Sunday 7 July 2013

'यादों के धुंधले उजले चेहरे' - मदनलाल मधु


मदनलाल मधु के हिंदी अनुवाद पढ़ कर भारत में अनेक पीढि़यां रूसी साहित्य से परिचित हुई हैं। 1957 से रूस में रह रहे मधु की पुस्तक 'यादों के धुंधले उजले चेहरे' चर्चा में है। उनसे राजेश मिश्र की लंबी बातचीत।
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रूस और भारत के संबंधों को आप किस नजर से देखते हैं?
दोनों देशों का संबंध बहुत पुराना है। रूस की दिलचस्पी हमेशा से भारत के प्रति रही है। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों का रूसी भाषा में अनुवाद हुआ है। वहां की कई पुस्तकों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। 19वीं शताब्दी में मैक्सिम गोर्की ने हमारी क्रांतिकारी महिला मैडम कामा से भारत की आजादी के आंदोलन और नारियों के बारे में एक लेख भेजने का आग्रह किया था। आजादी के आंदोलन के समय लेनिन ने कहा था कि अब भारत में अंग्रेजों के अधिक दिन नहीं रह गए हैं। टॉलस्टाय की भारतीय संस्कृति में खासी रुचि थी। गांधी जी उनको अपना गुरु मानते थे। 1927 में नेहरू अपने पिता मोतीलाल नेहरू के साथ सोवियत संघ गए थे। उस वक्त रूस की उपलब्धियों को देखकर वे बहुत प्रभावित हुए।

आजादी के बाद रूस-भारत संबंधों का विकास कैसे हुआ?
1955 में जब प्रधानमंत्री नेहरू की पहली यात्रा सोवियत संघ में हुई तो वहां उनका जोरदार स्वागत हुआ। उसी साल ख्रुश्चेव भारत आए थे। जब वे कश्मीर गए तो ख्रुश्चेव ने ये बात कही थी कि हम हिमालय के दूसरी ओर बैठे हैं। जब भी आप हमें आवाज देंगे, हम हाजिर हो जाएंगे। उस जमाने में जब सिक्युरिटी काउंसिल में कश्मीर का प्रश्न आया तो उन्होंने वीटो किया और हर तरह का समर्थन दिया। आर्थिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और सामरिक क्षेत्र में भी संबंध बनने शुरू हुए। इसी कड़ी में मैं सोवियत संघ गया था। राजकपूर की श्री 420 और आवारा जैसी फिल्में खूब लोकप्रिय हुईं। दोनों देशों के बीच एक दूसरे की मुद्राओं को लेकर सहमति थी। दोनों देशों के बीच इस संधि को रूबल रूपी संधि कहते हैं।

विघटन के बाद क्या बदलाव आए?
1991 के दिसंबर महीने में जब सोवियत संघ टूट गया, उसके बाद दूसरे परिवर्तन शुरू हुए। पूंजीवादी व्यवस्था की परंपरा वहां शुरू हो गई। अन्य देशों के साथ रूस का व्यापार होने लगा। इस तरह से वहां हमारे देश के लोग जो पहले से काम कर रहे थे उनको कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। पश्चिमी कंपनियों की एंट्री के बाद रूस के व्यवहार में भी परिवर्तन आने लगा। वे भारत की तुलना में पश्चिमी मुल्कों के प्रॉडक्ट खरीदने लगे। राजनीतिक स्तर पर भी हमारे संबंध बदलने लगे। गर्वाचोफ के जाने के बाद येल्तिसन के जमाने में संबंधों में दूरी आ गई थी। लेकिन सत्ता में आने के बाद पुतिन ने भारत के महत्व को समझा और इस बात पर जोर दिया कि दोस्ती की यह परंपरा आगे बढ़नी चाहिए। रूस से आज हमारे संबंध बेहतर कहे जा सकते हैं।

विघटन के बाद रूसी समाज में क्या परिवर्तन आए?
समाजवाद के दौर में लोगों को उपलब्ध सुरक्षा में कमी आई या कहें वह खत्म हो गई। जैसे सबके लिए फ्री शिक्षा, मुफ्त मेडिकल सुविधाएं, रोजगार भत्ते वगैरह आज के दौर में नहीं रहे। वहां भी महंगे प्राइवेट स्कूल खुल गए हैं। सरकारी अस्पताल हैं, लेकिन महंगे प्राइवेट अस्पताल भी खुल गए हैं। हां, सरकारी स्कूलों में 12वीं तक अब भी शिक्षा फ्री है। लेकिन आज वहां लाखों लोग बेरोजगार हैं। अमीर और गरीब की खाई चौड़ी हो गई है। वहां के अरबपति मौज में हैं, लेकिन गरीबों की बड़ी तादाद अभाव में है।

रूस में आपको कैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा?
1957 में विदेश मंत्रालय ने हम लोगों को वहां भेजा। हिंदी के लिए बनी एक्सपर्ट कमिटी बनी थी उसमें हरिवंश राय बच्चन प्रमुख थे। मेरे साथ भीष्म साहनी का भी चुनाव हुआ था। लेकिन समस्या ये थी कि हमें रूसी भाषा के माध्यम से नहीं, अग्रेजी के माध्यम से काम करना था। हमें रूसी नहीं आती थी। वहां अंग्रेजी से अनुवाद में काफी कठिनाई आई। इसके बाद मैंने रूसी भाषा सीखना शुरू किया। पहले बच्चों की आसान पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया। फिर साहित्यिक अनुवाद किया।

सोवियत संघ के विघटन को आप मार्क्सवाद की हार मानते हैं?
इस विचारधारा को पहला आघात स्टैलिन के जमाने में तब लगा जब लाखों निर्दोष लोगों की हत्या कर दी गई। बुद्धिजीवियों को देश छोड़कर भागना पड़ा। 1937 में जो अत्याचार हुए उस समय समाजवाद का भयानक रूप सामने आया। जो कट्टरपंथी लोग थे, जो परिवर्तन नहीं चाहते थे, उन्होंने हर कदम पर रोड़े अटकाए। ये उनकी कमजोरियां थीं जिसकी वजह से विघटन हुआ। पार्टी के अंदर जो अंदरूनी संघर्ष था, वो भी बहुत बड़ा कारण रहा। यह समाजवाद का दुर्भाग्य था कि वह अपना मानवीय चेहरा सुरक्षित नहीं रख पाया।

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