Thursday 20 June 2013

‘वह भी कोई देस है महाराज’


किताबों की बहुरंगी दुनिया में एक किताब है-वह भी कोई देस है महाराज। अनिल यादव की यह किताब पूर्वोत्तर राज्यों के जीवन, जंगल, वहां की पीड़ा एवं संस्कृति से रूबरू कराती है। असल में यह यात्रा वृतांत है जिसे लेखक ने बहुत शिद्दत के साथ लिखी है। साथ ही उन राज्यों की संवेदना को भावनात्मक एवं रागात्मक रूप में पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।

पुरानी दिल्ली के भयानक गंदगी, बदबू और भीड़ से भरे प्लेटफार्म नंबर नौ पर खड़ी मटमैली ब्रह्मपुत्र मेल को देखकर एकबारगी लगा कि यह ट्रेन एक जमाने से इसी तरह खड़ी है। अब कभी नहीं चलेगी। अंधेरे डिब्बों की टूटी खिड़कियों पर उल्टियों से बनी धारियां झिलमिला रही थीं जो सूख कर पपड़ी हो गईं थीं। रेलवे ट्रैक पर नेवले और बिल्ली के बीच के आकार के चूहे बेखौफ घूम रहे थे। 29 नवंबर की उस रात भी शरीर के खुले हिस्से मच्छरों के डंक से चुनचुना रहे थे। इस ट्रेन को देखकर सहज निष्कर्ष चला आता था कि चूंकि वह देश के सबसे रहस्यमय और उपेक्षित हिस्से की ओर जा रही थी इसलिए अंधेरे में उदास खडी थी।
इसी पस्त ट्रेन को पकड़ने के लिए आधे घंटे पहले, हम दोनों यानि शाश्वत और मैं तीर की तरह पूर्वी दिल्ली की एक कोठरी से उठकर भागे थे। ट्रेन छूट न जाए, इसलिए मैं रास्ते भर टैक्सी ड्राइवर पर चिल्ला रहा था। हड़बड़ी में मेरे हैवरसैक का पट्टा टूट गया, अब गांठ लगाकर काम चलाना पड़ रहा था। यह हैवरसैक और एक सस्ता सा स्लीपिंग बैग उसी दिन सुबह मेरे दोस्त शाहिद रजा ने अपने किसी पत्रकार दोस्त लक्ष्मी पंत के साथ ढूंढकर, किसी फुटपाथ से खरीद कर मुझे दिया था। मैं पूर्वोत्तर के बारे में लगभग कुछ नहीं जानता था। कभी मेरे पिता डिब्रूगढ़ के एयरबेस पर तैनात रहे थे। वहाँ व्यापार करने गए एक रिश्तेदार की मौत ब्रह्मपुत्र में डूबकर हो गई थी। उनका रूपयों से भरा बैग हाथ से छूटकर नदी में गिर पड़ा था और उसे उठाने की कोशिश में स्टीमर का ट्यूब उनके हाथ से छूट गया था। मेरे ननिहाल के गाँव के कुछ लोग असम के किसी जिले में खेती करते थे। इन लोगों से और बचपन में पढ़ी सामाजिक जीवन या भूगोल की किताब में छपे चित्रों से मुझे मालूम था कि वहाँ आदमी को केला कहते हैं। चाय के बगान हैं जिनमें औरतें पत्तियां तोड़ती हैं। पहले वहाँ की औरतें जादू से बाहरी लोगों को भेड़ा बनाकर, अपने घरों में पाल लेती थी, चेरापूंजी नाम की कोई जगह हैं जहाँ दुनिया में सबसे अधिक बारिश होती है।
इसके अलावा मुझे थोड़ा बहुत असम के छात्र आंदोलन के बारे में पता था। खास तौर पर यह कि अस्सी के दशक के आखिरी दिनों में बनारस में तेज-तर्रार समझे जाने वाले एक-दो छात्रनेता फटे गले से माइक पर चीखते थे, गौहाटी के अलाने छात्रावास के कमरा नंबर फलाने में रहने वाला प्रफुल्ल कुमार मंहतो जब असम का मुख्यमंत्री बन सकता है तो यहाँ का छात्र अपने खून से अपनी तकदीर क्यों नहीं लिख सकता। इन सभाओं से पहले भीड़ जुटाने के लिए कुछ लड़के, लड़कियां भूपेन हजारिका के एक गीत का हिंदी तर्जुमा गंगा तुम बहती हो क्यों गाया करते थे।
हैवरसैक में कभी यह गीत गाने वाले दोस्त, पंकज श्रीवास्तव की दी हुई (जो उसे किसी प्रेस कांफ्रेस में मिली होगी) एक साल पुरानी सादी डायरी थी जिस पर मुझे संस्मरण लिखने थे। आधा किलो से थोड़ा ज्यादा अखबारी कतरनें थी, दो किताबें (वीजी वर्गीज की नार्थ ईस्ट रिसर्जेंट और संजय हजारिका की स्ट्रेंजर्स इन द मिस्ट) थीं जिन्हें तीन दिन की यात्रा में पढ़ा जाना था। किताबें एक दिन ही पहले कनाट प्लेस के एक चमाचम बुक मॉल से बिना कन्सेशन का आग्रह किए शाश्वत के क्रेडिट कार्ड पर खरीदी गई थीं। कुछ गरम कपड़े थे वहीं बगल में जनपथ के फुटपाथ से छांटे गए थे। वहीं से खरीद कर मैने शाश्वत को एक चटख लाल रंग की ओवरकोटनुमा जैकेट, ड्राई क्लीन कराने के बाद शानदार पैकेजिंग में भेंट कर दी थी। बड़ी जिद झेलने के बाद मैने जैकेट की कीमत नौ हजार कुछ रूपये बताई थी जबकि वह सिर्फ तीन सौ रूपये में ली गई थी। वही पहने, स्टेशन की बेंच पर बैठा वह बच्चों को दिया जाने वाला नेजल ड्राप ऑट्रिविन अपनी नाक में डाल रहा था। उसकी नाक सर्दी में अक्सर बंद हो जाया करती थी। बीच-बीच में वह जेब से निकाल कर गुड़ और मूंगफली की पट्टी खा रहा था। उसे पूरा विश्वास था कि पूर्वोत्तर जाकर हम लोग जो रपटें और फोटो यहाँ के अखबारों, पत्रिकाओं को भेजेंगे, उससे हम दोनों धूमकेतु की तरह चमक उठेगे और तब चिरकुट संपादकों के यहाँ फेरा लगाकर नौकरी मांगने की जलालत से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाएगा।
शाश्वत की अटैची में यमुना पार की कोठरी की सहृदय मालकिन के दिए पराठे, तली मछली और अचार था, तीन फुलस्केप साइज की सादी कापियां थीं।
अपनी-अपनी करनी से मैं पिछले एक साल से और वह पांच महीनों से बेरोजगार था। कई बार वह सुबह-सुबह नौकरी का चक्कर चलाने किसी अखबार मालिक या संपादक से मिलने हेतु जिस समय तैयार होकर दबे पाँव निकलने को होता, मैं रजाई फेंक कर सामने आ जाता। मैं साभिनय बताता था कि छोटी सी नौकरी के लिए डीटीसी की बस के पीछे लपकता हुआ वह कैसे किसी अनाथ कुत्ते की तरह लगता है। खोखली हंसी के साथ उसका एकांत में संजोया हौसला टूट जाता, नौकरी की तलाश स्थगित हो जाती और मैं वापस रजाई में दुबक जाता। मैं खुद भी अवसाद का शिकार था। उस साल मैने कई महीने एक पीली चादर फिर रजाई ओढ़कर अठारह-अठारह घंटे सोने का रिकार्ड बनाया था। इसी मनःस्थिति में हताशा से छूटने, खुद को फिर से समझने और अनिश्चय में एक धुंधली सी उम्मीद के साथ यह यात्रा शुरू हो रही थी।
उत्तर-पूर्व जाकर मैं करुंगा क्या, इसका मुझे बिल्कुल अंदाज नहीं था। इसलिए मैने खुशवंत सिंह, राजेंद्र यादव, प्रभाष जोशी, मंगलेश डबराल, आनंद स्वरूप वर्मा, राजेंद्र घोड़पकर, अभय कुमार दुबे, यशवंत व्यास, रामशरण जोशी, रामबहादुर राय, अरविंद जैनादि के पास जाकर एक काल्पनिक सवाल पूछा था और उनके जवाब एक कागज पर लिख लिए थे। सवाल था- “जनाब। फर्ज कीजिए कि आप इन दिनों उत्तर-पूर्व जाते तो क्या देखते और क्या लिखते?”
जैसा हवाई सवाल था, वैसे ही कागज के जहाजों जैसे लहराते जवाब भी मुझे मिले। इन्हीं जवाबों को गुनते-धुनते मैं अपना और शाश्वत का मनोबल ट्रेन में बैठने लायक बना पाया था। हंस के संपादक राजेंद्र यादव का कहना था कि इस यात्रा में कोई लड़की मेरे साथ होती तो ज्यादा अच्छा होता। इससे वहाँ के समाज को समझने में ज्यादा सहूलियत होती और मीडिया में हाईप भी बढिया मिलती। सबसे व्यावहारिक सुझाव, रियलिस्टक स्टाइल में खुशवंत सिंह ने दिया था। मिलने के लिए निर्धारित समय से बस आधे घंटे लेट उनके घर पहुंचा तो बताया गया कि मुलाकात संभव नहीं है। पड़ोस के एक पीसीओ से फोन किया तो व्हिस्की पी रहे बुड्ढे सरदार ने कहा,
“पुत्तर तुम नार्थ-ईस्ट जाओ या कहीं और, मुझसे क्या मतलब।”
अपने कागज पर मैने खुशवंत सिंह के नाम के आगे लिखा,
“जरूर जाओ बेटा। बहुत कम लोग ऐसा साहस करते हैं। मैं तुम लोगों का यात्रा-वृत्तांत अंग्रेजी में पेंग्विन या वाइकिंग जैसे किसी प्रकाशन में छपवाने में मदद करूंगा।”
यह शाश्वत को पढ़वाने के लिए था क्योंकि पैसा उसी का लग रहा था। खुशवंत सिंह के आशीर्वचन का पाठ करते हुए मुझे अपने छोटे भाई सुनील की याद आई। छुटपन में उसे साइकिल पर खींचते-खींचते जब मैं थक जाता था, इसे भांप कर वह कहता था कि बगल से गुजर रहे दो आदमी आपस में बातें कर रहे थे यह लड़का हवाई जहाज की तरह साइकिल चलाता है। मैं उसका चेहरा नहीं देख पाता था क्योंकि वह डंडे पर बैठा होता था।
ब्रह्मपुत्र मेल की पहली सीटी और धकमपेल के बीच हम लोग भीतर घुसे तो कूपे में असम राइफल्स के मंगोल चेहरे वाले सैनिक अपना सामान जमा रहे थे। निर्लिप्त, तटस्थ, खामोश कुशलता से कूपे के खाली कोनों-अंतरों में वे अपने ट्रंक, होल्डाल, किटबैग, हैवरसैक रखे जा रहे थे। अंदाजा इतना सटीक कि जैसे वे खाली जगहें खासतौर पर उन्हीं सामानों के आकार-प्रकार के हिसाब से बनाई गईं थीं।
ऊपर की एक बर्थ पर लेटने की तैयारी कर चुके एक युवा सरदार जी, विदा करने आए एक परिजन को बता रहे थे कि उन्हें सीट तो बगल के डिब्बे में मिली थी लेकिन वहाँ सामने एक नगा बंदा था जो बहुत तेज बास मार रहा था। इसलिए कंडक्टर से कह कर डिब्बा बदलवा लिया। पता नहीं उन्हें, उस नगा बंदे से क्या परेशानी थी। शायद उसकी आधी ढकी, भीतर भेदती आँखों ने उनके मन के परदे पर हेड-हंटिंग, कुकुर भात और आतंकवाद की कोई हॉरर फिल्म चला दी होगी और दिल्ली से कमा कर देस लौटते निरीह और भुक्खड़ बिहारियों के सुरक्षित दलदल में आ धंसे। दिल्ली की बस में वे उन्हें अपने शरीर से छूने भी नहीं देते होंगे, क्योंकि बिहारी यहाँ एक गाली है।
ट्रेन थोड़ा-सा खिसक कर रूक गई। तभी गूंजे धरती आसमान-राम विलास पासवान का नारा लगाती, जवानी की धुंधली फोटो कापी, बिहारी नौजवानों की भीड़ डिब्बे में आ घुसी। वे सबसे किनारे की सीटों पर सस्ती अटैचियों, दिल्ली मॉडल के टू-इन-वन और फुटपाथों से खरीदे रंग-बिरंगे कपड़ो के ढेर के साथ काबिज होने लगे और रिजर्वेशन वाले यात्री अपने सामानों से अपनी बर्थों की किलेबंदी करते हुए पसरने लगे। वे अपनी देह भाषा में रैली से लौट रहे इन बेटिकट, दलित कार्यकर्ताओं का विरोध कर रहे थे।
डिब्बे में दो कंडक्टर घुसे। उन्होंने लुंगी पहने एक मरियल से लड़के से टिकट मांगा। लड़का सहमी, पीली आंखों से उन्हें ताकता ही रह गया। कुछ बोल पाता इससे पहले ही उनमें से एक ने उसे कसकर तमाचा जड़ दिया और सबको नीचे उतारने लगा। एक दढ़ियल युवक ने प्रतिवाद किया, पासवान जी की रैली में आए हैं जी टिकठ काहे लेंगे। जैसे आए थे, वैसे ही जाएंगे।
इनसे पूछिए कि इस डिब्बे में आने की इन सबों की हिम्मत कैसे पड़ी। पीछे किसी बर्थ से आवाज आई।
चलो हमारा घर भी खाली पड़ा है, वहाँ भी कब्जा कर लोगे। जाओ पासवान से पैसा लेकर आओ, रिजर्वेशन कराओ, तब यहाँ बैठो। दोनों कंडक्टर अब तक रैली वाले युवकों पर हावी हो चुके थे, पासवान जब रेल मंत्री था, तब था। अब वह हमारा कुछ नहीं कर सकता। बेटा, ट्रेड यूनियन के लीडर हैं, एक-एक को पटक के यहीं मारेंगे। पब्लिक भी अभी बताने लगेगी कि तुम्हारे पासवान की क्या औकात है। चलो चुपचाप उतरो।
दलित युवक चुपचाप उतर कर जनरल डिब्बों की ओर बढ़ गए। जैसे वे किसी शवयात्रा में जा रहे हों। जिस राजनीति और संगठन की शक्ति ने उन्हें ट्रेन में बिना टिकट सवार होने की हिम्मत दी थी, उसी संगठन का डर दिखाकर दो कंडक्टरों ने उन्हें नीचे उतार दिया। कंडक्टरों का हाथ भी दलित कार्यकर्ताओं पर ही छूटता है। महेंद्र सिंह टिकैत के साथ रैलियों में जाने वाले मुजफ्फर नगर, बागपत के जाट वातानुकूलित डिब्बों के परदे तक नोंच कर चिलम पर तमाखू के साथ पी जाते हैं तब ये टिकट बाबू किसी कोने में सिमटे हुए अपनी जान और नौकरी की खैर मनाते रहते हैं।
ट्रेन चली कि असम राइफल्स के सैनिकों ने बोतल खोल ली। वे अपने मगों और प्लास्टिक के डिस्पोजेबल गिलासों में रम पीने लगे। थोड़ी ही देर में उनकी खामोशी टूटी। किसी अबूझ भाषा में एक दूसरे से उलझी, लंबी, उछलती रस्सियों की तरह उनकी बातें डिब्बे में फैलने लगीं। जिनके साथ परिवार थे चौकन्ने हो गए और जो करीब की बर्थों पर थे, कुछ इंच ही विपरीत दिशाओं में सरकने लगे। जीआरपी के एक अधेड़ सिपाही ने फौजियों की तरफ हाथ उठाकर कुछ कहने की कोशिश की लेकिन उनकी तरह कोई प्रतिक्रिया न पाकर, बड़बड़ाता हुआ आगे बढ़ गया। यह मंगोल भारत था जिसका गंगा के मैदान वाले आर्य सिपाही से संवाद कठिन था।
पैंट्री कार से डिब्बे में बार-बार आते एक रेखियाउठान बेयरे का नाम बड़ा काव्यात्मक था। उसकी लाल रंग की सूती वर्दी पर काले रंग की नेम प्लेट लगी थी जिस पर सफेद अक्षरों में लिखा था, सजल बैशाख। उसकी मिचमिची आँखों और उजले दांतो को देखते हुए ख्याल आया कि बरसात तो आषाढ़ में शुरू होती है, बैसाख कैसे सजल हो सकता है। कहीं चकित करने के लिए ही तो उसका नाम नही रखा गया है। अगले दिन नाश्ते के समय मैने उससे पूछा कि बैशाख कैसे सजल हो गया है। वह इत्मीनान से देर तक हंसता रहा। पहले भी उससे यह सवाल कइयों ने पूछा होगा। प्रतिप्रश्न आया, आप पहली बार आसाम जा रहा है क्या। मेरे सिर हिलाने पर उसने कहा, जब थोड़ा दिन उधर बैठेगा तो अपने ही जान जाएगा कि वहाँ बैशाख मे मानसून ही नहीं आता, बाढ़ भी आ जाती है। य़ह पूर्वोत्तर की पहली झलक थी जो मुझे मुगलसराय से बिहार के बीच कहीं मिली।
दिन में जिस, पहले रोबीले मुच्छड़ ने मेरी बर्थ पर अतिक्रमण किया, मेरे जिले गाजीपुर के निकले, गहमर गांव के वीरेंद्र सिंह। पंद्रह दिन छुट्टी बिता कर निचले असम के बोंगाई गांव जा रहे थे जहाँ वे बीएसएफ की बटालियन में तैनात थे। गांव-जवार का होने के कारण या फिर अपने अतिक्रमण को वैधता देने के लिए मेरी तरफ खैनी बढ़ाते हुए उन्होंने सलाह दी कि जा रहे हैं तो वहाँ जरा मच्छड़ और छोकड़ी से बचिएगा, तब गाजीपुर लौट पाइएगा।
मारिए वह भी कोई देश है महाराज। यह उनका तकिया कलाम था।
वह बता रहे थे कि कुनैन की गोली, बीएसएफ में जवान को कतार में खड़ा कर, मुँह पर मुक्का मार कर खिलाता है और मच्छरदानी में सोने का सख्त आर्डर है। नहीं मानने पर फाइन होता है। जान हमेशा पत्ते पर टंगी रहती है कि न जाने किधर से आल्फा या बोडो वाला आकर टिपटिपाने लगेगा। उग्रवादी भीड़ में ऐसे घूमते हैं जैसे पानी में मछली। उनके होने का तभी पता चलता है जब दो-चार आदमी गिरा दिए जाते हैं।
जैसे पानी में मछली- मैं मोंछू की उपमा पर चकित था। यही तो शिलाँग के सेंट एडमंडस कालेज से अंग्रेजी और लंदन से पत्रकारिता पढ़े संजय हजारिका की किताब में भी लिखा था। यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम (उल्फा) का कमांडर परेश बरूआ एक बार तिनसुकिया में कालेज के लड़कों की टीम में शामिल होकर असम पुलिस की टीम के साथ फुटबाल मैच खेल कर निकल गया। तीन दिन बाद पुलिस को पता चला तब तक करीब के जंगल से उल्फा के कैंप उखड़ चुके थे।
सामने की बर्थ पर बारह-पंद्रह एयरबैगों, बोरियों, पालीथिनों से घिरी सहुआईन बैठी थीं। उनके पति को दूसरे डिब्बे में सीट मिली है इसलिए हर दो घंटे बाद कहती हैं, भइया देखे रहिएगा साथ में दो लड़कियां हैं। उनकी मणिपुर और बर्मा के बीच भारत के आखिरी कस्बे मोरे में परचून की दुकान है। गोरखपुर से मोरे कैसे पहुंच गए। कहती हैं, किस्मत भइय़ा।
आठ और ग्यारह साल की उनकी दो लड़कियां एक सरकारी स्कूल में पढ़ती हैं और निराली अंग्रेजी बोलती हैं। वे एक दूसरे को मैन कहती हैं। सहुआइन अपनी निःशब्द भाषा में उन्हें प्रोत्साहित करती हैं और फिर संतुष्ट भाव से डिब्बे में पड़े प्रभाव का मुआयना करती हैं।
“मम्मा गेभ मी ओनली तीन टाका टू टेक झालमूड़ी। भ्हाई शुड आई गिभ दैट टू यू। टेक फ्राम योर मनी मैन।”
सहुआइन मोंछी को बता रही हैं। बिना दाढ़ी-मोंछ वाला, छोटा-छोटा लड़का मलेटरी-पुलिस सबके सामने आता है। टैक्स मांगता है। देना पड़ता है। नहीं तो जान से मार देगा।
हमारी दुकान के आगे एक मास्टर को मार दिया। बहुत शरीफ मास्टर था। सबसे प्रेम से बोलता था लेकिन तीन महीना से टैक्स नहीं दिया था। हम लोगों की भाषा बोलने पर रोक लगा दिया है। कहता है कोई भाषा बोलो हिंदी मत बोलो। भूल से जबान फिसल जाए तो टोकता है गाली देता है।
………तो यह निराली अंग्रेजी भारत और बर्मा की अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर रह रहे बाहर के बच्चों की भाषा है जिसका आविष्कार उन्होंने जीवित रहने के लिए किया है।
तो छोड़ दीजिए, “आकर गोरखपुर में परचून की दुकान चलाइए।” शाश्वत स्लीपिंग बैग की भीतर से निंदियाई आवाज में सलाह देता है।
“नहीं भईया। जो मजा मोरे में है वह आल इंडिया में भी नहीं मिलेगा।”
“मारिए, वह भी कोई देस है महाराज।”
मोंछू का देस वह नहीं है जो बचपन में हम लोगों को भूगोल की किताब में राजनीतिक नक्शे के जरिए पहचनवाया गया था। वह भी नहीं है जिसे प्रधानमंत्री पंद्रह अगस्त को लालकिले से संबोधित करते हैं। दरअसल वह अपने देश से जाकर परदेस में नौकरी कर रहा है। हैवरसैक में रखे अखबारों की कतरनों के फोटोग्राफ्स मेरी आँखो के सामने घूम गए जिनमें कलात्मक लिखावट में नारे लिखे हुए थे- इंडियन डॉग्स गो बैक। ये कहाँ के कुत्ते हैं जो भारतीय कुत्तों को अपने इलाके से खदेड़ रहे हैं। डेल्ही इज स्टेप मदर टू सेवन सिस्टर्स। ये सात बहनें दूसरी किन लड़कियों को ताना दे रही हैं। एज क्रो फ्लाइज, इट इज क्लोजर टू हनोई दैन टू न्यू डेल्ही। यह क्यों बताया जा रहा है कि हम डेल्ही वालों के मुहल्ले में आकर गल्ती से बस गए हैं। अचानक लगा कि उस देस वाले, इधर के देस को लगातार गाली दे रहे हैं तो वहाँ जाती ट्रेन भी कुछ न कुछ जरूर कह रही होगी। मैं आँख बंद कर सारी आवाजों को सुनने को कोशिश करने लगा। सरसराती ठंडी हवा और अनवरत धचक-धक-धचक के बीच कल से व्यर्थ, रूटीन लगती बातों के टुकड़े डिब्बे में भटक रहे हैं। उन्हें बार-बार दोहराया जा रहा है। इतनी भावनाओं के साथ अलग-अलग ढंग से बोले जाने वाले इन वाक्यों के पीछे मंशा क्या है।
हालत बहुत खराब है।
वहाँ पोजीशन ठीक नहीं है।
माहौल ठीक नहीं है।
चारो तरफ गड़बड़ है।
आजकल फिर मामला गंडोगोल है।
जैसे लोग किसी विक्षिप्त और हिंसक मरीज की तबीयत के बारे में बात कर रहे हैं जिसके साथ, उन्हें उसी वार्ड में जैसे-तैसे गुजर करना है।
बिहार बीत चुका था। खिड़की के बाहर सत्यजीत रे की कोई फिल्म चल रही थी। मालदा के बंगाल के गांव गुजर रहे थे। सादे से घरो के आगे हरियाली से घिरा पुखुर और धान के कटे, अनकटे खेतों पर क्षितिज तक छाया नीलछौंहा विस्तार। ट्रेन में मिष्टीदोई, झालमुडी और हथकरघे पर बने कपड़े बिक रहे थे।
थोड़ी ही देर बाद न्यू जलपाईगुड़ी यानि एनजेपी आते ही हम लोग ग्राम बाँग्ला से उड़कर चीनी सामानों से भरी किसी विदेशी गली में आ गिरे। एक के पीछे एक सैकड़ो वेंडर जो चीनी कैमरे, टेलीविजन, कैलकुलेटर, मोबाइल, फोन, घड़ियां, टेपरिकार्डर, इलेक्ट्रानिक खिलौने, कंबल, बाम चीखते हुए बेच रहे थे। ऊपर से नीचे से तक सामानों से लदे वे चीन के व्यापारिक दूत लग रहे थे। प्लेटफार्म पर बिक रही सारी सिगरेटें विदेशी थी। यहाँ की सिगरेटों से लंबी और बेहद सस्ती। चीनी दूतों की तादात इतनी ज्यादा थी कि सारंगी और इकतारा लिए भिखारी ट्रेन में नहीं घुस पा रहे थे।
राजनीति की भाषा में एनजेपी को चिकेन्स नेक कॉरिडोर कहा जाता है। यह मुर्गे की गर्दन जितना दुबला यानि सिर्फ इक्कीस किलोमीटर चौड़ा गलियारा है जहाँ से पूर्वोत्तर से आती तेल और गैस की पाइपलाइनें गुजरती हैं। अक्सर पूर्वोत्तर के आंदोलनकारी इस मुर्गे की गरदन मरोड़ देने की धमकी देते रहते हैं। ऐसा हो जाए तो गैस और तेल की सप्लाई ही नहीं बंद होगी, पूर्वोत्तर का शेष देश से संपर्क भी कट जाएगा। तब कलकत्ता से गौहाटी के लिए हवाई जहाज पकड़ना होगा।
वेंडरों, अखबारों और जहाँ-तहां नेटवर्क पकड़ते मोबाइल फोनों के जरिए ट्रेन में खबरें आ रही थीं कि असम हिंदी भाषियों को मारा जा रहा है। बिहारियों के घर जलाए जा रहे हैं। तिनसुकिया और अरूणाचल के बीच कहीं सादिया कुकुरमारा में दो दिन पहले उल्फा ने तीस बिहारियों को भून डाला। उनकी लाशें अब भी वहीं सड़ रही हैं। इनमें से सभी मजदूर थे जो तेजू में लगने वाली साप्ताहिक हाट से राशन खरीद कर एक ट्रक में सवार होकर लौट रहे थे। उन्हें जंगल में ट्रक रोक कर उतारा गया, कतार में खड़ा कर नाम पूछे गए और फिर गोली से उड़ा दिया गया। लौटती ट्रेनों में जगह नहीं है क्योंकि बिहारी अपने घर, जमीनें छोड़ कर असम से भाग रहे हैं। पिछले एक हफ्ते में पचपन से अधिक बिहारी मारे गए हैं।
संजय हजारिका की किताब में खून, बारूद, गुरिल्ला, मैमनसिंघिया मुसलमान, शरणार्थी और घुसपैठिये थे। वर्गीज की किताब में संधिया, समझौते, राजनीति के दांव-पेंच, प्रशासनिक सुधार और इतिहास थे। दोनों को पढ़ते और ऊंघते हुए मुझे लगा कि यह ट्रेन मजबूर लोगों से भरी हुई है। उन्हें वहाँ लिए जा रही है जहाँ वे जाना नहीं चाहते। रोजी, व्यापार, रिश्तों की हथकड़ियों से जकड़ कर वे बिठा दिए गए हैं। वे जानते हैं कि वहाँ मौत नाच रही है फिर भी जा रहे हैं। तभी अचानक लंबी यात्रा की के बेफिक्र आलस की जगह डिब्बों चौकन्नापन पंजो के बल चलता महसूस होने लगा। तीन को छोड़ कर बाकी भाषाएँ और बोलियां भयभीत, फुसफुसाने लगीं। ये तीन नई भाषाएँ थीं असमिया, अंग्रेजी और यदा-कदा बांग्ला। मैने स्लीपिंग के भीतर नाखून चबा रहे शाश्वत की ओर देखा। थोड़ी देर बाद उसने कहा, अबे जब दुर्भाग्य यहाँ तक ले ही आया है तो आगे जो होगा देखा जाएगा।
असम में प्रवेश करते ही हरियाली का जैसे विस्फोट होता है। सूरज की रोशनी में कौंधती, काले रंग को छूती हरियाली। खिड़कियों, मकानों की दरारों, पेड़ो के खोखलों से कचनार लताएं झूलती मिलती है जो हर खाली जगह को नाप चुकी होती हैं।
बाँस, नारियल, तामुल, केले के बीच काई ढके ललछौंहे पानी के डबरों और पोखरों से घिरे गांव। घरों और खेतों के चारों और बांस की खपच्चियों का घेरा। सीवान में हर तरफ नीली धुंध। छोटे-छोटे स्टेशन और हाल्ट गुजर रहे थे- न्यू बंगाई गांव, नलबाड़ी, बारपेटा, रंगिया….अखबारों में छपी रपटें, तस्वीरें बता रही थीं कि ये वही जगहें हैं जहाँ पिछले दिनों हिंदीभाषियों की हत्याएं की गईं हैं। एक वेंडर से लाल सा और कोई लोकल नमकीन लेते हुए मुझे धक से लगा कि मेरे बोलने में खासा बिहारी टोन है जो जरा सा असावधान होते ही उछल आता है।
हमारा नाम अनील यादव है।
मैं पता नहीं अपने सिवा किन और लोगों को अपने भीतर शामिल करते हुए अपने नाम को खींचता हूं। मैने पहली बार गजब आदमी देखा जो बांस की बडी अनगढ़ बांसुरी लिए था। यात्रियों से कहता था, गान सुनेगा गान। अच्छा लगे तब टका देगा। अपने संगीत पर ऐसा आत्मविश्वास। बहुत मन होते हुए भी उसे नहीं रोक पाया। शायद सोच रहा था कि क्या पता वे लोग इन तरीकों से हिंदी बोलने वाले लोगों की ट्रेनों में शिनाख्त कर रहे हों। मे आई सिट हियर ऑनली फॉर थ्री मिनिटस, छाता और बैग लिए एक अधेड़ ने मुझसे पूछा। मैं एक तरफ खिसक गया। उन्होंने बताया कि ब्रह्मपुत्र पार करने में ट्रेन को तीन मिनट लगते हैं, उसके बाद गौहाटी है। सारी खिड़कियाँ पीठों से ढंक गईं। लोग खासतौर पर महिलाएं जान-माल की सलामती की कामना बुदबुदाते हुए, नीली धुंध में पसरी दानवाकार नदी में सिक्के फेंक रहे थे।

किताबों की बात जो पढ़े उसका भी भला, जो न पढ़े उसका भी

सुधा अरोड़ा की प्रिय किताबें
प्रसिद्ध कथाकार सुधा अरोड़ा कहती हैं कि मुझे सबसे अधिक संस्मरण और डायरी पसंद हैं. सीमोन द बोउवार की किताब सेकेंड सेक्स, विष्णु प्रभाकर की आवारा मसीहा, धर्मवीर भारती की ठेले पर हिमालय और फिल्मकार एलिया कजां की आत्मकथा बहुत पसंद हैं. ममता कालिया का उपन्यास दुक्खम सुक्खम. डॉ रवींद्र कुमार पाठक की नई किताब आई है जनसंख्या समस्याः स्त्री पाठ के रास्ते. रवींद्र जी ने अच्छी किताब लिखी है. पसंद तो समय-समय पर बदलती रहती है. कभी कोई ज्यादा पसंद आता है तो कभी कोई. वैसे राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव, प्रेमचंद, अज्ञेय, (धर्मवीर) भारती जी, मन्नू (भंडारी) जी, कृष्णा सोबती पसंद हैं. नए लेखकों में खास तौर से नीलाक्षी सिंह पसंद हैं. इनके अलावा चंदन पांडेय, अल्पना पांडेय और (प्रेमरंजन) अनिमेष अच्छा लिख रहे हैं. बहुत-से लेखक बहुत अच्छा लिखकर भी गुमनाम रह जाते हैं. चंद्रकिरण सोनरेक्सा की पिंजरे की मैना, कुसुम त्रिपाठी की किताब जब स्त्रियों ने इतिहास रचा और डॉ रवींद्र की ऊपर बताई किताब  ऐसी ही किताबों में हैं. मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा गुड़िया भीतर गुड़िया ऐसी किताबों में है.

गोविन्द मिश्र, मंजूर एहतेशाम, प्रेमपाल शर्मा, पंकज बिष्ट और कमला प्रसाद की प्रिय किताबें
गोविन्द मिश्र कहते हैं कि आज के लेखकों के लेखन में स्थूलता बढती ही जा रही है मगर मुझे लेखन में सूक्ष्म यथार्थ का प्रकटन ही पसंद है। शैलेश मटियानी का उपन्यास 'गोपली गफूरन' प्रिय किताब है। एक बडी क़िताब वह होती है जिसमें कईतरह के इंटरप्रिटेशन हों। इस मायने में यह एक बडी क़िताब है। मंजूर एहतेशाम कहते हैं कि मेरी कही गई बात इस फकीर की बात है, जो सुने उसका भी भला और जो न सुने उसका भी भला। सलमान रश्दी की 'मिडनाइट चिल्ड्रन' का यथार्थ स्वतन्त्रता के बाद यथार्थ है। और इस तरह से इस यथार्थ की बारीकियों को रेखांकित करना किसी चमत्कार से कम नहीं है। प्रेमपाल शर्मा कहते हैं कि मेरी प्रिय पुस्तक हर दो वर्ष बाद बदल जाती है। पंकज बिष्ट की 'लेकिन दरवाजा', सुरेन्द्र वर्मा कृत 'मुझे चांद चाहिए', श्रीलाल शुक्ल का 'राग दरबारी' व वर्गीज क़ुरियन की किताब 'सपना सच हो गया' मेरी प्रिय किताबें हैं। प्रसिध्द कथाकार व समयान्तर के संपादक पंकज बिष्ट कहते हैं कि मेरे लिए यथार्थ लेखन वह है, जो वृहत्तर समाज के हितों की बात करे। मेरी प्रिय पुस्तक 'राग दरबारी' में जीवन का कोई पहलू ऐसा नहीं जिस पर यह उपन्यास टिप्पणी न करता हो। आज जब नई आर्थिक नीतियों के कारण आमजन का जीवन बदहाल होता जा रहा है ऐसे में ग्रामीण जीवन पर केन्द्रित यह उपन्यास स्वत: ही महत्वपूर्ण हो जाता है। अपनी प्रिय पुस्तक के संदर्भ में 'वसुधा' पत्रिका के संपादक व सुप्रसिध्द आलोचक कमला प्रसाद मुक्तिबोध के उपन्यास 'विपात्र' व हरिशंकर परसांई की 'एक साहित्यिक की डायरी' के मुरीद रहे। (संगमन के समारोह से साभार)

किताबों के लिए पागल मन

राजी सेठ की प्रिय किताबें
मुझे उन किताबों से लगाव रहा है जिनमें लेखक का मन खुलता है और कुछ अनौपचारिक बातें सामने आती हैं। 'लेटर्स टू अ यंग पोएट' को जर्मन कवि राइनेर मारिया रिल्के द्वारा कविता लिखने की इच्छा रखने वाले एक युवा को लिखे गए इन दस पत्रों की पुस्तक को मैं अपने जीवन में पढ़ी हुई बेहतरीन किताबों में से एक मानती हूं। रिल्के ने न सिर्फ कविता या लेखन के बारे में, बल्कि जीवन के बारे में भी ऐसी बुनियादी महत्व की बातें कही हैं, जो मुझे उम्र के इस पड़ाव में भी बहुत प्रासंगिक लगती हैं। हिंदी कवि 'अज्ञेय' की किताब 'भवन्ती' दरअसल उनकी नोटबुक है, लेकिन यह उस तरह का पारंपरिक नोटबुक नहीं है, जिसमें सूचनाओं और रोजमर्रा के ब्योरों का अंबार रहता है। इसके उलट यह उनकी कविता की ही तरह, बहुत सुचिंतित और गहरे अर्थों में अपने मन की टोह लेती हुई किताब है। इस किताब में अज्ञेय मन की जिन परतों को रोशन करते हैं, वे आंखें खोलने वाली हैं। कथाकार निर्मल वर्मा ने अपनी किताब 'धुंध से उठती धुंध' को डायरी, जर्नल्स, नोट्स आदि का संचयन कहा है, लेकिन यह शुरू से अंत तक आदमी और उसकी तकलीफ, उसका आसपास और अकेलापन, उसकी दुविधाएं और उसके सरोकारों को जाहिर करने वाली अद्भुत किताब है। पढ़ने वाले जिस 'निर्मलीय गद्य' से अपना जुड़ाव महसूस करते हैं, उसकी कई रंगत भी यहां मौजूद है। डॉ. देवराज की लिखी किताब 'दर्शन, धर्म, अध्यात्म और संस्कृति' मुझे अपने विषय की वजह से खास तौर से पसंद आती है। एक नास्तिक होते हुए भी डॉ. देवराज ने इस किताब के जरिए धर्म, अध्यात्म आदि का जितना मानवीय विवेचन किया है, वह दुर्लभ है। इसके लिए उन्होंने 'सृजनात्मक मानववाद' की राह बनाई, जिसकी बुनियाद में यह आश्वासन था कि इसी लौकिक जीवन में सबकुछ प्राप्त करना मुमकिन है। 'विवक्षा' कवि-लेखक अशोक वाजपेयी की कविताओं का संचयन है। अशोक की कविता प्रेम, परिवार, पड़ोस और अपने ढंग से समाज में हिस्सेदारी करती हुई सयानी समझ की कविता है। उनकी कविता पढ़ने के बाद जब आप अपनी देखी-जानी हुई दुनिया में फिर से शामिल होते हैं, तो आपके अहसास पहले की तरह नहीं रह जाते हैं। यह बड़ी कविता की सबसे बड़ी खूबी है। (नवभारत टाइम्स / अनुराग वत्स)

हर्ष मंदर की प्रिय किताबें 
किताबें कई तरह की पसंद हैं मुझे, इसलिए मैं फर्क किस्म की किताबों के नाम लूंगा। हालांकि इतनी कम संख्या यानी केवल पांच में अपनी पसंद को पूरी तरह जाहिर कर पाना मुश्किल है। एलन पैटन का यह उपन्यास दक्षिण अफ्रीका में होने वाले रंगभेद को आधार बनाकर लिखा गया है। यह उपन्यास न सिर्फ रंगभेद सरीखे क्रूर इंसानी कारनामे की जांच-परख है, बल्कि उसके खिलाफ एक ताकतवर विरोध प्रस्ताव भी है। तमाम तरह के कानून बन जाने के बावजूद कई मुल्कों में आज भी किसी-न-किसी रूप में नस्ली भेदभाव की बात सामने आती है, इसलिए आज और आने वाले वक्त में भी ऐसे उपन्यासों की जरूरत बनी रहेगी। अपने देश में गरीब किसान के हालात और उसके साथ होने वाले अन्याय की दास्तान है, प्रेमचंद का उपन्यास गोदान। यह हिंदी में लिखे गए उन शुरुआती उपन्यासों में से एक है, जिसकी न तो कहानी बासी हुई है और न ही उसके कहने का अंदाज। 'गोदान' अपने मानवीय सरोकारों के लिए मुझे ताउम्र प्रिय लगती रहेगी। मैं इस उपन्यास के पास इसलिए भी लौटता रहूंगा क्योंकि मेरे देशवासी ज्यादातर किसानों के साथ अन्याय अब भी जारी है। 'पॉइजन्ड ब्रेड' मराठी दलित लेखकों के अनुभव से बनी किताब है। मराठी इस देश की उन भाषाओं में से एक है, जिसमें समाज के दबे और सताए हुए वर्ग की आवाज उभर कर आई। यह अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है कि जिस मुश्किल हालात में इस वर्ग के लोग जीते हैं, उसे उसकी तमाम परतों को वे रचना में भी ला सके। ऐसा लेखन पढ़ने वालों को इस वर्ग के प्रति पहले से ज्यादा सजग और संवेदनशील बना है। ई. एफ. शूमाकर की किताब 'स्मॉल इज वंडरफुल' आर्थिक मुद्दों पर है। इसमें वह मौजूदा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बरक्स उस वैकल्पिक अर्थव्यवस्था की बात करते हैं, जो आम आदमी की परवाह करती है। मेरा खयाल है यह सोच गांधीजी की उस सोच के बहुत निकट है, जिसमें उन्होंने लकीर पर खड़े आखिरी आदमी के हिसाब से चीजें सोचने की सलाह दी थी। इस सोच की जरूरत हमें अब भी है। अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की किताब 'आर्ग्युमेंटेटिव इंडियंस' आर्थिक मसलों पर न होकर समाज, साहित्य और संस्कृति से जुड़े बड़े मसलों पर है। अमर्त्य सेन की सोच देश की उस मूल्यवान सेक्युलर थाती से जुड़ती है, जो हमारे लिए बहुत अहम है। एक ऐसे वक्त में जब चरमपंथी सोच हावी होती जा रही है, अमर्त्य सेन का सुझाया रास्ता हमारा हो सकता है। (नवभारत टाइम्स / अनुराग वत्स)

अमृता प्रीतम की प्रिय किताब 
एक समय ऐसा था जब ऐन रेन्ड के उपन्यासों की धूम थी. पाठक पागल थे उसके पीछे. वह नौजवानों की मसीहा बनी हुई थी, लोग उससे प्रेरणा पाते थे. आर्किटेक्ट और मैनेजमेंट के छात्र आज भी उसे पूजते हैं. यही ऐन रैंड अमृता की पसन्दीदा लेखिका हैं. पढ़ने-लिखने वाले लोगों को जिन्हें पुस्तकों से प्यार होता है, उन्हें लगता है, वे चाहते हैं कि जब वे कोई अच्छी चीजें पढ़ते हैं यह औरों को भी पढ़ना चाहिए. इसका आनन्द उनके परिचितों को भी मिलना चाहिए. ऐन रैंड के 'एटलस श्रग्ड' और 'फाउन्टेन हेड' को अमृता इतना पसन्द करती थीं उनसे इतनी प्रभावित थीं कि बहुत बार इन्हें खरीदा और दोस्तों को बाँटा. जिन्दगी की कई मुश्किल घड़ियों में उन्हें ऐन रेन्ड से ताकत मिली. इंसान-इंसान में जो फर्क होता है, जो फर्क हो सकता है वह उन्होंने इस लेखिका से ही सीखा. वे तहे दिल से उसका शुक्रिया अदा करना चाहतीं हैं पर जिसे कभी देखा न हो, जिससे आप कभी मिले न हों, उसे भला आप कैसे शुक्रिया अदा करेंगे? लेकिन बिना मिले, बिना देखे भी यदि आप के मन आभार है तो आप कोई न कोई तरीका अख्तियार कर लेते हैं यही वे करतीं हैं और वे ऐन रेन्ड के एक किरदार को दूसरे किरदार के कहे हुए शब्दों को मन-ही-मन दोहरातीं हैं, 'आई थैंक यू फॉर ह्वाट यू आर' और अपने ढंग से अपनी प्रिय लेखिका को धन्यवाद देतीं हैं. (विजय शर्मा के लेख - अमृता प्रीतम: क्या दिया तुमने? का एक अंश)

बुक थैरेपी

पन्ने पलटिए पावरफुल बनिए
किताबों से ज्ञान तो मिलता ही है, मन की शांति, जोश, उमंग और ऊर्जा भी मिलती है। कई वैज्ञानिक अध्ययनों से साबित हो चुका है कि प्रेरणादायक पुस्तकें पढ़ने से न सिर्फ मन शांत होता है, बल्कि विपरीत परिस्थितियों से जूझकर आगे बढ़ने का जोश भी जागता है। ब्रिटिश डॉक्टरों की राय में अच्छी पुस्तकों के अध्ययन से कई रोगों से शीघ्रतापूर्वक निजात पाई जा सकती है। मशहूर यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने कहा था, "साहित्य में रोगों को ठीक करने का गुण होता है।" 18वीं सदी तक यूरोप के कई मानसिक चिकित्सालयों में पुस्तकालय भी बनाए जाते थे। 19वीं सदी में यूरोप के चिकित्सक मानसिक रूप से बीमार लोगों को पुस्तक पढ़ने की राय देते थे। (राजस्थान पत्रिका)

डिप्रेशन से बचने के लिए पढ़ना जरूरी
संगीत सुनने वाले किशोरों की तुलना में किताबें पढ़ने में ज्यादा समय बिताने वाले किशोरों को डिप्रेशन होने का खतरा कम रहता है। एक अध्ययन में यह बात सामने आई। पिट्सबर्ग यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ मेडिसिन में सहायक प्रोफेसर व शोधकर्ता ब्रायन प्रीमैक के नेतृत्व में यह अध्ययन किया गया। प्रीमैक के मुताबिक इस अध्ययन में 106 किशोर शामिल थे। इनमें से 46 किशोर गंभीर रूप से अवसादग्रस्त थे। शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों को दो महीने तक पांच सप्ताहांतों के दौरान खाली समय बिताने के लिए अलग-अलग वस्तुएं दी थीं। इनमें फिल्में, संगीत, विडियो गेम्स, इंटरनेट अखबार और किताबें शामिल थीं। यूनिवर्सिटी के मुताबिक कम संगीत सुनने वालों की तुलना में अधिक संगीत सुनने वाले बच्चे 8.3 गुना अधिक अवसादग्रस्त हुए। शोध में पाया गया कि किताब पढ़ने वाले बच्चों में डिप्रेशन का खतरा काफी कम होता है। प्रीमैक के अनुसार किताबें पढ़ने की आदत को डिप्रेशन से जोड़कर देखा जाता है, जबकि है इसका उलटा। अमेरिका में किताबें पढ़ने वालों की संख्या कम होती जा रही है जबकि अन्य मीडिया का इस्तेमाल करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। (दैनिक जागरण)

मस्तिष्क के लिए स्वास्थ्यवर्धक किताबें
लन्दन : किताबें पढ़ना सिर्फ एक इत्मीनान भरी गतिविधि या फिर साक्षरता कौशल और तथ्यात्मक ज्ञान को बढ़ाने का जरिया ही नहीं, बल्कि हमारे मस्तिष्क के लिए स्फूर्तिदायक औषधि भी है। न्यूरोसाइंटिस्ट सुसान ग्रीनफील्ड के अनुसार किताबें पढ़ने की आदत बच्चों के ध्यान लगाने की क्षमता का विस्तार करता है। उन्होंने कहा, "कहानियों की शुरुआत, मध्य और अंत होता है- यह संचरना हमारे मस्तिष्क को कारण, प्रभाव और महत्व में सम्बंध स्थापित कर अनुक्रम में सोचने के लिए प्रेरित करती है।" ग्रीनफील्ड ने कहा, "छोटे बच्चे के रूप में इस कौशल को सीखना बहुत जरूरी है। बचपन में मस्तिष्क चीजों को ग्रहण करने में अधिक सक्षम होता है, इसी वजह से माता-पिता के लिए यह बहुत जरूरी है कि वे अपने बच्चों को किताबें पढ़ाएं।" किताबें पढ़ना अन्य संस्कृतियों के बारे में हमारी समझ को बढ़ाकर हमारे सम्बंधों को समृद्ध बना सकता है और हमें समानुभूति सीखने में मदद भी कर सकता है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय स्थित मैगडालेन कॉलेज में तंत्रिका विज्ञान के प्रोफेसर जॉन स्टेइन ने बताया कि किताबें पढ़ना निष्क्रिय गतिविधि से दूर है। उन्होंने कहा, "किताब पढ़ने से पूरे मस्तिष्क का व्यायाम हो जाता है।" कहानियां पढ़ना बच्चों के मस्तिष्क में किसी घटना के कारण, प्रभाव और महत्व का विश्लेषण करने की क्षमता का विकास करता है। 

अनिल कपूर की पसंदीदा किताबें
किताबें एक सच्चे साथी की तरह हमें हमेशा कुछ नया सिखाती हैं. मैं एक एक्टर हूं, इसलिए एक्टर्स की बायोग्राफ़ीज पढ़ना मुङो सबसे ज्यादा पसंद है. वैसे मैं हर तरह की अच्छी किताबें पढ़ना पसंद करता हूं. इसलिए मेरी पसंदीदा किताबों की लंबी फ़ेहिरस्त है, लेकिन मैं अभी सिर्फ़ एक किताब के बारे में ही बात करना चाहूंगा. वह किताब है ऐन रैंड की ‘द फ़ाऊंटेनहेड.’यह किताब चार भागों में बंटी हुई है और हर भाग को एक पात्र अपने ही अंदाज में प्रस्तुत करता है. फ़ाऊंटेनहेड के सारे पात्र सजीव लगते हैं क्योंकि ऐन रैंड ने हर पात्र को ब़ड़ी ही खूबसूरती से गढ़ा है. हर पात्र में एक इंसानी टच है. उनमें अच्छी या बुरी क्वालिटीज हैं. इन पात्रों को हम अपने आस-पास पाते हैं. सभी पात्रों में मुङो हावर्ड रोवर्क का किरदार सबसे अनूठा लगा. यह किरदार इस किताब की आत्मा है. यह किरदार कहीं न कही से हमको बताता है कि हमें सबसे पहले अपना सम्मान करना आना चाहिए, तभी हम दूसरों का सम्मान कर सकते हैं. साथ ही इस किरदार की सबसे अच्छी बात जो मुङो लगी, वो है काम के प्रति उसका जुनून.मुङो लगता है हर कलाकार को अपने जीवन का यही फ़लसफ़ा बना लेना चाहिए. मुङो नहीं लगता कि इसके बाद उसे किसी और चीज की जरूरत महसूस होगी. इस किताब को पढ़ने के बाद मुङो यही सीख मिली. इस किताब में और भी कई भी कई बातें हैं, जो न सिर्फ़ सीधे दिल को छूती हैं बल्कि जिंदगी से जुड़ी एक सीख दे जाती हैं. (प्रभात खबर से साभार)

गुल पनाग को पढ़ने का शौक 
अभिनेत्री गुल पनाग को पढ़ने का बहुत शौक है, लेकिन दिक्कत यह है कि जब वक कोई किताब पढ़ना शुरू करती हैं तो इसे खत्म करने से पहले खुद को रोक नहीं पातीं। यूं भी जब वह एक्टिंग नहीं कर रही होती हैं तो बाइकिंग, कुकिंग और किताबें पढ़ने में खुद को व्यस्त रखती हैं। गुल अमूमन अपने दोस्तों द्वारा सजेस्ट की हुई किताबें पढ़ती हैं और इन दिनों वह ‘द गर्ल हू प्लेड विद फायर’ पढ़ रही हैं। ऐसे में वह इस किताब को खत्म करने से पहले सो भी नहीं पा रही थीं और इसी कारण उनकी नींद उड़ी हुई है। इसीलिए इस किताब को खत्म कर उन्होंेने नींद पूरी करने के लिए दूसरी किताब शुरू करने से पहले छोटा-सा ब्रेक लिया। 

सोनल को किताबों से प्यार
सोनल सहगल को खुद को किताबी कीड़ा कहलाना पसंद है। सोनल का कहना है कि मेरे पास ढेर सारी किताबें हैं। मैंने पिछले महीने अपने घर को रिनोवेटेड करवाया है। मैंने पूरी दीवार को एक बड़ी बड़ी बुक सेल्फ में बदल दिया है। जमीन की फर्श से लेकर छत तक किताबें ही किताबें हैं। मुझे किताबों से बड़ा प्यार है। मुझे पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है। जब किताब में आप कोई कहानी पढ़ते हैं तो किसी निर्देशक की तरह आप उन किरदारों का संसार दिमाग में रचते हैं। सोनल का कहना है कि मुझे बायोग्राफी पढ़ना पसंद है। मैंने चार्ली चैप्लिन, आंद्रे अगासी, अर्नाल्ड स्वाजनेगर जैसी कई हस्तियों की बायोग्राफी पढ़ी है। सही अर्थों में ऐसे लोगों ने अपने जीवन को सही मायने में जीया है। दुनिया केवल आपकी उपलब्धियों को देखती है। वह आपको संघर्षों के बाद ही मिल सकती है। इन सफल लोगों ने अपना जीवन एक लक्ष्य को लेकर जीया।

शीला दीक्षित की पसंदीदा किताबें
किताबें मेरी जिंदगी का एक अहम हिस्सा हैं। मैं रोजाना कुछ-न-कुछ पढ़ लेती हूं। एक व्यस्त दिनचर्या के बावजूद मैं अपने इस शौक को बचा सकी, इससे मेरे मन को तसल्ली मिलती है। शेक्सपियर के नाटकों का हमारी जिंदगी से बहुत गहरा ताल्लुक है। जीवन का जो ट्रैजिक पक्ष है, उससे किसी को शायद ही छुटकारा मिल पाता है। शेक्सपियर ने अपने नाटकों का विषय मनुष्य जीवन की ट्रैजिडी को ही बनाया। तभी मैकबेथ, हेमलेट या ऑथेलो को पढ़ते हुए आपके सामने जिंदगी के मायने कुछ अलग ढंग से खुलते हैं। इन्हें पढ़ते हुए आप अपने जीवन की एक बेहतर समझ बना सकते हैं। 'एलिस इन वंडरलैंड' यह किताब मुझे बचपन की किसी सहेली जैसी प्रिय है। बचपन में जब इसे पढ़ा था और जिस आश्चर्य लोक में एलिस के साथ खुद के भी होने की कल्पना की थी, वह मेरे मन को इतने बरस बाद भी गुदगुदा जाता है। इसीलिए जब भी मन करता है, इसके दो-तीन चैप्टर पढ़ लेती हूं। ऐसी किताबें आपको एक अलग तरह के अहसास से भर देती हैं। ऐसे अहसास, जो एक उम्र के बाद आप तक बमुश्किल ठहरते हैं। प्रेमचंद की कहानियों की किताब 'मानसरोवर' में भारत के गांवों की आत्मा बसती है। साधारण-सी लगने वाली इन कहानियों में प्रेमचंद ने गांव की दुनिया, उसके लोग, उनकी तकलीफ वगैरह का जैसा चित्र खींचा है, उससे कहानियों का महत्व साहित्य से भी ज्यादा हो जाता है। प्रेमचंद की कहानियां जिस तरह का असर पढ़ने वालों के मन पर छोड़ती हैं, वैसा कई समाज विज्ञान की किताबें भी नहीं कर पातीं। यूं तो आंदे जीद के नॉवल बहुत चाव से पढ़े लेकिन 'आंदे जीद के जर्नल्स' पढ़ने का एक अलग अनुभव है। जीद ने करीब 60 बरस तक जर्नल्स लिखे। इन बरसों में जैसा जीवन उन्होंने जिया और जिन विचारों ने उनके जीवन और काम को प्रभावित किया, उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। जर्नल्स के जरिए जीद जैसे अहम शख्स का इतना लंबा जीवन खुद आपके सामने एक आईना सरीखा है, जिसमें आपका जीवन कैसा बीता, इसका अंदाजा भी लगा सकते हैं।

किताबों से प्यार, जैसे परमात्मा से आत्मा का मिलन

मंगलेश डबराल की प्रिय किताबें

वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल कहते हैं कि किताबें पढ़ना अपने वक्त को सही तरीके से पढ़ना है। बर्तोल्त ब्रेख्त की कविताएं अपने वक्त की निर्मम चीड़-फाड़ हैं। उन्होंने बीसवीं शताब्दी में मनुष्य होने की तकलीफ को अपनी कविताओं में बहुत शिद्दत से दर्ज किया है। बीसवीं शताब्दी की बड़ी सचाइयों में से एक शहर का होना है। शहरों में जितने लोग इन सौ बरसों में गए, वह मानवीय इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। उन्होंने शहरों पर एक से बढ़कर एक कविताएं लिखीं। ये कविताएं इन मायनों में हमारा आईना हैं। महान स्पैनिश कवि पाब्लो नेरुदा की कविताओं का संग्रह (रसिडेंस ऑन अर्थ) बड़ी कविता को पढ़ने के अहसास से भर देता है।  इसलिए इसकी तरफ मेरा मन बार-बार लौटता है। इसे पढ़कर ही मैंने कविता लिखना सीखा था। इसमें जज्ब गहरी रूमानियत के असर में मैं जितना युवा दिनों में था, उतना अब भी हूं। नेरुदा के राजनीतिक सरोकार, जो बहुत गहरे मानवीय हैं, इस किताब के जरिए मुखर हुए। मैं (कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो) को बेहद जरूरी मानता हूं, अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी। 40 पेज की इस छोटी-सी किताब में कार्ल मार्क्स ने पूंजीवादी व्यवस्था के कारनामों के बारे में जो लिखा था, वह आज अक्षर-अक्षर सच साबित हो रहा है। मेरे खयाल में, इस किताब की जरूरत आज और आगे भी इन्हीं वजहों से बनी रहेगी। हम इसे पढ़कर अपना पक्ष चुन सकेंगे। मशहूर रूसी लेखक लियो टॉलस्टॉय का नॉवल 'रेसरेक्शन' जारकालीन सामंती रूस का उपहास करता है। इस नॉवल में टॉलस्टॉय ने रूस का एक जेल सरीखा चित्र खींचा है, जिसमें गरीब और मजलूम रूसी कैद हैं। यह बहुत दूर तक हमारे देश में जो गरीब, आदिवासी और वंचित तबका है, उसकी सचाइयों के साथ जुड़ता है, क्योंकि ये भी मौजूदा हालात में एक तरह से व्यवस्था की कैद में ही हैं। इनका भी रेसरेक्शन यानी फिर से उत्थान होना जरूरी है। सन साठ के बाद हिंदी कहानी में उभरे सबसे चर्चित कहानीकार ज्ञानरंजन की किताब 'सपना नहीं' में शामिल कहानियां उस दौर से हमारा सबसे प्रामाणिक ढंग से परिचय कराती हैं। लोअर-मिडल क्लास परिवारों के अंदरूनी बदलाव, संबंधों में टकराव और मोहभंग की जो कहानी ज्ञानरंजन तब कह रहे थे, वह उनके बाद खत्म नहीं हो गई, लेकिन जिस विलक्षण भाषा में उन्होंने इन्हें लिखा है, वह आज भी ताजा-सा है।

शेखर जोशी की प्रिय किताबें

मैक्सिम गोर्की सरीखे लेखक की आत्मकथा से गुजरना मेरे लिए एक प्रेरक अनुभव रहा। तीन हिस्सों में छपी गोर्की की आत्मकथा उन दुर्लभ किताबों में से एक है, जिससे एक जीवन-दृष्टि मिलती है। चूंकि मैंने इसे काफी कम उम्र में पढ़ा था, इसलिए कह सकता हूं कि मेरे मन में इसकी छाप अब तक बनी है। आत्मकथा भले गोर्की की थी, लेकिन जीवन के मायने मेरे लिए बदल गए। मैंने जीवन को उसकी तमाम रंगत में इसके जरिए ही जीना सीखा। राहुल सांकृत्यायन की किताब 'दर्शन-दिग्दर्शन' मुझे एक गंभीर विषय पर सहज लेखन की वजह से पसंद आती है। इस किताब को मैं इसलिए भी महत्वपूर्ण मानता हूं क्योंकि इसने मेरे मन में विचारों के प्रति एक रुझान बनाया। मेरे मन में जो बातें संस्कार के तौर पर जगह बना रही थीं, उसे इस किताब ने ताकिर्क ढंग से दूर किया और मुझे नए विचारों को अपनाने के लिए तैयार किया। हिंदी में ऐसी किताबें दुर्लभ हैं, जो निरा ज्ञान न देकर कुछ नई प्रेरणाओं के लिए भी उकसाएं। चेखव की कहानियों से मेरा जुड़ाव मेरे कहानीकार बनने से भी बहुत दूर तक जुड़ा हुआ है। चेखव के लेखन में मनुष्य मात्र के लिए जो करुणा है, उसने मुझे अपनी ओर खींचा और मैं उनकी कहानियां एक-के-बाद-एक पढ़ता गया। यहां मुझे कहानी का आदर्श शिल्प मिला और कहानी लिखने की इच्छा ने जोर पकड़ा। आज भी चेखव की कहानियां एक चमकदार इबारत की तरह मेरी याद में ताजा है ओर मैं उनकी तरफ बार-बार लौटता हूं। प्रेमचंद हिंदी के सबसे बड़े कहानीकार हैं। उन्होंने हिंदी को कई यादगार कहानियां दी हैं। शुरुआती दिनों में पढ़ी गईं उनकी ईदगाह, कफन, बड़े भाई साहब और गमी जैसी कहानियां मुझे बहुत पसंद आती हैं। प्रेमचंद का लेखन अंतर्दृष्टिसंपन्न है। उनकी निगाह प्रगतिशील। इस वजह से उनकी कहानियां एक दौर की कहानी भर नहीं रह जाती हैं। कहानी पढ़ने में रुचि रखने वाले आज भी उन कहानियों में अपने लिए बहुत-सी रोशनी पाते हैं। हिंदी के महाकवियों में से एक निराला को राम की शक्तिपूजा, जूही की कली, सरोज-स्मृति सरीखी कविताओं से याद करता हूं। निराला की ये कविताएं 'अनामिका' में संकलित हैं। निराला ने इन कविताओं में इंसानी अहसास की जितनी परतें खोली हैं, वे कविता मात्र की उपलब्धि कही जा सकती हैं। निराला की कविता वक्त की चौखट में कैद कविता नहीं है। निराला कई मायनों में कबीर और तुलसीदास की तरह ही हमारी आज की चेतना में हमारे साथ चल रहे हैं। 

.....और क्या कहती हैं जारा खान

ज़ारा खान लिखती हैं कि किताबें मानवजाति की सबसे बेहतरीन खोज हैं। सभ्यताओं को दिया गया सबसे बेहतरीन तोहफा हैं, ऐसा मेरा दृढ विश्वास है। जितना सब कुछ हम पढने की आदत डालकर सीख सकते हैं उतना सिखाना तो किसी भी संस्थान के बस का नहीं। मेरी अपनी ज़िन्दगी में किताबों का बड़ा ही महत्वपूर्ण रोल रहा हैं। अगर आज मैं कुछ लिखने का और उसे दोस्तों के सामने पेश करने का हौसला कर पा रही हूँ तो ये किताबों की देन है। ये हुनर, ये हौसला, ये अंदाजेबयां सबकुछ पढ़ पढ़ कर आया है। वरना मेरी ऐसी औकात कहां? अपनी अब तक की छोटी सी ज़िन्दगी में मैंने बहुत कुछ पढ़ा है। फिर भी लगता है कुछ भी नहीं पढ़ा। ऐसा लगता हैं जैसे महासागर से सिर्फ चुल्लू भर पानी ही निकाल कर पी पाई हूं। पढने के बारे में एक बात ख़ास तौर से कहना चाहूंगी। जरुरी नहीं की आप बड़े बड़े ग्रन्थ ही पढ़ें। ऐसा करने पर ही आपका पढ़ा लिखा होना सार्थक होता हो। सुगम और मनोरंजक साहित्य पढना भी एक जीवन बदल देने वाला अनुभव साबित हो सकता हैं। प्रेमचंद से बढ़कर और क्या मिसाल हो सकती हैं? प्रेम, दया, घृणा, विश्वास, धोखा, वास्तल्य आदि सारी भावनाएं किरदारों में ढलकर हमारे सामने एक पूरी दुनिया का निर्माण करती हैं। कैसी विडम्बना है की दो सौ रुपए का पिज़्ज़ा हमे महंगा नहीं लगता पर सौ रुपए की किताब खरीदना हमारी नज़रों में फिजूलखर्ची है। हमारे यहाँ के सो कॉल्ड जागरूक माता-पिता अपने बच्चों के लिए क्या नहीं करते? उन्हें मॉल में ले जाते हैं, मल्टीप्लेक्स में महंगी टिकट खरीदकर उलजलूल फिल्में दिखाते हैं, मैकडोनाल्ड का कूड़ा महंगे दामों में खरीदकर खिलाते हैं, महंगे विडियो गेम्स खरीदकर उन्हें चारदीवारी में कैद करने का खुद ही प्रयास करते हैं, एक शाम में हंसते-हंसते सैंकड़ो रुपए फूंक डालते हैं पर अफ़सोस की उन्हें कभी कोई किताब नहीं दिलवाते। हिंदी लेखकों के अलावा मराठी, बंगाली, पंजाबी (उर्दू) में साहित्य की अद्भुत परंपरा रही है। मैं जब बंकिम दा को पढ़ती हूँ तो मुझे अफ़सोस होने लगता है की क्यूँ उनकी सारी रचनाओं का हिंदी अनुवाद उपलब्ध नहीं? या क्यूँ मुझे बंगाली नहीं आती? इसी तरह जब दोस्तोवस्की, चेखव, गोर्की, शेक्सपियर या ऐसे ही किसी जगतप्रसिद्ध लेखक की कृतियों का हिंदी अनुवाद पढ़ती हूँ तो दिल उसे उपलब्ध कराने वाले के लिए दुआएं देने लगता है। कितना दुख होता है कि आज का युवा रात को बेड पर सोने से पहले किसी अच्छी किताब को पढने की बजाय मोबाइल पर एसएमएस भेजने में और पाने में व्यस्त रहता है। किसी भी घर में, किसी युवा की अलमारी में किताबों की बजाय सीडी, डीवीडी के लगे ढेर चिंताजनक है। इसे रोकना बेहद जरुरी है। महान विचारक सिसरो ने यूं ही नहीं कहा की पुस्तकों के बिना घर जैसे आत्मा बिना शरीर।