Tuesday 12 November 2013

बुद्धिजीवी गए आटा पिसाने

जयप्रकाश त्रिपाठी

पांच हाथ के झिनड्ढे छप्पर की छांव में टूटी-फूटी जुलजुल कुर्सी पर फटे टायर की गद्दी, कुर्सी के तीन तरफ लटकती चीथड़ों की चादर, कुर्सी के सामने दीवार पर टंगा अंधे शीशे में अपना चेहरा ढूंढते हुए अटकता-भटकता मैं।

ये मेरे मोहल्ले के नाई महोदय का सड़किया सैलून है। यही बगल में नगर निगम का डलावघर है। आसपास के मोहल्लों का कूड़-करकट भी यहीं बरसा कर निगम की मशीन अंधेरे में फूट लेती है। करते रहें मोहल्ले वाले चांव-चांव अपनी बला से।

अचेत कर देने वाली तरह-तरह की बदबू से जूझता हुआ मैं चुपचाप इकोनॉमिक्स से एमए पास नाई महोदय की फिलास्फी सुनता जा रहा हूं, सुनता जा रहा हूं। मुद्दत बाद उन्हें कोई पूरी तसल्ली से सुनने वाला मिला है। कतरनी से तेज गति उनके जुबान की।

पहले वह अपने आसपास की दुकानों की हिस्ट्री बताते हैं। फिर अपना और उन दुकानदारों का अर्थशास्त्र.... कि कैसे फलां ने रातोरात वो सामने वाली दुकान पर कब्जा जमा लिया, बाएं सब्जीवाले झोपड़े के जन्म की तो कहानी और मजेदार है, सुनेंगे तो हंसते-हंसते लोट जाएंगे, और वो जो इस्त्री वाली दुकान की सीढ़ी पर बैठा लंबोदर सिर खुजा रहा है (जरा सिर घुमाकर देख लीजिए, कैंची पल भर थमी)...बड़ा औघड़ है। पूछ लीजिए इससे पूरे शहर, प्रदेश, देश-विदेश की पॉलिटिक्स। पक्कास कलक्टरगंज हैं, सबकी हिस्ट्री बांच देगा एक सांस में। बुलाऊं?

नहीं भाई, रहने दो, जल्दी से निपटाऊ, अभी सब्जीमंडी जाना है, उधर से चक्की पर आंटा भी उठाकर ले जाना है घर।

अच्छा!! तो आप आटा भी पिसाने जाते हैं?

क्यों? मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए?

नहीं-नहीं, मेरे कहने का मतलब वो नहीं। मैं थोड़ा बहुत सोशल साइटों पर भी टहलता रहता हूं। अखबार-सखबार पढ़ लेता हूं। कई राइटर्स की किताबें भी पढ़ी हैं। बुद्धिजीवी गए आटा पिसाने तो लिखेगा कौन?

मैं बुद्धिजीवी नहीं हूं। और उन लकड़बग्घों जैसा तो कत्तई नहीं जो मुफ्त की रोटियां तोड़ कर रामचरित मानस, सुमित्रानंदन पंत, फ्रायड, मार्क्स और बनारस के घाट-घाट की कहानियां लिखते-पढ़ते हैं। भारतीय मनीषा पर चोटी की तुकबंदियां करते रहते हैं।

तो?

तो क्या, तुम सोचो कि मैं तुम्हारे ही सैलून में क्यों आता हूं। तो अपने गांव कब जा रहे हो?

अभी दीपावली पर तो गया ही था। बड़ा झमेला है वहां। छोटा भाई परधान हो गया है। चाचा और उनके बच्चों को जेल में बंद करवा दिया है। अब पिताजी को कहता है कि ग्राम सभा की सहन में अपनी झोपड़ी डाल लो, मेरे बच्चों को दिक्कत हो रही है। मां पर कई बार थप्पड़ छोड़ चुका है। दीपावली पर मनरेगा के पैसे से ठेल भर पटाखे खरीद लाया था। मैंने समझाया तो झपट पड़ा। भाई होकर भी 'नाई की गाली' देने लगा। अब आज ही सुबह सूचना मिली है कि पुलिस ने उसे कल शाम गिरफ्तार कर लिया। अब क्या करूं, भाई है, जी नहीं मानता। कोई सोर्स-पैरवी हो तो बताओ, कैसे छूटेगा।

इतना पढ़ लिख कर एक तो सड़किया सैलून में जिंदगी खपा रहे हो, दूसरे दिमाग घर पर रख आए हो। मैं तो चला। इस तरह की बातें करोगे तो आइंदा नहीं आऊंगा।

मत आना। इहां कौन सी ग्राहकों की कमी है। पढ़ाई-लिखाई और देश-दुनिया की बातें तो अपने औघड़िया दोस्त से कर लूंगा।

नमस्ते भाई। चला। मेरा भी तुम्हारे यहां आए बिना जी कहां भरता है।

लैम्प


व्सेवोलोद इवानोव की आत्मकथात्मक कहानी

काफ़ी समय पहले की बात है – 1914 की लड़ाई तब शुरू भी नहीं हुई थी| साइबेरिया में इर्तिश नदी के किनारे बसे पाव्लोदार शहर में एक छापेखाने में मुझे टाइपसैटर का काम मिल गया था| ज़िंदगी में दूसरी बार मुझे पगार मिली थी| मैं समझ रहा था कि यह बहुत महत्वपूर्ण घटना है| खास तौर पर इसलिए कि पहली तनख्वाह की मुझे कुछ याद नहीं थी कि कहां, कैसे वह पैसे खर्च किए| मैं सोचने लग गया| इतना महान दिन है यह, अपने पांवों पर ज़िंदगी का पहला कदम भर रहा हूं – ऐसा दिन ज़रूर मनाना चाहिए| पर कैसे? मेहमानों को बुलाऊं? सारे शहर में कुछ गिने-चुने लोगों को ही मैं जानता था| ये नौ रूबल किसी महान काम में लगा दूं? कैसे? कहां है यह महान ध्येय? अपने लिए कोई कपड़ा-लत्ता खरीद लूं? सो, रविवार सुबह-सुबह मैं बाज़ार चल दिया|... पाव्लोदार में बाज़ार इतना बड़ा है कि लगता है कि अकेला यह कस्बा ही सारी दुनिया से व्यापार करने निकल पड़ा है| दुकानों के दरवाज़े खुले हैं, एक दुकान से दूसरी को बढ़ता जाता हूं मैं| कोई तो जाना-पहचाना चेहरा नज़र आ जाए, पर नहीं – कोई नहीं दिख रहा| दिन शुरू ही हुआ है| अचानक देखता हूं: चाय की दुकान के पास दीवार से टेक लगाए, ज़मीन पर पांव फैलाए एक आदमी बैठा है – बदन पर फटे-पुराने कपड़े, पांवों में जूता नहीं, कोई घुमंतू लफंगा लगता है| उसके बगल में रखा है एक लैम्प – पुराने तांबे के लाल से रंग का, न उसमें बत्ती है, न चिमनी, जाने कब से उसे किसी ने साफ़ भी नहीं किया है| वह इत्मीनान से सांस ले रहा है, लगता है उसकी आंख लग गई है| नहीं, देर करना ठीक नहीं – कोई लैम्प उठाकर चलता बनेगा| मैं उसका कंधा झकझोड़ता हूं: “ऐ, भैय्या!” वह आंखें खोलता है| लगता है, अभी झाड़ लगाएगा| पर वह बोलता है: “हं-हां दे दूंगा| कोई सौदा-वौदा नहीं करूंगा| ले लेना|” मैं हैरान-परेशान: क्या करूंगा इस पुराने लैम्प का? घर तो अपना है नहीं, आखिर सामान रखने के लिए घर चाहिए, और कुछ नहीं तो अपना एक नुक्कड़ ही हो, जिसे कुछ सजाकर इंसान वहां अपने घर का सा आराम महसूस करे| मेरे मन में उठते सवाल ज़बान पर आएं इससे पहले ही वह घुमंतू बोलता है: “अरे, मुन्ना! कोई मामूली लैम्प नहीं है, जादुई लैम्प है, जादुई| “जादुई?” “और नहीं तो क्या! किताबों में पढ़ा तो होगा?” किताबें तो मैंने बहुत पढ़ी हैं – पुराने ज़माने के किस्से भी, सफरनामे भी, पहेलियों भरे, रहस्यमय देश भारत की कहानियां भी| हां, कुछ याद तो आ रहा है... अरे हां, सिंदबाद के किस्सों में ही तो आता है जादुई लैम्प का – अलादीन के चिराग का किस्सा! मन में सोचो क्या चाहते हो, मन्नत मांगो और लैम्प को रगड़ो! “बेच रहे हो?” “लो, करो बात! देख तो ज़रा - ताम्बा ही कित्ता लगा है इसमें, ऊपर से जादू और! फिर कारीगरी भी कोई मामूली नहीं! गिन ज़रा, कित्ते का हिसाब बैठता है?... इत्ते तो पैसे भी न होंगे!” एक आंख मींचकर वह मेरी ओर देख रहा है कि करे मुझसे सौदा या कोई दूसरा गाहक खोजे| “थोड़ी देर के लिए दे सकता हूं| बस एक घंटे के लिए!” “कित्ते लगेंगे एक घंटे के?”मेरी आवाज़ कांप रही है| अब मुझे पक्का पता है कि मैं बेकार ही नहीं आया इस बाज़ार में, कि मैं सारी उम्र इस लैम्प का ही सपना देखता आया हूं| अरे, घंटे भर की क्या ज़रूरत है, भला?! मेरे लिए तो पांच मिनट ही बहुत हैं! पर अपने सपने की खातिर पैसे काफ़ी पड़ेंगे कि नहीं? जेब में रखी पगार को मैं टटोलता हूं| “कित्ते?” “जित्ते हैं! मुन्ना! जो तमाशे के लिए नहीं, सचमुच में यह लैम्प पाना चाहता है न, वह तो जो है सब दे देगा, भले ही हज़ार रूबल क्यों न हों!” मैं सारी पगार उसकी ओर बढ़ा देता हूं| वह घुमंतू फिर से मुझे घूरता है, खुशी से मुस्कराता है और ज़मीन से उठ खड़ा होता है| मेरी पगार वह अपनी जेब में डाल लेता है और बड़े ठाठ से पास के ढाबे को चल देता है| रास्ते में थम जाता है, सिर घुमाकर लैम्प की ओर इशारा करता है, जो अभी तक धूल में ही पड़ा हुआ है| “छोरे, लैम्प तो उठा ले| जल्दी कर| तेरा घंटा शुरू हो चुका है|” घुमंतू इत्मीनान से कदम भरता चला जाता है, मैं लपककर लैम्प उठाता हूं और कसकर छाती से लगा लेता हूं| दिमाग में ख्यालों के घोड़े दौड़ने लगते हैं| क्या मांगूं? क्या? अजीब बात है! इतनी सारी इच्छाएं हैं कि समझ में नहीं आता किससे शुरू करूं! कपड़ा-लत्ता या खाना मांगना तो बेवकूफी ही है – जादू की ताकत ऐसी बातों पर खर्च करने में तो कोई तुक ही नहीं! अपनी ज़रूरत की चीज़ें खरीदने के लिए तो मेरे पास पैसे थे ही| और भी कमा लूंगा| और फिर मुझे ज़्यादा कुछ चाहिए भी नहीं| सेहत मांगूं? पर मैं तो हट्टा-कट्टा हूं, जवान हूं, अभी अठारह साल का तो हुआ हूं| मांगूं तो क्या मांगूं? अचानक मेरी पीठ पीछे कदमों की आहट होती है| कोई मेरे कंधे पर हाथ रख देता है| मेरे नथुनों में शराब और तले आलुओं की गंध भर जाती है| डगमगाते पांवों पर घुमंतू मेरे बगल में आ खड़ा होता है| “बस, मुन्ना! निकल गया बख्त! फुर्ती से काम करना सीखो, मुन्ना!” अरे, सच में एक घंटा बीत गया? वह घुमंतू मेरे हाथों से लैम्प ले लेता है, बगल में समेटता है, पर जाता नहीं, वहीं खड़ा रहता है| मन में खास उम्मीद के बिना मैं दबी आवाज़ में उससे कहता हूं: “सोच लिया मैंने| बस एक मिनट को लैम्प दे दो, एक बार रगड़ लूं...” वह उलाहना भरे गंभीर स्वर में कहता है: “अरे, मुन्ना, ज़बान टूटी तो फिर कहां का जादू रहा? यह तो धोखा होगा, जादू नहीं...” मुझे ख्याल आया: जिन्न से यह मांगने के लिए कि वह मुझे एक युग से दूसरे में पहुंचा दे क्या थोड़ी तकलीफ नहीं उठाई जा सकती... माना मेरा कवि मन मुझे कल्पना में राजा भी बना सकता है और मज़दूर भी, दास भी, सिपाही भी और विद्वान भी| लेकिन क्या मैं खुद वह युग चुन सकता हूं जिस में से मानो दूरबीन की तरह मैं सभी युगों को देख और समझ पाऊं| यह कैसे मान लिया जाए कि जिस युग में मैं हूं वह वही युग है जिसकी मुझे आस थी| बुझे मन से सिर झुकाए मैं खड़ा हूं, सोच रहा हूं: सारी पगार बेकार गंवा दी| पैसों का अफ़सोस नहीं| पर कब मैं बड़ा होऊंगा, कुछ अक़ल सीखूंगा? उस घुमंतू ने मेरे मन की बात मानो सुन ली, बोला: “तू बेकार में दुखी हो रहा है कि लैम्प को रगड़ नहीं पाया| बात यह है कि जब मैं उस बस्ती से गुज़र रहा था जहां तू रहता था तो तेरी मां ने यह लैम्प देखा था| तब तू पैदा भी नहीं हुआ था| कौन जाने उसने तब यह लैम्प छू लिया हो और यह मन्नत मांगी हो कि तू उस युग में ही पैदा हो जिसकी तुझे तमन्ना है|” चूंकि उसने मेरे मन की बात भांप ली थी इसलिए मैं मान गया कि मेरे सामने जादुई लैम्प ही था, कि मेरी मां ने ही उसे छूकर जिन्न को बुलाया था| मेरी मां व्यवहारकुशल भले ही नहीं थी, पर फैसला करने में ज़रा नहीं हिचकिचाती थी| मैं इसलिए यह कह रहा हूं कि अगर वह व्यवहारकुशल होती, यानी उसे मेरी खुशहाली का ख्याल होता तो शायद मेरे लिए कोई दूसरा युग चुनती| पर वह जानती थी कि लोगों की सच्ची खुशी इस संसार की चीज़ों से, इस दुनिया में माली खुशहाली से नहीं मिलती| इसीलिए उसने मेरे लिए वह युग चुना जिसमें, मेरे पाठको, हम और आप रह रहे हैं| मुझे इससे कोई गिला नहीं है, हालांकि मैं जो लिखता हूं वह अक्सर छपता नहीं है| ये कहानियां भी शायद ही मेरे जीते-जी छपें| बात यह है कि छापेखाने बने ही अभी कोई बहुत समय नहीं हुआ, इसलिए यह उम्मीद करना कि जो कुछ तुम लिखोगे वह हर हालत में छपेगा और छपना चाहिए – नासमझी ही है| इंसान के लिए, आदमजात के लिए और चिंताएं कम नहीं हैं...