Thursday 4 July 2013

बदलाव को रेखांकित करती रेडियो पत्रकारिता


जया केतकी

पत्रकारिता का ताना-बाना आज पूरी तरह बदल गया है।पुस्तक : रेडियो पत्रकारिता रोज नये-नये तकनीक और पहलू, पत्रकारिता को एक अलग पहचान दिलाने में लगे हैं। सूचना तकनीक के विकास और विस्तार में पत्रकारिता के क्षेत्र इलेक्ट्रानिक मीडिया को दिनों-दिन विस्तार दे रहा है। इसके पारंपरिक संवाद ने माध्यम को अपना बाना बदलने को विवश कर दिया है। बदलते दौर में इंटरनेट, एफ-एम रेडियो, मोबाईल मीडिया जैसे वैकल्पिक माध्यम हमारे जीवन के अंग बनते जा रहे हैं। ऐसे में प्रिंट मीडिया के साथ-साथ रेडियो पत्रकारिता के ताना-बाना का विकसित होना भी स्वाभाविक है। लेखक-पत्रकार संजय कुमार की सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘‘ रेडियो पत्रकारिता ’’ इन्हीं पहलूओं को समेटे हुए है।
रेडियो पत्रकारिता आज मीडिया के दौर में स्वतंत्र पाठ्यक्रम के तौर पर विकसित हो रही है। श्रोताओं को बांधे रखने के लिए रेडियो की तकनीक और स्वरूप में बदलाव आ रहा है। डिजीटल में यह कन्वर्ट हो रहा है। अब पाकेट में रेडियो आ चुका है। मोबाइल में रेडियो बजता है। रेडियो पत्रकारिता में हो रहे बदलाव को रेखांकित करता है पुस्तक ‘‘ रेडियो पत्रकारिता ’’।
इस पुस्तक में रेडियो पत्रकारिता खासकर समाचार के विभिन्न पहलुओं पर विशेष तौर से प्रमुखता दी गयी है। पुस्तक में रेडियो पत्रकारिता का इतिहास, समाचार लेखन, समाचार की भाषा, वाइस कास्ट, समाचार वाचन, साक्षात्कार, रेडियो के विभिन्न प्रकार और कार्यक्रमों के साथ-साथ भारत में प्रसारण के इतिहास पर रोशनी डाली गयी है। ‘‘ रेडियो पत्रकारिता ’’ पुस्तक, पत्रकारिता के छात्रों के लिए जहां महत्वपूर्ण है, वहीं पत्रकारिता में रूचि रखने वालों के लिए भी इसमें बहुत कुछ है।

प्रेम कहानी और रूसी के सर्वश्रेष्ठ कवि अलेक्सांद्र पूश्किन


अलेक्सांद्र सेर्गेयेविच पूश्किन रूसी भाषा के छायावादी कवियों में से एक थे जिन्हें रूसी का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है। उन्हें आधुनिक रूसी कविता का संस्थापक भी माना जाता है। पूश्किन के 38 वर्ष के छोटे जीवनकाल को हम 5 खंडों में बाँटकर समझ सकते हैं। 26 मई 1799 को उनके जन्म से 1820 तक का समय बाल्यकाल और प्रारंभिक साहित्य रचना को समेटता है। 1820 से 1824 का समय निर्वासन काल है। 1824 से 1826 के बीच वे मिखायेलोव्स्कोये में रहे। 1826-1831 में वे ज़ार के करीब आकर प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँचे। 1831 से उनकी मृत्यु (29 जनवरी 1837) तक का काल उनके लिए बड़ा दुःखदायी रहा।
बारह साल की उम्र में पूश्किन को त्सारस्कोयेस्येलो के बोर्डिंग स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा गया। सन्‌ 1817 में पूश्किन पढ़ाई पूरी कर सेंट पीटर्सबर्ग आ गए और विदेश मंत्रालय के कार्यों के अतिरिक्त उनका सारा समय कविता करने और मौज उड़ाने में बीता, इसी दौरान सेना के नौजवान अफसरों द्वारा बनाई गई साहित्यिक संस्था ग्रीनलैंप में भी उन्होंने जाना शुरू कर दिया था, जहाँ उनकी कविता का स्वागत हुआ। मुक्त माहौल में अपने विचारों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता का उपयोग करते हुए पूश्किन ने ओड टू लिबर्टी (मुक्ति के लिए गीत, 1817), चादायेव के लिए (1818) और देश में (1819) जैसी कविताएँ लिखीं। दक्षिण में येकातेरीनोस्लाव, काकेशस और क्रीमिया की अपनी यात्राओं के दौरान उन्होंने खूब पढ़ा और खूब लिखा, इसी बीच वे बीमार भी पड़े और जनरल रायेव्स्की के परिवार के साथ काकेशस और क्रीमिया गए। पूश्किन के जीवन में यह यात्रा यादगार बनकर रह गई। काकेशस की खूबसूरत वादियों में वे रोमांटिक कवि बायरन की कविता से परिचित हुए। सन्‌ 1823 में उन्हें ओद्देसा भेज दिया गया। ओद्देसा में जिन दो स्त्रियों से उनकी नजदीकी रही उनमें एक थी एक सर्ब व्यापारी की इटालियन पत्नी एमिलिया रिजनिच और दूसरी थी प्रांत के गवर्नर जनरल की पत्नी काउंटेस वोरोन्त्सोव। इन दोनों महिलाओं ने पूश्किन के जीवन में गहरी छाप छोड़ी, पूश्किन ने भी दोनों से समान भाव से प्रेम किया और अपनी कविताएँ भी उन्हें समर्पित कीं। किंतु दूसरी ओर काउंटेस से बढ़ी नजदीकी उनके हित में नहीं रही। उन्हें अपनी माँ की जागीर मिखायेलोव्स्कोये में निर्वासित कर दिया गया। रूस के इस सुदूर उत्तरी कोने पर पूश्किन ने जो दो साल बिताए, उनमें वे ज्यादातर अकेले रहे। पर यही समय था जब उन्होंने येव्गेनी अनेगिन और बोरिस गोदुनोव जैसी विख्यात रचनाएँ पूरी कीं तथा अनेक सुंदर कविताएँ लिखीं। अंततः सन्‌ 1826 में 27 वर्ष की आयु में पूश्किन को ज़ार निकोलस ने निर्वासन से वापस सेंट पीटर्सबर्ग बुला लिया। मुलाकात के दौरान जार ने पूश्किन से उस कथित षड्यंत्र की बाबद पूछा भी जिसकी बदौलत उन्हें निर्वासन भोगना पड़ा था। सत्ता की नजरों में वे संदेहास्पद बने रहे और उनकी रचनाओं को भी सेंसर का शिकार होना पड़ा, पर पूश्किन का स्वतंत्रता के प्रति प्रेम सदा बरकरार रहा। सन्‌ 1828 में मास्को में एक नृत्य के दौरान पूश्किन की भेंट नाताल्या गोंचारोवा से हुई। 1829 के बसंत में उन्होंने नाताल्या से विवाह का प्रस्ताव किया। अनेक बाधाओं के बावजूद सन 1831 में पूश्किन का विवाह नाताल्या के साथ हो गया।
पूश्किन का विवाहित जीवन सुखी नहीं रहा। इसकी झलक उनके लिखे पत्रों में मिलती है, पूश्किन का टकराव नाताल्या गोंचारोवा के एक दीवाने फ्रांसीसी द'आंतेस से हुआ जो जार निकोलस का दरबारी था। कहा जाता है कि द'आंतेस नाताल्या से प्रेम करने लगा था। द'आंतेस ने नाताल्या की बहन कैथरीन से विवाह का प्रस्ताव रखा। फिर वह और नाताल्या छुपकर मिले, स्थितियाँ और बिगड़ीं। यह पूश्किन को सहन नहीं हुई और वह द'आंतेस को द्वंद्व युद्ध का निमंत्रण दे बैठा। 27 जनवरी 1837 को हुए द्वंद्व युद्ध में पूश्किन द'आंतेस की गोलियों से बुरी तरह घायल हुए और दो दिनों बाद 29 जनवरी 1837 को मात्र 38 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। पूश्किन की अचानक हुई मौत से सनसनी फैल गई। तत्कालीन रूसी समाज के तथाकथित कुलीनों को छो़ड़कर छात्रों, कामगारों और बुद्धिजीवियों सहित लगभग पचास हजार लोगों की भीड़ कवि को श्रद्धांजलि अर्पित करने सेंट पीटर्सबर्ग में जमा हुई थी। केवल 37 साल जीकर पूश्किन ने संसार में अपना अप्रतिम स्थान बना लिया।

फीजी का सृजनात्मक हिंदी साहित्य


भावना सक्सैना

19वीं सदी के अंत व 20वीं सदी के आरंभ में पूर्वी उत्तर प्रदेश के आचंलिक क्षेत्रों से रोजी-रोटी की तलाश में अनुबंधित श्रमिक के तौर पर सात समुंदर पार फीजी गए भारतीय मूल के लोगों ने आरंभ में अत्यधिक कष्ट झेले। यहाँ तक कि आज इतने वर्षों बाद भी उन्हें विदेशी, जड़विहीन और असहाय समझा जाता है। यह वेदना जब जब शब्दों में व्यक्त हुई, साहित्य का सृजन हुआ है। प्रवास की पीड़ा समेटे इस साहित्य से, इस वेदना से, फीजी के बाहर की दुनिया आज भी उतनी परिचित नहीं है। इसे विश्व के हिंदी भाषी समाज के सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त डॉ. विमलेश कांति वर्मा ने।
हाल ही में डॉ. विमलेश कांति वर्मा द्वारा संपादित पुस्तक “फीजी का सृजनात्मक हिंदी साहित्य” भारत में साहित्य के सक्रिय विकास के लिए कार्य करनेवाली राष्ट्रीय संस्था, साहित्य अकादमी से प्रकाशित हुई। यह फीजी द्वीप समूह के प्रतिष्ठित हिंदी लेखकों की चुनी हुई रचनाओं का पहला प्रामाणिक संचयन है। यह संचयन न सिर्फ भारतीय पाठकों का फीजी के सवा सौ वर्षों के सृजनात्मक हिंदी साहित्य से परिचय कराता है अपितु हिंदी के वैश्विक विस्तार और स्वरूप को समझने में भी सहायक है। यह संचयन फीजी के हिंदी साहित्य की मूल संवेदना- ‘प्रवास की पीड़ा’ को उकेरता है । संचयन के पूर्व ग्रंथ की भूमिका के रूप में दिया गया विस्तारपूर्ण साहित्यिक विमर्श फीजी के हिंदी साहित्य की संवेदना और शिल्प निरूपण के साथ साथ फीजी के हिंदी साहित्य की ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्या और मूल्यांकन भी करता है। डॉ. वर्मा ने रचनाओं को विभिन्न काल-खंडों में बाँटकर रचना प्रक्रिया का विस्तार से मूल्यांकन किया है।
इस संकलन की विशिष्टता है फीजी के भारतवंशियों द्वारा विकसित की गई हिंदी की विदेशी भाषा शैली फीजी बात(फीजी की हिंदी) में लिखी साहित्यिक रचनाओ और गिरमिट गीतों का संकलन। यह पुस्तक अच्छे सुव्यवस्थित व संगठित रूप में प्रस्तुत की गई है और शोधार्थियों के लिए बहुत लाभदायक रहेगी। काव्य व गद्य दो खंडों में बंटा यह संचयन फीजी के प्रतिष्ठित साहित्यकारों यथा राष्ट्र कवि पं. कमला प्रसाद मिश्र, अमरजीत कौर, काशीराम कुमुद, कुँवर सिंह, हजरत आदम जोगिंन्दर सिंह कंवल, ईश्वरी प्रसाद चौधरी तथा अन्य कई हिंदी रचनाकारों की रचनाओं से व परिशिष्ट में रचनाकारों से संक्षिप्त परिचय कराता है।
फीजी पर डॉ. विमलेश कांति वर्मा की यह दूसरी पुस्तक है। हिंदी के अंतरराष्ट्रीय प्रचार-प्रसार का दृढ़ संकल्प लिए डॉ. विमलेश कांति वर्मा टोरंटो विश्वाविद्यालय, कनाडा; सोफ़िया विश्वरविद्यालय, बल्ग़ारिया और साउथ पेसिफ़िक विश्वाविद्यालय, फ़िजी में हिंदी भाषा और साहित्य का अध्यापन और विदेशी हिंदी शिक्षकों के प्रशिक्षण के अलावा विभिन्न विश्व हिंदी सम्मेलनों और क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलनों में सक्रिय सहभागिता कर चुके हैं। भारतीय राजनयिक के तौर पर आप फ़िजी स्थित भारतीय उच्चायोग में प्रथम सचिव (हिंदी और शिक्षा) के महत्वपूर्ण दायित्व का निर्वाह कर चुके हैं।
पिछले चार दशकों से भी अधिक समय से निरंतर अनुप्रयुक्त भाषा विज्ञान, कोश निर्माण, पाठालोचन, अनुवाद और सांस्कृतिक अध्ययन के क्षेत्र में अपनी देश-विदेश में सशक्त उपस्थिति दर्ज़ कराने वाले डॉ. विमलेश कांति वर्मा की भारतीय लोकवार्ता और प्रवासी भारतीय हिंदी साहित्य के अध्ययन और अनुसंधान के अलावा विदेशी भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण में विशेष रुचि रही है। डॉ. वर्मा ने विदेशियों के लिए हिंदी के विविध स्तरीय पाठ्यक्रमों का निर्माण करने के साथ-साथ प्रभावी शिक्षण विधियों का भी विकास किया और स्तरीकृत शिक्षण सामग्री भी तैयार की। आपने विशेषतः फ़िजी, मॉरिशस, सूरीनाम और दक्षिण अफ़्रीका में प्रवासी भारतीयों द्वारा रचे जा रहे सृजनात्मक हिंदी साहित्य की विशिष्ट भाषिक शैलियों पर गंभीर अध्ययन-अनुसंधान किया है।
अनेक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से अलंकृत हिंदी के समर्पित शिक्षक-यायावर डॉ. विमलेश कांति वर्मा को हाल ही में 'केंद्रीय हिंदी संस्थान' ने 'महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार' प्रदान किया है।

उन्नीसवीं सदी के सर्वाधिक सम्मानित लेखक लेव तालस्तोय


लेव तालस्तोय उन्नीसवीं सदी के सर्वाधिक सम्मानित लेखकों में से एक हैं। उनका जन्म रूस के एक संपन्न परिवार में हुआ था। उन्होंने रूसी सेना में भर्ती होकर क्रीमियाई युद्ध (1855) में भाग लिया, लेकिन अगले ही वर्ष सेना छोड़ दी। लेखन के प्रति उनकी रुचि सेना में भर्ती होने से पहले ही जाग चुकी थी। उनके उपन्यास युद्ध और शान्ति (1865-69) तथा आन्ना करेनिना (1875-77) साहित्यिक जगत में क्लासिक रचनाएँ मानी जाती है। धन-दौलत व साहित्यिक प्रतिभा के बावजूद तालस्तोय मन की शांति के लिए तरसते रहे। अंततः 1890 में उन्होंने अपनी धन-संपत्ति त्याग दी। अपने परिवार को छोड़कर वे ईश्वर व गरीबों की सेवा करने हेतु निकल पड़े। उनके स्वास्थ्य ने अधिक दिनों तक उनका साथ नहीं दिया। आखिरकार 20 नवंबर 1910 को अस्तापवा नामक एक छोटे से रेलवे स्टेशन पर इस धनिक पुत्र ने एक गरीब, निराश्रित, बीमार वृद्ध के रूप में मौत का आलिंगन कर लिया।
इनका जन्म मास्को से लगभग 100 मील दक्षिण मैत्रिक रियासत यास्नाया पौल्याना में हुआ था। इनकी माता पिता का देहांत इनके बचपन में ही हो गया था, अत: लालन पालन इनकी चाची तत्याना ने किया। उच्चवर्गीय ताल्लुकेदारों की भॉति इनकी शिक्षा के दीक्षा के लिये सुदक्ष विद्वान् नियुक्त थे। घुड़सवारी, शिकार, नाच-गान, ताश के खेल आदि विद्याओं और कलाओं की शिक्षा इन्हें बचपन में ही मिल चुकी थी। चाची तात्याना इन्हें आदर्श ताल्लुकेदारों बनाना चाहती थी और इसी उद्देश्य से, तत्मालीन संभ्रात समाज की किसी महिला को प्रेमपात्री बनाने के लिये उसकाया करती थीं। युवावस्था में तॉलस्तॉय पर इसका अनुकूल प्रभाव ही पड़ा। पर तॉलस्तॉय का अंत:करण इसे उचित नहीं समझता था। अपनी डायरी में उन्होंने इसकी स्पष्ट भर्त्सना की है। 1844 में तॉलस्तॉय कज़ान विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुए और 1847 तक उन्होनें पौर्वात्य भाषाओं (eastern languages) और विधिसंहिताओं (कानून) का अध्ययन किया। रियासत के बँटवारे का प्रश्न उपस्थित हो जाने के कारण स्नातक हुए बिना ही इन्हे विश्वविद्यालय छोड़ देना पड़ा। रियासत में आकर इन्होंने अपने कृषक असामियों की दशा में सुधार करने के प्रयत्न किए और सुविधापूर्वक उन्हें स्वतंत्र भूस्वामी हो जाने के लिये कतिपय शर्तें उपस्थित कीं, परंतु असामी वर्ग आसन्न स्वतंत्रता की अफवाहों से प्रभावित था, अत: उसने तॉलस्तॉय की शर्ते ठुकरा दीं। पर यह अफवाह अफवाह ही रही और अंतत: कृषकों को पश्चाताप करना ही हाथ लगा। उनकी कहानी "ए लैंड औनर्स मोर्निग" (1856) इसी घटना पर आधृत है। 1851 में तॉलस्तॉय कुछ समय के लिये सेना में भी प्रविष्ट हुए थे। उनकी नियुक्ति कोकेशस में पर्वतीय कबीलों से होनेवाली दीर्घकालीन लड़ाई में हुई जहाँ अवकाश का समय वे लिखने पढ़ने में लगाते रहे। यहीं पर उनकी प्रथम रचना चाइल्डहुड 1852 में निर्मित हुई जो एल0 टी0 के नाम से "टि कंटेंपोरेरी" नामक पत्र में प्रकाशित हुई। उस रोमैंटिक युग में भी इस नीरस यथार्थवादी ढंग की रचना ने लोगों को आकृष्ट किया और उसके रचनाकार के नाम के संबंध में तत्कालीन साहित्यिक तरह तरह के अटकल लगाने लगे थे।
1854 में तॉलस्तॉय डैन्यूब के मोर्चे पर भेजे गए; वहाँ से अपनी बदली उन्होने सेबास्तोपोल में करा ली जो क्रीमियन युद्ध का सबसे तगड़ा मोर्चा था। यहाँ उन्हें युद्ध और युद्ध के संचालकों को निकट से देखने परखने का पर्याप्त अवसर मिला। इस मोर्चे पर वे अंत तक रहे और अनेक करारी मुठभेड़ों में प्रत्यक्षत: संघर्षरत रहे। इसी के परिणामस्वरूप उनकी रचना "सेबास्टोपोल स्केचेज" (1855-56) निर्मित हुई। युद्ध की उपयोगिता और जीवन पर उसके प्रभावों को निकट से देखने समझने के यथेष्ट अवसर उन्हें यहाँ मिले ओर इन उपलब्धियों का यथोचित उपयोग उन्होंने अपनी अनेक परवर्ती रचनाओं में किया। 1855 में उन्होने पीटर्सवर्ग की यात्रा की जहाँ के साहित्यिकारों ने इनका बड़ा सम्मान किया। 1857 ओर 1860-61 में इन्होंने पश्चिमी यूरोप के विभिन्न देशों का पर्यटन किया। परवर्ती पर्यटन का मुख्य उद्देश्य एतद्देशीय शिक्षापद्धतियों और दातव्य संस्थाओं के संघटन और क्रियाकलापों ही जानकारी प्राप्त करना था। इसी यात्रा में उन्हे यक्ष्मा (टीबी) से पीड़ित अपने बड़े भाई की मृत्यु देखने को मिली। घोरतम यातनाओं के अनंतर होनेवाली यक्ष्माक्रांत भाई की मृत्यु का तॉलस्तॉय पर मर्मातक प्रभाव पड़ा। वार ऐंड पीस, अन्ना कैरेनिना और दि डेथ आव इवैन ईलियच में मृत्यु के जो अत्यंत मार्मिक चित्रण मिलते हैं, उनका आधार उपर्युक्त घटना ही रही है।
यात्रा से लौटकर उन्होंने अपने गाँव यास्नाया पोल्याना में कृषकों के बच्चों के लिये एक स्कूल खोला। इस विद्यालय की शिक्षा पद्धति बड़ी प्रगतिशील थी। इसमें वर्तमान परीक्षाप्रणाली एवं इसके आधार पर उत्तीर्ण अनुत्तीर्ण कारने की व्यवस्था नहीं रखी गई थी। विद्यालय बड़ा सफल रहा जिसका मुख्य कारण तॉलस्तॉय की नेतृत्व शक्ति और उसके प्रति हार्दिक लगन थी। विद्यालय की ओर से, गाँव के ही नाम पर ""यास्नाया पोल्याना"" नामक एक पत्रिका भी निकलती थी जिसमें प्रकाशित तॉलस्तॉय के लेखों में विद्यालय ओर उसके छात्रों की विभिन्न समस्याओं पर बड़े ही सारगर्भित विचार व्यक्त हुए हैं। 1862 में तॉलस्तॉय का विवाह साफिया बेर्हस नामक उच्चवर्गीय संभ्रांत महिला से हुआ। उनके वैवाहिक जीवन का पूर्वाश तो बड़ा सुखद रहा पर उत्तरांश कटुतापूर्ण बीता। तॉलस्तॉय के वैवाहिक जीवन में गृहिणी का आदर्श पूर्णत: भारतीय गृहिणी का सा था: पर तत्कालीन रूसी संभ्रांत समाज के विचार बिल्कुल भिन्न थे। 1863 से 1869 तक तॉलस्तॉय का समय "वार ऐंड पीस" की रचना में एवं 1873 से 76 तक का समय "अन्ना कैरेनिना" की रचना में बीता। इन दोनों रचनाओं ने तॉलस्तॉय की साहित्यिक ख्याति को बहुत ऊँचा उठाया। वे मनुष्यजीवन का रहस्य और उसके तत्वचिंतन के प्रति विशेष जागरूक थे। 1875 से 1879 तक का समय उनके लिये बड़ा निराशजनक था- ईश्वर पर से उनकी आस्था तक उठ चुकी थी ओर आत्महत्या तक करने पर वे उतारू हो गए थे। पर अंत में उन्होंने इसपर विजय पाई। 1878-79 में इन्होने "कनफेशन" नामक अपनी विवादपूर्ण कृति की रचना की। इसके क्रांतिकारी विचार ऐसे हैं जिनके कारण रूस में इसके प्रकाशन की अनुमति भी नहीं मिली और पुस्तक स्विटलरलैंड में प्रकाशित हुई। इस समय की उनकी अन्य कई रचनाएँ इसी कोटि की हैं और वे सब स्विटजरलैंड में छपी हैं। 1878 से लेकर 1885 तक की अवधि में फलात्मक साहित्य सृजन की दृष्टि से तॉलस्तॉय निष्क्रिय रहे। उनकी अंतर्वृति मानव जीवन के रहस्य की खोज में उलझी रही। अंबतक की समस्त रचनाएँ उन्हें व्यर्थ प्रतीत होने लगीं। पर 1886 में वे पुन: उच्चकोटि के सिद्धहस्त उपन्यास लेखक के रूप में सामने आए और इसी वर्ष उनकी महान् उपन्यासिक रचना ""डि डेथ आव इवैन ईल्यिज"" प्रकाशित हुई। उनके आचार संबंधी विश्वासों के प्रति अब सारा संसार आकृष्ठ हो चुका था, और यास्नाया पोल्याना ग्राम की मान्यता उत्कृष्ट तीर्थस्थली के रूप में जगद्धिख्यात हो चुकी थी। हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी इस समय युवक थे। इन्हीं दिनों उन्होंने तॉलस्तॉय की रचनाएँ रुचिपूर्वक पढ़ी थीं और उनकी ओर आकृष्ट हुए थे। 19वीं शताब्दी का अंत होते होते दरिद्रों और असहायों के प्रति तॉलस्तॉय की सेवावृति यहाँ तक बढ़ी कि उन्होने अपनी रचनाओं से रूस देश में होनेवाली अपनीं समस्त आय दान कर दी। अपनी पत्नी को मात्र उतना अंश लेने की उन्होंने अनुमति दी जितना परिवार के भर पोषण के लिये अनिवार्य था। "रिसरेक्शन" (1899) नामक अपने उपन्यास की समस्त आय उन्होंने रूस की शांतिवादी जाति दुखेबोर लोगों को रूस का परित्याग कर कैनाडा में जा बसने के लिये दे दी। 1910 में सहसा उन्होंने अपने पैत्रिक ग्राम "यास्नाया पोल्याना" को सर्वदा के लिये परित्यक्त करने का निश्चय किया। 10 नवंबर 1910 को अपनी पुत्री ऐलेक्लेंड्रा के साथ उन्होनें प्रस्थान किया, पर 22 नवबंर 1910 को मार्ग के स्टेशन ऐस्टापोवो में अकस्मात् फेफड़े में दाह होने से वहीं उनका शरीरांत हो गया।
उनकी धर्मभवना बड़ी उदार और व्यापक थी। तत्कालीन ईसाई धर्म के प्रति उनकी स्पष्टत: विरोधी भावना थी। अपने विचारों से वे एक प्रकार के सर्वदेववादी प्रतीत होते हैं। मृत्यु को वे शरीर की अंतिम ओर अवश्यंभावी परिणति मानते थे। मनुष्य को वे शरीर की अंतिम और अवश्यंभावी परिणति मानते थे। मनुष्य के संपर्क में आनेवाली प्रत्येक वस्तु को उपयोगिता के मानदंड से आँकना वे उचित समझते थे और इसी कारण जीवन की सोद्देश्यता के प्रति वे सर्वदा जिज्ञासु बने रहे। निरुद्देश्य, विचारहीन ओर आत्मकेंद्रित जीवन को वे एक प्रकार का पाप मानते थे; यहाँ तक कि संभोग को वे केवल संतानोत्पत्ति के उद्देश्य से ही विहित मानते थे। मनोवैज्ञानिक रचनाओं में दोस्तोव्स्की ही तॉलस्ताय के समकक्ष ठहरते हैं। गाल्स्वर्दी, टामस मान, जूल्स रोम्याँ आदि महान् लेखकों पर तॉलस्तॉय का उल्लेखनीय प्रभाव पड़ा है। परवर्ती रूसी लेखकों को भी तॉलस्तॉय ने यथेष्ट प्रभावित किया है।

पुस्तकें बुलाती हैं


प्रवीण पाण्डेय
पुस्तकों से एक स्वाभाविक लगाव है। किसी की संस्तुति की हुयी पुस्तक घर तो आ जाती है, पर पढ़े जाने के अवसर की प्रतीक्षा करती है। मन में कभी कोई विचार उमड़ता है, प्यास बन बढ़ता है, स्पष्ट नहीं हो पाता है। आधी लगी दौड़ जैसी, जब अभिव्यक्ति ठिठकने लगती है और लिखने के लिये कुछ सूझता नहीं है, तब लगता है कि अन्दर सब खाली हो चुका है, फिर से भर लेने की आवश्यकता है। एक पुस्तक उठा लेता हूँ, पढने के लिये, या कहें कि लेखक से बतियाने लगते हैं। पहले बैक कवर पढ़ते है, फिर प्रस्तावना, फिर विषय सूची, उत्सुकता बनी रही तो कुछ अध्याय भी। धीरे धीरे यही क्रम बन गया है, बहुत कम ही ऐसा हुआ है कि प्रारम्भ में रुचिकर लगी पुस्तक अन्त में बेकार निकली हो।
संस्तुति की गयी सीमित पुस्तकों में यह संभव है। उन पुस्तकों के नाम मोबाइल में रहते हैं, कभी पुस्तकों की दुकान जाना हुआ तो, वहाँ ढूढ़कर पढ़ लेते हैं। बंगलोर में यह बात बहुत ही अच्छी है कि तीन बड़े बुकस्टोर, रिलायंस टाइमआउट, क्रॉसवर्ड और लैण्डमार्क, तीनों में ही बैठकर पढ़ने की सुविधा है, शान्ति भी रहती है और कॉफी भी रहती है, आप अधिक समय तक बैठकर पढ़ सकते हैं, कोई भी आपको जाने को नहीं कहेगा, विशेषकर जब आप बहुधा वहाँ जाते हों। साप्ताहिक खरीददारी करने के क्रम में डिजिटल स्टोर और बुक स्टोर नियमित पड़ाव रहते हैं। समय कम रहा तो संस्तुति की गयी तीन चार पुस्तकें ही पढ़ पाता हूँ, अधिक समय मिलता है तो आठ दस पुस्तकें और पलट लेता हूँ। हाँ, टटोलने का क्रम वही रहता है, बैक कवर से। यह अनुभव बड़ा ही अच्छा लगता है, उन दुकानों की तुलना में, जहाँ एक एक पुस्तक माँगने पर दुकानदार आपको भारस्वरूप देखते हैं और पुस्तकें अनमने भाव से आपके सामने फेंक दी जाती हो। दो तीन से अधिक पुस्तकों के बारे में पूछने लगिये तो आपसे यह प्रश्न पूछ ही लिया जाता है कि खरीदने के लिये पैसे भी हैं जेब में?
जहाँ यह सुविधा होती है, वहाँ उसका पूरा लाभ उठाने वाले कई लोगों को यह लग सकता है, कि जब यहीं आकर पढ़ा जा सकता है, तो पुस्तक खरीदने की क्या आवश्यकता है? विचार आने से रोका नहीं जा सकता है। जब अभी तक पुस्तकों को किसी रत्न या हीरे की तरह किसी पुस्तकालय या दुकान में सजा देखा हो, तो यह विचार आने की संभावना और भी बढ़ जाती है। हमारे साथ भी ऐसा हुआ, जब पहले पहले यह सुविधा मिली तो कुछ पुस्तकों के बीस तीस पन्ने वहीं पर बैठकर पढ़ डाले। लगा कि ढेरों पैसे बचा लिये, दुकान को लूट लिया। अब तीन साल बाद देखता हूँ कि पुस्तकों के संग में रहने का नशा बहुत मादक होता है, एक बार लगता है तो छूटता नहीं है। यदि उन दुकानों में बैठकर पढ़ने का अवसर नहीं पाया होता, तो इतनी पुस्तकें खरीदकर घर में नहीं लाता। लगभग हर बार यही हुआ कि कोई न कोई पुस्तक लेकर घर आ गया। अब लगता है कि इन लोगों ने चखा चखा के हमें ही लूट लिया।
बचपन में विद्यालय से जब घर आता था तो घर में बहुधा कोई नहीं मिलता था, बस समय बहुत मिलता था। भरी दुपहरियाँ, बाहर जाकर खेलना कठिन, बस पुस्तकें ही सहारा बन कर रहती थीं। पुस्तकें पढ़ने का क्रम तभी से चल पड़ा। पहले तो घर में रखी सारी साहित्यिक पुस्तकें पढ़ लीं, कहानी के रूप में लिखे ग्रन्थ पढ़ डाले, सोवियत संघ से आने वाली कई मैगज़ीन पढ़ डालीं और जब धीरे धीरे ये समाप्त हो चलीं तो अपने चाचाजी द्वारा पढ़े गये और सहेजे गये ढेरों जासूसी और चटपटे सामाजिक उपन्यास पढ़ डाले। जीवन में उतना निश्चिंत समय फिर कभी नहीं मिला। दस वर्ष की अवस्था में न यह ज्ञान था कि क्या पठनीय है, भारी भरकम तर्कों का क्या अर्थ है, और किस पुस्तक का क्या महत्व है? बस पढ़ते गये, एक नशा सा समझ कर चढ़ाते गये, एक परमहंसीय मानसिकता से पुस्तकें पढ़ीं तब।
धीरे धीरे अनुभव आया, अच्छी पुस्तकों के बारे में पता चला, किन पुस्तकों को पढ़ना समय व्यर्थ करने सा था, वह भी पता चला। यह भी पता चला कि इतनी पुस्तकें हैं जगत में कि सारी पढ़ी भी नहीं जा सकती हैं। अपनी संस्कृति से परे और भी रंग हैं पुस्तकों के इन्द्रधनुष में। अभिरुचि किसी विषय विशेष के प्रति नहीं, बस पढ़ने के प्रति बनी रही। शिक्षापद्धति के अन्तर्गत पाठ्यक्रम की पुस्तकों ने आकर डेरा जमा लिया, घर के सीमित आकार और दिन के सीमित समय को पूरा घेर लिया। कई वर्ष अपनी रुचि का ठीक से पढ़ ही नहीं पाया। विद्यालय का पुस्तकालय अधिक बड़ा नहीं था और शीघ्र ही सारी पुस्तकें पहचानी सी लगने लगीं। अस्तित्व के लिये संघर्ष ने प्रतियोगी परीक्षाओं से संबधित पुस्तकों के पढ़ने को विवश कर दिया, पढ़ने की प्यास बुझी ही नहीं, मन अतृप्त बना रहा।
आईआईटी कानपुर का पुस्तकालय, जीवन में एक श्रेष्ठ उपहार बनकर आया। इतना बड़ा पुस्तकालय पहले कभी नहीं देखा था। कोई ऐसा विषय नहीं देखा जिससे संबन्धित उत्कृष्ट पुस्तकें वहाँ उपस्थित न हों। हिन्दी, दर्शन, इतिहास, शोध का इतना बड़ा संग्रह एक आश्चर्य था मेरे लिये। विज्ञान और इन्जीनियरिंग से संबन्धित पुस्तकों के बारे में तो कहना ही क्या? बहुधा जब कल पुर्जों और उनकी गतियों से मन ऊबने लगता था तो कोई न कोई रोचक छाँह मिल जाती थी पुस्तकों की। न जाने कितने विषय पर कितनी पुस्तकें पढ़ डाली वहाँ पर। जब किसी एक अभिरुचि में बँधने का नहीं सोचा तो सारी पुस्तकें आकर्षित करती रहीं। भौतिकी से लेकर पराभौतिकी तक, विलास से लेकर अध्यात्म तक, इतिहास से लेकर भविष्य तक और दर्शन के न जाने कितने विचारपुंज, सब आँखों के सामने से निकल गये।
बहुत बार ऐसा होता था कि कोई अच्छा वाक्य पढ़ा तो उसे याद करने का मन हो उठता था। याद करना और समय आने पर उसका उपयोग कर अंक बटोर लेने की आदत वर्तमान शिक्षापद्धति के प्रभाव स्वरूप अब तक स्वभाव से बँधी हुयी थी। ऐसा करने से सदा ही पुस्तक का तारतम्य टूट जाता है। औरों के सजाये शब्द आपके जीवन में वैसे ही उतर आयेंगे, यह बहुत ही कम होता है, एक आकृति सी उभरती है विचारों की, एक बड़ा सा स्वरूप समझ का। धीरे धीरे वाक्यों को याद करने की बाध्यता समाप्त हो गयी और पुस्तकों को आनन्द निर्बाध हो गया। थककर पुस्तकालय में बहुत बार सो भी गया, भारी भारी स्वप्न आये, निश्चय ही वहाँ के वातावरण का प्रभाव व्याप्त होगा स्वप्नलोक में भी।
अब समय अपना है, कोई परीक्षा भी नहीं उत्तीर्ण करनी है, पर जीवन यापन करने में समय की कमी हो चली है। कभी कभी मन को समझाने का प्रयास करता हूँ कि कितना कुछ पढ़ लिया है, एक स्पष्ट समझ विकसित भी हो गयी है, तो और पुस्तकें पढ़ने की क्या आवश्यकता? यह तर्क थोड़े समय के लिये आहत मन को सहला तो देता है पर पुस्तकों की दुकान जाते रहने से रोक नहीं पाता है। कुछ और खरीदने जाता हूँ तो पैर स्वतः ही पुस्तकों की ओर खिंचे चले जाते हैं।
पुस्तकों के बीच पहुँच कर लगता है कि विश्व के श्रेष्ठ मस्तिष्कों के बीच आकर बैठ गया हूँ। वहाँ जाकर यह पता लगता है कि कितना कुछ लिखा जा रहा है, किन विषयों पर लिखा जा रहा है। यह जानना बहुत ही आवश्यक है कि श्रेष्ठ मस्तिष्कों के चिन्तन की दिशा क्या है, किन संस्कृतियों में क्या विषय प्रधान हो चले हैं और किन विषयों को अब अधिक महत्व नहीं दिया जा रहा है। यह समझना और जानना धीरे धीरे एक अभिरुचि के रूप में विकसित होता जा रहा है। बैठे बैठे कइयों पुस्तकें उलट लेता हूँ, सारांश समझ लेता हूँ, अच्छी लग ही जाती हैं, खरीद लेता हूँ। बौद्धिक प्यास बुझाकर वापस आता हूँ, कि थोड़े दिन संतृप्त रहेगा मन। पर क्या करूँ, उनके आसपास से कभी निकलना होता है तो बलात खींच लेता है उनका आकर्ष। खिंचा चला जाता हूँ, जब पुस्तकें बुलाती हैं। (praveenpandeypp.com से साभार)

त्वुनहुंग की मकाओ गुफा में गुप्त पुस्तक भंडार


मकाओ गुफा उत्तर पश्चिम चीन के त्वुनहुंग में स्थित एक विशाल  कला खजाना है , जो चीन की चार प्रमुख बौद्ध गुफाओं में से सबसे बड़ी और सब से प्रचूर पाषाण कलाकृतियों से संगृहित गुफा समूह है और अब तक विश्व में सुरक्षित सब से विशाल और सब से अच्छी तरह संरक्षित बौध कला खजाना मानी जाती है। मकाओ गुफा उत्तर पश्चिमी चीन के कानसू प्रांत  के त्वुनहुंग शहर के दक्षिण पूर्व में खड़े  मिंगशा पहाड़ की पूर्वी तलहटी में स्थित है । मिंगशा पहाड़ी के पूर्वी पक्ष की चट्टानों पर दक्षिण उत्तर की दिशा में पांच मंजिलों पर खुदी अनगिनत गुफाएं  बड़ी सुन्दर शैली में पंक्तिबद्ध अवस्थित हैं , जो अत्यन्त शानदार और ध्यानाकर्षक है ।
कहा जाता है कि मकाओ गुफा का निर्माण स्थल  ल्ये चुन नाम के एक बौद्ध भिक्षु द्वारा निश्चित किया गया था । ईस्वी 366 में बौद्ध भिक्षु ल्ये चुन जब तुन हुङ जिले के सानवी पहाड़ की तलहटी पहुंचे , तो वक्त संध्या की वेली था , विश्राम के लिए वहां कोई जगह नहीं थी , इसी बीच उस की निगाह उठी , तो  निगाह के आगे खड़े मिन शा पर्वत चोटी पर सुनहरी किरणें  फूटने लगी , मानो हजारों बुद्ध महात्मा किरणों से  दिव्यदृष्ट हो रहे हो । बड़े आश्चार्य का दृश्य था , भिक्षु ल्ये चुन एकदम मनमुग्ध हो गया, मन ही मन  सोचा कि यह निश्चय ही एक तीर्थ स्थान है । ल्ये चुन ने इस पवित्र स्थान में बुद्ध गुफा खोदने का निश्चय किया , उस ने बड़ी संख्या में कारीगरों को बुला कर गुफा का निर्माण काम आरंभ किया , गुफा खोदने का काम विस्तृत होता चला गया और थांग राजवंश के समय तक यहां एक हजार से ज्यादा गुफाएं खोदी जा चुकी थीं। एतिहासिक उल्लेख के अनुसार  ईस्वी तीन सौ 66 से ले कर लगातार एक हजार वर्षों की लम्बी अवधि में यहां गुफाओं का निर्माण जारी रहा , सातवीं शताब्दी के थांग राजवंश  तक यहां एक हजीर से अधिक गुफाएं खोदी गई थी , इसलिए मकाओ गुफा सहस्त्र बौध गुफा भी कहलाती है ,14वीं शताब्दी तक एक हजार छह सौ  अस्सी  मीटर लम्बा  विशाल गुफा समूह बनाया जा चुका था ।
चीन के विभिन्न राजवंशों के लोगों ने मकाओ गुफाओं में बड़ी संख्या में बुद्ध मुर्तियां खोदी थीं और रंगीन भित्ति चित्र बनाए थे । मकाओ गुफा पूर्व और पश्चिम को जोड़ने वाले रेशम मार्ग पर  स्थित था और प्राचीन काल में पूर्व पश्चिम की धार्मिक व सांस्कृतिक ज्ञान के आदान प्रदान का संगम स्थल था , इसलिए मकाओ गुफा की कलाकृतियों में चीनी और विदेशी कलाओं का अनूठा समावेश हुआ था और विविध कला शैलियों के कारण वह विश्व का शानदार और महान कला खजाना बन गई । कालांतर में एतिहासिक परिवर्तन होने तथा विभिन्न प्रकार की क्षति लगने के परिणामस्वरूप  मकाओ गुफा समूह में अब कुल पांच सौ  गुफाएं बची हैं ,जिन में करीब पचास हजार वर्ग मीटर के भित्ति चित्र तथा दो हजार से ज्यादा बुद्ध मुर्तियां सुरक्षित हैं ।  गुफाएं आकार और साइज में अलग अलग होती हैं और गुफाओं में सुरक्षित मुर्तियां छोटी  बड़ी विविध रूप रंगों में हैं , उन के आभूषण और हस्त मुद्रा भी नाना प्रकार की है , जिस से भिन्न भिन्न एतिहासिक कालों की विशेषता व्यक्त होती है । भित्ति चित्रों में बहुधा बौध धर्म की कथाएं हैं । हजार से अधिक साल  गुजरने के बाद भी अब गुफाओं में सुरक्षित भित्ति चित्र  रंग में चटक और ताजा लगते हैं । यदि इन चित्रों को एक सूत्र में जोड़ा गया , तो उन की लम्बाई तीस किलोमीटर होगी ।
देश के दूर दराज निर्जन क्षेत्र में स्थित होने के कारण मकाओ गुफा सदियों से बाह्य दुनिया के लिए अज्ञात रही थी । बीसवीं शताब्दी के आरंभिक काल में संयोग से इस रहस्यमय गुफा का पता चला , जिस में प्राप्त विशाल कला कृति खजाने ने सारी दुनिया को आश्चर्यचकित कर दिया ,साथ ही उस के लूटखसोट की हृद्यविदारक कहानी भी हुई। वर्ष 1900 में मकाओ गुफा के प्रबंधक साधु वांग द्वारा संयोग रूप से एक गुप्त पुस्तक भंडार का पता लगा , इस गुप्त भंडार को आगे चल कर बौध सूत्र गुफा कहलाने लगी । इस तीन मीटर लम्बे चौड़े भंडार में बौध सूत्रों , दस्तावेजों , रेशमी कपड़ों , चित्रों , रेशमी बुद्ध तस्वीरों तथा हस्तलिपि की प्रतियों के ढेर के ढेर छुपे  थे , जिन की संख्या 50 हजार से अधिक थी । ये सांस्कृतिक अवशेष  ईस्वी चौथी शताब्दी से ले कर 11 वीं शताब्दी तक के थे और उन में चीन , मध्य एशिया , दक्षिण एशिया तथा यूरोप के इतिहास , भूगोल , राजनीति , जाति , सेना , भाषा लिपि , कला साहित्य , धर्म और औषधि चिकित्सा जैसे सभी क्षेत्रों के विषय मिलते थे , जो चीन का प्राचीन विश्व कोश माना जाता है। गुप्त पुस्तक भंडार का पता चलने के बाद साधु वांग ने पैसा कमाने के लिए उस में से कुछ सांस्कृतिक अवशेषों को बाजार में बेचा , इस से मकाओ गुफा में मूल्यवान सांस्कृतिक अवेशष सुरक्षित होने की खबर भी लोगों में फैल गई ।  उसकी ओर विश्व के विभिन्न देशों के तथाकथित अन्वेषज्ञों का ध्यान भी आकृट हो गया , वे उसे लूटने के लिए एक के बाद एक त्वुनहुंग आ धमके । मात्र बीस से कम सालों की अवधि में वे त्वुनहुंग की मकाओ गुफा से 40 हजार बौध सूत्र और बड़ी मात्रा में अमोल भित्ति चित्र व मुर्तियां लूट कर अपने देश ले गए, जिस से मकाओ गुफा की संपत्ति को अकूत भारी क्षति पहुंची ।अब भी ब्रिटेन , फ्रांस , रूस , भारत , जर्मनी , डैन्मार्क , स्वीडन , दक्षिण कोरिया , फनलैंड तथा अमरीका में त्वुनहुंग की मकाओ गुफा के हजारों अवशेष संगृहित रहे हैं , जिन की कुल संख्या बौध सूत्र गुफा के कुल अवशेषों का दो तिहाई भाग बनती है ।
बौध सूत्र गुफा का पता लगने के बाद कुछ चीनी विद्वान भी त्वुनहुंग के सांस्कृतिक धरोहरों के अध्ययन में लगे । वर्ष 1910 में प्रथम खपे में चीनी विद्वानों की विशेष रचनाएं प्रकाशित हुईं , इस तरह विश्व उत्कर्ष शास्त्र के नाम से त्वुनहुंग शास्त्र का जन्म हुआ । बीते दशकों में विश्व के विभिन्न देशों के विद्वानों ने त्वुनहुंग कला पर बड़ा उत्सुकता दिखाई और उस पर लगातार अनुसंधान किया । चीनी विद्वानों ने त्वुनहुंग शास्त्र के अध्ययन में जो भारी उपलब्धियां प्राप्त की है , उस का अत्यन्त बड़ा प्रभाव  हुआ है। मूल्यवान चीनी सांस्कृतिक खजाने के रूप में त्वुनहुंग की मकाओ गुफा की रक्षा को चीन सरकार हमेशा बड़ा महत्व देती आई है । चीन सरकार ने वर्ष 1950 में उसे राष्ट्रीय श्रेणी के संरक्षण वाले प्रमुख सांस्कृतिक अवशेष नाम सूची में शामिल किया , वर्ष 1987 में युनेस्को ने उसे विश्व सांस्कृतिक धरोहर नामसूची में रखा ।विश्व के विभिन्न स्थानों से  मकाओ गुफा का दौरा करने आने वाले पर्यटकों की संख्या बढ़ती जा रही है । मकाओ गुफा के अवशेषों की रक्षा के लिए चीन सरकार ने मकाओ गुफा के सामने सानवी पहाड़ की तलहटी में त्वुनहुंग कला संग्रहालय बनाया , जिस में मकाओ गुफा की कुछ कला कृतियों की प्रतियां प्रदर्शित होती हैं। इधर के सालों में चीन सरकार ने बीस करोड़ य्वान की राशि लगा कर मकाओ गुफा का काल्पनिक दिजिगल गुफा बनाने की योजना बनायी। सूत्रों के अनुसार दिजिगल गुफा में दर्शक असली मकाओ गुफा देखने का अनुभव पा सकते हैं , दिजिगल गुफा के भीतर घूमते हुए भीतरी स्थापत्य कला , रंगीन मुर्तियां तथा भित्ति चित्र आदि सभी कला कृतियां देखने को मिलती हैं । विशेषज्ञों का कहना है कि दिजिगल मकाओ गुफा के निर्माण से मकाओ गुफा के असली भित्ति चित्रों को क्षति पहुंचने से बचाया जा सकता है और त्वुनहुंग के सांस्कृतिक धरोहकों को पंजीकृत तथा सुरक्षित करने में मदद मिलेगी, ताकि मकाओ गुफा के अवशेषों और संस्कृति की आयु दीर्घ बनायी जाएगी।

क्या हिन्दी दुनिया की एक सबसे लोकप्रिय भाषा होगी?


संयुक्त राष्ट्र संघ के एक जनसांख्यिकीय शोध के अनुसार 15 सालों में भारत चीन को पीछे छोड़कर जनसंख्या की दृष्टि से दुनिया में पहले स्थान पर पहुंच जायेगा। इस वजह से दुनिया में हिंदी भाषा की भूमिका काफी बढ़ सकती है। रूस की विज्ञान अकादमी के तहत प्राच्यविद्या संस्थान के भारत अनुसंधान केंद्र की नेता तत्याना शाउम्यान का यही विचार है। याद रहे कि भारत के अलावा हिन्दी भाषा नेपाल, मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बर्मा में भी बोली जाती है। दक्षिण अफ्रीका, घाना में भी हिन्दी बोलनेवाले लोगों की संख्या कुछ कम नहीं है। रूसी विशेषज्ञों के मतानुसार भारत के सफल आर्थिक विकास और उसके अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव में वृद्धि भी हिन्दी की लोकप्रियता बढ़ाने में सहायक है। तत्याना शाउम्यान ने कहा – दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में रहनेवाले भारतीय प्रवासी आपस में हिन्दी में ही बातें करते हैं और हिन्दी साहित्य भी पढ़ते हैं। ब्रिटेन में रहनेवाले भारतीय प्रवासियों का संगठन दुनिया में सबसे प्रभावशाली है तथा अमरीका में रहनेवाले भारतीय मूल के लोगों की संख्या सबसे बड़ी है। वह बीस लाख से अधिक है। मास्को विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के तहत जनता की समस्याओं का अध्ययन करनेवाले केंद्र के एक विशेषज्ञ, रूस की विज्ञान अकादमी के भूविज्ञान संस्थान के कर्मी रुस्लान दिमीत्रियेव मानते हैं कि भविष्य में हिन्दी बोलनेवालों की संख्या इस हद बढ़ सकती है कि हिन्दी दुनिया की एक सबसे लोकप्रिय भाषा हो जायेगी।
रुस्लान दिमीत्रियेव ने कहा – इस बात को ध्यान में रखकर कि इस समय दुनिया में करीब एक अरब लोग हिन्दी बोलते हैं, यह अनुमान लगाया जा सकता है कि दस सालों में हिन्दी बोलनेवालों की संख्या 1,5 अरब तक बढ़ सकती है। तब हिन्दी वर्तमान में सबसे लोकप्रिय भाषाओं चीनी और स्पेनी भाषाओं को पीछे छोड़ देगी। भारत के अलावा दुनिया के दूसरे देशों में भी हिन्दी भाषा में सैकड़ों पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित की जाती हैं। यूरोप और अमरीका में हिन्दी भाषी स्कूल स्थापित किये गये हैं, हिन्दी भाषी रेडियो स्टेशन, टीवी चेनल और वेब साइटें काम करती हैं। हिन्दी फिल्मों की लाखों डीवीडी जारी की जाती हैं जो हाथों हाथ बिकती हैं। न केवल एशिया, यूरोप के देशों और अमरीका में बल्कि इज़राइल के विश्वविद्यालयों में भी हिन्दी पढ़ायी जाती है। रूसी विश्वविद्यालयों में भी हिन्दी के विशेषज्ञ शिक्षा पा रहे हैं। हिन्दी बोलनेवालों तथा हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य का प्रचार करनेवालों के बीच संपर्कों के विकास हेतु दुनिया के विभिन्न देशों में नियमित रूप से विश्व हिन्दी कांफ्रेंस बुलायी जाती है। 2012 के सितंबर में जोहानसबर्ग में संपन्न 9वीं विश्व हिन्दी कांफ्रेंस में लोकप्रिय हिन्दी लेखकों और दूसरे कलाकारों ने भाग लिया था। हर साल 14 सितंबर को भारत में हिन्दी दिवस मनाया जाता है। परंपरा के अनुसार इस अवसर पर मुशायरे वगैरह आयोजित किये जाते हैं। तथा 7 जनवरी को संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयानुसार अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी दिवस मनाया जाता है। इसलिये यह तार्किक होगा कि भविष्य में हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की एक कामकाजी भाषा के रूप में मान्यता दी जाये। (hindi.ruvr.ru)

चीन के नोबल पुरस्कार विजेता लेखक बने करोड़पति


चाइना डेली की भविष्यवाणी है कि नोबल पुरस्कार विजेता चीनी लेखक मो यांग की इस वर्ष की आमदनी बीस करोड़ युआन (3.2करोड़ डालर) तक पहुँच सकती है।  नोबल पुरस्कार पाते ही मो यांग की लोकप्रियता आकाश छूने लगी है। पिछले साल उन्हें पुरस्कार मिलने की खबर आने के कुछ घंटों के अंदर ही सारी ऑनलाइन दुकानों में उनकी सभी किताबें बिक गईं थीं। चाइना डेली का कहना है कि इस साल उनके एक संग्रह की दस लाख प्रतियाँ छप रही हैं, इससे भी उनकी आय बहुत बढ़ रही है। यह भी उम्मीद की जा रही है कि लेखक की पांच नई रचनाएँ भी प्रकाशित होनी हैं, जिनसे उन्हें कुछ करोड़ युआन की कमाई होगी। नोबल पुरस्कार पाने से पहले मो यांग के 11उपन्यास, 20 लघु-उपन्यास और 80 से अधिक कहानियाँ छप चुकी थीं। (hindi.ruvr.ru)

हिंदी पुस्तक प्रकाशन का मकड़जाल


अखिलेश शुक्ल

वर्तमान युग सूचना प्रौद्योगिकी का युग है। इसमें मोबाईल, इंटरनेट, कम्प्यूटर, टी.व्ही. का बोलबाला है। आज कहा जा रहा है कि लोगों को किताबों की नहीं कम्प्यूटर की ज़रूरत है। लेकिन दिमाग़ी पोषण के लिए अच्छी पुस्तकों की माँग हमेशा बनी रहेगी। भविष्य में पुस्तकों की आवश्यकता में कमी आने की संभावना दूर दूर तक नजर नहीं आती है। आज से 100 वर्ष पूर्व पुस्तकें जितनी ज़रूरी थी उतनी ही आज भी है। आज से 100 वर्ष पश्चात भी उनकी आवश्यकता उतनी ही होगी।
भारत में पुस्तक प्रकाशन व्यवसाय पचास हज़ार करोड़ रूपये से अधिक का है। देश की लगभग 70 प्रतिशत साक्षर जनता के लिए हिंदी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं में पुस्तकें प्रकाशित की जाती है। वर्तमान में हिंदी पुस्तकों का प्रतिशत अँगरेज़ी के प्रकाशनों की संख्या से कुछ ही अधिक है। देश में अँगरेज़ी अच्छी तरह जानने समझने वालों की संख्या 4 से 4.5 करोड़ है। भारत में पेन्गुईन, हॉरपर कॉलीन, रूपा पब्लिकेशन सहित अनेक प्रकाशन अँगरेज़ी में पुस्तकों का प्रकाशन करते हैं। इनके द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की गुणवत्ता उच्च कोटि की होती है। इनकी प्रिटिंग क्वालिटी, कागज़, बाइंडिंग आदि सहज ही पाठक को अपनी ओर आकर्षित करती है। अँगरेज़ी पुस्तकों की सबसे बड़ी विशेषता इनकी कम कीमत है। जिसकी वजह से ये आम अँगरेज़ी पाठक की पहुँच में है। इनका अशुद्धि रहित नयनाभिराम मुद्रण इन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित करता है। देश भर में अँगरेज़ी में प्रकाशित पुस्तकों का वितरण तंत्र बहुत मजबूत है। ये पुस्तकें बस स्टेण्ड, रेलवे, एयरपोर्ट, के बुक स्टालों सहित देश भर के प्रमुख पुस्तक विक्रेताओं के यहाँ ख़रीदने के लिए सहज उपलब्ध है।
वही दूसरी ओर हिंदी साहित्य में पुस्तक प्रकाशन व्यवसाय अभी असंगठित अवस्था में है। हिंदी प्रकाशकों का 60 प्रतिशत से अधिक नई दिल्ली में केन्द्रित है। शेष अन्य छोटे बड़े कई प्रकाशक देश भर में फैल हुए हैं। लेकिन हिंदी के प्रकाशक अभी भी बाबा आदम के जमाने की तकनीक का प्रयोग कर रहे हैं। हिंदी में आज भी हार्ड बाउंड पुस्तकें ही अधिक प्रचलित हैं। राजकमल, वाणी, राजपाल तथा भारतीय ज्ञानपीठ जैसे कुछ प्रकाशकों को छोड़ दिया जाए तो शेष प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित पुस्तकें अनेक कमियों से युक्त हैं। इनमें प्रूफ तथा व्याकरण सम्बंधी त्रुटियाँ खटकती हैं। इस त्रुटि के सम्बंध में प्रकाशक व लेखक एक दूसरे पर दोषारोपण कर पता नहीं किसका हित साध रहे हैं? यह वे ही जाने। इन पुस्तकों की घटिया व अनआकर्षक प्रिटिंग, कागज़ क्वालिटी व बाइंडिंग देखकर चाहते हुए भी इन्हें ख़रीदने का मन नहीं होता है। समझ नहीं आता कि आख़िर क्यों हिंदी के प्रकाशक नई तकनीकों का प्रयोग नहीं करते? वे हार्ड बाउंड़ की अपेक्षा पेपर बैक पुस्तकों का प्रकाशन प्रमुखता से क्यों नही करते हैं। वहीं इनकी अत्यधिक क़ीमत पाठकों की पहुँच से इन्हें दूर कर देती है। इस सम्बंध में राजपाल प्रकाशन के प्रमुख सुरेश शर्मा कहते हैं कि राजपाल की किताबें ख़रीदी जाती है। वे लेखकों से अपेक्षा करते हैं कि अच्छा साहित्य लिखे जिसे प्रकाशित किया जा सके। उनकी विचारों में दम है जब तक अच्छा लिखा नहीं जाएगा तक तक उसे प्रकाशित करने का जोख़िम असंभव होगा।
दरअसल सच कहा जाए तो हिंदी क्षेत्र में प्रकाशन का माफ़िया काम कर रहा है। प्रत्येक नामी गिरामी से लेकर आम प्रकाशक इनके चंगुल में कैद है। चूँकि प्रकाशकों के पास साहित्य की समझ का अभाव है। इसलिए उनके पास स्थित सलाहकार मंड़ल जिस लेखक को चाहे उसे उपकृत करता रहता है। इस स्थिति में दोयम दर्जे की इन पुस्तकों की सरकारी ख़रीद ही हो सकती है। आम पाठक में कम से कम इतनी समझ तो है कि उसे क्या ख़रीदना है व पढ़ना है।
हिंदी साहित्य के प्रकाशकों द्वारा किसी भी पुस्तक की अधिक से अधिक 500 प्रतियाँ ही प्रकाशित की जाती हैं। इन मोटी व हार्ड बाउंड पुस्तकों को सरकारी लाइब्रेरियों व ग्रंथालयों को मोटे कमीशन के आधार पर टिकाया जाता है। ग्रंथालयों में भी पाठकों की अपेक्षा इनपर दीमकों का अधिकार ही अधिक रहता है। ख्यात लेखक व साहित्यकार डॉ. राजेन्द्र परदेसी कहते के अनुसार आज लेखकों में ‘यश की कामना’ है जिसकी वजह से साहित्य में कूड़ करकट ही अधिक आ रहा है। लोग लिखते कम हैं और प्रकाशित अधिक कराना चाहते हैं। उनकी चाह होती है कि जो कुछ लिख डाला है उस पर तुरत फुरत कोई पुरस्कार मिल जाए। इस तरह का साहित्य पाठकों का रूचि परिष्कार नहीं कर सकता है। अतः साहित्य में लोगों की रूचि घटने की भी यह एक वजह है। हिंदी प्रकाशनों के साथ सबसे बड़ी बिडंबना यह है कि इनकी मलाई तो प्रकाशक तथा खुदरा वितरक खाते हैं एवं लेखक के हाथों खुरचन तक नहीं आती है। खुदरा वितरक को 35 से 60 प्रतिशत तक कमीशन दिया जाता है। वही मात्र चंद हज़ार रूपयों की रायल्टी के लिए लेखक को परेशान होना पड़ता है। इसकी ओर न तो प्रकाशक का ध्यान है और न ही प्रशासन के पास कोई ठोस कानूनी प्रावधान है जिससे लेखक को उसका हक़ मिल सके।
ख्यात समीक्षक डॉ. कश्मीर उप्पल कहते है कि आजकल लेखक खुद अपने व्यय पर पुस्तकें प्रकाशित करवाने लगे हैं। इस तरह के प्रोडेक्ट को आख़िर क्यों कोई ख़रीद कर पढे़गा? यदि इसे समीक्षा के लिए किसी समीक्षक के पास भी भेजा जाएगा तो उसकी समीक्षा करने का कोई ओचित्य नहीं है। उस पुस्तक की समीक्षा न करना भी अपने आप में एक समीक्षा ही होगी। वे आगे जोड़ते हैं कि ये प्रिटर (प्रकाशक नहीं) साहित्य की समझ के बगैर जो प्रकाशित कर रहे हैं उससे समाज को कोई विचारधारा नहीं मिल रही है और न ही अच्छा साहित्य ही पढ़ने के लिए उपलब्ध हो पा रहा है।
इस तरह की प्रवृत्ति वास्तव में हिंदी के लिए घातक है। कुछ तथाकथित प्रकाशक पुस्तक प्रकाश में लाने के नाम पर लेखक से अच्छी खासी रकम झटक लेते हैं। उसके ऐवज में लेखक को 50-60 प्रतियाँ पकड़ा दी जाती हैं। यह समझ से परे है कि इस तरह की लूटमार पर आख़िर कब प्रतिबंध लगाया जाएगा। इस तरह से कुछ भी उल जलूल लिखना और किसी मंत्री अथवा राजनीतिज्ञ से विमोचन करा कर साहित्यकार बनने के रोग से मुक्त होना साहित्य की भलाई के लिए बेहद ज़रूरी है। इस प्रदूषण से मुक्त होने के लिए दूर दराज के क्षेत्र में स्थिति लेखकों पर पर्याप्त ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। उनका अनुभवी लेखन प्रकाश में लाया जाकर पाठकों को उपलब्ध कराने पर देश का भी भला होगा। समसामयिक व तात्कालिक विषयों पर लेखन आज समय की माँग है। ऐसे कई विषय हैं जिन पर पुस्तकें लिखी जा सकती हैं ज़रूरत है तो बस सकारात्क सोच के साथ सधे हुए लेखन की। साथ ही उन्हें प्रकाशित करने के लिए जागरूक प्रकाशक की।
जयपुर की पत्रकार व लेखिका उमा के अनुसार हिंदी साहित्य व भाषा की पुस्तकों की कोई सुनियोजित विज्ञापन व्यवस्था नहीं होने के कारण ये आम पाठक की पहुँच से दूर रहती हैं। आज हिंदी का पाठक कविता कहानी की अपेक्षा अपने आस पास के बारे में जानना समझना चाहता है। उसे वह साहित्य उपलब्ध कराया जाना चाहिए जो अँगरेज़ी साहित्य की पुस्तकों के स्तर के अनुरूप हो। उनके अनुसार पुस्तक में वह सब होना चाहिए जो हमारे आसपास गुज़र रहा है। उसे चाहे यथार्थ कहा जाए अथवा समय की माँग लेकिन जब तक साहित्य में उसकी मौजूदगी नहीं होगी तब तक हिंदी की किताबें उस तरह से नहीं पढ़ी जाएँगी जिस तरह से अरविंद अडिगा की ‘द व्हाइट टाईगर’ पढ़ी जा चुकी है या तस्लीमा की अन्य पुस्तकें। पुस्तकें रियलिस्टिक हो तो हर कोई उन्हें हाथों हाथ लेगा इसमें कोई शक़ नहीं है।
वर्तमान में हिंदी की पुस्तकों का वितरण तंत्र भी लचर अवस्था में है। उनकी उपलब्धता छोटे मोटे स्थानों की बात तो दूर महानगरों तक में नहीं है। इस स्थिति से हिंदी के 70 करोड़ जानने समझने वालों को उबारा बेहद ज़रूरी है। इसके लिए आवश्यक है कि पुस्तकें विश्व स्तरीय हो, उनकी कीमत कम हो व वे सहज ही उपलब हों। प्रकाशक, वितरक, लेखक व समीक्षक मिलकर इस ओर ध्यान दें तब ही हिंदी की किताबें भी अँगरेज़ी पुस्तकों के समान पाठकों के दिलो दिमाग पर राज कर सकेंगी।

दो सदियों के संधिकाल के कवि इवान बूनिन


रूसी साहित्य के इतिहास में कालजयी लेखक, कवि, अनुवादक इवान बूनिन का अपना विशेष स्थान है| उन्हें “दो सदियों के संधिकाल” का लेखक माना जाता है, हालांकि उनकी साहित्यिक धरोहर का बड़ा भाग बीसवीं सदी से ही नाता रखता है| वह एकमात्र ऐसे लेखक हैं, जिनको 19वीं सदी के अमर लेखक तोल्स्तोय की बराबरी का माना जाता है| बीसवीं सदी के जितने भी लेखकों ने रूसी साहित्य की परम्पराओं का पालन करना चाहा, वे सभी शैली के मामले में चाहे-अनचाहे बूनिन के क़दमों पर चल निकलते थे| ऐसी क्या आकर्षण-शक्ति थी बूनिन की शैली में? उन्होंने स्वयं इस प्रश्न का यह उत्तर दिया था: “मेरा सारा जीवन-बोध एक प्रकार से भौतिक है| गंध, रंग, प्रकाश, वायु, मदिरा, भोजन – ये सब मुझे संसार का बोध कराते हैं और यह अनुभूति इतनी तीव्र, इतनी प्रबल और उग्र होती है कि पीड़ादायी हो उठती है!” बूनिन अपने रोम-रोम से जीवन को अनुभव करते थे, जीवन का उनका बोध अति सूक्ष्म और तीव्र था और यही उनकी विलक्षण शैली का राज़ था| उन्हें हर पल यह अहसास रहता था कि वह इस एकल समग्र सृष्टि का ही एक अंश हैं| यह बोध बचपन से ही उनमें आने लगा था|
इवान बूनिन का जन्म 1870 में हुआ था| ऊंचे कुल मे, पर छोटे शहर में| पैत्रिक संपत्ति का तब तक बस नाम ही बचा था, सो बचपन गरीबी में ही बीता| यहां तक कि स्कूल की पढ़ाई भी पूरी नहीं हो सकी| मगर किशोर बूनिन को पढ़ने-लिखने की लगन थी| सोलह बरस में ही साहित्य रचना करने लगे| यही उनका जीवन-मार्ग बना – इस रास्ते पर चलते हुए उन्होंने कविता भी की और गद्य भी लिखा और आखिर नोबल पुरस्कार के सबसे ऊंचे मुकाम तक जा पहुंचे| 1933 में साहित्य सृजन में उनके अद्वितीय योगदान को स्वीकारते हुए यह सम्मान उन्हें दिया गया|
बूनिन के जीवन में बहुत से उतार-चढ़ाव आए, पर दो घटनाओं ने उन के मन पर सबसे गहरी छाप छोड़ी| एक थी छोटी उम्र में ही इकलौते बेटे की मौत| दूसरी थी 1917 की बोल्शेविक क्रांति, जिसके कारण उन्हें अपना देश छोड़कर अंत तक प्रवासी का जीवन बिताना पड़ा| कोई भी रोग – मानव शरीर का हो या समाज का, किसी भी तरह का अन्याय – समाज की विषमता से जन्मा या युद्ध और संग्राम से - इस सब को उनका ह्रदय कतई मानने को तैयार नहीं था, क्योंकि यह सब लाता है क्षति और ह्रास, विनाश और मौत| इस सब की वेदना से उनकी अंतरात्मा विलाप करती थी| इस भावना ने उनके सृजन में बड़ी प्रबल अभिव्यक्ति पाई| प्रवासी होने की विवशता तो मरते दम तक उनके मन का रिसता घाव रही|
मातृभूमि से बिछुड़ कर, उससे दूर रहते हुए ही वह उसके बारे में, और रूसी व्यक्ति की प्रकृति के बारे में वे ऐसे सुकोमल और स्नेहमय शब्द लिख पाए, जिन्हें वह स्वदेश में रहते हुए ज़बान पर लाने में शायद झिझकते थे| उनके जीवन के अंतिम वर्ष फ़्रांस में बीते| यहीं पर उन्होंने बहुत सी ऐसी रचनाएँ लिखीं, जिनका विषय प्रेम ही था| बूनिन यह मानते थे कि सच्चा प्रेम बहुत हद तक प्रकृति में व्याप्त सामंजस्य जैसा ही है| बस इसी भावना का उन्होंने यशगान किया|
जैसा कि हमने शुरू में बताया है बूनिन का जन्म एक ऊंचे कुल में हुआ था| परंतु न तो रूस में रहते हुए, न ही विदेश में उन्होंने उच्च वंश का होने का कभी कहीं ज़िक्र होने दिया| उन्होंने कभी भी धन-दौलत को जीवन का सार नहीं माना| अपने नोबल पुरस्कार की विशाल राशि उन्होंने उन रूसी लेखकों में बाँट दी, जो उनकी ही भांति यूरोप में अभावग्रस्त प्रवासी जीवन बिता रहे थे, हालांकि स्वयं बूनिन की ज़िंदगी रईसी से कोसों दूर थी|
बूनिन यात्राओं के शौक़ीन थे, सारे यूरोप का उन्होंने भ्रमण किया, अफ्रीका भी गए| भारत तो नहीं पहुंचे, हां भारत के पास श्रीलंका तक ज़रूर गए| हिंद महासागर की भव्यता पर वह मुग्ध हो गए और उन्होंने अपनी मशहूर कविता ‘महासागर’ लिख डाली| लंका में उन्होंने पूरा एक महीना बिताया – द्वीप के हर कोने में गए| अद्भुत प्रकृति, अति प्राचीन सभ्यता, अनूठे बौद्ध स्मारक – संवेदनशील लेखक का मन क्यों न हर ले यह सब!
देखिये बूनिन ने अपनी डायरी में क्या लिखा: “किंवदंती है कि स्वर्ग यहीं था| यहां सिलोन में आदम की चोटी है और वह पुल भी है, जिस पर स्वर्ग से निकाले गए आदम और एवा भागकर भारत पहुंचे थे| हां, सच में यहाँ स्वर्ग है| बौद्ध मंदिर में पूजा ने तो सुध-बुध भुला दी| पहली बार हम जब वहाँ पहुंचे तो सांझ घिर रही थी| धूमिल सा प्रकाश, मंजीरों की झंकार, मृदंगों की धमाधम, बांसुरियों के मधुर स्वर, मदमस्त करती सुरभि फैलाते अनगिनत पुष्प और पीताम्बरधारी भिक्षु! कितना अच्छा है कि यहां वेदि पर पुष्पांजलि अर्पित होती है|”
लंका के अनुराधापुर को बूनिन ने राजाधिराज की नगरी कहा| उस पर उनकी मशहूर कहानी का एक अंश आपकी सेवा में पेश है...
क्या है अनुराधापुर? कितने ऐसे लोग हैं जो उसे जानते हैं या जिन्होंने उसका नाम सुना है? यह बौद्ध जगत का एक पवित्रतम स्थल है, सिलोन की प्राचीन राजधानी है| घने जंगलों से घिरे, भूले-बिसरे कोने में छिपे अनुराधापुर का इतिहास ढाई हज़ार साल से भी अधिक पुराना है| अब तो इसकी विगत भव्यता के अवशेष ही यहां बचे हैं| लेकिन पूरे दो हज़ार साल तक यह फलता-फूलता नगर था, जिसका नाम पूर्व के सभी देशों में आदर-सम्मान से लिया जाता था| यह उतना ही बड़ा था, जितना आज का पेरिस है| इसके भवनों का स्थापत्य, उनके संगमरमर की दूधिया सफेदी और सोने की जगमग रोम से कतई कम नहीं थी| और इसके स्तूप मिस्र के पिरामिडों को भी मात देते थे|
सिलोन की भव्य प्रकृति और उसकी प्राचीन राजधानी ने उन्हें मोह लिया, उनके मन में बस गए| परंतु वह तो एक सच्चे रूसी लेखक थे, सो उनके ध्यान का मुख्य केन्द्र-बिंदु मनुष्य ही था| सभी जगहों की भांति यहां भी वह गौर से आम लोगों की ज़िंदगी देखते रहे, उनका रहन-सहन, आचार-व्यवहार – यह सब जानते, समझते रहे| उनके साथ उठने-बैठने, मिलने-जुलने के भी वह बड़े इच्छुक रहे, मगर यहां उन्हें कुछ विचित्र ही अनुभव हुए – आम लोगों की ओर से नहीं, गोरे हुक्मरान की ओर से| ऐसे ही कुछ अनुभवों का वर्णन उन्होंने अपनी कहानी ‘थर्ड क्लास’ में किया| तो, आइये, सुनें बूनिन का अनुराधापुर की ट्रेन यात्रा का अनुभव:
थर्ड क्लास
नादान हो तुम, अगर यह सोचते हो कि जब चाहो और जहाँ चाहो तुम्हें इस थर्ड क्लास मे सफर करने का पूरा हक है|
कोलोम्बो, सिलोन, मार्च 1911| प्रातःकाल, अभी आठ भी नहीं बजे|
अभी से गर्मी जानलेवा हो गई है| सफ़ेद कपड़े और सफ़ेद हैट ताने मैं इक्के पर सवार हो गया, चल दिया स्टेशन को अनुराधापुर की गाड़ी पकडने|
लो, आगे चौक आ गया – सूना और सफ़ेद, चकाचौंध करती है उसकी सफेदी और उसके पीछे है स्टेशन की दूधिया सफ़ेद इमारत - और भी ज़्यादा चकाचौंध करती| तपिश के मारे आसमान का नीलापन धुंधला गया है इस धूमिल आकाश की पृष्ठभूमि में स्टेशन की सफेदी से आँखें चुंधियाती हैं|स्टेशन के अंदर थोड़ी राहत मिलती है – यहां गरम हवा आर-पार बह रही है|
हैट उतारकर मैं पसीने से तर बर्फीला माथा पोंछता हूं| ट्रेन तैयार खड़ी है| जल्दी से टिकटघर की ओर जाता हूं, रास्ते में ठीक उतने सिक्के जेब से निकाल लेता हूं, जितना अनुराधापुर तक थर्ड क्लास का किराया है| टिकटघर की खिड़की से झांकते अंग्रेज़ के सामने सिक्के टकटकाता हूं:
- अनुराधापुर, थर्ड क्लास!
- फर्स्ट क्लास? – अंग्रेज़ पूछता है|
- नो, थर्ड क्लास! – मैं चिल्लाता हूं|
- येस, फर्स्ट क्लास! – अंग्रेज़ भी चिल्लाकर बोलता है और
फर्स्टक्लास का टिकट मेरी ओर बढ़ा देता है|
तब मैं अपना आपा खो बैठता हूं और कुछ ऐसे चिल्लाने लगता हूं:
“सुनो मिस्टर! आई एम फेड अप! मैं यह देश देखने आया हूं, इसकी सभी खूबियां देखना चाहता हूं, इसकी सारी ज़िंदगी, इसके सभी लोगों को, उनको भी जिन को तुम गोरे “घिनौने काले” कहते हो, जो फर्स्ट क्लास मे सफर करना तो दूर, उसकी सोचने तक की ज़ुर्रत नहीं कर सकते| पर हर बार जब मैं थर्ड क्लास में बैठना चाहता हूं, तो तुम कैशियरों से जंग छिड़ जाती है! मैं साफ-साफ कहता हूं थर्ड क्लास और आप लोग मेरा मजाक उड़ाते हैं:“अच्छा-अच्छा, फर्स्ट क्लास!” मैं चिल्लाता हूं, नहीं थर्ड क्लास! मगर फिर भी फर्स्ट क्लास का टिकट ही बढ़ा देते हैं, मैं उसे लौटाता हूं, तब कैशियर भौचक्का रह जाता है, हैरान – परेशान हो जाता है कि इस गोरे का सिर फिर गया है जो कालों के बीच बैठना चाहता है, वह भी चिल्लाने लगता है, मुझे डराता है कि इन कलूटों के बीच बैठकर न जाने क्या-क्या बीमारियाँ पकड़ लूँगा, ऊपर से मुझे नसीहत देने लगता है कि जनाब कोई गोरा कभी भी, किसी हालत में भी थर्ड क्लास में सफर नहीं करता, कि यह सरासर बेहूदगी है, ऐसा हो ही नहीं सकता, पागलपन है यह!”
और मैं पूरी सख्ती से मांगता हूं:
- चलो, जो मैं चाहता हूं वही करो, तुरंत थर्ड क्लास का टिकट काटो|
आखिर कैशियर हार मान लेता है, मेरा गुस्सा देखकर वह स्तब्ध रह जाता है| और आखिर थर्ड क्लास का टिकट मेरी ओर फेंक देता है|
अपनी जीत से मैं फूला नहीं समाता हूं और जाकर थर्ड क्लास के डिब्बे में विराजमान हो जाता हूं| राह देखने लगता हूं कि कब मेरे हमसफर, ये “कलूटे” डिब्बे में बैठने लगेंगे| प्लेटफार्म पर मेरे डिब्बे के आगे से दौड़ते जा रहे नंगे पांवों की सरसराहट आती रहती है|
पर सभी इस डिब्बे से आगे कहीं दौड़े जाते हैं| क्यों भला?
फिर मुझे ख्याल आता है, अरे ये गोरे आदमी के सफ़ेद हैट को देखकर सकपका रहे हैं|
मैं हैट उतार देता हूं, एक कोने में दुबककर बैठ जाता हूं, फिर से इंतज़ार करने लगता हूं, मगर सब व्यर्थ|
“अब क्यों नहीं आ रहा कोई?” मैं सोचता हूं| “अब तो मैं किसी को दिख भी नहीं रहा|”
मैं लपककर खड़ा होता हूं, खिड़की से बाहर झांकता हूं – आखिर माजरा क्या है? तुरंत सारी बात साफ हो जाती है: मेरे डिब्बे पर किसी ने चाक से बड़े बड़े अक्षरों में लिख दिया है – नो सीट! मैं आकर बैठा भी नहीं कि किसी ने डिब्बे पर लिख दिया – नो सीट! लो, बड़ी ज़िद कर रहे थे न थर्ड क्लास में सफर करने की, ज़बरदस्ती टिकट कटवा लिया, तो बैठो अब यहां मूरखराज!
इस सुहावनी स्वर्गिक धरती पर आकाश से बरसती, चकाचौंध करती अथाह तपिश के बीच ट्रेन दौडी जा रही है, फलते-फूलते तरुवर पीछे छूटते जा रहे हैं, सघन कुंजों से प्रतिध्वनित हो रही ट्रेन की धुकधुक गूंज रही है|
ट्रेन रुकती है, नारियल बेचने वालों की आवाज़ें गूंजती हैं – मेरे डिब्बे के बगल से दौड़ते जा रहे नंगे पांवों की सरसराहट के बीच|
अगली बार जब ट्रेन रूकती है तो मैं चोरों की तरह दौडकर चौथे दर्जे के डिब्बे में चढ़ जाता हूं| डिब्बा खचाखच भरा हुआ है, काले और सांवले लोगों से - कोई बैठा है, तो कोई खड़ा, कमर पर बस एक धोती बांधे, जो पसीने से तर हो रही है|
तो यह था रूसी लेखक इवान बूनिन की कहानी ‘थर्ड क्लास’ का एक अंश|
‘रूसी संस्कृति की झलकियाँ’ हम आपको आगे भी दिखाते रहेंगे| (hindi.ruvr.ru)