Thursday 21 November 2013

अस्पृश्यता और हिंदी दलित लेखन


 डॉ. शेख अफरोज फातेमा

भारतीय संस्कृति दुनिया के महान संस्कृतियों में से एक मानी जाती है। ऐसी महान संस्कृति में अस्पृश्यता एक कलंक के रूप में हैं। भारतीय वर्ण व्यवस्था में चतुर्थ वर्ण को शूद्र कहा गया है। इस वर्ण पर सदियों से जुल्म ढाए जा रहे हैं। आधुनिक युग में अनेक नेताओं और समाज सेवियों ने इस अस्पृश्यता को मिटाने के लिए एड़ी-चोटी के प्रयत्न किये हैं।महात्मा गांधी अस्पृश्यता मिटाना चाहते थे। उन्होंने भारतीय समाज पर लगे इस कलंक को मिटाने के लिए बहुत से प्रयास किए। म. गांधी के अनुसार, ‘‘हिंदू धर्म में अस्पृश्यता को कोई स्थान नहीं है। अस्पृश्यता हिंदू धर्म पर लगा एक कलंक है। यदि यह अस्पृश्यता प्रथा न गई तो हिंदू समाज और हिंदू धर्म का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा।’’भारत जैसे विशाल देश में जहाँ सदियों से प्रेम, शांति, अमन, मानवता, सद्भावना जैसे शब्द को ठोस गरिमा है। विश्व के महान शांति प्रसारक और महान पृष्ठभूमि वाले देश में दलितों को लेकर यह व्यवहार ? जब कि सभी मानव एक समान हैं। आदमी की पहचान उसके कर्म से, ज्ञान से विद्ववत्ता से होनी चाहिए न की उसकी जाति से। इसलिए कबीर ने कहा है -‘‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञानमोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान।’’हम सभी हाड मांस से बने, एक समान हैं। हमें छुआछूत को पीछे छोड़ना चाहिए। अस्पृश्यता समाज में लगा कोढ़ है। छूत-अछूत के भेदभाव ने दलित वर्ग को प्रताड़ित किया है।आज वर्तमान में भी अस्पृश्यता अपना स्थान बरकरार रखी हुई है। आज हम भले ही ग्लोबल होने की बात करते हैं किंतु आज भी जाति व्यवस्था जन्ममूलक बनी हुई है कर्ममूलक नहीं। इस संदर्भ में दिनकर लिखते हैं -‘‘मगर मनुज क्या करें ? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं।चुनना जाति और कुल अपनी वश की तो है बात नहीं।’’जाति व्यवस्था भारतीय समाज की ऐसी चारित्रिकता है जो अन्यत्र नहीं मिलती है। अन्य धार्मिक समुदायों में विभेद पाये जाते हैं, मगर उतने रूढ़ नहीं है जितनी भारतीय समाज की जाति व्यवस्था। जाति व्यवस्था की पकड़ हमारे देश में दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। कहा जाता रहा है कि आर्थिक विकास के परिणामस्वरूप जाति व्यवस्था ढीली होगी और अअंतः मिट जाएगी, मगर असलियत कुछ और ही है। हिंदी भाषा क्षेत्र में पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा, बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश से आर्थिक रूप से काफी उन्नत है और वहाँ अधिकतर आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं। वे राजधानी दिल्ली से कई प्रकार से जुड़े हुए हैं और उनके काफी सारे लोग विदेश में कार्यरत हैं। फिर भी जाति व्यवस्था का शिकंजा जितना उनके यहाँ मजबूत है उतना पिछड़े हुए बिहार और उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में नहीं है।आए दिन दलित और गैर दलित के बीच शादी संबंध के परिणामस्वरूप लड़का-लड़की को मारने की बात सामने आती है। हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसी-न-किसी बहाने दलितों को उत्पीड़ित किया जाता है। यह स्थिति लगभग समग्र भारत की है सोचने की बात है कि इसके पीछे क्या कारण हैं ?उत्तर वैदिक काल से ही शूद्रों को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया है जिसके कारण वह अज्ञान के गहरी अंधी खाई में लोटे गए हैं। म. फुले कहते हैं -‘‘शिक्षा के अभाव से बुद्धि का र्‍हास हुआ।बुद्धि के अभाव से नैतिकता की अवनती हुई।नैतिकता के अभाव से प्रगति अवरूद्ध हो गयी।प्रगति के अभाव से सम्पति लुप्त हो गयी।सम्पत्ति के अभाव से शूद्रों का पतन हो गया।इन सारी विपत्तियों का अभिभाव अकेले अज्ञान से हुआ।’’जीवन की मूलभूत इकाइयों से वंचित दलित वर्ग सदियों से जीवन जी रहा नहीं, बल्कि जीवन को मानो ढो रहा है। साक्षर न होने के कारण जमीनदारों, साहूकारों, बनियों ने धूर्तता से उनका बेजा लाभ उठाया है। उधार लिए पैसों का ब्याज चुकाते-चुकाते जीवन से वे हार मान बैठे थे। शिक्षा के अभाव में दलितों का बहुत शोषण हुआ है। शिक्षा से समझ बढ़ती है, ज्ञान बढ़ता है। परंतु उन्हें हमेशा शिक्षा से वंचित ही रखा गया है। फिर कैसे वह अपने आप को व्यक्त करेंगे। शिक्षा से वंचित रखना यह दलितों के खिलाफ बहुत बड़ी साजिश थी।शिक्षित समाज में उपरी तौर पर दलितों के प्रति व्यवहार बदल रहा था पर सूक्ष्म रूप से अलगाव जारी था। जैसे खाने-पीने के अलग बर्तनों का प्रयोग आदि। ‘‘समय बदला है लेकिन फिर भी कही कुछ का वही ठहर गया है। आज भी जाति एक विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण घटक है। जब तक पता नहीं चलता लोग सामान्य रहते हैं। जाति का पता चलते ही सन्नाटा खींच लाता है। फुसफुसाहटे उठती हैं। दलित होने की पीड़ा चाकू की तरह नस-नस में उतरती जाती है। पढ़े-लिखे दलितों की अवस्था त्रिशंकू जैसे हो गयी है। उनकी पहचान उनकी अस्मिता का संकट आज पहले से अधिक बिकट है। वे समाज के मुख्यधारा से जुड़ना चाहते हैं तो सवर्ण बाहें फैला कर नहीं अपनाते।’’४ जहाँ तक दलित जीवन का सवाल है वह भारतीय समाज में हमेशा तिरस्कृत ही रहा है और वर्तमान में भी तिरस्कृत ही है। इस तिरस्कार भरी जिंदगी से दलित वर्ग उब चुका है उससे वह मुक्ति चाहता है।आधुनिक समय में दलित वर्ग अपनी सदियों की दासता से मुक्ति चाहता है। वह अपनी स्थिति में परिवर्तन लाना चाहता है। उसके बदलते हुए कदम उसमें परिवर्तन की मांग करते हैं। वह भी आज सर उठाकर जीना चाहता है। सभ्य समाज, जो मुख्यधारा कहलाता है। उसके साथ कदम मिलाकर चलना चाहता है। उसे भी एक व्यक्ति के रूप में जाना जाय यही उसकी इच्छा है।वर्तमान समाज में दलितों के उद्धारक महामानव डॉ. आंबेडकर ने उन्हें शिक्षा, संघटन और संघर्ष का रास्ता दिखाकर उनके अंधेरे जीवन में नई रोशनी की किरण दिखलायी है। शिक्षा के कारण दलित युवक आज पढ़-लिखकर अपने हक के प्रति जागृत दिखाई देता है। शिक्षा ने तीसरे नेत्र का काम किया, जिससे सामाजिक प्रवाह में वह अपने अस्तित्व की माँग कर रहा है। शिक्षित दलित समाज ने साहित्य में आगमन कर अपनी वेदना को जो परिधि पर थी उसे केंद्र में लाने का स्वयं कार्य किया है। महात्मा फुले के शब्दों में कहे तो, ‘‘राख ही बता सकती है जलने की पीड़ा क्या है ?’’ यह पीड़ा लिए दलित समाज अपनी स्वानुभूति को समाज के सामने लाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।दलित वर्ग को लेकर साहित्य में चर्चा करना वर्जित माना जाता था। इसी हाशिए के बाहर के समाज का साहित्य में पर्दापन करना इतना आसान काम नहीं था। समकालीन साहित्यकारों ने समय के साथ सरोकार निभाते हुए इन हाशिये के बाहर के समाज को हाशिए के अंदर लाने का कार्य किया है। समाज से सताये गए इस वर्ग को सामाजिक स्तर पर न्याय दिलाने का प्रयास साहित्यकारों ने सफलतापूर्वक किया है।‘दलित पँथर’ की स्थापना के उपरांत देश में अनेक संघटनाओं की स्थापना हुई जिसके द्वारा दलित साहित्य को बढ़ावा मिला या एक मंच प्राप्त हुआ। दलित साहित्य रूढ़िवाद, जातीयवाद और भाग्यवाद ही नहीं मानता, नारी उत्पीड़न और श्रमिक उत्पीड़न के विरूद्ध खुला विद्रोह उसके मूल स्वर में शामिल है।हिंदी दलित साहित्य की देन सिर्फ दो ही दशकों की है। जिसका मूल स्त्रोत महाराष्ट्र का दलित साहित्य है। दलित साहित्य की प्रेरणाओं में डॉ. आंबेडकर, म. फुले, शाहू महाराज आदि रहे हैं। हिंदी पर मराठी दलित साहित्य का प्रभाव दिखाई देता है।समकालीन साहित्यकारों ने दलित उत्पीड़न को लेकर कहानियाँ लिखी हैं। जिनमें प्रमुख रूप से - ‘सुरंग’ (सूरजपाल चौहान), ‘सलाम’ (ओमप्रकाश वाल्मीकि), ‘दृष्टिकोण’ (अरविंद कुमार राही), ‘पुनर्वास’ (विपिन बिहारी), ‘चार इंच की कलम’ (कुसुम वियोगी) आदि कथासंग्रहों का समावेश है। हिंदी दलित सािहत्य का पहला उपन्यास जयप्रकाश कर्दम का ‘छप्पर’ सत्यप्रकाश का ‘जसतसभई सवेर’, मोहनदास नैमिशराय का ‘मुक्तिपर्व’ आदि उपन्यास महत्त्वपूर्ण हैं। उपन्यास साहित्य के साथ-साथ ही दलित आत्मकथा लेखन भी पूरी सशक्तता के साथ उभरकर आया जिसमें - मोहनदास नैमिशराय ‘अपने-अपने पिंजड़े’, ओमप्रकाश वाल्मीकि ‘जूठन’, कौशल्या बैसंत्री ‘दोहरा अभिशाप’, डॉ. श्योराजसिंह बेचैन ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ आदि। जिसके द्वारा दलित विमर्श हमारे सामने आता है।दलित लेखकों के साथ गैरदलित लेखकों ने दलित साहित्य पर लेखनी चलायी है। रमणिका गुप्ता ने दलित कथाओं का संपादन किया है। यह सारी कथाएँ व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह करती हैं।दलित साहित्य को बढ़ावा देने में दलित साहित्य पत्रिकाओं ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। जिसमें ‘‘हिमायती’ (पाक्षिक), ‘नागमय संस्कृति’ (साप्ताहिक), ‘पूर्वदेवा’, ‘अनार्य भारत’ (साप्ताहिक) विशेष उल्लेखनीय हैं।’’समकालीन साहित्यकारों ने यह एहसास दिलाया कि दुनिया में महान संस्कृति के रूप में मानी जानेवाली भारतीय संस्कृति है पर इस महान संस्कृति को शर्म आये ऐसी समाज व्यवस्था दलितों को मानवीयता से वंचित रखती है। जो समाज विश्व को ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की शिक्षा देता हो वही समाज अछूतों को समाज व्यवस्था के बाहर रखता है। समाज से बहिष्कृत कर उन्हें जानवरों से बदत्तर जीवन-यापन करने पर मजबूर करता है। ऐसे मानसिक रूप से विकलांग समाज का चित्रण दलित साहित्यकारों ने अपने साहित्य में किया है। साथ ही सवर्णों की सत्ता के विरूद्ध विद्रोह भी दिखलाया है। आज शिक्षा के कारण दलित जागृत हुआ है। वह भी इन्सान है, उसको भी मानवीय संवेदनाएँ हैं। वह भी आज अपने हक के लिए सजग दिखाई दे रहा है। (www.rachanakar.org से साभार)