भूखे रहकर वेटर का काम किया। अपने वरिष्ठ मीडिया कर्मी के पूछने पर उसकी आंखें छलछला गयीं।
- जमशेदपुर में एक पत्रकार ने संपादक को ई-मेल भेजा कि पिछले कई माह से वेतन नहीं दिया जा रहा है, जिस कारण मैं कर्ज में डूब रहा हूं। बेटा-बेटी का एडमिशन कराना है। और भी बहुत सारे खर्चे हैं। ऐसे में वेतन का भुगतान नहीं हुआ तो मैं आत्महत्या कर लूंगा।
- सहारा 'समय' न्यूज चैनल (उत्तरप्रदेश-उत्तरांचल) में असिस्टेंट प्रोड्यूसर रहे अमित पांडेय बिस्कुट खा कर चैनल के दफ्तर आ-जा रहे थे। इससे वह कमजोर और लगातार बीमार चल रहे थे। आखिरकार मल्टी आर्गन फेल हो जाने से उन्होंने दम तोड़ दिया। जब उनकी जान चली गई, उसके बाद सहारा ने उनकी तीन महीने की बकाया सैलरी परिजनों को जारी की। वह गोरखपुर के रहने वाले थे।
- लखनऊ में पिछले दिनो कपूरथला चौराहा स्थित सहारा भवन की नौवीं मंजिल से कूदकर सहारा क्रेडिट कोऑपरेटिव सोसायटी के डिप्टी मैनेजर प्रदीप मंडल ने आत्महत्या कर ली। वह पत्नी शोभा और बेटी श्वेता के साथ रहते थे। छह माह से लगातार सैलरी न मिलने से वह कर्ज से लद चुके थे।

Saturday 28 March 2015

ड्रोन विमानों की मदद से दूर-दराज के इलाकों में भी इंटरनेट उपलब्ध कराया जा सकेगा

फेसबुक का हालिया परीक्षण यदि सफल रहा तो जल्द ही सौर ऊर्जा से चलने वाले ड्रोन विमानों की मदद से दूर-दराज के इलाकों में भी इंटरनेट उपलब्ध कराया जा सकेगा. समाचार पत्र 'द गार्डियन' के अनुसार, फेसबुक के कोफाउंडर मार्क जकरबर्ग ने बताया कि उन्होंने इंग्लैंड में इस तरह के ड्रोन विमानों का सफल परीक्षण किया, जिसके पंखों की लंबाई किसी कमर्शियल प्लेन जितनी ही है.
गांवों और ऐसे इलाकों में जहां इंटरनेट नहीं है इंटरनेट सुविधा मुहैया कराने के लिए तैयार ये ड्रोन धरती पर लेजर बीम के जरिए इंटरनेट तरंगें भेजेंगी. जकरबर्ग ने एक ब्लॉग पोस्ट की है जिसके अनुसार, 'पूरी दुनिया को इंटरनेट से जोड़ने के हमारे अभियान के तहत हमने मानवरहित ड्रोन विमानों का निर्माण किया है, जो आकाश से ही धरती पर इंटरनेट किरणें प्रेषित करेंगे.'
जकरबर्ग ने लिखा, 'हमने ब्रिटेन में अपने इस ड्रोन विमान का पहला सफल परीक्षण किया. ये ड्रोन विमान पूरी दुनिया में इंटरनेट सुविधा मुहैया कराने में मददगार होंगे, क्योंकि ये विमान इंटरनेट से वंचित विश्व के उन 10 फीसदी लोगों को इंटरनेट सुविधा प्रदान करने की क्षमता रखते हैं.' इस तरह के ड्रोन विमान के पंख की लंबाई 29 मीटर से भी अधिक है, जो बोइंग 737 विमान से भी अधिक है, हालांकि इनका वजन किसी कार से कम है. गौरतलब है कि शीर्ष इंटरनेट कंपनी गूगल भी गुब्बारों एवं ड्रोन विमानों की मदद से अब तक इंटरनेट की सीमा से दूर रहने वाले लोगों तक इंटरनेट पहुंचाने पर काम कर रही है.

क्या मैं उपन्यास इसलिए लिखता हूं कि मुझे साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिले?

आज 'गालियों' की बात पर याद आती है राही मासूम रजा की ये दोटूक टिप्पणी, चाहे भले उन्होंने अपने उपन्यास 'आधा गांव' के बहाने कही हो - '' बड़े-बूढ़ों ने कई बार कहा कि गालियां न लिखो, जो 'आधा गांव' में इतनी गालियां न होतीं तो तुम्हे साहित्य अकादमी पुरस्कार अवश्य मिल गया होता परंतु मैं यह सोचता हूं कि क्या मैं उपन्यास इसलिए लिखता हूं कि मुझे साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिले? पुरस्कार मिलने में कोई नुकसान नहीं, फायदा ही है परंतु मैं साहित्यकार हूं। मेरे पात्र यदि गीता बोलेंगे तो मैं श्लोक लिखूंगा और वह गालियां बकेंगे तो मैं अवश्य उनकी गालियां भी लिखूंगा। मैं कोई नाजी साहित्यकार नहीं हूं कि अपने उपन्यास के शहरों पर अपना हुक्म चलाऊं और हर पात्र को एक शब्दकोश थमाकर हुक्म दूं कि जो एक भी शब्द अपनी तरफ से बोले, उसे गोली मार दो। कोई बड़ा-बूढ़ा यह बताए कि जहां मेरे पात्र गाली बकते हैं, वहां मैं गालियां हटाकर क्या लिखूं? डॉट डॉट डॉट ? तब तो लोग अपनी तरफ से गालियां गढ़ने लगेंगे! और मुझे गालियों के सिलसिले में अपने पात्रों के सिवा किसी पर भरोसा नहीं है। गालियां मुझे भी अच्छी नहीं लगतीं। मेरे घर में गाली की परंपरा नहीं है परंतु लोग सड़कों पर गालियां बकते हैं। पड़ोस से गालियों की आवाज आती है और मैं अपने कान बंद नहीं करता। यही आप करते होंगे। फिर यदि मेरे पात्र गालियां बकते हैं, तो आप मुझे क्यों दौड़ा लेते हैं? वे पात्र अपने घरों में गालियां बक रहे हैं। वे न मेरे घर में हैं, न आपके घर में। इसलिए साहब, साहित्य अकादमी के इनाम के लिए मैं अपने पात्रों की जुबान नहीं काट सकता।''

किसी पुस्तक का प्रचार नहीं, समाजविरोधी धन-मीडिया के खिलाफ एक अभियान है

'मीडिया हूं मैं' किसी पुस्तक का प्रचार नहीं, बल्कि मीडिया के उन अमानवीय पक्षों का आद्योपांत पाठ है, जिसे आज के सूचनाप्रधान समय में जर्नलिज्म के छात्र को जानना जितना जरूरी है, नये पत्रकारों को, स्त्रियों को, रचनाकारों, कानूनविदों, अर्थशास्त्रियों, कृषि विशेज्ञों को, जनपक्षधर संगठनों को और जर्नलिज्म के टीचर्स को भी...यह पुस्तक नहीं, एक ऐसे अभियान का उपक्रम है, जो सामाजिक सरोकारों के प्रति हमे सजग करता है, उस पर चुप रहना उतना ही खतरनाक है, जितना किसी दुखियारे व्यक्ति के आंसुओं की अनदेखी कर देना.... क्योंकि जॉन पिल्जर कहता था...मुझे पत्रकारिता, प्रोपेगंडा, चुप्पी और उस चुप्पी को तोड़ने के बारे में बात करनी चाहिए। और ये किताब अपनी आत्मकथा कुछ इस तरह सुनाती है- 'चौथा स्तंभ। मीडिया हूं मैं। सदियों के आर-पार। संजय ने देखी थी महाभारत। सुना था धृतराष्ट्र ने। सुनना होगा उन्हें भी, जो कौरव हैं मेरे समय के। पांडु मेरा पक्ष है। प्रत्यक्षदर्शी हूं मैं सूचना-समग्र का। जन मीडिया। अतीत के उद्धरणों में जो थे, आदम-हौवा, नारद, हनुमान। जनसंचार के आदि संवाहक। संजय का 'महाभारत लाइव' था जैसे। अश्वत्थामा हाथी नहीं था। अरुण कमल के शब्दों से गुजरते हुए जैसेकि हमारे समय पर धृतराष्ट्र से कह रहा हो संजय- 'किस बात पर हंसूं, किस बात पर रोऊं, किस बात पर समर्थन, किस बात पर विरोध जताऊं, हे राजन! कि बच जाऊं।' मैं पराजित नहीं हुआ था स्वतंत्रता संग्राम में। 'चौथा खंभा' कहा जाता है मुझे आज। आखेटक हांफ रहे हैं। हंस रहे हैं मुझ पर। 'चौथा धंधा' हो गया हूं मैं।'  

जयपुर में चौदह राज्यों के मीडिया शिक्षकों का सम्मेलन 2 से 4 अप्रैल तक


राजस्थान विश्व विद्यालय, जयपुर के मानविकी सभागार में दो अप्रैल से देश भर के जाने-माने मीडिया शिक्षक जुटेंगे। वे 'समाज में सकारात्मक बदलाव लाने में मीडिया की भूमिका' विषय पर आयोजित किए जा रहे तीन दिवसीय अखिल भारतीय मीडिया शिक्षक सम्मेलन में शिरकत करेंगे।
राजस्थान विश्व विद्यालय, जनसंचार केंद्र के अध्यक्ष प्रो.संजीव भानावत ने बताया कि सम्मेलन में अब तक ढाई सौ से अधिक अतिथियों के आने की अनुमति मिल चुकी है। राजस्थान विश्व विद्यालय, जयपुर, मणिपाल विश्वविद्यालय, जयपुर मीडिया एडवोकेसी स्वयंसेवी संगठन, लोक संवाद संस्थान और सोसायटी ऑफ मीडिया इनिशियेटिव फॉर वैल्यूज, इंदौर के तत्वावधान में आयोजित सम्मेलन के पहले दिन दो अप्रैल को सुबह दस बजे विवि के मानविकी पीठ सभागार में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बीके कुठियाल प्रथम सत्र का उदघाटन करेंगे।
प्रो.भानावत ने बताया कि सम्मेलन में देश के चौदह से अधिक राज्यों के प्रतिनिधि भाग लेने के लिए पंजीकरण करा रहे हैं। पूरे मीडिया जगत में इस तरह के पहले विशाल सम्मेलन में राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति हनुमान सिंह भाटी, नेशनल बुक ट्रस्ट के चेयरमैन बल्देव भाई शर्मा, टीवी 18 नेटवर्क के पत्रकार रमेश उपाध्याय, मणिपाल विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.संदीप संचेती, कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.सच्चिदानंद जोशी, ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के महासचिव एन.के. सिंह आदि मुख्य रूप से भाग लेंगे। 

Friday 27 March 2015

मीडिया को ‘बिम्बोफिकेशन’ का खतरा

वरिष्ठ पत्रकार बरखा दत्त का कहना है कि अगर आप औरत होकर अच्छा काम करते हो तो नफरत पाने के लिए तैयार रहो। यह बहुत निराशाजनक बात है कि न्यूज़ क्षेत्र ग्लेमराइज़्ड हो रहा है क्योंकि एंकर यहां अपने बालों और मेकअप पर ही ध्यान देती हैं, न कि न्यूज़ पर। न्यूज़ क्षेत्र को ‘बिम्बोफिकेशन’ (दिमागहीन, सस्ती किस्म की नकली व सजावटी महिलाएं) का खतरा है। हम सिर्फ ग्लैमर नहीं चाहते। मैं 10 महिला सीईओ या संपादक का नाम भी नहीं गिना सकती। उनकी मां को 19 साल की उम्र में हिंदुस्तान टाइम्स में पत्रकार के रूप में नौकरी से मना कर दिया गया था। बताया गया था कि यहां औरत के लिए कोई जगह नहीं। जब उन्होंने हठ किया तो उन्हें दिल्ली में फ्लावर शो पर रिपोर्ट करने के लिए भेजा गया लेकिन उनकी मां ने हिम्मत नहीं हारी और हिंदुस्तान टाइम्स के खोजी ब्यूरो की प्रमुख बनी।
वह कहती हैं कि जब मैंने कारगिल युद्ध पर रिपोर्ट की तो कई लोगों को लगा कि इस उपलब्धि को हासिल करने वाली मैं पहली महिला हूं लेकिन वह भूमिका मेरी मां के नाम थी। 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान मां को युद्ध की रिपोर्टिंग करने से मना कर दिया गया तो उन्होंने छुट्टी ली और खुद ही युद्ध-स्थल पर पहुंच गईं। और, वहां से जब उन्होंने अपनी रिपोर्टें अखबार को भेजी तो हिंदुस्तान टाइम्स के पास उन्हें प्रकाशित करने के अलावा कोई चारा नहीं था। इस तरह के मज़बूत रोल मॉडल से आपके जीवन में फर्क पड़ता है।
कारगिल युद्ध के दौरान शुरू में उन्हें भी अनुमति देने से इनकार कर दिया गया था लेकिन अंत में काफी आग्रह के बाद अनुमति दी गई थी। सेना ने भी उन्हें ‘पुरुष डोमेन’ में प्रवेश करने से रोकने की कोशिश की कि वहां महिलाओं के लिए कोई शौचालय नहीं हैं जिससे ‘जटिलताएं’ पैदा हो सकती हैं। उनकी सहज प्रतिक्रिया थी, तब उनकी यह युद्ध है। मैं पुरुषों जैसा ही करुंगी। मैं एक औरत के रूप में कभी भी वर्णित नहीं की जाना चाहती थी। सिर्फ एक बहुत अच्छे पत्रकार के रूप में जाना जाना चाहती थी। लेकिन लिंग-भेद में चीजें इतनी मुड़-तुड़ हो गईं हैं कि आप इससे दूर नहीं भाग सकते। कारगिल युद्ध के दौरान कुछ पत्रकार, उन्हें बचाने वाले सैनिकों की एक टोली के करीब आ गए थे। सैनिक जब लड़ाई के लिए जाने लगे तब ये पता नहीं था कि वे लौटेंगे भी या नहीं। पुरुष पत्रकारों ने उनको अलविदा कहते समय आंसू बहाए थे पर उन्होंने ऐसा नहीं किया था।
मैं कैमरे के पीछे भी नहीं रोई। लिंगभेद के साथ सूक्ष्मता से हाथापाई करने का यह मेरा पहला अहसास था। उन्होंने कहा कि फिल्म उद्योग में युवा पुरुष अभिनेता को स्थापित अभिनेत्री की तुलना में बहुत ज़्यादा पैसा दिया जाता है जबकि भारतीय महिलाओं ने स्क्रीन पर अपनी लैंगिकता का अच्छा प्रदर्शन किया है। कैसे एक महिला अपनी मांग में सिंदूर डालकर तुलसी बन सकती है या सिर्फ एक आइटम गर्ल बन सकती है? भारतीय सिनेमा को खलनायिका या कुंवारी सिंड्रोम से अभी भी बाहर निकलना है। आज, फिल्म निर्देशकों में से केवल नौ प्रतिशत महिलाएं हैं और 15 प्रतिशत महिला निर्माता हैं। अगर आप एक औरत होकर अच्छा काम करती हैं तो नापसंद होने के लिए तैयार रहिए। आपको आपके द्वारा बोले गए हरेक शब्द के लिए, यहां तक कि आपके वजन के लिए भी घेरा जाएगा। कैसे इंद्रा नूयी जैसी प्रतिभाशाली महिलाओं को घर में एक पत्नी और मां की पारंपरिक भूमिका निभानी होती है। 

चैनल चूँ चूँ का मुरब्बा / जसबीर चावला

बेहद परेशान थे टीवी चैनल ‘सीसीकेएम’ ( पूरा मतलब चूँ चूँ का मुरब्बा ) के सीईओ इन दिनों. सबब था उनके चैनल की कमाई का गिरता ग्राफ़. दूसरे चैनल खूब चाँदी काट रहे थे, उनके चैनल की टीआरपी भारत सरकार की साख की तरह घट रही थी.
उन्होंने आनन-फ़ानन में अपने सारे एंकर से लेकर फ़ील्ड संवाददाता, प्रोड्यूसर, केमरामैन सबकी आपात् बैठक बुलाई. सबको देश में – तेज़ी से लेकर सुस्त चलने वाले दस मिनट में दो सौ ख़बरें परोसने वाले, चैन की नींद सोने वालों को जगाने वाले कई चैनलों के कामयाब नुस्खे वाले कार्यक्रम दिखाये, विशेषज्ञों के भाषण करवाये. उन्होंने कुछ टीवी क्लिपिंग दिखलाई, जिनसे उन चैनलों के दिन फिर गये थे. उनमें कुछ के नमूने ये थे. “मिल गया, मिल गया, रावण का महल मिल गया. वह एअरपोर्ट भी मिल गया जहाँ उसका विमान लेडिंग करता था”- पार्श्व में रामायण सीरियल की धुन बजने लगी. “आज रात बाज बकरी को आठ बजे उठा ले जायेगा, देखना न भूलें, आपके अपने टीवी ‘इंडिभार’ पर” . अगला चैनल-”अंतरिक्ष से उड़न तश्तरियाँ आ कर गायों को ले जा रही हैं, हमारे जाँबाज पायलटों ने हेलिकॉप्टर से पीछा किया पर वे चकमा देकर भाग गईं”- अगला समाचार “आकाश से एलियन आ चुके हैं, कहीं आपकी खिड़की से झाँक तो नहीं रहे, उठ कर देख लीजिए”
पार्श्व में खौफनाक संगीत बजता है.
अगले चैनल पर- “मिल गया भगवान श्रीकृष्ण का शंख”- नेपथ्य में शंख ध्वनि. “मिल गई सीता की रसोई जहाँ वे भोजन बनाती थीं. “पार्श्व में रामायण की चौपाईयां.
तरह तरह के हिट कार्यक्रम.
ख़बरें और भी थीं- बनारस में बरगद का पेड़ जिसमें तीन पत्ते लगते हैं- ब्रम्हा विष्णु महेश. जनता पूजा कर रही है. अगला समाचार में -”दार्जीलिंग के कुर्सीयांग में एक उड़न तश्तरी जमीन पर गिरी”. जमीन पर एक दो फ़ुट लोहे की डिस्क जो किसी मशीन का पुर्ज़ा था – पड़ी थी. वाचक संवाददाता उसे ही उड़न तश्तरी मान कर चर्चा करने लगे- “लोग डरे तो नहीं, पूजा शुरू हुई कि नहीं”- वाचक चाहता था कि लोग पूजा शुरू करें तो कहानी लंबी खिंचे.
“सांई बोलने लगे-आँखें झपकने लगी”. दो चैनलों नें इस एनिमेशन फ़िल्म ओर उसके परम रहस्य को कई दिनों तक दर्शंको को समझाया. “बंदर जो केवल गोरी लड़कियों का दीवाना है”. “आज सिर्फ़ देखिये हमारे चैनल पर. बाबा सूर्यदेव की घोषणा- २०१४ में धरती पर प्रलय”
नेपथ्य में भूकंप की गढ़गढ़ाती आवाज़ें, हाहाकार, समुद्र का गर्जन, भक्त जनों का कीर्तन.
चैनल सीसीकेएम उर्फ़ चूँ चूँ का मुरब्बा के सीईओ ने उन्हें बाबा घासाराम, चरायण सांई, भूत प्रेत, सेक्स, अपराध, अघोरी, तंत्र-मंत्र, धर्म-अध्यात्म के फ़िल्मी काकटेल, आश्रमों हो रही रास लीलाएँ, अंधिवश्वास के खेल तमाशे, कच्चे अधपके चुनावी स्टिंग आप्रेशन और इनसे चैनलों को बढ़ती टीआरपी और कमाई, सब की आडियो विडियो दिखलाई.
ख़बरें कैसे बनाई जाती हैं, यह भी उदाहरणों के साथ समझाया. एक खबर की किल्पिंग में श्रीनगर के लालचौक में अलगाववादी तिरंगा खरीदते और जला देते. अब उनसे कौन पूछे कि भइयै, वहाँ कोई झंडे की दुकान भी है क्या? यह सब अंग्रेज़ी के एक अख़बार की नक़ली प्रायोजित फ़ोटो थी. “आँखो-देखी” की बिहार में नक़ाबपोश हथियारबंद दादाओं द्वारा बूथ केपचरिंग की स्टोरी गढ़ी हुई थी. बनारस में तीन वर्ष पूर्व पन्द्रह विकलागों की गुमटियां सड़क अतिक्रमण में हटना थी. उन्हें चैनलों ने उकसाया कि वे ज़हर खा लें हम कैमरे से शूट करेंगे, और तुम्हें बचा लेंगे. सबने टीवी पर इसे देखा. उन्होंने सचमुच ज़हर खा लिया. पांच की जान चली गई पर चैनलों की टीआरपी आसमान छूने लगी.
सीईओ ने चेलेंज किया जो कोई धाँसू स्टोरी – चाहे गढ़कर लाये, चाहे स्टिंग कर के, उसे पचास लाख रुपये नक़द और थाईलैंड की सैर पर भेजा जायेगा. सारे रिपोर्टर दौड़ पड़े -’इस्टोरी’ की तलाश में. जिस झारखंडी रिपोर्टर की स्टोरी चुनकर टेलिकास्ट हुई वह कुछ ऐसी थी.
“मिल गया, धोनी के चौकों छक्कों का राज. आज रात प्राइम टाईम में ८ बजे चैनल सीसीकेएम पर. कौन है जो उसे ऊर्जा से भर देती है, कौन है वह सलोनी श्यामा. जिसका राज धोनी भी नहीं जानता, हम उठायेंगे पर्दा इस रहस्य से जिसे हमारे संवाददाता कूड़ाप्रसाद नें जान पर खेल कर उठाया है”.
क्रिकेट इस देश का सन्निपात बुखार है और कभी उतरता ही नहीं. सारा देश सदा तपता रहता है. प्रलाप करता रहता है. देश में इस खबर से हलचल मच गई. देश थम गया, चर्चाओं का बाज़ार गर्म हो उठा, कौन है वह सुंदरी..
परम जिज्ञासा से सब ‘चू चूँ का मुरब्बा’ देख रहे थे.
“जी हाँ धोनी के चौके छक्के के पीछे जिस व्यक्ति का हाथ है वह हैं मुक्तिकुमार, जिनकी भैंसों का दूध धोनी पीते हैं”- कैमरा मुक्तिकुमार पर फ़ोकस होता है. “ये भैंसें पालते हैं, दूध निकालते हैं,- दूध जो अमृत होता है जिसकी देश में नदियाँ बहती थी”- मुक्तिकुमार जी गदगद् हैं. पीछे उनकी घरवाली लजाती सकुचाती नज़र आती है जिस पर कैमरा अब फ़ोकस है, जो भैंस का दूध निकाल रही है. कैमरा कभी मैदान में चरती भैंसों पर जाता है कभी मैदान में क्रिकेट खेलते चौके छक्के लगाते धोनी पर कभी दूध निकालती मिसेज़ मुक्तिकुमार पर कभी गिलास से दूध पीते ओर मलाई पोंछते धोनी पर. बड़ा ही मनोहारी दृश्य बनता है. दूध निकालती घरवाली, बाल्टी में झागदार दूध, भैंस, मैदान और धोनी के चौके छक्के……….! तभी मुक्तिकुमार बतलाते हैं कि धोनी की फ़ेवरेट भैंस कोई और ही है….!
रहस्य…रोमांच…! रहस्य भरा संगीत….।
स्टूडियो से वाचक घोषणा करता है- जाइयेगा नहीं हम मिलेंगे ब्रेक के बाद, और दिखायेंगे उस भैंस और तबेले को जिसे मुक्तिकुमार से इजाज़त न मिलने पर भी ‘जान पर खेल कर’ ढूंढ निकाला है, हमारे संवाददाता के. प्रसाद ने. सारा देश टकटकी लगाये टीवी से चिपका रहा- परम रहस्य से पर्दा जो उठना था.
ब्रेक के बाद कैमरा घोसीपुरा में मुक्तिकुमार के तबेले में घूम रहा है. संवाददाता के कपड़े गोबर-गंदगी से भरे पड़े हैं. कैमरा चारा, रस्सियां, गोबर, मरियल से बिजली के लट्टू, टोके, गंडासे से होता हुआ भैंसों की क़तार दिखाता हुआ एक ख़ास श्यामा सलोनी ‘भैंस’ पर टिक जाता है. संवाददाता उवाच- “यही है वह वह अनमोल प्यारी भैंस जिसका दूध पीकर धोनी रनों की बरसात कर देता है” पार्श्व में गाना बजता है- “तारीफ़ करूँ क्या उसकी जिसने तुम्हें बनाया”. अब कैमरा भैंस की आँखों पर जाता है, रुकता है- गाने की आवाज़- “झील सी इन आँखों में डूब डूब जाता हूँ”. अब केमरा भैंस के सींगों के क्लोज़ से उसकी पूँछ तक मिड शॅाट से लाँग शॅाट में जाता है. वाचक पूछता है -”इसकी उम्र क्या है”-संवाददाता-”"बाली उम्र है”-शरारत से-”महिलाओं की उम्र नहीं पूछते”. संवाददाता भैंस के नज़दीक़ हो गया- क्लोजप शॉट- भैंस ने उसका गाल चाट लिया- संवाददाता लजाता है. भैंस रंभाती है, सारा देश इस अद्भुत कौतुक को देख तालियाँ बजाता है.
चैनल सीसीकेएम पर यह स्टोरी टुकड़ा-टुकड़ा कई दिनों तक सारा सारा दिन चली टीआरपी उछल कर सातवें आसमान पर चढ़ गई. खूब विज्ञापन मिले. चैनल निहाल हो गया. रिपोर्टर को १० लाख रुपये और बैंकाक में सुंदरियों से मसाज का अवसर मिला – उसके पहले बोनस में गोआ ट्रिप अलग से.
मिलते हैं ब्रेक के बाद और बतलायेंगे कि कौन हैं अस्ट्रेलिया में वर्ल्ड कप में हार के मुजरिम
जैसे “चूँ चूँ का मुरब्बा” तथा रिपोर्टर के दिन फिरे सब चैनलों के दिन फिरें.


एक वैज्ञानिक को साहित्यिक पुरस्कार / डॉ बुद्धिनाथ मिश्र

इस बार विश्व-प्रसिद्ध खगोलशास्त्री और विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर को मराठी में लेखन के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया गया. अकादमी पुरस्कार उनकी आत्मकथा ‘चार नगरांतले माङो विश्व’ पर मिला है.
गत नौ मार्च को घुणाक्षर न्याय से मैं दिल्ली में साहित्य अकादमी के वार्षिक पुरस्कार अर्पण समारोह में पहुंचा था. घुन जब लकड़ी खाता है, तब उससे अनायास यदि कोई अक्षर बन जाये, तो उसे विद्वत-जन घुणाक्षर न्याय मानते हैं. मैं दिल्ली से रात की ट्रेन से वड़ोदरा जानेवाला था. दरभंगा से डॉ वीणा ठाकुर का आग्रह था कि मैं शाम का समय साहित्य अकादमी के समारोह में ही बिताऊं, जो कई अर्थो में मेरे लिए लाभप्रद रहा. एक तो भारत की सभी प्रमुख भाषाओं के अधिकतर साहित्यकारों से भेंट हुई.
यह अपने में एक असंभव कार्य है. विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों से सामान्यत: हमारा परिचय अक्षरों के माध्यम से होता है और अक्षरों तक ही रह जाता है. व्यक्तिगत तौर पर शायद ही कभी भेंट हो पाती है. इंटरनेट या अन्य इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने साहित्यकारों के रूप और स्वर को आज काफी सार्वजनिक कर दिया है, मगर बच्चन जी की पीढ़ी तक तो ‘वा्मय वपु’ का ही प्राधान्य था. इस समारोह में अन्य भाषाओं के उन साहित्यकारों से मिलने का अवसर मिला, जो परिचित तो थे, मगर साक्षात्कार कभी नहीं हुआ था. साहित्य अकादमी के पुरस्कार अर्पण समारोह में यह मेरी पहली उपस्थिति थी.
इसलिए भारतीय रचनाकारों के विशाल परिवार को देख कर धैर्य बंधा कि अभी भी समाज के कुछ नहीं, बहुत-से सिरफिरे लोग हैं, जो अपने आराम के क्षणों को सृजन के हवाले कर समाज को संवेदनशील बनाये रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं. ऐसे बुजुर्ग साहित्यकारों के भी दर्शन हुए, जो चल नहीं पाते थे, मगर साहित्यिक बिरादरी से मिलने की ललक ने उन्हें पौत्र-पौत्री के कंधों का सहारा लेकर वहां आने के लिए उत्साहित किया.
साहित्य अकादमी की कुछ नीतियां मेरे गले के नीचे कभी नहीं उतरीं. जैसे, भाषा की पात्रता और व्यापकता को ध्यान में न रख कर एक ही आकार-प्रकार के डंडे से सभी भाषाओं को हांकना. मेरी समझ से साहित्य का पैमाना लोकतंत्र के पैमाने से पृथक  होना चाहिए. मतदान के लिए तो एक व्यक्ति एक वोट ठीक है, चाहे वह व्यक्ति देश का मंत्री हो या सड़क का झाड़ूदार. लेकिन इसी नजरिये से भाषा-साहित्य को आंकना घातक होगा.
साहित्य अपने में एक विमर्श है. उसमें आड़ी-तिरछी रेखाएं खींच कर राजनीति के पांसे फेंकना उचित नहीं. इस दुर्नीति से सबसे अधिक नुकसान राष्ट्रभाषा हिंदी का हुआ है. एक ओर दस राज्यों की राजभाषा और संपूर्ण देश की संपर्क भाषा हिंदी, जिसे बोलनेवाले करोड़ों में हैं और जिसमें लिखनेवाले रचनाकार भी हजारों में हैं. दूसरी ओर, वे क्षेत्रीय भाषाएं हैं, जिन्हें बोलनेवाले कुछ लाख हैं और लिखनेवाले दहाई में. दोनों को एक पलड़े पर बैठाने का नुकसान यह हुआ कि हिंदी में साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिलना लॉटरी खुलने जैसा हो गया. चूंकि लॉटरी के पीछे कोई युक्ति नहीं होती, किसी को भी मिल सकती है, इसलिए हिंदी में ऐसे साहित्यकार भी पुरस्कृत हुए, जिनके नाम की घोषणा सुन कर काव्यप्रेमियों ने दांतों तले उंगली दबा ली.
मानता हूं कि इसमें अकादमी प्रशासन का हाथ नहीं रहा, मगर उसने दिल्ली के दु:शासनों के हाथों सरस्वती के चीर-हरण के मूक दर्शक की भूमिका तो भीष्म-द्रोण की तरह निभायी ही. स्थिति यहां तक आ पहुंची थी कि अपनी ‘गोष्ठी’ के बछड़ों को दाग कर सांड़ बना दिया जाता था, ताकि वे साहित्य की फसल मुक्त भाव से चरें-खायें और स्वामी का झंडा यहां-वहां फहरायें.
दूसरी ओर, धर्मवीर भारती जैसा कालजयी रचनाकार साहित्य अकादमी के पुरस्कार के योग्य नहीं पाया गया. हिंदी के महारथी आज जिस नागाजरुन के नाम का कीर्तन करते नहीं थकते, उन्हें भी साहित्य आकादमी ने मैथिली कविता-संग्रह (पत्रहीन नग्न गाछ) पर पुरस्कार देकर जान छुड़ायी. बेसुरे लोगों की जमात ने आज तक हिंदी के किसी गीत-संग्रह को पुरस्कार के योग्य नहीं माना, जबकि शंभुनाथ सिंह, उमाकांत मालवीय, शिवबहादुर सिंह भदौरिया जैसे दिग्गज कवि इसी ‘अंधे युग’ में हुए हैं.
सवाल यह है कि हिंदी के पुरस्कारों की संख्या एक ही क्यों रखी जाये, जबकि वह दस राज्यों की प्रादेशिक भाषा है और उसके साहित्यकारों में हिंदीतरभाषियों की संख्या भी कम नहीं है. और अगर यह संभव नहीं है, तो हिंदी भाषा को इस पुरस्कार की परिधि से हटा दिया जाये, जिससे अयोग्य व्यक्तियों को पुरस्कृत करने और योग्य व्यक्तियों को उपेक्षित करने का पाप न लगे.
यह पुरस्कार साहित्य का राष्ट्रीय पुरस्कार है, इसलिए इसे राष्ट्रपति/उपराष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के हाथों दिलाना चाहिए, न कि अकादमी के अध्यक्ष द्वारा, जो सामान्यत: इन्हीं साहित्यकारों में से चुने जाते हैं. अकादमी का अध्यक्ष इस पुरस्कार-तंत्र का अंग है. उसके देने से कोई वरिष्ठ साहित्यकार कैसे सम्मानित अनुभव करेगा? इस समारोह में भी कई वरिष्ठ साहित्यकार स्वयं न आकर अपने बेटे-बेटी या मित्र के मारफत सम्मानित हुए. इस बार हिंदी की लॉटरी 78 वर्षीय कवि-लेखक श्री रमेशचंद्र शाह के नाम निकली थी. वे खुश थे कि ऋतु-परिवर्तन के कारण ही यह संभव हुआ, वरना यह कहां संभव था!
मुझे इस बात की बेहद खुशी हुई कि इस बार विश्व-प्रसिद्ध खगोलशास्त्री और विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर को मराठी में लेखन के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया गया था. नारलीकर जी की प्रारंभिक से लेकर स्नातक तक की शिक्षा वाराणसी में ही बीएचयू में हुई थी. उनके पिता श्री विष्णु वासुदेव नारलीकर बीएचयू में गणित के प्रोफेसर थे और मां सुमति नारलीकर संस्कृत की विदुषी थीं. सन् 1957 में बीएससी करने के बाद वे कैम्ब्रिज चले गये.
बाद में उन्होंने अपने गुरु सर फ्रेड हॉयल के साथ मिल कर ‘अनुकोण गुरुत्वाकर्षण’ पर अनुसंधान कर नया सिद्धांत विकसित किया, जिसे विश्व के वैज्ञानिकों ने हॉयल-नारलीकर सिद्धांत नाम दिया. विज्ञान के क्षेत्र में उनकी अद्भुत उपलब्धियों के कारण 1965 में मात्र 26 वर्ष की आयु में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण और 2004  में पद्मविभूषण अलंकरण से सम्मानित किया. इतना बड़ा वैज्ञानिक होने के बावजूद नारलीकर जी मातृभाषा मराठी में विज्ञान-कथाएं तथा अन्य साहित्य लिखते रहे, जिनका अनुवाद हिंदी में भी बेहद चर्चित हुआ.
अकादमी पुरस्कार उनकी आत्मकथा ‘चार नगरांतले माङो विश्व’ पर मिला है. सन् 1965 में जब मैं बीएचयू में दाखिल हुआ, तब वे पद्मभूषण से अलंकृत हो चुके थे, जिस पर पूरा विश्वविद्यालय ही नहीं, पूरा बनारस गर्वित हुआ था.

भिखारी ठाकुर के बिहार में भिखारियों ने खोला 'मंगला बैक' और बनाई अनोखी नाटक मंडली

बिहार तो बिहार है, हर फन में अलखनिरंजन। वहीं के भिखारी ठाकुर, जेपी जैसे आंदोलनकारी और लालू जैसे नेता। आज भी आला-निराला कुछ न कुछ आए दिन वहां सुनने-देखने को मिल ही जाता है। गया जिले में भिखारियों ने अपना 'मंगला बैंक' खोल लिया है तो पटना में खुद की नाटक मंडली बनाकर जगह जगह भिखारी नुक्कड़ मंचन कर रहे हैं। 
'शांति कुटीर' के संरक्षण में सात भिखारियों ने भिक्षाटन से निजात दिलाने के लिए ये नाटक मंडली बनाई है। वे अपने नाटक - 'जिसे कल तक देते थे बददुआ, उसे आज देते हैं दुआ' का शहर के कई नुक्कड़ों पर मंचन कर चुके हैं। ज्यादातर मंचन उन स्थानों पर करते हैं, जहां भिखारियों का जमावड़ा रहता है। बिहार सरकार की भिखारियों को मुख्यधारा में लाने की पहल का एक उपक्रम बताया जाता है। दिग्विजय उनको प्रशिक्षित करते हैं। सभी कलाकार अनपढ़ हैं तो खुद ही अपना संवाद बना लेते हैं।
गया शहर में भिखारियों के एक समूह ने अपना एक बैंक खोल लिया है, जिसे वे ही चलाते हैं और उसका प्रबंधन करते हैं, ताकि संकट के समय उन्हें वित्तीय सुरक्षा मिल सके। गया शहर में मां मंगलागौरी मंदिर के द्वार पर वहां आने वाले सैकड़ों श्रद्धालुओं की भिक्षा पर आश्रित रहने वाले दर्जनों भिखारियों ने इस बैंक को शुरू किया है। भिखारियों ने इसका नाम मंगला बैंक रखा है। इस अनोखे बैंक के 40 सदस्य हैं। बैंक प्रबंधक, खजांची और सचिव के साथ ही एक एजेंट और बैंक चलाने वाले अन्य सदस्य  सभी भिखारी हैं। हर एक सदस्य बैंक में हर मंगलवार को 20 रुपए जमा करता है। इसकी स्थापना छह माह पहले हुई है। बैंक आपात स्थिति आने पर भिखारियों की मदद करता है। बैंक के रुपए डूबने से बचाने के लिए कर्ज पर दो से पांच प्रतिशत तक ब्याज देना अनिवार्य होता है। (Bhadas4medi)

अरविंद केजरीवाल का नया स्टिंग

http://www.bhaskar.com/news/UT-DEL-NEW-another-arvind-kejriwal-audio-tape-surfaces-4945829-NOR.html

आम आदमी पार्टी संयोजक और दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल का नया स्टिंग सामने आया है। इसमें अरविंद केजरीवाल उमेश कुमार नाम के पार्टी के कार्यकर्ता से बातचीत करते हुए आनंद कुमार, अजीत झा, योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे नेताओं को अपशब्द कहते सुनाई दे रहे हैं। बातचीत में उमेश ने केजरीवाल से कहा कि वे योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण के साथ मिलकर काम करें। यह ऑडियो स्टिंग अरविंद से बात करने वाले उमेश ने ही जारी किया है।
इस टेप में केजरीवाल प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव खेमे के दो नेताओं प्रोफेसर आनंद कुमार और अजित झा के लिए 'कमी*' और 'साले' जैसे शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं। उमेश नाम के इस शख्स ने योगेंद्र और प्रशांत भूषण से मिलकर चलने की बात कही, जिसका अरविंद ने अपशब्दों का इस्तेमाल करते हुए जवाब दिया। (पूरा ऑडियो सुनने के लिए ऊपर क्लिक करें)। इससे पहले, शुक्रवार को ही प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके अरविंद केजरीवाल पर निशाना साधा था। प्रशांत ने केजरीवाल पर तानाशाही बरतने का आरोप भी लगाया था। उधर, इस टेप पर आनंद कुमार ने कहा है कि अरविंद की यह भाषा उनके आत्मसम्मान के खिलाफ है। वहीं, योगेंद्र यादव ने कहा कि उन्होंने अरविंद को छोटा भाई समझकर माफ किया।
केजरीवाल के इस ऑडियो पर आप नेता आशुतोष ने कहा, ''मैंने ऑडियो सुना नहीं, लेकिन जानता हूं कि यह षड़यंत्र के तहत किया गया है। कई बार पिता भी अपने बेटे के लिए गुस्से में ऐसी बातें करते हैं। जिन लोगों ने पहले पार्टी को हराने का काम किया और अब वह इसे तोड़ने का काम कर रहे हैं। गुस्सा आना लाजमी है। गुस्से के बावजूद हम सब लोग इस दिशा में सक्रिय थे कि बातचीत किसी नतीजे पर पहुंचे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका।''

atalbihari vajpayee ko bharat ratna


Thursday 26 March 2015

ये मीडिया पूंजी का भूखा है, इसकी विश्वसनीयता अब संदिग्ध

दिल्ली में एक मीडिया सेमीनार में वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने कहा कि भारतीय मीडिया अब गरीब और कमजोर लोगों को उनका हक दिलाने के प्रति जवाबदेह नहीं रहा है। इसका चरित्र मेट्रो केंद्रित हो गया है। मीडिया की जिम्मेदारी और जवाबदेही है कि वह मौजूदा समस्याओं से हमारा साक्षात्कार कराए लेकिन आज का मीडिया लोगों की रुचियों के परिष्कार की जिम्मेदारी निभाने में असमर्थ है। देश के सत्तर प्रतिशत गांवों की खबरों को मीडिया में सिर्फ दो-तीन प्रतिशत स्थान मिल रहा है। मीडिया को समाज के वंचित वर्गों को जीने का हक दिलाने की बात करनी चाहिए। इस पर वह तटस्थ सा है। वरिष्ठ पत्रकार कमर वहीद नकवी का भी कहना था कि मीडिया को हमेशा उत्पीड़ितों के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। मीडिया आज उद्योग है। आईआईएमसी के प्रोफेसर डॉ.आनंद प्रधान ने कहा कि कारपोरेट मीडिया और पूंजी में गठजोड़ हो जाने से आज भारत में पारंपरिक मीडिया की विश्वसनीयता संदिग्ध हो चली है। वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय ने कहा कि मीडिया को पक्षपात से बचना चाहिए। मीडिया की स्थिति दुखद है। वह निष्पक्षता को अपने कंधे पर लादकर चलने को बाध्य है जबकि ये संभव नहीं। वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन ने कहा कि हाल के वर्षों में मीडिया में तकनीक का ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है। सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव की वजह से पूरी दुनिया में कई लिपियों का भविष्य खतरे में है। प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया में जो खामियां हैं, सोशल मीडिया उनका विकल्प है लेकिन सूचना के नए माध्यम हमारी वैचारिक पक्षधरता को घटा रहे हैं। आम आदमी पार्टी के नेता आशुतोष ने कहा कि पत्रकारिता का पस्तुपरक विश्लेषण होना चाहिए। पिछले तीन चार वर्षों में पत्रकतारिता में कंटेंट और तकनीक के स्तर पर काफी बदलाव हुए हैं। कार्यक्रम को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.गिरीश्वर मिश्र, डॉ.बीके जैन, डॉ.हेमंत कुमार, लाइव इंडिया के पूर्व एडिटर इन चीफ एनके सिंह, अभिषेक श्रीवास्तव, टीवी न्यूज एंकर वंदना झा, कार्टूनिस्ट राजेंद्र धोड़पकर, उमेश चतुर्वेदी आदि ने भी विचार व्यक्त किए।  

फेसबुक पर हारजीत का बुखार

(चित्र में धोनी के घर के बाहर पुलिस)
दिनेशराय द्विवेदी लिखते हैं- जब से भारतीय टीम ने क्रिकेट वर्ल्ड कप के सेमी फाइनल में प्रवेश पाया तभी से कानों कान चर्चा थी कि 26 मार्च 2015 सेमीफाइनल के दिन शहर की अदालतों में काम होगा या नहीं। यदि उस दिन भी वकीलों को काम करना पड़ा तो वे दुनिया के इस अप्रतिम क्रिकेट मैच का जीवित आनन्द कैसे प्राप्त कर सकेंगे। सेमीफाइनल की पूर्व संध्या जब मुंशी वकील साहब के दफ्तर पहुँचा तो उस ने बताया कि कुछ वकीलों में आज चर्चा तो थी कि कल कोई न कोई जुगत ऐसी जरूर होनी चाहिए कि अदालतों में काम न करना पड़े। सेमीफाइनल के दिन सुबह जब अखबार लोगों के घर पहुँचे तो उस में खबर थी कि पिछले एक माह से एक रुपए वाले कोर्ट फीस टिकट ट्रेजरी और कोर्टफीस वेंडरों के पास न होने से दो रुपए का टिकट लगाना पड़ रहा है इस से मुवक्किलों को दुगनी कोर्टफीस देनी पड़ रही है। वकील ये अन्याय सहन नहीं कर सकते इस कारण वे 26.03.2015 को हड़ताल पर रहेंगे।
अनामिशरण बबल लिखते हैं - भारत से ज्यादा रो रहा है अॉस्ट्रेलिया। जीत की उम्मीद करना ही बेकार था,। पर फाईनल में भारत के न होने से अॉस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड का पर्यटन उधोग रो रहा है। अभी तक मेलबोर्न के नाना प्रकार के होटलों मे रहने के लिए करीब 25 हजार लोगों ने अपनी बुकिंग कैंसल करा दी..। और लगभग 18 हजार लोग अपनी एयर टिकट को कैंसल करा चुके है । यह संख्या करीब 40 हजार तक जाएगीय़। भारत से ज्यादा तो रो रहा है सीए यानी क्रिकेट अॉस्ट्रेलिया बेचारा औरवहां के व्यवसायी जो मोटी कमाई की आस में हताश हो गए। भारत के फाईनल में नहीं पहुंचने से मोटा मोटामोटीकरीब 15 हजार करोड के व्यवसाय लाभ एकाेक नुकसान में चला गया। जय हो इंडिया वाले धोनी भईया तेरी जय हो और कीर्ति की क्षय हो।
त्रिलोचन शास्त्री ने लिखा - प्राणायाम करने से क्रिकेट जीता जा सकता तो रामदेव कब के अपनी टीम बना चुके होते : स्वदेशी।
प्रदीप श्रीवास्तव की टिप्पणी थी सचित्र - यह तस्‍वीर रांची स्थित धोनी के घर के बाहर की है। आस्‍टेलिया से हारते ही धोनी के घर के बहर पुलिस की तैनाती कर दी गई ताकि लोग यहां तोडफोड न कर सकें। इस हार से हर कोई दुखी है लेकिन एक हार से किसी हीरो को विलेन कैसे बनाया जा सकता है। धोनी की अगुवाई में हमने विश्व कप, टी 20 कप जीता, टेस्ट में नंबर 1 बने और न जाने कितनी ऐतिहासिक जीतें हुईं। धोनी ने भारतीय क्रिकेट को बुलंदियों पर पहुंचाया। ..... और आज भी जब हमारे खिलाडी एक एक कर पेवेलियन लौट रहे थे तो धोनी ने ही पारी को संभालने की कोशिश की। एक हार से हम धोनी की सौ जीत को नहीं भुला सकते। यह फोटो हमें शर्मिंदा कर रही है !!!!!!!!! देश को शर्मिंदा कर रही है!!!!!!!!!
शंभुनाथ शुक्ला ने लिखा - हार गए तो क्या हुआ पाकिस्तान से तो आगे रहे। यूं भी यह ससुरा किरकिट हमारा खेल तो है नहीं गोरों का है उन्हीं को मुबारक।

Wednesday 25 March 2015

om shanti.... om shanti...om


ये हैं जनाब 'कुर्सी वाले आम आदमी', जो इन दिनो दिल्ली में मजदूरों पर बर्बर पुलिस लाठीचार्ज करा रहे हैं


आज तो मौला जीत दिला दे... बस.... क्रिकेट की खुमारी....सुबह से ही दिन सन्नाटे की ओर


लंदन से प्रकाशित 'प्रयास' के ताजा अंक में 'मीडिया हूं मैं' की समीक्षा

सुधि पाठकवृंद, हिंदी की अंतर्राष्ट्रीय ई-पत्रिका “प्रयास” का अंक 23, (मार्च, 2015) विश्व के हिंदी प्रेमियों को समर्पित। पत्रिका का यह अंक   http://www.vishvahindisansthan.com/prayas23/#/0 पर क्लिक कर के अथवा एड्रेस बार में टाइप कर के पढ़ सकते हैं। पत्रिका को पढ़ने के लिये अक्षर बड़े-छोटे करने की सुविधा पेज पर नीचे बने zoom in व zoom out लैंस तथा प्रत्येक पेज के शीर्ष पर बने -, + फ़ाइन एड्जस्टर के माध्यम से उपलब्ध है। तो पढ़ जाइये 1 से 64 तक सभी पेज और बताइये कि हिंदी सेवा की भावना से ओत-प्रोत यह अंक आपको कैसा लगा! और हाँ, इसे अपने मित्रों को शेयर/फ़ार्वर्ड करना मत भूलियेगा।
- प्रो. सरन घई, संपादक “प्रयास”

कई देशों में फेसबुक, यूट्यूब और टि्वटर पर पाबंदी

आम जनता में बढ़ती सोशल मीडिया साईट्स की लोकप्रियता से घबराकर कई देशों की सरकार ने सोशल साईट्स को अपने यहां बैन कर दिया है। इनमें अमरीका, चीन और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों से लेकर सूडान, तुर्की और ट्यूनिशिया तक शामिल हैं। आइए डालते हैं इन देशों में बैन की गई साईट्स पर एक नजर...
अमरीका: दुनिया भर में मानवाधिकार तथा अभिव्यक्ति की आजादी का नारा देने वाले अमरीका में भी ऑनलाइन सोशल मीडिया आजाद नहीं है। वहां पर भी HI5, ब्लैक प्लेनेट, बेबो, माईस्पेस, टि्वटर और फेसबुक जैसी साइटें बैन हैं। इनमें हाई5 तथा ब्लैक प्लेनेट को अमरीकी सैन्य सुरक्षा एजेंसी पेंटागन की सिफारिश पर बैन किया गया है जबकि बेबो को स्कूल तथा कॉलेजों में बैन कर दिया गया है। इसी तरह फेसबुक और टि्वटर को भी खुफिया सैन्य जानकारी के लीक होने की आशंका के चलते सैन्य क र्मियों के लिए पूर्ण रूप से बैन कर दिया गया है। इसी क्रम में एक कदम आगे बढ़कर दुनिया की टॉप मोस्ट स्मार्टफोन कंपनी एप्पल ने अपने सभी डिवाइसेज पर माईस्पेस को बैन कर दिया है।
मैक्सिको: अमरीका के ही पड़ौसी देश मैक्सिको में दुनिया के दो सर्वाधिक प्रसिद्ध सोशल मीडिया साईट्स फेसबुक तथा टि्वटर को बैन कर दिया गया है। मैक्सिकों के सरकारी अधिकारियों के अनुसार इन साइट्स का उपयोग अपराधियों द्वारा आपराधिक साजिश रचने, ड्रग्स रैकेट चलाने तथा अंडरवल्र्ड माफिया की गतिविधियां संचालित करने के लिए किया जा रहा है।
ग्वाटेमाला: लैटिन अमरीकी देश ग्वाटेमाला में ब्लॉगिंग साइट वर्डप्रेस को ही बैन कर दिया गया है। हालांकि वहां की सरकार ने इसे बैन करने का कोई भी कारण बताने से इंकार कर दिया।
ब्राजील: ब्राजील की सरकार ने भी वर्ष 2008 में ब्लॉगिंग साइट वर्डप्रेस को बैन कर दिया था। इसके पीछे कारण दिया गया था कि इस साइट पर बनाया गया एक ब्लॉग यूजर्स को भ्रमित कर रहा था जिसके चलते पूरी साइट को ही ब्लैंकेट बैन का सामना करना पड़ा। बैन के बाद वर्डप्रेस ने अपनी टर्म्स एंड कंडीशंस में बदलाव करते हुए नए नियम बना कि इस पर ऎसा कोई भी ब्लॉग नहीं बनाया जा सकता जो यूजर्स को गलत जानकारी देता हो या भ्रमित करता हो।
इसी तरह वर्ष 2006 में वहां यूट्यूब को बैन कर दिया गया था। इसके पीछे ब्राजील के सॉकर स्टार रोनाल्डो की पत्नी तथा मॉडल डेनिएला सिकारेली के सेक्स टेप का यूट्यूब पर अपलोड होना था। इस टेप में डेनियला और उसके भूतपूर्व बॉयफ्रेंड की अंतरंग गतिविधियां थी जिसके चलते सेक्स टेप वायरल हो गई। मॉडल ने इसके लिए एक लाख डॉलर के हर्जाने की तथा साइट को पूरी तरह से ब्लॉक करने की भी मांग की थी। हालांकि बाद में इस बैन को हटा लिया गया।
ब्रिटेन: आपको यह जानकार आश्चर्य होगा लेकिन ब्रिटेन भी सोशल मीडिया साईट्स को बैन करने में पीछे नहीं है। वहां पर फेसबुक पर वर्ष 2009 में तथा टि्वटर पर वर्ष 2010 में बैन लगाया गया था। हालांकि खुशखबरी यही है कि यह पर्सनल कम्प्यूटर्स पर नहीं होकर सरकारी दफ्तरों, स्कूलों तथा सार्वजनिक स्थानों के लिए हैं। सरकार का मानना है कि यह सरकारी पैसे की बर्बादी है।
इटली: इटली के इटेलियन फुटबाल क्लब्स ने अपने खिलाडियों, रेफरियों तथा सभी कर्मचारियों के लिए पब्लिक डिस्कशन ग्रुप को बैन कर दिया है। सभी को स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं कि वे कहीं भी, किसी भी तरह से, किसी भी मंच पर (चाहे ऑनलाइन हो या सार्वजनिक मंच) पर अपने विचार अभिव्यक्त नहीं करेंगे। फेसबुक वहां पर पूरी तरह से बैन है।
ट्यूनिशिया: यहां पर डेलीमोशन, यूट्यूब तथा फेसबुक को ब्लॉक किया गया था। इसका कारण इन पर पोर्नोग्राफिक कंटेट का होना बताया गया था। बाद में फेसबुक पर से बैन पूरी तरह हटा लिया गया जबकि डेलीमोशन तथा यूट्यूब के कुछ पेजेज को ब्लॉक कर बाकी साइट को आम जनता के लिए ओपन कर दिया गया है।
इथियोपिआ: इस देश में भले ही इंटरनेट की स्पीड दुनिया से दशकों पीछे चल रही हो परन्तु यहां भी साइट्स बैन की जाती है। सबसे अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि यहां पर ब्लॉगस्पॉट जैसी ब्लॉगर साइट को बैन किया गया है जो दुनिया के किसी भी हिस्से में किसी भी कारण से आपत्तिजनक नहीं मानी गई और न ही बैन की गई।
सूडान: गृहयुद्ध से संकटग्रस्त इस छोटे से अफ्रीकी देश में भी यूट्यूब को बैन किया जा चुका है। इसका कारण है कि यूट्यूब पर वहां की सरकार द्वारा चलाए जा रहे दमनकारी गतिविधियों का वीडियो अपलोड करना हालांकि सूडान सरकार ने इसके लिए कभी भी आधिकारिक रूप से कोई घोषणा नहीं की।
सऊदी अरब: खाड़ी देश सऊदी अरब में स्कवीडो, लाइव जनरल, फ्लिकर तथा डिग पर बैन लगाया गया है। इनमें लाइव जनरल पर पूर्णतया प्रतिबंध है जबकि शेष साइटों के कथित आपत्तिजनक वाले हिस्सों को ब्लॉक कर दिया गया है। खासतौर पर डिग पर सेलिब्रिटी तथा सेलिब्रिटी रिलेटेड सेक्शन को पूरी तरह से कट ऑफ कर दिया गया है।
तुर्की: गृहयुद्ध की विभिषिका झेल रहे तुर्की में सरकार विरोधी कंटेट होने के कारण यूट्यूब, गूगल साइट्स, लास्ट डॉट एफएम तथा माइस्पेस को पूर्णतया ब्लॉक किया गया है। जबकि ब्लॉगस्पॉट और वर्डप्रेस को भी कुछ दिनों के लिए ब्लॉक किया गया था।
ईरान: शिया मुस्लिम बहुल देश ईरान में बाडू, विकिपीडिया, फ्लिकर, यूट्यूब तथा फेसबुक पर पूरी तरह से बैन है। ईरानी सरकार के अनुसार इन सभी साइट्स से देश में पाश्चात्य संस्कृति को बढ़ावा मिलता है और पोर्नोग्राफिक कंटेट तक आम जनता की पहुंच होती है जो शरीयत के हिसाब से सही नहीं है।
पाकिस्तान: यहां भी फेसबुक पर बैन लगाया गया था जिसे लाहौर की एक अदालत के फैसले के चलते उठा लिया गया। पाकिस्तान सरकार के मुताबिक फेसबुक पर मोहम्मद पैगंबर का अपमान किया जा रहा था जिसे किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इसी लिए अभी भी ऎसे पेज ब्लॉक है।
चीन: कम्यूनिस्ट देश चीन में इंटरनेट बैन की स्थिति सबसे बुरी है। वहां पर टेक्नोराटी, प्लूर्क, हॉटमेल, फ्लिकर, यूट्यूब, विकिपीडिया (अंग्रेजी वर्जन के सलेक्टेड सेक्शंस के अलावा सभी), टि्वटर तथा फेसबुक ब्लॉक है। इन सभी को थियानमैन चौक घटना की 20वीं जंयती पर ब्लॉक किया गया था जो आज तक बैन ही है।
वियतनाम: वियतनाम मिनिस्ट्री ऑफ पब्लिक सिक्योरिटी द्वारा सरकार के खिलाफ फैल रही विद्रोह को दबाने के लिए फेसबुक सहित दर्जनों अन्य साइट्स को बैन कर दिया गया था। बैन से नाराज यूजर्स ने प्रोक्सी साइट्स के जरिए फेसबुक को ओपन करने की कोशिश की।
थाईलैंड: अन्य देशों से अलग थाईलैंड ने सिर्फ वीडियो शेयरिंग साईट्स को ही बैन किया है। इनमें मेटाकैफे, वीओ तथा यूट्यूब मुख्य है। बैन के कारणों में सरकार विरोधी भावनाएं फैलाने तथा आपत्तिजनक कंटेट पोस्ट किया जाना बताया गया था। बाद में थाईलैंड सरकार ने यूट्यूब के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इसके तहत यूट्यूब ने थाई सरकार के निर्देशानुसार सभी आपत्तिजनक वीडियो अपनी साइट से हटा दिए तथा सरकार ने भी यूट्यूूब से प्रतिबंध हटा दिया।
ऑस्ट्रेलिया: यहां पर स्कूलों तथा कॉलेजों में छात्र-छात्राओं को साइबर बुलिंग से बचाने के लिए यूट्यूब को बैन कर दिया गया है। यह बैन मार्च 2007 में एक 17 वर्षीय छात्रा को बुरी तरह पीटते हुए एक वीडियो के यूट्यूब पर अपलोड करने के बाद लगाया गया था।
(पत्रिका से साभार)

Tuesday 24 March 2015

अंग्रेजों के एजेंट विरासत को हड़पने की कोशिश में / संजय पराते

भगतसिंह की क्रांतिकारी विरासत को हड़पने की कोशिश वे हिन्दूवादी संगठन भी कर रहे हैं, जिनका आजादी के आंदोलन में कोई भी योगदान नहीं था और वास्तव में तो वे अंग्रेजों की चापलूसी में ही लगे थे।
भगत सिंह को 23 मार्च 1931 को फांसी की सजा दी गई थी और अपनी शहादत के बाद वे हमारे देश के उन बेहतरीन स्वाधीनता संग्राम सेनानियों में शामिल हो गये, जिन्होंने देश और अवाम को निःस्वार्थ भाव से अपनी सेवाएं दी। उन्होंने अंगेजी साम्राज्यवाद को ललकारा।
मात्र 23 साल की उम्र में उन्होनें शहादत पाई, लेकिन शहादत के वक्त भी वे आजादी के आंदोलन की उस धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जो हमारे देश की राजनैतिक आजादी को आर्थिक आजादी में बदलने के लक्ष्य को लेकर लड़ रहे थे, जो चाहते थे कि आजादी के बाद देश के तमाम नागरिको को जाति, भाषा, संप्रदाय के परे एक सुंदर जीवन जीने का और इस हेतु रोजी-रोटी का अधिकार मिले। निश्चित ही यह लक्ष्य अमीर और गरीब के बीच असमानता को खत्म किये बिना और समाज का समतामूलक आधार पर पुनर्गठन किये बिना पूरा नही हो सकता था। इसी कारण वे वैज्ञानिक समाजवाद की ओर आकर्षित हुए। उन्होंने मार्क्सवाद का अध्ययन किया, सोवियत संघ की मजदूर क्रांति का स्वागत किया और अपने विषद अध्ययन के क्रम में उनका रूपांतरण एक आतंकवादी से एक क्रांतिकारी में और फिर एक कम्युनिस्ट के रूप में हुआ। अपनी फांसी के चंद मिनट पहले वे “लेनिन की जीवनी” को पढ़ रहे थे और उनके ही शब्दों में एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा था।
उल्लेखनीय है कि लेनिन ही वह क्रांतिकारी थे, जिन्होंने रूस में वहां के राजा जार का तख्ता पलट कर दुनिया में पहली बार किसी देश में मजदूर-किसान राज की स्थापना की थी। सोवियत संघ का गठन किया था और मार्क्सवादी प्रस्थापनाओं के आधार पर शोषणविहीन समाज के गठन की ओर कदम बढ़ाया था। लेनिन के नेतृत्व में यह कार्य वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने ही किया था। इसलिए वैज्ञानिक समाजवाद के दर्शन को मार्क्सवाद-लेनिनवाद के नाम से ही पूरी दुनिया में जाना जाता है। स्पष्ट है कि भगतसिंह भी इस देश से अंग्रेजी साम्राज्यवाद को भगाकर मार्क्सवादी-लेनिनवादी प्रस्थापनाओं के आधार पर ही ऐसे समतामूलक समाज की स्थापना करना चाहते थे, जहां मनुष्य, मनुष्य का शोषण न कर सके। अपने वैज्ञानिक अध्ययन और क्रांतिकारी अनुभवों के आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि यह काम कोई बुर्जुआ-पूंजीवादी दल नही कर सकता, बल्कि केवल और केवल कम्युनिस्ट पार्टी ही समाज का ऐसा रूपान्तरण कर सकती है। इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी और उसके क्रांतिकारी जनसंगठनों का गठन, ऐसी पार्टी और जनसंगठनों के नेतृत्व में आम जनता के तमाम तबको की उनकी ज्वलंत मांगों और समस्याओं के इर्द-गिर्द जबरदस्त लामबंदी और क्रांतिकारी राजनैतिक कार्यवाहियों का आयोजन बहुंत जरूरी है। व्यापक जनसंघर्षों के आयोजन के बिना और इन संघर्षों से प्राप्त अनुभवों से समाज की राजनैतिक चेतना को बदले बिना किसी बदलाव की उम्मीद नही की जानी चाहिये। “नौजवान राजनैतिक कार्यकर्ताओं के नाम” पत्र में भगत सिंह ने अपने इन विचारों का विस्तार से खुलासा किया है।
इस प्रकार, भगत सिंह हमारे देश की आजादी के आंदोलन के क्रांतिकारी-वैचारिक प्रतिनिधि बनकर उभरते हैं, जिन्होनें हमारे देश की आजादी की लड़ाई को केवल अंग्रेजी साम्राज्यवाद से मुक्ति तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे वर्गीय शोषण के खिलाफ लड़ाई से भी जोड़ा और पूंजीवादी-भूस्वामी सत्ता तथा पूंजीवादी-सामंती विचारों से मुक्ति की अवधारणा से भी जोड़ा। मानव समाज के लिए ऐसी मुक्ति तभी संभव है, जब उन्हें धार्मिक आधार पर बांटने वाली सांप्रदायिक ताकतों और विचारों को जड़ मूल से उखाड़ फेंका जाये, जातिवाद का समूल नाश हो, धर्म को पूरी तरह से निजी विश्वासों तक सीमित कर दिया जाय और आर्थिक न्याय को सामाजिक न्याय के साथ कड़ाई से जोड़ा जाय। ऐसा सामाजिक न्याय .. जो जाति प्रथा उन्मूलन की ओर बढ़े और जो स्त्री-पुरूष असमानता को खत्म करे, व्यापक भूमि सुधारों के बल पर सांमती विचारों की सभी अभिव्यक्तियों व प्रतीकों के खिलाफ लड़कर ही हासिल किया जा सकता है। भारतीय समाज बहुरंगी है, कई धर्म हैं, कई भाषाएं हैं, सांस्कृतिक रूप से धनी इस देश में सदियों से कई संस्कृतियां आकर घुलती-मिलती रही है। लोगों के पहनावे, खान-पान तथा आचार-व्यवहार भी अलग-अलग है। इसलिए भारतीय संस्कृति बहुलतावादी संस्कृति है, हमारी विविधता में एकता यही है कि इतनी भिन्नताओं के बावजूद हमारी मानवीय समस्याएं, सुख-दुख, आशा-आकाक्षाएं एक है। हमारे देश की एकता और अखण्डता की रक्षा तभी की जा सकती है, जब हम इस विविधता का सम्मान करना सीखें और इसके बहुरंगीपन को खत्म कर एक रंगत्व में ढालने की कोशिशों को मात दी जाय। इसी विविधता में हमारा सामूहिक अस्तित्व और संप्रभुता सुरक्षित है। भगत सिंह का संघर्ष भारत की एकता के लिए इसी विविधता की रक्षा करने का संघर्ष था। इस संघर्ष के क्रम में वे सांप्रदायिक-जातिवादी संगठनों व उसके नेताओं की तीखी आलोचना भी करते है। भगत सिंह गांधीजी और और कांगेस की आलोचना भी इसी प्ररिप्रेक्ष्य में करते हैं कि उनकी नीतियां अंग्रेजी साम्राज्यवाद से समझौता करके गोरे शोषकों की जगह काले शोषकों को तो बैठा सकती है, लेकिन एक समतामूलक समाज की स्थापना नहीं कर सकती।
इस प्रकार भगतसिंह देश की आजादी की लड़ाई को साम्राज्यवाद से मुक्ति, सांप्रदायिकता और जातिवाद से मुक्ति, वर्गीय शोषण से मुक्ति तथा देश की एकता-अखंडता की रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्षता व विविधता की रक्षा के लिये संघर्ष से जोड़ते हैं और इसमें कमजोरी दिखाने के लिए आजादी के तत्कालीन नेतृत्व की आलोचना करते हैं। भगतसिंह की मार्क्सवादी दृष्टि कितनी सटीक थी, आज हम यह देख रहे हैं। अंग्रेजी साम्राज्यवाद चला गया, लेकिन वर्गीय शोषण बदस्तूर जारी है। हमने राजनैतिक आजादी तो हासिल कर ली, किन्तु गांधीजी के ही “अंतिम व्यक्ति” के आंसू पोंछने का काम ठप्प पड़ा हुआ है, क्योंकि इस राजनैतिक आजादी को अपने साथ आर्थिक आजादी तो लाना ही नहीं था। इस आर्थिक आजादी के बिना सामाजिक न्याय की लड़ाई भी आगे बढ़ नही सकती और हमारे राष्ट्रीय जीवन में सामाजिक अन्याय के विभिन्न रूपों का बोलबाला हो चुका है। आर्थिक-सामाजिक न्याय के अभाव में हमारे देश की विविधता भी खतरे में पड़ गई है और सांप्रदायिक-फासीवादी विचारधारा फल-फूल रही है, जिससे देश की एकता-अखंडता-संप्रभुता ही खतरे में पड़ती जा रही है। स्पष्ट है कि कांग्रेस और गांधीजी के नेतृत्व में जो राजनैतिक आजादी हासिल की गई, उसने हमारे देश-समाज की समस्याओं को हल नहीं किया। इसे हल करने के लिए तो हमें भगतसिंह की मार्क्सवादी दृष्टि से ही जुड़ना होगा और इसी दृष्टि पर आधारित वैकल्पिक नीतियों के इर्द-गिर्द जनलामबंदी व संघर्षों को तेज करना होगा और पूंजीवादी-सांमती सत्ता को ही उखाड़ फेंकने की लड़ाई लड़ना होगा।
भगतसिंह की विचारधारा के बारे में इतनी लंबी टिप्पणी इसलिए कि आज जब राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास की तस्वीरें लगातार धुंधली होती जा रही है और जब आजादी के आंदोलन के दूसरे नेता लोंगो की स्मृति से गायब होते जा रहे हैं, भारतीय जनमानस में और विशेषकर वर्तमान युवा पीढ़ी में आज भी भगतसिंह किंवदंती बनकर जिंदा हैं और उनकी शहादत से प्रेरणा ग्रहण करता है। यही कारण है कि आज देश में भगतसिंह को उनकी विचारधारा से काटकर पेश करने की कोशिश हो रही है। यह षड़यंत्र कितना गहरा है, उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिन लोगों का और जिन संगठनों और दलों का भी भगतसिंह की विचारधारा से दूर-दूर तक संबंध नही है, वे ही भगतसिंह की विरासत को हड़पने की कोशिश कर रहे हैं। इस क्रम में वे भगतसिंह को सिख समाज के नायक के रूप में पेश करते हैं, जबकि भगतसिंह पूरे देश के क्रांतिकारी आंदोलन का प्रतिनिधित्व करते हैं और वास्तव में वे नास्तिक थे। इस क्रम में वो भगतसिंह को आंतकवादी के रूप में पेश करते हैं, जबकि आतंकवाद से उनका दूर दूर तक कोई लेना-देना नहीं था। कोर्ट में अपने मुकदमे के दौरान उन्होने स्पष्ट रूप से बयान दिया है .. “क्रांति के लिए खूनी लड़ाईयां अनिवार्य नहीं हैं और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल का संप्रदाय नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय है .. अन्याय पर आधारित मौजूदा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन।“
स्पष्ट है कि भगतसिंह की क्रांतिकारी विरासत का “माओवादी” उग्र-वामपंथी विचारधारा से भी कोई संबंध नही है, जो सशस्त्र क्रांति के नाम पर केवल निरीह लोंगो की हत्या तक सीमित रह गया है।
भगतसिंह की क्रांतिकारी विरासत को हड़पने की कोशिश वे हिन्दूवादी संगठन भी कर रहे हैं, जिनका आजादी के आंदोलन में कोई भी योगदान नहीं था और वास्तव में तो वे अंग्रेजों की चापलूसी में ही लगे थे। ऐसे लोग उन्हें सावरकर के बराबर रखने की कोशिश करते हैं, जबकि भगतसिंह का धर्मनिरपेक्षता में अटूट विश्वास था और जिस नौजवान भारत सभा की उन्होंने स्थापना की थी, उसकी प्रमुख हिदायत ही यह थी कि सांप्रदायिक विचारों को फैलाने वाली संस्थाओं या पार्टियों के साथ कोई संबंध न रखा जाय और ऐसे आंदोलनों की मदद की जाय, जो सांप्रदायिक भावनाओं से मुक्त होने के कारण नौजवान सभा के आदर्शों के नजदीक हों। इस प्रकार शोषणमुक्त समाज की स्थापना में वे सांप्रदायिकता को सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। यदि सांप्रदायिक ताकतें आज भगतसिंह का गुणगान कर रही हैं, तो केवल इसलिए कि युवा समुदाय को दिग्भ्रमित कर शोषणमुक्त समाज की स्थापना के संघर्ष को कमजोर किया जा सके।
इस प्रकार भगतसिंह का जमीनी और वैचारिक संघर्ष देश की आजादी के लिए साम्राज्यवाद के खिलाफ तो था ही, वर्गीय शोषण से मुक्ति और समाजवाद की स्थापना के लिए सांप्रदायिकता, जातिवाद और असमानता के खिलाफ भी था और देश की एकता-अखंडता-संप्रभुता की रक्षा के लिए आतंकवाद के खिलाफ भी था। देश के सुनहरे भविष्य के लिए भगतसिंह की यह सोच उन्हें अपने समकालीन स्वाधीनता संग्राम के नेताओं से अलग करती है तथा उन्हें उत्कृष्ट दर्जे पर रखती है। एक शोषणमुक्त समाज की स्थापना के लिए उन्होंने जो वैचारिक जमीन तैयार की तथा इसके लिए जो संघर्ष किया, उसी के कारण भगतसिंह आज भी हिन्दुस्तानी भारतीय-पाकिस्तानी जनमानस में जिंदा है।
भगतसिंह ने मात्र 23 साल की उम्र में शहादत पायी, लेकिन शोषण मुक्त समाज की स्थापना के लिए यह उनकी वैचारिक प्रखरता ही थी कि अंग्रेजी जेलों से मुक्त होने के बाद उनके साथ काम करने वाले अधिकांश साथी कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ गये। शिव वर्मा, किशोरीलाल, अजय घोष, विजय कुमार सिन्हा तथा जयदेव कपूर आदि इनमें शामिल थे। अजय घोष तो 1951-62 के दौरान संयुक्त सीपीआई के महासचिव भी बने। शिव वर्मा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रखर नेता बने। उन्होनें भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू आदि के बारें में उनकी मानवीय कमजोरियों, खूबियों के साथ बेहतरीन संस्मरण भी लिखे हैं। भगतसिंह और उनके साथियों की यह लड़ाई आज भी देश की प्रगतिशील जनवादी-वामपंथी ताकतें ही आगे बढ़ा रही है। वे ही आज भगतसिंह की क्रांतिकारी विरासत के सच्चे वाहक हैं।
भगतसिंह ने तीन प्रमुख नारें दिये .. इंकलाब जिंदाबाद! मजदूर वर्ग जिंदाबाद!! और साम्राज्यवाद का नाश हो!!! ये नारे आज भी देश के क्रांतिकारी आंदोलन के प्रमुख नारे हैं और “इंकलाब जिंदाबाद” का नारा तो लोक प्रसिद्ध नारा बन चुका है। ये तीनों नारे उनके संघर्षों के सार सूत्र हैं। अपने मुकदमे में उन्होने अदालत से कहा ..
“समाज का प्रमुख अंग होते हुये भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन पूंजीपति हड़प जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मोहताज है। दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया कराने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन को ढंकने को भी कपड़ा नही पा रहा है। सुन्दर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गंदे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर देते हैं। इसके विपरित समाज में जोंक रूपी शोषक पूंजीपति जरा-जरा सी बातों के लिए लाखों का वारा न्यारा कर देते हैं।यह भयानक असमानता और जबरदस्ती लादा गया गया भेदभाव दुनियां को एक बहुंत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिए जा रहा है। यह स्थिति अधिक दिनों तक कायम नही रह सकती। स्पष्ट है कि आज का धनिक वर्ग एक भयानक ज्वालामुखी के मुंह पर बैठकर रंगरेलियां मना रहा है।
सभ्यता का यह प्रासाद यदि समय रहते संभाला नहीं गया तो शीघ्र ही चरमराकर बैठ जायेगा। देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं, उनका कर्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धान्तों पर समाज का पुनर्निर्माण करें।
क्रांति मानवजाति का जन्मजात अधिकार है, जिसका अपहरण नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। श्रमिक वर्ग ही समाज का वास्तविक पोषक है, जनता की सर्वोपरि सत्ता की स्थापना श्रमिक वर्ग का अंतिम लक्ष्य है।
इन आदर्शों और विश्वास के लिए हमें जो भी दण्ड दिया जायेगा, हम उसका सहर्ष स्वागत करेंगे। क्रांति की इस पूजा वेदी पर हम अपना यौवन नैवद्य के रूप में लाए हैं क्योंकि ऐसे महान आदर्श के लिए बड़े से बड़ा त्याग भी कम है।“
भगतसिंह के इस बयान से साफ है कि जनसाधारण और मेहनतकश मजदूर-किसानों के लिए जीवन स्थितियां और ज्यादा प्रतिकूल हुई हैं, क्योंकि साम्राज्यवादी शोषकों की जगह पूंजीवादी-सामंती शोषकों ने लिया है। ये काले शोषक अपनी तिजोरियां भरने के लिए साम्राज्यवादपरस्त उदारीकरण की नीतियों को बड़ी तेजी से लागू कर रहे हैं और हमारे देश का बाजार उनकी लूट के लिए खोल रहे हैं। अमीरों और गरीबों की बीच की असमानता, शोषक और शोषितों के बीच का संघर्ष भगतसिंह के बाद के 84 सालों में सैकड़ों गुना बढ़ गया है, इसलिए समाजवादी क्रान्ति की आवश्यकता और समानता के सिद्धान्त पर आधारित शोषणविहीन समाज की स्थापना की जरूरत पहले की अपेक्षा और ज्यादा प्रासंगिक हो गई है। लेकिन समाज का यह पुनर्गठन मजदूर-किसानों और समाज के तमाम उत्पीड़ित-दलित तबकों की एकता के बिना और इसके बल पर व्यापक जनसंघर्षों को संगठित किये बिना संभव नही है। वैज्ञानिक समाजवाद पर आधारित मार्क्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिकोण ही इस एकता और संघर्ष को विकसित करने का हथियार बनेगा। लेकिन व्यवस्था में ऐसे आमूलचूल परिवर्तनों के लिए आवश्यक साधनों का संगठन आसान काम नहीं है और राजनैतिक कार्यकर्ताओं से बहुंत बड़ी कुर्बानियों की मांग करता है। ये रास्ता काटों भरा है, जिसमें यंत्रणा, उत्पीड़न, दमन और जेल है। लेकिन केवल इसी रास्ते से होकर क्रांति का रास्ता आगे बढ़ता है।
ऐसा क्यों, इसलिए कि भगतसिंह के समय में जो साम्राज्यवाद उपनिवेशवाद के रूप में जिंदा था, आज वह वैश्वीकरण के रूप में फल-फूल रहा है। भगतसिंह के समय में विश्व स्तर पर समाजवाद की ताकतें आगे बढ़ रही थीं, सोवियत संघ के पतन के बाद आज वह कमजोर हो गया है। स्वतंत्रता आंदोलन के राष्ट्रवादी मूल्यों ने जाति भेद की दीवारों ने कमजोर किया था और सांप्रदायिक ताकतों को पीछे हटने के लिए मजबूर किया था, लेकिन आजादी के बाद सत्ताधारी पूंजीपति-सामंती वर्ग ने ठीक उन्हीं ताकतों से समझौता किया, नतीजन समाज में जाति आधारित उत्पीड़न और जातिवादी विचारों को फिर फलने-फूलने का मौका मिला और सांप्रदायिक-फासीवादी विचारों की वाहक ताकतें तो सीधे केन्द्र की सत्ता में ही है। विश्व स्तर समाजवाद की ताकतों के कमजोर होने और इस देश में वामपंथ की संसदीय ताकत में कमी आने के कारण कार्पोरेट मीडिया को पूंजीवाद के अमरत्व का प्रचार करने का मौका मिल गया। इस प्रकार आज के समय में भगतसिंह के विचारों और समाजवादी क्रांति की प्रासंगगिकता तो बढ़ी है, लेकिन इस रास्ते पर अमल की दुश्वारियां तो कई गुना ज्यादा बढ़ गई हैं।
1990 के दशक में हमारे देश में वैश्वीकरण-उदारीकरण की जिन नीतियों को लागू किया गया जा रहा है, उसका चौतरफा दुष्प्रभाव समाज और अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में पड़ा है। ये ऐसे दुष्प्रभाव हैं कि एक-दूसरे के फलने-फूलने का कारण भी बनते हैं और हमारा सामाजिक-आर्थिक जीवन चौतरफा संकटों से घिरता जाता है। इससे उबरने, बाहर निकलने का कोई उपाय आसानी से नजर नही आता। हमारे देश की शासक पार्टियां विशेषकर कांग्रेस और भाजपा इन संकटों से उबरने का जो नुख्सा पेश करती है, उससे और एक नया संकट पैदा हो जाता है। वास्तव में उनकी नीतियां संकट को हल करने की नहीं, देश को संकटग्रस्त करने की ही होती हैं।
हमारा देश कृषि प्रधान देश है और इस देश के विकास की कोई भी परिकल्पना कृषि को दरकिनार करके नहीं की जा सकती। इस देश में कृषि और किसानों का विकास करना है, तो भूमिहीन व गरीब किसानों को खेती व आवास के लिए जमीन देना होगा। आज देश में तीन-चौथाई भूमि का स्वामित्व केवल एक तिहाई संपन्न किसानों के हाथों में है। आजादी के बाद भूमि सुधार कानून बनाए गये, लेकिन लागू नहीं किए गए। इसलिए गरीबों को देने के लिए जमीन की कोई कमी नहीं है। इसी प्रकार लगभग दो करोड़ आदिवासी परिवारों का वनभूमि पर कब्जा है। आदिवासी वनाधिकार कानून तो बनाए लेकिन इसका भी सही तरीके से क्रियान्वयन नहीं किया गया और आज भी वे जंगलों से बेदखल किये जा रहे हैं। इन गरीबों को जमीन दिये जाने के साथ ही उन्हें खेती करने की सुविधाएं यथा सस्ती दरों पर बैंक कर्ज, बीज, खाद, दवाई, बिजली, पानी देना चाहिये। खेती किसानी के मौसम के बाद इन्हें मनरेगा में गांव में ही काम मिलना चाहिये। इसके लिए ग्रामीण विकास के कार्यो में सरकार को निवेश करना होगा। किसानों की पूरी फसल को लाभकारी दामों पर खरीदने की व्यवस्था सरकार को करनी चाहिये। इस अनाज को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत सस्ते दामों पर देश के सभी नागरिकों को वितरित करना चाहिये, ताकि गरीब लोग बाजार के उतार-चढ़ाव के झटकों तथा कालाबाजारी व महंगाई से बच सके।
इन उपायों से कृषि उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा और उसका वितरण भी सुनिश्चित हो सकेगा। इससे ग्रामीण जनता की आय में वृद्धि होगी और बाजार में उनके खरीदने की ताकत बढ़ेगी। इससे औद्योगिक मालों की मांग बढ़ेगी, नये कारखाने खुलेंगे तथा बेरोजगारों को काम मिलेगा। शहरी बेरोजगारों को काम मिलने से और पुनः उनकी भी क्रय शक्ति बढ़ने से अर्थव्यवस्था को और गति मिलेगी। भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास का यही सीधा-सरल सूत्र है।
लेकिन आजादी के बाद और खासकर वैश्वीकरण-उदारीकरण के इस जमाने में हो उल्टा रहा है। किसानों को जमीन नही दी गई और जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन है, उसे कानून बदलकर या षड़यंत्र रचकर पूंजीपतियों के लिए छीना जा रहा है। आदिवासी, दलितों व आर्थिक रूप से वंचितों पर इसकी सबसे ज्यादा मार पड़ रही है। कृषि सामग्रियों पर सब्सिडी खत्म की जा रही है, जिससे फसल का लागत मूल्य बढ़ रहा है। सरकार न तो न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने के लिए तैयार और न ही उसका अनाज खरीदने के लिए। बाजार में लुटने के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं है। मनरेगा कानून को भी खत्म कर उन्हें ग्रामीण रोजगार से वंचित किया जा रहा है। सस्ते राशन की प्रणाली से सभी गरीब व जरूरतमंद धीरे-धीरे बाहर किये जा रहे हैं और उन्हें बाजार में महंगे दरों पर खाद्यान्न खरीदने के लिए बाध्य किया जा रहा है। इससे ग्रामीण जनता की क्रय शक्ति में भंयकर गिरावट आ रही है, वे कर्ज के मकड़जाल में फंस रहे हैं, खेती-किसानी छोड़ रहे हैं और पलायन करने या आत्महत्या करने को विवश हो रहे हैं। जब 75 प्रतिशत जनता की खरीदने की शक्ति कमजोर होगी, तो मांग भी घटेगी। मांग घटने से कारखाने बंद होंगे और जिन लोगों के पास काम है, वे भी बेरोजगारी की दलदल में ढकेले जायेंगे। इससे पूरे देश की अर्थव्यवस्था मंदी फंस जायेगी। और वास्तव में यही हो रहा है। खेती-किसानी भी बर्बाद हो रही है और कारखाने भी बच नही रहे हैं।
इस मंदी और संकट के लिए जिम्मेदार कौन है, निश्चित ही वे पूंजीवादी पार्टियां, जिन्होंने आजादी के बाद इस देश पर राज किया है और लम्बे समय तक राज करने वाली क्रांग्रेस और भाजपा भी इसमें शामिल हैं। इन्हीं के राज में विश्व व्यापार संगठन से समझौता किया गया था कि हमारे देश के बाजार में विदेशी जितना चाहे, जो चाहें, बेच सकते हैं और यहां के अनाज मगरमच्छों को भारी सब्सिडी देकर। इसलिए इस देश के किसानों का अनाज खरीदने के लिए कोई तैयार नहीं है। इन्हीं के राज में मांग घटने पर सरकारी कारखानें बंद किये जा रहे हैं, ताकि पूंजीपतियों के कारखाने चलते रहे और वे भारी मुनाफा बटोरते रहें। बेरोजगारी बढ़ने का फायदा वे उठाते हैं मजदूरी में और कमी कर, ज्यादा मुनाफा बटोरने के लिए। वे इसी कारण से स्थानीय मजदूरों को जानबूझकर काम नहीं देते, बल्कि बाहर से मजदूर मंगाते हैं और ठेकेदारों के जरिए काम करवाते हैं। ये पूंजीपति विदेशी पूंजीपतियों से सांठगाठ करते हैं और इनके जरिये बाजार में निवेश करते हैं, जिसे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) कहते हैं। खुदरा व्यापार में ये निवेश कर रहे हैं और 4 करोड़ खुदरा व्यापारियों, जिनमें ठेले वाले से लेकर सड़क पर बैठने वाले खुदरा कारोबारी और छोटे-मोटे दुकानदार शामिल हैं, की रोजी-रोटी संकट में है। विदेशी पैसो की ताकत इन सबको तबाह करने में पर तुली है। वे इस देश के बीमा क्षेत्र को, बैंक को, रेल को, रक्षा क्षेत्र को .. अर्थव्यवस्था के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों को .. हड़पनें में लगे हैं। जनता तबाह हो जाए, लेकिन इनका मुनाफा बढ़ता रहे, यही इन सरकारों की नीति है।
इस संकट का एक और आयाम है। ये कारखाना बनाने के नाम पर केवल किसानों की जमीन ही नहीं, इस देश की प्राकृतिक संपदा को छीन रहे हैं। बिजली, सीमेंट या इस्पात कारखाना बनाने के लिए कोयला खदानों की मांग वे करते हैं। कोयला खोदने के लिए जंगलों को उजाड़ते हैं और वहां बसे आदिवासियों को भगाते हैं। कोयला खदानों के स्वामित्व के बल पर वे अपनी कंपनियों के शेयरों के भाव बढ़ाकर जमकर मुनाफा कमाते है। बिजली, सीमेंट इस्पात आदि बने या ना बने, कोयला खोदकर मुनाफा कमाते हैं। यदि कारखाने शुरू हो जाये, तो इसे चलाने के लिए नदियों पर कब्जा करते हैं और समाज को नदियों के जल के उपयोग तक से वंचित करते हैं। और ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए वे पूरा औद्योगिक कचरा नदियों में बहाते हैं, पर्यावरण व जैव-पारिस्थितिकी को बर्बाद करते हैं। इस कारखाने को चलाने के लिए वे बैंको से कर्ज लेते हैं, जहां हमारा ही पैसा जमा होता है। यानी, इन पूंजीपतियों की गांठ से कुछ नही जाता, वे हमारे ही पैसे से हमको उजाड़ने का खेल खेलते हैं और मुनाफा, मुनाफा… और मुनाफा ही कमाते हैं। इस सबके बावजूद, इस मुनाफे पर वे कानूनी टैक्स भी नही देते और कांग्रेस-भाजपा की सरकारें हर साल 6 लाख करोड़ रूपयों का टैक्स वसूलना छोड़ देने की घोषणा करती हैं। जन साधारण के लिए समाज कल्याण के कार्यो के लिए इन सरकारों के पास फंड नही होते, लेकिन पूंजीपतियों को लुटाने के लिए पूरा बजट है। इस लूट को और तेज करने के लिए आम जनता के हित में बनाये गये तमाम कानूनों को वो खत्म कर रहे हैं, तोड़.मरोड़ रहे हैं, या कमजोर कर रहे हैं। इनमें तमाम श्रम कानून शामिल हैं, भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास कानून है, मनरेगा कानून है, आदिवासी वनाधिकार कानून, पेसा कानून आदि सभी शामिल है। प्राकृतिक संपदा की हड़प नीति को इस सरकार का संरक्षण मिला हुआ है, जिसने लाखों करोड़ों रूपयों के 2.जी, कोल घोटाला जैसे घोटालों को जन्म दिया है।
(हस्तक्षेप से साभार)

अभिव्यक्ति की आजादी चाहिए तो इस भुतहे समय में उठाने ही होंगे खतरे

इंटरनेट स्वतंत्रता बेहद ज़रूरी है क्योंकि सिर्फ़ एक बटन दबाकर ही हम जानकारी लाखों लोगों के साथ शेयर कर सकते हैं. इंटरनेट युग में दुनिया सिकुड़ गई है. हमें ये स्वीकार करना होगा कि इंटरनेट ऐसा माध्यम है जो हमें जोड़ता है और ये स्वतंत्र होना चाहिए क्योंकि बड़ी आबादी इसका इस्तेमाल करती है. यहाँ उम्र, जेंडर या धर्म का बंधन नहीं है.
रामजी राय लिखते हैं -
'' मुक्तिबोध खुद को ‘क्षुब्ध अंधकार की सियाह आग’ कहते हैं। वे एक ही साथ मुश्किल कवि हैं और सहज भी, आत्मग्रस्त-से तनाव भरे और ताकतवर भी? मुक्तिबोध की मुश्किल और ताकत इस बात में निहित है कि वे अपने समय के रोग लक्षणों की शिनाख्त करते हैं, आजादी मिलने के बाद स्थापित हो रहे अपने देश में उस उदार जनतंत्र के रोग लक्षणों की भी। और पाते हैं कि यह जो उदार जनतंत्र है ‘वह अपनी सामंती परंपरा से विछिन्न होकर भी, सामंती-शासकवर्गीय प्रवृत्तियो की तानाशाहियत को अपने खून में लिये हुए है।’ अर्थात् हम जिस उदार जनतंत्र के वासी हैं, उसकी नसों में सामंती खून बह रहा है। उसकी जनतांत्रिक जड़ें बेहद कमजोर हैं। वह एक अलिखित तानाशाही पर आधारित है। जिस क्षण भी कोई इसे चुनौती देने के गंभीर राजनीतिक उपक्रम में संलग्न होगा उसे उसका जवाब तानाशाही दमन से दिया जायेगा।
''आज इस उदार जनतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब है: वर्चस्वशाली मौजूदा उदार जनतंत्र को, ‘‘उत्तर-विचारधारात्मक’’ सर्वसहमति को सिर झुका कर स्वीकार कर लेना। जबकि अभिव्यक्ति की वास्तविक आजादी का मतलब है: वर्चस्वशाली सर्वसहमति को सवालों के घेरे में खड़ा करना। इसे चुनौती देने के गंभीर राजनीतिक उपक्रम में संलग्न होना। ‘‘वर्तमान समाज चल नहीं सकता/ पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता।’’ इसलिये ‘‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे/ उठाने ही होंगे/ तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।’’ अन्यथा इस अभिव्यक्ति की आजादी का कोई मतलब नहीं है।
''क्रमशः मुक्तिबोध आजाद भारत की सत्ता-समाज संरचना के प्रतिनिधि चरित्र-लक्षणों की गहन जांच करते, पहचानते और उसके बुनियादी अंतरविरोधों व जिस भुतहे वास्तव के रूप में अपने को वह अभिव्यक्त कर रहा था, उसका विश्लेषण-संश्लेषण-चित्रण करते हुए, उसके खिलाफ ‘‘हर संभव तरीके से’’ युद्ध की घोषण तक पहुंचते हैं, उन स्थितियों के खिलाफ जिसमें मनुष्य गुलाम, लांक्षित, रुद्ध और तिरष्कृत, घृणित जीव-सा बना दिया गया है।
''मुक्तिबोध के काव्य में समय लहरीला है, उड़ता हुआ। मुक्तिबोध जैसे उस ‘‘ उस त्वरा-लहर का पीछा कर रहे होते हैं।’’ यहां कविता काल-यात्री है। उसका कोई कर्ता नहीं, पिता नहीं, वह किसी की बेटी नहीं। वह परमस्वाधीन है, विश्वशास्त्री है। आगमिष्यत की गहन-गंभीर छाया लिए वह जनचरित्री है।
''वहां रोजमर्रे के जीवन की घटनाएं हैं, भुतहे वस्तव की तस्वीरें हैं, उससे कहीं अधिक विस्मयकारी, रोमांचक और रहस्यमय और भुतही जितना की अब तक हम देखते-समझते-जानते रहे हैं। वहां आत्मालोचना के रूप में हमारी अपनी कमजोरियों-गलतियों की गहरी व तीखी लेकिन आत्मीय भर्त्सना-आलोचना है, जिससे हम बचकर निकल जाने में ही अपनी भलाई देखते हैं।
''वहां देश-देशांतर के अनुभवों से भरी देश-देशांतर को पार करती, हम तक आती ताजी-ताजी हजार-हजार हवाएं हैं, हमसे हमारी कमियों-खूबियों पर बतियाती बहस करती, भविष्य के नक्शे सुझाती-बनाती हुई।
''वहां गतिमय अनंत संसार है, उसे जानने और उसे संभव संपूर्णता में अभिव्यक्ति करने के नये-नये गणितिक, वैज्ञानिक प्रयोग से लेकर प्राविधिक-तकनीकी अनुसंधान हैं, उनकी बाधाएं हैं, भूलें और मुश्किलें हैं, सफलताएं और संभावनाएं हैं- (कलाकार से वैज्ञानिक फिर वैज्ञानिक से कलाकार/ तुम बनो यहां पर बार-बार)। और चूंकि यह सब परिवर्तनकारी हैं इसलिए वहां दमनकारी सत्ताएं और उनके षडयंत्र भी अपने पूरे वजूद में हैं- ‘‘मेरा क्या था दोष?/ यही कि तुम्हारे मस्तक की बिजलियां/ अरे, सूरज गुल होने की प्रक्रिया/ बता दी मैंने/ सूत्रों द्वारा’’
''कुल मिला कर वहां एक परिवर्तनकारी यथार्थवादी नई समझ और नया संघर्ष है, जिसमें आगामी कई हविष्यों के आसाधारण संकेत हैं - जिससे होता पट परिवर्तन/ यवनिका पतन/ मन में जग में।
''एक वाक्य में वहां हमारे समय के भुतहे, जटिल यथार्थ की जटिल अभिव्यक्ति है और जटिल (कॉम्प्लेक्स) का अर्थ दुरूह (कॉम्प्लीकेटेड) नहीं होता। मुक्तिबोध की कविताएं हमारी मित्र कविताएं हैं। मेरे लिए तो गुरु कविताएं भी।
''बकौल मुक्तिबोध -‘‘आज की जिंदगी में वही दृश्य दिखाई देते हैं जो महाभारत काल में थे।.....दोनों पक्षों (यानी आधुनिक कौरव और पांडव) में आंतरिक उद्देश्यों और सवभावों के भेद के साथ ही साथ एक बात सामान्य है, और वह यह है कि समाज की ह्रासकालीन स्थिति और व्यक्तित्व की ह्रास-ग्रस्त मति के दृश्य दोनों की परिस्थिति बन गए हैं।........ अभी भी बहुत से महापुरुष कौरवों की चाकरी करते हुए पांडवों से प्रेम करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। किंतु द्रोण, भीष्म और कर्ण-जैसे प्रचंड व्यक्तित्वों की ऐतिहासिक पराजय जैसी महाभारत काल में हुई थी, वैसी आज भी होने वाली है।
''अंतर इतना ही है कि इस संघर्ष में (जो आगे चलकर आज नहीं तो पच्चीस साल बाद तुमुल युद्ध का रूप लेगा) कौन किस स्वभाव-धर्म और समाज-धर्म के आदर्शों से प्रेरित होकर ऐतिहासिक विकास के क्षेत्र में अपना-अपना रोल अदा करेगा, इसकी प्रारंभिक दृश्यावली अभी से तैयार है।’’ (प्रगतिशीलता और मानव सत्य नामक निबंध पेज 78, मुक्तिबोध रचनावली खण्ड 5)। यह तैयार दृश्यावली देखिए:
''भई वाह !! कहां से ये फोटो उतरे / उन महत्-जनों के मुझ पर छा जाते चेहरे / पीले, भूरे, चौकोर और श्यामल / गठियल दुहरे!! / वे स्निग्ध, सुपोषित, संस्कृत मुख / अपने झूठे प्रतिबिंम्ब गिराते हैं।/ लाखों आंखों से उन्हें देखता रहता हूं।/उनके स्वप्नों में घुस कर मुझे स्वप्न आते। हैं बंधे खड़े,/ ये महत्, बृहत,/ उनके मुंह से प्रज्ज्वलित गैस-सी सांस-आग/ वे इस जमीन में गड़े खड़े/मशहूर करिश्मों वाले गहरे स्याह तिलस्मी तेज बैल/ तगड़े-तगड़े/ अपने-अपने खूंटों से सारे बंधे खड़े/ यह खूंटा स्वर्ण-धातु का है/रत्नाभ दीप्ति का है/ आत्मैक ज्योति का है/स्वार्थैक प्रीति का है।.......वे बड़े-बड़े पर्वत अंधियारे कुंए बन गए/ जो कल थे कपिला गाय आज तेंदुए बन गए।/ हाय हाय, यह श्याम कथानक है/ आदमी बदल जाने की यह प्रक्रिया भयानक है।/..............नैतिक शब्दावलि?/ मंदिर-अंतराल में भी श्वानों का सम्मेलन/ तो आत्मा के संगम का प्रश्न नहीं उठता/ यह है यथार्थ की चित्रावलि।....... वह दुष्ट ब्रह्म कर रहा जबरदस्ती वसूल/ हमसे तुमसे/यह मांस-किराया/कष्ट-रक्त-भाड़ा/ धरती पर रहने का/......वह उषःकाल का जगन्मनोहर/ हिरन मार आया/ पर ठीक सामने/ दुबला श्यामल जन-समाज-सम्मर्द देखकर/ एक सौ दस डिग्री/ उसको बुखार आया/ उसकी सारी उंगलियां खून से रंगी/कपड़ों पर लाल-लाल धब्बे/ उसके बचाव के लिए मुसकरा/ कलाकार आया। चुप रहो मुझे सब कहने दो/ फिर नहीं मिलेगा वक्त/जमाना और-और नाजुक होता है/ और-और वह सख्त।/.............उसके दासों के अनुदासों के उपदासों ने ही/अपने दासों को उपदासों को अनुदासों को भी/ देश-देश में इस स्वदेश में, आसमान में भी/मानव मस्तक की राहों में छांहों के जरिए/मनानुशासन, जीवन-शोषण, समय-निरोधन के/सब कार्यों में लगा दिया है सभी अनुचरों को।/ .... बेचैन वेदना को/ श्रृण-एक राशि के वर्गमूल में डलवा-गलवा कर/ उनको शून्यों से शून्यों ही में विभाजिता करवा/ चलवा डाला है स्याह स्टीमरोलर/ इस जीवन पर/ वह कौन?/ अरे वह लाभ-लोभ की अर्थवादिनी सत्ता का/ विकराल राष्ट्रपति है!!/ जिसके बंगले की छाया में तुम बैठो हो।/ हां, यहां, यहां!! (चुप रहो मुझे सब कहने दो, मुक्तिबोध रचनावली, खंड 2, पृष्ठ 389)
''जब समस्याएं, स्थितियां महाभारत जैसी हों तो उसका समाधान भी महाभारत से कम क्यों कर होनेवाला। फिर तो- ‘‘वह कल होने वाली घटनाओं की कविता जी में उमगी।’’
उसके बाद नक्सलबाड़ी का विद्रोह, 74 का आंदोलन और आपात्काल तो जैसे सामाजिक-प्रयोगशाला में मुक्तिबोध की चिंताओं, क्रांति-स्वप्न और खोजे गये सत्ता के मस्तिष्क की बिजली और सूरज गुल होने के सूत्रों के सत्यापन हों। आज जगह-जगह कश्मीर, मणिपुर, छत्तीसगढ़-झारखंड में एएफएसपीए, ऑपरेशन ग्रीनहंट और देश भर में भी काले कानूनों का आपात्काल-सरीखा जाल क्या जनांदोलनों के दमन निमित्त लगाये जा रहे या एक दिन पूरे देश में ही मार्शल लॉ लगा दिये जाने के खंड-चित्र जैसे नहीं हैं?'' 

ये हैं दिल्ली की श्रेया सिंघल


वो कौन हैं, जो अभिव्यक्ति की आजादी के लिए उठ खड़ी हुईं? कौन हैं श्रेया सिंघल? वह श्रेया सिंघल हैं दिल्ली यूनिवर्सिटी में क़ानून की पढ़ाई कर रहीं एक छात्रा। उन्होंने वर्ष 2012 में सूचना प्रौद्योगिकी क़ानून के सैक्शन 66ए के ख़िलाफ़ याचिका दायर की थी। उन्हीं की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को अभिव्यक्ति की आजादी पर मंडरा रहे खतरे से सोशल मीडिया को बचाया है।
एक मीडिया प्रतिनिधि से बात करते हुए चौबीस वर्षीय श्रेया कहती हैं - ''कोर्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को सुरक्षित रखा है और ये उनकी ही नहीं बल्कि इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले हर व्यक्ति की जीत है। मैंने ये याचिका 2012 में दाख़िल की थी। महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में गिरफ़्तारियों से मुझे झटका लगा था। मैं ख़ुद से सवाल पूछ रही थी कि ये गिरफ़्तारियों क्यों हुईं? उन लोगों ने जो पोस्ट किए थे, उनसे किसी को कोई ख़तरा तो था नहीं। पश्चिम बंगाल में तो मुख्यमंत्री के बारे में व्यंग्यात्मक कार्टून पोस्ट करने पर ही गिरफ़्तारी हो गई, जबकि पुडुचेरी में एक नेता पर टिप्पणी करने पर एक व्यापारी को गिरफ़्तार कर लिया गया। जिन वजहों से उन लोगों को गिरफ़्तार किया गया, वही वजह बताकर किसी को भी गिरफ़्तार किया जा सकता था।
''मुझे या मेरे दोस्तों को भी गिरफ़्तार किया जा सकता था। आप सोचिए कि सिर्फ़ फ़ेसबुक पर पोस्ट लाइक करने के लिए गिरफ़्तारियाँ हुई थीं। ऐसे चार मामले हुए थे जिनसे साफ़ था कि क़ानूनी प्रावधान का दुरुपयोग किया जा रहा था। मुझे लगा कि किसी को तो कुछ करना चाहिए। सिर्फ़ ये कहना काफ़ी नहीं था कि बहुत बुरा हुआ। कुछ करने की ज़रूरत थी।
''सूचना प्रौद्योगिकी क़ानून के ये प्रावधान बिलकुल अस्पष्ट है और इन्हें आधार बनाकर किसी को भी गिरफ़्तार किया जा सकता था। यदि सोशल मीडिया पर आपकी टिप्पणी से किसी को नाराज़गी या कष्ट हुआ हो तो 66ए के तहत सिर्फ़ इसीलिए तीन साल तक की जेल हो सकती थी। संविधान में अनुच्छेद 32 के तहत ये प्रावधान है कि यदि आपके मूल अधिकार का उल्लंघन किया जाता है तो भारत का कोई भी नागरिक सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर सकता है। इसलिए मैंने सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। तीन साल सुनवाई के बाद इस याचिका पर फ़ैसला आया है। ''
इस बीच भारत के जाने-माने क़ानूनविद सोली सोराबजी ने आईटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को ये कहते हुए सराहा कि ये प्रावधान अनिश्चितता से भरा था और इसका मतलब कोई भी अपने मुताबिक निकाल सकता था।

इसी कार्टून पर गिरफ्तार हुए थे असीम त्रिवेदी

अन्ना आंदोलन से जुड़े असीम त्रिवेदी को फेसबुक पर यूपीए सरकार के घोटालों को लेकर एक कार्टून पोस्ट करने के बाद गिरफ्तार कर लिया गया था। 'भ्रष्टमेव जयते' शीर्षक वाले इस कार्टून में संसद और राष्ट्रीय प्रतीक का मजाक उड़ाया गया था। असीम के खिलाफ पुलिस ने देशद्रोह का मामला भी दर्ज किया था। इस धारा के तहत गिरफ्तारी पर सबसे पहले विवाद 2012 में हुआ था, जब महाराष्ट्र के पालघर की रहने वाली शाहीन नाम की एक फेसबुक यूजर्स ने बाला साहेब ठाकरे की अंतिम यात्रा पर कमेंट किया था और उसे उसकी सहेली रीनू ने इसे लाइक किया था। दोनों को इस मामले में गिरफ्तार कर लिया गया था। बाद में दोनों को जमानत मिल गई।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ एक कार्टून बनाने पर पुलिस ने अंबिकेश महापात्रा नाम के एक प्रोफेसर को गिरफ्तार कर लिया था। जाधवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ने यह कार्टून उस वक्त फेसबुक पर पोस्ट किया था, जब रेलमंत्री और अपनी पार्टी के सांसद दिनेश त्रिवेदी को ममता बनर्जी ने पद से हटा दिया था।
उत्तर प्रदेश के मंत्री आजम खान पर के खिलाफ विवादास्पद कमेंट करने पर पिछले दिनों बरेली में 11वीं के एक छात्र को गिरफ्तार कर लिया गया था। न्यायिक हिरासत के बाद कोर्ट ने आरोपी छात्र विक्की खान को जमानत दे दी थी। मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचने पर सुप्रीम कोर्ट ने यूपी पुलिस से छात्र की गिरफ्तारी को लेकर जवाब मांगा है। आईटी एक्ट की धारा 66ए खत्म होने के बाद विक्की ने कहा,'' इस धारा के खत्म होने से इंटरनेट पर अपनी बात कहने की आजादी मिलेगी। इस धारा के खत्म होने से मैं खुश हूं।''
यूपीए सरकार में मंत्री रहे पी. चिदंबरम के बेटे कार्ति चिदंबरम के खिलाफ साल 2012 में ट्वीट करने पर पुडुचेरी के बिजनेसमैन रवि श्रीनिवासन की गिरफ्तारी हुई थी। कार्ति चिदंबरम द्वारा पुलिस से शिकायत किए जाने के बाद श्रीनिवासन को उनके घर से गिरफ्तार किया गया था। उनके खिलाफ भी धारा 66ए के तहत मामला चलाया गया था। बाद में वह जमानत पर रिहा हुए थे। इधर, धारा खत्म किए जाने पर कार्ति चिदंबरम ने नाराजगी व्यक्त की है। उन्होंने कहा कि कोई धारा खत्म होने का यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि आपको सड़क पर किसी को गाली देने का हक मिल गया है। उन्होंने कहा, ''मैं फ्री स्पीच का समर्थन करता हूं लेकिन इसकी कोई सीमा होनी चाहिए। ''
कवि और लेखक कंवल भारती को साल 2013 में फेसबुक पर एक मेसेज डालने पर अरेस्ट कर लिया था। कंवल ने रेत माफिया पर नकेल कसने वाली आईएएस दुर्गाशक्ति नागपाल को सस्पेंड करने के लिए यूपी में सपा सरकार की आलोचना की थी।


Monday 23 March 2015

शहीद दिवस के बहाने ‘भगत, गांधी, अंबेडकर और जिन्ना’ पर सुमंत भट्टाचार्य ने छेड़ी गंभीर बहस

'एक भी दलित चिंतक ने भगत की शहादत को याद नहीं किया', अपने इन शब्दों के साथ शहीद दिवस के बहाने संक्षिप्ततः अपनी बात रखकर वरिष्ठ पत्रकार सुमंत भट्टाचार्य ने फेसबुक पर ‘भगत, गांधी, अंबेडकर और जिन्ना’ संदर्भित एक गंभीर बहस को मुखर कर दिया। भगत सिंह की शहादत को याद न करने के उल्लेख के साथ उन्होंने लिखा- ''गोडसे को तब भी माफ किया जा सकता है..क्योंकि गांधी संभवतः अपनी पारी खेल चुके थे। पर गांधी को इस बिंदु पर माफ करना भारत के साथ अन्याय होगा। भगत सिंह पर उनकी चुप्पी ने नियति का काम आसान कर दिया, ताकि नियति भारत के भावी नायक को भारत से छीन ले। यहीं आकर मैं गांधी के प्रति दुराग्रह से भर उठता हूं। पर जिन्नाह और अंबेडकर तो हिंसावादी थे..एक मुंबई में गोलबंद होकर मारपीट करते थे, दूसरे डायरेक्ट एक्शन के प्रवर्तक। इनकी चुप्पी पर भी सवाल उठने चाहिए। शाम तक इंतजार के बाद अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है, एक भी दलित चिंतक ने भगत की शहादत को याद नहीं किया.....क्यों..?''

इसके जवाब में ब्रजभूषण प्रसाद सिन्हा ने लिखा कि 'बिल्कुल सही सोच है आपकी जैसा कि मैंने पढ़ा है। अगर गांधी चाहते तो भगत सिंह को बचा सकते थे पर उन्होंने उन्हें आतंकवादी करार देते हुए बचाने से मना कर दिया और गांधी बहुतों के चित्त से उतर गए। गाँधीवादी मित्र क्षमा करेंगे। गांधी ने नेहरू को गद्दी सौंप कर मेरे नजरिये में सबसे बड़ी गलती की। अगर पटेल जैसा कि अधिकांश मेम्बरों की चाहत थी, को बनाया होता तो आज जो देश की जो दुर्दशा है, वह नहीं होती।' मनीष शुक्ला का मानना था - 'गांधी ने हमेशा नेहरू के रास्ते के कांटे साफ़ किये, अब अन्ना अपनी आखिरी पारी में नया गांधी बनने की राह पर हैं ।'

वरुण कुमार जायसवाल ने लिखा - ‘कुछ भी लिखने से पहले ये स्पष्ट कर देना चाहूँगा कि भगत सिंह की शहादत के प्रति मन में असीम सम्मान और श्रद्धा है. मुझे ऐसा लगता है कि यदि भगत सिंह को अपनी पारी खेलने का मौका मिलता तो वो पारी कैसी होती ? भगत सिंह स्पष्ट रूप से मार्क्सवाद से प्रभवित थे और उनका रुझान लिबरेशन की यूटोपियन समाज व्यवस्था की तरफ था जो 1931 के आगे की दुनिया में न सिर्फ़ ख़ूनी सिद्ध हुई बल्कि पूरी दुनिया को खतरे में डालने से पीछे भी न हटी. भगत सिंह की आड़ लेकर तो ऐसी ताकतों (कम्युनिस्ट) का सत्तारूढ़ होना संभव भी था क्योंकि तब संभवतया इसमें राष्ट्रवाद और देशभक्ति का फ्लेवर जुड़ चुका होता लेकिन आत्मा तो वाम ही रहती. क्या 1992 के बाद भारत की दशा भी पूर्वी यूरोप के सेटेलाइट मुल्कों जैसा ना हो जाता. भगत सिंह जिस राज्य की परिकल्पना में जीते थे वो हममें से अधिकांश को डरा देने के लिए काफी है.’

आर के गोपाल ने लिखा कि 'गांधी पारी खेल चुके थे? मतलब आजादी गाँधी ने दिलवायी...  फिर अच्छा विश्लेषण है!' इस टिप्पणी के जवाब में सुमंत भट्टाचार्य ने लिखा कि 'मेरा आशय उम्र से है..गांधी भारत को वो दे चुके थे जो देना चाह रहे ते..जिस वक्त गांधी गए, कांग्रेस उनको खारिज कर रही थी। भगत सिंह 23 साल की उम्र में गए..वो गांधी के भारत के समानांतर उस भारत की आवाज बन रहे थे जिसे कांग्रेस आवाज नहीं दे रहा था। फिर यह मेरा निजी नजरिया है, आपको अपनी बात रखने का पूरा हक है। मेरी असहमति का बिंदु गांधी की खामोशी है।'

हिमांशु कुमार घिल्डियाल की टिप्पणी थी - 'अहिंसा के पुजारी ने द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीयों को अंग्रजों का साथ देने को कहा था। युद्ध में गोलियों की बरसात होती है या लाशों की?' पुष्कर भट्ट ने लिखा - 'गांधी जी के अहिंसा सिद्धांत का प्रतिफल 1947 में दिख गया था.. बंटवारे के बाद की मार काट.. अहिंसा के पेड़ पर लगे हिंसा के फल..।’ सुमन वर्मा का कहना था कि ‘इतने वर्षों बाद ही सही, आज उनको सारा देश याद तो कर रहा है शहीद के रूप में।’

अपनी प्रतिटिप्पणी में शरद श्रीवास्तव लिखते हैं- ‘गांधी जी के नेतृत्व को असली चुनौती भगत सिंह से नहीं, लेफ्ट से थी, कांग्रेस में सुभाष बाबू और नेहरू जी से थी। सन 31 से पहले मेरठ मे कम्युनिस्टों पर मुक़द्दमा चला था, जिसमें उन्हे देश द्रोह के लिए सजा सुनाई गयी थी। अगर गांधी जी को कोसना है तो उन क्षणों के लिए पहले कोसिए जब भगत सिंह भूख हड़ताल पर थे, और उसी में जतिन दास की मृत्यु हो गयी थी। सुनते हैं जतिन दास का शव जब कलकत्ता लाया गया था, तब उनके अंतिम संस्कार मे भाग लेने 6 लाख लोग जुटे थे। जतिन बाबू की मौत पर वो भी अनशन से हुई मौत पर कांग्रेस और गांधी जी का क्या रोल था। ये तो अहिंसा के लिए हुई मौत थी। कांग्रेस ने इसे रोकने का कोई उपाय किया या नहीं या अपनी चुप्पी बनाए रखी।’
तेजेंद्र सिंह का कहना था कि गाँधी जी की ये सोच केवल भगत सिंह के लिए नहीं थी, उन्होंने सुभाष चन्द्र बोस के कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने पर भी यही रवैया अपनाया था। अंततः बोस ने त्यागपत्र दे दिया था। शिखा गुप्ता का मानना है कि गाँधी जी के बहुत से कृत्य ऐसे हैं जिन पर प्रश्न उठने चाहिए और चर्चा होनी चाहिए। रीता सिन्हा ने लिखा - ‘भगत सिंह और सु.चन्द्र.वोस की कसक बनी रहती है। आपसे सहमत हूँ।’
पुष्प जैन ने तो 'बापू की हजामत और पुन्नीलाल का उस्तरा' शीर्षक से मधु धामा लिखित पुस्तक का सचित्र एक अंश ही प्रस्तुत कर दिया कुछ इस तरह.... ‘‘बापू कल मैंने हरिजन पढा।’’ पुन्नीलाल ने गांधीजी की हजामत बनाते हुए कहा। ‘‘क्या शिक्षा ली!’’ ‘‘माफ करें तो कह दूं।’’ ‘‘ठीक है माफ किया!’’ ‘‘जी चाहता है गर्दन पर उस्तरा चला दूं।’’ ‘‘क्या बकते हो?’’ ‘‘बापू आपकी नहीं, बकरी की!’’ ‘‘मतलब!’’ ‘‘वह मेरा हरिजन अखबार खा गई, उसमें कितनी सुंदर बात आपने लिखी थी।’’ ‘‘भई कौनसे अंक की बात है।’’ ‘‘बापू आपने लिखा था कि छल से बाली का वध करने वाले राम को भगवान तो क्या मैं इनसान भी मानने को तैयार नहीं हूं और आगे लिखा था सत्यार्थ प्रकाश जैसी घटिया पुस्तक पर बैन होना चाहिए, ऐसे ही जैसे शिवा बावनी पर लगवा दिया है मैंने।’’ आंखें लाल हो गई थी पुन्नीलाल की। ‘‘तो क्या बकरी को यह बात बुरी लगी।’’ ‘‘नहीं बापू अगले पन्ने पर लिखा था सभी हिन्दुओं को घर में कुरान रखनी चाहिए, बकरी तो इसलिए अखबार खा गई। हिन्दू की बकरी थी ना, सोचा हिन्दू के घर में कुरान होगी तो कहीं मेरी संतान को ये हिन्दू भी बकरीद के मौके पर काट कर न खा जाएं।’’ अंत में उन्होंने ये नोट भी लिख दिया कि कोई आपत्ति करने का साहस न करें, मूल पुस्तक में गांधी जी की टिप्पणी के मूल प्रमाण दिए गए हैं।
प्रियदर्शन शास्त्री ने लिखा - ‘सुमन्त भाई ! गोडसे को कैसे माफ कर सकते हैं ? रावण भी बहुत गुणी था शायद गोडसे भी परन्तु उनके कृत्यों से उन्हें क़तई माफ नहीं किया जा सकता .... माना कि भगतसिंह, सुखदेव एवं राजगुरु की शहादत आजादी की लड़ाई की एक महान घटना है परन्तु हम उन सबको क्यों भूल जाते हैं जो ऑफ द रिकॉर्ड थे..... कुछ लोग महात्मा गाँधी की आलोचना इस तरह करते हैं जैसे क्रिकेट की कर रहे हों ..... जैसे उन्होने सम्पूर्ण गाँधी को समझ लिया हो .... हम ये भूल जाते हैं कि जिस शख़्स ने भी आजादी की लड़ाई लड़ी है वो उन अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ी है जिनका पूरे विश्व के एक चौथाई भाग पर राज था .... मुझे नहीं लगता कि वर्तमान पीढ़ी में दुबारा से आज़ादी की लड़ाई लड़ने का माद्दा है । यहाँ वर्तमान आलोचकों का ये हाल है कि अंग्रेजों की तो छोड़ो शहर के भ्रष्ट विधायक या सांसद के विरुद्ध तो आवाज़ तक नहीं निकलती ... और बात करते हैं महात्मा गाँधी की।’
जयप्रकाश त्रिपाठी ने लिखा - ‘अलग से मुस्लिम मोरचा, अलग से दलित मोरचा, अलग से स्त्री मोरचा, आजादी के आंदोलन के समय से या बाद में इस तरह की सारी कवायदें पूंजीवादी-साम्राज्यवादी मोरचे पर जन-एकजुटता कमजोर करने के लिए ही तो जारी हैं। हमारे एक सुपरिचित दलित-एनजीओ चिंतक महोदय तो कूद कूद कर नेपाल तक हो आते हैं, वहां के दलितों को ये बताने के लिए कि तुम्हारा मोरचा दूसरा है। और बीच बीच में महीनो के लिए रहस्यमय तरीके से लापता हो जाते हैं। कोई बता रहा था कि लापता होने के दिनो में वे अपने अर्थगुरुओं से दीक्षित होने विदेश भाग जाते हैं, वहां पता नहीं क्या क्या करके लौटते हैं। मैंने ज्यादातर दलित-चिंतक महोदयों को इसी रूप में देखा है। अमीर दलित और गरीब दलित .... हाहाहाहा। एक बात और, कुछ बातें हमारे उन भारतीय पुरखों और मौजूदा लालसलामियों को लेकर भी विचलित करती हैं.... आज के हालात के पीछे सारा किया धरा उन्हीं का है, मुझे ये भी अच्छी तरह से मालूम है कि एक नेशनल फेम के कामरेड की पत्नी भी विदेशों में जाकर दाता एजेंसियों के तलवे चाटती रहती हैं .... जहां तक एक भी दलित चिंतक के भगत की शहादत को याद नहीं करने का प्रश्न है, जानीबूझी इस अक्षम्य कारस्तानी के पीछे इसी तरह की ढेर सारी ऐतिहासिक गलतियां और साजिशें हैं।’
कुमार सौवीर का मानना था कि सार्थक विरोध को कभी भी किसी निंदापरक विरोध की बैसाखी की जरूरत नहीं होती है। शरद श्रीवास्तव ने पुनः लिखा कि भारत की आजादी के आंदोलन में ब्रिटेन की दो पार्टियों की आपसी राजनीति और उनकी भारत के प्रति नीति का भी अच्छा खासा रोल रहा है। कंजरवेटिव पार्टी हमेशा भारत के खिलाफ रही, लेबर पार्टी भारत को अधिक अधिकार दिये जाने की पक्षधर रही। 1931 मे लेबर पार्टी की सरकार थी। इससे पहले 1890 मे लेबर पार्टी की सरकार थी और तब भी भारत के लिए उसने कई महत्वपूर्ण निर्णय किए थे। लेबर पार्टी की सरकार ने लार्ड इरविन को भारत मे चल रहे आंदोलन से बात चीत करने के लिए कहा और लार्ड इरविन ही पहले वायसराय थे जिनहोने पहली बार बाकायदा घोषणापत्र जारी करके कांग्रेस को भारत का नुमाइंदा कहा और गोल मेज सम्मेलन के लिए आमंत्रित किया जिसमे भारत को अधिक अधिकार दिये जाने की बात होनी थी। लॉर्ड इरविन ने बातचीत का माहौल तैयार करने के लिए गांधी जी की कई शर्ते भी मानी। यहाँ तक कहा जाता है की लार्ड इरविन ने लिखित मे कांग्रेस से समझौता करके अंग्रेज़ो के ताबूत मे पहली कील ठोकी और कांग्रेस को एक अधिकृत पार्टी होने का भारत की आवाज होने का प्रमाणपत्र दे दिया। ऐसे हालात मे जब वायसराय बातचीत का इच्छुक था, सरकार अनुकूल थी, तब भी गांधी जी ने बातचीत करने से पहले रखी गयी शर्तों मे भगत सिंह एवं उनके साथियों की फांसी रोकने की मांग क्यों नहीं की इस पर अचरज होता है।’
उमाशंकर राय ने लिखा कि यह ऐतिहासिक तथ्य है..भगत सिंह खुद भी नहीं चाहते थे कि गांधी या कोई उनके लिए अंग्रेजी हुकूमत से गुहार लगाए..लेकिन तमाम नेता गांधी से गुजारिश कर रहे थे कि रिहाई नहीं तो कम से कम उम कैद में बदलवाने के लिए वायसराय से बात करें..इसी बिंदू पर बात अटकी रही। शादाब खान ने लिखा - ‘मैं तो जिन्नाह को माफ कर देता डायरेक्ट एक्शन के लिए...पर कमबख्त भारत रुका ही नहीं। निकल गया हत्थे से।’ इस पर सुमंत भट्टाचार्य ने लिखा- सवाल का दूसरा हिस्सा जिन्नाह और अंबेडकर की खामोशी पर है। इतिहास का कोई अछूता दस्तावेज हो तो सामने लाइए मित्र।’