Sunday 3 May 2015

मई में मौसम ही नहीं, मीडिया भी तपता है : जयप्रकाश त्रिपाठी

मई का मौसम ही नहीं, इतिहास भी तपता रहा है। मानो ये जमाने से सुलगता आ रहा है। इसके चार अध्याय-विशेष, जिनमें दो पत्रकारिता के। एक है आज तीन मई को 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस। इसी महीने की 30 तारीख को हिंदी पत्रकारिता दिवस रहता है। बाकी दो में एक मई दिवस और 10 तारीख को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम दिवस। 1 मई 1886 को अमेरिका में काम के घंटे घटाने की मांग करते मजदूरों पर गोलीबारी के दुखद दिन को मई दिवस के रूप में याद किया जाता है।
'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस' प्रेस की स्वतंत्रता का मूल्यांकन, प्रेस की स्वतंत्रता पर बाहरी तत्वों के हमले से बचाव और प्रेस की सेवा करते हुए दिवंगत हुए संवाददाताओं को श्रद्धांजलि देने का दिन है। 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस' मनाने का निर्णय वर्ष 1991 में यूनेस्को और संयुक्त राष्ट्र के 'जन सूचना विभाग' ने मिलकर किया था। इससे पहले नामीबिया में विन्डंहॉक में हुए एक सम्मेलन में इस बात पर जोर दिया गया था कि प्रेस की आज़ादी को मुख्य रूप से बहुवाद और जनसंचार की आज़ादी की जरूरत के रूप में देखा जाना चाहिए। तब से हर साल '3 मई' को 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस' के रूप में मनाया जाता है।
आज जबकि हिंदुस्तान के पत्रकार मजीठिया वेतनमान की लड़ाई लड़ रहे हों, ऐसे में इस दिन का महत्व और अधिक उल्लेखनीय हो जाता है। वह इसलिए कि, जब पत्रकार अपने घर में गुलामी के दिन बिता रहा हो, उसे घर मालिक ही मजदूर की तरह रपटाते हुए,उल्टे मजदूरी न देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेशों तक उल्लंघन कर रहे हों, फिर काहे की स्वतंत्रता। जब पत्रकार गुलाम हो तो प्रेस स्वतंत्र कैसे हो सकता है।
मीडिया की आज़ादी का मतलब है कि किसी भी व्यक्ति को अपनी राय कायम करने और सार्वजनिक तौर पर इसे जाहिर करने का अधिकार है। इसका उल्लेख मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के 'अनुच्छेद 19' में किया गया है। भारत में संविधान के अनुच्‍छेद 19 (1 ए) में "भाषण और अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के अधिकार" का उल्‍लेख है, लेकिन उसमें शब्‍द 'प्रेस' का ज़िक्र नहीं है, किंतु उप-खंड (2) के अंतर्गत इस अधिकार पर पाबंदियां लगाई गई हैं। इसी क्रम में 'भारतीय संसद' द्वारा 2005 में पास किया गया 'सूचना का अधिकार क़ानून' भी गौरतलब हो जाता है। इस क़ानून में सरकारी सूचना के लिए नागरिक के अनुरोध का निश्चित समय के अंदर जवाब देना बहुत जरूरी है। संसद में 15 जून, 2005 को यह क़ानून पास कर दिया था, जो 13 अक्टूबर, 2005 से पूरी तरह लागू हो गया।
हिंदी पत्रकारिता दिवस 30 मई को मनाया जाता है। सन 1826 ई. में इसी दिन पंडित युगुल किशोर शुक्ल ने प्रथम हिन्दी समाचार पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' का प्रकाशन आरम्भ किया था। भारत में पत्रकारिता की शुरुआत पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने ही की थी। हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत बंगाल से हुई थी, जिसका श्रेय राजा राममोहन राय को दिया जाता है। आज हिंदी पत्रकारिता को कारपोरेट मीडिया ने जिस हालत में पहुंचा दिया है, जग जाहिर है। 'उदन्त मार्तण्ड' के लिए गोरे शासकों से जैसा लोहा लेना पड़ा था, उसे तो ये पतित कारपोरेट मीडिया याद भी नहीं करना चाहता है।
इसी महीने पड़ने वाले प्रथम स्वाधीनता संग्राम दिवस को 1857 के भारतीय विद्रोह के रूप में जाना जाता है। 10 मई 1857 को ही ब्रितानी शासन के विरुद्ध पहला सशस्त्र विद्रोह हुआ था। यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जारी रहा। इस विद्रोह का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों तथा आगजनी से हुआ था। बाद में उसने देशव्यापी आकार ले लिया था। इस विद्रोह का अन्त भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की समाप्ति के साथ हुआ।
इस मई महीने में ही क्रांतिकारियों, साहित्यकारों, इतिहासकारों, कवियों, लेखकों की 18 जयंतियां पड़ती हैं और 17 स्मृति (निधन) दिवस।
इस माह के प्रमुख जयंती दिवस इस प्रकार हैं -
5 मई 1929 - अब्दुल हमीद कैसर (भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारियों में से एक)।
7 मई 1861 - रबीन्द्रनाथ ठाकुर (नोबेल पुरस्कार प्राप्त बांग्ला कवि, कहानीकार, निबंधकार)।
7 मई 1889 - एन. एस. हार्डिकर (प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी)।
8 मई 1895 - गोपबन्धु चौधरी (उड़ीसा के प्रसिद्ध क्रांतिकारी तथा गाँधीवादी कार्यकर्ता)।
11 मई 1912 - सआदत हसन मंटो (कहानीकार, लेखक, पटकथा लेखक और पत्रकार)।
15 मई 1907 - महान क्रांतिकारी सुखदेव।
20 मई 1900 - सुमित्रानंदन पंत (प्रसिद्ध छायावादी कवि)
21 मई 1931 - शरद जोशी (प्रसिद्ध हिंदी व्यंग्यकार)।
22 मई 1774 - राजा राममोहन राय (अग्रणी धार्मिक-सामाजिक क्रांतिद्रष्टा)
23 मई 1923 - अन्नाराम सुदामा (प्रसिद्ध राजस्थानी साहित्यकार)।
27 मई 1894 - पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी (ख्यातिप्राप्त आलोचक तथा निबन्धकार)।
27 मई 1928 - बिपिन चन्द्रा (प्रसिद्ध इतिहासकार)।
27 मई 1954 - हेमन्त जोशी (कवि-पत्रकार-प्राध्यापक)।
24 मई 1896 - करतार सिंह सराभा (प्रसिद्ध क्रान्तिकारी)।
25 मई 1831 - दाग़ देहलवी (प्रसिद्ध उर्दू शायर)।
29 मई 1906 - कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर (जाने-माने निबंधकार)।
31 मई 1725 - अहिल्याबाई होल्कर - (प्रसिद्ध वीरांगना)।
31 मई 1843 - अण्णा साहेब किर्लोस्कर (मराठी रंगमंच के क्रांतिधर्मी नाटककार)।
इस माह में पड़ने वाले 17 स्मृति-दिवस (निधन) इस प्रकार हैं -
2 मई 1985 -बनारसीदास चतुर्वेदी (प्रसिद्ध पत्रकार और साहित्यकार)।
9 मई 1995 - कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर (हिन्दी के जाने-माने निबंधकार)।
10 मई 2002 - कैफ़ी आज़मी (फ़िल्म जगत के मशहूर उर्दू शायर)।
12 मई 1993 - शमशेर बहादुर सिंह (हिन्दी कवि)।
13 मई 2001 - आर. के. नारायण (भारत के प्रसिद्ध अंग्रेज़ी लेखक)।
14 मई 1978 - प्रसिद्ध नाटककार जगदीशचन्द्र माथुर
19 मई 1979 - हज़ारी प्रसाद द्विवेदी (प्रसिद्ध लेखक, उपन्यासकार)
20 मई 1932 - विपिन चन्द्र पाल (भारत में क्रान्तिकारी विचारों के जनक)
22 मई 1991 - श्रीपाद अमृत डांगे (भारत के प्रारम्भिक कम्युनिस्ट नेताओं में से एक)
23 मई 2010 - कानू सान्याल (नक्सली आंदोलन के जनक)।
 23 मई 2011 - चन्द्रबली सिंह (प्रसिद्ध लेखक, आलोचक, अनुवादक)।
24 मई 2000 - मजरूह सुल्तानपुरी (प्रसिद्ध गीतकार)
26 मई 1986 - श्रीकांत वर्मा (प्रसिद्ध कवि-कथाकार-समीक्षक)।
27 मई 1964 - जवाहरलाल नेहरू (भारत के प्रथम प्रधानमंत्री)।
28 मई 2005 - गोपाल प्रसाद व्यास (प्रसिद्ध कवि, लेखक)।
30 मई 2000 - रामविलास शर्मा (सुप्रसिद्ध आलोचक, निबंधकार एवं कवि)
31 मई 1988 - द्वारका प्रसाद मिश्रा (स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, साहित्यकार)।
भड़ास4मीडिया से साभार

प्रेस फ्रीडम डे पर इन दो पत्रकारों की चीख क्या सुनी आप ने !

छह सौ दिन से जेल में कैद शौकन ने चिट्ठी में लिखा - मैं एक पत्रकार हूं, अपराधी नहीं. महमूद अबु जैद "शौकन" टाइम पत्रिका, डी त्साइट, बिल्ड, मीडिया ग्रुप और ऑनलाइन फोटो एजेंसी डेमोटिक्स जैसे कई प्रकाशकों के लिए सेवाएं दे चुके हैं. 2013 में शौकन मिस्र की राजधानी काहिरा के रबा स्क्वायर में हुई हिंसक झड़पों की रिपोर्टिंग कर रहे थे, जहां अपदस्थ राष्ट्रपति मुर्सी के समर्थकों और सुरक्षा बलों के बीच चल रही मुठभेड़ के दौरान वह गिरफ्तार कर लिए गए. उन पर अब तक आधिकारिक रूप से कोई आरोप तय नहीं हुआ है. लेकिन मामले की सुनवाई से पहले उनकी हिरासत की अवधि को लगातार आगे बढ़ाया जाता रहा है और मुक्त किए जाने की उनकी अपील को खारिज किया जाता रहा है.
वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे के मौके पर "शौकन" ने जेल से 'डीडब्ल्यू' को यह पत्र लिखा है -
"वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे के मौके पर, मैं मिस्र के उन पत्रकारों की दुर्दशा की बात आप तक पहुंचा रहा हूं, जो इस दिन को जेल की अंधेरी चारदीवारी में मना रहे हैं. प्रेस की आजादी के मायने हमसे कितने दूर मालूम पड़ते हैं, जब मैं खुद 600 दिन से भी अधिक जेल में बिता चुका हूं और मुझे नहीं पता की ये भयावह अनुभव कब खत्म होगा. और यह सब इसलिये हुआ क्योंकि मैं रबा अल-अदाविया प्रोटेस्ट कैंप को तितर बितर किए जाने की घटना को एक फोटो पत्रकार के तौर पर कवर कर रहा था. किसी वजह से मुझे "अपदस्थ राष्ट्रपति मुर्सी का समर्थक" समझ लिया गया.
''मेरे देश में पत्रकारिता करना एक अपराध बन गया है, हर तरह से एक अपराध. मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ सहानुभूति रखने वाले 13 पत्रकारों को आजीवन कारावास की सजा मिली है और एक दूसरे पत्रकार को मौत की सजा सुनाई गई. आखिर विश्व के वे सभी नेता कहां हैं जिन्होंने शार्ली ऐब्दॉ के कार्टूनिस्टों की हत्या के विरूद्ध पेरिस में प्रदर्शन किया था, और लगातार यह मांग की थी कि अभिव्यक्ति एवं प्रेस की स्वतंत्रता को हर हाल में बचाया जाए??
''मैं बेहद कठिन परिस्थितियों में जेल की एक छोटी सी कोठरी में ऐसे रह रहा हूं जिसे कोई जानवर भी ना सहेगा. मुझ पर तमाम बेबुनियाद झूठे आरोप लग रहे हैं और मुझे गिरफ्तार हुए बाकी विरोध प्रदर्शनकारियों के साथ मिला के देखा जा रहा है. दुनिया भर के सभी मीडिया और पत्रकारों से मेरी यही मांग और अनुरोध है कि कृपया मेरी मदद कीजिए, मेरे साथ आइए और मिस्र की सरकार पर मुझे आजाद करने का दबाव बनाइए. मैं एक पत्रकार हूं कोई अपराधी नहीं...मेरी मदद कीजिए!!"
प्रेस फ्रीडम डे पर इसी तरह बांग्लादेशी फोटोग्राफर शाहिदुल आलम बता रहे हैं कि बिना आजादी के काम करने वाली प्रेस केवल अभिप्रचार है. दुर्भाग्य से बांग्लादेशी प्रेस कई तरह के राजनीतिक दबावों और आर्थिक नियंत्रणों में है.
जो प्रेस खुद को बंधनों में जकड़ा पाती है, वह जनमानस का भरोसा जीतने और जनाधार बनाने के सर्वोपरि लक्ष्य को हासिल करने से चूक जाती है. जाहिर है कि एक जिम्मेदार पत्रकारिता में कई तरह के नैतिक बंधनों का तो वैसे भी ध्यान रखना होता है. आजकल जनता समाचार पाने के लिए किसी एक संस्था या स्रोत तक सीमित नहीं रह गई है. सुनी सुनाई बातों से लेकर, दुनिया में घट रही तमाम गलत बातों पर लिखे जा रहे ब्लॉग्स तक, कई ऐसी चीजें हो रही हैं जो बड़े, रसूखदार लोगों को भी जिम्मेदारी के दायरे में रखने का काम करती हैं.
हो सकता है कि प्रेस की आजादी से कुछ चीजें और उलझती दिखें और ऐसे कई लोग भी हैं जो प्रेस को उत्पाती समझते हैं. लेकिन प्रेस को सिर्फ उसी स्थिति में नियंश्रित करने की जरूरत है जब वह नैतिकता की सीमाएं पार करे या उसकी किसी हरकत से जनहानि पहुंचने का खतरा हो. यह अपने आप में एक जटिल मुद्दा है कि असल में प्रेस इन सीमाओं को कब पार कर रही है यह कौन तय करे. ज्यादातर विवाद तो इतने दूर तक पहुंचते भी नहीं है. प्रेस और जनता दोनों ही के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक ऐसा विषय है जिसे सरकारों, कॉर्पोरेशनों, राजनैतिक एवं धार्मिक समूहों जैसी शक्तिशाली ईकाइयों के तमाम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष खतरों का सामना करना पड़ता है. ऐसा पूरी दुनिया में होता है, लेकिन बांग्लादेश जैसे राष्ट्र में जहां धोखाधड़ी के साये में हुए चुनावों से बनी सरकार की खुद की वैधानिकता पर सवालिया निशान लगा है, वहां विचारों की आजादी का शमन करना न्यायोचित असहमति का गला घोंटने और कट्टरपंथी कार्रवाई को सही ठहराने का एक बड़ा ही सुविधाजनक तरीका लगता है.
जाहिर है, बांग्लादेशी मीडिया में हमेशा से ही कई तरह की वर्जनाएं रही हैं. सेना तो सीमा से बाहर रही ही है, सबसे बड़े विज्ञापनदाता होने के कारण बड़े बड़े टेलीकॉम कॉर्पोरेशनों को मीडिया छेड़ती नहीं है. इसके अलावा भी कई दानदाता समुदाय हैं जिनका ध्यान रखा जाता है. हाल कि दिनों में तो सरकारी मीडिया चैनल भी ढाका सरकार के लिए प्रचार का साधन बन गए लगते हैं. कड़े आलोचकों को टॉक शो में आमंत्रित नहीं किया जाता. एंकरों का इस तरह घुमाकर सवाल पूछना आम है जिससे शासन की बेहतर छवि दिखे.
यह सारे मुद्दे काफी चिंताजनक हैं. मगर, मीडिया कंपनियों, 'संदिग्ध संपादकों' को सीधी धमकी मिलना और पत्रकारों, ब्लॉगरों पर हमले करवाना कहीं ज्यादा बड़ी परेशानी है. प्रशासन ने हाल के दिनों में असाधारण तौर पर बहुत बड़ी तादाद में 'कोर्ट की अवहेलना' के आरोप लगाए हैं जिससे भी भय का माहौल बन गया है. असहिष्णुता की इस संस्कृति के कारण ही स्वतंत्र विचारों वाले कई लोगों का बेहद हिंसक अंत हुआ है. विवेचनात्मक सोच रखने वालों की सबसे ज्यादा जरूरत आज से ज्यादा कभी महसूस नहीं हुई. और ऐसी सोच रखने वालों के लिए अब से ज्यादा खतरनाक समय भी कभी नहीं रहा.
1955 में बांग्लादेश के ढाका में जन्मे शाहिदुल आलम एक फोटोग्राफर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो अपनी कला का इस्तेमाल गरीबी और आपदाओं से घिरे देश के तमाम सामाजिक और कलात्मक संघर्षों को दर्ज करने के लिए करते हैं.
भड़ास4मीडिया से साभार