Thursday 29 January 2015

मित्रों के लिए कुछ ताजा पंक्तियां/जयप्रकाश त्रिपाठी

कितना अपना, वो रोजी-रोटी का मारा, 
लगता है क्यों थका-थका सा, हारा-हारा
फिर भी अपनी लोहे की मुट्ठी तक तना हुआ..........

रुका नहीं, मन दुखा-दुखाकर अपने दिखते, कभी नहीं भी दिखते,
इनके-उनके चेहरों की सब गझिन इबारत पढ़ते-पढ़ते, लिखते-लिखते,
साबुत है या नहीं, न जाने किस मिट्टी का बना हुआ..........

रिश्ते-नातों की परिभाषा फिर क्यों लिक्खे वक्त निरक्षर अकबक-अकबक,
खाली-खाली हाथ, साथ उसके संघाती तितर-बितर हो लिये यक-ब-यक,
जितना मारा-तोड़ा अपनो ने, वह उतना घना हुआ..........

ओटा-घोटा हुआ गला वो जन-दुखियारा चुप-चुप, मुर्दा-मुर्दा लुंठित
''हंसी-ठहाकों वाले पेटू उछल-कूदते लेकिन अंदर कुंठित-कुंठित
जैसे कोई बदबू मार रहा कीचड़ में सना हुआ''..........

मेरे नये काव्य संकलन की कुछ पंक्तियां

चाहे पथ पर फूल बिछा दे
चाहे कोई साज सजा दे
चाहे कोई लाज लजा दे
चाहे कोई सुबह जगा दे
चाहे कोई शाम सुला दे
मैं अपने मन का बंजारा.......

विष घोले या मिसरी घोले,
चिथड़ा या चांदी से तोले,
बोले अथवा कभी न बोले,
चाहे जो दे, चाहे जो ले,
खोले, मन का भेद न खोले,
साथ-साथ हो ले, न हो ले,
मैं अपने मन का बंजारा.......