Saturday 7 March 2015

वह जादू की झप्पी-सी मुस्कान / जयप्रकाश त्रिपाठी

वह लड़ाई जारी रखे हुए थे। अपनी तरह से लड़ रहे थे। अनवरत लड़ रहे थे रंगकर्म के बहाने। आगरा प्रवास के दौरान वह मुझसे अक्सर कहते थे- 'क्या हम लोग कभी एक नहीं हो सकते। आपस में याराना नहीं, न सही, कम- से-कम दुश्मनी करने से बाज आ जाएं, तब भी बात बहुत कुछ बन सकती है। हम बहुत ज्यादा हैं और उतने ही जिद्दी। क्या किसी मामूली से मुद्दे पर भी हम एक मंच पर नहीं आ सकते!' उनका इशारा वैचारिक कट्टरता के बहाने आपसी टकराव, वाम बिखराव, भटकाव, दुराव (छिपाव भी) की तरफ होता था।
आगरा में वर्ष 1986 से 2010 तक (अमर उजाला, आज में रहते हुए) अनगिनत दिन उनके आवास से आगरा विश्वविद्यालय तक साझा करने के दौरान मैंने बहुत निकट से उनके स्वभाव की कई परतें देखी थीं, जो विरलों में ही मिलती हैं। इप्टा के साथ हर समय पूर्णतः सक्रिय रहते हुए घर-परिवार, दोस्त-मित्रों के लिए भी उनके पास पर्याप्त समय होता था। दो-एक मुलाकातों में भी दुश्मन को दोस्त बना लेने का उनमें अद्भुत हुनर था। स्वभाव से अत्यंत विनम्र, विचारों में कत्तई सख्त। मुझे कभी-कभी उनकी मिलनसारिता से बड़ी झुझलाहट भी होती थी, आज उस पर फक्र हो रहा है। हां, मैंने उसे कभी न उनसे, न अन्य किसी साथी से आज तक साझा किया है। यह सब उन्हें अपने यशस्वी पिता राजेंद्र रघुवंशी (रंगकर्मी-पत्रकार) से विरासत में मिला था।
जब मैं एक बार मेरठ में दैनिक जागरण में कार्यरत था, उन्होंने एक दिन सुबह तड़के फोन किया। मैं देर रात कार्यालय से लौटा था, कच्ची नींद में भन्नाते हुए फोन उठाया, बिना जाने की कॉल की किसकी है, उधर से निर्देश भरा स्वर जीतेंद्र रघुवंशी का - 'ऐसा है, आज मेरठ आ रहा हूं। आज का समय बचाकर रखना, हंगल साहब से मिलवाना चाहता हूं।' अब नींद कहां। मैं एक घंटा पहले कार्यालय पहुंचा। एडिटर को सूचित करते हुए ठीक 11 बजे शास्त्रीनगर उस ठिकाने पर पहुंच गया, जहां ए. के. हंगल आ चुके थे। मुलाकातियों से घिरे हुए। उन्होंने किसी तरह बच-बचाकर अलग कमरे में मेरी हंगल साहब से मुलाकात करवाई। उस दिन हंगल साहब किसी बात से बहुत उखड़े हुए थे, फिर भी रंगकर्म, फिल्म, जन-आंदोलनों से जुड़े सवालों पर खूब बेबाकी से बोले। कमरे से बाहर निकलते समय मेरे कानों में हंगल साहब का जीतेंद्र रघुवंशी से कहा गया वह वाक्य आज तक गूंजता है - 'आपने अखबार वालों को क्यों बुला लिया। मेरे पास इतना समय नहीं है।' मुड़कर मेरी दृष्टि जीतेंद्र भाई के चेहरे पर जा टिकी। वह अप्रत्याशित फटकार पर स्थिर भाव से यथावत मुस्कराते दिखे थे। जैसेकि वह हर समय सहज रह लेते थे।
अपने वैचारिक जुझारूपन का वह कभी प्रदर्शन नहीं करते थे। पार्टी से अंतिम सांस तक जुड़े रहने के बावजूद जन-मोर्चों पर भाकपा के (माकपा भी) नीतिगत दोरंगेपन से वह अंदर से प्रायः असहमत जान पड़ते थे। मैं पहली बार बड़े नाटकीय ढंग से उनके घर तक पहुंचा था। आगरा में नया-नया था, अपरिचित। न शहर के बारे में कुछ मालूम था, न वहां की बौद्धिक गतिविधियों और उनसे जुड़े लोगों के बारे में। उन दिनो पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने का नशा-सा था। एक पत्रकार मित्र ने बताया कि रघुवंशीजी सभी अच्छी पत्र-पत्रिकाएं मंगाते हैं। उनसे मिल लीजिए, समस्या हल हो जाएगी। सेंटजांस चौराहे के निकट एक तरफ उनका आवास था, दूसरी तरफ 'आज' अखबार का कार्यालय। रविवार के दिन तेजी से काम निपटाकर मैं उनसे मिलने पहुंच गया। पहले परिचय में ही लगा कि, चलो ठिकाना मिल गया। वह मुझे अक्सर आगाह करने से चूकते नहीं थे - 'अखबार की नौकरी में इतनी प्रतिबद्धता खतरनाक होगी। वैचारिक मुखरता से जरा परहेज रखा करिए। चारो ओर चुगलखोर हैं, आप की नौकरी चली जाएगी।' कुछ भी कह कर वह हल्के से मुस्कराना नहीं भूलते थे। वह जादू की झप्पी जैसी मुस्कान....।      
इप्टा के लिए तो वह बारहो महीने लगे ही रहते थे, नाटकों, नुक्कड़ नाटकों के मंचन से लेकर गर्मी की छुट्टियों में लिटिल इप्टा के शिविर तक, उनके नेतृत्व में अक्सर आगरा में राष्ट्रीय स्तर के प्रोग्राम हो जाया करते थे। नजीर उनके सबसे प्रिय कवि थे। वसंत पंचमी पर हर वर्ष वह दोस्त-मित्रों के साथ नजीर की मजार पर विशेष आयोजन किया करते थे। तिथि निकट आते ही पेशे से अधिवक्ता जनाब अमीर अहमद उनके साथ साये की तरह लग जाते थे। कल रात फोन पर बात करते समय अमीर साहब की आवाज रुंधी-रुंधी सी रही। इतने रुंआसे कि बीच में ही फोन काट दिया। मैंने रघुवंशी भाई को भी इसी तरह उस दिन अंदर से हिला हुआ देखा था, जब अत्यंत सक्रिय रंगकर्मी गिरीश अवतानी की अकाल मौत हुई थी। गिरीश को वह कितना प्यार करते थे, फटेहाली में कैसे उनकी न जानकारी में उनकी मदद किया करते थे, मुझसे वह प्रायः चर्चा कर दिया करते थे।
नब्बे के दशक में उनके और राजेंद्र यादव के संयोजन में तीन दिन का राष्ट्रीय कथाकार सम्मेलन आगरा के यूथ क्लब में आयोजित हुआ था। देश भर के साहित्यकारों का जमावड़ा रहा। तीनो दिन उनका साहित्य से कोई लेना-देना नहीं रहा। उनकी चिंता थी कि कोई अपेक्षित आतिथ्य न मिलने से दुखी न हो जाए। उनमें गजब की दक्षता थी कि कब, कहां, कैसे विचार को साधना है, कैसे व्यवहार को और कैसे दोनों को एक साथ। इसे निभाने के लिए वह अपने पूरे परिवार और साथियों के साथ जुटे रहते थे।
मीडिया की गलाजत से वह अंदर से बहुत क्षुब्ध रहते थे। आधुनिक पत्रकारिता के मौजूदा परिदृश्य पर उन्होंने मुझे सविस्तार पुस्तक लिखने के लिए प्रोत्साहित किया था। लिखने-छपने के बाद मैं पिछले साल अप्रैल में उन्हें अपनी पुस्तक 'मीडिया हूं मैं' देने गया था। उस समय वह अस्वस्थ थे और व्यस्त भी। उस दिन वह डॉयबिटीज के साथ किसी और बीमारी से थके-थके से और इकलौते बेटे की पढ़ाई और रोजगार को लेकर अंदर से कुछ विचलित-चिंतित लगे। उस दिन मैं शीघ्र ही दोबारा मुलाकात का वायदा कर पुनः आगरा लौट न सका, और वह हमेशा के लिए गहरी कसक दे गए।
उन्होंने बहुत मुश्किल समय में बृज क्षेत्र में थिएटर की विरासत को हर दिन परवान चढ़ाया। बंगाल में अकाल के दौरान वह अरुणा आसिफ अली के साथ रेलगाड़ी से अनाज लेकर गए थे। कल रात भारी मन से याद करते हुए मैं उनकी लिखी 'जब सो गयी थी इप्टा' शीर्षक से लिखी एक टिप्पणी पढ़ रहा था - ''इप्टा के पुनर्जागरण का दौर आगरा में 1985 में राष्ट्रीय परिसम्मेलन से हुआ। इसकी अध्यक्षता कैफी आज़मी ने की। 1986 में उन्हीं की सदारत में हैदराबाद में इप्टा का 9वां राष्ट्रीय सम्मेलन किया गया, जिसका अब रजत जयंती वर्ष है। कैफी साहब की दसवीं पुण्यतिथि भी इसी साल है। आगरा में कैफी साहब ने कहा था, इप्टा मरी नहीं थी, थोड़ी देर के लिये सो गयी थी। कुछ लोग जागते रहे हैं लेकिन उनकी आँखें मुंदी रही हैं....खून के रिश्ते से बड़ा है जजबात का रिश्ता, और ये भी कि इप्टा से बड़ा कोई तीर्थ नहीं, जहाँ सब लोग मिल सकें। हैदराबाद सम्मेलन के समापन पर वे बोले थे - साथियो, मैं तुम्हें नयी मुहिम के लिये विदा करता हूं। जाओ और अपने हुनर से अवाम व मुल्क की बेहतरी के लिये काम करो!'' अंदेशा है, अब शायद ही कोई उनकी तरह से इप्टा को अपनी चिंताओं में शामिल कर सके। वह फक्कड़ रंगकर्मी, यारों का यार, धुन का पक्का बटोही अब कहां मिलेगा! उनका असामयिक निधन जनसांस्कृतिक आंदोलन की अपूरणीय क्षति है। लाल सलाम दोस्त।

मेरे शहर की स्त्रियां

(8 मार्च को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस)

मेरे शहर की स्त्रियां......
न फेमिनिस्ट, न कॉरपोरेट
न ये करती हैं बड़े-बड़े दावे-प्रतिदावे,
धर्मशास्त्रों, रूढ़ियों ने इन्हें
नहीं सिखायीं आदिम वर्जनाएं.
गली-कूंचों,
सौंदर्य प्रतियोगिताओं
और किटी पार्टियों से न रहा कभी
इनका कभी कोई सरोकार,
कर्मकाण्डों के शहर में ढहाए हैं इन्होंने
पितृसता-पुरोहिती के पाखंड,
दिए अर्थियों को कंधे,
चिता को मुखाग्नि,
किए माता-पिताओं के अंतिम संस्कार
तर्पण और पितरों के श्राद्ध.
मेरे शहर की स्त्रियां........
तनिक भी शर्मातीं-सकुचातीं नहीं हैं
साफ-साफ कर देती हैं
शराबी दूल्हेसंग शादी से इन्कार
घोड़ी पर होकर सवार
खुद गाजे-बाजे के साथ पहुंच जाती हैं
दूल्हे के दरवाजे,
पिता करते हैं बहुओं की आगवानी,
पूजते हैं इनके पाँव,
कभी नहीं हुआ
यहां की शादियों में
मंत्रोच्चार, न ली इन्होंने सात फेरों की शपथ,
सिर्फ जयमाल,
सिन्दूरदान,
स्वयंवर भी रचा लेती हैं कभी-कभार
पूछती हैं सवाल
और खुद चुन लेती हैं जीवनसाथी
यहां की विधवाएं
खूब करती हैं साज श्रृंगार
हाथों में मेंहदी, कलाइयों में रंग-बिरंगी चूड़ियाँ,
माथे पर बिंदिया
और खूबसूरत परिधान.
और-तो-और
इस शहर की काजी हैं शबनम
अपने लकवाग्रस्त पिता की सातवीं संतान
शरीयत का है इन्हें अच्छी तरह ज्ञान.
मेरे शहर की स्त्रियां.....
बात-बात पर करती हैं जिरह,
क्यों बांधे जाते हैं कलावे
लड़कों के दाएं, लड़कियों के बाएं हाथ में?
जनेऊ क्यों नहीं पहन सकतीं हम स्त्रियां?
अंतर और मायने बताइए
स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस
और महिला दिवस के?
इन्हें मालूम हैं
गांव-शहर के फर्क भी,
दोनों जगह की औरतों की
आजादियों के मतलब,
दोनों को चाहिए अपनी-अपनी स्वतंत्रताएं
और तुरंत चाहिए,
कल या परसों नहीं.
दोनों के मुद्दे हैं एक-से
आर्थिक सुरक्षा.
इन्हें भी चाहिए
खुद कमाने, खुद खर्चने का
पूरा अधिकार.
इस शहर की स्त्रियां
हर बार
महिला दिवस पर पूछती हैं
एक ही सवाल...
इस दिन हमारे नारी संगठन
क्यों नहीं जाते वेश्या टोलियों में?
उनसे ज्यादा किसका होता है
शोषण और दमन?
ये अक्सर पूछती हैं
कि हमारे देश में और कहां-कहां हैं
पाटन जैसे टीचर्स ट्रेनिंग इन्स्टीट्यूट?
वे छह अध्यापक और वे किशोरियां थीं
किस माता पिता की बेटियां?
और किन-किन विद्यालयों में हो रही है
वैसी पढ़ाई-लिखाई?
और कहां-कहां बच्चियों के आदमखोर
पहुंचे जेल की सलाखों के पीछे?
ये स्त्रियां कहती हैं
कि हत्यारे से ज्यादा भयानक
होता है बलात्कारी.
ये अपनी बच्चियों को रोजाना पढ़ाती हैं
उनसे मुकाबले का पाठ.
मेरे शहर की स्त्रियां.....
सिर्फ घरों के भीतर नहीं होतीं
शासन और समर में रखती हैं
ज्यादा विश्वास,
यहां के लोग कहते हैं इन्हें
वीरांगना,
और ये रही इनकी नामावली
बेगम हजरत महल
रहीमी, हैदरीबाई, ऊदा देवी,
आशा देवी, रनवीरी,
शोभा, महावीरी,
सहेजा, नामकौर, राजकौर, हबीबा गुर्जरी,
भगवानी, भगवती, इन्द्रकौर
और कुशल देवी,
जमानी बेगम, लक्ष्मीबाई,
झलकारीबाई, मोतीबाई, काशीबाई
जूही, दुर्गाबाई
रानी चेनम्मा
और लाजो,
रानी राजेश्वरी और बेगम आलिया
रानी तलमुंद कोइर
ठकुराइन सन्नाथ कोइर
सोगरा बीबी और अजीजनबाई
मस्तानीबाई
मैनावती
और अवन्तीबाई
महावीरी, चौहान रानी, वेद कुमारी और आज्ञावती
सत्यवती, अरुणा आसफ अली
देवमनियां और ‘माकी’
रानी गुइंदाल्यू, प्रीतिलता, कल्पनादत्त
शान्ति घोष और सुनीति चौधरी
सुहासिनी अली और रेणुसेन
‘दुर्गा भाभी’, सुशीला दीदी
बेगम हसरत मोहानी
सरोजिनी नायडू
कमला देवी चट्टोपाध्याय
बाई अमन
अरुणा आसफ अली, सुचेता कृपलानी
मातंगिनी हाजरा और कस्तूरबा गाँधी
डा0 सुशीला नैयर, विजयलक्ष्मी
लक्ष्मी सहगल, मानवती आर्या
एनीबेसेन्ट, मैडम भीकाजी कामा
भगिनी निवेदिता
मीरा बहन आदि-आदि.
मेरे शहर की स्त्रियां.....
चिट्ठों और गोष्ठियों में करती हैं
शब्दबेधी टिप्पणियां
उनके पायतने खड़े पुरुष पूछते हैं उनसे आएदिन
कि हम धर्म के रास्ते चलें,
कोई समस्या तो नहीं?
उफ्!
इस कदर अन्धविशवास!
तब उन्हें समझाती हैं ये
सृष्टि विकास का परिणाम है
न किसी खुदा, न ईश्वर का,
पुरुष के नियम ईश्वर के नहीं,
सेवा नहीं कोई स्त्री-धर्म,
अब नहीं होना चाहतीं ये
वाचिक मानसिक, शारीरिक हिंसा का शिकार
इसीलिए ये कभी नहीं मनातीं
रक्षाबन्धन, करवा चौथ, अहोई
चिंदी-चिंदी खोद डालीं हैं इन्होंने
अपने-अपने
अंधविश्वासों की जड़ें
तोड़ डाली हैं अपने पैरों की बेड़ियाँ
चाहे इन्हें कोई
कुलक्षिणी कहे या नयनतारा।
('जग के सब दुखियारे रस्ते मेरे हैं' से उद्धृत....)