Monday 12 September 2016

14 सितंर हिंदी दिवस : भारतेंदु हरिश्चंद्र/प्रो.मैनेजर पांडेय

हिन्दी नवजागरण से अभिप्राय सन् १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारत के हिन्दी प्रदेशों में आये राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जागरण से है। हिन्दी-नवजागरण की सबसे प्रमुख विशेषता हिन्दी-प्रदेश की जनता में स्वातंत्र्य-चेतना का जागृत होना है। इसका पहला चरण स्वयं १८५७ का विद्रोह था। इसका दूसरा चरण भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से शुरू हुआ और तीसरा चरण महावीर प्रसाद द्विवेदी से शुरू हुआ।
यह मान्‍यता तो बहुत पहले से प्रचलित रही है कि भारतेंदु हरिश्‍चंद्र के उदय के साथ हिंदी में एक नए युग का आरंभ हुआ, किंतु इस नए युग को 'नवजागरण' नाम देने का श्रेय हिंदी में डॉ. रामविलास शर्मा को है। 'महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण' (1977) नामक पुस्‍तक के द्वारा उन्‍होंने 'नवजागरण' की नहीं बल्कि 'हिंदी नवजागरण' की संकल्‍पना प्रस्‍तुत की। इससे पहले भारत में नवजागरण की चर्चा प्राय: 'बंगाल नवजागरण' के रूप में ही होती रही है।
वरिष्ठ आलोचक प्रो. मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं-
हिंदी में राष्ट्रीय स्तर पर जन-जागरण संबंधी सोच और धारणा का इतिहास लंबा है. 1939 ई. में शिवदान सिंह चौहान ने एक निबंध लिखा था – ‘छायावादी कविता में असंतोष भावना’. इस निबंध के आरंभ में उन्होंने लिखा है, “भारत के नवोत्थित पूँजीवाद द्वारा प्रेरित राष्ट्रीय जागरण की प्रथम स्वाभाविक प्रतिक्रिया साहित्य में भारतेन्दु काल से द्विवेदी काल तक की इतिवृत्तात्मक कविता के रूप में व्यक्त हुई. कतिपय राजनीतिक और सामाजिक सुधार ही मुक्ति भावना के चरम लक्ष्य थे. सामाजिक जीवन के संगठन में आमूल परिवर्तनों और उनके अनुकूल ही समाज चेतना के नूतन संस्कार की आवश्यकता का अनुभव अभी तक स्पष्ट रेखाएँ नहीं बना पाया था.’’ (भारत में प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता, संपादित, पृ.42) शिवदान सिंह चैहान के इस कथन में दो बातें ध्यान देने लायक हैं. एक तो यह कि वे राष्ट्रीय जागरण का प्रेरणा स्रोत नवोदित पूँजीवाद को मानते हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि भारत में चूँकि पूँजीवाद का आगमन अंग्रेजी राज के कारण हुआ इसलिए राष्ट्रीय जागरण के मूल में अंग्रेजी राज है. दूसरी बात यह कि चैहान जी राष्ट्रीय जागरण की हिंदी साहित्य में प्रथम अभिव्यक्ति भारतेन्दु युग में देखते हैं, लेकिन वे राष्ट्रीय जागरण से अलग हिंदी नवजागरण की बात नहीं करते. शिवदान सिंह चैहान ने 1952 में एक निबंध लिखा था ‘साहित्य के इतिहास की समस्या’, जिसमें उन्होंने लिखा है, “सभी जानते हैं कि देश की अन्य प्रमुख भाषाओं के आधुनिक साहित्यों की तरह हिंदी का आधुनिक साहित्य भी हमारे राष्ट्रीय जागरण के युग की पैदावार है या कहें कि राष्ट्रीय जागरण ही आधुनिक युग में भारतीय सांस्कृतिक नवजागरण (रिनेसां) की अंतःप्रेरणा बना है.’’ (भारत में प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता, संपादित, पृ.242)
हिंदी साहित्य के आधुनिक युग को नवजागरण युग सबसे पहले राहुल सांकृत्यायन ने कहा था, 1944 ई. में. राहुल जी की पुस्तक ’हिंदी काव्य-धारा’ 1945 में छपी थी. उसकी भूमिका उन्होंने 1944 में लिखी थी. उस भूमिका में राहुल जी ने हिंदी साहित्य के इतिहास का एक नया काल विभाजन किया है, जो इस प्रकार है-पहला सिद्ध-सामंत युग; दूसरा, सूफी-युग; तीसरा, भक्त -युग; चैथा, दरबारी-युग और पाँचवा, नवजागरण-युग. राहुल जी ने हिंदी काव्य-धारा में केवल सिद्ध-सामंत युग के बारे में विस्तार से लिखा है परंतु उन्होंने शेष चार युगों के बारे में कुछ नहीं लिखा. इसलिए नवजागरण से उनका आशय क्या है, यह बहुत स्पष्ट नहीं है. फिर भी यह मानना चाहिए कि वे आधुनिक युग को नवजागरण युग कहने वाले पहले व्यक्ति हैं.
हिंदी में नवजागरण की बात करने वाले एक और आलोचक हैं प्रकाशचन्द्र गुप्त. उनकी एक पुस्तक है-’साहित्य-धारा’, जो 1956 ई. में छपी थी. उसमें एक निबंध है ’हिंदी कविता में नवजागरण’. पुस्तक में इस बात का उल्लेख नहीं है कि यह निबंध पहली बार कब और कहाँ छपा था. इस निबंध में गुप्त जी ने लिखा है, ’’हिंदी में राष्ट्रीय भावना भारतेन्दु युग से मिलती है.’’ इस निबंध में वे यह भी लिखते  हैं कि ’अंग्रेजी शासन के साथ औद्योगिक क्रांति का भारत में प्रवेश हुआ.’ इसका अर्थ यह है कि अंग्रेजी राज के कारण भारत में राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ और राष्ट्रीय जागरण का भी. प्रकाशचन्द्र गुप्त यह भी मानते हैं कि ’’इस नई व्यवस्था के विरुद्ध जो विप्लव सन् सत्तावन में हुआ, उसमें हम भारतीय सामंतों की प्रमुखता पाएँगे. मध्य वर्ग की सत्ता भारतीय राष्ट्र के निर्माण के साथ मिलेगी.’’ इसका अर्थ यह भी है कि 1857 का विद्रोह सामंतों का विद्रोह था और भारत का उस समय का मध्यवर्ग अंग्रेजी राज के साथ था जो भारतीय राष्ट्र का निर्माण कर रहा था.
हिंदी नवजागरण की धारणा, उसकी ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया, उसके स्वरूप, उसकी विशेषताओं और भारत के अन्य क्षेत्रों के नवजागरणों से उसकी स्वतंत्र पहचान का सुचिंतित, सुव्यवस्थित तथा विस्तृत विवेचन रामविलास शर्मा ने किया है. उन्होंने ’महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ (1977) नाम की पुस्तक में हिंदी नवजागरण के स्वरूप के बारे में विस्तार से लिखा है. इस पुस्तक का पहला वाक्य यह है-’’हिंदी प्रदेश में नवजागरण 1857 ई. के स्वाधीनता संग्राम से शुरू होता है.’’ इस कथन में दो स्थापनाएँ हैं - पहली यह कि हिंदी नवजागरण का आरंभ 1857 के महाविद्रोह से होता है और दूसरा यह कि 1857 का महाविद्रोह भारत का स्वाधीनता संग्राम था. इससे यह मान्यता भी सामने आती है कि हिंदी नवजागरण अंगे्रजी राज के कारण नहीं बल्कि उसके विरुद्ध विकसित हुआ.
डा. शर्मा ने इसी पुस्तक में  लिखा है कि ’’सन् 1857 का स्वाधीनता संग्राम हिंदी प्रदेश के नवजागरण की पहली मंजिल है. दूसरी मंजिल भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का युग है. तीसरी मंजिल महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनका युग है तो चैथी मंजिल छायावाद और निराला का साहित्य.’’ उन्होंने यह स्पष्ट लिखा है कि ’’जो नवजागरण 1857 के स्वाधीनता संग्राम से आरंभ हुआ, वह भारतेन्दु युग में और व्यापक बना, उसकी साम्राज्य-विरोधी, सामंत-विरोधी प्रवृत्तियाँ द्विवेदी युग में और पुष्ट हुईं. फिर निराला के साहित्य में कलात्मक स्तर पर तथा उनकी विचारधारा में ये प्रवृत्तियाँ क्रांतिकारी रूप में व्यक्त हुई.’’ (महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, पृ.19)
रामविलास जी ने 1984 ई. में हिंदी नवजागरण संबंधी अपने चिंतन को और अधिक व्यापक तथा सुस्पष्ट बनाते हुए ’भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएँ’ नाम की पुस्तक में लिखा है, ’’भारतेन्दु युग उत्तर भारत में जनजागरण का पहला या प्रारंभिक दौर नहीं है; वह जनजागरण की पुरानी परंपरा का एक खास दौर है. जनजागरण की शुरूआत तब होती है जब यहाँ बोलचाल की भाषाओं में साहित्य रचा जाने लगता है, जब यहाँ के विभिन्न प्रदेशों में आधुनिक जातियों का गठन होता है. यह सामन्त विरोधी जनजागरण है. भारत में अंग्रेजी राज कायम करने के सिलसिले में पलासी की लड़ाई से 1857 के स्वाधीनता संग्राम तक जो युद्ध हुए, वे जनजागरण के दूसरे दौर के अंतर्गत हैं. यह दौर पहले से भिन्न है, मुख्य लड़ाई विदेशी शत्रु से है. यह साम्राज्यविरोधी जनजागरण है.’’ (पृ. 13)
हिंदी समाज, हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य के आधुनिक काल से संबंधित रामविलास शर्मा के संपूर्ण चिंतन और लेखन के कंेद्र में है उनकी हिंदी नवजागरण की अवधारणा. चाहे 1857 ई. का स्वाधीनता संग्राम हो या हिंदी जाति की धारणा, चाहे हिंदी में आधुनिकता के उदय का सवाल हो या हिंदी-उर्दू के संबंध का, चाहे देश में राजनीतिक चेतना के जागरण का प्रश्न हो या समाज सुधार का; इन सभी प्रश्नों पर विचार करते हुए वे हिंदी नवजागरण संबंधी अपनी मान्यताओं को ध्यान में रखते हैं.
रामविलास शर्मा की हिंदी नवजागरण की अवधारणा मूलतः और मुख्यतः साम्राज्यवाद-विरोधी है; क्योंकि उसका मूल स्रोत वे 1857 के महाविद्रोह को मानते हैं और वे उसे प्रथम राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम भी कहते हैं. निश्चय ही 1857 ई. के स्वाधीनता संग्राम का केंद्र हिंदी प्रदेश था. वह आमतौर पर भारतीय जनता और खासतौर पर हिंदी जनता के साम्राज्यवाद-विरोध की उदात्त अभिव्यक्ति था. जो लोग हिंदी नवजागरण की दूसरी, तीसरी और चैथी मंजिल के साहित्य में 1857 के विद्रोह की अभिव्यक्ति या अनुगूँज न पाकर 1857 के संग्राम को हिंदी नवजागरण की पहली मंजिल होने पर संदेह करते हैं उन्हें भगतसिंह के साथी भगवानदास माहौर के शोधग्रंथ ’1857 के स्वाधीनता संग्राम का हिंदी साहित्य पर प्रभाव’ (1976) को पढ़ना चाहिए. इस पुस्तक में 1857 ई. के महाविद्रोह के हिंदी साहित्य के साथ ही हिंदी क्षेत्र की लोकभाषाओं के साहित्य पर प्रभावों का विस्तृत विवेचन किया गया है, जिससे यह साबित होता है कि सन् 1857 ई. के संग्राम का हिंदी साहित्य और हिंदी भाषी जनता के मानस पर कितना व्यापक असर था. डा. माहौर ने हिंदी और उसकी लोकभाषाओं के अलावा उर्दू, मराठी, बांग्ला और गुजराती में प्रकाशित तथा अप्रकाशित विभिन्न विधाओं की असंख्य रचनाओं का उल्लेख किया है. इस सबसे यह साबित होता है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में 1857 का व्यापक प्रभाव मौजूद है.
जो लोग भारतेन्दु युग से छायावाद तक के हिंदी साहित्य में 1857 ई. के महाविद्रोह का मनचाहा उल्लेख न पाकर उस काल के लेखकों की निंदा करते हैं वे या तो यह नहीं जानते या जान बूझकर भूल जाते हैं कि 1857 के संग्राम के बाद अंग्रेजी राज के प्रेस और प्रकाशन संबंधी दमनकारी कानूनों के कारण 1857 के विद्रोह के पक्ष में कुछ भी लिखना और प्रकाशित करना कितना कठिन था. खासतौर से 1878 के दमनकारी कानून के बाद कुछ भी ऐसा लिखना और छपना असंभव हो गया जिससे सरकार सहमत न हो.  प्रेस और प्रकाशन संबंधी दमन और पाबंदी की प्रक्रिया क्रमशः कठोर हुई. यहाँ तक कि देशभक्ति और स्वाधीनता के पक्ष में लिखना-छपना मुश्किल हो गया. इसी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप प्रेमचंद के दो कहानी संग्रहों पर पाबंदी लगी. भगतसिंह और उनके साथियों ने 1933 ई. में 1857 से संबंधित दो पुस्तिकाएँ प्रकाशित कराईं. इन दोनों पर पाबंदी लगा दी गई. 1857 ई. के संग्राम पर लिखी अनेक साहित्यिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक पुस्तकों तथा पुस्तिकाओं पर पाबंदी लगी. यहाँ तक कि झाँसी की रानी पर छपे एक ऐसे पोस्टकार्ड पर पाबंदी लगी जिसके एक ओर झाँसी की रानी का चित्र था और दूसरी और क्रांतिकारी चुनौती.
वैसे तो रामविलास शर्मा का साम्राज्यवाद-विरोधी दृष्टिकोण उनकी प्रत्येक पुस्तक में मौजूद है लेकिन उसका प्रखरतम रूप उनकी पुस्तक ’सन् सत्तावन की राजक्रांति और मार्क्सवाद’ में प्रकट हुआ है. उन्होंने उस पुस्तक में लिखा है कि ’सन् सत्तावन का संघर्ष एक महान जनक्रांति था. वह जनक्रांति इसलिए भी था क्योंकि उसमें जनता ने सक्रिय रूप से भाग लिया था.’’ (पृ. 299) इस क्रांति की मूलधारा अंग्रेजी राज के विरुद्ध थी. इसका मूल उद्देश्य राजनीतिक था- अंग्रेजों को निकालकर देश में अपनी सत्ता कायम करना. इस राजनीतिक उद्देश्य के अंतर्गत और भी सामाजिक उद्देश्य थे (पृ.299)
हिंदी में और हिंदी के बाहर भी ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो यह मानते हैं कि भारत में आधुनिकता और प्रगति का आगमन अंग्रेजी राज के साथ हुआ. इसके ठीक विपरीत रामविलास शर्मा भारतीय समाज और संस्कृति के विकास में अंग्रेजी राज की कोई सार्थक भूमिका नहीं मानते. दुनिया भर के पिछले 500 वर्षों का साम्राज्यवाद का इतिहास यह साबित करता है कि साम्राज्यवाद ने जिन देशों पर कब्जा किया वहाँ के समाज, संस्कृति और जनता का विनाश किया है. यही नहीं वहाँ अपनी भाषा, संस्कृति और सभ्यता का प्रभुत्व स्थापित किया है. भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद इस प्रवृति का अपवाद नहीं प्रमाण है. अंगे्रजों ने भारत पर कब्जा करने के बाद क्या-क्या किया यह रामविलास शर्मा के शब्दों में देखिए, ’’अंग्रेजों ने हिन्दुस्तानियों को राजभक्ति सिखाई, उनके अन्दर फूट की आग सुलगाई, उन्हें एक-दूसरे का खून बहाना सिखाया, यहाँ की संस्कृति और भाषाओं को पैरो तले रौंदा और यहाँ से जितना धन लूटकर ले गए, उतना अपने बाकी विश्वव्यापी साम्राज्य से न ले गए.’’ (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, पृ.24)
रामविलास शर्मा वर्षों से यह कहते और लिखते रहे हैं कि भारत में अंग्रेजी राज के आरंभ के बहुत पहले से, लगभग बारहवीं सदी से, बोलचाल की भाषाओं में साहित्य की रचना के साथ ही आधुनिकता का उदय होता है. सुखद आश्चर्य की बात यह है कि अब सेन पोलक और गेल आम्बिड जैसे अंग्रेजी में लिखने वाले लोग भी यह मानने लगे हैं कि भारत में बोलचाल की देशी भाषाओं के उत्थान के साथ ही आधुनिकता या आरंभिक आधुनिकता का उदय होता है.
अब यह भी अनेक व्यक्ति मानने लगे हैं कि दुनिया भर में साम्राज्यवाद जिन देशों पर कब्जा करता है वहाँ दलाल संस्कृति निर्मित करता है और उसके सहारे अपना राजकाज चलाता है. भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद देशी दलाल संस्कृति के सहारे चलता था-यह बात हिंदी नवजागरण के लेखक और रामविलास शर्मा पहचानते हैं. अंग्रेजी राज अपने दलालों को तरह-तरह के खिताब, पदवी, सम्मान और सनद देता था- यह भारतेन्दु हरिश्चन्द्र भी जानते थे.  रामविलास शर्मा ने ’भारतेन्दु हरिश्चन्द्र’ पुस्तक में लिखा है, ’’खिताब पाने के लिए हिन्दुस्तानियों को किस तरह आत्मसम्मान बेचना पड़ता था, इस पर सबसे सुन्दर और तीखी टिप्पणी 20 जुलाई, 1874 की ’कवि वचनसुधा’ में छपी है. शीर्षक है, ’खिताब का भाव बहुत उतरैगा.’ नीचे लिखा है:
बंगाल में काल पड़ा है इससे इसके समाप्त होने पर खिताब का भाव निस्संदेह बहुत सस्ता हो जाएगा यहाँ तक कि टके सेर बिकै तो आश्चर्य नहीं, हम ग्राहकों को समाचार देते हैं कि वे प्रस्तुत हो रहैं. केवल थोड़ा-सा कागज रंगने, झूठी-मीठी रिपोर्ट कर देने पर खिताब मिल जाएगा पर ढंगबाजी की शर्त है रायबहादुर राजा नौव्वाब स्टार सब बाजार में आवेंगे ग्राहक लोग मियानी खोल रक्खें.’’ ( भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पृ.27)
इस प्रसंग के अंत में रामविलास जी ने लिखा है कि ’’अंग्रेजों ने सम्मान की एक कसौटी बना रखी थी- जनता से दगा करो, हमारी सेवा करो.’’ (पृ.27)
रामविलास शर्मा ने महावीरप्रसाद द्विवेदी के साम्राज्यवाद-विरोधी दृष्टिकोण का विवेचन करते हुए लिखा है, ’’साम्राज्यवाद का अर्थतंत्र क्या है, उसके राजनीतिक दाँव-पेंच क्या हैं, विश्वसाम्राज्यवादी व्यवस्था में भारत का स्थान क्या है, इस व्यवस्था में भारत पराधीन कैसे बना, अंग्रेजी राज कायम होने से पहले यहाँ के अर्थतंत्र की क्या दशा थी, भारतीय इतिहास को देखते हुए अंग्रेजी राज की भूमिका क्या थी, साम्राज्यवाद द्वारा विजित और शासित भारत में मुख्य प्रश्न किस वर्ग का था, खेतिहर देश में किसानों की भूमिका क्या थी, भारत में पूँजीवाद की विशेषता क्या थी, इस विशेषता को देखते हुए मजदूर वर्ग कौन सी भूमिका निभा रहा था, इस सारी परिस्थिति में मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के कर्तव्य क्या थे, इस विश्वसाम्राज्यवादी व्यवस्था के विरुद्ध लोग कहाँ-कहाँ लड़ रहे हैं, भारत को अपने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध किन देशों से कायम करने चाहिए, साम्राज्यवादी घेरा कहाँ टूट रहा है और उससे हमें क्या सीखना चाहिए, स्वयं अपने इतिहास से स्वाधीनता-संग्राम के लिए कैसे प्रेरणा लेनी चाहिए, इस सभी और ऐसी ही अन्य समस्याओं की ओर द्विवेदी जी और उनके सहयोगियों ने ध्यान दिया और साम्राज्यविरोधी दृष्टि से उनका विवेचन किया.’’ (महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, पृ.106)
अंग्रेजी राज ने जो दलाल संस्कृति विकसित की थी उसकी और उसके सरदारों की जैसी अचूक पहचान प्रेमचंद को थी वैसी उस युग के किसी अन्य लेखक को नहीं थी. रामविलास शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि ’’हिंदुस्तान की सामंती ताकतें विदेशी प्रभुत्व का आधार थीं, इसलिए प्रेमचंद के लिए आजादी का मतलब था, इस आधार को खत्म करना.’’ (प्रेमचंद और उनका युग, पृ.46)
जमींदार अंग्रेजों के दलाल हैं, इस बात को बहुत ही स्पष्ट शब्दों में प्रेमचंद ने ’प्रेमाश्रम’ में राय कमलानंद से कहलाया है. कमलानंद कहते हैं, ’’यह ज़ायदाद नहीं है, इसे रियासत कहना भूल है, यह निरी दलाली है. इस भूमि पर मेरा क्या अधिकार है. मैंने इसे बाहुबल से नहीं लिया. नवाबों के ज़माने में किसी सूबेदार ने इलाक़े की आमदनी वसूल करने के लिऐ मेरे दादा को नियुक्त किया था. मेरे पिता पर भी नवाबों की बड़ी कृपादृष्टि रही. इसके बाद अंग्रेजों का ज़माना आया और यह अधिकार पिताजी के हाथ से निकल गया. लेकिन राजद्रोह के समय पिताजी ने तन-मन से अंग्रेजों की सहायता की. शक्ति स्थापित होने पर हमें वही पुराना अधिकार फिर मिल गया. यही इस रियासत की हकीकत है.’’ (पृ.46)
यही वह दलाल समुदाय है जिसकी मदद से अंग्रेजों ने 1857 ई. के संग्राम में भारतीय विद्रोहियों को हराया था. विश्वास न हो रहा हो तो एक अंग्रेज इतिहासकार विलियम केई की गवाही पढ़िये, ’’यह ’ग़दर-युद्ध’ की एक अदभुत विशेषता थी कि हालांकि अंग्रेज़ स्थानीय नस्लों के विरुद्ध लड़ रहे थे, पर उन्हें वास्तविकता में इसी देश के स्थानीय लोगों ने समर्थन दिया. ये समर्थक जिन्हें हम अपना राष्ट्रीय शत्रु मानते थे उनकी सहायता के बिना हम एक दिन भी जीवित नहीं रह सकते थे.’’ (जासूसों के खतूत, पृ.33)
रामविलास शर्मा ने हिंदी नवजागरण की चौथी मंजिल के कवि और लेखक निराला के साम्राज्यवाद-विरोधी दृष्टिकोण के बारे में लिखा है, ’’निराला के चिन्तन की विशेषता यह थी कि उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आर्थिक नीति, उसके राजनीतिक दाँव-पेंच, सांस्कृतिक मामलों मे उसके हस्तक्षेप को पहचाना, गहराई से उसका विश्लेषण किया, देश की राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रगति के लिए एक मार्ग निश्चित किया.’’ (निराला की साहित्य साधना-2, पृ.14)
स्वयं निराला ने साम्राज्यवाद का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखा है, ’’साम्राज्यवाद इंग्लैंड की राजनीति का मूल है. पूँजी के द्वारा वणिक् शक्ति की वृद्धि के इतिहास के साथ-साथ साम्राज्यवाद का इतिहास इंग्लैंड के साथ गुँथा हुआ है. पूँजी की ही तरह यह हृदयहीन है. अंग्रेज़ों की शक्ति का समस्त संसार पर प्रभाव है. साथ-साथ अपनी वृत्ति या जातीय साम्राज्यवाद-जीवन के कारण इंग्लैंड संसार भर में बदनाम है. इतिहास के जानकार जानते हैं कि इंग्लैंड की सरकार पूँजीपतियों की सरकार है और साम्राज्यवाद उसकी जीवनी-शक्ति, मूल आधार.’’ (निराला की साहित्य साधना-2, पृ.15)
’निराला की साहित्य साधना-2’ में ही रामविलास जी ने एक बार फिर दलाल संस्कृति को याद करते हुए लिखा है, ’’1857 में भारतीय जनता के संघर्ष को दबाने में अंग्रेजा़ें को कश्मीर, पंजाब, हैदराबाद, बंगाल आदि प्रदेशों के राजाओं और ज़मींदारों से बड़ी सहायता मिली. 1858 के बाद अंग्रेजों ने अपनी नीति में परिवर्तन किया कि देशी रियासतों को ब्रिटिश भारत में मिलाने के बदले वे उनके मालिकों को अपने सहायक के रूप में पालने लगे. साधारणतः इन रियासतों में उद्योग-धन्धों का विकास ब्रिटिश भारत की तुलना में भी कम हुआ, यहाँ निरक्षरता और निर्धनता का प्रसार ब्रिटिश भारत से भी अधिक था, यहाँ निरंकुश अत्याचार, सामाजिक उत्पीड़न, धार्मिक अन्धविश्वास ब्रिटिश भारत से भी अधिक थे. लड़ाई के दिनों में ये राजा अंग्रेजी फौज में रंगरूट भर्ती कराते थे, शान्ति के समय गोलमेज सम्मेलनों में अपने प्रतिनिधि भेजकर स्वाधीनता-आन्दोलन का विरोध करते थे. भारत में अंग्रेजी राज के प्रमुख सहायक थे यहाँ के राज और नवाब. साम्राज्यवाद के इस देशी आधार को ढहाये बिना भारतीय स्वाधीनता की लड़ाई पूरी न हो सकती थी.’’ (वही, पृ.20)
हिंदी नवजागरण के बारे में रामविलास शर्मा के संपूर्ण चिंतन और लेखन से कुछ समस्याएँ पैदा होती हैं, जिन पर विचार के बिना हिंदी नवजागरण की पूरी और बेहतर समझ नहीं बन सकती. पहली समस्या तो यही है कि रामविलास शर्मा ने हिंदी नवजागरण की विशिष्टता पर इतना जोर दिया है कि देश के दूसरे क्षेत्रों के नवजागरण से हिंदी नवजागरण के संबंध का बोध उपेक्षित हो गया है. हिंदी नवजागरण पर विचार करने वाले अधिकांश व्यक्ति यह जानते हैं कि हिंदी नवजागरण के एक अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का बांग्ला नवजागरण से कितना गहरा संबंध था. भारतेन्दु इतनी बांग्ला जानते थे कि वे बांग्ला में कविताएँ लिखते थे, उन्होंने अनेक बांग्ला नाटकों का हिंदी में अनुवाद भी किया था. यही नहीं उनकी अनेक रचनाएँ बांग्ला रचनाओं से प्रभावित हैं. भारतेन्दु के अतिरिक्त बांग्ला नवजागरण से निराला का भी गहरा संबंध था. यह भी ध्यान देने की बात है कि बांग्ला में उपन्यास का उदय और विकास हिंदी से पहले हुआ था, इसलिए आरंभिक दिनों में बांग्ला के उपन्यासों के अनुवाद हिंदी में छपे, जिनका हिंदी उपन्यासों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है. यही नहीं ’जाति’ शब्द हिंदी में बांग्ला से ही आया है, भारतेन्दु के माध्यम से.
हिंदी नवजागरण के दूसरे निर्माता है महावीर प्रसाद द्विवेदी. उनका मराठी नवजागरण से गहरा संबंध है. द्विवेदी जी ने मराठी नवजागरण से संबद्ध दस से अधिक लेखकों, विचारकों, कलाकारों, आंदोलनकारियों, गायकों, पुरुषों और स्त्रियों की जीवनियाँ लिखी हैं. द्विवेदी जी ने महाराष्ट्र की अनेक तेजस्वी और संघर्षशील स्त्रियों की भी जीवनियाँ लिखी हैं, जिनमें ताराबाई, रुख्माबाई, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, कुमारी गोदावरी बाई मुख्य हैं.
नवजागरण काल में एक भारतीय भाषा की रचनाओं के दूसरी भारतीय भाषाओं में जो अनुवाद हुए उनसे विचारों के आदान-प्रदान की एक प्रक्रिया विकसित हुई. उन सब पर ध्यान देने से विभिन्न नवजागरण के आपसी रिश्तों की पहचान हो सकती है. 1904 ई. में बांग्ला में एक क्रांतिकारी किताब लिखी गई थी, जिसका नाम था ’देसेर कथा’. उसका पहला हिंदी अनुवाद 1908 में छपा और नाम था ’देश की बात’. उसका दूसरा हिंदी अनुवाद 1910 में छपा. यह किताब हिंदी क्षेत्र में इतनी लोकप्रिय थी कि हिंदी में इस पर एक कविता भी लिखी गई. हिंदी क्षेत्र में उसके व्यापक प्रभाव का एक प्रमाण यह भी है कि सत्यभक्त ने अपने एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया है कि उन्हें देशभक्ति की प्रेरणा ’देश की बात’ पुस्तक से मिली. क्या इस व्यापक प्रभाव की उपेक्षा करके हिंदी नवजागरण को समझा जा सकता है?
रामविलास शर्मा के नवजागरण संबंधी लेखन से जुड़ी दूसरी समस्या यह है कि हिंदी नवजागरण कितना मूलगामी है और कितना मध्यमार्गी . हिंदी नवजागरण की दो धाराएँ हैं, एक है मूलगामी धारा और दूसरी मध्यमार्गी. मूलगामी धारा के प्रतिनिधि भारतीय समाज में मूलगामी परिवर्तन चाहते थे, केवल अंग्रेजी राज से मुक्ति ही नहीं बल्कि तरह-तरह की पराधीनताओं से भारतीय जनता की मुक्ति और मध्यमार्गी वे थे जो समझौते के रास्ते से सुधार और विकास की कोशिश करते थे. हिंदी नवजागरण की मूलगामी धारा के प्रतिनिधि हैं राधामोहन गोकुल जी, सत्यभक्त, प्रेमचंद और राहुल सांकृत्यायन. ये सभी साम्राज्यवाद की भारत से मुक्ति के साथ ही देशी सामंतवाद से स्त्रियों और दलितों की मुक्ति के भी पक्षधर थे. यही नहीं ये किसानों तथा मजदूरों के संघर्षों के साथ थे. रामविलास शर्मा ने राधामोहन गोकुल जी, सत्यभक्त और प्रेमचंद पर लिखा तो है पर उन्हें वे हिंदी नवजागरण के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार नहीं करते. हिंदी नवजागरण की प्रक्रिया में एक प्रवृत्ति ऐसी भी रही है जो इतिहास के प्रसंग में अतीतवादी, भाषा के प्रसंग में अलगाववादी, संस्कृति के प्रसंग में संस्कृतवादी और मानसिकता के प्रसंग में आध्यात्मवादी-रहस्यवादी. यद्यपि यह कभी भी हिंदी नवजागरण की मुख्य धारा नहीं बन पाई परंतु उसका प्रभाव तो था ही.
तीसरी समस्या यह है कि रामविलास जी ने हिंदी नवजागरण की विचारधारा का तो विस्तृत विवेचन किया है, लेकिन टेक्नालाजी से उसके सम्बन्धों पर ध्यान नहीं दिया. यहाँ टेक्नालाजी से मेरा आशय प्रेस और प्रकाशन की प्रक्रिया से है. इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप हिंदी साहित्य की और आधुनिक भारतीय साहित्य की भी पूरी संस्कृति बदल गई. एक तो पुस्तक बाजार के अस्तित्व में आने और पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशित होने के कारण पाठ और पाठक का संबंध बदला. पुराने सारे विधि-निषेध ध्वस्त हो गए. पुस्तक पढ़ने पर किसी प्रकार का भेदभाव कायम न रह सका. इस तरह साहित्य की दुनिया में लोकतंत्र आया. पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के कारण साहित्य का स्वरूप बदला और अनेक नई विधाओं का जन्म हुआ. यही कारण है कि स्वयं रामविलास शर्मा ने महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ में लिखा है कि
 ’’आधुनिक साहित्य का जन्म उन्नीसवं शताब्दी में हुआ. समाचार पत्र, मासिक पत्रिकाएँ, उपन्यास, नाटक, जीवन-चरित्र और समालोचना, इन सबका विकास इसी समय हुआ.’’ (पृ.321) इस कथन को पढ़ने के बाद मन में एक सवाल आता है कि ऐसा क्यों और कैसे हुआ कि भारत में आधुनिकता तो आई बारहवीं सदी में लेकिन आधुनिक साहित्य पैदा हुआ उन्नीसवीं सदी में.
रामविलास शर्मा के नवजागरण संबंधी लेखन से जुड़ी चैथी समस्या यह है कि हिंदी नवजागरण के किन निर्माताओं का किसानों तथा मजदूरों के आंदोलनों से क्या और कितना संबंध था.  यह जाहिर है कि राधामोहन गोकुल जी, सत्यभक्त और राहुल जी का किसानों तथा मजदूरों के आंदोलनों से संबंध तो था परंतु रामविलास शर्मा के अनुसार हिंदी नवजागरण के निर्माताओं - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी और निराला का किसानों और मजदूरों के आंदोलनों से विशेष संबंध नहीं था.
पाँचवीं समस्या यह है कि रामविलास जी ने हिंदी नवजागरण की चैथी मंजिल के प्रतिनिधि के रूप में निराला को रखा प्रेमचंद को क्यों नहीं. रामविलास जी का जितना लगाव निराला से था लगभग उतना ही प्रेमचंद से भी था. प्रेमचंद पर भी उन्होंने दो आलोचनात्मक पुस्तकें लिखी हैं. अगर रामविलास जी प्रेमचंद को हिंदी नवजागरण की चैथी मंजिल का प्रतिनिधि मानते तो भारतीय समाज, हिंदी समाज, हिंदी जाति और हिंदी संस्कृति से जुड़ी अनेक समस्याओं और अंतर्विरोधों का विवेचन संभव होता. प्रेमचंद का लेखन एक तो हिंदू-मुस्लिम संबंध, दूसरे भारतीय जाति व्यवस्था, तीसरे हिंदी-उर्दू के अंतर्विरोध और चैथे भारतीय स्त्री की पराधीनता और स्वाधीनता के प्रश्नों से जुड़ा हुआ है. इन सभी समस्याओं और सवालों पर प्रेमचंद के लेखन के माध्यम से सोच-विचार करना संभव होता और समाधान खोजना भी. प्रेमचंद हिंदी नवजागरण की चिंताओं के विकास की लगभग चरम परिणति भी है.

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