Sunday 7 July 2013

'यादों के धुंधले उजले चेहरे' - मदनलाल मधु


मदनलाल मधु के हिंदी अनुवाद पढ़ कर भारत में अनेक पीढि़यां रूसी साहित्य से परिचित हुई हैं। 1957 से रूस में रह रहे मधु की पुस्तक 'यादों के धुंधले उजले चेहरे' चर्चा में है। उनसे राजेश मिश्र की लंबी बातचीत।
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रूस और भारत के संबंधों को आप किस नजर से देखते हैं?
दोनों देशों का संबंध बहुत पुराना है। रूस की दिलचस्पी हमेशा से भारत के प्रति रही है। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों का रूसी भाषा में अनुवाद हुआ है। वहां की कई पुस्तकों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। 19वीं शताब्दी में मैक्सिम गोर्की ने हमारी क्रांतिकारी महिला मैडम कामा से भारत की आजादी के आंदोलन और नारियों के बारे में एक लेख भेजने का आग्रह किया था। आजादी के आंदोलन के समय लेनिन ने कहा था कि अब भारत में अंग्रेजों के अधिक दिन नहीं रह गए हैं। टॉलस्टाय की भारतीय संस्कृति में खासी रुचि थी। गांधी जी उनको अपना गुरु मानते थे। 1927 में नेहरू अपने पिता मोतीलाल नेहरू के साथ सोवियत संघ गए थे। उस वक्त रूस की उपलब्धियों को देखकर वे बहुत प्रभावित हुए।

आजादी के बाद रूस-भारत संबंधों का विकास कैसे हुआ?
1955 में जब प्रधानमंत्री नेहरू की पहली यात्रा सोवियत संघ में हुई तो वहां उनका जोरदार स्वागत हुआ। उसी साल ख्रुश्चेव भारत आए थे। जब वे कश्मीर गए तो ख्रुश्चेव ने ये बात कही थी कि हम हिमालय के दूसरी ओर बैठे हैं। जब भी आप हमें आवाज देंगे, हम हाजिर हो जाएंगे। उस जमाने में जब सिक्युरिटी काउंसिल में कश्मीर का प्रश्न आया तो उन्होंने वीटो किया और हर तरह का समर्थन दिया। आर्थिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और सामरिक क्षेत्र में भी संबंध बनने शुरू हुए। इसी कड़ी में मैं सोवियत संघ गया था। राजकपूर की श्री 420 और आवारा जैसी फिल्में खूब लोकप्रिय हुईं। दोनों देशों के बीच एक दूसरे की मुद्राओं को लेकर सहमति थी। दोनों देशों के बीच इस संधि को रूबल रूपी संधि कहते हैं।

विघटन के बाद क्या बदलाव आए?
1991 के दिसंबर महीने में जब सोवियत संघ टूट गया, उसके बाद दूसरे परिवर्तन शुरू हुए। पूंजीवादी व्यवस्था की परंपरा वहां शुरू हो गई। अन्य देशों के साथ रूस का व्यापार होने लगा। इस तरह से वहां हमारे देश के लोग जो पहले से काम कर रहे थे उनको कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। पश्चिमी कंपनियों की एंट्री के बाद रूस के व्यवहार में भी परिवर्तन आने लगा। वे भारत की तुलना में पश्चिमी मुल्कों के प्रॉडक्ट खरीदने लगे। राजनीतिक स्तर पर भी हमारे संबंध बदलने लगे। गर्वाचोफ के जाने के बाद येल्तिसन के जमाने में संबंधों में दूरी आ गई थी। लेकिन सत्ता में आने के बाद पुतिन ने भारत के महत्व को समझा और इस बात पर जोर दिया कि दोस्ती की यह परंपरा आगे बढ़नी चाहिए। रूस से आज हमारे संबंध बेहतर कहे जा सकते हैं।

विघटन के बाद रूसी समाज में क्या परिवर्तन आए?
समाजवाद के दौर में लोगों को उपलब्ध सुरक्षा में कमी आई या कहें वह खत्म हो गई। जैसे सबके लिए फ्री शिक्षा, मुफ्त मेडिकल सुविधाएं, रोजगार भत्ते वगैरह आज के दौर में नहीं रहे। वहां भी महंगे प्राइवेट स्कूल खुल गए हैं। सरकारी अस्पताल हैं, लेकिन महंगे प्राइवेट अस्पताल भी खुल गए हैं। हां, सरकारी स्कूलों में 12वीं तक अब भी शिक्षा फ्री है। लेकिन आज वहां लाखों लोग बेरोजगार हैं। अमीर और गरीब की खाई चौड़ी हो गई है। वहां के अरबपति मौज में हैं, लेकिन गरीबों की बड़ी तादाद अभाव में है।

रूस में आपको कैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा?
1957 में विदेश मंत्रालय ने हम लोगों को वहां भेजा। हिंदी के लिए बनी एक्सपर्ट कमिटी बनी थी उसमें हरिवंश राय बच्चन प्रमुख थे। मेरे साथ भीष्म साहनी का भी चुनाव हुआ था। लेकिन समस्या ये थी कि हमें रूसी भाषा के माध्यम से नहीं, अग्रेजी के माध्यम से काम करना था। हमें रूसी नहीं आती थी। वहां अंग्रेजी से अनुवाद में काफी कठिनाई आई। इसके बाद मैंने रूसी भाषा सीखना शुरू किया। पहले बच्चों की आसान पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया। फिर साहित्यिक अनुवाद किया।

सोवियत संघ के विघटन को आप मार्क्सवाद की हार मानते हैं?
इस विचारधारा को पहला आघात स्टैलिन के जमाने में तब लगा जब लाखों निर्दोष लोगों की हत्या कर दी गई। बुद्धिजीवियों को देश छोड़कर भागना पड़ा। 1937 में जो अत्याचार हुए उस समय समाजवाद का भयानक रूप सामने आया। जो कट्टरपंथी लोग थे, जो परिवर्तन नहीं चाहते थे, उन्होंने हर कदम पर रोड़े अटकाए। ये उनकी कमजोरियां थीं जिसकी वजह से विघटन हुआ। पार्टी के अंदर जो अंदरूनी संघर्ष था, वो भी बहुत बड़ा कारण रहा। यह समाजवाद का दुर्भाग्य था कि वह अपना मानवीय चेहरा सुरक्षित नहीं रख पाया।

पाठकों और पात्रों के बीच 'मधुमास' के रचनाकार शिवमूर्ति


दयानंद पांडेय

चंद्रधर शर्मा गुलेरी के बाद हिंदी कहानी में सब से कम लिख कर अगर कोई दूसरा नाम मुझे सूझता है तो वह नाम है ज्ञानरंजन का। तीसरा नाम है शिवमूर्ति और चौथा नाम है उदय प्रकाश का। ज्ञानरंजन के पास तो गुलेरी की तरह एक उपन्यास भी नहीं है। उदय प्रकाश ने तो कम लिख कर भी अंतरराष्ट्रीय छवि अर्जित कर ली है। वह हिंदी से ज़्यादा विदेशी भाषाओं में अब पाए जाते हैं। वह कई बार साफ-साफ बोल भी जाते हैं। बाज़ दफ़ा वह ठकुरसुहाती करने वालों पर प्रहार भी कर लेते हैं सो बहुतेरे उन के खिलाफ़ खड़े हुए दीखते हैं, लगभग दुश्मनी की हद तक। लेकिन उदय प्रकाश हथियार नहीं डालते। प्रहार और तेज़ कर देते हैं। इस से उपजा अवसाद भी वह कभी किसी से छुपाते नहीं। सो विदेशी भाषाओं में भले वह दुलरुआ हैं पर हिंदी में उन के निंदक कई एक मिल जाते हैं। लेकिन उन की रचनाओं का बाल भी बांका नहीं होता और उन की टी.आर.पी. बढ़ती जाती है। उन की कहानियों की मिठास आलोचना की आंच का पाग पा कर और बढ़ जाती है। ज्ञानरंजन की स्थिति उदय प्रकाश जैसी तो नहीं है पर हिंदी में तमाम चर्चा के बावजूद वह भी दुलरुवा नहीं हैं। उन के निंदक भी बहुतेरे मिल जाते हैं। पर जैसे कोई गुलेरी का कोई निंदक नहीं मिलता, शिवमूर्ति को भी कोई निंदक नहीं मिलता । हां, भीतर-भीतर जलता-भुनता हुआ एक तबका ज़रुर दिखता है। अकुलाता और अफनाता हुआ। उन की प्रसिद्धि की आंच में झुलसता और खीजता हुआ।
मैं समझता हूं कि कम लिख कर ज़्यादा चर्चित लोगों में कथामूर्ति शिवमूर्ति ने जितना लिखा है, उस से ज़्यादा ही उन पर लिखा गया है। यह सौभाग्य मैं समझता हूं हिंदी में सिर्फ़ शिवमूर्ति को ही नसीब है। लेकिन शिवमूर्ति खतरे नहीं उठाते। उन की कहानियां या उपन्यास भी खतरे से खारिज़ हैं। हां, वह अपने पाठकों और पात्रों के बीच एक ऐसा मधुमास रचते हैं जिस की धूप मीठी लगती है, तीखी नहीं। जैसे कभी ज्ञानरंजन शहरी मध्यवर्ग की कहानियां लिख कर, उन के बारीक व्यौरे परोस कर आज तक हिंदी कथा-जगत में खलबली मचाए हुए हैं, ठीक वैसे ही शिवमूर्ति गंवई निम्न-वर्ग या मध्य-वर्ग की कहानियां लिख कर, दबे कुचलों की धूप-बरसात, दिखा कर सन्नाटा तोड़ते दीखते हैं। वह अपनी कहानियों में एक सिनेमाई जादू रचते हैं। जैसे कभी द्विजेंद्रनाथ मिश्र निर्गुण रचते थे। निर्गुण की कहानियों में भी मध्य-वर्ग का मधुमास और उस की इमली सी खट- मिठास वैसे ही मिलती है जैसे शिवमूर्ति के यहां मिलती है। शिवमूर्ति की एक बहुत बड़ी थाती है उन की औरतें। उन की कहानी की औरतें भी और उन की ज़िंदगी की औरतें भी। एकदम उन की कहानियों और ज़िंदगी की तरह दिखने में ऊबड़-खाबड पर भीतर से पूरी तरह से व्यवस्थित। चाक-चौबंद। इतना व्यवस्थित, संतुष्ट और निश्चिंत लेखक हो सकता है और भी हों पर मुझे शिवमूर्ति के सिवाय हिंदी में कोई और नहीं दिखता। संघर्ष तो बहुतेरे लेखकों के जीवन में है पर शिवमूर्ति जैसा जीवन-संघर्ष भी बिलकुल अकेला है।
अब दिक्कत यह है कि हिंदी में आलोचक पहले तो फ़ासिस्ट हुए फिर आलसी सो आलोचना नाम की संस्था लगभग समाप्त है। सो आलोचना में अब एक भेड़-चाल की सी स्थिति है। कोई एक भेड़ जिस राह पर चलती है, सभी भेंड़ें उसी राह चल निकल पड़ती हैं। फिर राह पकड़ कर तू एक चला चल मिल जाएगी मधुशाला वाली स्थिति तो है ही। समीक्षा अब जैसे मूंगफली हो गई है। टाइम काटने के लिए। अब एक कवि, अपने परिचित या दोस्त कवि के लिए लिखता है, मूंगफली की तरह, कोई कहानीकार, अपने दोस्त कहानीकार के लिए लिखता है। सिर्फ़ चर्चा के स्तर पर या सूचना के स्तर पर। आज-कल तो संपादक भी सिर्फ़ दोस्ती ही निभाते हैं, रचना से उन का कोई सरोकार नहीं, रचनाकार की शकल से मतलब रह गया है या फिर अपने अहंकार से मतलब है। सो संपादकों और पत्रिकाओं की स्थिति तो और बुरी है। सो सब कुछ के बावजूद शिवमूर्ति पर लिखा तो खूब गया है लेकिन जैसे तुलसी दास या प्रेमचंद के लिए रामचंद्र शुक्ल ने लिखा, कबीर के लिए हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा निराला के लिए रामविलास शर्मा ने लिखा, निर्मल वर्मा के लिए नामवर सिंह ने लिखा या फिर फणीश्वरनाथ रेणु के लिए सेल्यूलाइड के परदे पर जैसा शैलेंद्र ने लिखा बरास्ता बासु भट्टाचार्य वैसा अभी ज्ञानरंजन, उदय प्रकाश और शिवमूर्ति जैसे लेखकों पर नहीं लिखा गया है। अब इस शार्ट-कट और ठकुरसुहाती के दौर में कब और कौन लिखेगा इन कथामूर्तियों पर कहना कठिन है।
शिवमूर्ति जैसे लेखकों के लिए एक चुनौती और है कि प्रेमचंद की परंपरा की बात तो बहुत होती है इन की पैरवी में पर अभी तक हिंदी में एक भी लेखक ऐसा नहीं हो पाया है जिस के खाते में प्रेमचंद की तरह प्राइमरी कक्षा से लगायत एम.ए. तक पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम लायक रचनाएं हों। प्रेमचंद की परंपरा की बात और पैरवी करना तो बहुत आसान है पर ईदगाह, पंच परमेश्वर, कफन, पूस की रात से लगायत रंगभूमि, गोदान तक की अनमोल यात्रा किसी भी के पास नहीं है। शिवमूर्ति के पास भी नहीं। लेकिन शिवमूर्ति के पास एक ऐसा अनुभव संसार है, समय है, मन है और कि स्वास्थ्य और सुविधाएं भी कि वह प्रेमचंद के इस प्रतिमान को न सिर्फ़ छू सकते हैं बल्कि उसे और आगे भी बढा सकते हैं। इस लिए भी कि वह अभी भी लिख रहे हैं, ज्ञानरंजन लिखना बरसों से छोड़ चुके हैं, उदय प्रकाश अंतरराष्ट्रीय हो चुके हैं, सिनेमा वगैरह में उलझ चुके हैं। शिवमूर्ति के पास ऐसा कोई स्पीड-ब्रेकर नहीं है। न ही अहंकार पालने और उस में बिला जाने के लिए वह किसी पत्रिका के संपादक हैं। उन के लिए यह बहुत बड़ी सुविधा है। ज़िम्मेदारियों से मुक्त हैं। अनुभव-संपदा के साथ-साथ उन के पास गहन यायावरी भी है, उन की पत्नी और बच्चे भी यही चाहते हैं कि 'ए' कुछ बड़ा लिखें। साहित्य अकादमी वगैरह उन को नहीं मिला है, वह इन चिंताओं को भी अपने विशाल पाठक-संसार के प्यार से धो सकते हैं। कमलेश्वर, अमरकांत, मनोहर श्याम जोशी, काशीनाथ सिंह आदि की तरह प्रतीक्षारत भी रह सकते हैं।
दो पत्रिकाओं मंच और लमही ने दो साल के भीतर ही जिस तरह बारी-बारी उन पर केंद्रित अंक निकाले हैं वह हर्ष का विषय तो है ही, उन की स्वीकृति का बैंड-बाजा भी है। उन की लोकप्रियता का मानक भी। पर लमही में अपनी एक टिप्पणी में जो बात दूधनाथ सिंह ने कही है वह भी एकदम से टाल देने वाली नहीं है। दूधनाथ लिखते हैं :
समकालीन हिंदी कथा साहित्य में शिवमूर्ति की छवि एक भले मानुष की है। वह सब के मित्र हैं। किसी के बारे में बुरा नहीं कहते और भला भी नहीं कहते। हिंदी के आधुनिक समाज में इस तरह का निरपेक्ष नाम लोकप्रियता की एक बहुत बड़ी साधना और पूंजी है। यह घातक और क्रूर है। ऐसे लोग अच्छे नहीं होते क्यों कि वे अपनी अधिकांश धारणाएं गोपनीय बना कर रखते हैं। फूलने-फलने का यह कायदा हिंदी में इन दिनों आम तौर पर प्रचलित है। शिवमूर्ति भी कुछ ऐसे सय, सुसंकृत, भोले-भाले, कठोर और मन में सब को ठेंगे पर रखने वाले इंसान हैं यह हिंदी लेखकों की एक अनन्य इच्छा भी है।
शिवमूर्ति को दूधनाथ सिंह के इस कहे पर गौर ज़रुर करना चाहिए।
नहीं अभी और बिलकुल अभी पाखी ने भी ज्ञानरंजन पर केंद्रित एक अंक निकाला है। पाखी में ज्ञानरंजन के लिए एक भरा-पूरा प्रतिपक्ष भी है। पर बीते साल मंच और अब की साल लमही ने जो शिवमूर्ति पर अंक केंद्रित किए हैं, इन दोनों ही पत्रिकाओं में शिवमूर्ति का प्रतिपक्ष बिलकुल नदारद है। है भी तो दशमलव शून्य के बराबर भी नहीं। जैसे लमही में यह दूधनाथ की टिप्पणी है। या मंच में एक जगह राजेंद्र यादव अपने पत्र में चुटकी काटते हुए पूछते हैं कि, 'तुम ने अपने कुछ गुणों के विज्ञापन के लिए राजेंद्र राव से कितने का सौदा किया? और?' पर यह कुछ-कुछ गुदगुदाने और परिहास के ही भाव में ही है। ठीक वैसे ही जैसे राजेंद्र यादव शिवमूर्ति को कभी दुष्ट शिरोमणि या राक्षस शिरोमणि से संबोधित करते मिलते हैं। तो इस में उन का प्यार भी छलकता है और वात्सल्य भी। जैसे कि अपनी डायरी में ही एक जगह शिवमूर्ति अपनी बीमारी और अस्पताल के व्यौरे बांचते हुए लिखते हैं कि : 'यादव जी पास आ गए। बोले-तुम हरामी हो। सुंदर चेहरों से घिरे हो इस लिए घर जाने का जल्दी नाम नहीं लोगे। मैं मुस्करा उठा। बेचारी सी मुस्कराहट। पास खड़ी नर्स भी मुस्कराने लगी।'
एक दिक्कत और है इन पत्रिकाओं में कि इन में शिवमूर्ति की रचनाओं से ज़्यादा बात और चर्चा उन के व्यक्तित्व पर है। व्यक्तित्व बहुत ज़रुरी है, पर रचना ज़्यादा ज़रुरी है। मेरा मानना है कि शिवमूर्ति की रचना पर ज़्यादा बात होनी चाहिए। इस लिए भी कि शिवमूर्ति के व्यक्तित्व से बड़ी उन की रचनाएं हैं। यह ठीक है कि उन का जीवन भी, जीवन संघर्ष उन की रचनाओं जितना ही उद्वेलित करता है, उन का संघर्ष भी अब मोहित करता है। इस लिए कि उन्हों ने अपनी कहानियों में रावणों की शिनाख्त कर दी है। अब अगर उन की कहानियां न होतीं तो उन के संघर्ष को भला कोई क्यों अगरबत्ती दिखाता? कहानियां हैं तभी उन का यह संघर्ष है। नहीं इस से भी ज़्यादा और लोमहर्षक संघर्ष आज भी करोड़ों लोगों के जीवन में हलकोरे मार रहा है। लेकिन हम उन करोड़ों लोगों के संघर्ष को भूल जाते हैं, शिवमूर्ति को याद रखते हैं। तो इस लिए कि उन के पास कसाईबाड़ा, सिरी उपमा जोग, भरत नाट्यम, केशर-कस्तूरी, तिरिया-चरित्तर, तर्पण और छलांग है। ख्वाजा ओ मेरे पीर है।

एक समय था कि पाठ्यक्रम बनाने वाले कुछ मूर्ख विशेषज्ञों के चलते हम तुलसी दास के पत्नी प्रेम के बाबत लाश पर तैर कर जाने, सांप को रस्सी समझ कर पकड़ कर घर में घुस जाने जैसी कथाएं भी पढ़ते थे। हालां कि तुलसी दास के जीवन में और भी तमाम ऐसी घटनाएं जो हमें कई बार सोचने के लिए विवश कर देती हैं। हिला कर रख देती हैं। खैर तो भी क्या हम सिर्फ़ इन कथाओं के चलते ही तुलसी दास को जानते हैं या पढते हैं? या कि जैसे कालीदास के बारे में भी हमें पढ़ाया गया है कि वह जिस डाल पर बैठे थे उसी को काट रहे थे, और फिर विद्योतमा से उन का मूर्खता भरा शास्त्रार्थ भी पढ़ा़या गया है। ठीक वैसे ही बाल्मिकी के डाकू होने का प्रसंग। पर क्या बाल्मिकी या कालिदास को हम क्या सिर्फ़ इन या ऐसी घटनाओं के बाबत ही जानते हैं? या कि फ़िराक को हम उन के होमो या शराबी होने के नाते जानते हैं कि उन की शायरी के नाते? बिलकुल इसी तरह हम बाद के दिनों में प्रेमचंद की गरीबी, उन का संघर्ष आदि भी पढ़ते रहे थे। उन के जीवन में औरतों आदि का भी विवरण मिलता है। तो क्या प्रेमचंद को क्या हम सिर्फ़ इन्हीं अर्थों में जानते हैं या कि उन की कालजयी रचनाओं के लिए। सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा लिखने वाले इकबाल का हाथ सांप्रदायिक दंगों में भी सना था पर हम उन्हें उस के लिए भूल कर उन की रचना के लिए ही याद करते हैं। इसी तरह और भी कई लेखकों कवियों के जीवन चरित से जुड़ी तमाम बातें भी आती रही हैं तो सिर्फ़ इस लिए उन का रचनाकार भी बड़ा था या है। पर यह बातें दाल में नमक की तरह होती रही हैं या हैं। नमक में दाल की तरह नहीं। लेकिन इधर परंपरा ऐसी चर्चाओं के मामले में नमक में दाल की तरह हो गई हैं। इस से बचना ज़रा ज़रुरी है।

एक बार नामवर जी से लेखक-आलोचक संबंधों पर बात चली। मैं ने उन से स्पष्ट कहा कि आज की तारीख में आलोचक बडा़ हो गया है और लेखक छोटा। तो उन्हों ने इस का कडा़ प्रतिवाद किया। और साफ कहा कि यदि रामचंद्र शुक्ल जैसा आलोचक हो तो रचना भी उस दौर की उतनी बड़ी थी। आलोचक किसी लेखक को बड़ा नहीं बनाता, उस के बड़प्पन को स्वीकार करता, करवाता है। अब निराला को ही लीजिए। निराला को उस दौर के आलोचकों ने नहीं माना था। पर आलोचक गलत साबित हुए और निराला बड़े हो गए। प्रेमचंद के ज़माने में भी रामचंद्र शुक्ल थे और शुक्ल ने उन को स्वीकार किया था। पर तब एक आलोचक थे अवध उपाध्याय। अवध उपाध्याय को लोग भूल गए हैं। पर इन्हीं अवध उपाध्याय ने प्रेमचंद के उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ को टॉलस्टाय के एक उपन्यास का अनुवाद तथा ‘रंगभूमि’ को मैकरे का अनुवाद कहा था। पर देखिए कि प्रेमचंद को आज लोग जानते हैं, लेकिन अवध उपाध्याय को कोई नहीं जानता। नामवर जी ने कहा कि यह मत भूलिए कि रचनाकार भी आलोचक होते हैं। वह भी किसी को स्वीकार करते हैं और किसी को खारिज। पर साहित्यिक दुनिया किस को स्वीकार करती है, मुन:सर इस पर होता है। किसी एक-दो आलोचक का सवाल नहीं होता। इस कसौटी पर तो नामवर की बात सही लगती है। ऐसे में यह आकलन करना ज़रुरी हो गया है कि क्या तमाम रचनाकारों की उपस्थिति के बावजूद आज आलोचना क्यों गायब है? क्या रचना में कहीं कमी है या आलोचना सचमुच लुप्त हो गई है, इस की पड़ताल ज़रुरी है।

एक समय था कि साहित्य में एक वामपंथी शब्दावली खूब चली थी वर्ग-चेतना, वर्ग-संघर्ष, वर्ग-शत्रु। वामपंथी राजनीति में भी यह शब्द आम था। पर बाद के दिनों में यह सारे शब्द तिरोहित हो गए। खास कर वामपंथ के पतन और देश में मंडल-कमंडल की राजनीति के गरमाने के बाद। वह वामपंथी शब्दावली जाति-चेतना, जाति-संघर्ष, जाति-शत्रु में तब्दील हो गई। भारतीय राजनीति में भी और साहित्य में भी। राजनीति में थोड़ी परदेदारी के साथ पर साहित्य में खुल्लम-खुल्ला। वर्ग-शत्रु का जाति-शत्रु में तब्दील होना समाज, राजनीति और साहित्य तीनों के लिए घातक है। राजनीति में तो वोट-बैंक के चलते यह सब हुआ पर साहित्य में इन शब्दों का पतन क्यों और कैसे हुआ यह ज़रुर पड़ताल का विषय है। आखिर साहित्य में कौन से वोट-बैंक की ज़रुरत आ पडी़ भला? प्रेमचंद का वह कहना कि साहित्य आगे-आगे चलने वाली मशाल है, लोग कैसे भूल गए? यह भी भला कैसे भूल गए कि साहित्य जोड़ने का काम करता है, तोड़ने का नहीं। लोहिया कहते रहे हैं, नारा लगाते ही रहे हैं कि जाति तोड़ो ! और अपने लेखक लोग हैं कि अब पूरी ताकत से जातियों की चौहद्दी बना कर क्रांति करने में लग गए हैं। आखिर करुणानिधि-जयललिता, मायावती-मुलायम-लालू जैसे तमाम भ्रष्ट लोग वर्ग-शत्रु नहीं तो क्या हैं? क्या इस बिना पर इन्हें वर्ग-शत्रु के खाने से मुक्त कर ही दिया जाना चाहिए कि यह लोग पिछड़े हैं या दलित हैं? राजनीति तो इसी तरह बेईमान और तबाह हुई ही है, साहित्य में भी यही खेती और यही सोच ज़रुरी है? अमृतलाल नागर सवर्ण थे तो इस बिना पर उन्हें स्वच्छ्कारों पर नाच्यो बहुत गोपाल नहीं लिखना चाहिए था? प्रेमचंद ने कफ़न लिख कर दलित विरोध की कहानी लिख दी? तो फिर क्या प्रेमचंद की ठाकुर का कुंआ ब्राह्मण विरोध की कहानी है? ब्राह्मणवादी व्यवस्था और ब्राह्मण दोनों दो बातें हैं, यह क्या लोग नहीं जानते? राजनीति की तरह साहित्य में भी सवर्णों को गरियाना और निंदा भी एक फ़ैशन सा क्यों हो गया है? इन सवालों की भी पड़ताल ज़रुरी है। शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर धंसाना ठीक नहीं है।

दुर्भाग्य से तमाम स्वनाम-धन्य लेखकों के साथ-साथ शिवमूर्ति के साथ भी यह हुआ है। उदय प्रकाश के साथ भी। उदय प्रकाश की बहुप्रशंसित कहानी पीली छतरी वाली लड़की में तो यह जातिगत बदले का जोश इस कदर मदमस्त हो जाता है कि बताइए कि नायक राहुल एक सवर्ण लड़की अंजलि जोशी के साथ प्रेम करता है। प्रेम करता है बदला लेने के लिए। लड़की को भगा ले जाता है। कोई व्यक्तिगतगत रंजिश नहीं। बस जातिगत बदले के लिए। जो कि प्रेम में पागल लड़की नहीं जानती। संभोग भी करता है नायक प्रेम की बिसात पर उस सवर्ण लड़की के साथ तो हर आघात पर उस के मन में प्रेम नहीं, बदला होता है। संभोग के हर आघात में वह बदला ही ले रहा होता है। अदभुत है यह जातिगत बदला भी जो प्रेम का कवच पहन कर लिया जा रहा है। पुरखों के ज़माने के अपमान का बदला ले रहा है राहुल। प्रेम में ऐसा भी होता है भला? लगता ही नहीं कि यह वही लेखक है जिस ने वारेन हेस्टिंगस का सांड़ या और अंत में प्रार्थना लिखने वाला लेखक ही है। छप्पन तोले की करधन या तिरिछ जैसी कहानियों का लेखक है। पर उदय प्रकाश की यह कहानी तमाम सहमतियों-असहमतियों के बावजूद उन के लेखन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव बन चुकी है। इसी तरह मैत्रेयी पुष्पा के यहां भी यह जातिगत बदले की बिसात बिछी हुई है। अपनी रचनाओं में वह वही चौकाने वाला आख्यान और सेक्स विमर्श रख देती हैं जो मृदुला गर्ग शहरी पृष्ठभूमि दिखा कर चितकोबरा में रखती हैं। मैत्रेयी अपनी रचनाओं में शहर के बजाय गांव की औरत का सेक्स आख्यान रख कर चौंकाती हैं और उस में जातिगत बदले का एक गणित भी भर देती हैं। जाने भारत के किस गांव का वह वर्णन लिखती हैं। आज का बता कर। और महौल अठारहवीं सदी के सामंती-संस्कृति का रचती हैं। आप आज के गांव में जाइए तो पाएंगे कि लोग दलित एक्ट के हद से अधिक दुरुपयोग में कराह रहे हैं। जेल और फर्जी मुकदमे भुगत रहे हैं। हकीकत तो यह है। दलितोत्थान की गाथाएं अब सब की जुबान पर हैं। ए राजा से लगायत मायावती तक। राजधानियों के राजमार्गों से लगायत गांवों की मेड़ों तक। पर मैत्रेयी की रचनाओं के गांव में दलित सवर्णों के सामने खड़े और बैठने की स्थिति में ही नहीं पाए जाते हैं। दलित और गांव कितना बदल चुके हैं, मैत्रेयी पुष्पा या दलित आह की आंच पर भात पकाने वाले और तमाम रचनाकार जानते ही नहीं।
अफ़सोस कि इसी फ़ैशन में समा कर शिवमूर्ति भी तर्पण में बदला लेने का आख्यान लिख लेते हैं।
कसाईबाड़ा की कसक और उस का सरोकार, भरतनाट्यम की तड़प और उस का सरोकार, सिरी उपमा जोग की संवेदना, उस की मासूमियत और उस की वह हूक, केसर कस्तूरी का वह कसाव, कसैलापन, आंच और तिरिया-चरित्तर की वह छ्टपटाहट भरी आकुलता और उस का सरोकार तर्पण तक आते-आते शिवमूर्ति से बिखरने लगता है तो क्यों? छलांग में वह व्यवस्था से मोर्चा लेते हुए थोड़ा वह संभलते हैं पर वह उसे अभी अधूरा ही बताते हैं। तो उस का आधा-अधूरा प्रकाशन क्या किसी दबाव में वह स्वीकार बैठे? यह दबाव भी ठीक नहीं है। इसी तरह तर्पण के बनावटीपन में जो दबाव है वह भी ठीक नहीं है। तर्पण हालां कि अपनी बुनावट और कहन में अदभुत है पर जो दलित उभार के उफ़ान पर जो भात वह पकाते हैं वह कच्चा रह जाता है। जैसे ऐलान ही करते हैं वह: वह संघर्ष था रोटी के लिए। यह वर्ण संघर्ष है। इज्जत के लिए। इज्जत की लड़ाई रोटी की लड़ाई से ज़्यादा ज़रुरी है। इसी लिए इस लडा़ई के लिए सरकार ने हमें अलग से कानून दिया है। हरिजन एक्ट। हम इस कानून से इस नाग को नाथेंगे।'
सूत्र वाक्य में तो यह बात एक बार बहुत अच्छी लगती है। पर कहानी की बुनावट और कथ्य में बात और तरह से मिलती है। जैसे डावरी एक्ट और दलित एक्ट का ज़रुरत से ज़्यादा दुरुपयोग बीते सालों में हुआ है, इस तर्पण में भी यह दुरुपयोग सामने आया है। शिवमूर्ति एक ईमानदार कथाकार हैं। इस लिए वह कथ्य में अपने जातिगत विरोध वाले मित्रों की तरह बेईमानी नहीं कर पाते। पर डायलागबाज़ी और सूत्र वाक्यों मे फंस जाते हैं इस कहानी में। बताइए कि चोरी करती पकड़ी गई लड़की परिजनों के उकसाने पर झूठे बलात्कार का केस दर्ज करवा देती है। फिर हत्या आदि की बातें, गांव की राजनीति और दलितों पर अत्याचार आदि के पुराने किस्से तक तो ठीक है यह कथा पर यह जो तर्पण का शहीदाना भाव है वह कहानी में ही पूरी तरह फ़र्जी है और यही कहानी का संदेश भी। तो बात बिगड़ जाती है। आप अगले को फ़र्जी मामले में फ़ंसा भी दें और 'गया-जगन्नाथ' में तर्पण का भी ताव रखें तो यह क्या है? क्या पाठक इतना मूर्ख है? यहीं प्रेमचंद के नमक का दारोगा की याद आ जाती है। वह ईमानदार दारोगा अंतत: उस बेईमान व्यापारी के यहां नौकरी करने लगता है जिस को वह बेईमानी के आरोप में पकड़ चुका होता है। प्रेमचंद की यह बहुत कमजोर कहानी इस अर्थ में भी है क्यों कि वह आदर्शवादी कथाकार के रुप में जाने जाते हैं। पर आदर्शवाद और तार्किकता दोनों ही कसौटी पर नमक का दारोगा एक विफलता की कहानी है और विवशता की भी। यही स्थिति शिवमूर्ति के तर्पण के साथ भी गुज़रती है। जैसे कि अखिलेश की एक बेहद खराब, हवा-हवाई कहानी ग्रहण भी इसी बिना पर खोखली क्रांति दिखाती है। तर्पण उपन्यास कथावस्तु आदि के लिहाज़ से शानदार रचना है बस उस का अंत भहरा गया है दलित उफान की आंच में भात पकाने के चक्कर में। नतीज़तन दलित उफान के नाम पर लिखी यह कहानी दलित के संघर्ष कथा के बजाय सवर्ण उत्पीड़न के खाते में दर्ज हो जाती है। जो कि इन दिनों अब गांव क्या, शहर क्या आम बात हो गई है। जब कि शिवमूर्ति का यह लक्ष्य हर्गिज नहीं है। वह लिख रहे हैं दलित उत्पीड़न की ही कथा। लेकिन जाने क्यों अभी तक किसी आलोचक ने तर्पण के इस एप्रोच की पड़ताल नहीं की। सब ने सिर्फ़ वाह-वाह की। तो क्या दूधनाथ वाली बात यहां मौजू है? कसाईबाडा़ की सनीचरी और विमली यहां याद आ जाती हैं जो अपने पूरे तेवर में पूरी निर्भीकता से पूरी पारदर्शिता और जुझारूपन के साथ उपस्थित हैं। यह चरित्र भी शिवमूर्ति के ही रचे चरित्र हैं।
एक बात और। कि कोई कितना भी बेहतरीन रचनाकार क्यों न हो, हर कोई उसे पढ़ेगा ही यह भी कतई ज़रुरी नहीं है। पढ़ेगा भी और उस की संवेदना भी समझेगा यह भी ज़रुरी नहीं है। अशोक वाजपेयी का ज़िक्र यहां ज़रुरी लग रहा है। बीते दिनों वह शिवमूर्ति पर केंद्रित लमही के अंक का विमोचन करने और शिवमूर्ति को लमही सम्मान देने के लिए आयोजित समारोह में आए। अशोक वाजपेयी की छवि एक अतिशय पढ़ाकू व्यक्ति, आलोचक, कवि और कुशल वक्ता की है। उम्मीद थी कि वह शिवमूर्ति पर औरों से कुछ अलग ढंग से बोलेंगे। लेकिन उन से क्या सभी से अच्छा तो शिवमूर्ति अपने गंवई ठाठ के साथ बोल गए। लेकिन अशोक वाजपेयी को सुन कर समझ में आ गया कि उन्हों ने शिवमूर्ति की एक भी कहानी नहीं पढ़ी है। वह सिर्फ़ शोभा की चीज़ बन कर आए और चले गए। माना कि वह शहरी बाबू हैं, कलावादी हैं पर आते समय शिवमूर्ति की दो चार कहानी भी नहीं पलट सकते थे? एक गंवई कथाकार के साथ यह सौतेलापन? आप फ़्रांस आदि के परदेसी लेखकों पर हरदम जांनिसार रहते हैं, अपनी विद्वता से सब को आक्रांत रखते हैं और अपनी ही माटी के एक सशक्त कहानीकार को जो बीते तीन दशक से भी ज़्यादा समय से चर्चा के शिखर पर है, उसे पढने, जानने की भी सलाहियत नहीं रखते? और तो और नामवर जैसे लोगों को बरंबार टोकते भी रहते हैं बाकायदा लिख-लिख कर कि वह बिना तैयारी के बोले ! तो भारत भवन क्या ऐसे ही बनते हैं कि शहर ऐसे ही संभावना बनते हैं? छोड़िए निर्मल वर्मा तो शहरी भी नहीं विलायती बाबू ठहरे। पर एक बार वह इसी लखनऊ में आए और ठेंठ गंवई कथाकार जिन को लोगों ने कई बार आंचलिक कथाकार भी कहा है उन फणीश्वर नाथ रेणु पर क्या तो बढ़िया व्याख्यान दिया था। डेढ़ दशक से ज़्यादा हो गए रेणु पर विलायती बाबू निर्मल वर्मा को सुने पर लगता है जैसे अभी कल ही बोल कर गए हों। उस की गूंज मन में इस तरह बाकी है। तो कथामूर्ति शिवमूर्ति वेणु को अपनी वेणु को रेणु से भी आगे ले जाने पर गौर करना चाहिए। इस लिए कि वह हिंदी कथा के अनन्य और विलक्षण लेखक हैं। इस लिए भी कि लिखा तो रेणु ने भी बहुत ज़्यादा नहीं लिखा है। और कि उन के समय में तो संचार क्रांति भी नहीं थी न सूचना का विस्फ़ोट ही। पर उन के पात्रों का गरल-पान, उन का भोलापन और कांइयापन आज भी वैसे ही सुलगता और सुलगाता रहता है। शिवमूर्ति के पास म्यान से बाहर ही सही शिव कुमारी जी आदि हैं तो उन के पास भी लतिका जी आदि थीं। और उस समय एक साथ एक म्यान में दो तलवार रखना बड़ा चुनौतीपूर्ण और मानीखेज़ था। गरज यह कि तमाम लोगों की तरह इन दोनों ही लोगों के पास राधा और रुक्मणि का संयोग है। प्रेमचंद के साथ भी था। शिवमूर्ति के पात्र भी लोगों के सामने हैं। उन के भी थे। फ़र्क ज़रा यह है कि वह उन पर हमलावर भी थे। मुकदमे से भी और आक्रमण से भी। उन की रचनाओं पर सफल फ़िल्म और धारावाहिक भी हैं। शिवमूर्ति अभी इस धार में बावजूद बासु चटर्जी और सुशील कुमार सिंह और मनहर चौहान आदि के स्टेज शो के अभी मजधार में हैं। बल्कि एक अर्थ में किनारे ही खड़े हैं। किसी नाव के इंतज़ार में। पर प्रेमचंद की रचनाओं पर भी सफल सिनेमा नहीं बन पाया है। सिवाय सत्यजीत रे की शतरंज के खिलाड़ी के। नहीं बनाई तो सत्यजीत रे ने प्रेमचंद की सदगति भी थी पर वह बह गई थी। गोदान भी बस बन गई थी। सिनेमा और साहित्य का रिश्ता वैसे भी कोई बहुत मधुर कभी रहा नहीं। खास कर हिंदी में। पर कमोबेश जैसे हर गरीब की तमन्ना और जद्दोजहद अमीर बनने की होती है, वैसे ही हर लेखक की तमन्ना तो रही है, रहती ही है कि उस की रचना किसी भी तरह सिनेमा के पर्दे पर दिख जाए। शिवमूर्ति की भी है। ठीक वैसे ही जैसे हर गीतकार या कवि की इच्छा रहती है कि उस के गीत-गज़ल या कविता, नज़्म को गायक मिल जाए। जो अकसर नहीं ही मिलता। बहुत कम को नसीब होता है यह संयोग। जैसे कि महादेवी वर्मा हैं। महादेवी ने भी बहुत कम लिखा है। पर जो भी लिखा है वह प्रतिमान है। बावजूद इस के उन को भी बहुत कम लोगों ने गाया है। यह साध बहुतों की पूरी नहीं होती। क्यों कि गायन और सिनेमा, थिएटर आदि प्रदर्शनकारी कला हैं। और लेखन प्रदर्शनकारी कला नहीं है।
बहरहाल बात यहां हम शिवमूर्ति और उन के कथा संसार की कर रहे हैं। शिवमूर्ति से तमाम लोगों की तरह मेरे भी घरेलू और आत्मीय संबंध हैं। और बतौर पाठक बहुत सारी अपेक्षाएं भी हैं। तो अगर घरेलू बातचीत के अंदाज़ में बात करें तो प्रेमचंद अगर ग्रामीण संवेदना के राजा हैं तो रेणु राजकुमार हैं और शिवमूर्ति राजा बेटा । इस राजा बेटा को अभी राज तक पहुंचना शेष है। शिवमूर्ति की स्वीकृति का यह बैंड-बाजा तब और जोर से बजेगा, जब राजा बेटा राज तक पहुंचेगा। (sarokarnama.blogspot.in से साभार)


'पिता और पुत्र' - इवान तुर्गेनेव


नीहारिका झा

1860 ईस्वी में महान रूसी लेखक इवान तुर्गेनेव द्वारा रचित उपन्यास 'पिता और पुत्र' वर्तमान परिपेक्ष्य में भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना कि उस दौर में था। उपन्यास का हिन्दी अनुवाद मदनलाल 'मधु' ने किया है। तुर्गेनेव ने इस उपन्यास को उस दौर में लिखा था, जब रूस में तानाशाह जार निकोलाई प्रथम के शासन का अंत हुआ था और वहाँ सामाजिक बदलाव अँगड़ाइयाँ ले रही थीं। हर दौर की तरह इस दौर में भी नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच एक अंतर देखने को मिलता है। नई पीढ़ी में हमेशा एक नई सोच और नए विचारों का प्रार्दुभाव होता है और पुरानी पीढ़ी उसका विरोध यह कहकर करती है कि यह नीतिगत नहीं है, इस उपन्यास के मूल में भी यही विचार निहित है। साथ ही पिता और पुत्र के रिश्ते का जो वर्णन मिलता है वह वाकई दिल को छूने वाला है।
हरेक शब्द रिश्ते की समझ की परत-दर-परत खोलती है। पिता-पुत्र और माँ-बेटे के रिश्तों की गहराई तक पहुँचने का प्रयास बहुत कम लेखकों ने किया है, लेकिन कुछेक उदाहरण हैं, जिनकी रचनाएँ अजर-अमर मानी जाती हैं। मैकसिम गोर्की की 'माँ' और लियो टॉलस्टाय की कुछ कहानियों को कालजयी माना गया है, लेकिन पिता-पुत्र के उस संवेदनशील रिश्ते को बड़े कैनवास पर जिस सहजता और संवेदना के साथ उतारा है, वो तुर्गेनेव ही हैं।
उपन्यास के पात्रों के माध्यम से उन्नीसवीं सदी के शुरुआत में रूस की सामाजिक स्थिति कैसी थी, इस पर बारीकी से प्रकाश डाला गया है। बजारोव, अरकादी निकोलाई पेत्रोविच, पावेल पेत्रोविच जैसे अलग-अलग विचारों वाले पात्रों के जरिए इस बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि जार के शासन के बाद लोगों को किन-किन वैचारिक और सामाजिक संघषों का सामना करना पड़ा है। इन सब के बीच विभिन्न घटनाओं के जरिए लेखक ने किसानों की स्थितियों पर भी प्रकाश डाला है। उपन्यास के केन्द्र में बजारोव है, जो रूस के उस दौर की सामाजिक और मानसिक सोच के बिल्कुल उलट है। वह खुद को निहलिस्ट (कुछ भी नहीं) मानता है, उसका अक्कड़पन ही उसकी सबसे बड़ी खासियत है।
एक पिता के रूप में निकोलाई पेत्रोविच जितने कोमल ह्दय हैं उसी तरह अरकादी अपने पिता की भावनाओं का पूरा-पूरा ख्याल रखता है और उसका सम्मान करता है, लेकिन बजारोव अपने पिता वसीली इवानोविच और अपनी माँ की भावनाओं को कमजोरी मानता है। उसकी नजर में ये सारी चीजें इंसान को कमजोर बनाती हैं। इन रिश्तों को व्यर्थ मानने वाला बजारोव भी अन्ना सेर्गेयवना को पसंद करने लगता है। बजारोव के विचार उस दौर के रूसी समाज से कहीं आगे थे। यही वजह रही कि तुर्गेनेव को उसे अन्नतः उपन्यास में मारना पड़ा।
पाठकों को पिता और पुत्र के रिश्ते के उस अद्भूत वर्णन को अवश्य ही पढ़ना चाहिए, यह केवल रूस की सामाजिक परिस्थितियों के अुनूकूल नहीं, बल्कि हर देश और समाज की स्थिति के अनुसार है, क्योंकि हर समाज में नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ियों के बीच कड़वाहट और टकराहट की स्थिति बनी रहती है। यह जानना भी रोचक होगा कि जार के उस निरकुंश शासन से मुक्त होने के बाद समाज ने किस तरह खुद को नए सिरे से विकसित करने का प्रयास किया।
पाठकों को तुर्गेनेव के उस गहन चिंतन और अनुभव को भी जानने-समझने का मौका मिलेगा। तुर्गेनेव का युग रूसी साहित्य का उर्वर युग था, और उसी दौर में पुश्किन, गोगोल, चेखव जैसे लेखक हुए, लेकिन उन्हीं चमकते सितारों के बीच तुर्गेनेव ने अपने इस उपन्यास के जरिए अपनी चमक दुगुनी कर ली। ऐसे ऐतिहासिक उपन्यास से पाठकों को वंचित नहीं रहना चाहिए।

मुक्ति के अमर गायक हावर्ड फास्ट


सुनील दत्ता

अमेरिका के प्रगतिशील लेखको की परम्परा के महत्वपूर्ण उपन्यासकार , कहानीकार , पटकथा लेख हावर्ड फास्ट के अंतिम प्रयाण के साथ मानो एक युग ही समाप्त हो गया। जनता के साहित्य का ऐसा पुरोधा नही रहा जिसने दो तिहाई  शताब्दी की अपनी लेखनीय उपस्थिति के द्वारा न केवल अमेरिका बल्कि दुनिया की एक बड़ी आबादी के साथ अपनी कृतियों के माध्यम से एक लगातार संवाद बनाये रखा। अंग्रेजी भाषा में लिखने वाले हावर्ड फास्ट की कृतियाँ विश्व के सभी  भाषाओं में अनुदित हुई और बड़े उत्साह तथा सम्मान के साथ पढ़ी गयीं। अपने देश अमेरिका में वे अपने लेखक जीवन के प्रारम्भ से अन्त तक लगातार बेस्ट  सेलर देने वाले लेखको में से एक रहे, जिन्होंने जीवन भर स्वतंत्रता, समता तथा मानवाधिकार की जबर्दस्त हिमायत की। भारत में उनकी ''स्पार्टकस'' अमेरिकन '' और '' मुक्तिमार्ग '' जैसी अनुदित उपन्यास कृतियाँ बहुत  लोकप्रिय रही। जनपक्षधर रचनाकारों के लिए हावर्ड फास्ट एक आदर्श बने रहे। एक ऐसे आदर्श जिसे प्राप्त करने की आकाक्षा हर जनपक्षधर उपन्यासकार की  होती है। एक लेखक के रूप में संघर्षशील और जनता में लोकप्रिय होने का आदर्श। विश्व साहित्य में स्पार्टकस की स्थिति तो संघर्ष के एक प्रतीकात्मक बीजग्र्न्थ जैसी है। इतिहास की गहराइयो से मनुष्य के अदम्य साहस और संघर्ष  की अंतर्वस्तु को वर्तमान के लिए प्रेरणा स्रोत बनाने वाले हावर्ड फास्ट ने अंतिम सांस 88 वर्ष की अवस्था में अपने प्रिय शहर ओल्ड ग्रीनिच में ली।
आने जीवन काल में हावर्ड फास्ट अमेरिका के सबसे बड़े लेखक थे उन्होंने एक  बेहद चर्चित व सम्मानित लेखक के बतौर 80 पुस्तके लिखी। उन्होंने उपन्यास, पटकथा, कविताएं और पर्याप्त मात्रा में पत्रकारी लेखन भी किया। हावर्ड  फास्ट की कृतियों को आधुनिकतावादियों की तकनीकी तुलना में थोड़ा पिछड़ा हुआ माना जा सकता है मगर उनमे गजब की पठनीयता और पाठको को बाधे रखने वाली  रोचकता मिलती है |जिसने उन्हें आधुनिकतावादियो की तुलना में वृहत्तर पाठक  वर्ग दिया | '' सिटिजन टाम पेन " , ' फ्रीडम रोड '' ओर सपार्टकस ' जैसी  लोकप्रिय रचनाये अपने अनुवादों में भी अपनी औपन्यासिक पठनीयता नही खोयी  |  हावर्ड फास्ट ने बीसवी शताब्दी के अतिशय प्रयोगवादी दौर में लिखना शुरू  किया था और उस समय के लेखको की तुलना में वे थोड़ा पारम्परिक ही लगेगे |  हावर्ड फास्ट अपने उपन्यासों में जगह -- जगह उपदेश देते भी मिलेंगे  जिसे  उस दौर के आलोचकों ने एक कमजोरी के रूप में रेखांकित किया | मगर गहरी  प्रतिबद्धता वाले लेखको के बतौर उन्होंने अपनी सीधे सम्वाद करने की शैली और लोकप्रियता प्रदान करने वाली पठनीयता को नही छोड़ा | वे राजनितिक पक्षधरता के हामी थे और अपने पाठको से भी इसी बात की आशा करते थे | उनका मानना था  की किसी भी व्यक्ति के दार्शनिक विचारों का तब तक कोई अर्थ नही होता जब तक  वह उसके जीवन और कार्यो में परिलक्षित न हो | एक सच्चे समाजवादी की तरह वे  व्यवहार को सिद्धांत की कसौटी मानते थे |हावर्ड फास्ट अपनी विचारधारा की  गहराई  के बाद अपने वर्णनों में अक्सर वस्तुनिष्ठ होते थे और यही उनके  उपन्यासों को सफल बनाने वाला तत्व भी था | '' द लास्ट फ्रंटियर '' 1941 इस  बात का जोरदार उदाहरण है लेकिन कही नही उनका विचारधारात्मक दबाव जरूरत से  अधिक भी हो गया है जैसे '' क्लार्कटन 1947 उपन्यास में जो एक मिल हडताल पर  लिखी गयी है | कुछ ऐसी ही बात '' साइलास टिम्बर '' 1954 के बारे में कही जा सकती है जो मैकार्थीवाद के शिकार एक व्यक्ति पर लिखित है | हावर्ड फास्ट  स्वंय इस मैकार्थीवाद के शिकार हुए थे | 1950 के दशक में उन्हें मार्क्सवाद विरोधी अमेरिकी शासन का प्रकोप झेलना पडा |  उनकी रचनाओं को प्रतिबंधित  किया गया और उन्हें तीन महीने का कारावास भोगना पडा | लेकिन इस सबसे उनका  लिखना रुका नही हालाकि उनके लेखन में धीमापन अवश्य आया |
हावर्ड फास्ट ने अपने शुरूआती  जिन्दगी बेहद गरीबी में काटी | इसके कारण  वे मार्क्सवादी और समाजवादी सोच की ओर प्रवृत्त हुए थे | वे एक निम्न वर्गीय  श्रमिक परिवार के चार बच्चो में से एक थे | उनके पिता बार्ने फास्ट एक  लोहा मजदूर थे जो बाद में केवल कार बनाने और कपड़े के काम में लगे | हावर्ड फास्ट की माँ इडा की मृत्यु उनके बचपन में ही हो गया थी | खर्चे के लिए  पैसा कमाने की मजबूरी के कारण उन्हें फुटकर कार्यो में लगना पडा | जार्ज  वाशिंगटन स्कूल से निकलने के बाद उनकी शिक्षा धनाभाव के कारण आगे न बढ़ सकी | अपनी इस कम शिक्षा का ही प्रयोग उन्होंने अपने लेखन कार्य में किया  यद्दपि बाद में उन्होंने न्यूयार्क के नेशनल एकेडमी आफ डिजाइन में भी शिक्षा ग्रहण की |
हावर्ड फास्ट का प्रारम्भिक लेखन आश्चर्यजंनक था सत्तरह वर्ष की उम्र में  हावर्ड फास्ट ने अपनी पहली कहानी '' अमेजिंग स्टोरीज मैगजीन '' में भेजी और अगले ही वर्ष अपना पहला उपन्यास '' टू विलेजज'' डाल प्रेस को 100 डालर  पेशगी पर प्रस्तुत किया | दो पुस्तके प्रकाशित होने के उपरान्त सन 1938  में बैली फोर्ज के बारे में उनका उपन्यास '' कन्सीबड '' इन लिबर्टी ''  प्रकाशित हुआ जो भारी पैमाने पर सफल रहा और जिसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ | अमेरिका गृहयुद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखा गया यह उपन्यास सामान्य अमेरिकन  जनता की बहादुरी का चित्रण करता है | उसके बाद '' द अनवैकिवशड़ '' उपन्यास  जार्ज वाशिगटन और अमेरिका क्रान्ति के बुरे दिनों पर लिखा गया है | यह  जीवंत उपन्यास हमे इतिहास के उस क्रांतिकारी दौर में पहुचा देने की क्षमता  रखता है | परन्तु हावर्ड फास्ट के लिए सबसे महत्वपूर्ण कृति साबित हुई ''
सिटिजन टाम पेन '' जो क्रांतिकारी विचारक टाम पेन के जीवन पर आधारित  उपन्यास था | प्रसिद्ध नाटककार इल्म्रर  राईस ने इस उपन्यास पर एक जोरदार  समीक्षा लिखी थी जिसके प्रकाशन के बाद इसे महत्वपूर्ण कृति मानी गयी | राईस ने इसे 18 वी शताब्दी के विशिष्ठम व्यकित्व का जीवंत चित्र कहा था |
सिटिजन टाम पेन उपन्यास का हावर्ड फास्ट की रचनाओं में अपना अलग ही महत्व  दिया है |आलोचकों और इतिहासकारों का यह मत है की टाम पेन के व्यक्तित्व को  पुन स्थापित करने में इस उपन्यास की महत्वपूर्ण भूमिका रही | इस उपन्यास के प्रकाशन से पूर्व टाम पेन एक अचर्चित , कुविचारित और तिरस्कृत विचारक थे जिन्हें जान बुझकर एक अभियान के तहत अनदेखा किया गया था | ध्यात्ब्य है की  टाम पेन का प्रभाव शैली और बर्ड्सवर्थ जैसे अंग्रजी के रोमांटिक कवियों पर बहुत ही गहरा था , मगर बाद में पेन इतिहास के अन्धकार में पड़े रहे | यदि आज टाम पेन को विश्व के प्रमुख स्वतंत्रता और समानता के समर्थक लोकतांत्रिक
विचारको में माना जाता है तो उसके पीछे हावर्ड फास्ट और उनके इस उपन्यास की महत्वपूर्ण भूमिका रही है |
हावर्ड फास्ट की एक और महत्वपूर्ण कृति '' फ्रीडम रोड '' सन 1944 में  प्रकाशित हुई जो गृहयुद्ध के बाद के दक्षिणी अमेरिका के एक दास के बारे में है जो बाद में सीनेटर बनता है और '' कू क्लुक्स षड्यंत्र '' से संघर्ष करता है | सन 1979 में इसी उन्यास पर निर्मित टेली सीरियल में प्रसिद्ध  मुक्केबाज मोहम्मद अली ने भूमिका निभाई थी | इसी वर्ष '' स्पार्टकस '' का  भी प्रकाशन हुआ जो रोम के गुलाम विद्रोह के बारे में है | रूह को कपा देने  वाले दमन और अमानवीयता के बीच स्पार्टकस  के संघर्ष की गाथा विश्व  साहित्य  में अप्रतिम है | रोमन दासो की यह क्रान्तिगाथा एक क्लासिक उपन्यास का  स्थान पा चूकि है और हिन्दी सहित विश्व की सभी प्रमुख भाषा में इसका अनुवाद हो चुका है | हिन्दी में यह ऐतिहासिक महत्व का अनुवाद अमृत राय के हिस्से
में '' आदि विद्रोही '' के नाम से आया है |
स्पार्टकस का रचनाकाल हावर्ड फास्ट के लिए गम्भीर संघर्ष का समय था | इस  दौर में मैकार्थीवाद के तहत कम्यूनिस्टो को खोज -- खोज कर सजाये दी जा रही  थी | उन्हें सामाजिक तौर पर देश द्रोही होने के आरोप से कलंकित किया जा रहा था | प्रसिद्ध नाटककार आर्थर मिलर की ही तरह हावर्ड फास्ट को भी इस काले  अमरीकी अभियान का शिकार बनना पडा और तीन माह की सजा भगतनी पड़ी | उनकी  पुस्तको को काली सूचि में शामिल कर दिया गया | 1951 में उनके प्रकाशक लिटिल ब्राउन के प्रमुख सम्पादक एगस केमेरान पर भी मैकार्थीवाद  की गाज गिरी और  उन्हें त्यागपत्र देने पर मजबूर होना पडा | आरोप था कम्युनिस्ट लेखको की  पुस्तको को प्रकाशित करने का '' स्पार्टकस '' के प्रकाशन के लिए उन्हें एक  प्रकाशक से दूसरे प्रकाशक के पास जाना पडा परन्तु कोई इस उपन्यास को  प्रकाशित करने को तैयार नही हुआ | बाद में डबूलड़े के एक सदस्य ने उन्हें  इसे स्वंय ही प्रकाशित करने की सलाह दी और इस पुस्तक की 600 प्रतिया खरीद लेने का आश्वासन भी दिया |
हावर्ड फास्ट के सर्वाधिक चर्चित और महत्वपूर्ण उपन्यास '' स्पार्टकस '' की कहानी ईसा पूर्व पहली शताब्दी में हुए रोमन दास विद्रोह पर आधारित है | यह एक महत्वपूर्ण बात है की इतिहास में इस दास विद्रोह का विस्तार से वर्णन  नही मिलता और हावर्ड फास्ट की विशेषता यह है की उन्होंने इतिहास की इस कम
चर्चित घटना के चारो तरफ जिन्दगी का एक ऐसा ताना -- बाना बुना है जो रोमन समाज के अंतसंबंधो  को अर्थपूर्ण स्वरूप देता है | मुक्ति संघर्षो के  संदर्भ में वह एक ऐसी क्रांतिकारी कृति साबित हुई जिसकी प्रासंगिकता आज भी  बनी है और जो जीवन में एक सार्थक अंतरदृष्टि प्रदान करती है | फास्ट के लिए इतिहास राजा -- रानी की कहानी न होकर संघर्षो की गाथाए थी जिनसे मनुष्य के सुन्दर वर्तमान की संभावना बनती है -- सुन्दर भविष्य की भी | रोमन इतिहास  में दास विद्रोह के लिए बड़ा स्पेस नही क्योंकि उस इतिहास का लेखन सत्तापक्ष के द्वारा हुआ था | लेकिन फास्ट का उपन्यास दास  विद्रोह को केंद्र में रखता है और उसका दमन करने वाले रोमन नायक परिधि पर रहते है | इतिहास में यह  अंतर्दृष्टि फिर भी '' स्पार्टकस '' को एक उपन्यास ही रहने देती है -- न की ऐतिहासिक तथ्यों का पुलिंदा |
हावर्ट फास्ट ने 1943 में कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता स्वीकार की और 1956 तक उसके प्रति वफादार रहेलेकिन स्टालिन के अपराधो को लेकर खुशचेव के प्रछन्न वक्तव्य और रुसी सेना द्वारा हंगरी की क्रान्ति के कुचले जाने के  बाद वे कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हो गये | लेकिन उन्होंने समाजवाद के  सिद्धांतो को नही त्यागा और मैकार्थीवाद को वे अमेरिका की स्वतंत्रता के  लिए सबसे बड़ा खतरा बतलाते हुए उसके विरुद्ध संघर्षरत रहे | 1952 में  उन्होंने अमरीकन लेबर पार्टी के टिकट  पर चुनाव लड़ा |
'' अप्रिल मानिर्वा '' 1960 , लेविट परिवार के संघर्ष पर आधारित '' द इमिग्रेंट्स '' 1977और सेकेण्ड जेनेरेशन '' 1978 '' द ईस्टबलिशमेंट 1979 द लिगेसी 1981 बाद की महत्वपूर्ण कृतियाँ थी जो शोध पर आधारित थी | ये उपन्यास शताब्दी के प्रारम्भ से पीढ़ी दर पीढ़ी , वियतनाम युद्ध और  स्त्रीवादी आन्दोलन तक के सीमान्तो को छूटे है | फास्ट ने ई.ई .कनिघम के  नाम से जासूसी उपन्यास भी लिखे जिनका नायक मसाव मासुतो एक जेन बौद्ध था |
फास्ट स्वंय जेन बौद्ध दर्शन से प्रभावित थे | हावेद फास्ट की बाद में आने  वाली कृतियों में '' द प्राउड एंड द फ्री ''द पैशन आफ सेको ईंद वैन्जेटी''  जैसे उपन्यास '' थर्टी पीसेज आफ सिल्वर '' नाटक , पिक्सीक्ल कथात्मक इतिवृत शामिल है | अस्सी पार करने के बाद भी फास्ट ने लिखना नही छोड़ा | उनका  अंतिम उपन्यास '' ग्रीनिच '' 200 कुलीन समाज की एक डिनर पार्टी को लेकर  लिखा गया है | यह वास्तव में अमेरिकी समाज में अपराध बोद्ध और मुक्ति की  अंतर्कथा है | हावर्ड फास्ट ने अपने नाम से 40उपन्यास , ई . ई .कनिघम के छदम नाम से 20 उपन्यास लिखे | इसके अतिरिक्त उन्होंने नाटक , पटकथाये , टी , वी. नाटक और कविताएं आदि भी अपने जीवन काल में लिखी |यहूदियों का एक  इतिहास और कुछ राजनितिक जीवनिया तथा किशोरोपयोगी ग्रन्थ भी उनके हिस्से में है |यह एक तथ्य  है की शताब्दी के प्रारम्भ के उपन्यासकारो की परम्परा  में हावर्ड फास्ट ने एक बड़ी सीमा तक उस फिल्माकन तकनीक का इस्तेमाल किया  जो दृश्यों पर अधिक ध्यान देती थी |इतिहास में यह परम्परा इंग्लैण्ड के  उपन्यासकार टामस हार्डी तक पीछे जाती है जिसकी आधुनिक लेखको  ने आलोचना की है | इस अर्थ में हार्ड फास्ट थोड़ा पीछे की तकनीकी का इस्तेमाल करते है |वे तकनीकी की जटिलता से बचते हुए क्ति को ज्यादा महत्व देते है | वे यह  सवाल करते है की एक उपन्यासकार के पास आखिर कहने लायक क्या है ? निश्चित  रूप से उनके उपन्यासों में कथा वस्तु और किस्सागोई की तीव्रता के सवाल को  कम महत्वपूर्ण बना देती है | यह प्रचार का स्वर तेज है और लेखक सब कुछ कह  देने में बुरा नही मानता | लेकिन व्यक्तिगत कुछ नही | लेखक के विचार अवश्य  है | अपने लेखन में हावर्ड  फास्ट आत्मकथात्मक  कम ही रहे | यदि थोड़ा बहुत  ऐसा है भी तो वह आभास '' सिटिजन टाम पेन '' में मिलता है जहा नायक उन्ही की तरह एक लेखक क्रांतिकारी है जो अपने विडम्बना पूर्ण अंधकारमय भवु\इश्य से  सुपरिचित है | पार्टी छोड़ने के बाद फास्ट को कम्युनिस्ट खेमे में अतिवादियो  की आलोचना का शिकार होना पडा | मगर पाब्लो नेरुदा ने अपनी एक कविता फास्ट  के लिए लिखी और पाब्लो पिकासो ने 1949 में पेरिस में उनका जोरदार स्वागत  किया था | वे कभी तीखे कम्युनिस्ट विरोधी नही रहे | उनका विरोध मुख्यत:  स्टालिन की अधिनायकवादी नीतियों से था | अमेरिका आने वाले सोवियत लेखको ने  उन्हें सम्मान देना जारी रखा | मार्क्स  वादियों का एक खेमा उन्हें बड़े  सम्मान से पढता रहा | इसका कारण यह था की वे जीवन भर स्वतंत्रता , समता  प्रगतिशीलता के समर्थन तथा फासीवाद विरोध के प्रतीक बने रहे | हावर्ड फास्ट
स्वंय वाल्ट हिव्तमैंन , मार्क टवेंन की उस जींवत मानवतावादी परम्परा के  लेखक थे जिसका सूत्रपात टाम पेन , जेफरसन , अब्राहम लिकंन जैसे लोगो ने किया था |
इतिहास हावर्ड फास्ट का विषय है -- अमरीकी का इतिहास , यहूदी  इतिहास औरविश्व का इतिहास , लेकिन यह इतिहास सामान्य जन का है जो संघर्षरत है |
हर युग और समय में वे मनुष्य के प्रगतिशील मूल्यों की तलाश करते है | उसके संघर्ष और उसकी विडम्बनाओ को | अक्सर यह संघर्ष त्रासद परिणितियो की ओर  जाता है | परिणाम स्वरूप हावर्ड फास्ट की कृतियाँ अक्सर पाठको को एक  भावनात्मक उदासी में डूबा देती है | मगर यह उदासी संघर्ष के प्रति एक उत्कट आस्था भी पैदा करती है | फास्ट इतिहास और वर्तमान के सजीव पात्रो की कहने  के प्रति एक उत्कट आस्था भी पैदा करती है फास्ट इतिहास और वर्तमान के सजीव पात्रो की कहानी कहते है | यही बात है जो उन्हें एक व्यापक पाठक वर्ग  प्रदान करती थी | ऐतिहासिक घटनाए हो अथवा समसामयिक इतिहास , जो भी पददलित है , पीड़ित है उनके साथ हावर्ड फास्ट अपनी रचनाओं में खड़े मिलते है | वह  अत्याचार के शिकार किसी भी समूह अथवा व्यक्ति के साथ अपनी सहानुभूति व्यक्त करते है चाहे वे '' स्पार्टकस '' उपन्यास के संघर्षरत रोमन दास हो अथवा मुक्तिमार्ग या पीकसिकल  के नीग्रो जाति के लोग |कोई भी वर्ण, जाति , देश अथवा युग हो , वे सदा पीडितो के साथ है क्योंकि उनका आदर्श स्वतंत्रता और समानता की प्राप्ति है | वे एक ऐसे समाज का स्वप्न देखते है जो और उत्पीडन  से मुक्त हो |जनता द्वारा हावर्ड फास्ट की रचनाये एकरुपिता और प्रेम से पढ़ी गयी | वे स्वंय भी औनिवेशिक जनता की समस्याओं और पीडाओ से परिचित थे |
उन्होंने एक जगह लिखा है | गत नौ वर्षो से अमरीका में हम लोग जो अपने आप को प्रगतिशील समझते है ; और शान्ति से प्यार करते है , जनवाद का आदर करते है  करते है और युद्ध तथा फासिज्म से घृणा करते है , पुलिस के दमनकारी राज्य  में रह रहे है , पहले से ज्यादा गहराई से हम आज हर जगह की औनिवेशिक जनता की विपदाए , अपमान और शानदार वीरता को समझ गये है और एक प्रकार से उनका और हमारा अनुभव एक ही रहा है ''|
हावर्ड फास्ट का पहला उपन्यास अमेरिकी  मंदी के दौर में आया और बहुत लोकप्रिय हुआ1980 के दशक के भी वे बेस्ट सेलर बने रहे | उनके अंदर चरित्रों के रेखाकन की अदभुत क्षमता थी | पठनीयता और  किस्सागोई के तत्व थे जिन्होंने उनकी रचनाओं को उत्तर आधुनिकता के दौर में  भी चर्चित और लोकप्रिय बनाये रखा | अमेरिका के तमाम राजनितिक उथल - पुथल और अभिरुचि परिवर्तनों के दौर में वे सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रगतिशील बने रहे | हावर्ड फास्ट समानता और स्वतंत्रता के अप्रतिम उपन्यासकार थे | रोमन दासता से लेकन अमेरिकी क्रान्ति तक की संघर्षपूर्ण दास्ताँ को उन्होंने ऐसा  औन्यासिक स्वरूप दिया जिसने उन्हें अमेरिका ही नही , पूरे विश्व में बेहद  सम्मानित साहित्यकार का दर्जा प्रदान किया | अक्सर यह कहा गया की हावर्ड  फास्ट ने कहानी के परवाह पर अधिक ध्यान दिया और इस चक्कर में ऐतिहासिक  तथ्यों और कला की सूक्ष्मताओ की अनदेखी की | हार्वे स्वेडोऔर एलन नवीं जैसे हावर्ड फास्ट के आलोचकों ने उन पर ऐसे आरोप लगाए है पर यह प्रचंड  किस्सागोई ही थी जिसने उन्हें अपने हजारो हजार कला की सूक्ष्मताओ से अनभिज्ञ पाठको के साथ जोड़े रखा | इतनी बड़ी मात्रा में लेखन करने वाले हावर्ड फास्ट की अपने आप से अंतिम शिकायत यह थी की जितनी कहानिया उन्होंने  जीवन भर में लिखी उससे अधिक कहानिया उनकी कलम से अनलिखी ही रह गयी | संघर्ष में गहरी रूचि और आस्था रखने वाले फास्ट को अपना जीवन 88 वर्ष जीवन छोटा  और अपना पहाड़ जैसा काम काफी अपर्याप्त लगा | हिन्दी जगत में एक दो  रचनाये लिखकर महानता का महाभाव पालने वाले लेखको को हावर्ड फास्ट की इस बैचेन  आत्मप्रताड़ना से सबक लेना चाहिए।

'ल नौसी'- ज्यां-पाल सार्त्र


ज्यां-पाल सार्त्र को १९६४ में नोबेल पुरस्कार मिला था। वह अस्तित्ववाद के पहले विचारकों में से माने जाते हैं। वह बीसवीं सदी में फ्रान्स के सर्वप्रधान दार्शनिक कहे जा सकते हैं। कई बार उन्हें अस्तित्ववाद के जन्मदाता के रूप में भी देखा जाता है। अपनी पुस्तक 'ल नौसी' में सार्त्र एक ऐसे अध्यापक की कथा सुनाते हैं जिसे ये इलहाम होता है कि उसका पर्यावरण जिससे उसे इतना लगाव है वो बस किंचित निर्जीव और तत्वहीन वस्तुएं से निर्मित है किन्तु उन निर्जीव वस्तुओं से ही उसकी तमाम भावनाएँ जन्म ले चुकी थीं। सार्त्र का निधन अप्रैल १५, १९८० को पेरिस में हआ। ज्यां पाल सार्त्र समय के हाथ आया हुआ विडम्बनाओं का ऐसा गोलक थे जो घटनाओं के दबाव में खुलता और बंद होता रहा। इसी प्रक्रिया में उनका दर्शन अर्थ प्राप्त करता है। उनकी व्यक्तिवादी, स्वतन्त्र, स्वनियन्ता स्थितियों को वक्त के हाथों पूरी तरह खारिज होना था। मानव की अपने प्रति एक अनैतिक अनास्था अन्ततः एक घोर नैतिक युद्ध में परिणित होनी थी। उन का जीवन अभिशप्त स्थितियों के घेरों को तोड़ कर एक सक्रिय सामाजिक जुझारू बौद्धिक के रूप में सामने आया। उद्देश्यहीनता, अर्थहीनता और निरन्तर मृत्युबोध की स्थितियाँ कब समय की क्रूरता और अन्यायों से लड़ते लड़ते छिन्न-भिन्न हो गईं, सार्त्र को स्वयं इस का अहसास तब हुआ जब उन्हें दूसरे विश्वयुद्ध में नाज़ियों ने बन्दी बना लिया। कुछ हो सकने की प्रतीक्षारत रिक्तता में बैठ रहने का अस्तित्वादी दर्शन उस समय की विस्तृत, विशाल लेकिन क्रूर ऐतिहासिक घटनाओं की पृष्ठभूमि में प्रमाणित से अधिक खंडित ही हुआ।
सार्त्र बहुत कम स्थितियों में अपना चुनाव स्वयं कर पाने की परिस्थिति में रहे। 3 वर्ष की आयु में उन की दायीं आँख की रोशनी लगभग जाती रही थी। 18 महीने की आयु में उन के पिता का देहान्त हो गया। वे बारह वर्ष के थे जब उन की माँ ने दूसरी शादी कर ली। ये ऐसी परिस्थितियाँ थीं जिन के वे नियन्ता नहीं हो सकते थे। दो विश्वयुद्ध हुए। दूसरे विश्वयुद्ध में उनकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता छिन गई। इस के एक दम बाद 1950 में कोरिया का युद्ध हुआ। फ्रांस और वियतनाम के बीच उपनिवेशिकता के विरुद्ध घोर संघर्ष हुआ। फिर फ्रांस के विरुद्ध अल्जीरिया का स्वतन्त्रता संघर्ष चला जिस में सार्त्र की अहम्‌ भूमिका रही। वियतनाम पर अमरीका का साम्राज्यवादी आक्रमण हुआ। सार्त्र अमरीका के विरुद्ध एक अन्तर्राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष रहे। रूस में स्टालिन के अधिनायकवाद ने कम्यूनिस्ट पार्टी की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचाया। हंगरी और चेकास्लोवालिया में रूस का सैनिक हस्तक्षेप सार्त्र को पूरी तरह निराश कर गया और वे कम्यूनिस्ट पार्टी से विमुख हो गये। समय की इन महानियन्ता घटनाओं ने व्यक्ति के स्वनियन्ता होने के बोध को जहां खंडित किया वहां व्यक्ति की पारस्परिक स्वतन्त्रता के सिद्धान्त को बहुत पुष्ट भी किया। इस समस्त समय में विज्ञान और दर्शन एक दयनीयता के शिकार हुए लेकिन सार्त्र इस संत्रास की दयनीयता से उभर कर मानव जाति के एक राजनीतिक भविष्य में विश्वास करने लगे।
सार्त्र के अस्तित्ववादी दर्शन का प्रभाव उनके जीवन काल में ही झीना पड़ गया था। उन्होंने व्यक्ति की स्वतन्त्रता और उसकी नियन्ता स्थिति के साथ सामाजिक ज़िम्मेवारी का समावेश करके अस्तित्ववाद को मार्क्सवाद की स एक अंतर्धार के रूप में देखने की ईमानदार कोशिश की थी। इसके फलस्वरूप वह सिरोन कीर्कगार्द के मौलिक सिद्धांतों से दूर जा पड़े। कीर्कगार्द वस्तुतः अपनी प्रेरणाओं में पूर्णतः अनीश्वरवादी नहीं थे। उनका विश्वास था कि ईश्वर मनुष्य से बहुत दूर है और उसे एक गहन विश्वास से ही महसूस किया जा सकता है। व्यक्ति की दैनिक वास्तिवक स्थितियों में अनिर्षित विश्वास का बहुत परोक्ष आधार ही हो सकता है फिर भी आधार की स्वीकृति थी ही। लेकिन सार्त्र ईश्वर की सत्ता को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते थे। ईश्वर का अस्तित्व मानव-मात्र के लिए पहले से ही बहुत कुछ निश्चित कर देता है। और इंसान की स्वतंत्रता तथा अपने प्रयत्नों द्वारा अपना निर्माता होने की स्थिति को खंडित करता है। इससे एक विचार-स्थिति और आगे जाकर सार्त्र ने अकेले व्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता के अर्थ को भी संशोधित किया। वे सामूहिक स्वतंत्रता के पक्ष में रख कर ही व्यक्ति की स्वतंत्रता को देखने लगे थे।
महज़ एक अस्तित्ववादी, दार्शनिक, उपन्यासकार, नाटककार या अन्य विधाओं के लेखक के रूप में ही नहीं, हमें सार्त्र के राजनीतिक दर्शन और सामाजिक कर्मशीलता को भी बराबर ध्यान में रखकर ही उनके समग्र व्यक्तित्व का जायज़ा लेना होगा। सार्त्र के अंतिम दस या कुछ अधिक वर्ष उनकी आंतरिकता के बाह्यीकरण का इतिहास हैं। अंतिम वर्षो में उनका बिगड़ता हुआ स्वास्थ्य उन्हें काफी सीमित करता था। इसलिए उन्होंने अलग-अलग माध्यमों द्वारा अपने चिंतन को अंकित किया। रेडियो, टेपरिकार्डिंग, भाषणों और विस्तृत साक्षात्कारों और अपने कुछ अंतरंग मित्रों के साथ डायलाग के द्वारा वे सामाजिक मुद्दों से बड़े सक्रिय रूप में जुड़े रहे। ये माध्यम उनकी लिखित वैचारिक निधि से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। उनके सारे अंतर्विरोध इन माध्यमों में खुलकर सामने आते हैं। जो बातें लेखन में अनकही, अधूरी या अस्पष्ट रह जाती हैं, उनकी बातचीत के लम्बे सत्रों में इस तरह प्रकट होती हैं जैसे एक मासूम व्यक्ति कई तरह से अपनी बात समझाने की कोशिश करता है। लेकिन फिर भी जैसे सब कुछ अपूर्ण ही रह जाता है। कहने-सुनने वाले असंतुष्ट ही रह जाते हैं। इस अपूर्णता और असंतुष्टि का चित्र जब एक महान दार्शनिक का अपने अंतिम वर्षों में उभरता है तो लगता है कि वे पूरी तरह समाजवादी होकर भी अपने गहनतम अलक्षित अंतस में मूलतः अस्तित्ववादी ही बने रहे। अपनी अपूर्णताओं की रिक्तता को विचारों से नहीं भरा जा सकता। वास्तविकताओं और दर्शन को परस्पर स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। यह गहन एकांत व्यक्तिवादिता उन्हें उद्वेलित करती ही रहती थी। अपने उद्देश्य निर्धारित करने में और उन्हें पूरा करने में जिस अस्तित्ववादी स्वतंत्रता की आवश्यकता होती है वह मिल जाने पर भी उद्देश्यों की पूर्ति अकेले इंसान की स्वतन्त्रता से नहीं हो सकती, इस बात का अहसास जितना गहरा होता गया, उतनी ही निराशा उन्हें इसके विपरीत और अपने पक्ष में खड़े दर्शन को कार्यान्वित करने वाली कम्यूनिस्ट पार्टी से हुई और वे दोनों विचार-पद्धतियों के बीच समन्वय का रास्ता ढूंढते रहे।
1960-80 के बीच विश्वस्तर पर सार्त्र की अपनी लेखकीय और सामाजिक मान्यताओं के स्तर पर बहुत कुछ महत्वपूर्ण घटा। फ्रांस और अल्जीरिया के बीच संघर्ष अपनी निर्णायक स्थिति में था। अल्जीरिया के लिए यह अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई थी और फ्रांस के लिए अपना साम्राज्य बनाए रखने का संघर्ष था। सार्त्र ने अपनी सरकार का घोर विरोध किया। अल्जीरिया के युवकों का साथ दिया, फ्रांस में भी एक जनआंदोलन अल्जीरिया के पक्ष में उभरा जिसके प्रणेताओं में सार्त्र रहे। कुछ राष्ट्रवादी फ्रांसीसी युवकों ने दो बार सार्त्र के निवास पर बम फेंके, उन्हें रास्ते से हटा देने के लिए। उधर अमेरिका में सिविल लिबर्टीज़ का आंदोलन मार्टिन लूथर किंग चला रहे थे। छोटे छोटे और बड़े जनसमूहों को साथ लेकर। सार्त्र की पुस्तक क्रिटिक में जिन छोटे बड़े समूहों ने मिलकर सत्ताधारियों के लगातार विरोध की बात की थी, इन अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं ने उस सिद्धांत की एक क्रियात्मक पूर्ति ही की। ये लड़ाईयाँ एक ही स्थिति में निर्णायक न होकर अपना प्रभाव समूचे समाज की मानसिकता बदलने में रखती हैं। इसके विपरीत एक छोटे से समयांश पर फैली हुई हिंसात्मक क्रांति उसी समय यदि सफ़ल हो भी जाए, तो क्या मानसिकता को लंबे समय तक बदल सकती है? स्वतन्त्र मानव समूहों के अलग-अलग समयों और स्थानों पर चलने वाले आंदोलनों और विरोधों को सार्त्र पारंपरिक मार्क्सवादी विशाल जनसमूहों के उभार और छोटे से समय में सब कुछ बदलने वाली निर्णायक स्थितियों के विरोध में खड़ा देखते थे।
अमेरिका उन्हीं दिनों बड़े पैमाने पर वियतनाम पर अपनी घोर साम्राज्यवादी क्रूरता थोपने में लगा हुआ था। सार्त्र ने इसका भी ज़ोरदार विरोध किया। इंग्लैण्ड के महान दार्शनिक बरट्रेंड रसल द्वारा वियतनाम युद्ध की जाँच समिति जब गठित की गई तो सार्त्र को उस समिति का अध्यक्ष बनने को कहा गया। उस समिति ने अमेरिका को मासूम जनसमूहों पर अत्याचार करने और दूसरे देश पर अपना आधिपत्य थोपने के अपराध का स्पष्ट शब्दों में दोषी ठहराया और साम्राज्यवाद की भर्त्सना की। इस जांच समिति की दूसरी बैठक फ्रांस में करने का प्रस्ताव रखा गया, लेकिन 'दिगाल' की सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी। इसी दशक में रूस ने चैकोस्लोवाकिया के सुधार आंदोलन को बुरी तरह कुचला। सभी को रूस की कम्यूनिस्ट पार्टी से बहुत निराशा हुई। 1968 में पेरिस में प्रमुख रूप से युवकों के जनआंदोलन को 'दिगाल' की सरकार ने अपने छोटे-छोटे उद्देश्यों की पूर्ति में असफ़ल कर दिया। उसका कारण काफ़ी हद तक यही रहा कि फ्रांस की शक्तिशाली कम्यूनिस्ट पार्टी ने उन युवकों को बिल्कुल समर्थन नहीं दिया। वह सत्ता में आने की या शासन पलट देने की लड़ाई नहीं थी जिसके लिए कोई बड़ी क्रांति दरकार थी। फिर भी पार्टी की चुप्पी ने सार्त्र को बहुत निराश किया। उधर क्यूबा में फिदैल कास्त्रो की ज्वलन्त क्रांतिकारिता ने सबको आशान्वित किया था। सार्त्र फ़िदैल से क्यूबा जाकर मिले भी थे। लेकिन रूस के प्रभाव में आकर उस क्रांति का स्वरूप एक दमनकारी राज्य में बदल गया। सार्त्र ने उसका विरोध किया जिसके लिए फ़िदैल ने खुले तौर पर सार्त्र की निंदा की थी।
समाजवाद और स्वतन्त्रता के सिद्धांतों में विश्वास करने वाले छोटे-छोटे जनसमूहों से सार्त्र का मित्रतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो गया। ये समूह अपने आपको माओज़ कहलाते थे। ये वामपन्थी थे, लेकिन कम्यूनिस्ट पार्टी से इनका कोई सम्बन्ध नहीं था। इन्होंने एक पत्र La Cause Du Peuple नाम से प्रकाशित करना शुरू किया। इस प्रकाशन का कोई मालिक नहीं था। इस में सरकार की नीतियों के विरुद्ध कोई भी आम आदमी लिख सकता था। एक तरह के उग्रवादी कर्मियों द्वारा ही यह पत्र गलियों, चौराहों पर बेचा जाता था। सरकार के आदमी प्रेस में जाकर इसकी प्रतियाँ ज़ब्त कर लेते थे। दो सम्पादकों को गिरफ्तार भी कर लिया गया। सबने कहा कि सार्त्र को स्वयं सम्पादक के रूप में इसे शहर की गलियों में बेचना चाहिए। मई एक, 1970 को सार्त्र अपने वामपंथी साथियों के साथ चौराहों पर यह पत्र बेचते रहे। उनकी शक्ति और ख्याति को देखकर उन्हें तो गिरफ़्तार नहीं किया गया, लेकिन दूसरे विक्रेताओं को पकड़ कर उन पर मुकद्दमा चलाया गया। जून, 1970 में सार्त्र ने प्रमुख वामपन्थी संगठनों के साथ मिल कर Secours-Rouge की स्थापना की। इस संस्था का घोषणापत्र सार्त्र ने लिखा जिस में कहा गया था कि सरकारी नीतियों से प्रताड़ित व्यक्तियों और उनके परिवारों की मदद के लिए संस्था काम करेगी, उनकी नैतिक आर्थिक सहायता करेगी। उन के संघर्ष में उनका साथ देगी। हज़ारों की संख्या में फ्रांस के लोग इस संस्था के सदस्य बने।
अपने लेखन में भी सार्त्र ने अपने समय में फैले हुए राजनैतिक, औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ उठाई। तीसरी दुनिया में राजनैतिक आज़ादी आने पर भी तरह-तरह की साम्राज्यवादी ताकतें उन्हें उपनिवेश बनाए रखना चाहती थीं। फ्रांज़ फ़ैनन की The Wretched of the World पुस्तक का पूर्वकथन सार्त्र ने उन दिनों लिखा जब अल्जीरिया अपनी स्वतन्त्रता संघर्ष के अंतिम चरण में था। साम्राज्यवादी ताकतें किस तरह अपने उपनिवेशों का शोषण करती हैं और उन्हें राजनैतिक आज़ादी देने के बाद भी किसी न किसी तरह उनकी औपनिवेशिक स्थिति बनाए रखना चाहती हैं, इस बात का चित्रण एक साहसिक दस्तावेज़ है। फ़ैनन अल्जीरिया की अंतरिम सरकार के अधिकारी थे। इन्हीं दिनों कांगो के नेता पैट्रिक लुमुम्बा के प्रसिद्ध भाषणों की पुस्तक का प्राक्कथन भी सार्त्र ने लिखा। इसमें स्पष्ट रूप से उन्होंने कहा कि यूरोप दुनिया का केंद्र कभी नहीं बन सकता। उसका साम्राज्यवादी सपना कभी पूरा नहीं हो सकता। लुमुम्बा की हत्या के पीछे कुछ बाहर की पूंजीवादी ताकतें थीं और कुछ कांगो के ही बुर्जुवा कोयला खानों के मालिक थे।
सिर्फ़ लेखन ही नहीं, सार्त्र अपने व्यक्तिगत दैनिक जीवन में भी सिर्फ़ गुम्बद में बैठकर सोचने वाले बौद्धिक नहीं रह गए थे। कैफ़े में बैठे हुए, चुरूट पीते हुए, दूसरे बौद्धिकों के धुएं को अपने धुएं से गहराते हुए आत्मलिप्त सार्त्र नहीं रह गए थे। रातों को शराब और दिन में Corydrane, Metamethane खाने वाले सार्त्र अब अपने अंतिम दिनों में एक आम मज़दूर कार्यकर्ता के साथ, जुलूस निकालने वाले जनसमूहों के साथ, विद्रोही विद्यार्थियों की टोली के साथ, शहर की गलियों, चौराहों पर उन्हीं में से एक बन कर, कभी इन के अगुआ बन कर, उन्हें भाषण देते हुए, कभी कुछ भी न होकर एक आम आदमी की तरह उन में शामिल होकर अपने समय की जीवन्त शक्ति बन गए थे। Being and Nothingness की एकान्तिक स्वतन्त्र यात्रा, उद्देश्यहीन, अन्ततः कुछ न हो सकने का अपने ही अनिश्चयों का फैलाव अब एक निश्चित रूप से अस्तित्ववादी और समाजवादी चिन्तन के आधार का कार्यान्वित उदाहरण बन गया था। इस अन्तर की प्रामाणिकता के लिए उन के आरंभिक दिनों में लिखे हुए उपन्यास Nausea के मुख्यपात्र रौक्वैन्टिन की मनस्थिति का एक चित्र काफ़ी है। यह उपन्यास सार्त्र की अस्तित्ववादी कृति Being and Nothingness के दर्शन का ही कथात्मक अंकन है।
अपनी आत्कथात्मक अभिव्यक्ति Word में सार्त्र ने कहा था, तीस वर्ष की उम्र में मैंने अपनी पूर्ण लेखन शक्ति के साथ Nausea में कहा था, विश्वास करो, मैंने पूरी ईमानदारी के साथ कहा था कि हम सब का जीवन एक कड़वाहट है, एक अनाधिकार चेष्टा है जीने की। मैंने अपने-आप को ही उस अनाधिकृत स्थिति से मुक्त करने के लिए ऐसा लिखा था। मैं स्वयं ही रौक्वैन्टिन (Nausea का मुख्यः पात्र) था। मैंने बिना किसी अनिश्चय के अपने ही जीवन की बुनावट व्यक्त करने की कोशिश की थी।
उपन्यास में रौक्वैन्टिन कहता है - इस ज़िंदगी का तानाबाना हास्यास्पद नाटिका है। ये सब लोग जो यहां बैठे खा-पी रहे हैं, देखने में गंभीर लग रहे हैं - इन सब की अपनी-अपनी कठिनाईयां हैं जो इन्हें अपने अस्तित्व का अहसास नहीं होने देतीं। इन में से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो स्वयं को किसी और के लिए अत्यावश्यक समझता हो, यह समझता हो कि उसका होना किसी और के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।... वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है, कुछ भी नहीं। जीवित रहने का कोई भी कारण नहीं है। हम एक दूसरे के अस्तित्व को सीमित कर रहे हैं। यही वह अर्थहीनता है जो चारों तरफ फैली हुई है। इस अर्थहीनता में मैं आज़ाद हूँ, अकेला हूँ - लेकिन आज़ाद हूँ। और यही वह सार्त्र हैं जिन्होंने 1964 में एक साक्षात्कार में कहा था, एक मरते हुए बच्चे के बराबर रखकर देखने से Nausea का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
इस तरह की आंतरिकता का बाह्यीकरण सार्त्र के अंतिम वर्षों में हर जगह उनके कार्यों और मान्यताओं में देखने को मिलता है। उसी दृष्टि से सार्त्र ने 1965 में कहा था - कि मेरे लिए व्यक्तिवाद बाह्य वास्तविकताओं का ही अन्तरीकरण है। करीब करीब यही उनका आधारभूत विश्वास बना रहा कि एक ही व्यक्तित्व में वैश्विक वास्तविकताएं समाहित हैं और यही तथ्य व्यक्ति के संसार में उत्तरदायित्व पूर्ण ढंग से जीने का तर्क भी है। इसी तर्क को सार्त्र ने हमेशा प्रयोग किया, और वे हमेशा शुद्ध व्यक्तिवादियों की अवांछनीयता से बचते रहे जो पाश्चात्य दर्शन पद्धतियों में भरी पड़ी हैं। उन्होंने अपने इस Singular Universal वाले तर्क को केवल कवच के रूप में इस्तेमाल नहीं किया। वरना The Critique of Dialectical Reason से आगे का विकास एक लगातार बहती हुई विचार प्रक्रिया के रूप में देखना आसान नहीं होता। उनका कोई भी विचार अपनी पूर्णता प्राप्त करने के पश्चात एक बिंदु पर आकर समाप्त नहीं हो जाता। उसके आगे हमेशा कुछ और संभावनायें, एक खुलापन बचा रहता है। इसीलिए विचार अपनी अन्तरिम स्थिति में ही रहते हैं। सभी दर्शनों के Absolutism के सार्त्र विरोधी थे। एक Open Endedness जीवन का मूलभूत सिद्धांत है। जिस तरह कोई भी क्षण निश्चित नहीं है, सिर्फ़ उस का अहसास निश्चित है, उस की संभावना निश्चित है। विकास एक गतिमान और अस्थायी स्थिति है चाहे वह विचारों की हो या स्थितियों की। यही कारण था कि पार्टी की कट्टरपंथी प्रणालियों से मोहभंग होने पर भी सार्त्र समाजवाद में विश्वास रखते रहे। लेकिन उसके साथ ही मार्क्सवाद के आगे भी कुछ संभावनाएं हैं, इस के आधारभूत उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए और उपाय भी इस में जोड़े जा सकते है, ऐसा विश्वास उन्हें हमेशा रहा। 70 वर्ष की आयु में Michel Contac के साथ एक लंबे साक्षात्कार में (जून 23-जुलाई 7,1975) जब सार्त्र से पूछा गया कि आप अब मार्क्सवादी दर्शन में विश्वास रखते हैं लेकिन आपको तो लोग अस्तित्वादी दार्शनिक के रूप में ही जानते हैं। अगर आप को दोनों में से एक लेबल चुनना पड़े तो कौन सा लेबल आप अपने लिए चुनेंगे? आप अपने को मार्क्सवादी कहलाना पसंद करेंगे या अस्तित्वादी? सार्त्र का उत्तर था कि वे अस्तित्वादी कहलाना पंसद करेंगे। क्योंकि उसमें विकास की स्थिति मौजूद है।
अपने समाजवादी दृष्टिकोण और व्यक्ति की स्वतंत्रता को एक प्रकार से नैतिक आधार पर समन्वित करते हुए सार्त्र Benny Levy द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हैं। Levy का प्रश्न था कि स्वतन्त्रता को आप किस प्रकार सामाजिक उद्देश्य के लिए प्रयोग करेंगे? जिन लोगों के पास शक्ति है, वे स्वतन्त्र होकर दूसरों पर उसे थोपते हैं। इन दोनों तरह की स्वतंत्रताओं को आप किस तरह अलग करेंगे? इस का उत्तर देते हुए सार्त्र ने कहा था कि वे सब लोग जो समाजवाद चाहते हैं, चाहे वे इस बात को कहें या न कहें, एक स्वतन्त्रता की स्थिति की खोज में हैं। और जिस क्रांतिकारी व्यक्ति की बात हम करते हैं, वह ऐसे ही समाज/व्यवस्था की कल्पना करता है जहां स्वतन्त्रता भविष्य की एक सच्ची वास्तविकता होगी। समाजवाद और स्वतंत्रता उन के चिंतन के केन्द्र में रहे।
Flaubert के जीवन पर लिखे गए अपने अंतिम महाख्यान Family Idiot के विषय में वे कहते हैं कि वह एक समाजवादी कृति है। अपनी मृत्यु से एक वर्ष पहले अपनी उम्र भर की साथी सिमोन द बोआ के साथ 'डायलाग' में सार्त्र लगभग घोषणा करते हैं - बीस वर्ष की उम्र में मेरे कोई राजनैतिक विचार नहीं थे, यह कहना भी अपने आप में एक राजनैतिक मुद्‌दा है। अब मेरा अंत हो रहा है - सोशलिस्ट-कम्यूनिस्ट के रूप में और मैं मानवमात्र के लिए एक राजनैतिक भविष्य की अपेक्षा रखता हूँ। सिमोन को शायद ज़रूर याद आया होगा 1939 का वह सार्त्र जिसने अपनी तीन डायरियां - सिमोन को मिलिट्री बेस से भेजी थीं। एक Nothingness के बारे में, दूसरी Violence पर और तीसरी Bad Faith पर जो तीनों मिलकर Being and Nothingness का आधार बनी थीं।
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विश्व के जिस राजनैतिक भविष्य की बात अपने अंतिम दिनों में सार्त्र सोचते रहे, उसके कई आयाम थे। तीसरी दुनिया का अस्तित्ववाद, नवउपनिवेशवाद, समाजवाद और उस के अन्तर्गत व्यक्ति की स्वतन्त्रता और मध्यपूर्व में नई राजनैतिक इकाईयों का उदय ऐसे ही महत्वपूर्ण मुद्दे थे। अरब-इसराइली संघर्ष को सार्त्र काफी गंभीर रूप से लेते थे। 1979 में उन्होंने अपने पत्र Les Modernes के तत्वाधान में बौद्धिकों की एक बैठक पेरिस में बुलाई। इस में अमेरिका से एडवर्ड सईद भी आमंत्रित थे। यह सिर्फ़ बौद्धिकों का सम्मेलन था। इस के पास कोई निर्णायक राजनैतिक शक्ति नहीं थी, केवल लोकमत बनाना ही इस का उद्देश्य था। लेकिन अपने बुरे स्वास्थ्य के कारण सार्त्र अपने साथी विक्टर पर अधिक आश्रित हो गए थे। इसलिए इस सम्मेलन का स्वरूप किसी भी प्रकार व्यवस्थित या संतोषजनक नहीं हुआ। एडवर्ड सईद नाराज़ होकर पेरिस से अमेरिका लौटे। इन बातों का ब्यौरा देते हुए सिमोन विक्टर को दोषी मानती हैं जिन्होंने उन दिनों सार्त्र की मानसिकता को हड़प रखा था। विचार-स्थापना के लिए हो या हितों की रक्षा के लिए, शक्तिप्रयोग को सार्त्र इतिहास विरोधी हथकंडा मानते थे। शक्तिप्रयोग मानव विकास की अवधारणा में अन्तरिम (Interim) रूप से भी नहीं आता, अस्थाई उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी उसे मान्यता नहीं दी जा सकती, सार्त्र ऐसा मान कर अपने उत्तरदायित्व का लेखा-जोखा करते रहे। जनवरी 1980 में इसी शक्ति प्रयोग का विरोध उन्होंने किया जब Andrei (आन्द्र) सख़ारोव को गृहबंदी बनाया गया। उन्होंने मास्को-ओलम्पिक्स के बायकाट का समर्थन भी किया। उन के प्रयासों में अन्तर्विरोध उन्हें एक ऐसी मानवीय ऊँचाई पर स्थापित करते हैं जो राजनैतिक सामयिक मुदों और अस्थाई उद्देश्यों से उन्हें बहुत ऊपर बना रहने देती है। सिर्फ़ एक पक्ष का विचारक उन्हें आसानी से खारिज करके आगे बढ़ सकता है, लेकिन ऐतिहासिक समग्रता उन के दायें-बायें खड़ी दिखाई देती है।
जब नाज़ियों ने फ्राँस पर कब्ज़ा कर रखा था तो सार्त्र ड्राफ्ट होकर सैनिक बन गए थे, उसके बाद वे फ्रांसीसी लेखकों के साथ मिलकर युद्ध के विरोध में सक्रिय थे। इस युद्ध ने उनका अकादमिक और सैद्धांतिक स्तर पर जीने वाले बौद्धिक का स्वरूप बदल दिया था। वे खुली सड़कों पर सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में अपने आप को देखने लगे थे। यह परिवर्तन अनुशासित या नियंत्रित नहीं था। यह बाह्यीकरण एक स्वतःस्फूर्त विरोध स्थिति थी जो सिर्फ़ इसी बिंदु पर आकर ठहर नहीं गई। एक सोशेलिस्ट दृष्टि की पहली स्वीकृति और विश्वस्तता यहीं से शुरू हुई जो अंत तक बनी रही। सार्त्र के लिए मार्क्सवाद एक 'वाद' के रूप में या संपूर्ण जीवन-पद्धति के रूप में कम प्रासंगिक रहा। लेकिन मनुष्य के सामूहिक विघटन के विरोध में एक संयत सामूहिक कार्यविधि के चिन्तन स्वरूप वे हमेशा के लिए इस विचार से जुड़ गये थे। मनुष्य की एकल स्वतंत्रता और नियन्ता होने की अभिशप्त स्थिति से यह कितनी भिन्न स्थिति है, इसका जायज़ा लेने के लिए सार्त्र के उपन्यास Age of Reason के एक पात्र का आर्तनाद काफ़ी है, वह स्वतंत्र था, हर बात के लिए स्वतंत्र, एक जानवर की तरह व्यवहार करने के लिए स्वतंत्र, या किसी मशीन की तरह.......। वह जो कुछ भी चाहे कर सकता था, किसी को उसे कुछ भी सुझाने का अधिकार नहीं था। वह एक राक्षसी मौन में अकेला है, किसी कारणवश नहीं। किसी भी संभावित उद्देश्य के बिना वह अपने निर्णय लेने के लिए अभिशप्त है अबाध रूप में स्वतंत्र होने के लिए अभिशप्त।
विडंबना इतनी सघन और वास्तविक हो सकती है, इसकी प्रमाणिकता उस विकास में लक्षित होती है, जो हम सार्त्र की अपनी कृतियों और जीवन में देखते हैं। अपने अंतिम दिनों में उन्होंने बहुत कुछ बोल कर व्यक्त किया। 72 वर्ष तक आते-आते उनकी दूसरी आँख भी हेमरेज से खराब हो गई थी। वह बिल्कुल पढ़ नहीं सकते थे, सिमोन उन्हें किताबें पढ़ कर सुनाती थी। 70 वर्ष की आयु में जो सार्त्र हमारे सामने आते हैं, उससे एक लोमहर्षक एहसास उभरता है। उनकी पूरी जीवित मरणासन्नता में जो कुछ हम देखते-सुनते हैं, वह जिंदगी के तमाम ऊसरों बंजरों, पर्वतों, जंगलों, नदियों से होते हुए मनुष्य के उच्छवासों, प्रेरणाओं, वासनाओं, प्रणयस्थितियों, अनगिनत धूप-छांह, उजालों-अंधेरों के बीच से गुजरते हुए अपने शारीरिक अंत में विलय होने की सौम्य और निर्विकार स्थितियाँ हैं। ऐसी स्थितियाँ जिनसे सांझा करने के बाद हम सार्त्र से प्यार कर उठते हैं। हालांकि प्यार सार्त्र के लिए एक बुर्जुआ स्थिति थी जिसमें एक व्यक्ति अपने-आप को दूसरे पर सिर्फ़ थोपता है।
उनके इन अंतिम वार्तालापों, परिवर्तनों और शारीरिक स्थितियों तक आने से पहले उन की बौद्धिक यात्रा चरमस्थल The Critique of Dialectical Reason को देखना ज़रूरी है जो उन्होंने काफ़ी हद तक मार्क्सवाद के प्रतिदर्शन के रूप में लिखा। The Critique of Dialectical Reason के भाग दो में उनकी निराशा-स्वीकृति दर्ज़ है कि बीसवीं सदी की घटनाओं की विभीषिका के उपरांत यदि भविष्य के प्रति आशावान होना संभव न भी हो, कम से कम इन प्रक्रियाओं को समझने का प्रयत्न तो किया ही जा सकता है।
मानव जाति का विनाश किसी प्राकृतिक दुर्घटना से भी हो सकता है और परमाणु बम से भी। मनुष्य अगर अपनी नियन्ता स्थिति तक पहुँच कर प्राकृतिक दुर्घटनाओं को नियंत्रित कर पाने में सफल हो भी जाए, फिर भी भिन्न-भिन्न संहारक शक्तियों के प्रयोग की स्थितियों पर नियंत्रण की संभावना अभी न है, और न ही अभी उसकी कल्पना की जा सकती है। इस कारण अस्तित्व किसी उद्देश्य की कल्पना मात्र को ही हास्यास्पद बना देता है। क्रमों में घटती हुई स्थितियों का जोड़ एक लंबी स्थिति की परिकल्पना नहीं करता। प्रत्येक क्षण अपने आप में एक निश्चित और सामायिक स्थिति है। इन्हें जोड़ कर देखना किसी घटना का प्रतिफलन नहीं हो सकता। स्थितियों का क्रमिक संघर्ष एक इतिहास के रूप में नज़र आता है। पर, वास्तविकता यही है कि वे अर्न्तविरोधों की अलग-अलग कड़ियां है। उन्हें जोड़ कर देखने से एक कथा नहीं बुनी जा सकती, न ही उनके घटने के मूल कारणों को पकड़ा जा सकता है। The Critique of Dialectical Reason भाग दो, में सार्त्र कहते हैं यदि प्रकृति का कोई तार्किक सिद्धांत हो तब भी इन स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं होगा। दूसरी ओर, इसमें भी संदेह नहीं कि विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र का विकास इस सीमा तक हो सकता है कि वे प्रकृति की संहारक घटनाओं को कुछ समय के लिए टाल कर रख सकें। यह भी संभव हो सकता है कि मानव नक्षत्रीय महाकाश के पार जाकर भी अपने अस्तित्व को हमेशा बचाये रखने के उपाय ढूँढ निकाले। लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि प्रकृति की संहारक घटनाओं को ऐसी उपलब्धियां प्राप्त होने तक रोका जा सके। इस का कोई प्रमाण हो भी नहीं सकता क्योंकि हम दो भिन्न प्रकार के घटना-क्रमों का सामना कर रहे हैं।
इसी तरह सार्त्र का विश्वास था कि मानवमात्र के क्रियाकलापों का जोड़ मिला कर कुछ सांझे तत्व नहीं निकाले जा सकते जो सभी मनुष्यों पर लागू हों। मानव स्वभाव को एक परिभाषा के अर्न्तगत रखकर उनका सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। Critique के Volume 1 में सार्त्र कहते हैं मित्रता का अर्थ या कार्यकारी स्वरूप Socrates के ज़माने में वही नहीं था जो हमारे ज़माने में है। इस अन्तरीकरण के आधार पर मानव-प्रकृति के सिद्धांत को पूरी तरह खारिज किया जा सकता है। केवल आदान-प्रदान और परस्परता का सम्बंध ही उजागर होता है जिसे हम वैश्विक व्यक्तिकरण कह सकते है, और वही सारे मानव-संबंधों का आधार बनता है। इस तरह के एकल व्यक्तित्ववादी, प्रकृति और मानव अस्तित्व में क्रमों की क्षणिक निश्चितता, असम्बद्धता और अपूर्णता की एक सैद्धांतिकी निर्मित करने वाले दार्शनिक अपने अनुभवों, क्रियात्मक अनिवार्यताओं और घटनाओं की तर्क-सम्बद्धता में एक अस्तित्ववादी संयोग ढूँढते ढूँढते समाजवादी सामूहिकता तक पहुँचते हैं। लेकिन उन सामूहिक प्रयासों की परिणिति को वे फिर भी व्यक्ति की स्वतंत्रता में ही समान्वित होते हुए देखते हैं।
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अपने बिल्कुल अंतिम वर्षों में सार्त्र की सिमोन के साथ हुई एक लम्बी बातचीत सिमोन की पुस्तक Adieux में सम्मिलित है। एक वर्ष युद्धबंदी रहने के बाद के अनुभवों की बात करते हुए सार्त्र कहते हैं कि वे सत्ता के शांतिपूर्ण ढंग से विरोध करने की उपयोगिता और शक्ति को जेल से आने के बाद ही समझने लगे। अपनी इच्छा के विरुद्ध थोपे गए कानूनों और सरकारी आज्ञायों की वे अवज्ञा करते थे और इस में ही अपनी स्वायत्ता देखने लगे थे। 1940 से नवम्बर 1942 तक फ्रांस का दक्षिणी भाग नाज़ियों का गुलाम नहीं था। उस स्वतंत्र प्रदेश में दूसरी तरफ के लोगों को जाने की अनुमति नहीं थी। लेकिन सार्त्र अपने साथियों के साथ गैरकानूनी ढंग से वहां जाते थे। पहिले वे सत्ताधारियों को सिर्फ़ नफ़रत करते थे, उनका विरोध नहीं। लेकिन अब इस विरोध में ही वे अपनी स्वतन्त्रता देखते थे। नाज़ियों के फ्रांस से बाहर चले जाने पर ही वे अपने उपन्यासों को अर्थ प्राप्त करते हुए देखते थे। सिमोन को वे बताते हैं, जब मैं Being and Nothingness पर काम कर रहा था, तो मानता था कि व्यक्ति मृत्यु के निकट ले जाने वाले भीषण क्षणों में भी अपनी स्वतन्त्रता बनाए रख सकता है। पर अब मेरी मान्यता बदल गई है। Devil and the Good Lord का ज़िक्र करते हुए वे पादरी हैनरिक की नियति की चर्चा करते हैं। उस पादरी की धार्मिक मान्यता केवल उसके चर्च के भीतर ही सुरक्षित और स्वतंत्र थी। बाहर के लोगों से भी पादरी के सम्बन्ध थे जो उसके चर्च में विश्वास नहीं करते थे। जब भी वह उन से मिलता था, तो एक विरोध की स्थिति पैदा होती थी। ये सारी स्थितियाँ उसके भीतर के विरोध की स्थितियाँ भी थीं, सिर्फ़ बाहर की ही नहीं। वह अपनी सामाजिक स्थापनाओं में स्वतन्त्र नहीं था।
अपनी 71 वर्ष की आयु में सार्त्र बड़े रोचक ढंग से सिमोन को वह किस्सा बताते हैं जब अचानक उन्हें बोध हुआ कि 'ईश्वर नहीं है।' अपनी पुस्तक The Words में सार्त्र ने बताया है कि जब वह बारह वर्ष के थे तो वह अपने पास माचिस की डिब्बियां रखा करते थे और छोटी-छोटी आग लगा दिया करते थे। तब उनका ईश्वर के साथ एक पड़ोसी जैसा सम्बन्ध था। उन्हें आभास होता था जैसे वह उन्हें आग लगाते हुए देख रहा है। लेकिन एक दिन वह अपने अपार्टमेण्ट में सुबह स्कूल जाने के लिए निकले और उन तीन ब्राज़ीलियन लड़कियों की प्रतीक्षा करने लगे जो उनके साथ स्कूल जाती थीं और अभी तक तैयार होकर बाहर नहीं आई थीं - तो उन्हें अचानक जैसे एक अन्तर्नाद हुआ कि ईश्वर तो है ही नहीं। ईश्वर होता ही नहीं। उस क्षण के बाद वे हमेशा के लिए निश्चिन्त हो गए कि ईश्वर नहीं है, फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। यह घटना वही 'तूर पर जलवा' जैसी लगती है, अविश्वसनीय भी, ईश्वरीय भी - जो अनीश्वरता को उस किशोर मन में स्थापित कर गई। सार्त्र के दर्शन को देखते हुए यह कहानी बेतुकी लगती है। लेकिन यह भी सही है कि बड़े-बड़े परिवर्तनों की झलक कई चमकीले क्षणों में आकस्मिक रूप से ही मिल जाती है, तर्क उसे चाहे जितना ही खारिज करे।
Roland Barthes का कहना था कि सार्त्र को इक्कीसवीं सदी में दोबारा खोजा जाएगा। सार्त्र से इस विषय में जब Contac ने पूछा कि उनकी कौन सी कृतियां वे चाहते हैं कि भविष्य में लोग पढ़ें, तो सार्त्र ने Sations, Saint Genet, The Critique of Dialectical Reason और Good Lord का ज़िक्र किया। Nausea को वे अपनी सर्वोत्तम साहित्यिक कृति मानते थे। कई लोगों ने कहा कि वे 21 वीं सदी के मार्क्स के रूप में जाने जायेंगे। इस के उत्तर में सार्त्र कहते थे कि वे सिर्फ़ यही उम्मीद करते हैं कि आने वाले लोग उन्हें पढ़ें, उनके काम से परिचित रहें, इससे अधिक कुछ नहीं। एक व्यक्तिगत स्वतंत्रता सुरक्षित रखने वाले समाजवादी के रूप में वे स्वयं को देखते हैं। एक शून्य अराजकता और शक्तिविरोध का अन्तर जानना ज़रूरी है।
बहुत से अजाने पक्ष हैं सार्त्र के जीवन के। वे अपने एकान्त क्षणों में घंटों संगीत सुना करते थे। बेथावन, शापिन, शूमन के अलावा वे शोनवर्ग और वेबर्न को भी पसंद करते थे। सिमोन जब अपने-आप में व्यस्त होती थी तो सार्त्र कई बार सिर्फ़ संगीत सुनते थे। सार्त्र के दादा, दादी और माँ बहुत अच्छे संगीतकार थे। उन्हीं से सार्त्र ने भी संगीत सीखा। कभी कभी पियानो पर बैठकर कुछ धुनें वे खुद भी बनाया करते थे। वे शराब भी बहुत पीते थे। अपने अंतिम दिनों तक अपनी नारी मित्रों के साथ बैठकर देर रात तक पीते रहते थे। सिमोन और आर्लेट (Arlette) को उनकी बोतलें छिपा कर रखनी पड़ती थीं। बेशुमार स्त्रियों से उनकी मित्रता या सतही सम्बन्ध रहे। लेकिन किसी भी तरह वे अपने भावनात्मक क्षणों को इन सम्बन्धों से नहीं भरना चाहते थे। सिर्फ़ सिमोन ही 1929 के बाद से उनके मन और काम की साथी रही। उन्हें हमेशा लगता था कि उन के पास काम ज़्यादा है और वक्त कम। मानसिक उत्तेजना बढ़ाने वाली नशे की गोलियां खाकर उन्होंने अपनी प्रख्यात कृति (The Critique of Dialectical Reason - 1960) लिखी थी। कई दफ़ा वे कोरीड्रेन की बीस-बीस गोलियां दिन भर में प्रयोग कर लेते थे। अपने काम के बारे में वे सन्तुष्टि के साथ स्वीकारते हैं कि जो उन्हें कहना था, वे कह चुके, उन्हें कोई आश्चर्य या पछतावा नहीं है। अपने पत्र Les Temps Moderens के लिए वे बिल्कुल अन्तिम दिन तक काम करते रहे।
सार्त्र की अन्तिम स्थिति का चित्रण सिमोन ने मार्मिक ढंग से किया है। बुधवार, मार्च 19,1980 की शाम उन्होंने बड़ी अच्छी तरह गुज़ारी। लेकिन रात को ही उनका सांस उखड़ गया। उन्हें ब्रोसाई के हस्पताल ले जाया गया। उसके बाद वे घर वापिस नहीं आ सके। उन्हें यूरीमिया हो गया था क्योंकि उनके गुर्दे काम करना बन्द हो गये थे।शरीर के और हिस्से भी शिथिल पड़ते गये। सिमोन और Arlette (उनकी मुँह बोली बेटी आर्लेट) बारी-बारी उनके पास बने रहते थे। मृत्यु से दो दिन पहिले सिमोन ने बहुत निराशा में डाक्टर की छाती से लग कर रोते हुए कहा वायदा करो, सार्त्र को पता नहीं लगने दोगे कि वे मर रहे हैं। उन्हें मानसिक यातना से बचा कर रखोगे और उन्हें कोई दर्द नहीं होने दोगे। मृत्यु से एक दिन पहिले सार्त्र ने सिमोन का हाथ थाम कर कहा 'मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ Castor'। वे सिमोन को Castor कह कर बुलाया करते थे। अपने होठों से इशारा कर के उन्होंने सिमोन को चूमा। 15 अप्रैल रात को नौ बजे आर्लेट का सिमोन को फोन आया कि सार्त्र नहीं रहे। अगली सुबह सिमोन सार्त्र के मृत शरीर के साथ चादर हटा कर कुछ देर को लेटी रही। सार्त्र की इच्छा थी कि उन का दाह संस्कार किया जाए। परन्तु उनके शरीर को पहले मोन्टपारनेस में दफ़नाया गया। कुछ दिन बाद उनके शरीर को कब्र से निकाल कर दाह संस्कार के लिए ले जाया गया। पचास हज़ार से अधिक व्यक्ति उनकी शव यात्रा में शामिल थे। एक दार्शनिक, उपन्यासकार, नाटककार और एक सामाजिक सक्रिय कर्मी का अन्त उस नाटक के अन्त की तरह था जिस का हर दृश्य एक रोचक अपेक्षा के साथ खुलता था। रूसो, कान्त, हीगेल और मार्क्स की अगली कड़ी थे सार्त्र या मार्क्सवाद के विशाल भवन का ही एक छोटा सा कक्ष या सिर्फ़ शुद्ध अस्तित्ववादी जिन्होंने घटनाओं की आंधियों का सामना करने के लिए समाजवादी कवच पहन लिया था। इस बात का फैसला वक्त के हाथ में है। (विकी पीडिया से साभार)


'महुआ घटवारिन' को १९वां कथा यू.के. सम्मान


तेजेन्द्र शर्मा

वर्ष २०१३ के लिए अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान कथाकार पंकज सुबीर को उनके सामयिक प्रकाशन से २०१२ में प्रकाशित कहानी संग्रह महुआ घटवारिन और अन्य कहानियाँ पर देने का निर्णय लिया गया है। इस वर्ष सम्मान के लिए केवल कहानी विधा पर ही ध्यान केन्द्रित किया गया क्योंकि पिछले दो वर्षों में बहुत से स्तरीय कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं। पंकज सुबीर के अतिरिक्त अजय नावरिया, मनीषा कुलश्रेष्ठ, प्रेम भारद्वाज एवं विवेकानन्द के कहानी संग्रह अंतिम पाँच की दौड़ तक पहुंचे। विजेता का चुनाव करने में निर्णायकों को ख़ासी कठिनाई का सामना करना पड़ा। इंदु शर्मा मेमोरियल ट्रस्ट की स्थापना संभावनाशील कथा लेखिका एवं कवयित्री इंदु शर्मा की स्मृति में की गयी थी। इंदु शर्मा का कैंसर से लड़ते हुए अल्प आयु में ही निधन हो गया था। अब तक यह प्रतिष्ठित सम्मान चित्रा मुद्गल, संजीव, ज्ञान चतुर्वेदी, एस आर हरनोट, विभूति नारायण राय, प्रमोद कुमार तिवारी, असग़र वजाहत, महुआ माजी, नासिरा शर्मा, भगवान दास मोरवाल, हृषिकेश सुलभ, विकास कुमार झा एवं प्रदीप सौरभ को प्रदान किया जा चुका है। इस सम्मान के अन्तर्गत दिल्ली - लंदन - दिल्ली का आने जाने का हवाई यात्रा का टिकट (एअर इंडिया द्वारा प्रायोजित), एअरपोर्ट टैक्स़, इंगलैंड के लिए वीसा शुल्क, एक शील्ड, शॉल, लंदन में एक सप्ताह तक रहने की सुविधा तथा लंदन के खास खास दर्शनीय स्थलों का भ्रमण आदि शामिल होंगे। यह सम्मान पंकज सुबीर को लंदन के हाउस ऑफ कॉमन्स में अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में एक भव्य आयोजन में प्रदान किया जायेगा। पंकज सुबीर का जन्म ११ अक्टूबर १९७५ को मध्यप्रदेश के होशँगाबाद जिले के सीवनी मालवा कस्बे में हुआ । पिता के शासकीय सेवा में चिकित्सक होने के कारण मध्यप्रदेश के विभिन्न शहरों में शिक्षा दीक्षा हुई। बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय भोपाल के अंतर्गत आने वाले शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय (अब चंद्रशेखर आज़ाद शासकीय स्नातकोत्तर अग्रणी महाविद्यालय) से जीव विज्ञान विषयों में स्नातक उपाधि तथा उसके बाद वहीं से रसायन शास्त्र (अकार्बनिक रसायन शास्त्र) में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की । अब तक सौ से ज्यादा साहित्यिक रचनाएँ जिनमें कहानियाँ, कविताएँ, ग़ज़लें, लेख तथा व्यंग्य लेख शामिल हैं देश भर की शीर्ष साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्मानित कृति के अतिरिक्त पंकज का एक कहानी संग्रह ईस्ट इंडिया कम्पनी और एक उपन्यास ये वो सहर तो नहीं प्रकाशित हो चुके हैं। ३८ वर्षीय पंकज सुबीर को बहुत से पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हो चुके हैं जिनमें उपन्यास ये वो सहर तो नहीं के लिए भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार, इंडिपेंडेंट मीडिया सोसायटी (पाखी पत्रिका) द्वारा शब्द साधक जनप्रिय सम्मान, गोरखपुर उत्तर प्रदेश की संस्था नवोन्मेष द्वारा साहित्य का नवोन्मेष सम्मान शामिल हैं। वर्तमान में फ्रीलांस पत्रकारिता के साथ साथ कम्प्यूटर हार्डवेयर, नेटवर्किंग तथा ग्राफिक्स प्रशिक्षक के रूप में कार्यरत हैं । जब से सम्मान को अन्तर्राष्ट्रीय किया गया है तब से अब तक पंकज सुबीर सबसे छोटी आयु के साहित्यकार हैं जिनको सम्मानित किया जा रहा है।
वर्ष २०१३ के लिए पद्मानन्द साहित्य सम्मान बर्मिंघम के डा. कृष्ण कन्हैया को उनके कविता संग्रह किताब ज़िन्दगी की (२०१२ – वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली) के लिए दिया जा रहा है। डा. कृष्ण कन्हैया का जन्म पटना, बिहार में हुआ था और उन्होंने रांची विश्वविद्यालय से एम.बी.बी.एस. की शिक्षा प्राप्त की जबकि पटना विश्वविद्यालय से सर्जरी में मास्टर्स पूरी की। इसके अतिरिक्त उन्होंने एडिनबरा से मेडिकल की अन्य डिग्रियाँ हासिल की हैं। उनकी प्रकाशित रचनाओं में सूरज की सोलह किरणें, कविता-२००७ (कविता संग्रह),शामिल हैं। उनका एक कविता संग्रह किताब संवेदना की प्रकाशनाधीन है। डॉ. कृष्ण कन्हैया का कहना है कि विदेश आने के बाद अपनी संस्कृति का गर्व, अपने संस्कारों की गरिमा, अपने गांव की शुद्ध सौंधी ख़ुशबू और अपनी मातृभूमि से अनवरत लगाव मेरी अनतरात्मा को ज़्यादा उद्वेलित करता था जिसकी झलक अब मैं अपनी कविताओं में महसूसता हूँ।
इससे पूर्व इंगलैण्ड के प्रतिष्ठित हिन्दी लेखकों क्रमश: डॉ सत्येन्द श्रीवास्तव, सुश्री दिव्या माथुर, श्री नरेश भारतीय, भारतेन्दु विमल, डा.अचला शर्मा, उषा राजे सक्सेबना, गोविंद शर्मा, डा. गौतम सचदेव, उषा वर्मा, मोहन राणा, महेन्द्र दवेसर, कादम्बरी मेहरा, नीना पॉल एवं सोहन राही को पद्मानन्द साहित्य सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है।
कथा यू.के. परिवार विशेष तौर पर श्रीमती चित्रा मुद्गल, श्री भारत भारद्वाज, श्रीमती उर्मिला शिरीष, श्रीमती सुधा ओम ढींगरा, श्री सुशील सिद्धार्थ, श्रीमती साधना अग्रवाल एवं श्री आलोक मेहता का हार्दिक आभार मानते हुए उनके प्रति धन्यवाद ज्ञापित करता है जिन्होंने इस वर्ष के पुरस्कार चयन के लिए लेखकों के नाम सुझा कर हमारा मार्गदर्शन किया।

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की नन्ही-नन्ही कहानियां



ब्रेष्ट को मूलत: नाटककार और कवि के रूप में जाना जाता है, पर उनकी इन छोटी कहानियों में व्यंग्य और नीति कथा-तत्व का भी प्रभाव बेहद काव्यात्मक है। इन कहानियों का मूल जर्मन से अनुवाद मोहन थपलियाल ने किया है।

महाशय 'क' की कहानियां
1. 'क' महाशय का मनपसंद जानवर
महाशय 'क' से जब पूछा गया कि उनका मनपसंद जानवर कौन है, तो उन्होंने हाथी का नाम लिया और उसकी उपयोगिता साबित करते हुए कहा- हाथी में ताकत और चतुराई दोनों हैं। ऐसी दयनीय किस्म की चतुराई नहीं, जो किसी अत्याचार से बचने या भोजन छीनने के लिए काफी हो, बल्कि ऐसी चतुराई जिसके जरिए वह बड़ा से बड़ा काम करने में समर्थ है। जहां कहीं यह जानवर पाया जाता है, वहां अपने पैरों की भारी छाप छोड़ जाता है।
इसके अलावा, हाथी विनोदी और भले स्वभाव का भी होता है। जितना अच्छा दोस्त है, उतना ही अच्छा दुश्मन भी। भारी-भरकम शरीर का होते हुए भी वह खासा तेज है। उसकी सूंड़ भी इतने भारी शरीर को छोटी से छोटी चीज खाने के लिए पहुंचा देती है - बादाम तक भी। उसके कानों की यह खूबी है कि केवल वही सुनते हैं, जो उन्हें भाता है। लंबी उम्र जीता है। मिलनसार है और महज हाथियों तक ही नहीं... सभी उसे प्यार करते हैं।
अचरज की बात यह है कि उसकी पूजा भी होती है। इतनी मोटी चमड़ी का है कि चाकू भी टूट जाए, लेकिन उसकी भावनाएं बहुत कोमल हैं। वह उदास हो सकता है और गुस्सा भी। मस्ती से नाचता है और मरना बीहड़ों में पसंद करता है। बच्चों और दूसरे छोटे जानवरों को वह खूब प्यार करता है। दिखने में भूरा है, लेकिन अपने मांसल शरीर से दूसरों का ध्यान बरबस खींच लेता है। खाए जाने के यह काबिल नहीं होता है, पर काम यह बेहतर कर सकता है। मस्ती से पीता है और मस्त रहता है। कला के लिए भी यह थोड़ा बहुत करता है - हाथीदांत यही देता है।
2. मुलाकात
एक आदमी, जिसने 'क' महाशय को काफी लंबे अर्से से नहीं देखा था, मिलने पर उनसे कहा, 'आप तो बिल्कुल भी नहीं बदले।' 'अच्छा।' महाशय 'क' ने कहा और पीले पड़ गए।
3. इंतजार
'क' महाशय ने किसी चीज का इंतजार एक दिन तक किया, फिर एक हफ्ते और फिर पूरे महीने भर। अंत में उन्होंने कहा, 'एक महीने का इंतजार मैं बखूबी कर सकता था, लेकिन इन दिनों और हफ्तों का नहीं।'
4. कामयाबी
महाशय 'क' ने रास्ते से गुजरती हुई एक अभिनेत्री को देखकर कहा, 'काफी खूबसूरत है यह।' उनके साथी ने कहा, 'इसे हाल में कामयाबी मिली है, क्योंकि वह खूबसूरत है।' 'क' महाशय खीझकर बोले, 'वह खूबसूरत है क्योंकि उसे कामयाबी हासिल हो चुकी है।'
5. महाशय 'क' जब किसी को प्यार करते
महाशय 'क' से पूछा गया - जब आप किसी आदमी को प्यार करते हैं, तब क्या करते हैं? उनका जवाब था - मैं उस आदमी का एक खाका बनाता हूं और फिर इस फिक्र में रहता हूं कि वह हू-ब-हू उसी के जैसा बने। कौन... वह खाका? नहीं, महाशय 'क' ने जवाब दिया - वह आदमी।

महाशय 'ब' की कहानियां
1. विरक्ति-प्रभाव
महाशय 'क' के एक सयाने मित्र ने उनसे पूछा कि अपने इर्द-गिर्द उन्होंने ढेर सारे बेवकूफ क्यों इकट्ठा किए हुए हैं। महाशय 'ब' ने उपेक्षित भाव से जवाब दिया - 'सर्वथा अनुपयोगी कुछ भी नहीं होता। सिर्फ यह देखना जरूरी है कि उस चीज का उपयोग कैसे किया जाए।
'कुछ रुककर महाशय 'ब' आगे बोले, 'मेरे एक परिचित थे - दार्शनिक कार्ल क्राउस (1874-1936)। वह अपने स्टडी रूम में पानी का नल खुला छोड़ देते थे। पानी की कलकल में गली का बेतहाशा शोर दब जाता था। मेरे लिए इसी तरह की कलकल, ये बेवकूफ हैं।

2. विषय ज्ञान
महाशय 'ब' स्टेज कारीगरों, मिस्त्रियों और ड्राइवरों के साथ हंस-बोलकर बातचीत करते थे। इन लोगों के साथ बातचीत के दौरान उन्हें अक्सर ऐसे सवालों का जवाब देना पड़ता था, जिनसे अन्यथा उनका सामना नहीं हो सकता था। एक कारीगर का सवाल था - 'मौत कैसे आती होगी?''
आप जानते हैं,' महाशय 'ब' बोले, 'जीवन के साथ कुछ ऐसा है - हृदय के कपाट खुलते हैं और बंद होते हैं, फिर खुलते हैं और बंद होते हैं और एक दिन हठात फिर ये कपाट नहीं खुलते।'

जर्मन लेखक फ्रैंज काफ्का



फ्रैंज काफ्का बीसवीं सदी के एक सांस्कृतिक रूप से प्रभावशाली, लघु कहानियां और उपन्यास के जर्मन लेखक थे। उनकी रचनाऍं आधुनिक समाज के व्यग्र अलगाव को चित्रित करतीं हैं। समकालीन आलोचकों और शिक्षाविदों, व्लादिमिर नबोकोव सहित, का मानना है कि काफ्का 20 वीं सदी के सर्वश्रेष्ठ लेखकों में से एक है। "Kafkaesque" अंग्रेजी भाषा का हिस्सा बन गया है जिसका उपयोग 'बहकानेवाला','खतरनाक जटिलता' आदि के संदर्भ में किया जाता है। नई यॉर्कर के लिए एक लेख में, जॉन अपडाइक ने समझाया: "जब काफ्का का जन्म हुआ तब उस सदी मे आधुनिकता के विचारों का पनपना आरम्भ हुआ - जैसे कि सदियों के बीच में एक नइ आत्म-चेतना, नएपन की चेतना का जन्म हुआ हो।
अपनी मृत्यु के इतने साल बाद भी, काफ्का आधुनिक विचारधारा के एक पहलू के प्रतीक है - चिंता और शर्म की उस अनुभूति के जिसे स्थित नहीं किया जा सकता है इसलिए शांत नहीं किया जा सकता है; चीजों के भीतर एक अनंत कठिनाई की भावना के, जो हर कदम बाधा दालती है; उपयोगिता से परे तीव्र संवेदनशीलता के, जैसे कि सामाजिक उपयोग और धार्मिक विश्वास की अपनी पुरानी त्वचा के छिन जाने पर उस शरीर के समान जिसे हर स्पर्श से पीड़ा हो। काफ्का के इस अजीब और उच्च मूल मामले को देखें तो उनका यह भयानक गुण विशाल कोमलता , विचित्र व अच्छा हास्य, कुछ गंभीर और आश्वस्त औपचारिकता से भरपूर था। यह संयोजन उन्हे एक कलाकार बनाता है, पर उन्होने अपनी कला की कीमत के रूप में अधिक से अधिक भीतर प्रतिरोध और अधिक गंभीर संशय के खिलाफ संघर्ष किया है। काफ्का की बहु-प्रचलित रचनाओं में से कुछ हैं - (कायापलट), जांच, एक भूख-कलाकार, (महल) आदि।
काफ्का का जन्म प्राग,बोहेमिया में, एक मध्यम वर्ग के, जर्मन भाषी यहूदी परिवार में हुआ। काफ्का के पिता, हरमन्न काफ्का यहूदी बस्ती में एक सूखी माल की दुकान चलाते थे और काफ्का की मां,जूली उनका (हरमन्न) हाथ बटाती थी। उनके पिता को विशाल, स्वार्थी, दबंग व्यापारी कहा जाता था। काफ्का खुद कहा था कि उनके पिता "शक्ति ,स्वास्थ्य, भूख, आवाज की ऊंचाई, वाग्मिता, आत्म - संतुष्टि, सांसारिक प्रभुत्व, धीरज, मन की उपस्थिति और मानव प्रकृति के ज्ञान में एक सच्चे काफ्का थे"।

एक पत्र
काफ्का को उम्र भर हल्का-हल्का बुखार रहा. उन्होंने समग्र साहित्य उसी बुखार की तपिश में लिखा. और यह बुखार मिलेना के प्यार का बुखार था. प्रिये,
आज सुबह के पत्र में मैंने जितना कुछ कहा, उससे अधिक यदि इस पत्र में नहीं कहा तो मैं झूठा ही कहलाऊंगा. कहना भी तुमसे, जिससे मैं इतनी आजादी से कुछ भी कह सुन सकता हूं. कभी कुछ भी सेाचना नहीं पड़ता कि तुम्हें कैसा लगेगा. कोई भय नहीं. अभिव्यक्ति का ऐसा सुख भला और कहां है तुम्हारे सिवा मेरी मिलेना. किसी ने भी मुझे उस तरह नहीं समझा जिस तरह तुमने. न ही किसी ने जानते-बूझते और इतने मन से कभी, कहीं मेरा पक्ष लिया, जितना कि तुमने.तुम्हारे सबसे सुंदर पत्र वे हैं जिनमें तुम मेरे भय से सहमत हो और साथ ही यह समझाने का प्रयास करती हो कि मेरे लिए भय का कोई कारण नहीं है(मेरे लिए यह बहुत कुछ है क्योंकि कुल मिलाकर तुम्हारे पत्र और उनकी प्रत्येक पंक्ति मेरे जीवन का सबसे सुंदर हासिल है.) शायद तुम्हें कभी-कभी लगता हो जैसे मैं अपने भय का पोषण कर रहा हूं पर तुम भी सहमत होगी कि यह भय मुझमें बहुत गहरा रम चुका है और शायद यही मेरा सर्वोत्तम अंश है. इसलिए शायद यही मेरा वह एकमात्र रूप है जिसे तुम प्यार करती हो क्योंकि मुझमें प्यार के काबिल और क्या मिलेगा? लेकिन यह भय निश्चित ही प्यार के काबिल है. सच है इंसान को किसी को प्यार करना है तो उसकी कमजोरियों को भी खूब प्यार करना चाहिए. तुम यह बात भली भांति जानती हो. इसीलिए मैं तुम्हारी हर बात का कायल हूं. तुम्हारा होना मेरी जिंदगी में क्या मायने रखता है यह बता पाना मेरे लिए संभव नहीं है.
तुम्हारा काफ्का (काफ्का यहूदी थे और मिलेना ईसाई. धर्म के पहरेदारों ने इन दोनों को कभी एक न होने दिया. लेकिन मन से वे हमेशा एक-दूसरे के साथ ही रहे. मिलेना ने काफ्का के लिए काफी दु:ख सहे.)

काफ्का की अमर कहानी: भाई का कत्ल
बीसवीं शताब्दी को जिन चंद लेखकों ने उसके स्याह-सफेद रंगतों में दर्ज किया है उनमें जर्मन भाषा के महान कथाकार फ्रांज काफ्का का भी नाम आता है। काफ्का की कहानियों और उपन्यासों के चरित्र और घटनाओं को अक्सर एक फिनॉमिना के तौर पर भी देखा जाता है, क्योंकि उसमें मानव स्वभाव की महिमा और मैल एक साथ जमा है। साक्ष्य के अनुसार हत्या इस प्रकार से की गई थी:
हत्यारा, श्मार, एक उजली चांदनी रात में करीब 9 बजे एक कोने में घात लगाए खड़ा था, उसी जगह उसका शिकार वेज, अपने दफ्तर वाली गली से घर वाली गली की ओर मुड़ता था। रात की हवा ठंडी कंपकंपाती थी, तब भी श्मार महीन नीली कमीज ही पहने हुए था, जैकिट के बटन भी खुले थे। उसे जरा भी सर्दी नहीं लग रही थी और वह पूरे समय इधर-उधर टहल रहा था। अपना हथियार-आधा छुरा आधा घरेलू चाकू-उसने मजबूती से अपनी हथेली में कस रखा था और उसकी धार नंगी थी। उसने चांद की रोशनी में चाकू को देखा, ब्लेड चमचमा रही थी, श्मार को तसल्ली नहीं हुई, उसने फुटपाथ के पत्थर पर उसे रगड़ा और चिनगारियां उछल पड़ी, अरे कहीं खराब न हो गया हो, शायद और इसीलिए उसने किसी कट फट को सुधारने के लिए उसे अपने जूते के सोल के ऊपर वाइलिन -बो की तरह फिराया, वह एक पैर पर आगे झुक गया और ध्यान से दोनों आवाजों को: अपने बूट पर सान चढ़ते चाकू की और अगल से आती अभागी गली में से उठती किसी खटखटाहट की आवाजों को सुनता रहा।
घरेलू कामकाजी कोई नागरिक, पलास, समीप ही के घर की खिड़की से यह सब देख रहा था, मगर वह क्यों चुप रहा? जरा मानवीय स्वभाव के रहस्य को तो देखो। अपने स्थूल बदन पर ड्रेसिंग गाउन के फंदे कसे हुए और कॉलरों को ऊंचा चढ़ाए वह बस सिर डुलाते हुए नीचे देखता खड़ा रहा।
और पांच घर आगे, गली की उलटी तरफ, अपने नाइट गाउन से ऊपर फर कोट पहने मिसेज वेज अपने पति की बाट जोहती बार-बार झांक रही थी, जो आज रात घर लौटने में अप्रत्याशित देरी कर रहा था।
आखिर वेज के दफ्तर की घंटी बजी और बहुत जोर से बजी, सारे शहर में गूंजती हुई और आकाश फाड़ती हुई, और रात पाली का मेहनतकश मजदूर, वेज इमारत से बाहर निकल कर गली में ओझल हो गया, सिर्फ घंटी की ध्वनि ही उसके आगमन की सूचक थी। एकाएक फुटपाथ पर उसके पदचापों की हल्की हल्की थपथपाहट उभरी।
पलास और ज्यादा आगे झुक गया। वह आंखें गड़ा कर सब कुछ देखना चाहता था। मिसेज वेज ने घंटी से आश्वस्त होकर, फटाफट अपनी खिड़की बंद कर दी, लेकिन श्मार दुबका ही रहा और चूंकि उसके शरीर का कोई अन्य भाग खुला नहीं था उसने अपने चेहरे और हाथों को भी फुटपाथ पर जोरों से दबा दिया, जहां सब कुछ ठंड से जमा हुआ था, मगर श्मार लाल दमक रहा था।
ठीक उसी कोने में जहां गलियां मिलती थीं वेज एक पल सुस्ताया, सिर्फ उसकी हाथ छड़ी घूम कर दूसरी गली में टिकी। एकाएक एक झक, मानो रात के आकाश ने उसे पुकारा, अपना नील, अपना सुवर्ण दिखाकर। अनजाने ही वह ऊपर उसकी ओर देखने लगा, अनजाने ही उसने अपना हैट उतारा और बालों पर हाथ फेरा, वहां ऊपर जो कुछ था वह कुल मिलाकर ऐसे किसी पैटर्न में ढलता नहीं था जो उसे आसन्न संकट का पूर्वाभास दे दे, सब कुछ उनके अर्थहीन, अभेद्य स्थानों में अटल था। अपने आप में यह अत्यंत चैतन्यशील काम था कि वेज चलता ही चला जाए, मगर वह तो श्मार के चाकू की ओर ही चला।
'' वेज'' श्मार चीखा। वह अपने पंजों के बल खड़ा था, उसका हाथ आगे खिंचा हुआ था, चाकू तीखी दिशा में नीचे झुका हुआ था, ''वेज'' तू अब जूलिआ से कभी नहीं मिल पाएगा।'' और सीधा गले में और उलटा गले में और तीसरी बार पेट में श्मार का चाकू जा घुसा। पानी के फव्वारे की जैसे टोंटी खोल दी गई हो वैसी ही आवाज वेज के बदन में से निकली।
'' खत्म'', श्मार बोला और उसने खून से लबालब सने चाकू को नजदीकी घर के सामने की मिट्टी में गाड़ दिया। हत्या का परम आनंद, एक राहत अनुपम आह्लाद, दूसरे का खून गिराने में। वेज पुराना निशाचर साथी, गहरा दोस्त, मदिरालय का हमप्याला, तू प्यारे इस गली की अंधेरी धरती के नीचे गल-गल के रिस रहा है। तू सिर्फ खून का एक गुब्बारा भर क्यों नहीं है, ताकि मैं भड़ाक-से तुझे पीटता और तू शून्य में लुप्त हो जाता पर जैसा हम चाहते हैं वैसा ही तो नहीं हो जाता, सारे सपने जो खिलते हैं सभी में तो फूल नहीं लगते, तेरा लौंदा अब यहीं पड़ा है, हर ठोकर से बेअसर, लेकिन इन गूंगे सवालों को उठाने से क्या फायदा?
पलास अपने बदन में भर गए भय और आतंक की उथल पुथल से घुटता हुआ अपने घर के दो पट वाले दरवाजे के भीतर खड़ा ही था कि एकाएक वह फटाक से खुल पड़ा। ''श्मार ! श्मार ! मैंने सब कुछ देखा, सब कुछ।'' पलास और श्मार ने एक दूसरे को गौर से भांपा जांचा। जांच से पलास को संतोष हुआ, श्मार किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाया।
मिसेज वेज अपने दोनों ओर लोगों की भीड़ के बीच दौड़ती-दौड़ती-सी आई। उसका चेहरा सदमे से एकदम मुरझा गया था। उसका फर कोट खुला था और लटक गया था। वह वेज के ऊपर जा गिरी, नाइट गाउन में लिपटा वह बदन वेज का ही तो था युगल के ऊपर फैला हुआ फर कोट जैसे किसी कब्र की दूब हो जहां लोग आए थे।
श्मार बड़ी ताकत लगाकर अपनी मिचलाहट से उभरने का कशमकश कर रहा था। उसने पुलिसमैन के कंधे पर अपना सिर टिका दिया जो धीरे धीरे कदम बढ़ाता हुआ उसे आगे खींचता ले गया।

बारिश में बिल्‍ली - अर्नेस्‍ट हेमिंग्‍वे



रूपांतर - ब्रजेश कृष्ण

अमरीका कथाकार अर्नेस्ट हेमिंग्वे (1899-1961) अंतरराष्ट्रीय महत्त्व के कथाकार थे। उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में एक सैनिक के रूप में और द्वितीय विश्वयुद्ध में एक युद्ध संवाददाता के रूप में भी कार्य किया। 1954 में उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला। सन् 1919। वह इटली में रेल से सफर कर रहा था। पार्टी हेडक्वार्टर से वह मोमजामे का एक चौकोर टुकड़ा लाया था, जिस पर पक्के रंग से लिखा हुआ था कि बुदापेस्त में इस साथी ने ‘गोरों’ के बहुत अत्याचार सहे हैं। साथियों से अपील है कि वे हर तरह से इसकी मदद करें। टिकट की जगह वह इसे ही इस्तेमाल कर रहा था। वह युवक बहुत शर्मीला और चुप्पा था। टिकट बाबू उतरते, तो अगले को बता जाते। उसके पास पैसा नहीं था। वे उसे चोरी-छिपे खाना भी खिला देते। वह इटली देखकर बहुत प्रसन्न था। बड़ा सुन्दर देश है, वह कहता। लोग बड़े भले हैं। वह कई शहर और बहुत-से चित्रों को देख चुका था। गियोट्टो, मसाचियो और पियरो डेला फ्रांसेस्का की प्रतिलिपियाँ भी उसने खरीदी थीं, जिन्हें वह ‘अवन्ती’ के अंक में लपेटे घूम रहा था। मांतेगना उसे पसन्द नहीं आया।

बारिश में बिल्‍ली

उस इतालवी होटल में केवल दो अमेरिकी ठहरे हुए थे।  कमरे में आते-जाते समय सीढ़ियों पर जो भी मिलता था, उनमें से वे किसी को नहीं जानते थे। उनका कमरा दूसरी मंज़िल पर था और समुद्र की ओर खुलता था। यहाँ से एक बगीचा और युद्ध का एक स्‍मारक भी दिखाई पड़ता था। बगीचे में बड़े-बड़े ताड़ के वृक्ष और हरी बेंचें थीं। अच्‍छे मौसम में वहाँ हमेशा एक कलाकार अपने ईज़ल के साथ आता था। कलाकार ताड़ के उगने की शैली और बगीचे एवं समुद्र के समक्ष होटलों के तीव्र रंगों को पसंद करते थे। दूर-दूर से इतालवी नागरिक युद्ध के उस स्‍मारक को देखने आते थे। यह कांसे का बना हुआ था और बारिश में चमकता था। इस समय बारिश हो रही थी। ताड़ के वृक्षों से बारिश की बूँदें झर रहीं थीं। बजरी के बने हुए रास्‍ते पर गड्‌ढों में पानी भर गया था। बारिश में समुद्र भी उफान पर था। वह तट की रेखा को तोड़ते हुए आगे बढ़ता, पीछे जाता और तट-रेखा को तोड़ने फिर आगे आता। युद्ध-स्‍मारक से होकर चौराहे की सभी कारें जा चुकीं थीं। चौराहे के दूसरी तरफ कैफ़े के दरवाज़े पर खड़ा हुआ एक वेटर सूने चौराहे को देख रहा था।

अमेरिकी पत्‍नी उठी और खिड़की से बाहर झाँकने लगी। उनकी खिड़की के ठीक नीचे एक बिल्‍ली बारिश में टपकती हुई हरी टेबिल के नीचे दुबकी हुई थी। बिल्‍ली खुद को लगातार सिकोड़ने की कोशिश कर रही थी ताकि वह टपकती हुई बूँदों से खुद को बचा सके।

“मैं नीचे जा रही हूँ और वह बिल्‍ली लेकर आऊँगी,” अमेरिकी पत्‍नी ने कहा।

“यह मैं कर देता हूँ,” उसके पति ने बिस्‍तर में से प्रस्‍ताव रखा।

“नहीं, मैं ले आऊँगी। बेचारी बिल्‍ली बाहर बारिश में टेबिल के नीचे खुद को बचाने की कोशिश कर रही है।”

दो तकियों पर पैरों को टिका कर लेटे हुए पति ने अपनी किताब पढ़ना ज़ारी रखा।

“तुम भीगना नहीं,” उसने कहा।

पत्‍नी सीढ़ियों से नीचे उतरी और जब वह ऑफ़िस के सामने से गुज़री, तब होटल-मालिक उठ कर खड़ा हो गया और उसने उसे झुक कर नमस्‍कार किया। उसकी टेबिल ऑफ़िस के एक किनारे पर थी। वह एक वृद्ध और लम्‍बा व्‍यक्‍ति था।

“इल पिओवे, ;बारिश हो रही हैद्ध” पत्‍नी ने इतालवी में कहा। उसे होटल मालिक पसंद था।

“सि, सि, सिग्‍नोरा, ब्रुत्तो तेम्‍पो। (हाँ, हाँ मैडम, बहुत खराब मौसम है।)”

वह कमरे की मिद्धम रोशनी में काफी दूर अपनी टेबल के पीछे खड़ा था। पत्‍नी को अच्‍छा लगा। उसका किसी भी शिकायत को पूरी गम्‍भीरता से लेना वह पसंद करती थी। वह उसकी गरिमा को पसंद करती थी। वह उसकी सेवा प्रदान करने की आतुरता को पसंद करती थी। उसके अपने होटल-मालिक होने के एहसास को भी वह पसंद करती थी। उसका भारी, वृद्ध चेहरा और लम्‍बे हाथ उसे अच्‍छे लगते थे।

उसे पसंद करते हुए उसने दरवाज़ा खोला और बाहर देखने लगी। बारिश पहले से तेज़ हो गई थी। एक आदमी रबड़ का एक लबादा ओढ़े कैफ़े की ओर बढ़ते हुए सुनसान चौराहे को पार कर रहा था। बिल्‍ली दाहिनी ओर कहीं पर होगी। शायद वह दीवार के बाहर निकले छज्‍जे के साथ-साथ कहीं खिसक गई हो। जैसे ही वह दरवाज़े पर खड़ी हुई, उसके पीछे एक छाता खुला। यह नौकरानी थी, जो उनके कमरे की देखभाल करती थी।

“आपको भीगना नहीं चाहिए,” इतालवी में कहते हुए वह मुस्‍कराई। निश्‍चय ही, होटल मालिक ने उसे भेजा था। नौकरानी ने छाता अपने हाथ में पकड़े हुए उसके सिर पर कर लिया। वह नौकरानी के साथ छाते में बजरी की सड़क पर अपनी खिड़की के नीचे तक गई। टेबल वहाँ थी। बारिश में धुली हुई, गहरी हरी। लेकिन बिल्‍ली जा चुकी थी। वह सहसा निराश हो गई। नौकरानी ने उसकी ओर देखा।

“ह पेर्दूतो क़्‍वाल्‍क्‍यू कोसा, सिग्‍नोरा? ;क्‍या कुछ खो गया है, मैडम?द्ध”

“यहाँ एक बिल्‍ली थी,” अमेरिकी लड़की ने कहा।

“बिल्‍ली?”

“सि, इल गत्तो। (हाँ, एक बिल्‍ली)”

“बिल्‍ली?” नौकरानी हँस पड़ी। “बारिश में एक बिल्‍ली?”

“हाँ,” उसने कहा, “उस टेबिल के नीचे। तब वह मुझे बहुत अच्‍छी लगी थी। मैं उसे बहुत चाहती थी। मैं एक किटी चाहती हूँ।”

जब वह अँग्रेज़ी में बोलती थी तो नौकरानी का चेहरा कुछ तन जाता था।

“कम, सिग्‍नोरा, (आइए मैडम)” उसने इतालवी में कहा। “हमें अब अन्‍दर वापस चलना चाहिए। आप भीग जाएँगी।”

“मैं भी यही सोचती हूँ,” अमेरिकी लड़की ने कहा।

वे बजरी की सड़क पर चलते हुए वापस मुड़े और दरवाज़े में घुसे। नौकरानी छाता बन्‍द करने के लिए बाहर ही रुक गई। जैसे ही अमेरिकी लड़की ऑफ़िस के सामने से गुज़री, होटल मालिक ने अपनी टेबल से नमस्‍कार किया। लड़की ने अपने भीतर कुछ संक्षिप्‍त और मधुर, मगर कसा हुआ-सा कुछ महसूस किया। होटल मालिक ने उस क्षण उसे बहुत महत्‍वपूर्ण महसूस करा दिया था। उसे स्‍वयं के अति महत्‍वपूर्ण होने की सुखद अनुभूति हुई। वह सीढ़ियों से ऊपर गई और उसने अपने कमरे का दरवाज़ा खोला। जॉर्ज़ अपने बिस्‍तर पर था और पढ़ रहा था।

“क्‍या तुम्‍हें बिल्‍ली मिल गई?” उसने किताब नीचे रखते हुए कहा।

“वह जा चुकी थी।”

“अचरज है, वह कहाँ चली गई,” उसने पढ़ना रोकते हुए कहा।

वह बिस्‍तर पर बैठ गई।

“मैं उसे बहुत चाहती थी,” उसने कहा। “मैं नहीं जानती कि मैं उसे इतना क्‍यों चाहने लगी थी। मैं उस बेचारी किटी को वाक़ई चाहती थी। बाहर बारिश में बिल्‍ली होना कोई हँसी-खेल नहीं है। बेचारी।”

जॉर्ज़ ने दुबारा पढ़ना शुरू कर दिया था।

वह उठी और ड्रेसिंग टेबिल के आइने के सामने बैठ कर हाथ में एक छोटा आइना लेकर खुद को निहारने लगी। उसने अपने शरीर की संरचना को पहले एक ओर से फिर दूसरी ओर से गौर से देखा। इसके बाद उसने अपने सिर का पृष्‍ठ भाग और ग्रीवा को ध्‍यान से देखा।

“अगर मैं अपने बाल बढ़ा लूँ तो क्‍या अच्‍छा नहीं रहेगा? तुम क्‍या सोचते हो?” उसने फिर से खुद की ओर निहारते हुए जॉर्ज़ से पूछा।

जॉर्ज़ ने अपनी नज़रें उठाईं और उसकी गर्दन को देखा। उसके बाल लड़कों जैसे छोटे और बँधे हुए थे।

“ये जैसे हैं, मुझे वैसे ही अच्‍छे लगते हैं।”

“मैं तो इनसे थक गई हूँ,” उसने कहा। “मैं लड़कों की तरह दिखते हुए बोर हो गई हूँ।”

जॉर्ज़ ने बिस्‍तर पर करवट बदली। जबसे पत्‍नी ने बोलना शुरू किया था, वह उसी की ओर देख रहा था।

“तुम बहुत अच्‍छी दिखती हो,” उसने कहा।

उसने हाथ का शीशा ड्रेसिंग टेबिल पर रखा और खिड़की पर जाकर बाहर देखने लगी। अँधेरा घिरने लगा था।

“मैं अपने बाल पीछे की ओर बाँध कर एक बड़ा-सा जूड़ा बनाना चाहती हूँ जिसे मैं महसूस कर सकूँ,” उसने कहा। “मैं एक बिल्‍ली रखना चाहती हूँ जो मेरी गोद में बैठे और जब मैं उसे प्‍यार से सहलाऊ“” तो धीरे-धीरे म्‍याऊँ-म्‍याऊँ करे।”

“अच्‍छा?” जॉर्ज़ ने बिस्‍तर से कहा।
“और मैं टेबिल पर अपने चाँदी के बर्तनों में खाना चाहती हूँ और मैं मोमबत्तियाँ चाहती हूँ। और मैं एक झरना होना चाहती हूँ और मैं आइने के सामने बैठ कर अपने खुले बालों में कंघी करना चाहती हूँ और मैं एक बिल्‍ली पालना चाहती हूँ और मैं कुछ नए कपड़े चाहती हूँ।”
“ओह, चुप रहो और कुछ पढ़ने के लिए उठा लो,” जॉर्ज़ ने कहा और फिर से पढ़ने लगा।
उसकी पत्‍नी खिड़की के बाहर देख रही थी। इस समय अँधेरा घना हो गया था। और ताड़ के वृक्षों पर अब भी बारिश हो रही थी।
“जो भी हो, मुझे एक बिल्‍ली चाहिए,” उसने कहा, “मैं एक बिल्‍ली चाहती हूँ। मुझे अभी एक बिल्‍ली चाहिए। अगर मैं अपने बाल लम्‍बे नहीं कर सकती या कोई आनन्‍द नहीं पा सकती, तो एक बिल्‍ली तो पा सकती हूँ।”
जॉर्ज़ कुछ नहीं सुन रहा था। वह अपनी किताब पढ़ रहा था। उसकी पत्‍नी ने खिड़की के बाहर देखा। चौराहे पर बत्तियाँ जल गईं थीं।
किसी ने दरवाज़े पर दस्‍तक दी।
“अवान्‍ती, (अन्‍दर आइए)” जॉर्ज़ ने कहा। उसने किताब से नज़रें हटा कर ऊपर देखा।
दरवाज़े पर नौकरानी खड़ी थी। वह एक सुन्‍दर और बड़ी बिल्‍ली कस कर हाथ में पकड़े हुए थी और इस वज़ह से उसका शरीर नीचे की तरफ़ झुका हुआ था।
“माफ़ कीजिए,” उसने कहा, “होटल-मालिक ने मुझे यह बिल्‍ली मैडम को देने के लिए कहा है।”

(rachanakar.org से साभार)

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अकबर इलाहाबादी
कृष्ण बिहारी नूर
नरेश नदीम
मिथिलेश श्रीवास्तव
विपिन चौधरी
अखिलेश
कृष्णदत्त पालीवाल
नरोत्तम दास
मिथिलेश्वर
विपिन बिहारी मिश्र
अख्तर शीरानी
कृष्णा सोबती
नर्मदा प्रसाद उपाध्याय
मिर्ज़ा ग़ालिब
विभूति नारायण राय
अजय नावरिया
केदारनाथ अग्रवाल
नवनीत मिश्र
मीना काकोडकर
विमल कुमार
अजितकुमार
केदारनाथ सिंह
नवीन सागर
मीर तकी मीर
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अजित वडनेरकर
के. सच्चिदानंदन
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मीरां बाई
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विश्‍वंभरनाथ शर्मा कौशिक
अज्ञेय
कोल्लूरि सोम शंकर
ना.ग. गोरे
मुंशी इश्वरी प्रसाद
विश्वनाथ मुखर्जी
अदम गोंडवी
खगेन्द्र ठाकुर
नामवर सिंह
मुईन अहसन जज़्बी
विष्णु प्रभाकर
अनवर सुहैल
खलील जिब्रान
नासिरा शर्मा
मुकुल
विस्लावा शिम्बोर्स्का
अनिल जनविजय
ख़दीजा मस्तूर
नासिरुद्दीन
मुकेश मानस
वृंदावनलाल वर्मा
अनुपम मिश्र
ख़ुमार बाराबंकवी
निज़ाम शाह
मुनीर अहमद
वेद राही
अनुराधा
ख्वाजा अहमद अब्बास
निर्मल वर्मा
मुहम्‍मद अली जौहर
शंभुनाथ
अन्तोन चेख़व
गंगा प्रसाद विमल
नील कमल
मुहम्मद शीस ख़ान
शकील सिद्दीकी
अन्नपूर्णानंद वर्मा
गजानन माधव मुक्तिबोध
नीलाक्षी सिंह
मृणाल पांडे
शमशेर बहादुर सिंह
अफ़जल अहसन रंधावा
गरिमा श्रीवास्तव
नीलेश रघुवंशी
मृदुला गर्ग
शमोएल अहमद
अब्दुल बिस्मिल्लाह
गिरिजा कुमार माथुर
पंकज मालवीय
मेहरुन्निसा परवेज
शम्भु यादव
अभिमन्यु अनत
गिरिजादत्त वाजपेयी
पंकज मित्र
मैथिलीशरण गुप्त
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
अमरकांत
गीत चतुर्वेदी
पंकज राग
मैनेजर पांडेय
शरद जोशी
अमर गोस्वामी
गीतांजलि श्री
पद्मा राय
मोतीलाल जोतवाणी
शरद तैलंग
अमरेंद्र कुमार शर्मा
गीताश्री
पद्मा सचदेव
मो. आरिफ
शशांक
अमीर खुसरो
गुरचरण सिंह
पराग मांदले
मोहन राकेश
शहरयार
अमृत राय
गुरबख्श सिंह
पवन करण
मोहनदास करमचंद गाँधी
शानी
अमृतलाल नागर
गुरमुख सिंह जीत
पांडेय बेचन शर्मा उग्र
मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक़
शाहीना तबस्सुम
अमृता प्रीतम
गुरुदेव सिंह रुपाणा
पाब्लो नेरूदा
यश मालवीय
शिबली नोमानी
अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध
गुलज़ार सिंह संधु
पुंज प्रकाश
यशपाल
शिवपूजन सहाय
अरविंद कुमार सिंह
गुलजार
पुष्पिता अवस्थी
यू.आर. अनंतमूर्ति
शिवप्रसाद सिंह
अरुण प्रकाश
गुलजार अहमद
पॉल लाफार्ज, विलहेम लीबनेख्ट
योगेंद्र आहूजा
शिवमंगल सिंह सुमन
अर्चना पैन्‍यूली
गुलाब राय
प्रताप नारायण मिश्र
रंजना जायसवाल
शिवमूर्ति
अर्श मलसियानी
गुलाबदास ब्रोकर
प्रताप पुरस्वाणी
रघुनंदन त्रिवेदी
शिवरानी देवी
अल्ताफ़ फ़ातिमा
गोपाल प्रधान
प्रतिभा कटियार
रघुवीर सहाय
शीन काफ़ निज़ाम
अशफाक अहमद
गोपाल सिंह नेपाली
प्रतिभा राय
रणजीत
शील
अशोक कोचर
गोपालराम गहमरी
प्रत्‍यक्षा
रणजीत साहा
शुभम श्री
अशोक गुप्ता
गो.वि. करंदीकर
प्रदीप जैन
रतननाथ सरशार
शेख अयाज
अशोक त्रिपाठी
गोरख पांडेय
प्रफुल्ल कोलख्यान
रमाकांत
शेखर जोशी
अशोक वाजपेयी
गोविंद मिश्र
प्रबोधकुमार मजुमदार
रमानाथ अवस्थी
शेरजंग गर्ग
असगर वजाहत
गोविन्द पंजाबी
प्रभाकर माचवे
रमेश उपाध्याय
शैलेन्द्र
असरारुल हक़ मजाज़
गौरीदत्‍त शर्मा
प्रभात रंजन
रमेश गौड़
शैलेश मटियानी
अहमद अली
घुघूतीबासूती
प्रभु जोशी
रमेश तैलंग
श्याम सुंदर दास
अहमद नदीम कासनी
चंदन पांडेय
प्रमिला राजे
रविकांत
श्रवण कुमार उर्मलिया
आंडाल प्रियदर्शिनी
चंद्रकांत देवताले
प्रियंकर पालीवाल
रवींद्र अग्निहोत्री
श्रीकांत दुबे
आनंद नारायण मुल्‍ला
चंद्रगुप्त विद्यालंकार
प्रियंवद
रवींद्र कालिया
श्रीकांत वर्मा
आर. चेतनक्रांति
चंद्रधर शर्मा गुलेरी
प्रियदर्शन
रवींद्रनाथ टैगोर
श्रीनारायण चतुर्वेदी
आलमशाह खान
चतुरसेन शास्त्री
प्रीति सागर
रवीन्द्र कुमार पाठक
श्रीप्रकाश मिश्र
आलोकधन्वा
चन्द्रकान्त मेहता
प्रेमचंद
रवीन्द्रनाथ त्यागी
श्रीप्रकाश शुक्ल
इंतिज़ार हुसेन
चन्द्रशेखर कंबार
प्रेमचंद सहजवाला
रशीद अमज़द
श्रीलाल शुक्ल
इंदिरा गोस्वामी
चार्ली चैप्लिन
प्रेम जनमेजय
रशीद जहाँ
संजय कृष्ण
इकबाल अभिमन्यु
चार्ल्स डार्विन
प्रेम रंजन अनिमेष
रसूल हमजातोव
संजय खाती
इक़बाल
जगदंबा प्रसाद दीक्षित
प्रेमनाथ दर
रांगेय राघव
संजीव
इन्दु मजलदान
जगदंबा प्रसाद मिश्र हितैषी
फणीश्वरनाथ रेणु
राकेश बिहारी
संजीव कुमार
इब्ने इंशा
जगन्नाथ आज़ाद
फरनांडो सेरेंटीनो
राकेश मिश्र
संतोष डे
इब्राहीम शरीफ
जगमोहन फुटेला
फ़हीम आज़मी
राकेश श्रीमाल
संतोष भदौरिया
इरफान इंजीनियर
जनार्दन प्रसाद झा
फ़िराक़ गोरखपुरी
राघव शरण शर्मा
सआदत हसन मंटो
इलाचंद्र जोशी
जफ़र-उर्रहमान अब्बासी
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
राजकमल चौधरी
सच्चिदानंद राउतराय
इला कुमार
जमीला हाशमी
फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की
राजकिशोर
सच्चिदानंद सिन्हा
इला प्रसाद
जयनंदन
बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय
राज गिल
सज्जाद ज़हीर
इवान तुर्गनेव
जयन्ती दलाल
बंगमहिला
राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह
सत्यजित राय
इस्मत चुग़ताई
जयशंकर
बदीउज़्ज़माँ
राजा शिवप्रसाद सितारे-हिंद
सदल मिश्र
ईश्वरदत्त मेधार्थी, देवीदत्त आर्य सिद्धगोपाल
जयशंकर प्रसाद
बद्री नारायण
राजिन्दर सिंह बेदी
सन्त सिंह सेंखों
उदय प्रकाश
जयश्री दत्त
बर्टोल्ट ब्रेख्त
राजी सेठ
सन्तोखसिंह धीर
उदयन वाजपेयी
जयश्री राय
बलराम अग्रवाल
राजीव कुमार
समरेश बसु
उपेंद्र कुमार
जया जादवानी
बसंत त्रिपाठी
राजू शर्मा
सरदार जाफ़री
उपेंद्रनाथ अश्क
जवाहर चौधरी
बहादुर शाह ज़फ़र
राजेंद्र दानी
सरदार पूर्ण सिंह
उमाशंकर चौधरी
जवाहरलाल नेहरू
बालकृष्ण भट्ट
राजेंद्र यादव
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
उमेश चौहान
जसवीर त्यागी
बालमुकुंद गुप्त
राधाकृष्ण
सविन्दरसिंह उप्पल
उषा प्रियंवदा
ज़फ़र अली ख़ाँ
बिशन टंडन
राधावल्लभ त्रिपाठी
सहजानन्द सरस्वती
उषा राजे सक्‍सेना
जाँनिसार अख्‍तर
बूटा सिंह
रामकीर्ति शुक्ल
सादिक
ऋतुराज
जिग़मोन्द मोरित्स
बृज नारायण चकबस्त
रामकुमार
सान्त्वना निगम
ऋषभदेव शर्मा
जिज्ञासु
बेढब बनारसी
रामकुमार वर्मा
साहिर लुधियानवी
एपिक्टेटस
जी.पी. श्रीवास्तव
बोधिसत्व
रामचंद्र शुक्ल
सिद्धेश्वर सिंह
ए.के. रामानुजन
जैनेंद्र कुमार
भगत सिंह
राम प्रकाश सक्सेना
सिमोन द बोउवार
ए. अरविंदाक्षन
जॉर्ज ऑर्वेल
भगवत रावत
रामदरश मिश्र
सियारामशरण गुप्त
ए. हमीद
जोगिन्दर पाल
भगवतीचरण वर्मा
रामधारी सिंह दिनकर
सुजान सिंह
एरिक हॉब्सबाम
जोतीराव गोविंदराव फुले
भगवतीप्रसाद वाजपेयी
रामप्रसाद बिस्मिल
सुदर्शन
एस.आर. हरनोट
जोश मलीहाबादी
भवानी प्रसाद मिश्र
राममनोहर लोहिया
सुधाकर अदीब
ऑगस्ट स्ट्रिंडबर्ग
ज्ञान चतुर्वेदी
भारतेंदु हरिश्चंद्र
रामलाल
सुधा अरोड़ा
ओम थानवी
ज्ञान रंजन
भीमराव आम्बेडकर
रामवृक्ष बेनीपुरी
सुधीर चंद्र
ओमप्रकाश कश्यप
ठाकुर जगन्मोहन सिंह
भीष्म साहनी
रामानंद सागर
सुनील गंगोपाध्याय
ओमप्रकाश तिवारी
ठाकुर प्रसाद सिंह
भुवनेश्वर
राहत इन्दौरी
सुबोध शुक्ल
ओमप्रकाश सिंह
तरुण कुमार
भूपेन्द्र राय चौधरी
राही मासूम रजा
सुभद्रा कुमारी चौहान
ओमा शर्मा
तरुण भटनागर
भैरव प्रसाद गुप्त
राहुल सांकृत्यायन
सुभाष नीरव
कन्सतान्तिन पाउस्तोव्स्की
तलविंदर सिंह
मंगलेश डबराल
राहुल सिंह
सुषम बेदी
कन्हैयालाल नंदन
तुलसीदास
मंजरी श्रीवास्तव
रिफ़अत
सुषमा मुनीन्द्र
कबीर
तेजेंद्र शर्मा
मंजूर एहतेशाम
रूपसिंह चंदेल
सुहेल अज़ीमाबादी
कबीर संजय
तोताराम सनाढ्य
मक्सिम गोर्की
रूपा धीरू
सूरज प्रकाश
कमला प्रसाद
तोमास त्रांसत्रोमर
मख़दूम मोहिउद्दीन
रूपेश कुमार
सूरदास
कमला विश्वनाथन
तोल्सतोय
मदन कश्यप
रेनर मरिया रिल्के
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
कमलेश्वर
त्रिलोकचन्‍द महरूम
मधुकर सिंह
लक्ष्मीनंदन बोरा
सूर्यबाला
करतारसिंह दुग्गल
त्रिलोचन
मधु कांकरिया
ललिताप्रसाद सुकुल
से.रा. यात्री
कविता
दयानंद सरस्वती
मधुसूदन साहा
लहब आसिफ अल-जुंडी
सैयद इंशा अल्ला खां
कविता वाचक्नवी
दाग़ देहलवी
मनमोहन भाटिया
लात्सलो ताबी
सैयद वलीउल्लाह
क़ैफ़ी आज़मी
दिनकर बेडेकर
मनीषा कुलश्रेष्ठ
लाला श्रीनिवास दास
सोफिया तोल्सतोया
कामता प्रसाद गुरु
दिनेश कुमार शुक्ल
मनीषा पांडे
लाल्टू
सोमदेव
कामता प्रसाद सिंह‍ काम
दिनेश द्विवेदी
मनोज कुमार झा
लीला गायतोंडे
स्वदेश दीपक
कामतानाथ
दिविक रमेश
मनोज कुमार पांडेय
लीलाधर जगूड़ी
स्वयं प्रकाश
कालिदास
दिव्या माथुर
मनोज बसु
लीलाधर मंडलोई
हंसराज रहबर
काशीनाथ सिंह
दीपक शर्मा
मनोज रूपड़ा
लुइगी पिरांडेलो
हजारी प्रसाद द्विवेदी
किरण अग्रवाल
दीपक श्रीवास्तव
मनोज श्रीवास्तव
लू शुन
हफ़ीज़ जालंधरी
किशन पटनायक
दुःखिनीबाला
मनोहर श्याम जोशी
लोचन बख्शी
हबीब जालिब
किशोरीलाल गोस्वामी
दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
मन्नू भंडारी
वरलोट्टि रंगसामी
हयात-उल्लाह अंसारी
कीर्ति केसर
दुष्यंत कुमार
ममता कालिया
वर्जिनिया वूल्फ
हयातुल्ला अंसारी
कुंवरपाल सिंह
दूधनाथ सिंह
मलाला युसूफजई
वर्तिका नंदा
हरप्रीत कौर
कुणाल सिंह
देवकीनंदन खत्री
मलिक मुहम्मद जायसी
वली दक्कनी
हरि जोशी
कुदरतुल्ला शहाब
देवेंद्र
महादेवी वर्मा
वसीम बरेलवी
हरि भटनागर
कुबेरनाथ राय
देवेंद्रनाथ शर्मा
महीप सिंह
वसुधा माने
हरिनारायण व्यास
कुमार अंबुज
देवेन्द्र इस्सर
महेश कटारे
विजय अहलूवालिया
हरिवंश राय बच्चन
कुमार अनुपम
देवेन्द्र सत्यार्थी
महेश चंद्र द्विवेदी
विजय कुमार झा
हरिशंकर परसाई
कुमार रवींद्र
द्रोणवीर कोहली
महेश वर्मा
विजय शर्मा
हसरत मोहानी
कुर्रतुल-एन-हैदर
धर्मवीर भारती
माधवप्रसाद मिश्र
विजयदेव नारायण साही
हीरा डोम
कुलदीप कुमार
धर्मेन्द्र मोहन पंत
माधवराव सप्रे
विजयमोहन सिंह
हुस्न तबस्सुम निहाँ
कुलवन्तसिंह विर्क
धीरेंद्र अस्थाना
मानिक वन्द्योपाध्याय
विजया सती
हृदयेश
कृशन चंदर
नंदकिशोर आचार्य
मार्कंडेय
विजेंद्र
हेनरिक हाइने
कृष्ण किशोर
नज़ीर अक़बराबादी
मार्क स्ट्रैंड
विद्यानिवास मिश्र
हेमंत शेष
कृष्ण कुमार
नज़ीर बनारसी
मालती जोशी
विद्यासागर नौटियाल
होमेन बरगोहात्रि
कृष्ण पाल
नन्द किशोर विक्रम
मास्टर भगवानदास
विनोद कुमार शुक्ल
होर्हे लुईस बोर्हेस
कृष्ण बलदेव वैद
नमिता सिंह
मिथिलेश प्रियदर्शी