Tuesday 21 January 2014

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना


उठ मेरी बेटी सुबह हो गई
पेड़ों के झुनझुने बजने लगे;
लुढ़कती आ रही है सूरज की लाल गेंद।
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तूने जो छोड़े थे, गैस के गुब्बारे,
तारे अब दिखाई नहीं देते,
(जाने कितने ऊपर चले गए)
चाँद देख, अब गिरा, अब गिरा,
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तूने थपकियाँ देकर,
जिन गुड्डे-गुड्डियों को सुला दिया था,
टीले, मुँहरँगे आँख मलते हुए बैठे हैं,
गुड्डे की जरवारी टोपी
उलटी नीचे पड़ी है, छोटी तलैया
वह देखो उड़ी जा रही है चूनर
तेरी गुड़िया की, झिलमिल नदी
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तेरे साथ थककर सोई थी जो तेरी सहेली हवा,
जाने किस झरने में नहा के आ गई है,
गीले हाथों से छू रही है तेरी तस्वीरों की किताब,
देख तो, कितना रंग फैल गया
उठ, घंटियों की आवाज धीमी होती जा रही है
दूसरी गली में मुड़ने लग गया है बूढ़ा आसमान,
अभी भी दिखाई दे रहे हैं उसकी लाठी में बँधे
रंग बिरंगे गुब्बारे, कागज पन्नी की हवा चर्खियाँ,
लाल हरी ऐनकें, दफ्ती के रंगीन भोंपू,
उठ मेरी बेटी, आवाज दे, सुबह हो गई।
उठ देख, बंदर तेरे बिस्कुट का डिब्बा लिए,
छत की मुँडेर पर बैठा है, धूप आ गई।

ओंकार


चिड़िया, जब तुम आसमान में उड़ती हो, तुम्हारे मन में क्या चल रहा होता है? तुम मस्ती में उड़ी चली जाती हो, या कि सोचती हो, कहीं बादलों में फंस न जाओ, कि सूरज के ताप से झुलस न जाओ, कि कहीं तुम्हारे पंख जवाब न दे दें? तुम्हें उन चूज़ों की चिंता तो नहीं सताती, जो घोंसले में तुम्हारा इंतज़ार कर रहे होते हैं, कि उनके लिए दानों का इंतज़ाम होगा या नहीं, कि कहीं तूफ़ान में घोंसला गिर तो नहीं जाएगा? उड़ते समय तुम्हारे मन में डर तो नहीं होता कि लौटने पर तुम्हारे बच्चे सलामत मिलेंगे या नहीं, कि तुम खुद किसी बहेलिए के निशाने पर तो नहीं, जो तुम्हारी ताक में कहीं छिपा बैठा हो? उड़ते समय तुम्हारे मन में क्या चल रहा होता है, चिड़िया, मौत से पहले भी क्या तुम मरती हो?

रमेश खत्री
आँगन की अरगनी पर चिड़िया.....चिड़िया के कलरव ने जीवन में एक नई सिम्फनी रच दी और हमें पता ही नहीं चला। वह नहीं करती किसी से किसी प्रकार का कोई भेद, निर्विध्न घुमती है एक घर से दूसरे में, कोई धर्म, कोई वर्ग, कोई समुदाय हो उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, बेलौस चली जाती है बगैर किसी हिचक के, हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई, या फिर हो कोई बौद्ध, जैनी या अन्य, अमीर हो, गरीब हो या हो मध्यमवर्गीय, गृहस्थि हो या हो वितरागी वैरागी, सबके घर के दरवाज़ों तक फुदक फुदक कर जाती है, भौर की बेला को वह अपने पंखों में भर लाती है, दाने चुगती अपनत्व से हँसती और इठलाती है नहीं भेद है उसके मन में सुख में, दुःख में....जीवन के उतार चड़ाव में वह खड़ी है साथ हमारे हौसलों की फुहार लिये....

मुकेश कुमार तिवारी
आंगन में आ बैठी चिड़िया, फुदकती, चहचहाती दाना चुगती, और फुर्र हो जाती, यह मेरे लिये नया कौतुक था। एक दिन चिड़िया ने मुझे सौगात में सौंपी एक फुद्‍दी (पंख)। जैसे मेरे दिन हवा हो गये। मुझे अच्छा लगने लगा। दिन भर दौड़ लगाना पंख के पीछे। पत्थर के साथ उछालना और फिर पकड़ने कि लिये दूर तक दौड़ना, गर्दन ऊपर किये हुये, मैंने सीखा घर से निकलना बाहर अकेले। चिड़िया अब मुझे पहचानने लगी थी, मेरे आंगन से निकलकर, आने लगी कमरें के भीतर, कभी रोशनदान से या कभी मुंड़ेर पर चहलकदमी करते, फिर नापती मेरे कमरे का जुगराफ़िया उड़ते हुये बिखेर जाती कुछ तिनकें/ कुछ पंख, मैंने जमा किये उसके बिखेरे हुये तिनकें, जैसे मैं चाहता था एक कोना, अपने कमरे में उसके लिये, और सीखा एक अदद घर बनाना, अब, कोई चिड़िया नहीं आती मेरे घर, ना कोई गाता है गीत आंगन में किसी के आने पर, अरसा हो गया उसे देखे, मेरे बच्चों ने शायद ही कभी देखी हो, कोई चिड़िया लाइव, चहचहाती हुई / दाना चुगती हुई / पंख भिगोकर नहाती हुई, हाँ उनका डेस्कटॉप जरूर सजा रहता है, किसी वर्चुअल अजनबी सी चिड़िया से। मैं, अब भी जाता हूँ दूर जंगलों में, जब वक्‍त मिलता है, जहाँ कोई गाता है गीत दोपहर में, बिखेर आता हूँ दाने, अपने साथ लिये आता हूँ, कुछ तिनकें और कुछ पंख और सहेज लेता हूँ कि दिखा सकूँगा अपने पोतों को कि चिड़िया होती है, कभी हमारे घर भी आती थी।