Wednesday 5 February 2014

उदयप्रकाश


प्यार कहता है अपनी भर्राई हुई आवाज़ में भविष्य
और मैं देखता हूं उसे सांत्वना की हंसी के साथ
हंसी जिसकी आंख से रिसता है आंसू
और शरीर के सारे जोड़ों से लहू।
वह नीम की पत्ती जो गिरती चली जा रही है
इस निचाट निर्जनता में खोजती हुई भविष्य
मैं उसे सुनाना चाहता हूं शमशेर की वह पंक्ति
जिसे भूले हुए अब तक कई बरस हो गए।
-
धोबी का लड़का कुछ शैतान है
और सभ्यता की उसमें निहायत कमी है
वह महाभारत देखना चाहता है टी.वी. में और अपने साथ
अपनी मैली-सी बहन को भी ले आता है
एक दिन ऎसा होगा कि यह सीरियल ख़त्म हो चुका होगा
फिर तो धृतराष्ट्र
पूरी दिल्ली में पूछता फिरेगा किसी धोबी का पता
और उसके कान से टकराएंगी लगातार हार्न की आवाज़ें
महाभारत के ख़त्म होने के बाद कालचक्र कहता है कि
सिर्फ़ हार्न बजते हैं
और खोजने पर भी इन्द्रप्रस्थ में कहीं कोई धोबी नहीं मिलता।
महाभारत के बाद
हर किसी के कपड़ों पर दिखाई देते हैं ख़ून के दाग़।
- उदयप्रकाश

पानी अगर सिर पर से गुज़रा, आलोचको
तो मैं किसी दिन आज़िज़ आकर अपने शरीर को
परात में गूँथ कर मैदे की लोई बना डालूंगा
और पिछले तमाम वर्षों की रचनाओं को मसाले में लपेट कर
बनाऊंगा दो दर्ज़न समोसे
और सारे समोसे आपकी थाली में परोस दूंगा
तृप्त हो जाएंगे आप और निश्चिंत
कि आपके अखाड़े से चला गया
एक अवांछित कवि-कथाकार
नमस्कार!
- उदयप्रकाश


एक भाषा हुआ करती है
जिसमें जितनी बार मैं लिखना चाहता हूं
`आंसू´ से मिलता जुलता कोई शब्द
हर बार बहने लगती है रक्त की धार।
एक भाषा है जिसे बोलते वैज्ञानिक और समाजविद
और तीसरे दर्जे के जोकर
और हमारे समय की सम्मानित वेश्याएं
और क्रांतिकारी सब शर्माते हैं
जिसके व्याकरण और हिज्जों की भयावह भूलें ही
कुलशील, वर्ग और नस्ल की श्रेष्ठता प्रमाणित करती हैं।
बहुत अधिक बोली-लिखी, सुनी-पढ़ी जाती,
गाती-बजाती एक बहुत कमाऊ और बिकाऊ बड़ी भाषा
दुनिया के सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर, सबसे गरीब और सबसे खूंख़ार,
सबसे काहिल और सबसे थके-लुटे लोगों की भाषा,
अस्सी करोड़ या नब्बे करोड़
या एक अरब भुक्खड़ों, नंगों और ग़रीब-लफंगों की जनसंख्या की भाषा,
वह भाषा जिसे वक़्त ज़रूरत
तस्कर, हत्यारे, नेता, दलाल, अफसर, भंड़ुए, रंडियां और कुछ जुनूनी
नौजवान भी बोला करते हैं।
वह भाषा जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि
पागल हो जाता है।
आत्मघात करती हैं प्रतिभाएं
`ईश्वर´ कहते ही आने लगती है जिसमें अक्सर बारूद की गंध।
जिसमें पान की पीक है, बीड़ी का धुआं, तम्बाकू का झार,
जिसमें सबसे ज्यादा छपते हैं दो कौड़ी के मंहगे लेकिन सबसे ज्यादा लोकप्रिय अखबार
सिफ़त मगर यह कि इसी में चलता है
कैडबरीज, सांडे का तेल, सुजूकी, पिजा, आटा-दाल और स्वामी।
जी और हाई साहित्य और सिनेमा और राजनीति का सारा बाज़ार।
एक हौलनाक विभाजक रेखा के नीचे जीने वाले सत्तर करोड़ से ज्यादा लोगों के
आंसू और पसीने और खून में लिथड़ी एक भाषा
पिछली सदी का चिथड़ा हो चुका डाकिया अभी भी जिसमें बांटता है
सभ्यता के इतिहास की सबसे असभ्य और सबसे दर्दनाक चिटि्ठयां
वह भाषा जिसमें नौकरी की तलाश में भटकते हैं भूखे दरवेश
और एक किसी दिन चोरी या दंगे के जुर्म में गिरफ़्तार कर लिए जाते हैं
जिसकी लिपियां स्वीकार करने से इंकार करता है
इस दुनिया का समूचा सूचना संजाल
आत्मा के सबसे उत्पीड़ित और विकल हिस्से में जहां जन्म लेते हैं शब्द
और किसी मलिन बस्ती के अथाह गूंगे कुएं में डूब जाते हैं चुपचाप
अतीत की किसी कंदरा से एक अज्ञात सूक्ति को अपनी व्याकुल
थरथराहट में थामे लौटता है कोई जीनियस।
और घोषित हो जाता है सार्वजनिक तौर पर पागल
नष्ट हो जाती है किसी विलक्षण गणितज्ञ की स्मृति
नक्षत्रों को शताब्दियों से निहारता कोई महान खगोलविद भविष्य भर के लिए अंधा हो जाता है
सिर्फ हमारी नींद में सुनाई देती रहती है उसकी अनंत बड़बड़ाहट...
मंगल..शुक्र.. बृहस्पति...सप्त-ॠषि..अरुंधति...ध्रुव..
हम स्वप्न में डरे हुए देखते हैं टूटते उल्का-पिंडों की तरह
उस भाषा के अंतरिक्ष से
लुप्त होते चले जाते हैं एक-एक कर सारे नक्षत्र।
भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को
अपनी छाती हिलाने की छूट है
जिसमें दण्डनीय है विज्ञान और अर्थशास्त्र और शासन-सत्ता से संबधित विमर्श
प्रतिबंधित हैं जिसमें ज्ञान और सूचना की प्रणालियां
वर्जित हैं विचार।
वह भाषा जिसमें की गयी प्रार्थना तक
घोषित कर दी जाती है सांप्रदायिक
वही भाषा जिसमें किसी जिद में
अब भी करता है तप कभी-कभी कोई शम्बूक
और उसे निशाने की जद में ले आती है
हर तरह की सत्ता की ब्राह्मण-बंदूक।
भाषा जिसमें उड़ते हैं वायुयानों में चापलूस
शाल ओढ़ते हैं मसखरे, चाकर टांगते हैं तमगे
जिस भाषा के अंधकार में चमकते हैं
किसी अफसर या हुक्काम या किसी पंडे के सफेद दांत और
तमाम मठों पर नियुक्त होते जाते हैं बर्बर बुलडॉग।
अपनी देह और आत्मा के घावों को
और तो और अपने बच्चों और पत्नी तक से छुपाता
राजधानी में कोई कवि जिस भाषा के अंधकार में
दिन भर के अपमान और थोड़े से अचार के साथ
खाता है पिछले रोज की बची हुई रोटियां
और मृत्यु के बाद पारिश्रमिक भेजने वाले
किसी राष्ट्रीय अखबार या मुनाफाखोर प्रकाशक के लिए
तैयार करता है एक और नयी पांडुलिपि।
यह वही भाषा है जिसको इस मुल्क में हर बार कोई शरणार्थी,
कोई तिजारती, कोई फिरंग
अटपटे लहजे में बोलता और जिसके व्याकरण को रौंदता
तालियों की गड़गड़ाहट के साथ दाखिल होता है इतिहास में
और बाहर सुनाई देता रहता है वर्षो तक आर्तनाद।
सुनो दायोनीसियस, कान खोल कर सुनो
यह सच है कि तुम विजेता हो फिलहाल, एक अपराजेय हत्यारे
हर छठे मिनट पर तुम काट देते हो
इस भाषा को बोलने वाली एक और जीभ
तुम फिलहाल मालिक हो कटी हुई जीभों,
गूंगे गुलामों और दोगले एजेंटों के
विराट संग्रहालय के
तुम स्वामी हो अंतरिक्ष में तैरते कृत्रिम उपग्रहों, ध्वनि तरंगों,
संस्कृतियों और सूचनाओं
हथियारों और सरकारों के।
यह सच है।
लेकिन देखो,
हर पांचवें सेकंड पर इसी पृथ्वी पर
जन्म लेता है एक और बच्चा
और इसी भाषा में भरता है किलकारी
और
कहता है-`मां´!
- उदयप्रकाश


मत पूछिए क्यों पाँव में रफ्तार नहीं है।
यह कारवाँ मज़िल का तलबग़ार नहीं है।
जेबों में नहीं, सिर्फ़ गरेबान में झाँको,
यह दर्द का दरबार है बाज़ार नहीं है।
सुर्ख़ी में छपी है, पढ़ो मीनार की लागत,
फुटपाथ की हालत से सरोकार नहीं है।
जो आदमी की साफ़-सही शक्ल दिखा दे,
वो आईना माहौल को दरकार नहीं है।
सब हैं तमाशबीन, लगाए हैं दूरबीन,
घर फूँकने को एक भी तैयार नहीं है।
- शेरजंग गर्ग


ख़ुद से रूठे हैं हम लोग।
टूटे-फूटे हैं हम लोग॥
सत्य चुराता नज़रें हमसे,
इतने झूठे हैं हम लोग।
इसे साध लें, उसे बांध लें,
सचमुच खूँटे हैं हम लोग।
क्या कर लेंगी वे तलवारें,
जिनकी मूँठें हैं हम लोग।
मय-ख़्वारों की हर महफ़िल में,
खाली घूंटें हैं हम लोग।
हमें अजायबघर में रख दो,
बहुत अनूठे हैं हम लोग।
हस्ताक्षर तो बन न सकेंगे,
सिर्फ़ अँगूठे हैं हम लोग
- शेरजंग गर्ग

दुख रही है अब नदी की देह
बादल लौट आ
छू लिए हैं पाँय संझा के
सीपियों ने खोल अपने पंख
होंठ तक पहुँचे हुए अनुबंध के
सौंप डाले कई उजले शंख
हो गया है इंतज़ार विदेह
बादल लौट आ।

बह चली हैं बैंजनी नदियाँ
खोलकर कत्थई हवा के पाल
लिखे गेरू से नयन के गीत
छपे कोंपल पर सुरभि के हाल
खेल के पतले हुए हैं रेह
बादल लौट आ।

फूलते पीले पलासों में
काँपते हैं ख़ुशबुओं के चाव
रुकी धारों में कई दिन से
हौसले से काग़ज़ों की नाव
उग रहा है मौसमी संदेह
बादल लौट आ।
- शांति सुमन

हाथी की नंगी पीठ पर
घुमाया गया दाराशिकोह को गली-गली
और दिल्ली चुप रही।
लोहू की नदी में खड़ा
मुस्कुराता रहा नादिर शाह
और दिल्ली चुप रही
लाल किले के सामने
बन्दा बैरागी के मुँह में डाला गया
ताज़ा लहू से लबरेज़ अपने बेटे का कलेजा
और दिल्ली चुप रही।
गिरफ़्तार कर लिया गया
बहादुरशाह जफ़र को
और दिल्ली चुप रही
दफ़ा हो गए मीर गालिब
और दिल्ली चुप रही।
दिल्लियाँ
चुप रहने के लिए ही होती हैं हमेशा
उनके एकान्त में
कहीं कोई नहीं होता
कुछ भी नहीं होता कभी भी शायद।
- शलभ श्रीराम सिंह

लडकी अकेली है अपने सुख में
अपने दुःख में अकेली है लडकी
अकेली है अपनी उत्तेजना
और अपने आक्रोश में।
अकेली है अपने संवाद में
अपनी चुप्पी में अकेली है लडकी
अकेली है अपनी हँसी में।
अकेली है अपनी नीद में
अपने सपनों में अकेली है लडकी
अकेली है अपनी सुबहों में।
अकेली है अपनी दोपहरों में
अपनी शामों में अकेली है लडकी
अकेली-अकेली है अपनी किताबों में।
लडकी अकेली है अपनी तन्हाइयों में
अपनी जम्हाइयों में अकेली है लडकी
अकेली है अपनी अंगड़ाइयों में
लडकी अकेली है इस वक़्त।
- शलभ श्रीराम सिंह

ताल भर सूरज--
बहुत दिन के बाद देखा आज हमने
और चुपके से उठा लाए--
जाल भर सूरज!
दृष्टियों में बिम्ब भर आकाश--
छाती से लगाए
घाट
घास
पलाश!
तट पर खड़ी बेला
निर्वसन
चुपचाप
हाथों से झुकाए--
डाल भर सूरज!
ताल भर सूरज...!
- शलभ श्रीराम सिंह

द्रव्य नहीं कुछ मेरे पास
फिर भी मैं करता हूं प्यार
रूप नहीं कुछ मेरे पास
फिर भी मैं करता हूं प्यार
सांसारिक व्यवहार न ज्ञान
फिर भी मैं करता हूं प्यार
शक्ति न यौवन पर अभिमान
फिर भी मैं करता हूं प्यार
कुशल कलाविद् हूं न प्रवीण
फिर भी मैं करता हूं प्यार
केवल भावुक दीन मलीन
फिर भी मैं करता हूं प्यार ।
मैंने कितने किए उपाय
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
सब विधि था जीवन असहाय
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
सब कुछ साधा, जप, तप, मौन
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
कितना घूमा देश-विदेश
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
तरह-तरह के बदले वेष
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम ।
उसकी बात-बात में छल है
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
माया ही उसका संबल है
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
वह वियोग का बादल मेरा
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
छाया जीवन आकुल मेरा
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
केवल कोमल, अस्थिर नभ-सी
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
वह अंतिम भय-सी, विस्मय-सी
फिर भी है वह अनुपम सुंदर ।
- शमशेर बहादुर सिंह

सब डरते हैं, आज हवस के इस सहरा में बोले कौन।
इश्क तराजू तो है, लेकिन, इस पे दिल को तौले कौन।
सारा नगर तो ख्वाबों की मैयत लेकर श्मशान गया
दिल की दुकानें बंद पड़ी है, पर ये दुकानें खोले कौन।
काली रात के मुँह से टपके जाने वाली सुबह का जूनून
सच तो यही है, लेकिन यारों, यह कड़वा सच बोले कौन।
हमने दिल का सागर मथ कर काढ़ा तो कुछ अमृत
लेकिन आयी, जहर के प्यालों में यह अमृत घोले कौन।
लोग अपनों के खूँ में नहा कर गीता और कुरान पढ़ें
प्यार की बोली याद है किसको, प्यार की बोली बोले कौन।
- राही मासूम रजा

दिल में उजले काग़ज पर हम कैसा गीत लिखें।
बोलो तुम को गैर लिखें या अपना मीत लिखें।
नीले अम्बर की अंगनाई में तारों के फूल
मेरे प्यासे होंठों पर हैं अंगारों के फूल
इन फूलों को आख़िर अपनी हार या जीत लिखें।
कोई पुराना सपना दे दो और कुछ मीठे बोल
लेकर हम निकले हैं अपनी आंखों के कश-कोल
हम बंजारे प्रीत के मारे क्या संगीत लिखें।
शाम खड़ी है एक चमेली के प्याले में शबनम
जमुना जी की उंगली पकड़े खेल रहा है मधुबन
ऐसे में गंगा जल से राधा की प्रीत लिखें।
- राही मासूम रजा

क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए
क्‍या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए।
हम भी कैसे दीवाने हैं किन लोगों में बैठे हैं
जान पे खेलके जब सच बोलें तब झूठे कहलाए।
इतने शोर में दिल से बातें करना है नामुमकिन
जाने क्‍या बातें करते हैं आपस में हमसाए।।
हम भी हैं बनवास में लेकिन राम नहीं हैं राही
आए अब समझाकर हमको कोई घर ले जाए ।।
- राही मासूम रजा

हम तो हैं कंगाल
हमारे पास तो कोई चीज़ नहीं
कुछ सपने हैं
आधे-पूरे
कुछ यादें हैं
उजली-मैली
जाते-जाते
आधे-पूरे सारे सपने
उजली-मैली सारी यादें
हम मरियम को दे जाएंगे।
गंगोली के कच्चे घर में उगने वाला सूरज
आठ मुहर्रम की मजलिस का अफसुर्दा-अफसुर्दा हलवा
आँगन वाले नीम के ऊपर
धूप का एक शनासा टुकड़ा
गंगा तट पर
चुप-चुप बैठा
जाना-पहचाना इक लम्हा
बिस्मिल्लाह खाँ की शहनाई
अहमद जान के टेबल की चंचल पुरवाई
खाँ साहिब की ठुमरी की कातिल अंगड़ाई
रैन अँधेरी
डर लागे रे
मेरी भवाली की रातों की ख़ौफ़ भारी लरज़ाँ तन्हाई
छोटी दव्वा के घर की वो छोटी सी सौंधी अँगनाई
अम्मा जैसा घर का आँगन
अब्बा जैसे मीठे कमरे
दव्वा जैसी गोरी सुबहें
माई जैसी काली रातें
सब्ज़ परी हो
या शहज़ादा
सबकी कहानी दिल से छोटी
फड़के
घर में आते-आते
हर लम्हे की बोटी-बोटी
मेरे कमरे में नय्यर पर हँसने का वो पहला दौरा
लम्हों से लम्हों की क़ुरबत
लम्हों से लम्हों की दूरी
गंगोली की
गंगा तट की
ग़ाज़ी पुर की हर मजबूरी
मेरे दिल में नाच रही है
जिन-जिन यादों की कस्तूरी
धुंधली गहरी
आधी-पूरी
उजली-मैली सारी यादें
मरियम की हैं
जाते-जाते
हम अपनी ये सारी यादें
मरियम ही को दे जाएँगे।
अच्छे दिनों के सारे सपने
मरियम के हैं
जाते-जाते
मरियम ही को दे जाएँगे।
मरियम बेटी
तेरी याद की दीवारों पर
पप्पा की परछाई तो कल मैली होगी
लेकिन धूप
तिरी आँखों के
इस आँगन में फैली होगी।
- राही मासूम रजा

एक चुटकी नींद की मिलती नहीं
अपने ज़ख़्मों पर छिड़कने के लिए
हाय हम किस शहर में मारे गये।
घंटियाँ बजती हैं
ज़ीने पर कदम की चाप है
फिर कोई बेचेहरा होगा
मुँह में होगी जिसके मक्खन की ज़ुबान
सीने में होगा जिसके इक पत्थर का दिल
मुस्कुराकर मेरे दिल का इक वरक़ ले जाएगा।
- राही मासूम रजा



अग्निशेखर


इन दिनों मेरी बिटिया निहारती है
कैम्प में चिड़ियों को
सुनती है धूप में उनकी बातें
और देर तक रहती है गुम सामने-सामने।
उड़ जाती हैं टैंट की रस्सियों से
एक साथ बीसियों चिड़ियाँ
सूनी हो जाती है मेरी बिटिया
लुप्त हो जाती है उसकी चहक
फिर अनायास पूछती है-
पापा, हम कब जाएंगे घर?