Sunday 5 April 2015

सांघवी पर थानवी की टिप्पणी और मोदीजी का सूट, खूब निकाली भड़ास फेसबुकियों ने

जनसत्ता के संपादक ओम थानवी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दस लखिया सूट और एक वरिष्ठ पत्रकार के भाषा प्रेम पर गहरी चोट कर सीधे सीधे शब्दों में कई मायने समझा दिए। और उसी बहाने पीएम पर भी चुटीले शब्दों को बारिश हुई। ओम थानवी लिखते हैं - '' इतवार को हिंदुस्तान टाइम्स के साथ बंटने वाली पतरी 'ब्रंच' में वीर पत्रकार सांघवी लिखते हैं कि मोदीजी का वह नामधारी सूट दस लाख का नहीं था। कितने का था, उन्हें पता नहीं। कोई बात नहीं। लेकिन आगे वे लिखते हैं कि सूट पर नाम हिंदी में कढ़ा होता तो इतनी नुक्ताचीनी शायद नहीं होती।
'' क्या आप समझे कि उस सूट पर हिंदी की कढ़ाई के हवाले से वे क्या कहना चाहते हैं? कि हिंदी वाले ऐसा स्वनामलट्टू प्रधानमंत्री पसंद करते हैं, अंगरेजी वाले नहीं? या यह कि हिंदी वाले अपने हिंदी-प्रेम के चलते प्रधानमंत्री के इस राज-रोग को दरगुजर कर देंगे? या कोई और वीरोचित आशय रहा होगा, हिंदी पर इस तरह मेहरबान होने का?''
ओम थानवी की टिप्पणी पर चुटीली-कटीली प्रतिक्रियाओं की झड़ी सी लग गई। मनोज खरे ने लिखा - वीर सांघवी को समाज की इतनी अच्छी समझ नहीं है परंतु चाटुकारिता-प्रधान राजनीति की जरूर अच्छी समझ है। इनके अच्छे दिन तो आ जाने चाहिए ! देव प्रकाश मीना ने लिखा - हिंदी के पाठकों को ये उतना इंटेलेक्चुअल नही समझते है। दीपशिखा ने चुटीले अंदाज में इतना भर लिखकर छोड़ दिया - ये वही वाले वीर सांघवी हैं ना जो ....।  तो शिव मरोठिया की तीन शब्द की टिप्पणी थी - वीर पत्रकार सांघवी।
अक्षय कुमार ने जरा जोर से चिकोटी काट ली - सिंघवी साहब को बिरयानी, कबाब और ह्विस्की से फुर्सत मिले तब तो वह दिमाग का इस्तेमाल करें। सौरभ कानूनगो का कहना था - ये सिद्ध करने के वीर संघवी जी को हिंदी वाला ऐसा सूट प्रधानमंत्री को पहना ना चाहिए। फिर देखते हैं। पुनीत बेदी ने लिखा- राडिआ से बचने का ये नया जुमला है! हितेश चौरलिया की टिप्पणी थी - वीरजी जो खाने पर लिखते हैं, वही तक ठीक है। हिना ताज कहती हैं- वीर संघवी को प्रतिष्ठित पत्रकार होने की प्रतिष्ठा को बरकरार रखना चाहिए, निहायत ही घटिया आंकलन है। अतीफ मोहम्मद ने लिखा - रजत शर्मा को मिल गया है, अब इनका नंबर होगा। आनंद की टिप्पणी थी - इनकी ...की यही समस्या है। हिंदी के मानस को कभी नहीं समझ पाए। हिंदी में होता तो और त्राहि त्राहि हो जाता। अंगरेजी थी तो फेंकू बच गए लेकिन वीर स्वयंशलाका हैं। अप्पदीपित हैं और इसीलिए हिंदी में कहें तो लुर हैं। राग भोपाली ने कसकर मारा- संघवी साठ के हो चुके है....।
वृहस्पति कृष्ण ने लिखा - सांघवी जी का यह प्रयास कुछ ऐसा ही, जैसे भरे बाजार कोई आदमी अपने नंगे मित्र की नंगई हथेली से ढांप रहा हो, और नंगा उछल-कूद से बाज न आ रहा हो...। शादाब खान ने सवाल किया कि क्या मतलब ? हिंदी भाषी मूर्ख होते हैं क्या? एक पाठक एसकेआर की टिप्पणी तो ऐतिहासिक रही - मान्यवर जब सांघवी जी का लेख "संडे" मैगजीन में छपता था तब इन्होने एक बार श्री नरसिम्हाराव जी के बारे में लिखा था, उस वक्त नरसिम्हाराव अपने प्रधानमंत्री काल के आखिरी वर्ष में थे और तमाम आरोपों से घिरे भी थे। सांघवी जी ने लिखा था - 'That day to day journalism may write Mr Narsimharao Rao as one of the worst Prime Minister of the Country but history will always remember him as one of the Most Successful Prime-Minister of the Country, as he has given permanent solution to the many burning issues of the Country. (याददाश्त के अनुसार लिखा है, कुछ शब्द इधर उधर हो सकते हैं पर था ऐसा ही- - चूँकि नरसिम्हाराव जी का कार्यकाल बदलाव का था तो ये आज भी ये मेरे जेहन में है।) पर आज क्या हुआ, कोई उन्हें याद करे न करे कांग्रेस खुद ही उन्हें भूल गयी, इतिहास भी उन्हें क्या याद रखेगा, कोई नामलेवा भी न बचा ...।
अरुणकांत का कहना था - सांघवी जी को लगता है साँप सूंघ गया है, तभी इस तरह के वाहियात राजनीतिक आकलन कर रहे हैं। वैसे ये वीर सांघवी राडिया-फेम रहे हैं न? इनको कहिए, सास बहू वाले चैनल में मास्टर सेफ में बैचलरस किचन का संस्करण शुरू करें। फिर भी गुलाब जामुन में गुलाब नहीं होता तो बैचलरस किचन पेश करने के लिए बैचलर होना जरूरी थोड़ी न है। मजीठिया मंच की टिप्पणी थी - वीर बहुत दूर तक सोचते हैं, गलती कर देते हैं समझने में । पिछली बार राडिया को समझने में उनसे गलती हो गई । इस बार सूट की कीमत ठीक ठीक नहीं पता कर पाए। बुढ़ापा आ गया लगता है।
सर्वेश सिंह ने चुटकी ली - मैं सूट के लिए पैसे जमा कर रहा। आप लोग पहले कंफर्म बताओ कितने का है और कौन दर्ज़ी सिल रहा है। जब थोड़ा पैसा जमा करता हूं तो उसके प्राइस पर विवाद हो जाता है। मुझे क्या टारगेट रखना है समझ नहीं आ रहा है। सभी खोजी और खाऊ पत्रकारो से अपील है। अनुपम दीक्षित ने लिखा - आप समझे नहीं श्रीमान। हिंदी प्रेम नहीं यह अंग्रेजी श्रेष्ठता बोध है। उनका मतलब रहा होगा कि हिंदी वालों में इतनी अकल कहाँ। अंग्रेज़ी वाले जागरूक हैं, सतर्क हैं, चालाक हैं । अरविंद वरुण ने चोट की - तिकड़मी, बेशर्म सांघवी। अभी हम भूले नहीं हैं। सुनीता सनाढ्य पाण्डेय कहती हैं- अगले बरस का पद्म पक्का कर रहे होंगे। ऐसी चिकोटी काटी मदनगिरि अमरनाथ ने - गौर तलब है के इनके नाम में ही 'संघ' है...कुछ और कहने की जरूरत है क्या? अनिल कुमार ने लिखा - अनुभव तो इसके विपरीत है। सत्ता और उद्योगपतियों के बीच मध्यस्थता तो अंग्रेजी भाषा के पत्रकारों ने कुशलतापूर्वक निभाई है। क्या ये महानुभाव टू-जी वाले वीर पत्रकार हैं।

मीडिया सम्मेलन से युवा उत्साहित

मनीष शुक्ला उत्साही युवा हैं। राजस्थान विश्वविद्यालय में हुए मीडिया गुरुओं के सम्मेलन से वह काफी आशान्वित हैं। वह लिखते हैं- 'बदलाव के संकल्प के साथ फिर मिलेंगे। मीडिया के जरिए एक बेहतर और सकारात्मक समाज का निर्माण कैसे किया जाए-इस सवाल के साथ शुरू हुआ मीडिया शिक्षकों का सम्मेलन पूरा हुआ। और यह विश्वास हम जता सकते है कि तीन दिन के इस महाकुंभ मे बदलाव के एक ऐसे रास्ते पर हमें ला खडा किया है, जहां से मीडिया की दुनिया में व्यापक फेंरबदल की पूरी संभावना नजर आ रही है।बदलाव कब और किस स्वरूप में होगा, यह तो भविष्य ही बताएगा।'
मैंने उनसे एक प्रश्न किया है- बदलाव की उम्मीद कहां, किस क्षेत्र में, पत्रकारिता की पढ़ाई में या पत्रकारिता के पेशे में?
वह लिखते हैं - ' मीडिया महाकुभ के समापन पर यह उम्मीद नजर आई कि परिवर्तन की यह लहर जल्द थमने वाली नहीं।मीडिया शिक्षण से जुडे तमाम विशेषज्ञों की मौजूदगी ने सम्मेलन को लेकर उत्सुकता का एक ऐसा माहौल रचा, जिसके सहारे हम उन अहम लक्ष्यों को हासिल कर सकते है, जिनका सपना इस आयोजन को लेकर हमने देखा था।

हर समाज के मुद्दे और सरोकार अलग-अलग हो सकते है लेकिन इस बात पर सब एकमत है कि एक सच्चे और सकारात्मक समाज का निर्माण करने में मीडिया अपनी अहम भूमिका निभाता है। संकेत साफ है कि हर कोई यहीं चाहता है कि सूरत बदलनी चाहिए और मेरे सीने मे ना सही, पर कहीं तो आग सुलगनी चाहिए।' (फोटो मनीष शुक्ला के वॉल से)