Monday 6 April 2015

‘इण्डियाज डॉटर’ जैसी डॉक्यूमेन्ट्रीज पर जब तक बैन लगता रहेगा, ‘माय च्वाइस’ जैसी शॉर्ट फिल्में आती रहेंगी / मैत्रेयी पुष्पा

जयपुर में एंटरटेनमेन्ट नेक्सजेन की ओर से ‘इंटरनेशनल वीमन जर्नलिस्ट डे’ पर कानोडिया गर्ल्स कॉलेज में पांच महिला पत्रकारों को सम्मानित किया गया। इस अवसर पर कथाकार मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि जब तक निर्भया काण्ड पर आधारित ‘इण्डियाज डॉटर’ जैसी डॉक्यूमेन्ट्रीज पर बैन लगता रहेगा, तब तक दीपिका पादुकोण की ‘माय च्वाइस’ जैसी शॉर्ट फिल्में आती रहेंगी। इण्डियाज डॉटर पर लगाई गई सरकारी रोक पुरूषवादी सोच का एक षड़यन्त्र है। जब तक एक बलात्कारी की मानसिकता को आमजन के सामने नहीं लाया जाएगा, तब तक निर्भया काण्ड जैसी घटनाओं पर पूरी तरह रोकथाम समाज के लिए संभव नहीं।
महिला पत्रकारिता की स्थिति पर लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि मेरे विचार में पत्रकारिता उसी प्रकार है जैसे कि किसी सिपाही का रणक्षेत्र में जाना। आज महिलाएं पत्रकारिता के कई क्षेत्रों में सक्रिय हैं, लेकिन आज भी पत्रकारिता में ग्रामीण महिलाओं की स्थिति कहीं नजर नहीं आती। उन्होंने कहा कि महिला पत्रकार शहर की सड़कों को ही नहीं देखें, बल्कि गांव की डगर भी खोजें, तभी उन्हें असली भारत की सच्ची तस्वीर नजर आएगी और वे सही मायने में पत्रकारिता को नये आयाम दे पाएंगीं। अपने वक्तव्य में मैत्रेयी पुष्पा ने पत्रकारिता में अंग्रेजी तथा द्विअर्थी शब्दों के अधिक उपयोग पर भी विचार रखे।
उन्होंने कहा कि विदेश फिल्मों तथा टीवी कॉमर्शियल्स के जरिए अब ऐसी सामग्री अखबारों और न्यूज चैनलों पर भी प्रकाशित-प्रसारित हो रही है, जिसे रोकने की महती आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि हिन्दी के प्रसार के लिए शुरूआत अपने घर से होनी चाहिए क्योंकि अंग्रेजी रोजगार के लिए आवष्यक भाषा हो सकती है, जीवन के लिए नहीं। इस टॉक शो के दौरान मैत्रेयी पुष्पा के साथ पत्रकार अमृता मौर्या ने संवाद किया।
इस अवसर पर फीचर लेखन के लिए वर्षा भम्भाणी मिर्जा, फोटो पत्रकारिता के लिए मोलिना खिमानी, उर्दू पत्रकारिता के लिए जीनत कैफी, टीवी पत्रकारिता के लिए राखी जैन तथा महिला लेखन व रिपोर्टिंग के लिए लता खण्डेलवाल को ‘‘नेक्सजेन वीमन जर्नलिस्ट अवॉर्ड’’ से नवाजा गया। सम्मान स्वरूप उन्हें शॉल ओढ़ाकर स्मृति चिन्ह और प्रशस्ति पत्र भेंट किए गए। 

क्षमा करें वे जो मेरी इस आलोचना मे जाने अंजाने आ गए हो / स्वाति तिवारी

कुछ युवा आलोचक केवल मित्रों या मात्र एक मित्र की ही किताबों पर एसी एसी आलोचना लिखते है की उन्हे सदी का महान साहित्यकार सिद्ध करने मे लगे रहते है , कुछ प्रकाशक भी फेवरेट फोबिया के शिकार होते है जो बार बार उन्ही उन्ही पुस्तकों की समीक्षा यहाँ वहाँ करवाते रहते है , कुछ एक हाथ दे एक हाथ ले वाले समीक्षक है मै तेरी पुस्तक यशगान लिखता हूँ तू मेरी का गीत गा देना । कुछ खुद ही सधी सटीक कहने लगते है । तो मेरी समझ से समीक्षा अपना महत्व खो चुकी है , लेखक को इन आलोचको से बाहर निकल कर कुछ नागरिक पत्रकारिता की तर्ज पर नागरिक आलोचको को खोजना चाहिए युवा पाठकों मे जाना चाहिए ,आम पाठक को रचना कैसी लगी मूल्यांकन की दृष्टि को इस बदलाव की जरूरत है ।आलोचना के प्रचलित नाम समय अभाव या लाभ हानी के गणित मे उलझे होते है किताबें सालो रखे रहते इस विडम्बना के चलते अच्छी कितबे केवल अलमारी मे रहा जाते है ,आलोचना को अपने नए मान दंड खोजना होंगे ---------उन्हे कितबे भेजनी बंद करदेनी चाहिए जो केवल किताबों का संग्रह करने के लिए समीक्षा के नाम पर लेलेते है -----क्षमा करें वे जो मेरी इस आलोचना मे जाने अंजाने आ गए हो ----------व्यक्तिगत रुचि के आधार पर किसी कृति की निन्दा या प्रशंसा करना आलोचना का धर्म नहीं है। कृति की व्याख्या और विश्लेषण केͧलए आलोचना में पद्धति और प्रणाली का महत्त्व होता है। आलोचना करते समय आलोचक अपने व्यक्तिगत राग-द्वेष, रुचि-अरुचि सेतभी बच सकता है जब पद्धति का अनुसरण करे. वह तभी वस्तुनिष्ठ होकर साहित्य के प्रति न्याय कर सकता है। इस दृष्टि से हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को सर्वश्रेष्ठ आलोचक माना जाता है।कितने आलोचक इन सिद्धांतों को ध्यान मे रखते है यह देखा जाना चाहिए आलोचना करते समय जिन मान्यताओं और पद्धतियों को स्वीकार किया जाता है, उनके अनुसार आलोचना केप्रकार विकसित हो जाते हैं। सामान्यत: समीक्षा के चार प्रकारों को स्वीकार किया गया है:-
सैद्धान्तिक आलोचना
निर्णयात्मक आलोचना
प्रभावाभिव्यजंक आलोचना
व्याख्यात्मक आलोचना
कुंवर नारायण : आलोचना संबधी कुछ शब्दों और `पदों` पर गहराई से विचार करना चाहिए, जैसे `आलोचना`, `समीक्षा', `विवेचना', `मूल्यांकन`, 'अध्ययन`, `व्याख्या`, `आकलन', `विश्लेषण', `रिव्यू` आदि जो एक कृति या रचना पर सोच विचार से जुड़े पद हैं । इनके अभिप्राय और आशय एक से लगते हुए भी एक से नहीं हैं। एक कृति के गुण-दोष निर्धारण में इन पदों के बीच फर्क का आभास मिलते रहना चाहिए । `पदों` को लेकर असावधानी और थोकपन की वजह से भी अनेक भ्रांतियां उत्पन्न होती है । किसी भी कृति को केवल एक ही दृष्टि से और एक ही तरफ से देखना भी पर्याप्त नहीं है, क्योंकि एक रचना के स्वभाव में ही बहुलता और अनेकता होती है । उसे कई तरह से जांचना परखना जरुरी होता है । अपने पूर्वाग्रह अपनी जगह लेकिन समीक्षा की जाँच पड़ताल में अगर भरसक निष्पक्षता और तटस्थता हो तो शायद वह मानक समीक्षा के आदर्श के ज्यादा नजदीक मानीजा सकती है। रचना जीवन-सापेक्ष होती है। वह जीवन की सच्चाइयों से हमारा सामना कराती है।
स्वाति तिवारी के फेसबुक वॉल से

बहुत जल्दी, वे धूप बेचेंगे और हम हंसकर लेंगे / भारत सिंह

पुराने लोगों के सपने से भी बाहर की बात थी कि एक दिन पानी बिकेगा, आज बिकता है। मार्च-अप्रैल से दिल्ली में सड़क किनारे एक-दो रुपए का 1 गिलास पानी बिकने लग जाता है। बोतलबंद पानी की कीमतों की बात करना तो बेमानी ही हो गया है। हाल ही में अमेरिका में एक मजेदार केस दर्ज हुआ, जब उसके एक एयरपोर्ट पर 1 लीटर पानी की बोतल 5 डॉलर यानी करीब 300 रुपए में बेची जाने लगी, वैसे इसकी कीमत 150 रुपए थी। अगर ये कीमत ज्यादा लग रही हो तो आपको बता दें कि दुनिया में सोने की धूल मिले पानी से लेकर, रंगत निखारने, हवा या जमीन तक आने से पहले बोतल में बंद होने वाले पानी, पतला-छरहरा और जवान बनाने, तनाव भगाने के नाम पर 50 लाख रुपए प्रति लीटर की कीमत तक का पानी बेचा जाता है।
 पानी के बहुमूल्य होने पर अब आपको यकीन हो गया तो हवा की सुन लें। चीन के प्रदूषित शहरों में साफ डिब्बाबंद हवा बिकने लगी है। यानी आप प्रदूषित हवा से परेशान हो गए हैं तो एक डिब्बा ऑक्सीजन खरीदिए, उसे अपने भीतर उड़ेलिए और कॉर्बनडाई ऑक्साइड बनाकर छोड़ दीजिए। अभी सन् 2015 चल रहा है, धरती की उम्र अरबों साल आंकी जाती है। तब तक इस दुनिया में क्या-क्या खरीदना पड़ेगा, अंदाजा लगाना मुश्किल है।
 इंसान ने अपने जीवन के लिए जरूरी पानी और हवा जैसी चीजों को बेचना क्यों शुरू किया होगा, यह सोचना और समझना अपने आप में बड़ा मजेदार हो सकता है। धरती पर मौजूद जीवों में से इंसान ने ही अपने दिमाग का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया है और अब तक बाकी जीवों के खतरे से खुद को सुरक्षित भी कर लिया है। बाकी जीव भी अगर दिमाग इस्तेमाल कर रहे होते तो वे भी पानी और हवा बेच रहे होते और सभी जीवों में अपने-अपने हिस्से के पानी और हवा के लिए जंग छिड़ी होती। जंग अब सिर्फ इंसानों में बची है, इसी हवा, पानी, जमीन को अपने-अपने हिस्से का बताने और साबित करने की।
 अब बात करें धूप की। मौजूदा मानवीय व्यवस्था सभी चीजों को विकेंद्रित करने की है यानी सारी ताकत सीमित जगह पर जमा करने की। ऐसा हम जीवन के लगभग हर क्षेत्र में देख सकते हैं। हमने समय रहते इस व्यवस्था के दुष्परिणामों को नहीं आंका तो खतरे और भी बढ़ेंगे। आज जिन शहरों में आबादी बढ़ रही है, वहां का हाल देखिए। घोंसलों जैसे घर बने हैं, जिनमें इंसान दुबक कर रहते हैं। वहां ठीक से हवा और धूप नहीं आती। इसलिए, ऐसा दिन दूर नहीं जब धूप बिकने लगे। सर्दियों के दिन हों और आपके घर में धूप का कतरा तक नहीं पहुंचता हो तो कोई आपका दरवाजा खटखटाएगा या आप ऑनलाइन बुकिंग करके धूप बेचने वालों को खुद बुलाएंगे। वे आपको घर से गाड़ी में बिठाकर एक साफ-सुथरी जगह पर ले जाएंगे। वहां, आपके जैसे अच्छे कपड़े पहने लोग धूप का मजा लेते मिलेंगे और सब मिलकर अपने वहां होने पर गर्व भी करेंगे।
 ये बात अभी तो हाइपॉथेटिकल लग सकती है मगर इसके सच होने की पूरी आशंका है। हमने क्या किया? इंसानी जरूरतों की अहम चीजें बेचने के लिए कुछ लोगों के हाथों में दे दीं। उन्होंने क्या किया? मुनाफे के चश्मे से दुनिया को देखा। पानी बेचा, हवा बेची, जमीन बेची। इसके बाद दूसरे नंबर की जरूरी चीजों को भी हमने निजी हाथों में दिया। उन्होंने क्या किया? हमें सेहत बेची, घर बेचा, पढ़ाई बेची, एक जगह से दूसरी जगह तक आना-जाना बेचा। सिर्फ बेचा ही नहीं, इन चीजों के लिए हमारी पूरी जिंदगी को गिरवी रख लिया। आज इंसान बुढ़ापे तक नौकरी करे तो भी उसे खाने, पीने, छत के नीचे रहने, सेहतमंद रहने और अच्छा पढ़ने और अपनी अगली पीढ़ी को पढ़ाने की गारंटी प्राप्त नहीं है।
 हर क्षेत्र में निजीकरण का शोर है। आदिवासियों के जंगलों के बाद विकास के लिए किसानों की जमीनें लेने की बातें हो रही हैं। निजीकरण और इसकी वजहों को समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है, ये ऊपर बताया गया मुनाफे का चश्मा भर है। किसी भी काम से किसी को क्या हासिल होगा, ये सोचते ही आपको एक जंतर मिल जाएगा, गांधी के दिए 'आखिरी आदमी' वाले जंतर जैसा ही बड़ा काम का जंतर। निजीकरण किसलिए जरूरी बताया जाता है? विकास के लिए। विकास क्या होता है? इंसान को पानी-हवा-धूप खरीदने पर मजबूर करना विकास होता है। हां, साथ में उसे इन चीजों को खरीदने पर गर्व की अनुभूति कराना भी विकास होता है। इसके अलावा, धरती के किसी कोने में चमकती- रात में भी रोशन रहने वाली सड़कों, घर से नजदीक मॉल-सिनेमा हॉल के पास होना भी विकास होता है। यहां बने 2 कमरों में रहने के लिए किराए के बीसियों हजार रुपए देना भी विकास होता है।
 ऐसा नहीं है कि ऊपर बताई चीजें सरकार मुहैया नहीं करा सकती या नहीं कराती आई है। सरकार नाम की व्यवस्था होती ही इसलिए है कि एक प्रक्रिया के तहत अपने नागरिकों को जरूरी चीजें मुहैया कराए। मसलन- घर, पानी, भोजन, शिक्षा, सेहत, यात्रा की सुविधा आदि। हर इंसान, इन चीजों को अपने स्तर पर भी कर सकता था, पर अव्यवस्था न हो, इसलिए एक समझौते के तहत उसने अपने बीच से कुछ लोगों को चुना जो इन कामों को देखेंगे। इन कामों या व्यवस्था को चलाने के लिए उसने कुछ रकम (टैक्स के तौर पर) देनी भी मंजूर की। आज हो ये रहा है कि वह रकम तो ली जा रही है, पर खर्च कहीं और हो रही है। बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य सब निजी हाथों में देकर लोगों से एक ही चीज के लिए दो-दो बार पैसे लिए जा रहे हैं।
 अगर पशु-पक्षी भी इंसानी भाषा समझ सकते तो जानते हैं, उनकी सभी पीढ़ियों के लिए सबसे बड़ा चुटकुला क्या होता? यही कि अपने को बाकी जीवों से बेहतर मानने वाले इंसानों ने जिन मुट्ठी भर लोगों को अपना जीवन आराम से चलाने और कुछ काम करवाने के लिए चुना था, वे गिने-चुने लोग ही अब बाकी लोगों को ठोक-पीटकर सारे काम अपनी मर्जी से करते हैं और कुछ मुट्ठी भर लोगों के कहने पर करते हैं (ऐसा करने वालों में लोकतंत्रों के सारे स्तंभ शामिल हैं)।
 हमारे देश में भी रेलवे, रक्षा, व्यापार, कृषि सभी क्षेत्रों को देर-सबेर निजी हाथों में जाना है। इसका सबूत देने के लिए इतना काफी है कि इस देश के नए-नवेले पीएम ने बहुमत से सत्ता में आने के छह महीनों के भीतर ही मुंबई में मुकेश और नीता अंबानी के एक आलीशान अस्पताल का उद्घाटन किया था। उद्घाटन के दौरान उन्होंने एक बड़ी मजेदार चीज कही थी, 'इस अस्पताल के जीर्णोद्धार की तरह राष्ट्र का भी जीर्णोद्धार हो सकता है....।'

फर्जी आईएएस प्रकरण: चार दिन की पुलिस रिमांड पर भेजी गई रूबी


छोड़ो किसान-फिसान की बात, आओ क्रिकेट खेलते हैं (यूपी के सीएम साहब)


सार्त्र पर डॉ. विजयमोहन सिंह का कार्य अद्भुत था, उनका चला जाना अपूरणीय क्षति

रूप सिंह चंदेल लिखते हैं, डॉ. विजयमोहन सिंह का चला जाना हिन्दी साहित्य के लिए एक अपूरणीय क्षति है. वह न केवल एक सशक्त कथाकार थे बल्कि उतने ही समर्थ आलोचक भी थे.
 सार्त्र पर उनका कार्य अद्भुत है.
सादतपुर (दिल्ली) में वरिष्ठ कवि,कथाकार,जीवनीकार और आलोचक श्री विष्णुचन्द्र शर्मा के निवास पर सादतपुर के साहित्य समाज द्वारा कल दि. ५.४.१५ को एक शोक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें हरिपाल त्यागी,रामकुमार कृषक,वीरेन्द्र जैन, महेश दर्पण, विजय श्रीवास्तव, हीरालाल नागर, अरविन्द कुमार सिंह, रूपसिंह चन्देल और एक सज्जन जिन्हें मैं नहीं जानता सम्मिलित हुए. विजयमोहन सिंह की एक कहानी का पाठ किया गया. तदुपरांत महेश दर्पण ने उन पर अत्यंत सारगर्भित अपना संस्मराणात्मक आलेख पढ़ा. एक-एक कर सभी ने विजयमोहन जी के व्यक्तित्व और साहित्य पर अपने विचार प्रस्तुत किए.
विजयमोहन सिंह विष्णु जी के अच्छे मित्र थे.विष्णु जी से उनका परिचय उनके छात्र जीवन के समय हुआ था और अंत तक रहा. विष्णु जी ने विस्तार से उनके जीवन पर प्रकाश डाला. इस शोक सभा में जो बात ज्ञात हुई वह यह कि दिल्ली की किसी भी संस्था ने उन पर शोक सभा का आयोजन नहीं किया. यह इस बात को सिद्ध करता है कि हिन्दी साहित्यकार किस प्रकार खेमों में बट गए हैं. विजयमोहन की विशेषता थी कि उन्हें जो सही लगता (संभव है कि दूसरे को वह गलत लगता हो) वह उसे कह देते थे. क्या यह कारण था? अर्थात हिन्दी वालों में अपनी आलोचना सुनने की क्षमता चुक गई है......किसी भी साहित्य के लिए क्या इसे शुभ कहा जा सकता है?

फेसबुक पर राष्ट्रपति का कार्टून लाइक करने पर पत्रकार को सजा

तुर्की में फेसबुक पर राष्ट्रपति का कार्टून लाइक करने पर कोर्ट ने पत्रकार याशर एल्मा को 23 महीने की सशर्त सजा सुनाते हुए टिप्पणी को राष्ट्रपति का अपमान करार दिया है। कोर्ट ने याशर एल्मा को पहले 28 महीने की कैद की सजा सुनाई। बाद में ऊपरी अदालत में अपील करने पर सजा घटाकर 23 महीने कर दी गई।
याशर एल्मा की वकील दिलबर देमिरेल कोर्ट के इस फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती देंगी। उनका तर्क है कि 'आलोचना' और 'अपमान' में फर्क होता है। कोर्ट को दोनों का अंतर स्पष्ट करना चाहिए। तुर्की में किसी गैरसरकारी व्यक्ति का अपमान करने पर तीन माह की कैद का प्रावधान है। सरकारी कर्मचारी का अपमान करने पर सजा की अवधि एक वर्ष या उससे अधिक हो सकती है।
याशर एल्मा ने मीडिया को एक व्यक्तिगत बातचती के दौरान बताया कि उन्होंने तो सिर्फ राष्ट्रपति के बारे में लिखी एक टिप्पणी को पढ़कर उसे लाइक कर दिया था। इसके आधा घंटा बाद उन्होंने अपना ’लाइक’ हटा भी लिया था। इसी दौरान उनके पास पुलिस टीम पहुंच गई। भला उन्हें क्या पता था कि फेसबुक पर टिप्पणी लाइक करना भी जुर्म है।

... तो इसे कहते हैं भैया 'पेड न्यूज' : विधानसभा अध्यक्ष ने प्रेस कांफ्रेंस में मीडिया वालो को बांटे गिफ्ट वॉउचर

भीलवाड़ा (राजस्थान) : यहां प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष कैलाश मेघवाल की प्रेस कांफ्रेंस में पिछले दिनो गिफ्ट वॉउचर बांटे गए। मेघवाल का कहना है कि 'मैंने स्वेच्छा से पत्रकार साथियों को गिफ्ट वॉउचर दिए हैं, इस पर किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए।'
रविवार को यहां सर्किट हाउस में मेघवाल पत्रकारों से रू-ब-रू हुए थे। इसमें पत्रकारों को पेन-डायरी के साथ एक-एक हजार रुपए के गिफ्ट वाउचर दिए गए। एक पत्रकार ने मेघवाल के सामने ही वाउचर दिए जाने को लेकर कड़ी आपत्ति प्रकट की तो मेघवाल ने उसे यह कहते हुए हंसी में टाल दिया कि आप सब अपने हैं, मैं अपनी इच्छा से ये तोहफा दे रहा हूं।
उस समय प्रेस कांफ्रेंस में करीब सौ पत्रकार मौजूद थे। राजस्थान पत्रिका के संवाददाता और फोटोग्राफर समेत कई पत्रकारों ने विधानसभा अध्यक्ष मेघवाल से गिफ्ट वॉउचर लेने से साफ मना कर दिया। ये घटना इन दिनो पूरे राजस्थान के मीडिया में चर्चा का विषय बना हुआ है।
इस पर सवालिया कटाक्ष करते हुए पत्रकार मनीष शुक्ला अपने फेसबुक वॉल पर लिखते हैं - '' स्वेच्छा... लेने वाले की या देने वाले की? 'फिक्र खबर की थी, जिक्र खबर का था, फिर अखबारों ने दम क्यूं तोड़ा? फिक्र कलम की थी, जिक्र कलम का था, फिर स्याही ने दम क्यूं तोड़ा? फिक्र पाठक की थी, जिक्र पाठक का था, फिर प़त्रकारिता ने दम क्यूं तोड़ा?''

मेरठ में लपटों ने छह लोगों को जिंदा लील लिया

उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में सोमवार तड़के भीषण आग लग गई। इस आग की चपेट में आने से छह लोग जिंदा जल गये। मरने वालों में चार बच्चे और दो महिलाएं शामिल हैं। 
दो अन्य लोगों की हालत बेहद नाजुक बतायी जा रही है। इस घटना में पुलिस और फायर बिग्रेड कर्मियों पर देर से आने का आरोप लगा है जिसे लेकर प्रदर्शन किया जा रहा है। पुलिस अधिकारियों का कहना है कि परवेज के घर पर ही अवैध रूप से पेट्रोल और डीजल बेचने का काम होता था। घर में रखे पेट्रोल और डीजल की वजह से ही आग ने भयंकर रूप ले लिया। आग की भयंकरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां पर स्थित दो बिल्डिगों के आठ फ्लैटों को प्रशासन ने खतरनाक मानते हुए खाली करा दिया है।

वाह जी... कंधे पर हो के सवार, चले हैं सरकार

हमारे लोकतंत्र में सब कुछ संभव है। इसी तरह उत्तरांचल में आई बाढ़ के दिनो में एक टीवी रिपोर्टर ने वहां के एक आदमी के कंधे को नैया बनाकर लाइव रिपोर्टिंग की थी, जिसकी पूरे देश भर में थू-थू हुई थी। 
तो ये कोई नई बात नहीं। जब, जिसे भी मौका मिलता है, कूद कर दूसरे के कंधे पर सवार होकर अपनी नैया पार लगाने में जुट जाता है। 
घाट-घाट पर पार इसी तरह से पार उतरने वालो का जमघट है। ऐसी ही सवारियों से लोकतंत्र का कंधा टीसने लगा है। 
अजब हाल है। गजब लोकतंत्र है !! 

कैफी तेरे गांव में ये क्या कर दिया फिल्मी बिटिया ने

मुंबई में पिछले दिनों शबाना आजमी के एनजीओ मिजवान वेलफेयर सोसायटी ने एक फैशन शो का आयोजन किया। 
मिजवान शबाना के पिता मशहूर शायर कैफी आजमी का पैतृक गांव था। 
गांव के लिए पैसा एकत्र करने के लिए शबाना ने ये फैशन शो आयोजित किया। शबाना के इस शो में रैंप पर उतरे बॉलीवुड के नामचीन कई सितारे।
इससे लगता है कि गिरावट कहां तक पहुंच गई है। कैफी साहब ने ऐसा सोचा भी न होगा कि एनजीओ और पैसे की खातिर उस कैफी आजमी की शख्सियत को इतनी फूहड़ और गैरजिम्मेदाराना पहचान दी जाएगी। हैरत इस बात की भी है कि इस रैंप पर शबाना के पति वो जनाब जावेद अख्तर भी उतरे, जिन्हें जनवादी विचारों के लिए फिल्म इंडस्ट्री में ही नहीं, पूरे साहित्यिक-सामाजिक परिवेश और सियासत में बड़ा पुख्ता माना जाता रहा है।