Saturday 11 January 2014

एक कविता खलील जिब्रान के लिए

मंजरी श्रीवास्तव 

खलील
ओ मेरे प्यारे खलील
सुन रहे हो मेरी आवाज तुम
या नहीं...
मैं सलमा हूँ
तुम्हारी सलमा
सलमा करामी
तुम्हारे प्यार ने दुबारा धरती पर आने को मजबूर कर दिया मुझे
उस बिशप ने मुझे तुम्हारी पत्नी न बनने दिया
यह एक तरह से अच्छा ही हुआ
नहीं तो तुम सिर्फ मेरे खलील ही रह जाते
खलील जिब्रान न बन पाते
मैं उस बिशप के भतीजे की पत्नी बनी जरूर
पर मेरे दिल में हमेशा तुम्हारी तस्वीर रही
जिब्रान बनकर तुमने कहा था -
"प्रेम जब भी तुम्हे पुकारे, उसके पीछे चल पड़ो,
यद्यपि उसके रास्ते बीहड़ और दुर्गम हैं।"
और तुम्हारी इस अनंत पुकार पर
चल पड़ी मैं
प्रेम के बीहड़ और दुर्गम रास्ते पर
और आ पहुँची यहाँ तक
तुमने कहा था -
"यह कभी मत सोचो कि तुम प्रेम का मार्गदर्शन कर सकते हो,
यदि तुम सुपात्र हो तो प्रेम स्वयं ही तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा..."
और आज भी
मेरा मार्गदर्शन कर रही हैं तुम्हारी प्रेम सम्बन्धी बातें
तुमने उसी जमाने में फिर कहा -
"प्रेम किसी पर आधिपत्य नहीं जमाता
और न ही किसी के आधिपत्य को स्वीकार करता है
प्रेम के लिए प्रेम ही पर्याप्त है..."
और मैंने तोड़ डाले सारे बंधन आधिपत्यों के
और इतने युगों के बाद वापस आयी हूँ धरती पर
तुम्हारे और
सिर्फ तुम्हारे लिए.
अपने हिसाब से तुमने कभी अपने प्रेम को मेरे पैरों में
बेड़ियों की तरह नहीं पहनाया
तुमने मेरे मन का प्याला प्रेम से इतना भर डाला कि
आज भी तुम्हारे प्रेम के बीज जीवित हैं
मेरे मन में
मेरे शरीर में
मेरे हृदय में आज भी चटक रही हैं तुम्हारे प्रेम की कलियाँ
और इन कलियों की खुशबू से महक रही हैं मेरी साँसें .
आज भी मैं मना रही हूँ खुशियाँ
और
मौसम की अलमस्त बहारों से गुजरते वक्त

हमेशा मेरे साथ होते हो तुम
और जब शरद में चुनते हो अंगूर
मदिरा बनाने के लिए
मदिरा बनकर मैं ही भर जाती हूँ अनंत के पात्रों में संचित होकर
सर्दियों में जब भी निकालते हो उस मदिरा को पीने के लिए
तो हर प्याले के लिए तुम्हारे हृदय में होता है एक गीत
जिसमें विद्यमान होती है
शरद की
अंगूर की
अंगूर के बगीचे की
निचुड़ते हुए रस की और
मेरी मधुर स्मृतियाँ...

आज भी मेरी नजरों से जब ओझल होते हो तुम
घर से निकल कर काम पर जाने के लिए
तो बन जाते हो वह बाँसुरी
जिसके हृदय से गुजरती है समय की साँस
हर पल
और बदल जाती है
एक अनहद संगीत में .
जिन्दगी को तुम समझते हो प्यार से
और प्यार को श्रम के माध्यम से
जिन्दगी को श्रम के माध्यम से प्यार करते हुए ही
जान लेते हो तुम बारीकी से
उसके अन्तरंग रहस्यों को
और
बतला देते हो मुझे भी
प्रेम से प्रेरित कर्म का रहस्य
जहाँ
जब इनसान खुद से खुद को बाँधता है और
एक-दूसरे से बाँधता है तो
वह स्वयं को ईश्वर से बाँधता है.

तुम बतलाते हो प्रेम से प्रेरित कर्म की परिभाषा :
"यह अपने हृदय से खींचकर काते गए सूत से कपड़ा बुनना है,
मानो तुम्हारी प्रेयसी ही पहननेवाली हो उसे..."
"यह इतने प्यार से भवन का निर्माण करना है,
मानो तुम्हारी प्रेयसी ही रहनेवाली हो वहाँ... "
"यह इतनी कोमलता से बीज बोना
और इतने आनंदित होकर फलों का संचय करना है
मानो तुम्हारी प्रेयसी ही खानेवाली हो वे फल... "
"यह अपने हाथों किये गए प्रत्येक कर्म को
अपनी दिव्यता की ऊर्जा से भर देना है..."
"और ऐसा महसूस करना है, मानो समस्त निर्जीव सत्ताएँ
तुम्हारे आस-पास खड़ी तुम्हारे कर्मों को निहार रही हैं... "

तुमने बुने मेरे लिए अपने प्रेम के सूत से
पारंपरिक और आधुनिक झीने परिधान
तुमने बनाये मजदूर बनकर मेरे लिए
खूबसूरत डुप्लेक्स फ्लैट
तुमने तब लगायी थी जो बोनसाई आमों की
वे दे रही है तब से अब तक फल सिर्फ मेरे लिए
और तुमने सचमुच भर दी इतनी दिव्य ऊर्जा मेरी रूह में
कि मैं रोक ही नहीं पायी अपने आप को
वापस धरती पर आने से
और सचमुच सभी आधिपत्यों का विरोध कर
मेरा यहाँ आना
निहारती रह गयीं सारी सजीव और निर्जीव सत्ताएँ


अब जब मैं वापस आयी हूँ तुम्हारे लिए
तुमने बदल डाला है पवन के स्वरों को एक गीत में
और
प्रगाढ़ कर डाला है अपने प्रेम से उस गीत की मिठास को
तुमने प्रेम को कर्म के रूप में दृष्टिगोचर बनाकर
वर्षों पहले कही अपनी ही बात की
कर डाली है पुनर्व्याख्या
एक नये तरीके से
तुमने मुझे कर डाला है इस बार
स्थिर, संतुलित और अडिग
क्योंकि इस बार मैं होकर आयी हूँ खाली
तुमने मुझे कर डाला है
नग्न और निर्बाध
मेरे ही अंगों से
कर डाला है मुक्त
मेरे ही दोहरे व्यक्तित्व से
कर डाला है मौन अपनी ही तरह
जो मेरे दिनों और रातों के रहस्य का ज्ञाता है
तुम छू रहे हो अब भी
मेरे स्वप्नों की नग्न काया
अपनी काँपती, थरथराती उँगलियों से
और आज भी पैदा कर रहे हो मुझमें वही सिहरन
प्रेम का वही रोमांच
जो कभी सदियों पहले पैदा किया था
तुमने जगा दिए हैं मेरी आत्मा के अदृश्य जलस्रोत
जो कल-कल ध्वनि के साथ सदियों से अब तक
मिल रहे हैं तुम्हारे प्यार के समंदर में
तुम अब भी, अनायास ही शामिल हो जाते हो
मेरे हृदय की छोटी-छोटी खुशियों के ओस-कणों में,
मेरी खिलखिलाहटों में
मेरे आँसुओं में
मेरी वेदना, मेरी पीड़ा में भी
महसूस करती हूँ मैं कि
तुम दुबारा से जी उठे हो मेरे होंठों में
मेरे वर्तमान में
स्मृति-विभोर होकर मैं कर रही हूँ आलिंगन अतीत का
और
प्रेमातुर होकर भविष्य का
एकाकार हो रही हूँ तुम्हारी आत्मा के साथ
तुम्हारी आकांक्षाओं, तुम्हारी अनुभूतियों और
तुम्हारी अनंत सत्ता के साथ
हम अभिन्न हैं
आज भी
सरिता और सागर की तरह
है न खलील...
बोलो...?

ईश्वर


बसंत त्रिपाठी

ईश्वर है तो देर सबेर
कर्मकांड भी है

कर्मकांड है तो
फिर उसे पूरा कराने वाले
परजीवी भी

अब परजीवी तो
मेहनत करने से रहे
वे तो किसी का
खून चूस कर ही पलेंगे

परजीवी फिर शासन को
नए ढंग से परिभाषित करेंगे

प्रियवर, अब ठीक से सोचो और कहो
ईश्वर के बारे में
तुम्हारा क्या विचार है?

चिड़ियाँ रे


बद्रीनारायण


चिड़ियाँ रे!
चिड़ियाँ होने का अर्थ फाड़ दो
मछली रे मछली होने का अर्थ काट दो
लड़की चिंदी चिंदी कर दो
लड़की होने के अर्थ को

बकुल के फूल, बकुल के फूल होने के अर्थ को
अपने से थोड़ा अलग करो,
और कमल के फूल की रूप छवियों में
नाभियों अपने लिए जगह माँगो,

पृथ्वी के नीचे फैली जड़ों,
पेड़ों के बिंब में अपने प्रति होने वाले
अन्याय के खिलाफ रख दो माँग पत्र
पत्तियों! उठो और कहो
कि फूल के बनाने में तुम भी शामिल हो

सभ्यताओं के तत्वों सब मिलकर
सभ्यताओं का अर्थ ही बदल डालो,
रागों में पूरबी राग,
अपने लिए शास्त्रीय संगीत में जगह माँगो
और फूट नोटो, तुमसे मैं कहते कहते थक गया,
कि उठो और धीरे धीरे पहुँच जाओ
लेखों के बीच मे।

अपराध और अपराधी


फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की

'पूरी तरह यही मेरे कहने का मतलब नहीं था,' रस्कोलनिकोव ने सीधे ढंग से और विनम्रता के साथ कहना शुरू किया। 'मैं फिर भी मानता हूँ कि मेरी बात को आपने लगभग पूरी तरह सही-सही बयान किया है, बल्कि मैं तो यहाँ तक कहने को तैयार हूँ कि शायद उसमें कुछ भी गड़बड़ नहीं है। फर्क बस एक है। मैं इस पर जोर नहीं देता कि असाधारण लोगों के लिए हमेशा उनके, जैसा कि आप कहते हैं, नैतिकता के नियमों के, खिलाफ काम करना लाजमी नहीं होता। दरअसल, मुझे तो इसमें भी शक है कि 'असाधारण' आदमी को इस बात का अधिकार होता है कि वह अपनी अंतरात्मा में इस बात का निश्चय कर सके कि वह कुछ बाधाओं को... पार करके आगे जा सकता है, और वह भी उस हालात में जब ऐसा करना उसके विचारों को व्यवहार का रूप देने के लिए जरूरी हो। (शायद कभी-कभी यही पूरी मानवता के हित में हो।) आपका कहना है कि मेरे लेख में यह बात स्पष्ट ढंग से नहीं कही गई है; मैं अपनी बात, जहाँ तक मेरे लिए मुमकिन है, साफ-साफ कहने को तैयार हूँ। मेरा कहना यह है कि अगर एक, एक दर्जन, एक सौ या उससे भी ज्यादा लोगों की जान की कुरबानी दिए बिना केप्लर और न्यूटन की खोजों को सामने लाना मुमकिन न होता, तो न्यूटन को इस बात का अधिकार होता, बल्कि सच पूछें तो उसका कर्तव्य होता कि वह पूरी मानवता तक अपनी खोजों की जानकारी पहुँचाने के लिए... उन एक दर्जन या एक सौ आदमियों का सफाया कर दे। लेकिन इससे यह नतीजा नहीं निकलता कि न्यूटन को इस बात का अधिकार था कि वह अंधाधुंध लोगों की हत्या करता चले और रोज बाजार में जा कर चीजें चुराए। फिर मुझे याद है, मैंने अपने लेख में यह भी दावा किया था कि सभी... मेरा मतलब है कि सुदूर अतीत से ले कर अभी तक कानून बनानेवाले और जनता के नेता, जैसे लाइकर्गस, सोलन, मुहम्मद, नेपोलियन, वगैरह-वगैरह सारे के सारे एक तरह से अपराधी थे, सिर्फ इस बात के सबब कि उन्होंने एक नया कानून बना कर उस पुराने कानून का उल्लंघन किया जो उनके पुरखों से उन्हें मिला था और जिसे आम लोग अटल मानते थे। अरे, ये लोग तो खून-खराबे से भी नहीं झिझके क्योंकि उस खून-खराबे से, जिसमें अकसर पुराने कानून को बचाने के लिए बहादुरी से लड़नेवाले मासूमों का खून बहाया जाता था, उन्हें अपने लक्ष्य पाने में मदद मिलती थी। जी हाँ, कमाल की बात तो यह है कि मानवता का उद्धार करनेवाले इन लोगों में से, मानवता के इन नेताओं में से ज्यादातर नेता भयानक खून-खराबे के दोषी थे। इससे मैंने यह नतीजा निकाला है कि सभी महापुरुषों को, बड़े लोगों को, और उन लोगों को भी जो आम लोगों से थोड़े भिन्न होते हैं, उन्हें कमोबेश अपराधी ही बनना पड़ता है। नहीं तो उनके लिए घिसी-घिसाई लीक से बाहर निकलना मुश्किल हो जाए और वे कभी घिसी-घिसाई लीक पर चलते रहना बरदाश्त नहीं कर सकते। ...मैं तो बस अपने इस मुख्य विचार में विश्वास रखता हूँ कि प्रकृति का एक नियम लोगों को आमतौर पर दो खानों में बाँट देता है : एक तो निम्नतर (यानी साधारण), मतलब यह कि वह माल जो सिर्फ अपनी ही किस्म का माल बार-बार पैदा करते रहने के लिए होता है, और दूसरे वे लोग जिनमें कोई नई बात कहने की प्रतिभा होती है। ...आम तौर पर, पहली किस्म में ऐसे लोग होते हैं जो स्वभाव से ही दकियानूस और कानून को माननेवाले होते हैं, आज्ञाकारी होते हैं और आज्ञाकारी रहना पसंद करते हैं। उन्हें मेरी राय में आज्ञाकारी ही होना चाहिए। क्योंकि यही उनका काम है, और इसमें उनकी कोई हेठी नहीं होती। दूसरे किस्म के लोग कानून की सीमाओं को तोड़ते हैं; अपनी-अपनी क्षमता के हिसाब से वे या तो चीजों को नष्ट करते हैं या उनका झुकाव चीजों को नष्ट करने की ओर होता है। जाहिर है इन लोगों के अपराध दूसरी ही तरह के होते हैं और किसी दूसरी बात से तुलना करके ही उन्हें अपराध कहा जा सकता है। ज्यादातर तो यही होता है कि वे बहुत ही भिन्न-भिन्न संदर्भों में जो कुछ मौजूद है, उसे कुछ बेहतर की खातिर नष्ट करने की माँग करते हैं। लेकिन इस तरह का एक आदमी अगर अपने विचारों की खातिर किसी लाश को रौंदने या खून की नदी से भी पार उतरने पर मजबूर हो जाए तो वह, मेरा दावा है कि अपनी अंतरात्मा में खून की इस नदी से पार उतरने को उचित ठहराने के लिए भी कोई कारण ढूँढ़ निकालेगा। ...लेकिन कुछ ज्यादा चिंता करने की बात नहीं है : आम लोग इस अधिकार को शायद कभी मानेंगे ही नहीं। वे ऐसे लोगों को (कमोबेश) या तो मौत की सजा देते हैं या फाँसी पर लटका देते हैं, और ऐसा करके वे अपने दकियानूसी के फर्ज को पूरा करते हैं, जो ठीक ही है। लेकिन अगली पीढ़ी में पहुँच कर आम लोग ही (कमोबेश) इन अपराधियों की ऊँची-ऊँची मूर्तियाँ खड़ी करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। पहली किस्म के लोगों का हमेशा केवल वर्तमान पर ही अधिकार रहता है और दूसरी किस्म के लोग हमेशा भविष्य के मालिक होते हैं।  (अपराध और दंड से)