Saturday 16 August 2014

लेखकों और कवियों के काम की एक अदभुत बहस / सच और झूठ एक-दूसरे के साथ-साथ / साहस यह नहीं पूछता कि चट्टान कितनी ऊँची है...



( मेरा दागिस्तान / रसूल हमजातोव)

युग-युगों से सच और झूठ एक-दूसरे के साथ-साथ चल रहे हैं। युग-युगों से उनके बीच यह बहस चल रही है कि उनमें से किसकी अधिक जरूरत है, कौन अधिक उपयोगी और शक्तिशाली है। झूठ कहता है कि मैं और सच कहता है कि मैं। इस बहस का कभी अंत नहीं होता।
एक दिन उन्‍होंने दुनिया में जाकर लोगों से पूछने का फैसला किया। झूठ तंग और टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर आगे-आगे भाग चला, वह हर सेंध में झाँकता, हर सूराख में सूँघा-साँघी करता और हर गली में मुड़ता। मगर सच गर्व से गर्दन ऊँची उठाए सिर्फ सीधे, चौड़े रास्‍तों पर ही जाता। झूठ लगातार हँसता था, पर सच सोच में डूबा हुआ और उदास-उदास था।
उन दोनों ने बहुत-से रास्‍ते, नगर और गाँव तय किए, वे बादशाहों, कवियों, खानों, न्‍यायाधीशों, व्‍यापारियों, ज्‍योतिषियों और साधारण लोगों के पास भी गए। जहाँ झूठ पहुँचता, वहाँ लोग इतमीनान और आजादी महसूस करते। वे हँसते हुए एक-दूसरे की आँखों में देखते, यद्यपि इसी वक्‍त एक-दूसरे को धोखा देते होते और उन्‍हें यह भी मालूम होता कि वे ऐसा कर रहे हैं। मगर फिर भी वे बेफिक्र और मस्‍त थे तथा उन्‍हें एक-दूसरे को धोखा देते और झूठ बोलते हुए जरा भी शर्म नहीं आती थी।
जब सच सामने आया, तो लोग उदास हो गए, उन्‍हें एक-दूसरे से नजरें मिलाते हुए झेंप होने लगी, उनकी नजरें झुक गईं। लोगों ने (सच के नाम पर) खंजर निकाल लिए, पीड़ित पीड़कों के विरुद्ध उठ खड़े हुए, गाहक व्‍यापारियों पर, साधारण लोग खानों पर और शाहों पर झपटे, पति ने पत्‍नी और उसके प्रेमी की हत्‍या कर डाली। खून बहने लगा। इसलिए अधिकतर लोगों ने झूठ से कहा -
'तुम हमें छोड़कर न जाओ। तुम हमारे सबसे अच्‍छे दोस्‍त हो। तुम्‍हारे साथ जीना बड़ा सीधा-सादा और आसान मामला है। और सच, तुम तो हमारे लिए सिर्फ परेशानी ही लाते हो। तुम्‍हारे आने पर हमें सोचना पड़ता है, हर चीज को दिल से महसूस करना, घुलना और संघर्ष करना होता है। तुम्‍हारी वजह से क्‍या कम जवान योद्धा, कवि और सूरमा मर चुके हैं?'
'अब बोलो,' झूठ ने सच से कहा, 'देख लिया न कि मेरी अधिक आवश्‍यकता है और मैं ही अधिक उपयोगी हूँ। कितने घरों का हमने चक्‍कर लगाया है और सभी जगह तुम्‍हारा नहीं, मेरा स्‍वागत हुआ है।'
'हाँ, हम बहुत-सी आबाद जगहों पर तो हो आए। आओ, अब चोटियों पर चलें। चलकर निर्मल जल के ठंडे चश्‍मों, ऊँची चरागाहों में खिलनेवाले फूलों, सदा चमकनेवाली बेदाग सफेद बर्फों से पूछें।
'शिखरों पर हजारों बरसों का जीवन है। वहाँ नायकों, वीरों, कवियों, बुद्धिमानों और संत-साधुओं के अमर और न्‍यायपूर्ण कृत्‍य, उनके विचार, गीत और अनुदेश जीवित रहते हैं। चोटियों पर वह रहता है, जो अमर है और पृथ्‍वी की तुच्‍छ चिंताओं से मुक्‍त है।'
'नहीं, मैं वहाँ नहीं जाऊँगा,' झूठ ने जवाब दिया।
'तो तुम क्‍या ऊँचाई से डरते हो। सिर्फ कौवे ही निचाई पर घोंसले बनाते हैं और उकाब तो सबसे ऊँचे पहाड़ों के ऊपर उड़ान भरते हैं। क्‍या तुम उकाब के बजाय कौवा होना ज्‍यादा बेहतर समझते हो? हाँ, मुझे मालूम है कि तुम डरते हो। तुम तो हो ही बुजदिल। तुम तो शादी की मेज पर, जहाँ शराब की नदी बहती होती है, बहसना पसंद करते हो, मगर बाहर अहाते में जाते हुए डरते हो, जहाँ जामों की नहीं, खंजरों की खनक होती है।'
'नहीं, मैं तुम्‍हारी ऊँचाइयों से नहीं डरता। मगर मैं वहाँ करूँगा ही क्‍या, क्‍योंकि वहाँ लोग नहीं हैं। मेरा तो वहीं बोल-बाला है, जहाँ लोग रहते हैं। मैं तो उन्‍हीं पर राज करता हूँ। वे सब मेरी प्रजा हैं। केवल कुछ साहसी ही मेरा विरोध करने की हिम्‍मत करते हैं और तुम्‍हारे पथ पर, सचाई के पथ पर चलते हैं, मगर ऐसे लोग तो इने-गिने हैं।'
'हाँ, इने-गिने हैं। मगर इसीलिए इन लोगों को युग-नायक माना जाता है और कवि अपने सर्वश्रेष्‍ठ गीतों में उनका स्‍तुति-गान करते हैं।'
अकेले कवि का किस्‍सा। यह किस्‍सा मुझे अबूतालिब ने सुनाया। किसी खान की रियासत में बहुत-से कवि रहते थे। वे गाँव घूमते और अपने गीत गाते। उनमें से कोई वायलिन बजाता, कोई खंजड़ी, कोई चोंगूर और कोई जुरना। खान को जब अपने काम-काजों और बीवियों से फुरसत मिलती, तो वह शौक से उनके गीत सुनता।
एक दिन उसने एक ऐसा गीत सुना, जिसमें खान की क्रूरता, अन्‍याय और लालच का बखान किया गया था। खान आग-बबूला हो उठा। उसने हुक्‍म दिया कि ऐसा विद्रोह भरा गीत रचनेवाले कवि को पकड़कर उसके महल में लाया जाए।
गीतकार का पता नहीं लग सका। तब वजीरों और नौकरों-चाकरों को सभी कवि पकड़ लाने का आदेश दिया गया। खान के टुकड़खोर शिकारी कुत्‍तों की तरह सभी गाँवों, रास्‍तों, पहाड़ी, पगडंडियों और सुनसान दर्रों में जा पहुँचे। उन्‍होंने सभी गीत रचने और गानेवालों को पकड़ लिया और महल की काल-कोठरियों में लाकर बंद कर दिया। सुबह को खान सभी बंदी कवियों के पास जाकर बोला -
'अब तुममें से हरेक मुझे एक गीत गाकर सुनाए।'
सभी कवि बारी-बारी से खान की समझदारी, उसके उदार दिल, उसकी सुंदर बीवियों, उसकी ताकत, उसकी बड़ाई और ख्‍याति के गीत गाने लगे। उन्‍होंने यह गाया कि पृथ्‍वी पर ऐसा महान और न्‍यायपूर्ण खान कभी पैदा ही नहीं हुआ था।
खान एक के बाद एक कवि को छोड़ने का आदेश देता गया। आखिर तीन कवि रह गए, जिन्‍होंने कुछ भी नहीं गाया। उन तीनों को फिर से कोठरियों में बंद कर दिया गया और सभी ने यह सोचा कि खान उनके बारे में भूल गया है।
मगर तीन महीने बाद खान फिर से इन बंदी कवियों के पास आया।
'तो अब तुममें से हरेक मुझे कोई गीत सुनाए।'
उन तीनों कवियों में से एक फौरन खान, उसकी समझदारी, उदार दिल, सुंदर बीवियों, उसकी बड़ाई और ख्‍याति के बारे में गाने लगा। उसने यह भी गाया कि पृथ्‍वी पर कभी कोई ऐसा महान खान नहीं हुआ।
इस कवि को भी छोड़ दिया गया। उन दो को जो कुछ भी गाने को तैयार नहीं हुए, मैदान में पहले से तैयार किए गए अलाव के पास ले जाया गया।
'अभी तुम्‍हें आग की नजर कर दिया जाएगा,' खान ने कहा। 'आखिरी बार तुमसे यह कहता हूँ कि अपना कोई गीत सुनाओ।'
उन दो में से एक की हिम्‍मत टूट गई और उसने खान, उसकी अक्‍लमंदी, उदार दिल, सुंदर बीवियों, उसकी ताकत, बड़ाई और ख्‍याति के बारे में गीत गाना शुरू कर दिया। उसने गाया कि दुनिया में ऐसा महान और न्‍यायपूर्ण खान कभी नहीं हुआ।
इस कवि को भी छोड़ दिया गया। बस, एक वही जिद्दी बाकी रह गया, जो कुछ भी गाना नहीं चाहता था।
'उसे खंभे के साथ बाँधकर आग जला दो।' खान ने हुक्‍म दिया।
खंभे के साथ बँधा हुआ कवि अचानक खान की क्रूरता, अन्‍याय और लालच के बारे में वही गीत गाने लगा, जिससे यह सारा मामला शुरू हुआ था।
'जल्‍दी से इसे खोलकर आग से नीचे उतारो।' खान चिल्‍ला उठा। 'मैं अपने मुल्‍क के अकेले असली शायर से हाथ नहीं धोना चाहता।'
'ऐसे समझदार और नेकदिल खान तो शायद ही कहीं होंगे,' अबूतालिब ने यह किस्‍सा खत्‍म करते हुए कहा, 'मगर ऐसे कवि भी बहुत नहीं होंगे।'
पिता जी ने यह बात सुनाई। एक बार महान शामिल से घनिष्‍ठता रखनेवालों ने पूछा -
'इमाम, यह बताइए कि आपने कविताएँ रचने और उन्‍हें गाने की क्‍यों मनाही कर दी?'
इमाम ने जवाब दिया -
'मैं चाहता हूँ कि केवल असली कवि ही कवि रह जाएँ। असली शायर तो फिर भी शायरी करेंगे ही। मगर ढोंगी, पाखंडी, तुकबंद और झूठमूठ अपने को कवि कहनेवाले मेरे हुक्‍म से डर जाएँगे, उनकी हिम्‍मत टूट जाएगी और वे खामोश हो जाएँगे। इस तरह वे लोगों को और खुद अपने को धोखा नहीं दे सकेंगे।'
कहते हैं कि जब महान कवि महमूद की मृत्‍यु हो गई, तो दुख-सागर में बुरी तरह डूबे हुए उनके पिता ने महमूद की पांडुलिपियों से भरा सूटकेस उठाकर आग में डाल दिया।
'लानत के मारे कागजो, जल जाओ। तुम्‍हारे कारण ही मेरे बेटे की वक्‍त से पहले मौत हो गई।'
सभी कागज जल गए, मगर महमूद की कविताएँ फिर भी जिंदा रह गईं। उनके रचे हुए गीतों की एक भी पंक्ति नहीं भुलाई गई। वे गीत लोगों के दिलों में जी रहे हैं। उन्‍हें न तो आग जला सकती है, न पानी गला सकता है, क्‍योंकि उनमें कवि की आत्‍मा की आवाज है।
मेरे पिता जी उन लोगों पर हँसा करते थे, जो इस डर से कि उन्‍हें किसी की बुरी नजर न लग जाए, रात को चोरी-छिपे सफर पर निकलते थे;
उन पर भी, जो खुरजी में इसलिए पत्‍थर भर लिया करते थे कि दूसरे यह समझें कि उसमें रोटी भरी है;
उन शिकारियों पर भी, जो तीतर की जगह कौवा लेकर घर लौटते थे।
अबूतालिब ने यह बात सुनाई। कहीं कोई गरीब आदमी रहता था, जिसे अपने को अमीर दिखाने का चाव चढ़ा। हर दिन वह बहुत खुश-खुश और मुस्‍कराता हुआ चौपाल में आता और उसकी मूँछें चिकनाई से चमकती होतीं मानो वह अभी-अभी जवान और बढ़िया भेंड़ खाकर आया हो। गरीब आदमी सबको सुनाकर डींग मारता -
'अहा, कैसा मोटा मेमना मैंने आज खाने के लिए काटा। कितना नर्म और मजेदार था उसका मांस।'
'हर दिन उसके पास मेमना कहाँ से आ जाता है?' गाँव के लोग हैरान होते। 'मामले की जाँच करनी चाहिए।'
'हर दिन उसके पास मेमना कहाँ से आ जाता है?' गाँव के लोग हैरान होते। 'मामले की जाँच करनी चाहिए।'
चुस्‍त नौजवान उसके घर की छत पर चढ़ गए और चौड़े धुआँदान में से उन्‍होंने नीचे नजर दौड़ाई। उन्‍होंने गरीब आदमी को पुरानी, फेंकी हुई हड्डी उबालते देखा। उसने ऊपर आ जानेवाली थोड़ी-सी चर्बी इकट्ठी की और उससे मूँछें चिकनी कर लीं। इसके बाद उसने थोड़ा-सा सफेद जीरा खा लिया। उसके घर में खाने के लिए बस यही था।
नौजवान झटपट छत पर से नीचे उतरे और गरीब आदमी के घर में गए।
'सलाम अलैकुम। हम लोग इधर से गुजर रहे थे। सोचा कि अमीर आदमी के यहाँ चलें।'
'जरा देर से आए, मैंने अभी-अभी मोटी भेंड़ खत्‍म की है। अब घर से बाहर जाने ही वाला था।'
'तो तुम यही बताओ कि ऐसा खुशबूदार और मजेदार जीरा कहाँ से लाते हो?'
गरीब समझ गया कि नौजवानों को सब कुछ मालूम है और उसका सिर झुक गया। इसके बाद उसकी मूँछों पर कभी चिकनाई नजर नहीं आई।
संस्‍मरण। बचपन में पिता जी ने एक बार मुझे बहुत ही कड़ी सजा दी थी। पिटाई तो मैं भूल गया, मगर पिटाई का कारण मुझे अभी तक बहुत अच्‍छी तरह याद है।
एक दिन सुबह को मैं स्‍कूल जाने के लिए घर से निकला, मगर स्‍कूल गया नहीं। एक गली से दूसरी गली में मुड़ गया और शाम तक आवारा लड़कों के साथ जुआ खेलता रहा। पिता जी ने किताबें खरीदने के लिए मुझे कुछ पैसे दिए थे और उन्‍हीं के साथ मैं दुनिया की सुध-बुध भूलकर दाँव लगाता रहा। पैसे जल्‍द ही खत्‍म हो गए। अब मुझे यह फिक्र हुई कि और पैसे कहाँ से हासिल किए जाएँ। हम जब जुआ खेलते हैं और आखिरी कौड़ी तक हार जाते हैं, तो हमें ऐसा लगता है कि अगर कहीं से पाँच कोपेक का एक सिक्‍का और हाथ लग जाए, तो न सिर्फ हारे हुए पैसे ही वापस आ जाएँगे, बल्कि कुछ और भी जीत लेंगे। मुझे भी ऐसा ही लगा कि अगर कहीं से कुछ पैसे और मिल जाएँ, तो हारे हुए पैसे वापस आ जाएँगे।
मैं जिन लड़कों के साथ खेल रहा था, उनसे उधार माँगने लगा। मगर कोई भी ऐसा करने को राजी नहीं हुआ। बात यह है कि जुआरियों में ऐसा माना जाता है कि जो कोई हारनेवाले को उधार देता है, वह खुद हार जाता है।
तब मैंने एक तरकीब निकाली। मैं गाँव में घर-घर जाने और यह कहने लगा कि कल यहाँ पहलवान आएँगे और मुझे उनके लिए पैसे जमा करने का काम सौंपा गया है।
दर-दर जानेवाले भूखे कुत्‍ते को क्‍या मिलता है? या तो हड्डी या डंडे की मार। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ - कुछ ने इनकार कर दिया, कुछ ने कुछ दे दिया। हाँ, जिन्‍होंने कुछ दिया, वह भी शायद मेरे पिता के नाम की इज्‍जत करते हुए।
गाँव का चक्‍कर लगाने के बाद मैंने पैसे गिने, तो इस नतीजे पर पहुँचा कि जुआ जारी रखा जा सकता है। मगर किस्‍मत के मारे ये पैसे भी जल्‍दी ही खत्‍म हो गए। यह खेल जमीन पर घुटनों के बल रेंगकर खेला जाता था। दिन भर में मेरा पतलून बिल्‍कुल फट गया और घुटनों पर खरोंचें आ गईं।
इसी बीच घर पर मेरी फिक्र हुई। बड़े भाई मुझे सारे गाँव में ढूँढ़ने लगे।
गाँववाले, जिन्‍हें मैंने पहलवानों के आने की मनगढ़ंत बात कही थी, उनके आगमन के बारे में विस्‍तारपूर्वक जानने के लिए हमारे घर पहुँचने लगे। मतलब यह कि जब कान से पकड़कर मुझे घर लाया गया, तो मेरी करतूतों का पूरा पता चल चुका था।
तो मैं पिता जी की अदालत में खड़ा था। उनकी इस अदालत से ही मैं दुनिया में सबसे ज्‍यादा डरता था। पिता जी ने सिर से पाँव तक मुझे बहुत गौर से देखा। मेरे नंगे, सूजे हुए लाल घुटने सूराखों में से ऐसे झाँक रहे थे जैसे पंखों से भरे हुए तकिए, जिन्‍हें पहाड़ी घरों की खिड़कियों में खोंस दिया जाता है, झाँकते दिखाई देते हैं।
'यह क्‍या है?' पिता जी ने मानो शांति से पूछा।
'घुटने हैं,' फटे पतलून के सूराखों को हाथों से छिपाने की कोशिश करते हुए मैंने जवाब दिया।
'घुटने हैं, यह मैं भी जानता हूँ, मगर वे उघाड़े क्‍यों हैं? यह बताओ कि पतलून कहाँ फाड़ा?'
मैं अपने पतलून को ऐसे देखने लगा मानो अभी मैंने उनमें सूराख देखे हों। अजीब मनोदशा होती है झूठे और कायर की। वह समझता है कि बड़ों को सब कुछ मालूम है और हकीकत से इनकार करना महज अपना मजाक उड़वाना है और इससे कोई फायदा नहीं होगा, मगर फिर भी वह साफ-साफ और सच्‍चे जवाब देने से कतराता है और अपने मन से तरह-तरह की बातें बनाता है।
पिता जी की आवाज में गुस्‍सा झलकने लगा। परिवार के लोग घर के मुखिया का मिजाज समझते थे और इसलिए मेरी रक्षा को मेरे आस-पास आ गए। मगर पिता जी ने उन सब को दूर हटने के लिए हाथ का इशारा किया और फिर मुझसे पूछा -
'तो तुमने पतलून कैसे फाड़ा?'
'स्‍कूल में फट गया... कील में उलझकर...'
'कैसे, कैसे, जरा दोहराओ तो...'
'कील में उलझकर।'
'किस जगह?'
'स्‍कूल में।'
'कब?'
'आज।'
पिताजी का तमाचा जोर से मेरे गाल पर पड़ा।
'अब बताओ कि पतलून कैसे फटा?'
मैं चुप रहा। पिता जी ने दूसरे गाल पर एक और तमाचा मारा।
'अब बताओ।'
मैं रो पड़ा।
'रोना बंद करो।' पिता जी ने आदेश दिया और कोड़ा उठा लिया।
मैंने रोना बंद कर दिया। पिता जी ने कोड़ा सटकारा।
'अगर अभी सब कुछ सच-सच नहीं बता दोगे, तो कोड़े से पिटाई करूँगा।'
मैं जाता था कि सिरे पर सख्‍त गाँठवाला यह कोड़ा क्‍या मुसीबत है। कोड़े के डर ने सच के डर पर बाजी मार ली और मैंने अपनी दिन भर की सारी हरकतें सिलसिलेवार कह सुनाईं।
मुकदमे की कार्रवाई खत्‍म हो गई। तीन दिन तक मैं बहुत परेशान रहा। घर और स्‍कूल का जीवन तो जैसे अपने आम ढंग से ही चलता रहा, मगर मेरे मन को चैन नहीं था। मैं जानता था कि अभी पिता जी से एक बार फिर बातचीत होगी। इतना ही नहीं, अब मैं खुद इस बातचीत के लिए बड़ा उत्‍सुक था, इसकी प्रतीक्षा में था। इन दिनों में मेरे लिए सबसे अधिक यातना की बात तो यह थी कि पिता जी मेरे साथ बातचीत नहीं करना चाहते।
तीसरे दिन मुझसे कहा गया कि पिता जी ने बुलाया है। उन्‍होंने मुझे अपने पास बैठाया, सिर पर हाथ फेरा, यह पूछा कि स्‍कूल में हम आजकल क्‍या पढ़ रहे हैं, मुझे कैसे अंक मिल रहे हैं। इसके बाद अचानक यह सवाल किया -
'जानते हो कि मैंने किसलिए तुम्‍हारी पिटाई की थी?'
'हाँ, जानता हूँ।'
'जरा सुनूँ तो कि तुम क्‍या समझते हो?'
'इसलिए कि मैंने जुआ खेला था।'
'नहीं, इसके लिए नहीं। बचपन में कौन जुआ नहीं खेलता? मैंने भी खेला और तुम्‍हारे बड़े भाइयों ने भी।'
इसलिए कि पतलून फाड़ डाला।'
'नहीं, इसके लिए भी नहीं, बचपन में हममें से किसने पतलून या कमीजें नहीं फाड़ी? इतनी ही गनीमत है कि सिर सलामत हैं। तुम कोई लड़की तो हो नहीं कि नाक की सीध में आओ-जाओ।'
'इसलिए कि स्‍कूल नहीं गया।'
'हाँ, यह तुम्‍हारी बहुत बड़ी गलती थी। इसी से उस दिन तुम्‍हारी सारी मुसीबतें शुरू हुईं। इसके लिए और इसी तरह पतलून फाड़ने तथा जुआ खेलने के लिए तुम्‍हारी डाँट-डपट होनी चाहिए थी। ज्‍यादा से ज्‍यादा मैंने तुम्‍हारे कान ऐंठे होते। मेरे बेटे, मैंने तुम्‍हारे झूठ के लिए ही तुम्‍हारी पिटाई की। झूठ - यह भूल नहीं, संयोग से होनेवाली बात नहीं, यह हमारे चरित्र का एक लक्षण है, जो जड़ जमा सकता है। यह तुम्‍हारी आत्‍मा के खेत में भयानक जंगली घास है। अगर उसे वक्‍त पर न उखाड़ फेंका जाए, तो वह सारे खेत में फैल जाएगी और अच्‍छे बीज के फूट निकलने की कहीं भी जगह नहीं बचेगी। झूठ से ज्‍यादा खतरनाक और कोई चीज इस दुनिया में नहीं है। इससे पिंड छुड़ाना मुमकिन नहीं होता। अगर तुम एक बार फिर मुझसे झूठ बोलोगे, तो मैं तुम्‍हें मार डालूँगा। इस घड़ी से तुम हमेशा सिर्फ सच ही बोलोगे। टेढ़े नाल को तुम टेढ़ा नाल, घड़े के टेढ़े हत्‍थे को टेढ़ा हत्‍था और टेढ़े वृक्ष को टेढ़ा वृक्ष ही कहोगे। समझ गए?'
'समझ गया।'
'तो जाओ।'
मैं वहाँ से चल दिया और मैंने मन ही मन कभी भी झूठ न बोलने की कसम खाई। इसके अलावा मैं यह भी तो जानता था कि अगर मैंने फिर से झूठ बोला, तो पिता जी अपने कहे हुए शब्‍दों को सच कर दिखाएँगे और चाहे मुझे कितना ही अधिक प्‍यार क्‍यों न करते हों, वे मुझे मार डालेंगे।
बहुत सालों बाद मैंने अपने एक दोस्‍त को यह घटना सुनाई।
'अरे?' मेरे दोस्‍त ने हैरान होकर कहा, 'तुम अभी तक अपने उस छोटे-से, उस तुच्‍छ झूठ को नहीं भूले?'
मैंने जवाब दिया -
'झूठ, झूठ है और सच, सच। वे छोटे-बड़े नहीं हो सकते। जीवन, जीवन है, मौत, मौत। जब मौत आती है, तो जिंदगी खत्‍म हो जाती है। इसके उलट, जब तक जिंदगी की गर्मी बनी रहती है, तब तक मौत नहीं आती। वे साथ-साथ नहीं रह सकतीं। एक दूसरी का अंत कर देती है। सच और झूठ के बारे में भी ऐसा ही है।'
झूठ - यह है शर्म की बात, यह है गंदगी और कूड़ा-करकट। सच - यह है सुंदरता, स्‍वच्‍छता और निर्मल आकश। झूठ-कायरता है, सच - साहस है। या तो सच है या झूठ और इन दोनों के बीच की कोई चीज नहीं हो सकती।
अब जिस वक्‍त मुझे झूठे लेखकों की झूठी रचनाएँ पढ़नी पड़ती हैं, तो मुझे पिता जी के कोड़े की बहुत याद आती है। कितनी सख्‍त जरूरत है उसकी। कितनी सख्‍त जरूरत है कठोर और न्‍यायपूर्ण पिता की, जो सही वक्‍त पर यह धमकी दे सके - 'अगर झूठ बोलेागे, तो मार डालूँगा।' मगर हे अल्‍लाह, कितना झूठ बोला जाता है आजकल और उसकी सजा भी कोई नहीं।
काश झूठ ही सजा पाए बिना रहता। क्‍या सच के लिए लोगों को दंड नहीं मिलता? क्‍या इतिहास में ऐसे उदाहरणों की कमी है, जब लोगों को सच के लिए सजा दी गई, जब सच के लिए उन पर कोड़े बरसाए गए?
बचपन में मुझे सच से इनकार करने के लिए बहुत साहस की जरूरत महसूस होती थी। कारण कि उससे इनकार करने पर राहत मिलने के बजाय सबसे भयानक यातना यानी आत्‍मा की भर्त्‍सना का सामना करना पड़ता है।
साहसी लोग अपनी आस्‍थाओं को कभी नहीं बदलते। उन्‍हें मालूम है कि पृथ्‍वी घूमती है। उन्‍हें मालूम है कि सूरज पृथ्‍वी के गिर्द नहीं, बल्कि पृथ्‍वी सूर्य के गिर्द घूमती है। उन्‍हें मालूम है कि रात के बाद जरूर सुबह होती है, फिर दिन निकलता है और दिन के बाद रात आती है... जाड़े के बाद वसंत आता है और वसंत के बाद प्‍यारी गर्मी...
और कुछ ऐसा ही होता है कि आखिर आत्‍मा का कोड़ा, प्रतिष्‍ठा का कोड़ा, सच का कोड़ा झूठों और ढोंगियों को चित कर देता है और झूठ कभी भी सच पर विजयी नहीं हो पाता।
गाँव के चौपाल में हुई बातचीत से।
'सच और झूठ के बीच कितना फासला है?'
'दो इंच का।'
'वह क्‍यों?'
'क्‍योंकि कान से आँख तक भी दो इंच का ही फासला है। जो कुछ अपनी आँखों से देखा गया है, वह सच है, और जो कुछ कानों से सुना गया है, झूठ है।'
खैर, ऐसा ही सही। इसमें कोई संदेह नहीं कि सौ बार सुनने के बजाय एक बार देख लेना ज्‍यादा अच्‍छा होता है। मगर लेखक को तो हर चीज से सचाई ग्रहण करनी चाहिए - उससे भी जो देखे, उससे भी जो सुने, जो पढ़े और जो स्‍वयं जिये।
क्‍या लेखक के लिए सिर्फ आँखों पर भरोसा करना ही काफी होगा? जिंदगी को देखता है वह अपनी आँखों से, मगर संगीत सुनता है कानों से और अपने देश के इतिहास को पढ़ता है। कुछ लेखक तो न आँखों और न कानों को, बल्कि अपनी सूँघने की शक्ति को ही प्रथम स्‍थान प्रदान करते हैं।
लेखक को सभी तरह के काम करने लायक मजबूत हाथों, मजबूत टाँगों और मजबूत दाँतों की जरूरत होती है। इसलिए कि वह जो कुछ देखता है, सुनता और पढ़ता है, उस सब में हमेशा झूठ-सच, सोने और दूसरी चमकीली सस्‍ती धातुओं, अनाज और भूसे का अंतर कर सके, उसे अक्‍ल और ज्ञान की भी जरूरत होती है। अक्‍ल और ज्ञान के बिना आदमी अपनी आँखों पर भी भरोसा नहीं कर सकता।
किसी पहाड़ी गाँव के अबोध लोगों को, जिन्‍होंने सोने को कभी देखा नहीं था, मगर उसके बारे में सुना बहुत था, एक भारी संदूक कहीं पड़ा मिल गया। उन्‍होंने सोचा - 'चूँकि भारी है, इसलिए जरूर सोने का है।' हाथ आये इस माल के लिए वे आपस में भिड़ गए और उन्‍होंने एक-दूसरे की जान ले ली। मगर संदूक तो ताँबे का था।
प्रतिभा - आग है। मगर किसी मूर्ख के हाथ में आग सब कुछ जलाकर राख कर सकती है। अक्‍ल ही उसे रास्‍ता दिखाती है। अक्‍ल तो खूबसूरती को भी उसी तरह काबू में करती है जैसे अनुभवी घुड़सवार तेज घोड़े को।
दो पहाड़ी आदमियों से पूछा गया : तुम क्‍या चाहते हो - जवान आदमी का खूबसूरत चेहरा या बूढ़े की समझदारी?
बुद्धू ने खूबसूरत चेहरा चुना, मगर बेवकूफ ही बना रहा। खूबसूरत बेवकूफ को उसकी बीवी छोड़कर चली गई। अक्‍लमंद ने समझ चुनी और समझदारी की बदौलत उसकी बीवी उसके पास ही बनी रही। एक लोक-कथा में भी यही बताया गया है कि समुद्री घोड़े के जीन पर सुंदरी को वही सवार कर पाया था, जिसने अपने लिए अक्‍ल को चुना था। एक अन्‍य लोक-कथा में तीन भाइयों, तीन राहों और तीन बुद्धिमत्‍तापूर्ण नसीहतों का जिक्र आता है। जिसने इन नसीहतों पर कान दिया, वह तो अपनी घर लौट आया और जिसने इनकी परवाह नहीं की, वह पराई धरती पर ही ढेर होकर रह गया। ओ मेरी वरदायिनी सुनहरी मछली, मुझे प्रतिभा दो, लगन दो, जवान का सच्‍चा और उत्‍साही दिल दो और बुजुर्ग की सुलझी हुई अक्‍ल दो। सही रास्‍ता चुनने में मेरी मदद करो।
यह रास्‍ता बेशक कंकड़ों-पत्‍थरोंवाला हो, मुश्किल और खतरनाक हो। मगर मैं उस पर साँप की भाँति दाएँ-बाएँ बल नहीं खाना चाहता। 'साँप टेढ़े-मेढ़े क्‍यों होते हैं?' पहाड़ी लोग यह सवाल करते हैं और खुद ही जवाब देते हैं - 'क्‍योंकि वे सूराख और खड्ड टेढ़े-मेढ़े होते हैं, जिनमें से उन्‍हें रेंगना पड़ता है।' मगर मैं तो साँप नहीं, आदमी हूँ। मुझे ऊँचाई, स्‍वच्‍छ हवा और सीधे रास्‍ते पसंद हैं।
मुझे बीमारी और भय, बोझिल ख्‍याति और हल्‍के-सतही विचारों से बचाओ।
मुझे नशे से बचाओ, क्‍योंकि नशे में आदमी को हर अच्‍छी चीज सौ गुना बुरी लगती है।
मुझे सूफी होने से भी बचाओ, क्‍योंकि सूफी को हर बुरी चीज सौ गुना ज्‍यादा बुरी लगती है।
सचाई के लिए मुझमें ऐसी भावना पैदा करो कि मैं टेढ़े को टेढ़ा और सीधे को सीधा कह सकूँ।
'बड़ी बुरी है, बड़ी बेतुकी है यह दुनिया,'
इतना कहकर ऊबे कवि ने, छोड़ा जग, संसार,
'बड़ी सुहानी, बेहद सुंदर है यह दुनिया,'
कहा दूसरे कवि ने इतना, जग से गया सिधार।
मगर तीसरे कवि ने दुनिया ऐसे छोड़ी
मौत न जिस पर विजयी होती, समय न करता वार,
बुरा बुरे को, सुंदर को सुंदर कहता था
इसीलिए तो सदा अमर वह, यही अमरता-सार।
किसी पहाड़ी आदमी ने अपनी गाय के कानों में झुमके डाल दिए ताकि पराई गउओं से उसका भेद हो सके। किसी पहाड़ी आदमी ने अपने घोड़े की गर्दन में घंटियाँ डाल दीं ताकि पड़ोसी के घोड़ों के साथ अपने घोड़े को न गड़बड़ाए। मगर वह जीगित तो किसी भी काम का नहीं, जो रात के वक्‍त भी अपने प्‍यारे घोड़े को दूर से ही न पहचान ले।
मेरी किताब आपके सामने है। मैं इसे न तो झुमके पहनाना चाहता हूँ, न घंटियाँ और न कोई दूसरे गहने ही। अपनी या पराई अन्‍य किताबों के साथ मैं इसे नहीं गड़बड़ाऊँगा। ऐसे ही लोग भी न गड़बड़ाएँ। चाहे इस किताब का मुखावरण फटा हुआ हो, फिर भी जो कोई इसे पढ़े, फौरन यह कह दे कि इसे त्‍सादा गाँव के हमजात के बेटे रसूल ने लिखा है।
कहते हैं कि साहस यह नहीं पूछता कि चट्टान कितनी ऊँची है।