Thursday 22 September 2016

बंद करो तकरार/जयप्रकाश त्रिपाठी

ठगा विश्व-बंधुत्व है, अदभुत युद्धम-युद्ध।
बड़े-बड़ों में फिर कलह, बच्चा-बच्चा क्रुद्ध।
किसके दिल में प्यार है, किसके दिल में खोट,
सच सबको मालूम है, मत कर खुद पर चोट।
छिपकर सीमा पार से क्यों करते हो वार,
तहस-नहस हो जाओगे, बंद करो तकरार ।
घर की भूंजी भांग का लगा रहे हो रेट,
बम, गोला, बारूद से भरता किसका पेट।
अपने घर का हाल भी रहा नहीं अनुकूल,
कृपया ऐसे वक्त में बकें न ऊल-जुलूल।
मानवता के दुश्मनों ! भरो न यूं हुंकार,
खून-खून हो जाएगा यह सुंदर संसार।

एक अविस्मरणीय पश्चाताप

कभी-कभी कोई-कोई पश्चाताप जीवन भर पीछा करता रहता है। एक ऐसा ही वाकया मेरे भी अतीत का हिस्सा रहा है। दरअसल, कल एक मित्र 'पिंक' को सराहते हुए मुझे भी सिनेमाहाल खींच ले गए। लौटते समय 'वह वाकया' घुमड़ने लगा। साहित्य और सिनेमा पर दिमाग दौड़ते-दौड़ते पहुंच गया मुंशी प्रेमचंद से जुड़े एक पांडुलिपि प्रकरण पर।
उन दिनो मैं 'आज' अखबार आगरा में कार्यरत था। वहां के कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी पीठ में एक प्रोफेसर थे त्रिवेदीजी। उनके आकस्मिक देहावसान के बाद उनके चार बच्चों के सामने रोजी-रोटी का संकट आ गया। सबसे बड़ी बेटी थी। मृत्यु के बाद नेपाल में कार्यरत रहे एक प्रोफेसर की निगाह त्रिवेदीजी के अथाह संग्रहालय पर जा टिकी। वह त्रिवेदीजी की बेटी से येन केन प्रकारेण पूरा संग्रहालय खरीदना चाहते थे। उस संग्रहालय में दुर्लभ पांडुलिपियां थीं। एक व्यक्ति त्रिवेदीजी के बेटे को नौकरी लगवाने के लिए आज अखबार के कार्यालय ले आया। उसे प्रशिक्षित करने के लिए मेरे हवाले कर दिया गया। उसने एक दिन बताया कि उसकी बहन पापा की सारी किताबें बेचने वाली है। फिर पूरा वाकया बताया। अगले दिन मैं उसके घर गया। उस घरेलू संग्रहालय में एक दुर्लभ पांडुलिपि मिली।
त्रिवेदीजी की बेटी ने बताया कि पापा को इसे कवि जयशंकर प्रसाद ने टाइप करवाकर छपवाने के लिए दिया था। आग्रहकर वह पांडुलिपि मैं इस उद्देश्य से ले आया कि अगर कहीं नेपाल वाला प्रोफेसर इसे ले गया तो इस दुर्लभ सामग्री का जाने क्या हाल हो। किसी तरह फोन नंबर प्राप्त कर पांडुलिपि के संबंध में मैंने दो-तीन बाद जयशंकर प्रसाद जी के परिजन से संपर्क किया। उन्होंने दो टूक कह दिया कि ऐसी कोई पांडुलिपि है ही नहीं।
उसके बाद मैंने वह पांडुलिपि आगरा विश्वविद्यालय के एक मित्र प्रोफेसर को देखने के लिए दी। उन्होंने उसे कुलपति को दिखाने के बहाने लापता कर दिया। लंबे समय तक लौटाने का आग्रह करता, पर मिली नहीं। अब तो वह प्रोफेसर भी इस दुनिया में नहीं रहे। उस पांडुलिपि में हिंदी के अनेकशः शीर्ष साहित्यकारों (प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, निरालाजी, नंददुलारे वाजपेयी, पंत आदि) के जयशंकर प्रसाद से हुए पत्राचार की मूल प्रतियां थीं। उसी में एक लंबा पत्र मुंशी प्रेमचंद का था, जो उन्होंने बंबई (मुंबई) की फिल्मी दुनिया से लौटने के बाद लिखा था। काश, वह पांडुलिपि प्रकाशित होकर हिंदी पाठकों को उपलब्ध हो सकी थी। वह दुख आज तक टीसता है।

Monday 12 September 2016

14 सितंर हिंदी दिवस : भारतेंदु हरिश्चंद्र/प्रो.मैनेजर पांडेय

हिन्दी नवजागरण से अभिप्राय सन् १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारत के हिन्दी प्रदेशों में आये राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जागरण से है। हिन्दी-नवजागरण की सबसे प्रमुख विशेषता हिन्दी-प्रदेश की जनता में स्वातंत्र्य-चेतना का जागृत होना है। इसका पहला चरण स्वयं १८५७ का विद्रोह था। इसका दूसरा चरण भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से शुरू हुआ और तीसरा चरण महावीर प्रसाद द्विवेदी से शुरू हुआ।
यह मान्‍यता तो बहुत पहले से प्रचलित रही है कि भारतेंदु हरिश्‍चंद्र के उदय के साथ हिंदी में एक नए युग का आरंभ हुआ, किंतु इस नए युग को 'नवजागरण' नाम देने का श्रेय हिंदी में डॉ. रामविलास शर्मा को है। 'महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण' (1977) नामक पुस्‍तक के द्वारा उन्‍होंने 'नवजागरण' की नहीं बल्कि 'हिंदी नवजागरण' की संकल्‍पना प्रस्‍तुत की। इससे पहले भारत में नवजागरण की चर्चा प्राय: 'बंगाल नवजागरण' के रूप में ही होती रही है।
वरिष्ठ आलोचक प्रो. मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं-
हिंदी में राष्ट्रीय स्तर पर जन-जागरण संबंधी सोच और धारणा का इतिहास लंबा है. 1939 ई. में शिवदान सिंह चौहान ने एक निबंध लिखा था – ‘छायावादी कविता में असंतोष भावना’. इस निबंध के आरंभ में उन्होंने लिखा है, “भारत के नवोत्थित पूँजीवाद द्वारा प्रेरित राष्ट्रीय जागरण की प्रथम स्वाभाविक प्रतिक्रिया साहित्य में भारतेन्दु काल से द्विवेदी काल तक की इतिवृत्तात्मक कविता के रूप में व्यक्त हुई. कतिपय राजनीतिक और सामाजिक सुधार ही मुक्ति भावना के चरम लक्ष्य थे. सामाजिक जीवन के संगठन में आमूल परिवर्तनों और उनके अनुकूल ही समाज चेतना के नूतन संस्कार की आवश्यकता का अनुभव अभी तक स्पष्ट रेखाएँ नहीं बना पाया था.’’ (भारत में प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता, संपादित, पृ.42) शिवदान सिंह चैहान के इस कथन में दो बातें ध्यान देने लायक हैं. एक तो यह कि वे राष्ट्रीय जागरण का प्रेरणा स्रोत नवोदित पूँजीवाद को मानते हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि भारत में चूँकि पूँजीवाद का आगमन अंग्रेजी राज के कारण हुआ इसलिए राष्ट्रीय जागरण के मूल में अंग्रेजी राज है. दूसरी बात यह कि चैहान जी राष्ट्रीय जागरण की हिंदी साहित्य में प्रथम अभिव्यक्ति भारतेन्दु युग में देखते हैं, लेकिन वे राष्ट्रीय जागरण से अलग हिंदी नवजागरण की बात नहीं करते. शिवदान सिंह चैहान ने 1952 में एक निबंध लिखा था ‘साहित्य के इतिहास की समस्या’, जिसमें उन्होंने लिखा है, “सभी जानते हैं कि देश की अन्य प्रमुख भाषाओं के आधुनिक साहित्यों की तरह हिंदी का आधुनिक साहित्य भी हमारे राष्ट्रीय जागरण के युग की पैदावार है या कहें कि राष्ट्रीय जागरण ही आधुनिक युग में भारतीय सांस्कृतिक नवजागरण (रिनेसां) की अंतःप्रेरणा बना है.’’ (भारत में प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता, संपादित, पृ.242)
हिंदी साहित्य के आधुनिक युग को नवजागरण युग सबसे पहले राहुल सांकृत्यायन ने कहा था, 1944 ई. में. राहुल जी की पुस्तक ’हिंदी काव्य-धारा’ 1945 में छपी थी. उसकी भूमिका उन्होंने 1944 में लिखी थी. उस भूमिका में राहुल जी ने हिंदी साहित्य के इतिहास का एक नया काल विभाजन किया है, जो इस प्रकार है-पहला सिद्ध-सामंत युग; दूसरा, सूफी-युग; तीसरा, भक्त -युग; चैथा, दरबारी-युग और पाँचवा, नवजागरण-युग. राहुल जी ने हिंदी काव्य-धारा में केवल सिद्ध-सामंत युग के बारे में विस्तार से लिखा है परंतु उन्होंने शेष चार युगों के बारे में कुछ नहीं लिखा. इसलिए नवजागरण से उनका आशय क्या है, यह बहुत स्पष्ट नहीं है. फिर भी यह मानना चाहिए कि वे आधुनिक युग को नवजागरण युग कहने वाले पहले व्यक्ति हैं.
हिंदी में नवजागरण की बात करने वाले एक और आलोचक हैं प्रकाशचन्द्र गुप्त. उनकी एक पुस्तक है-’साहित्य-धारा’, जो 1956 ई. में छपी थी. उसमें एक निबंध है ’हिंदी कविता में नवजागरण’. पुस्तक में इस बात का उल्लेख नहीं है कि यह निबंध पहली बार कब और कहाँ छपा था. इस निबंध में गुप्त जी ने लिखा है, ’’हिंदी में राष्ट्रीय भावना भारतेन्दु युग से मिलती है.’’ इस निबंध में वे यह भी लिखते  हैं कि ’अंग्रेजी शासन के साथ औद्योगिक क्रांति का भारत में प्रवेश हुआ.’ इसका अर्थ यह है कि अंग्रेजी राज के कारण भारत में राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ और राष्ट्रीय जागरण का भी. प्रकाशचन्द्र गुप्त यह भी मानते हैं कि ’’इस नई व्यवस्था के विरुद्ध जो विप्लव सन् सत्तावन में हुआ, उसमें हम भारतीय सामंतों की प्रमुखता पाएँगे. मध्य वर्ग की सत्ता भारतीय राष्ट्र के निर्माण के साथ मिलेगी.’’ इसका अर्थ यह भी है कि 1857 का विद्रोह सामंतों का विद्रोह था और भारत का उस समय का मध्यवर्ग अंग्रेजी राज के साथ था जो भारतीय राष्ट्र का निर्माण कर रहा था.
हिंदी नवजागरण की धारणा, उसकी ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया, उसके स्वरूप, उसकी विशेषताओं और भारत के अन्य क्षेत्रों के नवजागरणों से उसकी स्वतंत्र पहचान का सुचिंतित, सुव्यवस्थित तथा विस्तृत विवेचन रामविलास शर्मा ने किया है. उन्होंने ’महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ (1977) नाम की पुस्तक में हिंदी नवजागरण के स्वरूप के बारे में विस्तार से लिखा है. इस पुस्तक का पहला वाक्य यह है-’’हिंदी प्रदेश में नवजागरण 1857 ई. के स्वाधीनता संग्राम से शुरू होता है.’’ इस कथन में दो स्थापनाएँ हैं - पहली यह कि हिंदी नवजागरण का आरंभ 1857 के महाविद्रोह से होता है और दूसरा यह कि 1857 का महाविद्रोह भारत का स्वाधीनता संग्राम था. इससे यह मान्यता भी सामने आती है कि हिंदी नवजागरण अंगे्रजी राज के कारण नहीं बल्कि उसके विरुद्ध विकसित हुआ.
डा. शर्मा ने इसी पुस्तक में  लिखा है कि ’’सन् 1857 का स्वाधीनता संग्राम हिंदी प्रदेश के नवजागरण की पहली मंजिल है. दूसरी मंजिल भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का युग है. तीसरी मंजिल महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनका युग है तो चैथी मंजिल छायावाद और निराला का साहित्य.’’ उन्होंने यह स्पष्ट लिखा है कि ’’जो नवजागरण 1857 के स्वाधीनता संग्राम से आरंभ हुआ, वह भारतेन्दु युग में और व्यापक बना, उसकी साम्राज्य-विरोधी, सामंत-विरोधी प्रवृत्तियाँ द्विवेदी युग में और पुष्ट हुईं. फिर निराला के साहित्य में कलात्मक स्तर पर तथा उनकी विचारधारा में ये प्रवृत्तियाँ क्रांतिकारी रूप में व्यक्त हुई.’’ (महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, पृ.19)
रामविलास जी ने 1984 ई. में हिंदी नवजागरण संबंधी अपने चिंतन को और अधिक व्यापक तथा सुस्पष्ट बनाते हुए ’भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएँ’ नाम की पुस्तक में लिखा है, ’’भारतेन्दु युग उत्तर भारत में जनजागरण का पहला या प्रारंभिक दौर नहीं है; वह जनजागरण की पुरानी परंपरा का एक खास दौर है. जनजागरण की शुरूआत तब होती है जब यहाँ बोलचाल की भाषाओं में साहित्य रचा जाने लगता है, जब यहाँ के विभिन्न प्रदेशों में आधुनिक जातियों का गठन होता है. यह सामन्त विरोधी जनजागरण है. भारत में अंग्रेजी राज कायम करने के सिलसिले में पलासी की लड़ाई से 1857 के स्वाधीनता संग्राम तक जो युद्ध हुए, वे जनजागरण के दूसरे दौर के अंतर्गत हैं. यह दौर पहले से भिन्न है, मुख्य लड़ाई विदेशी शत्रु से है. यह साम्राज्यविरोधी जनजागरण है.’’ (पृ. 13)
हिंदी समाज, हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य के आधुनिक काल से संबंधित रामविलास शर्मा के संपूर्ण चिंतन और लेखन के कंेद्र में है उनकी हिंदी नवजागरण की अवधारणा. चाहे 1857 ई. का स्वाधीनता संग्राम हो या हिंदी जाति की धारणा, चाहे हिंदी में आधुनिकता के उदय का सवाल हो या हिंदी-उर्दू के संबंध का, चाहे देश में राजनीतिक चेतना के जागरण का प्रश्न हो या समाज सुधार का; इन सभी प्रश्नों पर विचार करते हुए वे हिंदी नवजागरण संबंधी अपनी मान्यताओं को ध्यान में रखते हैं.
रामविलास शर्मा की हिंदी नवजागरण की अवधारणा मूलतः और मुख्यतः साम्राज्यवाद-विरोधी है; क्योंकि उसका मूल स्रोत वे 1857 के महाविद्रोह को मानते हैं और वे उसे प्रथम राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम भी कहते हैं. निश्चय ही 1857 ई. के स्वाधीनता संग्राम का केंद्र हिंदी प्रदेश था. वह आमतौर पर भारतीय जनता और खासतौर पर हिंदी जनता के साम्राज्यवाद-विरोध की उदात्त अभिव्यक्ति था. जो लोग हिंदी नवजागरण की दूसरी, तीसरी और चैथी मंजिल के साहित्य में 1857 के विद्रोह की अभिव्यक्ति या अनुगूँज न पाकर 1857 के संग्राम को हिंदी नवजागरण की पहली मंजिल होने पर संदेह करते हैं उन्हें भगतसिंह के साथी भगवानदास माहौर के शोधग्रंथ ’1857 के स्वाधीनता संग्राम का हिंदी साहित्य पर प्रभाव’ (1976) को पढ़ना चाहिए. इस पुस्तक में 1857 ई. के महाविद्रोह के हिंदी साहित्य के साथ ही हिंदी क्षेत्र की लोकभाषाओं के साहित्य पर प्रभावों का विस्तृत विवेचन किया गया है, जिससे यह साबित होता है कि सन् 1857 ई. के संग्राम का हिंदी साहित्य और हिंदी भाषी जनता के मानस पर कितना व्यापक असर था. डा. माहौर ने हिंदी और उसकी लोकभाषाओं के अलावा उर्दू, मराठी, बांग्ला और गुजराती में प्रकाशित तथा अप्रकाशित विभिन्न विधाओं की असंख्य रचनाओं का उल्लेख किया है. इस सबसे यह साबित होता है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में 1857 का व्यापक प्रभाव मौजूद है.
जो लोग भारतेन्दु युग से छायावाद तक के हिंदी साहित्य में 1857 ई. के महाविद्रोह का मनचाहा उल्लेख न पाकर उस काल के लेखकों की निंदा करते हैं वे या तो यह नहीं जानते या जान बूझकर भूल जाते हैं कि 1857 के संग्राम के बाद अंग्रेजी राज के प्रेस और प्रकाशन संबंधी दमनकारी कानूनों के कारण 1857 के विद्रोह के पक्ष में कुछ भी लिखना और प्रकाशित करना कितना कठिन था. खासतौर से 1878 के दमनकारी कानून के बाद कुछ भी ऐसा लिखना और छपना असंभव हो गया जिससे सरकार सहमत न हो.  प्रेस और प्रकाशन संबंधी दमन और पाबंदी की प्रक्रिया क्रमशः कठोर हुई. यहाँ तक कि देशभक्ति और स्वाधीनता के पक्ष में लिखना-छपना मुश्किल हो गया. इसी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप प्रेमचंद के दो कहानी संग्रहों पर पाबंदी लगी. भगतसिंह और उनके साथियों ने 1933 ई. में 1857 से संबंधित दो पुस्तिकाएँ प्रकाशित कराईं. इन दोनों पर पाबंदी लगा दी गई. 1857 ई. के संग्राम पर लिखी अनेक साहित्यिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक पुस्तकों तथा पुस्तिकाओं पर पाबंदी लगी. यहाँ तक कि झाँसी की रानी पर छपे एक ऐसे पोस्टकार्ड पर पाबंदी लगी जिसके एक ओर झाँसी की रानी का चित्र था और दूसरी और क्रांतिकारी चुनौती.
वैसे तो रामविलास शर्मा का साम्राज्यवाद-विरोधी दृष्टिकोण उनकी प्रत्येक पुस्तक में मौजूद है लेकिन उसका प्रखरतम रूप उनकी पुस्तक ’सन् सत्तावन की राजक्रांति और मार्क्सवाद’ में प्रकट हुआ है. उन्होंने उस पुस्तक में लिखा है कि ’सन् सत्तावन का संघर्ष एक महान जनक्रांति था. वह जनक्रांति इसलिए भी था क्योंकि उसमें जनता ने सक्रिय रूप से भाग लिया था.’’ (पृ. 299) इस क्रांति की मूलधारा अंग्रेजी राज के विरुद्ध थी. इसका मूल उद्देश्य राजनीतिक था- अंग्रेजों को निकालकर देश में अपनी सत्ता कायम करना. इस राजनीतिक उद्देश्य के अंतर्गत और भी सामाजिक उद्देश्य थे (पृ.299)
हिंदी में और हिंदी के बाहर भी ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो यह मानते हैं कि भारत में आधुनिकता और प्रगति का आगमन अंग्रेजी राज के साथ हुआ. इसके ठीक विपरीत रामविलास शर्मा भारतीय समाज और संस्कृति के विकास में अंग्रेजी राज की कोई सार्थक भूमिका नहीं मानते. दुनिया भर के पिछले 500 वर्षों का साम्राज्यवाद का इतिहास यह साबित करता है कि साम्राज्यवाद ने जिन देशों पर कब्जा किया वहाँ के समाज, संस्कृति और जनता का विनाश किया है. यही नहीं वहाँ अपनी भाषा, संस्कृति और सभ्यता का प्रभुत्व स्थापित किया है. भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद इस प्रवृति का अपवाद नहीं प्रमाण है. अंगे्रजों ने भारत पर कब्जा करने के बाद क्या-क्या किया यह रामविलास शर्मा के शब्दों में देखिए, ’’अंग्रेजों ने हिन्दुस्तानियों को राजभक्ति सिखाई, उनके अन्दर फूट की आग सुलगाई, उन्हें एक-दूसरे का खून बहाना सिखाया, यहाँ की संस्कृति और भाषाओं को पैरो तले रौंदा और यहाँ से जितना धन लूटकर ले गए, उतना अपने बाकी विश्वव्यापी साम्राज्य से न ले गए.’’ (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, पृ.24)
रामविलास शर्मा वर्षों से यह कहते और लिखते रहे हैं कि भारत में अंग्रेजी राज के आरंभ के बहुत पहले से, लगभग बारहवीं सदी से, बोलचाल की भाषाओं में साहित्य की रचना के साथ ही आधुनिकता का उदय होता है. सुखद आश्चर्य की बात यह है कि अब सेन पोलक और गेल आम्बिड जैसे अंग्रेजी में लिखने वाले लोग भी यह मानने लगे हैं कि भारत में बोलचाल की देशी भाषाओं के उत्थान के साथ ही आधुनिकता या आरंभिक आधुनिकता का उदय होता है.
अब यह भी अनेक व्यक्ति मानने लगे हैं कि दुनिया भर में साम्राज्यवाद जिन देशों पर कब्जा करता है वहाँ दलाल संस्कृति निर्मित करता है और उसके सहारे अपना राजकाज चलाता है. भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद देशी दलाल संस्कृति के सहारे चलता था-यह बात हिंदी नवजागरण के लेखक और रामविलास शर्मा पहचानते हैं. अंग्रेजी राज अपने दलालों को तरह-तरह के खिताब, पदवी, सम्मान और सनद देता था- यह भारतेन्दु हरिश्चन्द्र भी जानते थे.  रामविलास शर्मा ने ’भारतेन्दु हरिश्चन्द्र’ पुस्तक में लिखा है, ’’खिताब पाने के लिए हिन्दुस्तानियों को किस तरह आत्मसम्मान बेचना पड़ता था, इस पर सबसे सुन्दर और तीखी टिप्पणी 20 जुलाई, 1874 की ’कवि वचनसुधा’ में छपी है. शीर्षक है, ’खिताब का भाव बहुत उतरैगा.’ नीचे लिखा है:
बंगाल में काल पड़ा है इससे इसके समाप्त होने पर खिताब का भाव निस्संदेह बहुत सस्ता हो जाएगा यहाँ तक कि टके सेर बिकै तो आश्चर्य नहीं, हम ग्राहकों को समाचार देते हैं कि वे प्रस्तुत हो रहैं. केवल थोड़ा-सा कागज रंगने, झूठी-मीठी रिपोर्ट कर देने पर खिताब मिल जाएगा पर ढंगबाजी की शर्त है रायबहादुर राजा नौव्वाब स्टार सब बाजार में आवेंगे ग्राहक लोग मियानी खोल रक्खें.’’ ( भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पृ.27)
इस प्रसंग के अंत में रामविलास जी ने लिखा है कि ’’अंग्रेजों ने सम्मान की एक कसौटी बना रखी थी- जनता से दगा करो, हमारी सेवा करो.’’ (पृ.27)
रामविलास शर्मा ने महावीरप्रसाद द्विवेदी के साम्राज्यवाद-विरोधी दृष्टिकोण का विवेचन करते हुए लिखा है, ’’साम्राज्यवाद का अर्थतंत्र क्या है, उसके राजनीतिक दाँव-पेंच क्या हैं, विश्वसाम्राज्यवादी व्यवस्था में भारत का स्थान क्या है, इस व्यवस्था में भारत पराधीन कैसे बना, अंग्रेजी राज कायम होने से पहले यहाँ के अर्थतंत्र की क्या दशा थी, भारतीय इतिहास को देखते हुए अंग्रेजी राज की भूमिका क्या थी, साम्राज्यवाद द्वारा विजित और शासित भारत में मुख्य प्रश्न किस वर्ग का था, खेतिहर देश में किसानों की भूमिका क्या थी, भारत में पूँजीवाद की विशेषता क्या थी, इस विशेषता को देखते हुए मजदूर वर्ग कौन सी भूमिका निभा रहा था, इस सारी परिस्थिति में मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के कर्तव्य क्या थे, इस विश्वसाम्राज्यवादी व्यवस्था के विरुद्ध लोग कहाँ-कहाँ लड़ रहे हैं, भारत को अपने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध किन देशों से कायम करने चाहिए, साम्राज्यवादी घेरा कहाँ टूट रहा है और उससे हमें क्या सीखना चाहिए, स्वयं अपने इतिहास से स्वाधीनता-संग्राम के लिए कैसे प्रेरणा लेनी चाहिए, इस सभी और ऐसी ही अन्य समस्याओं की ओर द्विवेदी जी और उनके सहयोगियों ने ध्यान दिया और साम्राज्यविरोधी दृष्टि से उनका विवेचन किया.’’ (महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, पृ.106)
अंग्रेजी राज ने जो दलाल संस्कृति विकसित की थी उसकी और उसके सरदारों की जैसी अचूक पहचान प्रेमचंद को थी वैसी उस युग के किसी अन्य लेखक को नहीं थी. रामविलास शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि ’’हिंदुस्तान की सामंती ताकतें विदेशी प्रभुत्व का आधार थीं, इसलिए प्रेमचंद के लिए आजादी का मतलब था, इस आधार को खत्म करना.’’ (प्रेमचंद और उनका युग, पृ.46)
जमींदार अंग्रेजों के दलाल हैं, इस बात को बहुत ही स्पष्ट शब्दों में प्रेमचंद ने ’प्रेमाश्रम’ में राय कमलानंद से कहलाया है. कमलानंद कहते हैं, ’’यह ज़ायदाद नहीं है, इसे रियासत कहना भूल है, यह निरी दलाली है. इस भूमि पर मेरा क्या अधिकार है. मैंने इसे बाहुबल से नहीं लिया. नवाबों के ज़माने में किसी सूबेदार ने इलाक़े की आमदनी वसूल करने के लिऐ मेरे दादा को नियुक्त किया था. मेरे पिता पर भी नवाबों की बड़ी कृपादृष्टि रही. इसके बाद अंग्रेजों का ज़माना आया और यह अधिकार पिताजी के हाथ से निकल गया. लेकिन राजद्रोह के समय पिताजी ने तन-मन से अंग्रेजों की सहायता की. शक्ति स्थापित होने पर हमें वही पुराना अधिकार फिर मिल गया. यही इस रियासत की हकीकत है.’’ (पृ.46)
यही वह दलाल समुदाय है जिसकी मदद से अंग्रेजों ने 1857 ई. के संग्राम में भारतीय विद्रोहियों को हराया था. विश्वास न हो रहा हो तो एक अंग्रेज इतिहासकार विलियम केई की गवाही पढ़िये, ’’यह ’ग़दर-युद्ध’ की एक अदभुत विशेषता थी कि हालांकि अंग्रेज़ स्थानीय नस्लों के विरुद्ध लड़ रहे थे, पर उन्हें वास्तविकता में इसी देश के स्थानीय लोगों ने समर्थन दिया. ये समर्थक जिन्हें हम अपना राष्ट्रीय शत्रु मानते थे उनकी सहायता के बिना हम एक दिन भी जीवित नहीं रह सकते थे.’’ (जासूसों के खतूत, पृ.33)
रामविलास शर्मा ने हिंदी नवजागरण की चौथी मंजिल के कवि और लेखक निराला के साम्राज्यवाद-विरोधी दृष्टिकोण के बारे में लिखा है, ’’निराला के चिन्तन की विशेषता यह थी कि उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आर्थिक नीति, उसके राजनीतिक दाँव-पेंच, सांस्कृतिक मामलों मे उसके हस्तक्षेप को पहचाना, गहराई से उसका विश्लेषण किया, देश की राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रगति के लिए एक मार्ग निश्चित किया.’’ (निराला की साहित्य साधना-2, पृ.14)
स्वयं निराला ने साम्राज्यवाद का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखा है, ’’साम्राज्यवाद इंग्लैंड की राजनीति का मूल है. पूँजी के द्वारा वणिक् शक्ति की वृद्धि के इतिहास के साथ-साथ साम्राज्यवाद का इतिहास इंग्लैंड के साथ गुँथा हुआ है. पूँजी की ही तरह यह हृदयहीन है. अंग्रेज़ों की शक्ति का समस्त संसार पर प्रभाव है. साथ-साथ अपनी वृत्ति या जातीय साम्राज्यवाद-जीवन के कारण इंग्लैंड संसार भर में बदनाम है. इतिहास के जानकार जानते हैं कि इंग्लैंड की सरकार पूँजीपतियों की सरकार है और साम्राज्यवाद उसकी जीवनी-शक्ति, मूल आधार.’’ (निराला की साहित्य साधना-2, पृ.15)
’निराला की साहित्य साधना-2’ में ही रामविलास जी ने एक बार फिर दलाल संस्कृति को याद करते हुए लिखा है, ’’1857 में भारतीय जनता के संघर्ष को दबाने में अंग्रेजा़ें को कश्मीर, पंजाब, हैदराबाद, बंगाल आदि प्रदेशों के राजाओं और ज़मींदारों से बड़ी सहायता मिली. 1858 के बाद अंग्रेजों ने अपनी नीति में परिवर्तन किया कि देशी रियासतों को ब्रिटिश भारत में मिलाने के बदले वे उनके मालिकों को अपने सहायक के रूप में पालने लगे. साधारणतः इन रियासतों में उद्योग-धन्धों का विकास ब्रिटिश भारत की तुलना में भी कम हुआ, यहाँ निरक्षरता और निर्धनता का प्रसार ब्रिटिश भारत से भी अधिक था, यहाँ निरंकुश अत्याचार, सामाजिक उत्पीड़न, धार्मिक अन्धविश्वास ब्रिटिश भारत से भी अधिक थे. लड़ाई के दिनों में ये राजा अंग्रेजी फौज में रंगरूट भर्ती कराते थे, शान्ति के समय गोलमेज सम्मेलनों में अपने प्रतिनिधि भेजकर स्वाधीनता-आन्दोलन का विरोध करते थे. भारत में अंग्रेजी राज के प्रमुख सहायक थे यहाँ के राज और नवाब. साम्राज्यवाद के इस देशी आधार को ढहाये बिना भारतीय स्वाधीनता की लड़ाई पूरी न हो सकती थी.’’ (वही, पृ.20)
हिंदी नवजागरण के बारे में रामविलास शर्मा के संपूर्ण चिंतन और लेखन से कुछ समस्याएँ पैदा होती हैं, जिन पर विचार के बिना हिंदी नवजागरण की पूरी और बेहतर समझ नहीं बन सकती. पहली समस्या तो यही है कि रामविलास शर्मा ने हिंदी नवजागरण की विशिष्टता पर इतना जोर दिया है कि देश के दूसरे क्षेत्रों के नवजागरण से हिंदी नवजागरण के संबंध का बोध उपेक्षित हो गया है. हिंदी नवजागरण पर विचार करने वाले अधिकांश व्यक्ति यह जानते हैं कि हिंदी नवजागरण के एक अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का बांग्ला नवजागरण से कितना गहरा संबंध था. भारतेन्दु इतनी बांग्ला जानते थे कि वे बांग्ला में कविताएँ लिखते थे, उन्होंने अनेक बांग्ला नाटकों का हिंदी में अनुवाद भी किया था. यही नहीं उनकी अनेक रचनाएँ बांग्ला रचनाओं से प्रभावित हैं. भारतेन्दु के अतिरिक्त बांग्ला नवजागरण से निराला का भी गहरा संबंध था. यह भी ध्यान देने की बात है कि बांग्ला में उपन्यास का उदय और विकास हिंदी से पहले हुआ था, इसलिए आरंभिक दिनों में बांग्ला के उपन्यासों के अनुवाद हिंदी में छपे, जिनका हिंदी उपन्यासों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है. यही नहीं ’जाति’ शब्द हिंदी में बांग्ला से ही आया है, भारतेन्दु के माध्यम से.
हिंदी नवजागरण के दूसरे निर्माता है महावीर प्रसाद द्विवेदी. उनका मराठी नवजागरण से गहरा संबंध है. द्विवेदी जी ने मराठी नवजागरण से संबद्ध दस से अधिक लेखकों, विचारकों, कलाकारों, आंदोलनकारियों, गायकों, पुरुषों और स्त्रियों की जीवनियाँ लिखी हैं. द्विवेदी जी ने महाराष्ट्र की अनेक तेजस्वी और संघर्षशील स्त्रियों की भी जीवनियाँ लिखी हैं, जिनमें ताराबाई, रुख्माबाई, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, कुमारी गोदावरी बाई मुख्य हैं.
नवजागरण काल में एक भारतीय भाषा की रचनाओं के दूसरी भारतीय भाषाओं में जो अनुवाद हुए उनसे विचारों के आदान-प्रदान की एक प्रक्रिया विकसित हुई. उन सब पर ध्यान देने से विभिन्न नवजागरण के आपसी रिश्तों की पहचान हो सकती है. 1904 ई. में बांग्ला में एक क्रांतिकारी किताब लिखी गई थी, जिसका नाम था ’देसेर कथा’. उसका पहला हिंदी अनुवाद 1908 में छपा और नाम था ’देश की बात’. उसका दूसरा हिंदी अनुवाद 1910 में छपा. यह किताब हिंदी क्षेत्र में इतनी लोकप्रिय थी कि हिंदी में इस पर एक कविता भी लिखी गई. हिंदी क्षेत्र में उसके व्यापक प्रभाव का एक प्रमाण यह भी है कि सत्यभक्त ने अपने एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया है कि उन्हें देशभक्ति की प्रेरणा ’देश की बात’ पुस्तक से मिली. क्या इस व्यापक प्रभाव की उपेक्षा करके हिंदी नवजागरण को समझा जा सकता है?
रामविलास शर्मा के नवजागरण संबंधी लेखन से जुड़ी दूसरी समस्या यह है कि हिंदी नवजागरण कितना मूलगामी है और कितना मध्यमार्गी . हिंदी नवजागरण की दो धाराएँ हैं, एक है मूलगामी धारा और दूसरी मध्यमार्गी. मूलगामी धारा के प्रतिनिधि भारतीय समाज में मूलगामी परिवर्तन चाहते थे, केवल अंग्रेजी राज से मुक्ति ही नहीं बल्कि तरह-तरह की पराधीनताओं से भारतीय जनता की मुक्ति और मध्यमार्गी वे थे जो समझौते के रास्ते से सुधार और विकास की कोशिश करते थे. हिंदी नवजागरण की मूलगामी धारा के प्रतिनिधि हैं राधामोहन गोकुल जी, सत्यभक्त, प्रेमचंद और राहुल सांकृत्यायन. ये सभी साम्राज्यवाद की भारत से मुक्ति के साथ ही देशी सामंतवाद से स्त्रियों और दलितों की मुक्ति के भी पक्षधर थे. यही नहीं ये किसानों तथा मजदूरों के संघर्षों के साथ थे. रामविलास शर्मा ने राधामोहन गोकुल जी, सत्यभक्त और प्रेमचंद पर लिखा तो है पर उन्हें वे हिंदी नवजागरण के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार नहीं करते. हिंदी नवजागरण की प्रक्रिया में एक प्रवृत्ति ऐसी भी रही है जो इतिहास के प्रसंग में अतीतवादी, भाषा के प्रसंग में अलगाववादी, संस्कृति के प्रसंग में संस्कृतवादी और मानसिकता के प्रसंग में आध्यात्मवादी-रहस्यवादी. यद्यपि यह कभी भी हिंदी नवजागरण की मुख्य धारा नहीं बन पाई परंतु उसका प्रभाव तो था ही.
तीसरी समस्या यह है कि रामविलास जी ने हिंदी नवजागरण की विचारधारा का तो विस्तृत विवेचन किया है, लेकिन टेक्नालाजी से उसके सम्बन्धों पर ध्यान नहीं दिया. यहाँ टेक्नालाजी से मेरा आशय प्रेस और प्रकाशन की प्रक्रिया से है. इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप हिंदी साहित्य की और आधुनिक भारतीय साहित्य की भी पूरी संस्कृति बदल गई. एक तो पुस्तक बाजार के अस्तित्व में आने और पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशित होने के कारण पाठ और पाठक का संबंध बदला. पुराने सारे विधि-निषेध ध्वस्त हो गए. पुस्तक पढ़ने पर किसी प्रकार का भेदभाव कायम न रह सका. इस तरह साहित्य की दुनिया में लोकतंत्र आया. पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के कारण साहित्य का स्वरूप बदला और अनेक नई विधाओं का जन्म हुआ. यही कारण है कि स्वयं रामविलास शर्मा ने महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ में लिखा है कि
 ’’आधुनिक साहित्य का जन्म उन्नीसवं शताब्दी में हुआ. समाचार पत्र, मासिक पत्रिकाएँ, उपन्यास, नाटक, जीवन-चरित्र और समालोचना, इन सबका विकास इसी समय हुआ.’’ (पृ.321) इस कथन को पढ़ने के बाद मन में एक सवाल आता है कि ऐसा क्यों और कैसे हुआ कि भारत में आधुनिकता तो आई बारहवीं सदी में लेकिन आधुनिक साहित्य पैदा हुआ उन्नीसवीं सदी में.
रामविलास शर्मा के नवजागरण संबंधी लेखन से जुड़ी चैथी समस्या यह है कि हिंदी नवजागरण के किन निर्माताओं का किसानों तथा मजदूरों के आंदोलनों से क्या और कितना संबंध था.  यह जाहिर है कि राधामोहन गोकुल जी, सत्यभक्त और राहुल जी का किसानों तथा मजदूरों के आंदोलनों से संबंध तो था परंतु रामविलास शर्मा के अनुसार हिंदी नवजागरण के निर्माताओं - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी और निराला का किसानों और मजदूरों के आंदोलनों से विशेष संबंध नहीं था.
पाँचवीं समस्या यह है कि रामविलास जी ने हिंदी नवजागरण की चैथी मंजिल के प्रतिनिधि के रूप में निराला को रखा प्रेमचंद को क्यों नहीं. रामविलास जी का जितना लगाव निराला से था लगभग उतना ही प्रेमचंद से भी था. प्रेमचंद पर भी उन्होंने दो आलोचनात्मक पुस्तकें लिखी हैं. अगर रामविलास जी प्रेमचंद को हिंदी नवजागरण की चैथी मंजिल का प्रतिनिधि मानते तो भारतीय समाज, हिंदी समाज, हिंदी जाति और हिंदी संस्कृति से जुड़ी अनेक समस्याओं और अंतर्विरोधों का विवेचन संभव होता. प्रेमचंद का लेखन एक तो हिंदू-मुस्लिम संबंध, दूसरे भारतीय जाति व्यवस्था, तीसरे हिंदी-उर्दू के अंतर्विरोध और चैथे भारतीय स्त्री की पराधीनता और स्वाधीनता के प्रश्नों से जुड़ा हुआ है. इन सभी समस्याओं और सवालों पर प्रेमचंद के लेखन के माध्यम से सोच-विचार करना संभव होता और समाधान खोजना भी. प्रेमचंद हिंदी नवजागरण की चिंताओं के विकास की लगभग चरम परिणति भी है.

14 सितंबर हिंदी दिवस : नामवर सिंह

भारतेंदु हरिश्‍चंद्र के उदय के साथ हिंदी में एक नए युग का आरंभ हुआ, यह मान्‍यता तो बहुत पहले से प्रचलित रही है; किंतु इस नए युग को 'नवजागरण' नाम देने का श्रेय हिंदी में डॉ. रामविलास शर्मा को है। 'महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण' (1977) नामक पुस्‍तक के द्वारा उन्‍होंने 'नवजागरण' की नहीं बल्कि 'हिंदी नवजागरण' की संकल्‍पना प्रस्‍तुत की। इससे पहले भारत में नवजागरण की चर्चा प्राय: 'बंगाल नवजागरण' के रूप में ही होती रही है। शब्‍द के प्रयोग पर प्रकाश डालते हुए डॉ. शर्मा ने कुछ वर्ष बाद 'भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्‍याएँ, (1984) नामक एक अन्‍य पुस्‍तक के तीसरे संस्‍करण की भूमिका में लिखा है कि 'नवजागरण' यह शब्‍दबंध नया था, धारणा पुरानी थी। पुरानी धारणा से तात्पर्य संभवत: 'रिनेसांस' से है।
हिंदी साहित्‍य के पुराने इतिहास ग्रंथों को देखने से पता चलता है कि पादरी एफ.ई. के ने 1920 ई. में ही इस 'रिनेसांस' की चर्चा की थी। अपनी छोटी-सी पुस्‍तक 'ए हिस्‍ट्री ऑफ हिंदी लिट्रेचर' के पहले अध्‍याय में ही के ने लिखा है : 'उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के आरंभ में यूरोप की संस्कृति के संपर्क के द्वारा हिंदी साहित्‍य में एक नया प्रभाव आया।... इसी समय के आसपास भारत में एक सशक्‍त साहित्यिक नवजागरण शुरू हुआ जो अब तक प्रगतिपर है।'
कहते हैं कि उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के भारतीय नवजागरणके अग्रदूत राजा राममोहन राय स्‍वयं भी उस समय की नई सांस्‍कृतिक चेतना को एक 'रिनेसांस' समझते थे। पादरी अलेक्‍जेंडर डफ से एक बार उन्‍होंने कहा था : 'मुझे ऐसा लगने लगा कि यहाँ भारत में यूरोपीय रिनेसांस से मिलता-जुलता कुछ घटित हो रहा है।'
लेकिन उसी नवजागरण की एक अन्‍य महान विभूति बंकिमचंद्रचट्​टोपाध्‍याय की दृष्टि में 'रिनेसांस' पंद्रहवीं शताब्‍दी के भारत का सांस्कृतिक जागरण था। अपने निबंध 'बाड्लार इतिहास संबंधे कयेकटि कथन' (1980) में उन्‍होंने लिखा है : 'यूरोप कितना पहले सभ्‍य हुआ? सिर्फ चार सौ साल पहले पंद्रहवीं सदी तक यूरोप हमसे अधिक असभ्‍य था। सभ्‍यता यूरोप में एक घटना से आई। अकस्‍मात् यूरोप ने चिर-विस्‍मृत ग्रीक संस्‍कृति का पुनराविष्‍कार किया।... पेट्रार्क, लूथर, गैलिलियो, बेकन; अकस्‍मात् यूरोप का भाग्‍योदय हो गया। हमारे यहाँ भी एक बार वही दिन आया था। अकस्‍मात् नवद्वीप में चैतन्‍य चंद्रोदय, उसके बाद रूप सनातन प्रभूति असंख्‍य कवि धर्मतत्त्वविद् पंडित। दर्शन में रघुनाथ शिरोमणि, गदाधर, जगदीश: स्‍मृति में रघुनंदन एवं उनके अनुयायी। फिर बंगला काव्‍य का जलोच्‍छ्​वास। विद्यापति, चंडीदास, चैतन्‍य के पूर्वगामी। किंतु उसके बाद जो चैतन्‍य परवर्तिनी बंगला कृष्‍णविषयक कविता लिखी गई वह अपरिमेय तेजस्विनी और जगत में अतुलनीय है। यह सब कहाँ से आया? हमारा यह 'रिनेसांस' कैसे घटित हुआ? सहसा जाति की यह मानसिक उद्​दीप्ति कहाँ से हुई?'
प्रसंग बंगाल के इतिहास का था, इसलिए बंकिम के सारे उदाहरण भी स्‍वभावत: बंगाल तक ही सीमित हैं। फिर भी इस कथन का विस्‍तार पूरे भारत के व्‍यापक संदर्भ में किया जा सकता है, जिससे स्‍पष्‍ट निष्‍कर्ष निकलता है कि यूरोप के 'रिनेसांस' के समान भारत में भी पंद्रहवीं शताब्‍दी में नवजागरण की लहर उठी थी। सामान्‍यत: इसे अपने यहाँ भक्ति आंदोलन कहा जाता है। सवाल यह है कि 'रिनेसांस' किसे कहा जाए-पंद्रहवीं शताब्‍दी के भक्ति आंदोलन को या उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के सांस्‍कृतिक नवजागरण को?
यदि केवल शब्‍द के स्‍तर पर ही देखें तो स्‍वयं यूरोप में भी समस्‍या इतनी स्‍पष्‍ट न थी। 'प्रकृति का द्वंद्ववाद' नामक पुस्‍तक में 'महान रिनेसांस' का वर्णन करते हुए एंगेल्‍स ने लिखा है : 'प्रकृति की आधुनिक खोज... हाल के समूचे इतिहास की भाँति उस महान युग से आरंभ होती है, जिसे हम जर्मन अपने ऊपर आई राष्‍ट्रीय विपदा के नाम पर 'रिफार्मेशन' का काल कहते हैं और फ्रांसीसी लोग 'रिनेसांस' कहते हैं तथा इतावली लोग 'चिंक्‍वेचेंती' कहते हैं, य‍द्यपि इनमें से कोई भी नाम उसके सार को पूर्णत: अभिव्‍यक्‍त नहीं करता। यह वह युग था जिसका उदय पंद्रहवीं शताब्‍दी के उत्तरार्ध में हुआ था।
कहने की आवश्‍यकता नहीं कि भारतीय भाषाओं में भी उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के नवजागरण के लिए पुनरुत्‍थान, नवजागरण, प्रबोधन, समाज सुधार आदि अनेक शब्‍द प्रचलित हैं। निस्संदेह इनमें से प्रत्‍येक शब्‍द के साथ एक निश्चित अर्थ, एक निश्चित प्रत्‍यय जुड़ा है। किंतु मुख्‍य प्रश्‍न तो यह है कि यदि भारत का उन्‍नीसवीं शताब्‍दी का सांस्‍कृतिक नवजागरण 'रिनेसांस' था तो पंद्रहवीं शताब्‍दी का सांस्‍कृतिक नवजागरण क्‍या था?
उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के भारतीय नवजागरण को 'रिनेसांस' कहने में एक कठिनाई तो यही है कि इस युग के भारतीय विचारकों और साहित्‍यकारों के प्रेरणा-स्‍त्रोत यूरोप के पंद्रहवीं शताब्‍दी के चिंतक और साहित्‍यकार न थे। बल्कि इसके विपरीत प्रेरणा-स्‍त्रोत के रूप में अधिकांश विचारक उस काल के थे जिसे यूरोप में 'एनलाइटेनमेंट' का काल तथा उसके बाद का काल कहा जाता है। स्‍वयं बंकिम की सहानुभूति रूसो और प्रूधों के साथ थी और वे कोन्‍त, जान स्‍टुअर्ट मिल तथा हर्बर्ट स्‍पेंसर से प्रभावित दिखाई पड़ते हैं। कमोबेश यही ‍स्थिति बंगाल में राममोहन राय, ईश्‍वरचंद्र विद्यासागर, देरोजियो आदि की दिखती है और हिंदी में महावीरप्रसाद द्विवेदी तथा रामचंद्र शुक्‍ल की भी। उल्‍लेखनीय है कि महावीरप्रसाद द्विवेदी की 'सरस्‍वती' ज्ञान की पत्रिका कही गई है और उनका गद्य हिंदी साहित्‍य का ज्ञानकांड। इस प्रकार भारत का उन्‍नीसवीं शताब्‍दी का नवजागरण यूरोप के 'एनलाइटेनमेंट' अथवा 'ज्ञानोदय' की चेतना के अधिक निकट प्रतीत होता है और पंद्रहवीं शताब्‍दी का नवजागरण 'रिनेसांस' के तुल्‍य। अब यदि यह अंतर प्रत्‍यय के स्‍तर पर स्‍पष्‍ट हो तो दोनों के लिए अलग-अलग नाम निश्चित करने में विशेष कठिनाई नहीं रहती। संभवत: इस अंतर को ध्‍यान में रखकर ही डॉ.रामविलास शर्मा ने पंद्रहवीं शताब्‍दी के भक्ति आंदोलन के लिए 'लोकजागरण' और उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के सांस्‍कृतिक जागरण के लिए 'नवजागरण' शब्‍द का प्रयोग किया है। इन शब्‍दों के बदले और नए शब्‍द गढ़ने की अपेक्षा इन्‍हीं शब्‍दों को प्रचलित करना बेहतर है और सुविधाजनक भी। 'लोक जागरण' और 'नवजागरण' से पंद्रहवीं शताब्‍दी और उन्‍नीसवीं शताब्‍दी की सांस्‍कृतिक प्रतिक्रियाओं के बीच परंपरा का संबंध भी बना रहता है और अंतर भी स्‍पष्‍ट हो जाता है। इसके अतिरिक्‍त यूरोपीय इतिहास के अनावश्‍यक अनुषंग से मुक्ति भी मिल जाती है। क्‍या अपने इतिहास की व्‍याख्‍या के लिए हम हमेशा अंग्रेजी प्रत्‍ययों का अनुवाद ही करते रहेंगे?
उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के नवजागरण पर ठीक से विचार करने के लिए पंद्रहवीं शताब्‍दी के लोकजागरण के बारे में भी स्‍पष्‍टता आवश्‍यक है। नवजागरण, लोकजागरण का पुनरुत्‍थान मात्र नहीं है, किंतु एक में दूसरे की चेतना अंशत: विद्यमान है। बंकिमचंद्र ने ब्राह्मों विचारकों को वेदों और उपनिषदों तक दौड़ लगाते देखकर साफ शब्‍दों में कहा था कि 'समतावादी और आधुनिक मूल्‍यों के लिए वेदों और उपनिषदों की दूरी तक दौड़ लगाना क्‍यों जरूरी है जबकि बंगाल ने चैतन्य जैसे समाज-सुधारक को जन्‍म दिया जिन्‍होंने अभी सोलहवीं शताब्‍दी में ही जातिगत असमानता और धार्मिक असहिष्‍णुता की भर्त्‍सना की है।' हिंदी से उदाहरण लें तो भारतेंदु की वैष्‍णव-निष्‍ठा सर्वविदित ही है। सन् 1884 ई. में जीवन के अंतिम दिनों में उन्‍होंने 'वैष्‍णवता और भारतवर्ष' शीर्षक एक लंबा लेख लिखकर सप्रमाण सिद्ध करने का प्रयत्‍न किया था कि ' वैष्‍णव मत ही भारतवर्ष का मत है और वह भारतवर्ष की हड्​डी, लहू में मिल गया है।' ऐसे उदाहरण उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अंतर्गत अन्‍य भाषाओं के साहित्‍यकारों में भी मिल जाएँगे।
उन्‍नीसवीं शताब्‍दी का नवजागरण भक्तिकालीन लोकजागरण से भिन्‍न इस बात में है कि यह उपनिवेशवादी दौर की उपज है, इसलिए इसकी ऐतिहासिक अंतर्वस्‍तु भी भिन्‍न है। यह उस लोकजागरण से इसलिए भी भिन्‍न है कि इसके पुरस्‍कर्ता और विचारक नए शिक्षित मध्‍यवर्ग के हैं, जिन्‍हें बंगाल में 'भद्रलोक' की संज्ञा दी गई है। यह नया भद्रलोक भक्‍त कवियों की तरह न तो सामान्‍यलोक के बीच से आया था और न लोकजीवन के साथ घुल-मिल पाने में ही सफल हो सका। इनमें से कुछ विचारों में लोकोन्‍मुख अवश्‍य थे, लेकिन आचार में लोक के साथ तादात्‍म्‍य स्‍थापित न कर पाए। इसलिए भक्तिकालीन लोकजागरण की तुलना में इस नवजागरण का प्रसार भी सीमित था। इसका प्रभाव बहुत कुछ नए नगरों तक ही सीमित था।
उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के भारतीय नवजागरण की चर्चा के क्रम में यूरोपीय 'रिनेसांस' का जिक्र इतना आया है कि उसे एकदम स्‍मृति-पटल से मिटा देना मुश्किल है, और उसे शाश्‍वत-सार्वभौम मान लेने का एक प्रलोभन भी है किंतु हमारे नवजागरण की एक देन वह 'आलोचनात्‍मक' दृष्टि भी है जो यूरोप के 'प्राच्‍यविद्यावाद' (ओरिएंटलिज्‍म) के इस उपनिवेशवादी मायापाश को छिन्‍न करने की चेतावनी देती है।
भारतीय नवजागरण की मूल समस्‍या है भारतेंदु के शब्‍दों में 'स्‍वत्‍व निज भारत गहै।' यह 'स्‍वत्‍व' वही है जिसे आजकल 'अस्मिता' कहते हैं। राजनीतिक स्वाधीनता इस 'स्‍वत्व' की पहली शर्त है। नवजागरण के उन्‍नायक इस आवश्‍यकता का अनुभव करते रहे होंगे, यह सोचना कठिन है, फिर भी तथ्‍य यही है कि नवजागरणकालीन प्रकाशित साहित्‍य में राज‍नीतिक स्‍वाधीनता का स्‍पष्‍ट स्‍वर कम ही सुनाई पड़ता है। पहले ईस्‍ट इंडिया कंपनी और फिर महारानी विक्‍टोरिया के शासन-काल में राज के विरुद्ध निश्‍चय ही किसानों के छिटपुट विद्रोह बराबर होते रहे, जिनमें सबसे संगठित और सशक्‍त सन् सत्तावन की राजक्रांति है, फिर भी समकालीन शिष्‍ट साहित्‍य में उसकी गूँज सुनाई नहीं पड़ती-लोक साहित्‍य भले ही प्रचुर मात्रा में मौखिक रूप में रचा गया हो। यह स्थिति सन् सत्तावन के पहले तो थी ही, उसके बाद भी कम-से-कम तीन दशकों तक बनी रही। आर्थिक शोषण के खिलाफ जरूर लिखा गया, पुलिस तथा अन्‍य अफसरों के अत्‍याचार और अन्‍याय की भी शिकायत की गई, पर राजसत्ता पलटने के विचार को जैसे अंतर्गुहावास दे दिया गया। निश्‍चय ही इसका एक कारण-और बहुत बड़ा कारण था राजा का दमन से पैदा होनेवाला आतंक। भारतेंदु के शब्‍दों में 'जेहि भय भय सिर न हिलाय सकत कहुँ भारतवासी।' फिर भी देशभक्ति के साथ राजभक्त्‍िा नवजागरण का अभिन्‍न स्‍वर है - इतना अभिन्‍न कि इससे किसी प्रदेश और किसी भाषा का कोई भी लेखक अछूता नहीं है। यह कटु सत्‍य है और इसके लिए किसी प्रकार की क्षमायाचना आज आवश्‍यक नहीं है और न कोई सफाई ही जरूरी है। सच तो यह है कि अधिकांश लेखक सुरक्षा, सुशासन, शिक्षा, उन्‍नति और शांति के लिए ब्रिटिश राज के प्रति उपकृत अनुभव करते हैं - विशेष रूप से मुगलों के शासन की तुलना में। इस प्रवृत्ति के अवशेष बीसवीं शताब्‍दी के दूसरे दशक तक मैथिलीशरण गुप्‍त की 'भारत भारती' जैसी राष्‍ट्रीय कही जानेवाली काव्‍य-कृति में भी मिलती है। यहाँ तक कि कभी-कभी तो नवजागरण के अनेक उन्‍नायक राजसत्ता के साथ सहयोग करते भी दिखाई पड़ते है। अब इसे कोई चाहे तो नवजागरण के उन्‍नायकों का मध्‍यवर्गीय अथवा भद्रलोक चरित्रकह ले, अथवा किसी संगठित राजनीतिक प्रतिरोध के अभाव के द्वारा इस निरुपायता की व्‍याख्‍या कर ले, किंतु हर हालत में यह तथ्‍य विस्‍मृत न हो कि कु ल मिलाकर था यह मूलत: नवजागरण ही - सांसकृतिक नवजागरण, जिसे राष्‍ट्रीय स्‍वाधीनता संघर्ष का पूर्व रंग भले कह लें किंतु उसका पर्याय न समझें।
जैसा कि सच्चिदानंद वात्‍स्‍यायन ने मैथिलीशरण गुप्‍त के प्रसंग में एक जगह कहा है, 'हम यह तो कह सकते हैं कि अंग्रेजी सरकार का विरोध किए बिना भारतीयता की प्र‍तिष्‍ठा चाहनेवाले हेतु और हेतुमत् का सही रिश्‍ता नहीं पहचान पाए थे। ... पर आर्थिक-राजनीतिक आधार को स्‍वीकार कर लेने पर भी यह बात नहीं कटती कि बिना एक जीवंत और प्रेरणाप्रद आत्‍म-बिंब के वह लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती थी जो लड़ी गई; न वैसे लड़ी जा सकती थी जैसे लड़ी गई।'
यह बात कम मूल्‍यवान नहीं है कि राजनीति‍क मुक्ति का मार्ग अवरुद्ध पाकर नवजागरण के उन्‍नायक हाथ-पर-हाथ धरकर बैठ नहीं गए, बल्कि उन्‍होंने स्‍वत्व-रक्षा के अन्‍य मोर्चों पर संघर्ष जारी रखा। यह संघर्ष था सांस्‍कृतिक मोर्चे का-सांस्‍कृतिक मोर्च पर औपनिवेशक मानसिकता और दिमागी गुलामी के खिलाफ संघर्ष। कहना न होगा कि यह संघर्ष राजनीतिक संघर्ष से कम कठिन न था। उपनिवेशवाद की छाया में भारतीय संस्‍कृति के लोप का खतरा था। इ‍सलिए अपनी संस्‍कृति की रक्षा का प्रश्‍न स्‍वत्व-रक्षा का प्रश्‍न बन गया था। 1840 में अक्षयकुमार दत्त ने एक ब्राह्मों सभा में भाषण देते हुए कहा था : 'हम एक विदेशी शासन के अधीन हैं, एक विदेशी भाषा में शिक्षा प्राप्‍त करते हैं, और विदेशी दमन झेल रहे हैं, जबकि ईसाई धर्म इतना प्रभावशाली हो चला है गोया वह इस देश का राष्‍ट्रीय धर्म हो। …मेरा हृदय यह सोचकर फटने लगता है कि हिंदू शब्‍द भुला दिया जाएगा और हम लोग एक विदेशी नाम से पुकारे जाएँगे।'
इस उद्धरण से स्‍पष्‍ट हो जाता है कि भारतीय नवजागरण धार्मिक रूप लेने के लिए क्‍यों विवश हुआ। नवजागरण काल का शायद ही कोई लेखक या विचारक हो जिसने धार्मिक प्रश्‍नों पर न लिखा हो। जब स्‍वयं उपनिवेशवादी राजसत्ता का दमन ही धार्मिक रूप ले रहा था तो प्रतिरोध का धार्मिक रूप में प्रकट होना अनिवार्य था। माक्‍स म्यूलर ने इस धार्मिक दमन के आँकड़े देकर बताया था कि 1885 तक भारत में 38 ईसाई मिशन-समाज काम कर रहे थे, जिनके विदेशी सदस्‍यों की संख्‍या 887 थी और देशी प्रचारक 751 तथा गैर-ईसाई सहायक 2856 थे। ये ईसाई मिशन अन्‍य साधनों के अतिरिक्‍त स्‍कूलों और अस्‍पतालों के जरिए भी धर्मपरिवर्तन करवा रहे थे। ऐसे वातावरण में स्‍वत्त्व का प्रश्‍न धर्म का प्रश्‍न बन गया था।
भारतीय अस्मिता समाप्‍त करने के लिए अंग्रेजी सरकार की ओर से भारत के इतिहास को भी तोड़-मरोड़कर पेश करने की कोशिश की गई। उपनिवेशवाद ने एक ओर तो भारत के प्राचीन इतिहास की सामग्री को खोज-खोदकर एकत्र किया और दूसरी ओर उसका उपयोग अपनिवेशवादी सत्ता के हक में किया। यह था उपकार के आवरण में अपकार का षड्​यंत्र। भारतीय अस्मिता को एक बड़ा खतरा इस 'प्राच्‍य-विद्या' (ओरिएंटलिज्‍म) से था जिसने पश्चिम से भिन्‍न एक ऐसे 'पूर्व' का मिथक गढ़ा जो अनंत काल तक गुलाम रहने के लिए अभिशप्‍त था। इस 'प्राच्‍य - विद्यावाद' के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए भारतीय नवजागरण ने इतिहास की प्रतिदृष्टि विकसित की। बंकिमचंद्र ने एक जगह लिखा है कि : 'कोई राष्‍ट्र अपने इतिहास में अस्तित्‍व ग्रहण करता है; इसलिए अपने इतिहास का ज्ञान ही किसी जाति का आत्‍मज्ञान है।' आकस्मिक नहीं है कि नवजागरण के अधिकांश लेखक किसी-न-किसी स्‍तर पर इतिहासकार भी थे। नवजागरण की एक बहुत बड़ी देन संभवत: वह इतिहास दृष्टि है जिससे अपने अतीत को शत्रु से मुक्‍त करके उसके विरुद्ध वर्तमान में इस्‍तेमाल करने की कला आती है और भविष्‍य के लिए एक स्‍वप्‍नदृष्टि भी मिलती है।
स्‍वत्व-संघर्ष में उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के नवजागरण का सबसे निर्णायक कदम भाषा के क्षेत्र में उठा।यह आकस्मिक नहीं है कि जिस भारतेंदु ने 'स्‍वत्व निज भारत गहै' की आवाज बुलंद की उन्‍हीं ने 'निज भाषा उन्‍नति अहै सब उन्‍नति कौ मूल' की भी घोषणा की। भारतीय भाषाओं को नवजागरण की सबसे मूल्‍यवान देन गद्य है और निराला के शब्‍दों में 'गद्य जीवन-संग्राम की भाषा है।' विदेशी भाषा के विरुद्ध अपनी भाषा की रक्षा और विकास विदेशी सत्ता के विरुद्ध स्‍वदेशी का जातीय अस्‍त्र है। वस्‍तुत: भाषा-विकास का स्‍तर वह कसौटी है जिस पर भारत के किसी प्रदेश के नवजागरण की गहराई और व्‍यापकता जाँची जा सकती है। उदाहरण के लिए, हिंदी की तुलना में बंगला और मराठी गद्य का विकास चार-पाँच दशक पहले हो गया तो इसलिए कि वहाँ नवजागरण भी पहले हुआ। बंगला को उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के मध्‍य में ही ईश्‍वरचंद्र विद्यासागर मिल गए और उत्तरार्ध में पहले बंकिमचंद्र, फिर रवींद्रनाथ। मराठी एक तो मराठा राज के जमाने से ही राजकाज की भाषा थी, दूसरे 1840 तक मराठी माध्‍यम से शिक्षा देनेवाले सत्तावन स्‍कूल खुल गए थे। इसके अतिरिक्‍त मराठी का मानक रूप स्थिर करने में बंबई सरकार ने महत्‍वपूर्ण भूमिका अदा की। इस प्रक्रिया में कोश-निर्माण का स्‍थान विशेष रूप से महत्त्‍वपूर्ण है। मराठी-मराठी 'पंडित कोश' 1829 में, मोल्‍सवर्थ का मराठी-अंग्रेजी कोश 1831 में सरकारी सहायता से छप चुका था। आगे चलकर मराठी को विष्‍णु शास्‍त्री चिपलूणकर, महात्‍मा ज्‍योतिबा फुले, आगरकर, रानाडे और लोकमान्‍य तिलक - जैसे प्रश्‍स्‍त गद्यकार मिले। यदि बंकिम का गद्य बंगला नवजागरण के वर्चस्‍व का दर्पण है तो चिपलूणकर का गद्य मराठी नवजागरण की प्रखरता का प्रमाण।
यदि हिंदी गद्य बंगला और मराठी का पिछलगुआ रहा तो इसकी जड़ें जितनी प्रतिकूल राजनीतिक परिस्थिति में है उतनी ही हिंदी प्रदेश के विलंबित नवजागरण में। स्‍वयं भारतेंदु के अनुसार 1873 में हिंदी 'नए चाल में ढली'। एक तो पाँच शताब्दियों तक राजभाषा के रूप में फारसी का दबाव, फिर अंग्रेज सरकार द्वारा उर्दू को बढ़ावा,हिंदी को अस्मिता के लिए सबसे लंबा संघर्ष करना पड़ा। बिहार में हिंदी 1881 ई. में कचहरियों की भाषा स्‍वीकृत हुई और यू.पी. में 1900 ई. में। उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अंतिम पाँच दशक भाषा तो भाषा, नागरी लिपि के स्‍वत्व की रक्षा के संघर्ष में खप गए। इन बाधाओं के बावजूद उन्‍नीसवीं शताब्‍दी में जैसा जानदार हिंदी गद्य लिखा गया, वह आज भी स्‍पर्धा का विषय है।
भाषा के क्षेत्र में भारतीय नवजागरण के स्‍वत्व के लिए जो संघर्ष किया उसका सबसे शानदार पहलू है प्रत्‍येक जातीय भाषा के विकास के साथ आपसी आदान-प्रदान के लिए एक अखिल भारतीय भाषा का विकास। बंगला नवजागरण के उन्‍नायकों ने, चाहे वे ब्राह्म हो या गैर-ब्राह्म सनातनी, बंगला के साथ ही हिंदी को भी बढ़ावा दिया; यहाँ तक कि संस्‍कृ‍त के पंडित और गुजराती दयानंद सरस्‍वती को संस्‍कृत छोड़ हिंदी में बोलने और लिखने की नेक सलाह कलकत्ते में केशवचंद्र सेन से ही मिली।
हिंदी प्रदेश के नवजागरण की अपनी विशिष्‍टता का निरूपण नवजागरण के इस अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्‍य में ही समीचीन है। यदि हिंदी नवजागरण के अग्रदूत भारतेंदु बंगाल नवजागरण से प्रेरणा प्राप्‍त कर रहे थे तो उसके समर्थ सार्थवाह महावीरप्रसाद द्विवेदी की निष्‍पलक दृष्टि मराठी नवजागरण के अंतर्गत चलनेवाले 'संशोधन' पर थी। प्रसंगवश यह भी उल्‍लेखनीय है कि हिंदी प्रदेश में नवजागरण का कार्य मुख्‍यत: स्‍वयं लेखकों और साहित्‍यकारों को ही संपन्‍न करना पड़ा क्‍योंकि यहाँ बंगाल और महाराष्‍ट्र की तरह प्रखर समाज-सुधारक और विचारक अगुआई करने के लिए नहीं मिले। हिंदी प्रदेश को मिले भी तो दयानंद सरस्‍वती जिनकी भूमिका का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उन्‍नीसवीं शताब्दी के बड़े हिंदी लेखकों में से एक भी उनसे प्रभावित न हो सका। स्‍वयं भारतेंदु दयानन्‍द की अपेक्षा बंगाल के केशवचंद्र सेन को श्रेयस्‍कर समझते थे। 1885 ई. में लिखित 'स्‍वर्ग में विचार सभा का अधिवेशन' शीर्षक लेख में भारतेंदु दयानंद के बारे में यह निर्णय देते हैं कि उन्‍होंने 'जाल, को छुरी से न काटकर जाल ही से काटना चाहा,' जबकि केशव ने इनके विरुद्ध जाल काटकर परिष्‍कृत पथ प्रकट किया।' केशवचंद्र सेन के महत्तर होने का कारण यह है कि भारतेंदु के मन के अनुकूल केशव ने 'अपनी भक्ति की उच्‍छलित लहरों में लोगों का चित्त आर्द्र कर दिया।'
बंगाल नवजागरण से हिंदी नवजागरण को अलगाते समय यह न भूलना चाहिए कि भारतेंदु का सीधा संपर्क ईश्‍वरचंद्र विद्यासागर, केशवचंद्र सेन, बंकिमचंद्र, राजेंद्रलाल मित्र और सुरेंद्रनाथ बैनर्जी से था। भारतेंदु ने बँगला नवजागरण की मनपसंद रचनाओं से छाया ग्रहण तो की ही, अपने नाटकों में जहाँ उन्‍हें क्रांतिकारी विचारो को व्‍यक्‍त करना होता था, प्राय: बंगाली चरित्रों की अवतारणा करते थे और उन्‍हीं को प्रवक्‍ता भी बनाते थे।
इन तथ्‍य को देखते हुए हिंदी नवजागरण की विशिष्‍टता बतलाने के लिए सन् सत्तावन की राजक्रांति को उसका बीज मानना कठिन है। भारतेंदु तथा उनके मंडल के लेखक सन् सत्तावन की राजक्रांति की अपेक्षा बंगाल के उस नवजागरण से प्रेरणा प्राप्‍त कर रहे थे जो उससे पहले ही शुरू हो चुका था। कारण यह कि भारतेंदु और उनके मंडल के लेखकों की दृष्टि में अंग्रेजी राज की चुनौती राज‍नीतिक से अधिक सांस्‍कृतिक थी और इस सांस्‍कृतिक संघर्ष में बंगाल नवजागरण से अस्‍त्र-शस्‍त्र मिलने की संभावना अधिक थी।
सन् सत्‍तावन की राजक्रांति को हिंदी नवजागरण का गोमुख मानने में एक कठिनाई यह भी है कि राजक्रांति के नितांत असांप्रदायिक पक्ष का संदेश हिंदी नवजागरण तक पूरा-पूरा नहीं पहुँच सका। हिंदी प्रदेश के नवजागरण के संमुख यह बहुत गंभीर प्रश्‍न है कि यहाँ का नवजागरण हिंदू और मुस्लिम दो धाराओं में क्‍यों विभक्‍त हो गया। जिस प्रदेश में हिंदू-मुस्लि‍म दोनों धर्मों के लोग एक साथ मिलकर सन् सत्तावन में अंग्रेजी राज के खिलाफ लड़े वहाँ दस वर्ष बाद ही जो नवजागरण शुरू हुआ वह हिंदू और मुस्लिम दो अलग-अलग खानों में कैसे बँट गया? यह प्रश्‍न इसलिए भी गंभीर है कि बंगाल और महाराष्‍ट्र का नवजागरण इस प्रकार विभक्‍त नहीं हुआ। हैरानी की बात यह है कि हिंदी प्रदेश का नवजागरण धर्म, इतिहास, भाषा सभी स्‍तरों पर दो टुकड़े हो गया। स्‍वत्व रक्षा के प्रयास धर्म तथा संप्रदाय की जमीन से किए गए।
यदि हिंदी नवजागरण को सन् सत्तावन की राजक्रांति का उत्तराधिकारी कहने का अर्थ यह है कि वह अंग्रेजी राज का विरोध करने में सबसे आगे थे तो इसके लिए भी पर्याप्‍त प्रमाण नहीं मिलते। इस दृष्टि से वस्‍तुत: बंगला और महाराष्‍ट्र की तरह हिंदी प्रदेश के भी उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के लेखकों में दो वर्ग दिखाई पड़ते हैं। एक वर्ग उन लेखकों का है जो अंग्रेजी राज का घोर विरोधी है तो दूसरा वर्ग इस मामले में कुछ नरम दिखाई पड़ता है। विचित्र बात यह है कि अंग्रेजी राज का घोर विरोध करनेवाला वर्ग धर्म-संस्‍कृति आदि नैतिक-सामाजिक मान्‍यताओं में या तो मूलगामी है या फिर सुधारवादी। प्रथम भारतीय होने का दावा करता है तो दूसरा पश्चिमोन्‍मुख है। यह ढाँचा लगभग समूचे भारतीय नवजागरण का है। यदि हिंदी नवजागरण में पश्चिमोन्‍मुख लोग कम दिखते हैं और इस कारण अंग्रेजपरस्‍तों की संख्‍या कम है तो उसका एक कारण वह अंग्रेजी शिक्षा हो सकती है जो इस प्रदेश में देर से पहुँची और उसका प्रसार भी बहुत सीमित रहा। किंतु एक बात तय है कि हिंदी नवजागरण के अंग्रेज-विरोध का स्‍त्रोत सन् सत्‍तावन की राजक्रांति में स्‍पष्‍ट नहीं है।
इसी प्रकार हिंदी नवजागरण में प्रखर बुद्धिवाद की प्रधानता भी संदिग्‍ध ही दिखाई पड़ती है। इस नवजागरण के अग्रदूत स्‍वयं भारतेंदु में वैष्‍णव भावुकता कहीं अधिक है। निश्‍चय ही उनमें बौद्धिकता भी है जो व्‍यंग्‍य-रचनाओं में पूरी प्रखरता के साथ व्‍यक्‍त होती है किंतु पद्य के साथ ही उनके अधिकांश गद्य में कृष्‍ण-भक्ति की भावुकता अधिक मुखर है और कहना न होगा कि यह स्‍त्रोत बंगाल से अधिक स्‍वयं हिंदी के अपने कृष्‍ण-भक्ति काव्‍य में है। भारतेंदु की यह भावुकता यदि उनकी दुर्बलता है तो उससे अधिक उनके मानवतावाद का उत्‍स है और साथ ही उस मस्‍ती और स्‍वाभिमान का भी सुदृढ़ आधार है जो उन्हें अंग्रेजों के कोप की उपेक्षा करने का साहस प्रदान करता है। भारतेंदु की इस वैष्णव भावुकता ने उन्‍हें दयानंद के आर्यसमाजी खंडन-मंडनवाले बुद्धिवाद से दूर रखा था। भावुकता की यह प्रधानता भारतेंदु-मंडल के प्रतापनारायण मिश्र, प्रेमघन, जगमोहन सिंह आदि अन्‍य सदस्‍यों में भी दिखाई पड़ती है।
निश्‍चय ही एक विशेष प्रकार की बौद्धिकता महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनके मंडल के मैथिलीशरण गुप्‍त सदृश कवियों में अधिक है, जिसका दुखद परिणाम 'इतिवृत्तात्‍मकता' है। लेकिन द्विवेदी मंडल समूचा हिंदी नवजागरण नहीं है और न उसकी मुख्‍य धारा है। श्रीधर पाठक से रामनरेश त्रिपाठी तक जो तथाकथित स्‍वच्‍छंदवादी कवियों की धारा है तथा सरदार पूर्णसिंह, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बालमुकुंद गुप्‍त-जैसे विदग्‍ध गद्यलेखकों की जो लंबी परंपरा है वह कोरी बौद्धिकता की कोटि में नहीं आती।
इसी प्रकार जिस रहस्‍यवाद को हिंदी नवजागरण पर बंगाल के प्रभाव के रूप में निरूपित किया जाता है वह भी एक तरह से समूचे भारतीय नवजागारण का अभिन्‍न अंग है। यह रहस्‍यवाद उस नववेदांत की देन है जिसका एक रूप रवींद्रनाथ में विकसित हुआ तो दूसरा रामकृष्‍ण परमहंस और विवेकानंद में। हिंदी के प्रमुख छायावादी कवियों में कितनों ने रवींद्रनाथ से रहस्‍यवाद ग्रहण किया, इस विषय में संदेह भले ही हो पर इसमें संदेह की गुंजाइश कम ही है कि निराला के रहस्‍यवाद का आधार विवेकानंद का नववेदांत था और प्रसाद के रहस्‍यवाद का आधार शैवागम। यह सच है कि यह नववेदांत हिंदी में उसी तरह बंगाल से आया जैसे हिंदी नवजागरण में और भी बहुत-सी बातें बंगाल से आईं। किंतु इस नववेदांत के सहारे निराला और प्रसाद ने जिस प्रकार सामंत-विरोधी और साम्राज्‍य-विरोधी संघर्ष का साहित्‍य रचा वह रहस्‍यवाद-विरोधी बौद्धिकता द्वारा रचे हुए साहित्‍य से घटकर है, ऐसा कहने का साहस कम ही लोग करेंगे।
वास्‍तविकता यह है कि भावबोध और विचारबोध की दृष्टि से समूचा भारतीय नवजागरण एक संश्लि‍ष्‍ट प्रक्रिया है जिसमें बौद्धिकता के साथ भावुकता है, ऐहिकता के साथ आमुष्मिकता भी है और यथार्थवाद के साथ ही रहस्‍यवाद के भी तत्त्व घुले-मिले हैं। यूरोप के 'एनलाइटेनमेंट' अथवा 'ज्ञानोदय' दौर के विचारकों से प्रेरणा लेने के बावजूद भारत का उन्‍नीसवीं शताब्‍दी का नवजागरण नितांत बुद्धिवादी न हो सका, क्‍योंकि स्‍वयं यूरोपीय 'ज्ञानोदय' भी इतना इकहरा न था। अंतर्विरोध इस नवजागरण की प्रक्रिया में भी थे और कहने की आवश्‍यकता नहीं कि यह अनिवार्यत: नवजागरण की दुर्बलता नहीं बल्कि एक तरह से उसकी समृद्धि का सूचक है।
आज उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के भारतीय नवजागरण के इस संश्‍लि‍ष्‍ट रूप पर बल देने की आवश्‍यकता विशेष रूप से इसलिए आ पड़ी है कि इकहरे साँचे में ढालकर तरह-तरह से हस्‍तगत करने की कोशिश की जा रही है। नव-उपनिवेशवादी प्राच्‍यविद्याविद् इसे एकदम 'अंग्रेजी राज का सबसे मूल्‍यवान उपहार' बता रहे हैं तो आधुनिकतावादियों की दृष्टि में यह मुख्‍यत: आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का श्रीगणेश है, जिसमें विज्ञान, औद्योगीकरण, बुद्धिवाद, प्रगति, धर्मनिरपेक्षता आदि मूल्‍य प्रधान हैं। दूसरी ओर भिन्‍न पक्ष के विचारक इन्‍हीं बातों के लिए इस नवजागरण को तिरस्‍कृत करने की कोशिश कर रहे हैं। अति वामपंथी दृष्टि में यह नवजागरण एक परजीवी और वर्ग-सहयोगी मध्‍य वर्ग कारनामा होने के कारण ऐतिहासिक 'धोखा' है तो उत्तर-आधुनिकतावादी विचारकों के लेखे 'छद्​मचेतना' है - ऐसी 'छद्​मचेतना' जो यूरोप की ऐतिहासिक चेतना के प्रभाव में देश को एक अमानुषिक केंद्रीकृत राजसत्ता की ओर ठेल रही है। तात्‍पर्य यह है कि आज की समस्त समस्‍याओं के लिए यदि कोई जिम्‍मेदार है तो उन्‍नीसवीं शताब्‍दी का नवजागरण। यदि आज के बुद्धिजीवियों में औपनिवेशिक मानसिकता है तो नवजागरण के फलस्‍वरूप; अध्‍यात्‍मवाद, रहस्‍यवाद, अंधविश्‍वास आदि में वृद्धि हो रही है तो वह भी उसी के कारण। हिंदू-मुस्लिम-सिख सांप्रदायिकता के विष-बीज भी वहीं के हैं और भाषायी झगड़ों और क्षेत्रीय अलगावाद की जड़ें भी ढूँढ़कर उन्‍नीसवीं शताब्‍दी में बतायी जा रही हैं।
अंतत: ये तमाम बातें उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अंतर्गत अंग्रेजी उपनिवेशवाद और भारतीय सभ्‍यता के बीच चलनेवाले उस वस्‍तुगत संघर्ष की जटिलता और संश्‍लि‍ष्‍टता की ओर संकेत करती हैं। इस विषम युद्ध में मुख्‍य प्रश्‍न स्‍वत्‍व रक्षा का था, जिसे बचाने की छटपटाहट में परंपरा के वे प्रेत भी जग गए जो आगे चलकर खतरनाक साबित हुए; फिर प्रगति की आकांक्षा से हड़बड़ी में पश्चिम से ऐसे भी उपकरण लिए गए जिनके दूरगामी परिणामों की समझ न थी। आज उस रंगभूमि में उतरनेवाले पूर्व सूरियों पर राय देते समय अपने गरेबाँ में मुँह डालकर देख लेना भी जरूरी है। वैसे इस नवजागरण से भी अपनी-अपनी पसंद के मूल्‍य अथवा व्‍यक्ति चुनने के लिए हर कोई स्‍वतंत्र है लेकिन शर्त यह है कि खंड को ही समग्र न कहने का आग्रह न किया जाए। न इतिहास कल्‍पवृक्ष है और न नवजागरण कामधेनु! [1986]

14 सितंबर हिंदी दिवस : महात्मा गांधी

महात्मा गांधी के सपनों के भारत में एक सपना राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को प्रतिष्ठित करने का भी था। उन्होंने कहा था कि राष्ट्रभाषा के बिना कोई भी राष्ट्र गूँगा हो जाता है। हिन्दी को राष्ट्रीय पहचान दिलाने में एक राजनीतिक शख्सियत के रूप में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। महात्मा गांधी की मातृभाषा गुजराती थी और उन्हें अंग्रेजी भाषा का उच्चकोटि का ज्ञान था किंतु सभी भारतीय भाषाओं के प्रति उनके मन में विशिष्ट सम्मान भावना थी। प्रत्येक व्यक्ति अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करे, उसमें कार्य करे किंतु देश में सर्वाधिक बोली जाने वाली हिन्दी भाषा भी वह सीखे, यह उनकी हार्दिक इच्छा थी।
गांधी जी प्रांतीय भाषाओं के पक्षधर थे, वहां की शिक्षा का माध्यम भी प्रांतीय भाषाओं को बनाना चाहते थे। हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाने के संदर्भ में उनका दृष्टिकोण स्पष्ट था कि ‘देश के सारे लोग हिन्दी का इतना ज्ञान प्राप्त कर लें तकि देश का राजकाज उसमें चलाया जा सके और सभी भारतवासी एक सामान्य भाषा में संवाद कायम कर सकें।' वे अकेले राजनीतिक व्यक्ति थे, जिन्होंने भारत की भाषा समस्या, राष्ट्रभाषा पर इतना ध्यान दिया।
आधुनिक हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध आलोचक, निबंधकार, विचारक एवं कवि रामविलास शर्मा का यह कथन  ‘सत्य अहिंसा, स्वराज, सर्वोदय- किसी भी अन्य विषय पर आज उनके लिये उपादेय नहीं है, जितने भाषा समस्या पर। अंग्रेजी, भारतीय भाषाओं, राष्ट्रभाषा हिन्दी और हिन्दी-उर्दू की समस्या पर उन्होंने जितनी बातें कही हैं, वे बहुत ही मूल्यवान है। किसी भी राजनीतिक नेता ने इन समस्याओं पर इतनी गहराई से नहीं सोचा, किसी भी पार्टी और उसके नेताओं ने भाषा समस्या के सैद्धांतिक समाधान को नित्य प्रतिदिन की कार्रवाई में इस तरह अमलीजामा नहीं पहनाया, जैसे गांधी ने। उनकी नीति के मूल सूत्र छोड़ देने से यह समस्या दिन प्रतिदिन उलझती जा रही है।’
गांधीजी अपनी मां, मातृभूमि और मातृभाषा से अटूट स्नेह रखते थे। सन् 1906 ई. में उन्होंने अपनी एक प्रार्थना में कहा था- भारत की जनता को एक रूप होने की शक्ति और उत्कण्ठा दे। हमें त्याग, भक्ति और नम्रता की मूर्ति बना जिससे हम भारत देश को ज्यादा समझें, ज्यादा चाहें। हिन्दी एक ही है। उसका कोई हिस्सा नहीं है हिन्दी के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी मुझे इस दुनिया में प्यारा नहीं है।
इस प्रार्थना से उनका राष्ट्र-प्रेम और राष्ट्रीय एकता के प्रति उनका अनुराग पूर्णरूपेण परिलक्षित होता है। गांधी भाषा को माता मानते थे तथा हिन्दी का सबल समर्थन करते थे। उन्होंने हिन्द स्वराज (सन् 1909 ई.) में अपनी भाषा-नीति की घोषणा इस प्रकार की थी- ‘सारे हिन्दुस्तान के लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिन्दी ही होना चाहिए। उसे उर्दू या नागरी लिपि में लिखने की छूट होना चाहिये। हिन्दू-मुसलमानों के संबंध ठीक रहें, इसलिए हिन्दुस्तानियों को इन दोनों लिपियों को जान लेना जरूरी है। ऐसा होने से हम आपस के व्यवहार में अंग्रेजी को निकाल सकेंगे।’
महात्मा गाँधी ने भारत आकर अपना पहला महत्वपूर्ण भाषण 6 फरवरी 1916 को बनारस में दिया था। उस दिन भारत के वायसराय लार्ड हार्डिंग वहाँ बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का शिलान्यास करने आए थे। महामना मदनमोहन मालवीय के विशेष निमंत्रण पर महात्मा गाँधी भी इस समारोह में शामिल हुए थे। समारोह की अध्यक्षता महाराज दरभंगा कर रहे थे। मंच पर लार्डहार्डिंग के साथ श्रीमती एनी बेसेंट और मालवीयजी भी थे। समारोह में बड़ी संख्या में देश के राजा-महाराजा भी शामिल हुए थे। ये लोग देश के कोने-कोने से तीस विशेष रेलगाडि़यों से आए थे। मालवीयजी के आग्रह पर जब महात्मा गाँधी बोलने खड़े हुए हुए तो उनके अप्रत्याशित भाषण से सभी अवाक और स्तब्ध रह गए थे।
सर्वप्रथम उन्होंने समारोह की कार्रवाई एक विदेशी भाषा अँगरेजी में चलाए जाने पर आपत्ति की और दुख जताया। फिर उन्होंने काशी विश्वविद्यालय मंदिर की गलियों में व्याप्त गंदगी की आलोचना की। इसके बाद उन्होंने मंच पर और सामने विराजमान रत्नजड़ित आभूषणों से दमकते राजाओं-महाराजाओं की उपस्थिति को बेशकीमती जेवरों की भड़कीली नुमाइश बताते हुए उन्हें देश के असंख्य दरिद्रों की दारुण स्थिति का ध्यान दिलाया। उन्होंने जोड़ा कि जब तक देश का अभिजात वर्ग इन मूल्यवान आभूषणों को उतारकर उसे देशवासियों की अमानत समझते हुए पास नहीं रखेगा, तब तक भारत की मुक्ति संभव नहीं होगी। फिर उन्होंने 1916 के कांग्रेस अधिवेषन में अपना भाषण हिन्दी में दिया।
महात्मा गांधी भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में जनसंपर्क हेतु हिन्दी को ही सर्वाधिक उपयुक्त भाषा समझते थे। इसके बाद 15 अक्टूबर 1917 को भागलपुर के कटहलबाड़ी क्षेत्र में बिहारी छात्रों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया था। देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के निर्देश पर बिहारी छात्रों के संगठन का काम लालूचक के श्री कृष्ण मिश्र को सौंपा गया था। बिहारी छात्रों के सम्मेलन की अध्यक्षता महात्मा गांधी ने की थी। अपने संबोधन में महात्मा गांधी ने कहा था- ‘मुझे अध्यक्ष का पद देकर और हिन्दी में व्याख्यान देना और सम्मेलन का काम हिन्दी में चलाने की अनुमति देकर आप विद्यार्थियों ने मेरे प्रति अपने प्रेम का परिचय दिया है। इस सम्मेलन का काम इस प्रांत की भाषा में ही और वही राष्ट्रभाषा भी है- करने का निश्चय दूरन्देशी से किया है।’
इस सम्मेलन में सरोजनी नायडू का भाषण अंग्रेजी से हिन्दी अनुदित होकर छपा था। यह सम्मेलन आगे चलकर भारत की राजनीति, विषेषकर स्वतंत्रता संग्राम में राजनीति का कैनवास बना, जिससे घर-घर में  स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद करना मुमकिन हो सका। वहीं प्रसिद्ध गांधीवादी काका कालेलकर ने इस सम्मेलन के भाषण को राष्ट्रीय महत्व प्रदान कर राष्ट्रभाषा हिन्दी की बुनियाद डाली थी। बाद में इसी कटहलबाड़ी परिसर में मारबाड़ी पाठशाला की स्थापना हुई।
सन् 1917 ई. में कलकत्ता (कोलकाता) में कांग्रेस अधिवेशन के अवसर पर राष्ट्रभाषा प्रचार संबंध कांफ्रेन्स में तिलक ने अपना भाषण अंग्रेजी में दिया था। जिसे सुनने के बाद गांधीजी ने कहा था- ‘बस इसलिए मैं कहता हूं कि हिन्दी सीखनें की आवश्यकता है। मैं ऐसा कोई कारण नहीं समझता कि हम अपने देशवासियों के साथ अपनी भाषा में बात न करें। वास्तव में अपने लोगों के दिलों तक तो हम अपनी भाषा के द्वारा ही पहुंच सकते हैं।’
महात्मा गांधी किसी भाषा के विरोधी नहीं थे। अधिक से अधिक भाषाओं को सीखना वह उचित समझते थे। प्रत्येक भाषा के ज्ञान को वह महत्वपूर्ण मानते थे किंतु उन्होंने निज मातृभाषा और हिन्दी का सदैव सबल समर्थन किया। एक अवसर पर उन्होंने कहा था- ‘भारत के युवक और युवतियां अंग्रेजी और दुनिया की दूसरी भाषाएं खूब पढ़ें मगर मैं हरगिज यह नहीं चाहूंगा कि कोई भी हिन्दुस्तानी अपनी मातृभाषा को भूल जाय या उसकी उपेक्षा करे या उसे देखकर शरमाये अथवा यह महसूस करे कि अपनी मातृभाषा के जरिए वह ऊंचे से ऊंचा चिन्तन नहीं कर सकता।’
गांधीजी शिक्षा के माध्यम के लिए मातृभाषा को ही सर्वोत्तम मानते थे। उनका स्पष्ट मत था कि शिक्षा का माध्यम तो प्रत्येक दशा में मातृभाषा ही होनी चाहिए। 1918 में वाइसराय की सभा में में जब रंगरूटों की भर्ती के सिलसिले में गांधी गये तो उन्होंने हिन्दी-हिन्दूस्तानी में बोलने की इजाजत मांगी। इस घटना का उल्लेख करते हुए उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है ‘हिन्दुस्तानी में बोलने के लिये मुझे बहुतों ने धन्यवाद दिया। वे कहते थे कि वाइसराय की सभा में हिन्दुस्तानी में बोलने का यह पहला उदाहरण था। पहले उदाहरण की बात सुनकर मैं शरमाया। अपने ही देश में देश से संबध रखनेवाले काम की सभा में, देश की भाषा का बहिष्कार कितने दुख की बात है।’
उनकी इच्छा थी कि भारत के प्रत्येक प्रदेश में शिक्षा का माध्यम उस-उस प्रदेश की भाषा को होना चाहिए। उनका कथन था ‘राष्ट्र के बालक अपनी मातृभाषा में नहीं, अन्य भाषा में शिक्षा पाते हैं, वे आत्महत्या करते हैं। इससे उनका जन्मसिद्ध अधिकार छिन जाता है। विदेशी भाषा से बच्चों पर बेजा जोर पड़ता है और उनकी सारी मौलिकता नष्ट हो जाती है। इसलिए किसी विदेशी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना मैं राष्ट्र का बड़ा दुर्भाग्य मानता हूं।’ इसके बाद गांधी जी ने कांग्रेस के अंदर प्रवेश कर उसकी कार्रवाईयों में हिन्दी को स्थान दिलाने के प्रयास शुरू किये। राष्ट्रीय नेताओं लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से हिन्दी सीखने का आग्रह, रवीन्द्रनाथ ठाकुर से हिन्दी सीखने का आग्रह महत्वपूण है। रविन्द्रनाथ ठाकुर ने काठियावाड़ में अपना भाषण हिन्दी में दिया।
इसी प्रकार एक अन्य अवसर पर उन्होंने अपना विचार इस प्रकार प्रकट किया था ‘यदि हिन्दी अंग्रेजी का स्थान ले ले तो कम से कम मुझे तो अच्छा ही लगेगा। अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, लेकिन वह राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती। अगर हिन्दुस्तान को सचमुच हमें एक राष्ट्र बनाना कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा तो हिन्दी ही बन सकती है।’ महात्मा गांधी ने भाषा के प्रश्न को स्वराज्य से जोड़ दिया। उन्होंने कहा कि यदि स्वराज्य देश के करोड़ो भूखे, अनपढ़, दलितों के लिए होना है तो जन-सामान्य की भाषा हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा बनाना होगा।
मार्च 1918 में इंदौर में सम्पन्न हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन के सभापति बनाए गये। सभापति के रूप में उन्होंने अपने भाषण में जोरदार शब्दों में कहा, जैसे अंग्रेज अपनी मादरी जबान अंग्रेजी में ही बोलते और सर्वथा उसे ही व्यवहार में लाते हें, वैसे ही मैं आपस प्रार्थना करता हूं कि आप हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनने का गौरव प्रदान करें। हिंदी सब समझते हैं। इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। इसी भाषण में उन्होंने हिंदी के क्षेत्र-विस्तार की आवश्यकता की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा, साहित्य का प्रदेश भाषा की भूमि जानने पर हो निश्चित हो सकता है। यदि हिंदी भाषा की भूमि सिर्फ उत्तर प्रांत की होगी, तो साहित्य का प्रदेश संकुचित रहेगा। यदि हिंदी भाषा राष्ट्रीय भाषा होगी, तो साहित्य का विस्तार भी राष्ट्रीय होगा। जैसे भाषक वैसी भाषा। भाषा-सागर में स्नान करने के लिए पूर्व-पश्चिम, दक्षिण-उत्तर से पुनीत महात्मा आएंगे, तो सागर का महत्व स्नान करने वालों के अनुरूप होना चाहिए।
उपर्युक्त वक्तव्य से जाहिर है कि उत्तर प्रांत में हिंदी भाषा एवं साहित्य का जो उत्थान हो रहा था, उससे गांधी जी अवगत थे, लेकिन संतुष्ट नहीं, क्योंकि उनकी समझ में हिंदी का विस्तार उत्तर से दक्षिण तक, पूर्व से पश्चिम तक सबके लिए होना चाहिए। उसे एक सागर की तरह व्यापक होना चाहिए, न कि नदी की तरह संकुचित। इसी बात को बाद में उनके परम शिष्य विनोबा भावे ने इस प्रकार कहा, हिंदी को नदी नहीं, समुद्र बनना होगा। अर्थात् उत्तरी प्रांत में उभरा हिंदी नवजागरण एक उफनती नदी जैसा था, तो उसे राष्ट्रव्यापी सागर में परिणत करने का प्रयास गांधी जी के द्वारा हुआ, यह मानने में कोई अतिवाद नहीं है। इस तथ्य को ध्यान में रखने में हिंदी-भाषी प्रदेश के आधार पर हिंदी जाति की बात करना असंगत प्रतीत होता है। वस्तुतः गुजराती या बंगला या मराठी की तर्ज पर हिंदी को किसी प्रदेश विशेष की जाति की भाषा कहना, उसके कद को छोटा करना होगा।
इंदौर साहित्य-सम्मेलन के अवसर पर गांधी जी ने हिंदी के प्रचार के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य का आरंभ कराया जिसका संबंध दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार से था। उन्होंने अपने उसी भाषण में यह कहा कि- सबसे कष्टदायी मामला द्रविड़ भाषाओं के लिए है। वहां तो कुछ प्रयत्न भी नहीं हुआ है। हिंदी भाषा सिखाने वाले शिक्षकों को तैयार करना चाहिए। ऐसे शिक्षकों की बड़ी ही कमी है। इस कथन से स्पष्ट है कि दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार को लेकर तब तक कोई विशेष कार्य नहीं हुआ था। दक्षिण भारतीयों के बीच हिंदी का कैसे प्रचार हो, यह गांधी जी के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण समस्या थी।
भारतीय राजनेताओं में गांधीजी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने द्रविड़ प्रदेश में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए हिंदी को विधिवत् सिखाया जाना आवश्यक समझा और उसके लिए उन्होंने ठोस योजना प्रस्तुत की, जिसके अंतर्गत पुरुषोत्तम दास टंडन, वेंकटेश नारायण तिवारी, शिव प्रसाद गुप्ता सरीखे हिंदी-सेवियों को लेकर दक्षिण भारत हिन्द प्रचार सभा का गठन किया। इंदौर साहित्य-सम्मेलन के समापन के तुरंत बाद गांधी जी ने अखबारों के लिए एक पत्र जारी किया जिसमें उन्होंने दक्षिण वालों को हिंदी सीखने के लिए उत्साहित करते हुए कहा था, यदि हमें स्वराज्य का आदर्श पूरा करना है तो हमें एक ऐसी भाषा की जरूरत पड़ेगी ही, जिसे देश की विशाल जनता आसानी से समझ और सीख सके। ऐसी भाषा तो सदा से हिंदी हो रही है। मुझे मद्रास प्रांत की जनता की देशभक्ति, आत्मत्याग और बुद्धिमत्ता पर काफी भरोसा है। मैं जानता हूं कि जो भी लोग राष्ट्र की सेवा करना चाहेंगे या अन्य प्रांतों के साथ सम्पर्क चाहेंगे, उनको त्याग करना ही पड़ेगा, यदि हिंदी सीखने को त्याग ही माना जाय।
इंदौर हिंदी सम्मेलन के अवसर पर गांधी जी द्वारा व्यक्त विचारों पर गौर करें, तो मानना पडेगा कि हिंदी के संबंध में कुछ विशिष्ट बातें पहली बार राष्ट्र के सामने आयीं। हिंदी समस्त भारतवर्ष की सम्पर्क-भाषा बने, यह भारतीय नवजागरण के कई बौद्धिकों द्वारा प्रतिपादित किया जा चुका था, लेकिन यह कैसे संभव हो सके, इस संबंध में कोई सुनिश्चित योजना उनके द्वारा नहीं प्रस्तुत की जा सकी थी। गाँधी जी ने 20 अक्टूबर 1917 ई. को गुजरात के द्वितीय शिक्षा सम्मेलन में दिए गए अपने भाषण में राष्ट्रभाषा के कुछ विशेष लक्षण बताए थे, वे निम्न हैं:
1. वह भाषा सरकारी नौकरों के लिए आसान होनी चाहिए।
2. उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक कामकाज शक्य होना चाहिए।
3. उस भाषा को भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों।
4. वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान होनी चहिए।
5. उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या अस्थायी स्थिति पर जोर न दिया जाये।
अंग्रेजी भाषा में इनमें एक भी लक्षण नहीं है। यह माने बिना काम चल नहीं सकता। हिन्दी भाषा में ये सारे लक्षण मौजूद हैं। हिन्दी भाषा मैं उसे कहता हूं जिसे उत्तर में हिन्दू और मुसलमान बोलते हैं और देवनागरी या फारसी में लिखते हैं। 20 अक्टूबर के बाद 11 नवम्बर, 1917 को बिहार के मुजफ्फरपुर शहर में भाषण करते हुए उन्होंने कहा, मैं कहता आया हूं कि राष्ट्रीय भाषा एक होनी चाहिए और वह हिंदी होनी चाहिए। हमारा कर्तव्य यह है कि हम अपना राष्ट्रीय कार्य हिंदी भाषा में करें। हमारे बीच हमें अपने कानों में हिंदी के ही शब्द सुनाई दें, अंग्रेजी के नहीं। इतना ही नहीं, हमारी धारा सभाओं में जो वाद-विवाद होता है, वह भी हिंदी में होना चाहिए। ऐसी स्थिति लाने के लिए मैं जीवन-भर प्रयत्न करूंगा।
इस दृष्टि से गांधी जी पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने हिंदी के राष्ट्रव्यापी प्रचार-प्रसार के लिए सुविचारित योजना प्रस्तुत की और हिंदी प्रचार के कार्य को मिशनरी स्वरूप प्रदान किया। धर्म के प्रचार को लेकर तो मानव-इतिहास में बहुतेरे मिशनरी, आत्मत्यागी महात्मा लोग होते आये है, लेकिन किसी भाषा के प्रचार के लिए मिशन की तरह, आत्मत्याग के रूप में काम करने का आह्वान करने वाले गांधी जी कदाचित् प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने यह आह्वान हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए किया।
13 दिसम्बर, 1920 को कलकत्ता में भाषण करते हुए गांधीजी ने कहा, यह निश्चित है कि सारे देश में जहां-कहीं देश के विभिन्न हिस्सों के लोगों की मिली-जुली सभाएं और बैठकें होंगी, उनमें अभिव्यक्ति का राष्ट्रीय माध्यम हिंदी ही होगी। 22 जनवरी, 1921 को जारी किए, अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा, जो बात मैं जोर देकर आपसे कहना चाहता हूं वह यह कि आप सबकी एक सामान्य भाषा होनी चाहिए, सभी भारतीयों की एक सामान्य भाषा होनी चाहिए, ताकि वे भारत में जिस हिस्से में भी जायें, वहां के लोगों से बातचीत कर सकें। इसके लिए आपको हिंदी को अपनाना चाहिए। 23 मार्च 1921 को विजयनगरम में राष्ट्रभाषा हिंदी के महत्व को बताते हुए उन्होंने कहा, हिंदी पढ़ना इसलिए जरूरी है कि उससे देश में भाईचारे की भावना पनपती है। हिंदी को देश की राष्ट्रभाषा बना देना चाहिए। हिंदी आम जनता की भाषा होनी चाहिए। आप चाहते हैं कि हमारा राष्ट्र एक ओर संगठित हो, इसलिए आपकी प्रान्तीयता के अभियान को छोड़ देना चाहिए। हिंदी तीन ही महीनों में सीखी जा सकती है।
हिंदी के सवाल को गांधी जी केवल भावनात्मक दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं मानते थे, अपितु उसे एक राष्ट्रीय आवश्यकता के रूप में भी देखने पर जोर देते थे। 10 नवम्बर, 1921 के ‘यंग इण्डिया’ में उन्होंने लिखा हिंदी के भावनात्मक अथवा राष्ट्रीय महत्व की बात छोड़ दें तो भी यह दिन प्रतिदिन अधिकाधिक आवश्यक मालूम होता जा रहा है कि तमाम राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं को हिंदी सीख लेनी चाहिए और राष्ट्र की तमाम कार्यवाही हिंदी में ही की जानी चाहिए। इस प्रकार असहयोग आंदोलन के दौरान गांधी जी ने पूरे देश में हिंदी का राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचार काफी जोरदार ढंग से किया और उसे राष्ट्रीय एकता, अखण्डता, स्वाभिमान का पर्याय-सा बना दिया।
उन्होंने अपने पुत्र देवदास गांधी को हिन्दी-प्रचार के लिए दक्षिण भारत भेजा था। दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की स्थापना उन्हीं की परिकल्पना का परिणाम है। उन्होंने वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना हिन्दी के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से ही की थी तथा जन-नेताओं को भी हिन्दी में कार्य करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया था। उनकी प्रेरणा के ही परिणाम स्वरूप हिन्दीतर भाषा-भाषी प्रदेशों के स्वतंत्रता संग्राम के ने हिन्दी को सीख लिया था और उसे व्यापक जन-सम्पर्क का माध्यम बनाया था।
महात्मा गांधी ने सभी भारतीय भाषाओं का समादर और हिन्दी के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए 17 मई 1942 तथा 9 अगस्त 1946 को कहा था कि महान प्रांतीय भाषाओं को उनके स्थान से च्युत करने की कोई बात ही नहीं है, क्योंकि राष्ट्रीय भाषा की इमारत प्रांतीय भाषाओं की नींव पर ही खड़ी की जानी है। दोनों का लक्ष्य एक-दूसरे की जगह लेना नहीं, बल्कि एक-दूसरे की कमी को पूरा करना है।
महात्मा गांधी के विचार, महान् भारतीय नेताओं की भावना और हिन्दी-भाषा-भाषी जनता की विशाल संख्या को दृष्टिगत रखते हुए पर्याप्त चिंतन-मनन के उपरांत भारतीय संविधान निर्माताओं ने हिन्दी को भारतीय संविधान में राजभाषा की प्रतिष्ठा प्रदान की थी। 16 जून, 1920 के ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने लिखा, मुझे पक्का विश्वास है कि किसी दिन हमारे द्रविड भाई-बहन गंभीर भाव से हिंदी का अध्ययन करने लगेंगे। आज अंग्रेजी भाषा पर अधिकार प्राप्त करने के लिए वे जितनी मेहनत करते हैं, उसका आठवां हिस्सा भी हिंदी सीखने में करें, तो बाकी हिंदुस्तान जो आज उनके लिए बंद किताब की तरह है, उससे वे परिचित होंगे और हमारे साथ उनका ऐसा तादात्म्य स्थापित हो जायेगा जैसा पहले कभी न था।
हिंदी के प्रचार को लेकर गांधी जी का ध्यान देश के दक्षिणी छोर की तरफ जितना था, उतना ही पूर्वी छोर की तरफ भी था। मार्च, 1922 में गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को जरूर स्थगित कर दिया, लेकिन राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के प्रचार का उनका कार्य जारी रहा। 24 मार्च, 1925 को हिंदी प्रचार कार्यालय, मद्रास में बोलते हुए गांधीजी ने कहा, मेरी राय में भारत में सच्ची राष्ट्रीयता के विकास के लिए हिंदी का प्रचार एक जरूरी बात है, विशेष रूप से इसलिए कि हमें उस राष्ट्रीयता को आम जनता के अनुरूप सांचे में ढालना है। और सचमुच सच्ची राष्ट्रीयता के विकास के लिए गांधी जी जीवन-पर्यंत हिंदी के प्रचार-कार्य में लगे रहे। राष्ट्रभाषा के दायरे से मेहनतकश वर्ग बाहर न रहे, इसका भी गांधी जी ने पूरा ध्यान रखा। 21 दिसम्बर, 1933 को पैराम्बूर की मजदूर सभा में बोलते हुए गांधी जी ने कहा, साथी मजूदरों, यदि आप सारे भारत के मजदूरों के दुःख-सुख को बांटना चाहते हैं, उनके साथ तादात्म्य स्थापित करना चाहते हैं, तो आपको हिंदी सीख लेनी चाहिए, जब तक आप ऐसा नहीं करते, तब तक उत्तर और दक्षिण भारत में कोई मेल नहीं हो सकता।
जब भारत को स्वतंत्रता मिली ही थी। देश-विदेश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के पत्रकार इस महत्वपूर्ण घटना के प्रकाशन हेतु भारतीय नेताओं के वक्तव्य, संदेश आदि के लिए आ रहे थे। ऐसे माहौल में एक विदेशी पत्रकार महात्मा गांधी से मिला। उसने बापू से अपना संदेश देने को कहा। किंतु वह इस बात पर अड़ रहा था कि बापू अपना संदेश अंग्रेजी में दें। गांधीजी इसके लिए सहमत नहीं हो रहे थे। मगर पत्रकार था कि लगातार जिद कर रहा था। उसका कहना था कि संदेश भारतीयों के लिए नहीं, पूरी दुनिया के लिए है, इसलिए वह अंग्रेजी में ही बात कहें। उन दिनों बापू हिंदी का राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचार भी कर रहे थे। थोड़ी देर तक वह शांत बने रहे, मगर अंततः पत्रकार की बात पर महात्मा गांधी ने उसे दो टूक उत्तर देते हुए कहा- दुनिया से कह दो कि गांधी अंग्रेजी नहीं जानता।
गांधी के अभियान का नतीजा यह हुआ कि उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य क्षेत्रों के साहित्यकार जनपदीय भाषा को भूलकर राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के विकास में अपनी कलम चलायी। प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि ने हिन्दी को राष्ट्रीय धर्म के रूप में अपनाया। बिहार में भी आचार्य शिवपूजन सहाय, राधिकारमण सिंह, रामवृक्ष बेनीपुरी, लक्ष्मी नारायण सुधांशु, नार्गाजुन, फणीश्वरनाथ रेणु आदि ने भी अपनी क्षेत्रीय बोलियों के मोह से उपर उठकर हिन्दी के विकास में योगदान देना अपना राष्ट्रीय धर्म समझा।

4 सितंबर हिंदी दिवस : भाषाविद अरविंद कुमार

हिंदी के क्षेत्रीय और भौगोलिक लक्ष्मण रेखाओं का अतिक्रमण करके सार्वदेशिक अखिल भारतीय भाषा बनने का एक सुखद परिणाम यह सामने आया है कि हिंदीतर भाषी कहे जाने वाले क्षेत्रों में स्थित उच्च शिक्षा संस्थानों और विश्वविद्यालयों में बड़ी संख्या में हिंदी भाषा और साहित्य पर केंद्रित शोध को प्रोत्साहन मिला है. डॉ. ऋषभदेव शर्मा और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा द्वारा संपादित ‘संकल्पना’ (2015) दक्षिण भारत में हो रहे ऐसे ही शोधकार्यों का एक नमूना है. इसमें ऐसे 39 शोधपत्र संकलित हैं जो मुख्य रूप से हैदराबाद स्थित शोधकर्ताओं के द्वारा लिखे गए हैं. इनमें भी बड़ी संख्या ऐसे शोधकर्ताओं की है जो अभी अनुसंधान पथ के अन्वेषी पथिक हैं. इसके बावजूद संतोष का विषय यह है कि इनकी शोध दृष्टि एकदम साफ, तटस्थ, वाद निरपेक्ष और मानव सापेक्ष है. विषय चयन और समीक्षा पद्धति की दृष्टि से इन शोधपत्रों का वैविध्य भी सुखद प्रतीत होता है. इस पुस्तक में अध्येय पाठ के रूप में काव्य, उपन्यास, कहानी, नाटक, बाल साहित्य और साक्षात्कार जैसी विविध विधाओं के साथ-साथ पत्रकारिता, मीडिया और वैज्ञानिक साहित्य तक को भाषिक अनुसंधान के दायरे में लाया गया है. यह कहने में कोई अतिशयोक्ति न होगी कि इससे निश्चय ही हिंदी अनुसंधान के क्षेत्र को व्यापकता प्राप्त हुई है. ये अध्ययन जहाँ एक ओर सांस्कृतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक समीक्षा दृष्टियों का उपयोग करते हैं वहीं दूसरी ओर स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, पर्यावरण विमर्श, विस्थापित विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, दलित विमर्श, वृद्धावस्था विमर्श और मीडिया विमर्श जैसे अद्यतन विमर्शों को भी समृद्ध करते हैं.
‘संकल्पना’ का महत्व इस बात से और भी बढ़ जाता है कि इसमें भाषा विमर्श पर सर्वाधिक बल है. वृद्धों की भाषा, दलितों की भाषा, स्त्रियों की भाषा और विज्ञान की भाषा का विवेचन तो अपनी जगह है ही स्त्री की देह भाषा के प्रकाश में किसी साहित्यकार की रचनाओं का विवेचन तो वास्तव में अनोखा ही है. पाठ विश्लेषण और शैलीविज्ञान तो अपनी जगह है ही. इसी प्रकार स्त्री विमर्श पर केंद्रित सामग्री भी घिसेपिटे ढर्रे से हटकर मानवाधिकारों, स्त्री सशक्तीकरण, स्त्री संघर्ष और शोषण के प्रतिकार जैसे पहलुओं को सामने लाती है. दलित विमर्श के अंतर्गत वर्ण व्यवस्था के क्रूर स्वरूप को उभारने के साथ ही दलित समुदाय द्वारा अपनाए जा रहे प्रतिरोध के चित्रण का मूल्यांकन भी किया गया है. इसी प्रकार जनजाति विमर्श के अंतर्गत एक तरफ बस्तर तो दूसरी तरफ अरुणाचल प्रदेश की जनजातीय संस्कृति को अध्ययन का विषय बनाया गया है. संस्कृति, पर्यावरण और मीडिया विमर्श के अतिरिक्त बाल साहित्य और अनुवाद विमर्श पर केंद्रित सामग्री भी पर्याप्त अभिनव, मौलिक और अनुसंधानपूर्ण है.
आज हर ओर लेखक-पत्रकार-समीक्षक अरविंद कुमार के नवीनतम द्विभाषी कोश अरविंद वर्ड पावर - इंग्लिश-हिंदी की धूम मची है। अशोक वाजपेयी लिखते हैं- हिंदी समाज को अरविंद कुमार का कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होँ ने ऐसा अद्भुत कोश बनाया।
1996 मेँ संसार को मिला समांतर कोश - अरविंद की बीस साल की अनथक अनवरत खोज और अप्रतिम कल्पनाशीलता से - सभी भारतीय भाषाओँ मेँ सब से पहला आधुनिक हिंदी थिसारस। वह कोश जिस ने समसामयिक हिंदी जगत को थिसारस की परिकल्पना से परिचित कराया, जिस ने देश तथा विश्व की कोशकारिता मेँ रातोरात महान क्रांति कर दी, जिस ने संस्कृत भाषा के अपेक्षाकृत छोटे निघंटु और अमरकोश वाली प्राचीन भारतीय कोश परंपरा को आगे बढ़ाया। ऐसे अरविंद कुमार को लोग भारत का पीटर मार्क रोजेट कहेँ तो अचरज नहीँ होता. कुछ लोग उन्हेँ वैदिक शब्दोँ के संकलन निघंटु की रचना करने वाले प्रजापति कश्यप का अभिनव अवतार तक कह डालते हैँ।
 स्वतंत्रता के स्वर्ण जयंती वर्ष मेँ प्रकाशित समांतर कोश - हिंदी थिसारस की पहली प्रति 13 दिसंबर 1996 के पूर्वाह्न में अरविंद कुमार दंपती ने तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकरदयाल को समर्पित की। इस नई तरह के कोश को तत्काल सफलता, अपार प्रशंसा और हार्दिक स्वीकृति मिलीँ। प्रसिद्ध लेखक ख़ुशवंत सिंह ने लिखा - "इस ने हिंदी की एक भारी कमी को पूरा किया है और हिंदी को इंग्लिश भाषा के समकक्ष खड़ा कर दिया है।"
 ग्यारह और साल की मेहनत के बाद, 2007 मेँ, अरविंद ने हमेँ दिया तीन खंडोँ मेँ 3000 पेजोँ वाला द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी। संसार का यह विशालतम द्विभाषी थिसारस तमाम विषयोँ के पर्यायवाची और विपर्यायवाची शब्दोँ का महाभंडार है। संदर्भ क्रम से आयोजित इस कोश मेँ पहली बार संबद्ध और विपरीत शब्दकोटियोँ के क्रासरैफ़रैंस भी शामिल किए गए। और फिर छः साल बाद 2013 मेँ अरविंद ने प्रदान किया समांतर कोश का परिवर्धित और परिष्कृत संस्करण - बृहत् समांतर कोश।
अब अरविंद ने देश को दिया है अपना नवीनतम उपहार अरविंद वर्ड पावर: इंग्लिश-हिंदी उपयोक्ताओँ की शब्दशक्ति कई गुना बढ़ाने वाला सशक्त कोश और थिसारस। इस का आयोजन सब के सुपरिचित कोशक्रम से किया गया है। ऊपर नीचे पैराग्राफ़ोँ मेँ शब्दोँ के इंग्लिश और हिंदी पर्याय तो यह परोसता ही है, सदृश और विपरीत धारणाओँ की जानकारी दे कर उन तक जाने की प्रेरणा भी देता है। अरविंद वर्ड पावर: इंग्लिश-हिंदी का संयोजन भारतीय पाठकोँ की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए विशेषतः किया गया है। यह एकमात्र भारत-केंद्रित इंग्लिश-हिंदी कोश है। हमारे रीतिरिवाजोँ, प्रथाओँ, परंपराओँ, विचारधाराओँ, दर्शनोँ, सिद्धांतोँ, मिथकोँ, मान्यताओँ, संस्कृति का दर्पण है।
अरविंद का कहना है कि आज भारत की हर भाषा को संसार की हर भाषा से अपना सीधा संबंध बनाना चाहिए। आखिर हम कब तक संसार को अभारतीय इंग्लिश कोशोँ के ज़रिए देखते रहेंगे? और कब तक संसार हमें इन अभारतीय कोशोँ के ज़रिए देखता रहेगा? क्योँ नहीँ हम स्वय़ं अपने अरबी-हिंदी और हिंदी-अरबी कोश बनाते? या हिंदी-जापानी और जापानी-हिंदी कोश?

14 सितंबर हिंदी दिवस : हिंदी-चिंतक रामविलास शर्मा

शीर्ष आलोचक रामविलास शर्मा ने भारतीय संस्कृति, भारत में अँग्रेजी, हिन्दी नवजागरण, हिन्दी जाति, भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी जैसी कालजयी विषयों को रेखांकित किया। हिंदी के प्रश्न पर वह भाषा, साहित्य और समाज को एक साथ रखकर मूल्यांकन करते हैं। वह लिखते हैं- आर्य पश्चिम एशिया या किसी दूसरे स्थान से भारत में नहीं आए हैं, बल्कि सच यह है कि वे भारत से पश्चिम एशिया की ओर गए हैं। रामविलास शर्मा का कहना है - दूसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व बड़े-बड़े जन अभियानों की सहस्त्राब्दी है। इसी दौरान भारतीय आर्यों के दल इराक से लेकर तुर्की तक फैल जाते हैं। वे अपनी भाषा और संस्कृति की छाप सर्वत्र छोड़ते जाते हैं। पूँजीवादी इतिहासकारों ने उल्टी गंगा बहाई है। जो युग आर्यों के बहिर्गमन का है, उसे वे भारत में उनके प्रवेश का युग कहते हैं। इसके साथ ही वे यह प्रयास करते हैं कि पश्चिम एशिया के वर्तमान निवासियों की आँखों से उनकी प्राचीन संस्कृति का वह पक्ष ओझल रहे, जिसका संबंध भारत से है। सबसे पहले स्वयं भारतवासियों को यह संबंध समझना है, फिर उसे अपने पड़ोसियों को समझाना है।
हिंदी जाति की अवधारणा रामविलास शर्मा के जातीय चिंतन का केंद्रीय बिंदु है। भारतीय साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन तथा वैश्विक साहित्य से अन्तर्क्रिया के द्वारा रामविलास जी ने साहित्य के जातीय तत्वों की प्रगतिशील भूमिका की पहचान की है। वे लिखते हैं - ‘‘सन्‌ 1786 में ग्रीक, लैटिन और संस्कृत के विद्वान विलियम जोंस ने कहा था, ‘ग्रीक की अपेक्षा संस्कृत अधिक पूर्ण है। लेटिन की अपेक्षा अधिक समृद्ध है और दोनों में किसी की भी अपेक्षा अधिक सुचारू रूप से परिष्कृत है।’ पर दोनों से क्रियामूलों और व्याकरण रूपों में उसका इतना गहरा संबंध है, जितना अकस्मात उत्पन्न नहीं हो सकता। यह संबंध सचमुच ही इतना सुस्पष्ट है कि कोई भी भाषाशास्त्री इन तीनों की परीक्षा करने पर यह विश्‍वास किए बिना नहीं रह सकता कि वे एक ही स्त्रोत से जन्मे हैं। जो स्रोत शायद अब विद्यमान नहीं है। इसके बाद एक स्रोत भाषा की शाखाओं के रूप में जर्मन, स्लाव, केल्त आदि भाषा मुद्राओं को मिलाकर एक विशाल इंडो यूरोपियन परिवार की धारणा प्रस्तुत की गई। 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषा विज्ञान ने भारी प्रगति की है। अनेक नई-पुरानी भाषाओं के अपने विकास तथा पारस्परिक संबंधों की जानकारी के अलावा बहुत से देशों के प्राचीन इतिहास के बारे में जो धारणाएँ प्रचलित हैं, वे इसी ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की देन हैं। आरंभ में यूरोप के विद्वान मानते थे कि उनकी भाषाओं को जन्म देने वाली स्रोत भाषा का गहरा संबंध भारत से है। यह मान्यता मार्क्स के एक भारत संबंधी लेख में भी है।
अँग्रेजों के प्रभुत्व से भारतीय जनता की मुक्ति की कामना करते हुए उन्होंने 1833 में लिखा था, ‘‘हम निश्‍चयपूर्वक, न्यूनाधिक सुदूर अवधि में उस महान और दिलचस्प देश को पुनर्जीवित होते देखने की आशा कर सकते हैं, जहाँ के सज्जन निवासी राजकुमार साल्तिकोव (रूसी लेखक) के शब्दों में इटैलियन लोगों से अधिक चतुर और कुशल हैं, जिनकी अधीनता भी एक शांत गरिमा से संतुलित रहती है, जिन्होंने अपने सहज आलस्य के बावजूद अँग्रेज अफसरों को अपनी वीरता से चकित कर दिया है, जिनका देश हमारी भाषाओं, हमारे धर्मों का उद्गम है और जहाँ प्राचीन जर्मन का स्वरूप जाति में, प्राचीन यूनान का स्वरूप ब्राह्यण में प्रतिबिंबित है।
रामविलास जी अंग्रेजों की प्रगतिशील भूमिका का मूल्यांकन तथ्यों की कसौटी पर करते हैं, इसीलिए वे उन्हें उतने प्रगतिशील नहीं लगते जितने अन्य विद्वानों को लगते हैं । शायद इसी कारण से डॉ रामविलास शर्मा अंगेजों की प्रगतिशील भूमिका का समर्थन करने के बजाय अपने लेखन में उन भारतीय तत्वों को उभारने का प्रयास करते हैं जो अंगेजों से भिन्न और कहीं अधिक प्रगतिशील थे ।
अंग्रेजों ने भारतीयों के इतिहास और साहित्य को पूरी तरह से खारिज करने के बाद, अपने औपनिवेशिक हितों के लिए जब इतिहास की व्याख्या करना प्रारंभ किया तो सबसे पहले हमारी ही भूमि पर हमें विदेशी साबित किया। उन्होंने कहा, `आर्य विदेशी थे।` यह कह कर वे अपने शासन को औचित्यपूर्ण आधार दे रहे थे। उन्होंने इतिहास की व्याख्या करते हुए बताया, आर्य विदेशी थे, वे जिस समय आए उनकी संस्कृति द्रविणों से अधिक समुन्नत थी और उन्होंने द्रविणों पर शासन कर उन्हें सभ्य बनाया। आज उन आर्यों की तुलना में हमारी संस्कृति अधिक समुन्नत है और हम उन पर शासन कर उन्हें वैज्ञानिक सीख दे रहे हैं। प्रश्न उठता है कि अंग्रेजों को ऐसे आधार तलाशने की जरूरत क्यों पड़ी? हमें याद रखना चाहिए कि ब्रिटेन सहित यूरोप में एक ऐसा बौद्धिक वर्ग था, जो लगातार भारत तथा अन्य उपनिवेशों में अनौचित्यपूर्ण शासन की निंदा कर रहा था। उन्हें संतुष्ट करने के लिए उपनिवेशवादियों ने ऐसी थोथी व्याख्याएँ  प्रस्तुत कीं।
आर्यों के संबंध में उन्होंने भाषा विज्ञान के आधार पर सिद्ध किया कि आर्य यहाँ से बाहर गए और आर्यों के साथ द्रविण भी। ये लिखते हैं,  “दूसरी सस्राब्दी ई.पू. में जब बहुत-से भारतीय जन पश्चिमी एशिया में फैल गए, तब ऐसा लगता है, उनमें द्रविण जन भी थे। इस कारण ग्रीक आदि यूरोप की भाषाओं में द्रविण भाषा तत्व मिलते हैं यथा तमिल परि (जलना), ग्रीक पुर (अग्नि), तमिल अत्तन (पीड़ित होना), ग्रीक अल्गोस (पीड़ा), तमिल अन (पिता), ग्रीक अत्त (पिता)। यूरोप की भाषाओं में 12  से 19 तक संख्यासूचक शब्द कहीं आर्य पद्धति से बनते हैं, कहीं द्रविण पद्धति से।" (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, भाग २, पृ. 673) रामविलास जी पुस्तक के इसी अध्याय में जॉन हॉफमैन का उल्लेख करते हैं, जिन्होंने मुंडा परिवार की मुंडारी भाषा पर एक बड़ा ग्रन्थ `इनसाइकिलोपीडिया मुंडारिका` तैयार किया था। इसकी भूमिका में हॉफमैन आश्चर्य प्रकट करते हैं कि "मुंडा भाषा परिवार के जो शब्द आर्य भाषाओं में नहीं हैं, वे भी यूरोप की भाषाओं में मिल जाते हैं।
वास्तव में दूसरी सहस्राब्दी ई. पूर्व. में जब बहुत-से भारतीय गण और जन पश्चिम एशिया में फैले, तब उनके घुल-मिल जाने से स्लाव, ग्रीक, लैटिन, जर्मन आदि समुदायों की भाषाओं का निर्माण हुआ।" (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, पृ. 673) इसी विवेचन में वे आगे लिखते हैं,  "अवश्य ही इन प्रवासी जनों पर पीछे से बराबर दबाव पड़ता रहा होगा, जिससे ये यूरोप के उत्तर की ओर बढ़ते गए और इंडो-यूरोपियन परिवार की भाषाएँ बोलनेवाले यूरोप की अधिक उपजाऊ प्रशस्त भूमि पर बस गए। फिनोउग्रियन परिवार की भाषाएँ बोलनेवाले और भी उत्तर में ठेल दिए गए।"
उन्होंने हिंदी नवजागरण को 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से अभिन्न रूप से संबद्ध मानते हुए लिखा –“हिंदी प्रदेश में नवजागरण 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से शुरू होता है ।” (महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, भूमिका) इसे हिंदी प्रदेश का राष्ट्रीय व जातीय संग्राम मानते हुए रामविलास जी ने इसके प्रभाव का सविस्तार विश्लेषण किया और यह दिखाया कि किस तरह इस राष्ट्रीय संग्राम का असर सारे देश पर हुआ, किंतु हिंदी भाषी प्रदेश पर सबसे अधिक हुआ। डॉ. सत्यप्रकाश मिश्र इस संदर्भ में लिखते हैं, "हिंदी जाति के नवजागरण के अंतर को अन्य जातियों के नवजागरण से भिन्न रूप में रेखांकित करके निश्चय ही उसकी प्रकृति को समझने में मदद की है।" (आलोचक और समीक्षाएँ, पृ. 24) रामविलास शर्मा का मानना है कि हिंदी नवजागरण सामंतवाद व साम्राज्यवाद का विरोध करके आगे बढ़ा, इसीलिए इसकी एक पुरानी परंपरा है । 1857 के पहले के नवजागरण को जन-जागरण का नाम देते हुए वे लिखते हैं, “भारतेंदु युग उत्तर भारत में जन-जागरण का पहला या प्रारंभिक दौर नहीं है; वह जन जागरण की पुरानी परंपरा का खास दौर है। जन-जागरण की शुरुआत तब होती है, जब यहाँ बोल-चाल की भाषाओं में साहित्य रचा जाने लगता है, जब यहाँ के प्रदेशों में आधुनिक जातियों का गठन होता है। यह सामंत विरोधी जागरण है।" (भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएँ, पृ. 13) रामविलास जी भक्ति काल मे फैलाए गए इस जन-जागरण को `लोक-जागरण` कहते हैं। प्लासी की लड़ाई से 1857 के स्वाधीनता संग्राम तक जो युद्ध हुए, उन्हें `जन-जागरण` का नाम देते हैं। पहले दौर के लोक जागरण को दूसरे दौर के जन-जागरण से अलग करते हुए बताते हैं कि पहले दौर में विरोध सामंतवाद से है जबकि दूसरे दौर में साम्राज्यवाद से है।
डॉ. रामविलास शर्मा हिंदी नवजागरण की व्याख्या करते हुए कई चरणों का उल्लेख करते हैं। पहला चरण गदर या 1857 का स्वाधीनता संग्राम और दूसरा भारतेंदु युग है। हिंदी नवजागरण का तीसरा चरण महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनके सहयोगियों का कार्यकाल है। सन 1990 में `सरस्वती` का प्रकाशन आरंभ हुआ और 1920  में द्विवेदी जी उससे अलग हुए। इन दो दशकों की अवधि को `द्विवेदी युग` कहा जा सकता है। निराला साहित्य को रामविलास जी इसी नवजागरण की अगली कड़ी मानते हैं। ये लिखते हैं, “इस तरह नवजागरण जो 1857 के स्वाधीनता संग्राम से आरंभ हुआ, वह भारतेंदु युग में और व्यापक बना, उसकी साम्राज्य विरोधी और सामंत, साम्राज्य विरोधी प्रवृत्तियाँ द्विवेदी युग में पुष्ट हुईं। फिर निराला के साहित्य में कलात्मक स्तर पर तथा उसकी विचारधारा में ये प्रवृत्तियाँ क्रांतिकारी रूप में व्यक्त हुईं।"            (महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नव जागरण, पृ. 18) उन्होंने माना है कि नवजागरण की प्रक्रिया यहीं समाप्त नहीं हो जाती बल्कि अब भी जारी है । आज नवजागरण का संबंध पूँजीवाद से है।
डॉ. रामविलास शर्मा के हिंदी नवजागरण संबंधी मान्यताओं की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं, जिनकी ओर डॉ. शम्भुनाथ ने अपने लेख `हिंदी नवजागरण की अवधारणा : संदेह के बावजूद` (अलोचना, सहस्राब्दी अंक पाँच, अप्रैल-जून 2001) में लिखा है। पहली विशिष्टता है कि उन्होंने इसे तेरहवीं शताब्दी से ही विस्तृत निरंतरता में देखा। दूसरी बड़ी विशिष्टता है कि इसका संबंध हिंदी जाति के निर्माण और आत्मपहचान से स्थापित किया। तीसरी विशिष्टता यह है कि आधुनिक नाटककार शेक्सपीयर के काल का उदाहरण रख कर वे स्पष्ट करते हैं कि आधुनिकता का संबंध मशीनी उत्पादन से नहीं होता। सामंती व्यवस्था के भीतर व्यापारिक हस्त-शिल्प, कृषि, वाणिज्य, बाजार और नगर ही व्यापारिक पूँजीवाद की आधारशिला के लिए पर्याप्त हैं। चौथी बड़ी विशिष्टता यह है कि रामविलास शर्मा नवजागरण के हिंदी जातीय संदर्भ का उद्घाटन करने की प्रक्रिया के संदर्भ में वस्तुतः `रिनेसाँ` से लगातार एक दूरी बनाते चले गए। उन्होंने प्राच्यविद्यावाद को चुनौती देते हुए, लगभग हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में घोषित किया कि "भारत में अंग्रेज न आए होते तो भी सांस्कृतिक नवजागरण संभव था।" इस नवजागरण की पाँचवी सबसे बड़ी विशेषता है कि इसे पहले चरण में सामंत विरोधी और दूसरे चरण में सामंतवाद, साम्राज्यवाद विरोधी कहा गया। छठवीं सबसे बड़ी और अंतिम  विशेषता है कि हिंदी नवजागरण के पहले चरण में सामंतवाद, साम्राज्यवाद, पृथकतावाद, रीतिवाद, नस्लवाद और संकीर्ण जातीयतावाद का विरोध करते हुए भारतीय राष्ट्रीयता और संस्कृति के भीतर ही हिंदी जाति की परिकल्पना की गई। इसमें हिंदी और उर्दू दोनों को समान जगह दी गई।
यह सत्य है कि डॉ. रामविलास शर्मा का नवजागरण संबंधी विवेचन पूर्ण नही कहा जा सकता, क्योंकि इसमें अनेक बातों का स्पष्टीकरण नहीं है। सबसे पहली बात तो यही है कि भारतीय नवजागरण का हिंदी नवजागरण से स्पष्ट भेद नहीं है। दूसरी बात भारतीय नवजागरण के संदर्भ में हिंदी नवजागरण की दिशा और स्वरूप का स्पष्टीकरण नहीं किया गया। इसी प्रकार अन्य अनेक प्रश्न उठाए जा सकते हैं। इसके बावजूद, कर्मेंदु शिशिर ठीक ही लिखते हैं, “सवाल और भी उठाए जा सकते हैं और उठाए जाने चाहिए भी। मगर नवजागरण की मूल स्थापना को उलट कर अंग्रेजों की भूमिका को प्रगतिशील सिद्ध करना अथवा हिंदी नवजागरण के अस्तित्व को ही विवादग्रस्त करना उचित नहीं, लेकिन निहित उद्देश्योंवाले संदिग्ध मार्क्सवादियों का एक अच्छा-खासा वर्ग है जो भारत की सभ्यता, विकास, यहाँ तक कि आजादी का श्रेय भी अंग्रेजों को देने में शर्म मह्सूस नहीं करता।" (रामविलास शर्मा का हिंदी नवजागरण, कल के लिए,  जनवरी-मार्च, 2002) आज आवश्यकता है रामविलास शर्मा की इस मौलिक स्थापना को पूर्णता की ओर बढ़ाने की न कि इसे विवादग्रस्त बना कर खारिज करने या इसकी मौलिकता नष्ट करने की।
`हिंदी जाति की अवधारणा` भी डॉ. रामविलास शर्मा की एक मौलिक अवधारणा है। उनकी सभी स्थापनाओं में से यह स्थापना सर्वाधिक विवादग्रस्त रही है। अपनी इस स्थापना में वे जाति शब्द का प्रयोग  `नेशन` के अर्थ में करते हैं। इस अर्थ में जाति शब्द का प्रयोग सबसे पहले भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया। उसके बाद कार्तिक प्रसाद व महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भी किया, जिसकी चर्चा करते हुए रामविलास जी लिखते हैं, “हिंदी में तथा भारत की अन्य भाषाओं में जाति शब्द का पेशेवर बिरादरी (caste), नस्ल (race) और कौम (nationality) के लिए प्रयुक्त होता रहा है। कौम के लिए उसका प्रयोग अपक्षाकृत नया नहीं है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने `जातीय संगीत' नाम के निबंध में प्रदेशगत जाति के संगीत की चर्चा की थी, किसी पेशेवर बिरादरी के संगीत की नहीं। श्यामसुंदर दास द्वारा संपादित जनवरी 1902 की 'सरस्वती' में कार्तिक प्रसाद के लेख का शीर्षक था - `महाराष्ट्रीय जाति का अभ्युदय`। जाति और साहित्य के संबंध में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1923 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के कानपुर अधिवेशन में कहा था, `जिस जाति विशेष में साहित्य का अभाव या उसकी न्यूनता आपको दिखाई पड़े, आप यह निःसंदेह निश्चित समझिए कि वह जाति असभ्य किंवा अपूर्ण सभ्य है। जिस जाति की सामाजिक अवस्था जैसी होती है उसका साहित्य भी ठीक वैसा ही होता है।" (हिंदी जाति का साहित्य, पृ. 15-16)
हिंदी को जाति के रूप में चर्चित करने का श्रेय डॉ. रामविलास शर्मा को ही जाता है। उनकी दृष्टि में मराठी, बँग्ला, उड़िया आदि जैसे जातियाँ हैं, वैसे ही `हिंदी जाति` है। हिंदी जाति उन सभी बोलियों को मिला कर निर्मित होती है, जिसे `हिंदी भाषी क्षेत्र` कहते हैं। रामविलास शर्मा अंग्रेजी के अध्यापक होते हुए भी अपना संपूर्ण जीवन इसी `हिंदी जाति` के उत्थान और इसकी सांस्कृतिक परंपरा को निर्मित करने के लिए लगा दिया। ये चाहते तो आज के अंग्रेजीदाँ लोगों की तरह अंग्रेजी में लेखन कार्य कर सकते थे, किंतु इन्होंने ऐसा नही किया।
आज धर्म, संप्रदाय, जाति आदि के नाम पर सर्वाधिक बँटा हुआ हिंदी भाषी क्षेत्र ही है। रामविलास जी ने इसे `हिंदी जाति` के रूप में संगठित करने के लिए जो प्रयास किया, निश्चय ही वह आधुनिक भारत की मजबूती के लिए कारगर साबित हो सकती है। यद्यपि अनेक विद्वान इस पर शंका प्रकट करते हैं, जैसा कि रामचंद्र तिवारी लिखते हैं, “जैसे बाँग्ला जाति की भावना को ऊपर करने से धर्म, संप्रदाय आदि के भेद बंगाल में दब गए हैं, वैसे ही `हिंदी जाति` की भावना को ऊपर करने से हिंदी प्रदेश में भी धर्म और संप्रदाय का भेद दब जाएगा। हिंदी जाति के भीतर वे `उर्दू` को भी समाविष्ट करते हैं। उनकी यह स्थापना आज के माहौल को देखते हुए कम से कम हिंदी प्रदेश में व्यावहारिक प्रतीत नही होती । उर्दू भाषी अपने को `हिंदी जाति` के अंतर्गत स्वीकार नहीं करते। स्वयं मार्क्सवादियों में इस प्रश्न पर मतैक्य नहीं था। इसलिए चिंतन के स्तर पर `हिंदी जाति` की अवधारणा चाहे जितनी उपयोगी लगे, व्यवहार में इसकी चरितार्थता संदिग्ध है।" (कल के लिए, अप्रैल-जून,2002, पृ.28)।” ऐसी शंका करनेवाले विचारक शायद 1857 के पहले की स्थिति को भूल जाते हैं, जब न तो हिंदी और उर्दू का कोई सांप्रदायिक लगाव था और न ही हिंदी-उर्दू का विवाद। यह तो इस क्षेत्र को विभाजित करने की अंगेजों की रणनीति थी, ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता का षड्यंत्र था, क्योंकि इसी क्षेत्र से 1857 में उन्हें सर्वाधिक चुनौती मिली थी। इस क्षेत्र का दुर्भाग्य रहा की आजादी के बाद इस अलगाव को दूर करने का कोई प्रयास नहीं किया गया।
डॉ. रामविलास शर्मा के जातीयता संबंधी चिंतन में कहीं भी संकीर्णता दिखाई नहीं पड़ती है। जातीय संवेदना को उभार कर समाज को कितना गुमराह किया जा सकता है, रामविलास जी इसके प्रति सचे़त दिखाई पड़ते हैं। इसीलिए वे हिंदी और उर्दू को बोल-चाल के स्तर पर एक भाषा मानते हुए भी उर्दू लिपि की रक्षा की आवश्यकता पर पूरा बल देते हैं। वे हिंदी को हिंदुत्व और उर्दू को इस्लाम से जोड़े जाने का लगातार विरोध करते रहे। इस संदर्भ में भगवान सिंह का कथन अत्यंत महत्वपूर्ण है। वे लिखते हैं, “उर्दू अपने साहित्य के कारण भारतीय समाज में एक ऐसा स्थान बना चुकी है कि इसके साहित्य की उपेक्षा संभव नहीं। हिंदी कवि स्वयं उर्दू के लोकप्रिय छंदों में लिखने की लालसा रखते हैं और जिन्हें किंचित सफलता मिलती है, वे इसे अपने लिए गौरव की बात मानते हैं। पर साहित्यिक भाषा के रूप में भी इसका हिंदी से उतना अंतर नहीं है; जितना हिंदी क्षेत्र की बोलियों का स्वयं हिंदी से।" (कल के लिए,  जनवरी-मार्च, 2002, पृ. 53) हिंदी का अस्तित्व ही उर्दू सहित उसकी विभिन्न बोलियों से बनता है, इसलिए हमें उसकी विभिन्न बोलियों तथा उर्दू के विकास के साथ-साथ एक मानक हिंदी तथा हिंदी जाति को बढावा देना चाहिए।
डॉ. रामविलास शर्मा जिस हिंदी संस्कृति की चर्चा करते हैं उसका निर्माण केवल हिंदुओं ने नहीं किया है। इस संस्कृति के निर्माण में हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध, सिख आदि अनेक धर्मावलंबियों का, समाज के अनेक वर्गों का योगदान रहा है। रामविलास जी की हिंदी जाति की अवधारणा के पीछे उनका गहन अध्ययन है। अजय तिवारी के शब्दों में, “हिंदी समाज व्यापक दरिद्रता का गढ़ है। जैसे-जैसे यह समाज शिक्षित होगा, जैसे-जैसे यह समाज अपना भाग्य बदलने के लिए संघर्ष करेगा, वैस-वैसे रामविलास जी का महत्व बढ़ता जायेगा। उस संघर्ष का आधार अपनी सांस्कृतिक अहचान और अपनी वर्गीय एकता होगी। रामविलास इसी बात के लिए लड़े थे।" (कल के लिए,  अप्रैल-जून, 2002, पृ. 28)
डॉ. रामविलास शर्मा ने कोई परंपरागत `हिंदी साहित्य का इतिहास` नही लिखा और न ही वे मूलतः हिंदी साहित्य के इतिहास लेखक थे। लेकिन अपनी अलग-अलग पुस्तकों में उन्होंने हिंदी साहित्य के बारे में जो भी लिखा है, उससे उनकी मौलिक स्थापनाओं का साफ पता चलता है। इस दिशा में इनका महत्वपूर्ण योगदान यह है कि ये हिंदी साहित्य के इतिहास की परंपरा की तलाश करते हुए वेदों तक गए और जो साहित्य उपनिवेशवादी अवधारणा का शिकार था, हर तरह से पश्चिम का ऋणी माना जाता था, उसे उसके मूल से जोड़ने का प्रयास किया। इसके केंद्र में भारतीय दृष्टिकोण को विकसित व स्थापित करने तथा हिंदी साहित्य एवं संस्कृति की एक परंपरा को निर्मित करने की चिंता है।

14 सितंबर दिवस : रंजिता प्रकाश

रंजिता प्रकाश लिखती हैं- सम्पूर्ण विश्व में भाषा बोलने में हिन्दी का चौथा स्थान है। हिन्दी दिवस प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को मनाया जाता है। राजभाषा सप्ताह या हिन्दी सप्ताह 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस से एक सप्ताह के लिए मनाया जाता है। अल्मोड़ा (उत्तराखण्ड) के बाड़ेछीना के रहने वाले वरिष्ठ कथाकार स्वर्गीय शैलेश मटियानी ने हिन्दी के प्रति सरकारों और नौकरशाहों के रवैये से बेहद दुखी होकर 'हिंदी दिवस' को भाषा के नाम पर शर्मनाक पाखंड करार दिया था। इस मुद्दे पर वह आजीवन सवालों की झड़ी लगाते रहे। हिन्दी को आज तक संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा नहीं बनाया जा सका है। इसे विडंबना ही कहेंगे कि योग को 177 देशों का समर्थन मिला, लेकिन क्या हिन्दी के लिए 129 देशों का समर्थन नहीं जुटाया जा सकता?
सम्पूर्ण विश्व में भाषा बोलने में हिन्दी का चौथा स्थान है। हिन्दी दिवस प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को मनाया जाता है। राजभाषा सप्ताह या हिन्दी सप्ताह 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस से एक सप्ताह के लिए मनाया जाता है। इस पूरे सप्ताह अलग अलग प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है। 14 सितंबर को ही संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर सन् 1953 से 14 सितंबर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है। वर्ष 1918 में महात्मा गांधी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन में हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने की पहल की थी। गांधीजी ने हिंदी को जनमानस की भाषा कहा था।
स्वतन्त्र भारत की राजभाषा के प्रश्न पर 14 सितंबर 1949 को काफी विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया जो भारतीय संविधान के भाग 17  के अध्याय की धारा 343 (1) में इस प्रकार वर्णित है- संघ की राज भाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा। चूंकि यह निर्णय 14 सितंबर को लिया गया था। इस कारण हिन्दी दिवस के लिए इस दिन को श्रेष्ठ माना गया था। जब राजभाषा के रूप में इसे चुना गया और लागू किया गया तो गैर-हिन्दी भाषी राज्य के लोग इसका विरोध करने लगे और अंग्रेज़ी को भी राजभाषा का दर्जा देना पड़ा। इस कारण हिन्दी में भी अंग्रेज़ी भाषा का प्रभाव पड़ने लगा।
हिन्दी को आज तक संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा नहीं बनाया जा सका है। इसे विडंबना ही कहेंगे कि योग को 177 देशों का समर्थन मिला, लेकिन क्या हिन्दी के लिए 129 देशों का समर्थन नहीं जुटाया जा सकता? और तो और, हिंदी अपने देश में ही बेगानी होकर रह गई है। उसे आज तक राष्ट्रभाषा दर्जा नहीं मिल सका है। आजादी के बाद से इसके पीछे राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव मुख्य कारण रहा है। पाकिस्तान में भी पहली बार एक छात्रा को हिंदी की उच्च डिग्री प्रदान की गई। पर अपने देश में हिंदी के लिए हम क्या कर रहे हैं? असल में हिंदी भाषी ही हिंदी का गला घोंट रहे हैं। हिंदी बोलने वालों को अंग्रेजी बोलने वालों के मुकाबले कमतर आंका जाता है। ‘छाप तिलक सब छीनी रे, मोसे नयना लड़ाई के’- 12वीं सदी में हिंदी के सर्वोच्च शिल्पी अमीर खुसरो का यह सूफियाना कलाम उनके पीर निजामुद्दीन औलिया ही नहीं, बल्कि हिंदी पर भी बलिहारी होने की निशानी है।
देश के बाहर जापान, मिस्र, अरब, रूस, कनाडा, मारिशस आदि में तो हिन्दी को लेकर काफी सक्रियता देखी जाती है, मगर भारत में 14 सितंबर हिंदी दिवस भी रस्मी तौर पर निभाया जाने लगा है। अंग्रेजी बोलने में हमें गर्व होता है। हिन्दी बोलने में हीनता और जब तक इस भाव को हम पूरी तरह से नहीं निकाल देंगे, हिन्दी को सम्मान और सर्वमान्य भाषा के रूप में कैसे देख पाएंगे? डॉ. मारिया नेज्येशी हंगरी में हिन्दी की प्रोफेसर हैं। मुंशी प्रेमचंद पर पीएचडी की है। वह असगर वजाहत के हिन्दी पढ़ाने के लहजे से प्रभावित हुईं और हिन्दी सीख गईं। जर्मनी में हिन्दी शिक्षक प्रो. हाइंस वरनाल वेस्लर हिन्दी को समृद्ध भाषा मानते हैं, जर्मनी की युवा पीढ़ी को भारतीय वेदों, ग्रंथों, चौपाइयों, दोहों इत्यादि के जरिये इसका विस्तृत परिचय देते हैं। उनका मानना है कि हिंदी के एक-एक शब्द का उच्चारण जुबान के लिए योग जैसा है। प्रसिद्ध कथाकार शैलेश मटियानी ने 25 साल पहले लिखी अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रभाषा का सवाल’ में सवाल उठाया था कि 14 सितंबर को ही हिंदी दिवस क्यों मनाया जाता है? उन्होंने 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाने को शर्मनाक पाखंड करार दिया था।
वैज्ञानिक और सॉफ्टवेयर कंपनियों के कई मुखिया भी इस बात को बेहिचक मानते हैं कि डिजिटल भारत का सपना तभी पूरा हो पाएगा, जब हिंदी को सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अनिवार्य किया जाएगा। एक आंकड़ा बताता है कि केंद्र और राज्य सरकारों की 9 हजार के लगभग वेबसाइट्स हैं जो पहले अंग्रेजी में खुलती हैं। यही हाल हिंदी में कंप्यूटर टाइपिंग का है। चीन, रूस, जापान, फ्रांस सहित दूसरे देश कंप्यूटर पर अपनी भाषा में काम करते हैं, लेकिन भारत में हिंदी मुद्रण के ही कई फॉन्ट्स प्रचलित हैं। इनसे परेशानी यह कि अगर वही फॉन्ट दूसरे कंप्यूटर में नहीं हों तो खुलते नहीं हैं, विवशत: हिंदी मुद्रण के कई फॉन्ट्स कंप्यूटर पर सहेजने पड़ते हैं।

14 सितंबर, हिंदी दिवस : क्या कहते हैं प्रो. रविन्द्रनाथ श्रीवास्तव

राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया के संदर्भ में भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका की बात को आज समाजशास्त्री और भाषा वैज्ञानिक समान रूप से स्वीकार करने लगे हैं। यह बात इसलिए भी महत्व की है कि भाषा अगर एक ओर राष्ट्रीय एकीकरण का महत्वपूर्ण उपादान बन सकती है तो वहीं दूसरी ओर वह समाज में तनाव द्वंद, विद्वेष और विघटन की प्रवृत्ति को भी जन्म दे सकती है। अतः यह आवश्यक है कि भाषा की इस दुहरी संभावना को हम सजग भाव से समझें और एक ऐसी भाषा नीति को अपनाएं जो देश के आर्थिक और सामाजिक विकास में सहायक हो, हमारी बहुभाषिक यर्थाथता के अनुकूल हो और जो राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया में साधक हो। इधर हाल में अंग्रेजी में प्रकाशित दो लेख सामने आए हैं जिनमें इस समस्या को उठाने का प्रयास किया गया है पर भारत की भाषायी समस्या की पकड़ ढीली होने के कारण जो निष्कर्ष उनमें निकाले गये हैं वे न केवल भ्रांतिपूर्ण हैं बल्कि घातक भी हैं।। इनमें पहला लेख सुनंदा सान्याल का ‘इज़ लेंग्वेज युनाइट पीपुल?’ (1981) है और दूसरा कुलदीप नैयर का है ‘ए गवर्नमेंट शुड नाॅट ग्लोरीफाइ ए लैंग्वेज’ (1982)। इन दानों लेखों की पृष्ठ भूमि में राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया के संदर्भ में हिन्दी अंग्रेजी की भूमिका का प्रश्न रहा है। दोनों ही लेखों की ध्वनि यह रही है कि आज हम हिन्दी को जरूरत से ज्यादा महत्व दे रहे हैं और सरकार द्वारा हिन्दी को दिया जाने वाला समर्थन देश के हित में नहीं है। अपने पक्ष में इन दोनों सिद्धांतों ने कुछ निराले तर्क दिये हैं, जिसकी छानबीन आज आवश्यक है क्योंकि ये ही तर्क प्रायः हमें अन्य व्यक्तियों द्वारा भी सुनने को मिलते रहते हैं।
 सुनंदा सान्याल का यह मत है कि हिन्दी की अपेक्षा अंग्रेजी भाषा सामाजिक नियंत्रण के कहीं अधिक अवसर प्रदान कर सकती है। और यही कारण है कि आज कोई भी व्यक्ति आने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ानें के लिए बेहिसाब खर्च करने में संकोच नहीं करता। उनके मत में अंग्रेजी भी भारत के लिए उसी प्रकार स्वभाषा है जिस प्रकार हिन्दी, अहिन्दी-भाषिओं के लिए। मिसाल के तौर किसी तेलुगु या तमिल भाषी के लिए अगर अंग्रेज़ी परायी भाषा है तो हिन्दी भी उसकी अपनी भाषा नहीं है। यह एक साफ और सीधी बात है। यह कहना केवल एक वाक्छल ही है कि भारतीय भाषा होने के नाते हिन्दी पर अधिकार प्राप्त कर लेना अंग्रेजी के मुकाबले अधिक आसान होना चाहिए। इस तर्क में कोई बल नहीं है। कुलदीप नैयर यह तो स्वीकार करते हैं कि भारत में हिन्दी बोलने और समझने वालों की संख्या अन्य भाषाभाषियों की तुलना में सबसे अधिक है और लोकतन्त्र में संख्या को महत्व देना ही चाहिए। अतः हिन्दी को अन्ततः राजभाषा बनना ही है। लेकिन उनके अनुसार तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन को सफल बनाने की योजना वस्तुतः आग से खेलने जैसा है क्योंकि इससे भाषायी द्वेष बढ़ने की संभावना है। उनके अनुसार न तो हिन्दी के प्रगामी प्रयोग की दृष्टि से सरकार को कोई कदम उठाना चाहिए और न ही भाषा को नियोजित करने के लिए प्रयत्न। हमें तो उस दिन की मात्र प्रतीक्षा करनी चाहिए जब दक्षिण के अहिन्दी भाषी प्रदेश स्वतः हिन्दी की स्वीकृति की घोषणा कर दें।
 ऐसा लगता है कि कुलदीप नैयर ‘भाषा नियोजन’ की संकल्पना एवं प्रक्रिया से पूरी तरह अपरिचित हैं और सुनंदा सान्याल उनसे परिचित हैं लेकिन भारत की भाषायी यर्थाथता को जानबूझकर नकारना चाहती हैं उनकी चिंता उस भाषा की खोज और स्थापना की तरफ सिमटी है जो या तो विशाल सभा पर प्रभुत्व रख सके या जो सामाजिक नियंत्रण का साधन और शस्त्र बन सके। संप्रेष्णीयता, संचार और एकीकरण की प्रक्रिया आदि को भाषा नियोजन का लक्ष्य बनाने की अपेक्षा वे राज्यों के लिए प्रभुता संपन्न भाषा की बात उठाते हैं और अंग्रेजी को उसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त मानते हैं।
अंग्रेजी बनाम हिन्दी और हिन्दी बनाम अन्य क्षेत्रीय भाषाओं पर विचार करते समय हम प्रायः यह बात भूल जाते हैं कि अंग्रेजी को मात्रभाषा के रूप में ग्रहण करने वालों की संख्या नहीं के बराबर है। 1971 की जनगणना के अनुसार भारत की पूरी आबादी 548,195,652 है पर अंग्रेजी को मातृभाषा के रूप में घोषित करने वालों की संख्या मात्र 191,595 है। इसके अतिरिक्त हिन्दी को मातृभाषा के रूप में स्वीकार करने वालों की संख्या 208,514005 है। हिन्दी कम से कम 6 राज्यों और 2 संघीय प्रदेशों की प्रमुख भाषा है, यथा राजस्थान (91.73 प्रतिशत), हरियाणा (89.42 प्रतिशत), उत्तर प्रदेश (88.54 प्रतिशत), बिहार (79.77), दिल्ली (75.97 प्रतिशत) और चंडीगढ़ (55.96 प्रतिशत)। हिन्दी भाषी प्रदेशों मुख्यमंत्री अगर अपने क्षेत्रों में भाषा और संप्रषण की समस्या, उसके मानकीकरण और आधुनिकीकरण की प्रक्रिया तथा अन्य भाषाओं के साथ उसके सम्बंध के बारे में विचार करने के लिए किसी समय मिलते हैं तब कुलदीप नैयर ऐसे विद्वान चिंतित क्यों हो उठते हैं ? क्या उन्हें यह भय है कि बहुसंख्यक होने के बावजूद हिन्दी, जो अब तक प्रभुता-संपन्न अंग्रेजी के नीचे दबी सिसक रही थी, अपना नया व्यक्तित्व ग्रहण कर लेगी ?
इस तथ्य की ओर भी ध्यान देना होगा किसी भाषा का अपना अखिल भारतीय रूप क्या है? संख्या की दृष्टि से हिन्दी पंजाब (20.01 प्रतिशत), पश्चिम बंगाल (6.13 प्रतिशत), अंडमान निकोबार (16.07 प्रतिशत) में दूसरी प्रमुख भाषा के रूप में है और कम से कम पांच प्रदेशों में तीसरे स्थान पर है, यथा जम्मू-कश्मीर (15.07 प्रतिशत), असम (5.34 प्रतिशत), महाराष्ट्र (5.02 प्रतिशत), आंध्र प्रदेश (2.28 प्रतिशत) एवं त्रिपुरा (1.48 प्रतिशत)। अंग्रेजी की शक्ति भारत में द्वितीय भाषा के रूप में है, यद्यपि उसके मात्रभाषियों की संख्या नगण्य है। पर भारत के द्विभाषिक समुदाय के 25.7 प्रतिशत लोग अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं। इस दृष्टि से हिन्दी पिछड़ी भाषा नहीं है क्योंकि द्वितीय भाषा के रूप में इसको अपनाने वालों की संख्या 26.8 प्रतिशत है। इस संदर्भ में हमें अंग्रेजी और हिन्दी के आधार पर जन्मी द्विभाषिकता की प्रकृति पर भी ध्यान देना चाहिए जिसकी ओर सुनंदा सान्याल पूरी तरह बेखबर हैं (भले ही वह समाजभाषा वैज्ञानिकों के मत से अपनी बात को पुष्ट करना चाहते हैं) हिन्दी, प्रमुखतः आधारभूत द्विभाषिकता, सामाजिक संप्रेषण व्यवस्था के उस स्तर से संबंध रखती है जो जन जीवन की अपनी दैनिक आवश्यकताओं का परिणाम होता है। इस टाइप की द्विभाषिकता की जननी सामाजिक आवश्यकताओं का वह स्तर है जो न किसी औपचारिक भाषा शिक्षण की अपेक्षा रखता है और न ही किसी लिखित भाषा या साहित्यिक मानदंड का। हम इस अन्तर्राज्यीय बस अड्डों, रेलवे प्लेटफार्मों, विभिन्न धार्मिक स्थलो आदि पर समान व्यवहार की भाषा के रूप में फलते फूलते देख सकते हैं। इसके विपरीत अंग्रेजी जिस संभ्रात टाइप की द्विभाषिकता को जन्म देती है, वह दो भाषाओं के मानक रूप की अपेक्षा रखती है। यह बहुत कुछ औपचारिक परिस्थितियों के बीच दूसरी भाषा के सीखने का परिणाम होती है। स्पष्ट है हिन्दी की शक्ति, भारतीय जनजीवन की अपनी आवश्यकता और सामान्य जीवन की संप्रेषण संबंधी अनिवार्यता के साथ है जब कि अंग्रेजी की शक्ति (?) बौद्धिक चिंतन और संभ्रांत व्यक्तियों के लिए ‘प्रभुता’ स्थापन में निहित है।
यह भी ध्यान देने की बात है कि भारत एक बहुभाषीय देश है। इसीलिए राजभाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में इसकी भाषायी समस्या जटिल रूप में हमारे सामने उभरती है। प्रायः हम इन दोनों भाषा प्रकार्यों के अंतर को पकड़ नहीं पाते इसलिए यह आवश्यक है कि हम संक्षेप में बहुभाषी देशों के संदर्भ में राजभाषा बनाम राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर विचार कर लें।
बहुभाषी देश की संप्रेषण व्यवस्था अनिवार्यतः संपर्क भाषा अर्थात बृहत्तर परिणाम पर ‘लिंगुआ फ्रैंका’ को जन्म देती है। राष्ट्रीय संदर्भ में कभी इसका रूप राजभाषा को जन्म देता है और कभी राष्ट्रभाषा को। राजभाषा का संबंध राष्ट्रवादिता (नेशनेलिज़्म) से रहता है, वह राष्ट्र को राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से एक सूत्रता में बांधने के काम में आने वाली प्रशासनिक प्रयोजनों की भाषा होती है। इसके लिए यह जरूरी नहीं है कि वह भाषा अपने देश की ही हो। राष्ट्रभाषा का संबंध राष्ट्रीयता (नेशनेलिज़म) से रहता है, उसके पीछे जातीय प्रमाणिकता और ‘ग्रेट ट्रेडिशन’ की शक्ति काम करती है और उसके सहारे समाज राष्ट्र के स्तर पर समाज और संस्कृति के संदर्भ में तादातम्य स्थापित करता है और अपनी सामाजिक अस्मिता सिद्ध करता है।[1] प्रत्येक देश राष्ट्रीयता और राष्ट्रवादिता के द्वंद का समधान अपने ढंग से करता है। उदाहरण के लिए, घाना और गौंबिया ने राष्ट्रवादिता की प्रवृत्ति से प्रेरित होकर उस भाषा को देश की लिंगुआ फ्रैंका का स्तर दिया जो स्वतंत्रतापूर्वक शासकों (विदेशियों) की भाषा थी। इज़रायल, थाइलैंड, सोमालिया, इथोपिया आदि देशों ने राष्ट्रीयता से अनुप्राणित होकर अंतरक्षेत्रीय स्तर पर फैली अपनी देश की लिंगुआ फ्रैंका को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया। पर भारत, श्रीलंका, मलेशिया आदि ऐसे देशों के सामने सामस्या जटिल थी क्योंकि परंपरा अर्जित और संस्कृति-समर्थित इसमें कई समुन्नत भाषाएं राष्ट्रभाषा की दावेदार बनकर आईं। इन देशों ने अपना दूसरा ही रास्ता अपनाया।
यह ध्यान देने की बात है कि यद्यपि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार ‘संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी’ होगी’ पर उसी अनुच्छेद के खंड 2 के अनुसार संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की कालावधि के लिए उन सब राजकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए वह पहले से ही प्रयोग की जाती थी। ऐसा बताया जाता है कि अंग्रेजी के स्थान पर प्रशासनिक व्यवहार क्षेत्र में तत्काल प्रयोग में लाने के लिए हिन्दी भाषा को न तो समर्थ माना गया और न ही उतनी विकसित। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि इस एकाएक परिवर्तन से अहिन्दी भाषिओं को काफ़ी असुविधा होगी जिससे प्रशासन तंत्र मे काफ़ी लंबी दरार पड़ जाएगी। इन सब बातों को ध्यान में रखकर यह व्यवस्था की गई कि 1965 तक स्थिति यथावत् बनी रहे ताकि एक तरफ हिन्दी को समृद्ध कर उसे प्रशासनिक प्रयोजनों की समर्थ भाषा भी बना लिया जाए और अहिन्दी भाषिओं को इतना समय भी मिल जाए कि वे अन्य भाषा के रूप में हिन्दी में व्यवहारिक दक्षता प्राप्त कर लें।
संविधान के अनुच्छेद 344 (2) के अनुसार राष्ट्रपति को यह अधिकार प्राप्त है कि ‘संघ के राजकीय प्रयोजनो के लिए हिन्दी भाषा के उत्तरोत्तर अधिक प्रयोग’ और ‘संघ के राजकीय प्रयोजनों में से सब या किसी एक के लिए अंग्रेजी भाषा के प्रयोग पर निर्वंधन (रिस्ट्रिकश्न)’ के लिए आयोग संसदीय समिति का गठन करे। इस आधार पर सन 1955 में एक राजभाषा आयोग और उसकी सिफारिश पर विचार करने के लिए सन 1957 में एक संसदीय समिति का गठन किया गया। पूरी वस्तुस्थिति और सामाजिक वातावरण को ध्यान में रखते हुए सन 1965 में आयोग और संसदीय समिति ने यह सिफारिश की कि अंग्रेजी का प्रयोग अभी भी यथावत् बना रहे और हिन्दी की समृद्धि और विकास में और गति लाने के लिए सरकार प्रयत्न करे। इन सिफारिशों को व्यवहारिक रूप से लागू करने के लिए संसद ने 1963 में एक राजभाषा अधिनियम पारित किया। इस राजभाषा अधिनियम की धारा 3 के अनुसार उन सभी प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी के प्रयोग की बात कही गई जिनमें वह प्रयुक्त होती आई थी। चार वर्ष बाद सन 1967 में राजभाषा (संशोधन) अधिनियम पारित हुआ। इस संशोधित अधिनियम के अनुसार यह छूट दी गई कि सरकारी कर्मचारी हिन्दी या अंग्रेजी में काम कर सकता है। जो क्षेत्र द्विभाषिकता के लिए अनिवार्य माने गये (जिनमें हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं के प्रयोग को अनिवार्य माना गया है) वे हैं - 
(क) संकल्प, सामान्य आदेश, नियम, अधिसूचना, तथा प्रेम विज्ञप्ति 
(ख) संसदीय रिपोर्ट तथा सरकारी कागज पत्र और
(ग) संविदा, करारनामा, लाइसेंस, परमिट, टेंडर, नोटिस, और सरकारी फार्म।
राजभाषा संशोधन अधिनियम ने हिन्दी-अंग्रेजी द्विभाषिक स्थिति की ही पुष्टि की है। इस अधिनियम ने यह भी निर्धारित किया है कि केंद्र सरकार के जितने भी कार्यालय व मंत्रालय हैं वे आपस में हिन्दी भाषा में पत्राचार कर सकते हैं लेकिन उनके अंग्रेजी का अनुवाद तब तक संलग्न कर भेजा जाए जब तक संबद्ध मंत्रालय या कार्यालय के अधिकारी हिन्दी की व्यवहारिक दक्षता प्राप्त नहीं कर लेते। संविधान के अनुच्छेद 347 के अनुसार एक राज्य तथा दूसरे राज्य तथा किसी राज्य और भारत संघ के बीच संप्रषण माध्यम के लिए वह भाषा, राजभाषा के रूप में व्यवहार में लाई जाएगी जो संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए उस समय प्राधिकृत भाषा होगी। लेकिन इसके साथ उसी अनुच्छेद में यह भी कहा गया है कि यदि दो या अधिक राज्य इस बात का करार करते हैं कि ऐसे राज्यों के बीच परस्पर संप्रेषण व्यवस्था के लिए भाषा हिन्दी होगी तो संप्रेषण में लिए हिन्दी भाषा का प्रयोग किया जा सकेगा। सन 1967 के राजभाषा संशोधन अधिनियम में यह व्यवस्था की गई कि केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों के बीच पत्र व्यवहार अंग्रेजी में तब चलता रहेगा जब तक अहिन्दी भाषी राज्य हिन्दी में पत्र व्यवहार करने के लिए स्वयं निर्णय नहीं ले लेते। ऐसी स्थिति में अगर एक राज्य दूसरे राज्य के साथ हिन्दी में पत्राचार करता है तो उसके साथ अंग्रेजी अनुवाद की प्रति भेजना आवश्यक है।
राजभाषा संशोधन अधिनियम नें द्विभाषिक प्रक्रिया को बढ़ावा ही दिया। यह गौर करने की बात है कि स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी तथा मान्य कांग्रेसी नेता (महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, मदनमोहन मालवीय आदि) सभी यह मानते रहे कि भारतवर्ष की राजभाषा के लिए यदि कोई भाष सर्वाधिक उपयुक्त है तो वह एकमात्र हिन्दी ही है। महात्मा गांधी ने तो दूसरे गुजरात शिक्षा सम्मेलन के सभापति पद से बोलते हुए 1917 में यह कहा था कि राष्ट्रीय भाषा वही हो सकती है जो सरकारी कर्मचारियों के लिए सहज और सुगम हो, जो धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र मे माध्यम भाषा बनने की शक्ति रखती हो जिसको बोलने वाले बहुसंख्यक हों और जो पूरे देश के लिए सहज रूप से उपलब्ध हो अंग्रेजी किसी भी तरह इस कसौटी पर खरी नहीं उतरती। उनके अनुसार हिन्दी ही एकमात्र वह भाषा थी जो उनके द्वारा निर्धारित आवश्यकताओं को पूरा करती थी जहां तक हिन्दी भाषा की व्यापकता और व्यवहार शक्ति की क्षमता का सवाल है गांधी जी के 1917 के भारत की स्थिति यह थी ‘हिन्दी बोलने वाला जहां भी जाता है हिन्दी का प्रयोग करता है और कोई व्यक्ति इस पर आश्चर्य व्यक्त नहीं करता। हिन्दी बोलने वाले हिन्दू धर्मोपदेश और उर्दू बोलने वाले मौलवी संपूर्ण भारतवर्ष में धर्म और आचरण संबंधी अपने भाषण हिन्दी या उर्दू में देते पाये जाते हैं। औरों की बात तो दूर यहां तक कि अशिक्षित बहुसमाज भी उन्हें समझ लेता है। यह भी स्थिति है कि जब एक अशिक्षित गुजराती उत्तर भारत में आता है तो वह टूठी फूटी हिन्दी बोलने की कोशिश करता पाया जाता है पर जब उत्तर भारत का कोई भइया बंबई में दरबान का काम करता है, वह बंबई के सेठों से गुजराती में बात करने से इंकार कर देता है और ये उनके मालिक गुजराती सेठ हैं जो टूटी फूटी हिन्दी भाषा में उनसे बात करते पाए जाते हैं। गांधी जी के अनुसार यह कहना गलत है कि मद्रास में भी बिना अंग्रेजी के काम नहीं चलाया जा सकता। उन्होंने हिन्दी के सहारे मद्रास में भी सफलतापूर्वक अपना काम चलाया।
गांधी जी या अन्य कांग्रेसी नेताओं ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दिलाए जाने की कोेशिश की। राष्ट्रभाषा यदि राष्ट्रीयता की भावना के सूचक रूप में सिद्ध होती है तब उसके दो लक्षण आपस में गुँधे रूप में मिलते हैं भीतरी तौर पर देश को एकताबद्ध करने की प्रवृत्ति और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बाह्य रूप में देश को विशिष्ट सिद्ध करने की प्रवृत्ति। हाॅगन (1966) किसी भी अन्य इकाई की तरह राष्ट्रभाषा का भी काम आभ्यंतर अंतर और और विभेद को कम करना ओर बाह्य अंतर और विभेद को उभारना होता है। इसका आदर्श होता है अभ्यांतर एकता और बाह्य विशिष्टता। आभ्यंतर एकता के लिए अगर बहुभाषी देशों में यह आवश्यक हो जाता है कि मातृभाषा के साथ ही एक अन्य भाषा ‘लिंगुआ फ्रैंका’ के रूप में उभरे तो बाह्य विशिष्टता के लिए यह भी जरूरी है कि ‘लिंगुआ फ्रैंका’ के रूप में राजभाषा का दर्जा पाने वाली भाषा स्वदेशी हो।
अभ्यांतर एकता और बाह्य विशिष्टता के रूप में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने का प्रयत्न स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले भी होता रहा और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का यह कहना था कि ‘यह सच है कि कोई भी देश अपनी मातृभाषा के द्वारा ही आगे बढ़ सकता है। हम दूसरी भाषा सीख सकते हैं, बोल सकते हैं, लेकिन नये विचार उससे पैदा नहीं होेते। नए विचार केवल अपनी मातृभाषा के द्वारा ही निकल सकते हैं। इसलिए हमें भारत की सभी भाषाओं को आगे बढ़ाना है, प्रोत्साहन देना है और हिन्दी का तो एक विशेष स्थान है ही। हम चाहते हैं कि जल्दी से जल्दी भारत के सभी लोग अगर हिन्दी न बोल सके तो कम से कम समझ तो सके मैं समझतीं हूं, यह काम आगे बढ़ रहा है। इतने बढ़े देश में, जहां इतनी भाषाएं हैं वहां देश की एकता के लिए आवश्यक है कि कोई भाषा ऐसी हो, जिसे सब बोल सके, जो एक कड़ी की तरह सबको मिला जुला कर रख सके। इसीलिए हिन्दी को बढ़ाना हम सब का काम है’।
यह गौर करने की बात है कि स्वतंत्रता पूर्व के सभी प्रयत्न राष्ट्रभाषा के लिए थे जो भाषा (हिन्दी) के माध्यम से देश को एकताबद्ध कर उसे अंतर्राष्ट्रीय नक्शे पर एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में स्थापित करे के लिए थे। इसके भीतर अखिल भारतीय प्रशासनिक प्रयोजनों के लिए सिद्ध भाषा प्राकार्य भी थे और संपूर्ण भूभाग की सांस्कृतिक एकता को एक ही सूत्र में आबद्ध करने वाले तत्व भी समाहित थे। पर भारतीय संविधान ने भाषा के संदर्भ में एकसूत्रता की कल्पना को केवल प्रशासनिक प्रयोजनों तक सीमित कर राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के विकास को संघ की राजभाषा मात्र तक सीमित कर दिया। भारतीय संविधान में जहां भी अखिल अखिल भारतीय स्तर पर संघ की भाषा के रूप में हिन्दी की बात की गई है उसे राजभाषा ही घोषित किया गया है। सच तो यह है कि हिन्दी के रूप में सिद्ध आभ्यांतर एकता और बाह्य विशिष्टता की राष्ट्रीय चेतना पर स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही दुहरा दबाव पड़ा जिसके प्रभाव से भारतीय संविधान के भाषा संबंधी अधिकनियम भी सर्वथा मुक्त नहीं कहे जा सकते।
यह तथ्य भाषा की अन्तर्निहित संकल्पना के भीतर है कि भाषा अपने भाषायी समाज के सदस्यों के भीतर सामाजिक अस्मिता की भावना को प्रश्रय देती है। हर भाषा न केवल विभिन्न बोलियों को अपने भीतर समेट कर एक समग्र इकाई के रूप में उभरती है वरन् मात्रभाषा के रूप में बोलियों को स्वीकृति देते हुए भी सामाजिक धरातल पर उनके बोलने वालों के बीच न केवल संपर्क साधन का काम करती है वरन् उनके भीतर तादात्म्य भाव पैदा कर एक समाज के सदस्य होने की धारणा को चेतनाबद्ध करती है। सामाजिक स्तर पर एक होने की यह चेतनाबद्ध धारणा भी ‘आभ्यंतर एकता अर्थात विभिन्न बोली भेद (अवधी, ब्रज, भोजपुरी, राजस्थानी आदि) के बावजूद भी एकभाषी (हिन्दी) होने की धारणा और बाह्य विशिष्टता अर्थात एक ही भूभाग की अन्य भाषाओं (तमिल, बंगला, गुजराती आदि) से भिन्न सिद्ध करने की प्रवृत्ति। बाह्य विशिष्टता जनपदीय उन समूहगत लक्षणों को उभारने का प्रयत्न करती है जो स्थानीय संस्कृति और साहित्य के धरोहर होते हैं और जो उस भाषायी समाज की सुख समृद्धि की संकल्पना को साकर करने में सहायक होते हैं। इसीलिए जब प्रशासन की सुविधा के लिए भारत को विभिन्न जनपदीय प्रदेशों के रूप में पुनर्गठित कने का प्रयास हुआ तब उसके इस भाषायी आधार की उपेक्षा न की जा सकी। प्रदेशों का भाषायी आधार क्या रहा है उसके बारे में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। हां, यह तथ्य अवश्य हमारे सामने है कि वे सभी प्रदेश बहुभाषी हैं। पर प्रदेशों के गठन और सीमा निर्धारण के समय ‘डामिनेंट’ भाषा की संकल्पना से हम कभी अपने को मुक्त नहीं कर सके हैं। यही कारण है कि जब किसी विकसित चेतना वाले भाषायी समाज को गौण स्थान मिला है और डामिनेंट भाषा का भाषायी समाज उसके प्रगति मे बाधक हुआ है। भाषायी दंगे का वीभत्स रूप भी सामने उभरा है।
संविधान की अष्टम अनुसूची में इस प्रकार आज 15 मान्य प्रादेशिक भाषाएं हैं। जिनमें से अधिकांश भाषायी समाज की अस्मिता की साधक हैं और बाह्य विशिष्टता के रूप में अपने स्वतंत्र अस्तित्व की आकांक्षी हैं। इतिहास की जनपदीय सह-अनुभूतियां ओर साहित्य की भाषाबद्ध चेतना उनकी आकांक्षाओं में अपना रंग भरती है। स्थानीय सुख समृद्धि की लालसा और क्षेत्रीय स्तर पर आर्थिक सुरक्षा की भावना उनकी अपन अस्मिता में प्राण फूंकती है। इसलिए जब कभी भी अखिल भारतीय स्तर पर राष्ट्रीय भाषा के रूप में किसी एक भाषा (भले ही बृहत्तर भागों में समझी जाने वाली और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के समय सर्वाधिक प्रयोग में आने वाली हिन्दी भाषा ही क्यों न हो) को मान्यता देने की बात उठी है, अन्य भाषायी समाज ने इस शंकालुभाव से देखा है। कहीं इससे उनके भाषायी समाज की विशिष्टता खंडित तो नही हो रही ? कहीं इसके परिणाम स्वरूप उनके समाज से आर्थिक विकास का रास्ता अवरुद्ध तो नही हो रहा ? कहीं कोई और भाषायी समाज बढ़कर उनकी जातीय चेतना की हीन सिद्ध तो नहीं कर रहा है ? दूसरी भावना यह भी सामने उभरी है कि भारत अगर एक राष्ट्र है तो जिस प्रकार ‘हिन्दी भाषायी समाज’ उसका एक अंग है, उसी प्रकार हम भी उसके एक अंग हैं, फिर एक अंग की भाषा पूरे राष्ट्र का प्रतीक बन ‘राष्ट्रभाषा’ कैसे और क्यों न बने ? यह भी तर्क उभारा गया है कि जिस प्रकार किसी राष्ट्र के लिए यह आवश्यक नही है कि उसके सभी सदस्य एक धर्म के मानने वाले हों, उनके खान पान, रीति-रिवाज और आचरण विचार रूढि़यां एक हों, इसी प्रकार उसके लिए यह भी जरूरी नहीं कि उसके लिए एक ही राष्ट्रभाषा (भाषा नहीं ?) हो। पर यह भी सच है कि भाषाओं की इस भिन्नता और सामाजिक अस्मिताओं के भेद के बावजूद यह हमेशा अनुभव किया जाता रहा है कि अलग अलग भाषाओं के बीच कड़ी के रूप में कोई भाषा अवश्य होनी चाहिए। प्रशासन की सुविधा और अखिल भारतीय स्तर पर संप्रेषण व्यवस्था के लिए एक संपर्क भाषा देश की नियति है। इसलिए हिन्दी को एकनिष्ठ ‘राष्ट्रभाषा’ के रूप में मान्यता देने के पक्ष के समर्थक भी अधिकांशतः उसे प्रशासनिक प्रयोजनों के लिए सिद्ध ‘राजभाषा’ का दर्जा देने के लिए सहमत हो गये।
लेकिन इसके साथ पाश्चात्य शिक्षा के वातावरण में पला और स्वतंत्रता पूर्व की विदेशी प्रशासन व्यवस्था का संस्कारग्रस्त व्यक्तियों का एक ऐसा वर्ग भी है जो राष्ट्रभाषा या राजभाषा की समस्या को हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं के संबंधों में न ढूंढकर हिन्दी और अंग्रेजी की प्रतिद्वद्विता के रूप में उभारना चाहता है। उनके तरकश के तीर रहे है अंतर्राष्ट्रीय संबंध, वैज्ञानिक उपलब्धियां, आर्थिक विकास, विकसित भाषा रूप आदि। इनके साथ उनका यह भी कहना है कि राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से राष्ट्र को एक होने के लिए यह जरूरी नहीं कि उसकी राजभाषा, उस देश की ही कोई भाषा है। आखिर स्विट्जरलैंड में तीन राजभाषाएं हैं और उनमें से कोई भी उस देश की नहीं है। इसी प्रकार बेल्जियम की स्वीकृत दानों राजभाषाओं में से दोनों ही तो उस देश की अपनी भाषाएं नहीं हैं और मान भी लें कि राजभाषा, उसी देश के बोलने वालों की कोई भाषा हो, तो अंग्रेजी भाषा को अब भारत की एक भाषा के रूप में ही मान लेना चाहिए क्योंकि एक ओर तो अखिल भारतीय स्तर पर प्रशासन के लिए यह पहले से ही सिद्ध भाषा है और दूसरी ओर यह भारतवर्ष के पूरे बुद्धिजीवी वर्ग की वह भाषा है जिसके माध्यम से वह आधुनिकतम ज्ञान ग्रहण और अभिव्यक्त करती है (ये सभी तर्क समस्या के एक आंशिक पक्ष को उभारते हैं और सोंचने समझने की एक भ्रामक दिशा के परिणाम है।) यह अन्यत्र[3] दिखलाया जा चुका है। यहां इतना कहना ही अलग होगा कि ये सभी तर्क उच्च शिक्षा प्राप्त कर एक बहुत ही सीमित वर्ग की अधिकार रक्षा और प्रभुता शक्ति को अपने स्वार्थ हितों तक बांध रखने की भावना से मूलतः प्रेरित हैं। शासन तंत्र का प्रसार कर अगर उसमें जनता के अधिक से अधिक सहयोग लेने और उससे संबंध स्थापित करने की बात लोकतन्त्र की ध्वनि में है तो किसी ऐसी ही भाषा को राजभाषा के पद पर उठाना होगा जिसके बोलन समझने वाले सबसे अधिक हों और जिसका प्रचार और प्रसार बहुआयामी हो। आज की स्थिति में वह हिन्दी भाषा ही है। पर इसके साथ यह भी सच है कि उच्च शिक्षा प्राप्त यह अधिकारी वर्ग ही भारतीय प्रशासन की धुरी बना बैठा है और मात्र हिन्दी को राजभाषा का माध्यम बनाने से अगर किसी के हितों पर सबसे करारी चोट पड़ेगी तो वह यही वर्ग होगा। शासनतंत्र की व्यवहारिक सुविधा के लिए ही मूूलतः हिन्दी अंग्रेजी की द्विभाषिक स्थिति संवैधानिक आवाज की विडंबना के रूप में सुनी जा रही है।
राजभाषा (प्रशासनिक प्रयोजनों की भाषा) और राष्ट्रभाषा (सांस्कृतिक अस्मिता की भाषा) के बीच के यर्थाथ साधनों के रूप में हिंडोलें लेती हिन्दी की नियति की यही आवाज संविधान के अनुच्छेद 351 में मिलती है जहां उसकी भारत की सामासिक संस्कृति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति के माध्यम बनाने की बात की गई पर जिसको औपचारिक दृष्टि से केवल राजभाषा के दायित्व और सूचक तत्व के रूप में मान्यता दी गईं हैं।
जैसा पहले संकेत दिया जा चुका है, फिशमैन (1971) ने इस नीति निर्णय के आधार पर कि किस भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित किया जाए राष्ट्रों को तीन वर्गों में विभाजित किया है। उनके अनुसार क-टाइप के निर्णय लेने वाले राष्ट्रों का वर्ग है जो जातीय प्रमाणिकता और ‘ग्रेट ट्रेडिशन’ की शक्ति के दबाव से मुक्त होकर अपने देश को एक सूत्रता में बांधने की ओर प्रवृत्ति हैं। इस वर्ग में उनके बुद्धजीवियों की आवाज़ सुनी जाती है जो ‘आधुनिकता’ से प्रभावित होकर अपने देश को समुन्नत करना चाहते हैं। इसके विपरीत ख-टाइप के निर्णय लेने वाले राष्ट्रों का वर्ग अपने चिंतन के पीछे हमेशा जातीय प्रामाणिकता और ‘ग्रेट ट्रेडिशन’ का दबाव महसूस करता है। यह वर्ग इस विचार से प्रेरित रहता है कि सामाजिक एकता और जातीय सामांजस्य की भावना को जाग्रत करने के लिए कोई एक स्वदेशी भाषा ही राष्ट्रभाषा की दावेदार बना सकती है। ग-टाइप के निर्णय लेने वाले राष्ट्रों की चिंतन प्रक्रिया जटिल होती है। ऐसे राष्ट्र यह मान कर चलते है कि क्षेत्रीयता की स्थानिक प्रवृत्ति से प्रेरित सामाजिक वर्ग का युग बीत गया और उससे ऊपर उठने का अर्थ ही होता है द्विभाषिक बनना। इस दृष्टि से द्विभाषिकता की स्थिति आज सामान्य व्यक्ति की ही नियति नहीं है अपितु यह स्थिति पूरे राष्ट्र की है। केवल राष्ट्र के धरातल पर सिद्ध प्रादेशिक (क्षेत्रीय) भाषाओं और अंतर क्षेत्रीय संपर्क सूत्र स्थापित करने वाली भाषा के बीच की द्विभाषिकता जरूरी नहीं अपितु देश को आधुनिक बनाने और दुनिया के अन्य देशों से संबंध स्थापित करने के लिए भी यह जरूरी है कि किसी एक विदेशी पाश्चात्य भाषा को स्वीकार कर दुहरी द्विभाषिकता को हम बढ़ावा दें।
निश्चय ही भारतवर्ष अगर किसी वर्ग में रखा जा सकता है, तो वह ‘ग-टाइप’ के निर्णय लेने वाले देशों का वर्ग। पर यहां की स्थिति उतनी सरल नहीं जितनी कि फिशमैंन समझते हैं। राष्ट्रभाषा के चुनाव के पीछे यहां अनेक ऐसी प्रवृत्तियां काम करती रहीं है जिनका आपस में तालमेल बैठाना बहुत सरल न था। कम से कम चार निश्चित धाराएं तो सामने उभर कर आतीं हैं:
(1) राष्ट्रीयतावादी धारा यह मानकर चलती है कि संस्कृत भाषा संस्कृति सभ्यता की ही नहीं वरन् अनेक भारतीय भाषाओं की जननी है जिन भाषाओं इसका पारिवारिक संबंध नहीं भी रहा उसको भी यह प्रभावित करती रही है। जातीय प्रामाणिकता के ऐतिहासिक गौरव स्तंभ के रूप में यह भाषा आधुनिक सभी भारतीय भाषाओं का हृतकंपन है इसलिए एक राष्ट्र और उसके हृतकंपन को मूर्तमान करने वाली राष्ट्रभाषा संस्कृत भाषा के रूप में ही सिद्ध हो सकती है।
(2) अंतर्राष्ट्रीयतावादी धारा यह मानकर चलती है कि राष्ट्र को प्रशासनिक और राजनीतिक दृष्टि से एक तो होना ही है। इसके साथ उसे आर्थिक दृष्टि से समृन्नत और शैक्षिक दृष्टि से सुदृढ़ होने के लिए यह जरूरी है कि वह आधुनिक ज्ञान विज्ञान की उपलब्धियो से परिचित हो। ऐसा तभी संभव है जब हम अधिक विकसित और वैज्ञानिक चिंतन प्रणाली को अधिक क्षमता से व्यक्त करने वाली अंग्रेजी भाषा को स्वीकार करें जो अब तक उच्च शिक्षा की माध्यम भाषा होने के कारण शिक्षित वर्ग के लिए सहज ही उपलब्ध है। इस विचारधारा के अनुसार आज कोरी राष्ट्रीय भावुकता से काम नहीं चल सकता। संपर्क और सहयोग के कारण अब तक विभिन्न राष्ट्रों से समूह के रूप में फैला संसार अब सिमटता जा रहा है और अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों के बिना आज किसी भी राष्ट्र के विकास की संभावना दुःस्वप्न मात्र है। इसके लिए हमें जो राष्ट्रभाषा चुननी है उसको एक आयाम पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर को भी छूने की शक्ति रखनी चाहिए।
(3) क्षेत्रीय धारा वाले राष्ट्र का राजनीतिक इकाई मानते हैं और उसे इकाई मानते हुए भी अपनी प्रादेशिकता सत्ता और क्षेत्रीय अधिकारों के प्रति सजग और सतर्क हैं, उनके अनुसार जिस प्रकार भारतवर्ष अनेक धर्मों और अनेेक प्रजातियों का देश है उसी प्रकार वह ऐसा बहुभाषायी देश भी जहां अनेक भाषाएं अपनी साहित्यिक और सांस्कृतिक संपदा के साथ फल फूल रहीं हैं। इन सभी को अपनी सार्थकता है, अपने संदर्भ हैं और ये सभी राष्ट्रीय चेतना के सिद्ध रूप हैं। इनमें से किसी एक को राष्ट्रपद पर बैठाने पर अन्य सभी भाषायी समाजों के अपने विकास का रास्ता सापेक्षतया कठिन हो जाएगा। भारतवर्ष ऐसे लोकतांत्रिक देश में ऊपर उठने के लिए सबको समान सुविधा मिलनी चाहिए। इसलिए निष्कर्षतः इस धारा के समर्थक यह मानते पाए जाते हैं कि सभी प्रादेशिक भाषाएं भारत की राष्ट्रीय भाषाएं हैं।
(4) लोकवादी जनतांत्रिक धारा यह मानती है कि भारतवर्ष अनेक प्रदेशों का एक समुच्चय है पर इस समुच्चय की सिद्धि एक संघ के रूप में है। यह संघ ही है जो एक ओर भारत को राजनीतिक इकाई का रूप देता है और दूसरी ओर राज्यों के अंतससंबंधों के बीच कड़ी का काम भी करता है। इसी प्रकार प्रादेशिक भाषाओं की सता और सार्थकता को स्वीकार करती हुई वह उसके बीच कड़ी के रूप में सिद्ध होने वाली एक भाषा की धारणा को बढ़ावा देता है। उसके अनुसार भारत लोकतंत्र के सिद्धांत का प्रबल समर्थक भी है, अतः अखिल भारतीय स्तर पर संपर्क सूत्र के रूप में स्वीकृत वही भाषा हो सकती है जिसके सामाजिक आयाम बहुमुखी और बहुस्तरीय हों, जिसको अन्य भाषा के रूप में बोलने और समझने वालों की संख्या सबसे अधिक हो और जो भारतीय संस्कृति की लोकवादी चिंतन धारा को मूर्तमान करने में सक्षम हो। ऐसी भाषा संप्रति हिन्दी ही है।
भारतीय संविधान में भाषा संबंधी अनुच्छेदों का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि संविधान निर्माता इन चारों प्रवृत्तियों से अपरिचित न थे और उनका प्रयास यही रहा है कि जहां तक हो सके, इन चारों धाराओं के बीच एक सामंजस्य पैदा कर कम से कम भाषायी तनाव की स्थिति पैदा की जाए। लोकवादी और अन्तर्राष्ट्रीयवादी धारा को एक साथ समेटने को कोशिश का यह परिणाम है कि प्राथमिक राजभाषा के रूप में ‘हिन्दी’ और सहयोगी राजभाषा के रूप में अंग्रेजी को संविधान में स्वीकृत पाते हैं। इसी प्रकार क्षेत्रीय धारा के साथ समझौता करने के प्रयत्न को हम इस रूप में पाते हैं कि किसी भाषा को यहां तक कि हिन्दी को भी, राष्ट्रभाषा के नाम से संबोधित या परिभाषित नही किया गया है, और अष्टम अनुसूची में स्वीकृत भाषाओं के रूप में संस्कृत, उर्दू और सिंधी के साथ प्रादशिक (राज्य भाषाओं) भाषाओं का नाम लिखा पाते हैं। इस प्रकार राष्ट्रीयतावादी धारा को इसके साथ मिलाकर रखने की प्रवृत्ति को हम अनुच्छेद 351 में पाते हैं जो हिन्दी भाषा के विकास के लिए निर्देश रूप में यह विचार व्यक्त करता है कि हिन्दी को अष्टम अनुसूची में उल्लिखित अन्य भारतीय भाषाओं के रूप, शैली और पदावली को आत्मसात करते हुए तथा जहां आवश्यक या वांछनीय हो, वहां उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से तथा गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए विकसित किया जाए।