Wednesday 28 February 2018

मुंह पर पचारा पोते भांग में टुन्न सुदामा चाचा

जब भी होली के दिन आते हैं, नानी की यादें आंखें नम कर देती हैं। नानी मां के कच्चे मकान के सामने जन-मानुस जैसे बूढ़े बरगद और नीम-जामुन के तितर-बितर पेड़। पिछवाड़े बंसवारी की बगल में प्रायः बबूल के फूल ओढ़े छोटा-सा घूरा। आसपास की जमीन पर हरे-हरे गमछे की तरह गहरी जड़ों वाले दूब के चकत्ते। घूरता हूं उस वक्त की मटमैली चादर पर। हल्के झोकों से खेलते रहने वाले तृण-पतवार और गन्ना पेराई के दिनों वाले खोई के बिछौने अपनी बांहों में भर लेते हैं मुझे। प्राण रो उठते हैं। इस तरह घुल-मिल जाता है मन उनमें, कि जैसे कोई अबोध शिशु अपनी झीनी-झीनी दंतुलियां दिखाते हुए आंखों में आंखें डालकर डूब जाए उन अविरल क्षणों में। .... और पूछे कि हे जन-मानुसों, लोकजीवन के विकीपीडिया सी वह मेरी नानी मां अभी जिंदा तो नहीं! मेरे बाबा से मुझे आखिरी एक और मुलाकात करा दोगे क्या, जिन्होंने उंगलियां पकड़ कर चलना सिखाया था मुझे। मेरे मन, मेरे विवेक पर अमिट छाप सतर गयी थी जिनकी।
मेरे ननिहाल टिसौरा से पांच-छह किलो मीटर दक्षिण में भैंसही नदी के पार पड़ता था, मेरे पिता का गांव बभनवली। वह होली का दिन था। भांग छानकर मस्त गांव के बड़े-बुजुर्ग बसंत पंचमी से ही देर-देर रात तक समूह में होली गायन में डूब जाया करते थे। होली के दिन वह उल्लास अथाह हो जाता था। मेरे पिता ढोलक-झाल की गमक पर होली-चैता गाने में मशहूर थे। उस दिन भी गाना-बजाना चल रहा था। पूरे गांव पर रंग बरस रहे थे। थाप गूंज रहे थे चारो ओर। हर कोई बेसुध, बौराया सा। कोई रंग, कोई कीचड़, कोई धूल सना बदरंग चेहरा। उसी गहमागहमी, उछल-कूद में मस्तमौला मेरे रिश्ते के सुदामा चाचा बगल के गांव कम्हरिया से दोपहर को अचानक आ टपके। वह अपने घुमंतूपन के लिए चर्चित थे। शाम को जाते-जाते मुझसे पूछने लगे - 'चलोगो अपनी नानी से मिलने! मैं टिसौरा जा रहा हूं।' इतना सुनते ही मैं जोर-जोर से रोने लगा। नानी की याद ने अंदर तक ऐंठ दिया। तुरंत उनके साथ साइकिल से जाने को तैयार हो गए। मैंने अपनी छोटी बहन आशा से पूछा- तुम भी चलोगी मेरी नानी के घर? उसने मना कर दिया और चुपचाप लौट गई। मैं सुदामा चाचा के साथ साइकिल से टिसौरा चला गया।
इधर, होली की रंग-तरंग थमते ही मेरी ढूंढ मची। पिता जी के साथ ही घर-गांव के लोग कुंआ, ताल, पोखरे तक देख-घूम आए, मेरा कहीं पता नहीं चला। घर में कोहराम मच गया। पिता जी हलवाहे मोदी के साथ आधी रात बाद टिसौरा पहुंचे। उस समय सुदामा चाचा दरवाजे पर चारपाई डालकर खर्राटे भर रहे थे। खटर-पटर पर नींद उचटते ही पिता जी को देखा तो कूदकर पिछवाड़े की ओर भाग गए। उन्हें समझते देर नहीं लगी थी कि मुझे ही खोजते हुए पिता जी उतनी रात गए आ धमके थे। अगली सुबह रोज की तरह मैं सोकर उठा तो दालान की चौखट पर जा बैठा था। नानी मां आकर बुदबुदाते हुए दुखी मन से मेरी पीठ सहलाने लगीं - 'अरे मेरे लाल, जरा देखें तो पीठ पर घाव तो नहीं लगा है, उसने कसाई की तरह पीठा तुझे।' फिर नानी मां ने बताया कि तुम्हारा बाप रात में मोदी हलवाहे के साथ आया था। जगाकर तुझे बैल की तरह पीटने लगा। इसी तरह तेरी मां तुझे पीटती थी। मैंने उसे बहुत डांटा। तब छोड़ कर गया। वह सुदामा को भी ढूंढ रहा था। वह तो कूद कर अंधेरे में पिछवाड़े जा छिपा था। फिर काफी देर तक वह मेरी पीठ और सर सहलाती रही थीं। मुझे जरा भी याद नहीं रहा था कि रात में मेरी जमकर थुराई हो चुकी थी। मुंह पर पचारा पोते भांग में टुन्न सुदामा चाचा तड़के ही डर के मारे चुपचाप साइकिल से अपने गांव लौट गए थे।