Tuesday 4 November 2014

पत्रकारिता में जूते चाटने की नौबत / रवीश कुमार

फिल्म पत्रकारिता तो अब जूते चाटने की नौबत तक पहुंच गई है। टीवी में फिल्म पत्रकारिता अब प्रमोशन है। इंटरव्यू से पहले तय होता है सवाल कैसे होंगे, पर्सनल से नहीं होंगे, फिल्म के बारे में होंगे। हकीकत तो यह है कि रीलीज़ होने से पहले ऐसी कोई सुविधा भी नहीं कि एंकर फिल्म देख ले। तिस पर से चाहत ऐसी कि एंकर फिल्म के बारे में ही बात करे। और जब एंकर सवाल पूछ भी देती है तो जवाब जो मिलता है उससे पता चलता है कि दर्शकों का कितना बड़ा वर्ग मूर्ख है। एंकर पूछती है फिल्म की कहानी क्या है। निर्देशक बकता है बिल्कुल नई है। हा..हा...हा..।
और तो और फिल्म कंपनियों के पी आर एजेंट कुछ क्लिप बांटते हैं। मुफ्त। नेताओं की शराब की तरह। उस क्लिप में झांकिये और फिल्म को समझ लीजिए। आप ही बताइये कि कोई कैसे फिल्म के बारे में बात कर सकता है। लेकिन करना पड़ता है।
बात यहीं तक खत्म नहीं होती। ये पीआर एजेंट अब तो यह भी डील करने लगे हैं कि स्टार के स्टुडियो आने का किराया भी दीजिए। हर स्टुडियो में जाते हैं और कहते हैं हम आपको एक्सक्लूसिव इंटरव्यू दे रहे हैं। इंटरव्यू में होता है कूड़ा। बिपाशा आपको सलमान के साथ कैसा लगा? सलमान आपको कैसा लगा? निर्देशक से भी यही सवाल आपको कैसा लगा? बीच बीच में बिपाशा अपने बचे खुचे कपड़ों को तानती रहती है कि तन ढंका रहे। सलमान अपने बालों को झटकते रहता है। बात शुरू नहीं हुई कि फिल्म का क्लिप आ जाता है।
अब तो बकायदा हर फिल्म के हिसाब से मीडिया पार्टनर तय किये जाते हैं। सोच कर देखिये कल कोई राजनीतिक दल किसी न्यूज़ चैनल को अपना पार्टनर बना लें। कुछ चैनल तो हैं जिन्हें राजनीतिक दल ही चला रहे हैं। लेकिन फिल्म कंपनियों ने अपना कोई चैनल नहीं बनाया। वो दूसरे चैनलों को बता रहे हैं कि आप लालू यादव को गरिया सकते हैं, मायावती को गरिया सकते हैं लेकिन रणवीर को नहीं गरिया सकते। सैफ अली से तो आप वही सवाल पूछिये जिससे सैफ को गुदगुदी हो।
अब तो हिंदी के कई ब्लॉग बालीवुड पर लिख रहे हैं। अच्छा होता कि वहां इस पर बहस चलती। चवन्नी छाप हो या इंडियन बायस्कोप। ज़रूरी है कि इस तरह के एम्बेडड यानी गुलाम पत्रकारिता के बारे में लिखा जाए। जो पत्रकारिता कम है, रणनीति ज़्यादा।

अपराध और अपराधी / फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की


'पूरी तरह यही मेरे कहने का मतलब नहीं था,' रस्कोलनिकोव ने सीधे ढंग से और विनम्रता के साथ कहना शुरू किया। 'मैं फिर भी मानता हूँ कि मेरी बात को आपने लगभग पूरी तरह सही-सही बयान किया है, बल्कि मैं तो यहाँ तक कहने को तैयार हूँ कि शायद उसमें कुछ भी गड़बड़ नहीं है।' (इस बात को मान कर उसे कुछ खुशी भी हुई।) 'फर्क बस एक है। मैं इस पर जोर नहीं देता कि असाधारण लोगों के लिए हमेशा उनके, जैसा कि आप कहते हैं, नैतिकता के नियमों के, खिलाफ काम करना लाजमी नहीं होता। दरअसल, मुझे तो इसमें भी शक है कि 'असाधारण' आदमी को इस बात का अधिकार होता है... मतलब यह कि औपचारिक रूप से अधिकार तो नहीं होता पर वास्तविकता के स्तर पर अधिकार होता है कि वह अपनी अंतरात्मा में इस बात का निश्चय कर सके कि वह कुछ बाधाओं को... पार करके आगे जा सकता है, और वह भी उस हालात में जब ऐसा करना उसके विचारों को व्यवहार का रूप देने के लिए जरूरी हो। (शायद कभी-कभी यही पूरी मानवता के हित में हो।) आपका कहना है कि मेरे लेख में यह बात स्पष्ट ढंग से नहीं कही गई है; मैं अपनी बात, जहाँ तक मेरे लिए मुमकिन है, साफ-साफ कहने को तैयार हूँ। शायद मेरा यह सोचना ठीक ही है कि आप चाहेंगे, मैं ऐसा करूँ... अच्छी बात है। मेरा कहना यह है कि अगर एक, एक दर्जन, एक सौ या उससे भी ज्यादा लोगों की जान की कुरबानी दिए बिना केप्लर और न्यूटन की खोजों को सामने लाना मुमकिन न होता, तो न्यूटन को इस बात का अधिकार होता, बल्कि सच पूछें तो उसका कर्तव्य होता कि वह पूरी मानवता तक अपनी खोजों की जानकारी पहुँचाने के लिए... उन एक दर्जन या एक सौ आदमियों का सफाया कर दे। लेकिन इससे यह नतीजा नहीं निकलता कि न्यूटन को इस बात का अधिकार था कि वह अंधाधुंध लोगों की हत्या करता चले और रोज बाजार में जा कर चीजें चुराए। फिर मुझे याद है, मैंने अपने लेख में यह भी दावा किया था कि सभी... मेरा मतलब है कि सुदूर अतीत से ले कर अभी तक कानून बनानेवाले और जनता के नेता, जैसे लाइकर्गस, सोलन, मुहम्मद, नेपोलियन, वगैरह-वगैरह सारे के सारे एक तरह से अपराधी थे, सिर्फ इस बात के सबब कि उन्होंने एक नया कानून बना कर उस पुराने कानून का उल्लंघन किया जो उनके पुरखों से उन्हें मिला था और जिसे आम लोग अटल मानते थे। अरे, ये लोग तो खून-खराबे से भी नहीं झिझके क्योंकि उस खून-खराबे से, जिसमें अकसर पुराने कानून को बचाने के लिए बहादुरी से लड़नेवाले मासूमों का खून बहाया जाता था, उन्हें अपने लक्ष्य पाने में मदद मिलती थी। जी हाँ, कमाल की बात तो यह है कि मानवता का उद्धार करनेवाले इन लोगों में से, मानवता के इन नेताओं में से ज्यादातर नेता भयानक खून-खराबे के दोषी थे। इससे मैंने यह नतीजा निकाला है कि सभी महापुरुषों को, बड़े लोगों को, और उन लोगों को भी जो आम लोगों से थोड़े भिन्न होते हैं, कहने का मतलब यह कि कोई नई बात कह सकते हैं, उन्हें जाहिर है कि कमोबेश अपराधी ही बनना पड़ता है। नहीं तो उनके लिए घिसी-घिसाई लीक से बाहर निकलना मुश्किल हो जाए, और वे कभी घिसी-घिसाई लीक पर चलते रहना बरदाश्त नहीं कर सकते। यह भी उनके स्वभाव की वजह से ही है और मैं समझता हूँ कि दरअसल उन्हें करना भी नहीं चाहिए। आप देखेंगे कि इसमें कोई खास नई बात नहीं कही गई। पहले हजारों बार यही बात छपी और पढ़ी जा चुकी है। रहा इसका सवाल कि मैंने लोगों को साधारण और असाधारण में बाँटा है, तो मैं यह मानता हूँ कि यहाँ मैंने कुछ मनमानेपन से काम लिया है। फिर भी उनकी सही-सही संख्या कितनी होनी चाहिए। इसके बारे में मेरा कोई आग्रह नहीं है। मैं तो बस अपने इस मुख्य विचार में विश्वास रखता हूँ कि प्रकृति का एक नियम लोगों को आमतौर पर दो खानों में बाँट देता है : एक तो निम्नतर (यानी साधारण), मतलब यह कि वह माल जो सिर्फ अपनी ही किस्म का माल बार-बार पैदा करते रहने के लिए होता है, और दूसरे वे लोग जिनमें कोई नई बात कहने की प्रतिभा होती है। जाहिर है इनके और भी अनगिनत छोटे-छोटे हिस्से हैं, लेकिन इन दो तरह के लोगों को जिन गुणों की बुनियाद पर अलग-अलग पहचाना जा सकता है, वे एकदम स्पष्ट हैं। आम तौर पर, पहली किस्म में ऐसे लोग होते हैं जो स्वभाव से ही दकियानूस और कानून को माननेवाले होते हैं, आज्ञाकारी होते हैं और आज्ञाकारी रहना पसंद करते हैं। उन्हें मेरी राय में आज्ञाकारी ही होना चाहिए। क्योंकि यही उनका काम है, और इसमें उनकी कोई हेठी नहीं होती। दूसरे किस्म के लोग कानून की सीमाओं को तोड़ते हैं; अपनी-अपनी क्षमता के हिसाब से वे या तो चीजों को नष्ट करते हैं या उनका झुकाव चीजों को नष्ट करने की ओर होता है। जाहिर है इन लोगों के अपराध दूसरी ही तरह के होते हैं और किसी दूसरी बात से तुलना करके ही उन्हें अपराध कहा जा सकता है। ज्यादातर तो यही होता है कि वे बहुत ही भिन्न-भिन्न संदर्भों में जो कुछ मौजूद है, उसे कुछ बेहतर की खातिर नष्ट करने की माँग करते हैं। लेकिन इस तरह का एक आदमी अगर अपने विचारों की खातिर किसी लाश को रौंदने या खून की नदी से भी पार उतरने पर मजबूर हो जाए तो वह, मेरा दावा है कि अपनी अंतरात्मा में खून की इस नदी से पार उतरने को उचित ठहराने के लिए भी कोई कारण ढूँढ़ निकालेगा। इसका दारोमदार इस पर है कि उसका विचार क्या है और वह कितना व्यापक है; यही ध्यान में रखने की बात है। मैंने अपने लेख में उनके अपराध करने के अधिकार की बात सिर्फ इसी मानी में कही है (आपको याद होगा, वह लेख एक कानूनी सवाल से शुरू हुआ था)। लेकिन कुछ ज्यादा चिंता करने की बात नहीं है : आम लोग इस अधिकार को शायद कभी मानेंगे ही नहीं। वे ऐसे लोगों को (कमोबेश) या तो मौत की सजा देते हैं या फाँसी पर लटका देते हैं, और ऐसा करके वे अपने दकियानूसी के फर्ज को पूरा करते हैं, जो ठीक ही है। लेकिन अगली पीढ़ी में पहुँच कर आम लोग ही (कमोबेश) इन अपराधियों की ऊँची-ऊँची मूर्तियाँ खड़ी करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। पहली किस्म के लोगों का हमेशा केवल वर्तमान पर ही अधिकार रहता है और दूसरी किस्म के लोग हमेशा भविष्य के मालिक होते हैं। पहली किस्म के लोग दुनिया को जैसे का तैसा बनाए रखना चाहते हैं और उनकी बदौलत दुनिया चलती रहती रहती है और दूसरी तरह के लोग दुनिया को आगे बढ़ाते हैं, उसे उसकी मंजिल की ओर ले जाते हैं। हर वर्ग को जिंदा रहने का बराबर अधिकार होता है।
( अपराध और दंड से)

साहित्य और पत्रकारिता / गोविंद सिंह

साहित्य और पत्रकारिता के बीच एक अटूट रिश्ता रहा है। एक ज़माना वह था जब इन दोनों को एक-दूसरे का पर्याय समझा जाता था। ज्यादातर पत्रकार साहित्यकार थे और ज्यादातर साहित्यकार पत्रकार। पत्रकारिता में प्रवेश की पहली शर्त ही यह हुआ करती थी कि उसकी देहरी में कदम रखने वाले व्यक्ति का रुझान साहित्य की ओर हो। लेकिन पिछले दो दशकों से इस रिश्ते में एक दरार आ गयी है। और यह दरार लगातार चौड़ी हो रही है। इसलिए आज की पत्रकारिता पर यह आरोप लग रहा है कि वह साहित्य की उपेक्षा कर रही है। जब उसे साहित्य की जरूरत होती है, उसका खूब इस्तेमाल करती है, लेकिन जब उसका काम निकल जाता है, तब साहित्य की ओर मुड़ कर भी नहीं देखती। पत्रकारिता पर यह भी आरोप है कि उसका स्वरूप पहले की तरह स्पष्ट नहीं रह गया है। उसके उद्देश्य को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं। उसमें अनेक स्तरों पर विखराव दिख रहा है तो कई स्तरों पर अराजकता भी लक्षित हो रही है। सवाल उत्पन्न होता है कि ये आरोप कहाँ तक सही हैं और यदि पत्रकारिता के पास उनका कोई जवाब है, तो वह क्या है?
इसकी सबसे बड़ी वजह शायद यह है कि हाल के वर्षों में मीडिया का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं कि राष्ट्रीय एजेंडा निर्धारित करने में आज मीडिया की भूमिका कहीं बढ़ गयी है। आज वह केवल एक मिशन नहीं रह गया है। वह एक बड़े व्यवसाय, बल्कि उद्योग में परिवर्तित हो चुका है। फिलहाल वह १०.३ अरब डॉलर का उद्योग है तो २०१५ में वह २५ अरब डालर यानी सवा लाख करोड़ से अधिक का हो जाएगा। हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में ६०० से अधिक टीवी चैनल, १० करोड़ पे-चैनल देखने वाले परिवार, ७०,००० अखबार हैं। यहाँ हर साल १,००० से अधिक फिल्में बनती हैं। जाहिर है इतने बड़े क्षेत्र को संभालना इतना आसान नहीं रह गया है। दुर्भाग्य यह है कि इसके लिए देश के पास कोई सुविचारित नीति भी नहीं है। इसलिए उसका एकरूप होना या किसी साफ़-सुथरी तस्वीर का न बन पाना अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन इस मसले को पूरी तरह से समझने के लिए एक नज़र भारतीय मीडिया की पृष्ठभूमि पर डालनी चाहिए।
आजादी से पहले हिन्दी पत्रकारिता के तीन चेहरे थे। पहला चेहरा था- आजादी की लड़ाई को समर्पित पत्रकारिता, दूसरा चेहरा था साहित्यिक उत्थान को समर्पित पत्रकारिता का और तीसरा चेहरा समाज सुधार करने वाली पत्रकारिता का था। कहना न होगा कि इन तीनों को एक महाभाव जोड़ता था और वह महाभाव आजादी प्राप्त करने का विराट लक्ष था। इसलिए साहित्यिक पत्रकारिता भी यदि राजनीतिक विचारों से ओत-प्रोत थी तो राजनीतिक पत्रकारिता में भी साहित्य की अन्तः सलिला बहा करती थी। तीनों धाराओं का संगम हमें भारतेंदु हरिश्चंद्र संपादित कवि वचन सुधा में देखने को मिलता है। १८६८ में जब यह पत्रिका निकली थी, तब इसका कलेवर सिर्फ साहित्यिक था। बल्कि यह पत्रिका काव्य और काव्य-चर्चा को समर्पित थी। लेकिन धीरे-धीरे इसमें राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक विचार भी छपने लगे। इस पत्रिका ने हिंदी प्रदेश को निद्रा से जगाने का काम किया था। एक समय ऐसा आया जब अँगरेज़ सरकार के प्रति इसका स्वर इतना तल्ख़ हो गया कि इसे मिलने वाली तमाम सरकारी सहायता बंद हो गयी।
बालकृष्ण भट्ट, जिन्हें हम हिन्दी के शुरुआती निबंधकार के रूप में जानते हैं, उनके संपादन में निकलने वाले पत्र हिन्दी प्रदीप में कविता छपी, यह बम क्या चीज है? और इसी वजह से पत्र को अकाल मृत्यु का भाजन बनना पड़ता है। उचित वक्ता, भारत मित्र, हिंदी बंगवासी, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, सरस्वती, हिंदू पञ्च, चाँद, शक्ति, कर्मवीर, प्रताप, माधुरी, मतवाला, सैनिक, हंस, वीणा, सुधा, आज आदि को भी इसी नज़र से देखा जा सकता है।
जो राजनीतिक पत्र थे, वे भी साहित्य से एकदम असम्प्रिक्त नहीं थे। चाहे तिलक का केसरी हो या गांधी का हरिजन, वे साहित्य से दूर नहीं थे। जब गांधी जी ने हरिजन को हिंदी में निकाला तो उसके संपादन का दायित्व वियोगी हरि जैसे बड़े साहित्यकार को सौंप दिया। साहित्य, समाज और राजनीति का बेहतरीन उदाहरण निस्संदेह महाबीर प्रसाद द्विवेदी की सरस्वती ही थी, जिसने हिंदी भाषा और साहित्य और पत्रकारिता का एक युग निर्मित किया। सरस्वती सिर्फ एक साहित्यिक पत्रिका ही नहीं थी, समय की जरूरत के अनुरूप हर तरह की सामग्री उसमें छपा करती थी। दुनिया भर का श्रेष्ठ साहित्य उसमें छपता था। द्विवेदी जी स्वयं अनेक नामों से तरह-तरह के विषयों पर लिखा करते थे। ज्ञान की कोइ ऐसी चीज नहीं थी, जो सरस्वती में न छपी हो। इस से बड़ी बात और क्या हो सकती है कि एक संपादक के नाम पर हिंदी साहित्य के एक युग का नामकरण हुआ। अपनी पत्रिका के जरिये उन्होंने हिन्दी के साहित्यकार तैयार किये। लोगों को सही भाषा लिखना सिखाया। और हिन्दी भाषा के मानकीकरण के लिए ठोस प्रयास किये।
आजादी से पहले तो हिन्दी पत्रकारिता में साहित्य का दबदबा था ही, आजादी के बाद भी यह रिश्ता कायम रहा। आजादी के बाद जहाँ हिन्दी की दैनिक पत्रकारिता कोई खास झंडे नहीं गाड़ पायी थी, वहीं साप्ताहिक या मासिक पत्रकारिता ने हिन्दी का झंडा बुलंद रखा। विशाल भारत, ज्ञानोदय, धर्मयुग, नवनीत, कल्पना, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नंदन, पराग, रविवार और दिनमान जैसी पत्रिकाओं ने आजादी से पहले की हिन्दी पत्रकारिता की साहित्यिक परम्परा को जीवित रखा। इन पत्रिकाओं ने साहित्य को जीवित ही नहीं रखा बल्कि राष्ट्रीय एजेंडा में भी रखा। ये पत्रिकाएं अच्छे साहित्य की बदौलत ही चल भी पाईं। हेम चंद्र जोशी, इला चंद्र जोशी, बद्री विशाल पित्ती, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, बाल कृष्ण राव, रामानंद दोषी, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, नारायण दत्त, चंद्रगुप्त विद्यालंकार जैसे साहित्यकारों ने आज़ादी के बाद की हिन्दी पत्रकारिता को अपनी साहित्यिक सूझ-बूझ के साथ संवारा। यह क्रम अस्सी के दशक तक लगभग बना रहा। साहित्यिक दृष्टि से इस प्रवृत्ति के फायदे हुए तो इसके विस्तार में रुकावटें भी कम नहीं आयीं। क्योंकि अस्सी के दशक में जिस तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था ने नई उड़ान भरनी शुरू की, राजनीति और समाज के स्तर पर बदलाव आने शुरू हुए, उसका सीधा असर हिन्दी की पाठकीयता पर पड़ा। जैसे-जैसे हिन्दी क्षेत्र में साक्षरता और शिक्षा का प्रसार होने लगा, अखबारों और पत्रिकाओं का प्रसार भी बढ़ने लगा। हिन्दी के नए पाठक जुड़ने लगे। जाहिर है ये पाठक अपनी अभिरुचि और अध्ययन के लिहाज से पहले के पाठकों की तुलना में अलग थे।
इसलिए पत्र-पत्रिकाओं से यह अपेक्षा होने लगी कि वे नयी तरह की सामग्री अपने पाठकों को दें। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया। साहित्य के लिहाज से हिन्दी की श्रेष्ठ पत्रिकाओं का स्तर निस्संदेह बहुत ऊंचा था, लेकिन उनका प्रसार धीरे-धीरे घटने लगा। नब्बे के दशक तक आते-आते हिन्दी कि लगभग तमाम बड़ी पत्रिकाएं बंद होने की दिशा में बढने लगीं। धर्मयुग, दिनमान और सारिका जैसी टाइम्स समूह की पत्रिकाएं तो बंद हुई ही, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, रविवार, अवकाश जैसी पत्रिकाएं भी बंद हो गयीं। नब्बे के दौर में शुरू हुए संडे मेल, संडे ओब्जर्वर, चौथी दुनिया, दिनमान टाइम्स जैसे ब्रोडशीट साप्ताहिक भी जल्दी ही अपना बिस्तर समेट कर बैठ गए।
इसी बीच १९९१ में शुरू हुए आर्थिक सुधारों ने साहित्य और मीडिया के रिश्तों को बुरी तरह से प्रभावित कर दिया। देश में सेटेलाईट के जरिये विदेशी धरती पर तैयार हुए टेलीविजन कार्यक्रम दिखाए जाने लगे। विदेशी चैनल भारत में प्रसारित होने लगे। अचानक न्यू मीडिया का उफान आया। जो विषय सामग्री अखबारों में सप्ताह भर के बाद छप कर आती थी, वह टीवी पर तत्काल दिखाई देने लगी। इसलिए साप्ताहिक परिशिष्टों में छपने वाली सामग्री दैनिक के पन्नों पर छपने लगी। देखते ही देखते साप्ताहिक पत्रिकाएं दम तोड़ने लगीं। उनके सामने यह संकट पैदा हो गया कि वे क्या छापें? दैनिक पन्नों में छपने वाली सामग्री भी उस स्तर की नहीं थी, जो स्तर साप्ताहिकों का होता था। इसलिए समस्या काफी गहरी हो गयी।
सबसे बड़ी समस्या हिन्दी साहित्य की उन विधाओं के साथ हुई, जो स्तरीय पत्रिकाओं में छापा करती थीं। रिपोर्ताज, संस्मरण, रेखाचित्र, ललित निबंध, यात्रा वृत्तान्त, भेंटवार्ता, समीक्षा जैसी अनेक विधाएं, जो साप्ताहिक पत्रिकाओं की शान हुआ करती थीं, धीरे-धीरे दम तोड़ने लगीं। जब छपनी ही बंद हो गयीं, तो लिखी भी नहीं जाने लगीं। यानी आर्थिक सुधारों के बाद पत्रकारिता का जो नया रूप आया, उसने पत्रकारिता का विस्तार तो बहुत किया, लेकिन स्तर में गिरावट आ गयी। इस तरह पत्रिकाओं के बंद होने से हिन्दी साहित्य को प्रत्यक्ष नुक्सान उठाना पड़ा।
हाँ, कुछ लघु पत्रिकाओं ने साहित्य की मशाल जरूर जलाए रखी, लेकिन चूंकि उनका प्रसार बहुत कम होता है, इसलिए उसे हम हिन्दी समाज की मुख्य धारा पत्रकारिता की प्रवृत्ति के रूप में नहीं देख सकते। इंडिया टुडे, आउटलुक साप्ताहिक, आजकल, समयांतर, प्रथम प्रवक्ता, पब्लिक एजेंडा जैसी कुछ पत्रिकाएं अपने कलेवर और विषयवस्तु में कुछ भिन्न होते हुए भी कुछ हद तक साहित्य की परम्परा को बचाए हुए हैं, लेकिन मुख्यधारा की हवा एकदम विपरीत है।
यह हमारे वक्त की एक कड़वी सच्चाई है कि आज का मीडिया साहित्य को भी एक उपभोग सामग्री की तरह देखता है। ऐसा नहीं है कि उसने साहित्य को पूरी तरह से नज़रअंदाज कर दिया है। सचाई यह है कि वह साहित्य को भी उसी नज़रुये से देखता है, जैसे किसी और उपभोग-सामग्री को। महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि कोई सामग्री कितनी उम्दा या श्रेष्ठ है, महत्त्वपूर्ण यह है कि उसे कैसे भुनाया जा सकता है। मसलन, कविवर हरिवंश राय बच्चन के बारे में उनकी मृत्यु के बाद प्रसारित कार्यक्रमों को ही ले लीजिए। ज़रा सोचिए कि यदि वह अमिताभ बच्चन के पिता न होते तो क्या उनके बारे में उतने ही बढ़-चढ कर कार्यक्रम दिखाए जाते? उसी के आसपास अन्य कवि-साहित्यकार भी दिवंगत हुए होंगे, लेकिन उनके बारे में मीडिया ने नोटिस तक नहीं लिया।
हमारा यह आशय नहीं है कि बच्चन जी बड़े कवि नहीं थे। उन्हें जो प्रचार मिला, वह तो मिलना ही चाहिए, लेकिन और लोगों कि उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। मीडिया, खासकर टीवी यह देखता है कि जिस लेखक को दिखाया जा रहा है, उसकी मार्केट वैल्यू क्या है, तभी वह खबर का विषय बनता है। वह यह नहीं जांचता कि उस लेखक के साहित्य में कोई दम है या नहीं। टीवी के साथ ही अब पत्र-पत्रिकाओं में भी साहित्य की कवरेज के यही मानदंड बन गए हैं। बाजार जिसे उछाल दे, वही साहित्य, बाक़ी ईश्वर के भरोसे। यह स्थिति ठीक नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य से आज यही हो रहा है। पता नहीं भविष्य में कोई नया मानक उभरता है या नहीं, जिस से साहित्य को उचित न्याय मिल सके।

हिंदी पत्रकारिता के सामने चुनौतियों का पहाड़ / जितेन्द्र बच्चन

हिंदी पत्रकारिता के 187 साल पूरे होने के बाद भी उसके सामने चुनौतियों का जो पहाड़ पहले खड़ा था, वह आज भी जस का तस है। भारत में आधुनिक ढंग की पत्रकारिता की शुरुआत 18वीं शताब्दी के चौथे चरण में कोलकाता, बंबई (मुंबई) और मद्रास (चेन्नई) कहा जाता है, से शुरू हुई थी। हिंदी के पहले समाचार पत्र के रूप में ‘उदंत मार्तण्ड’ की शुरुआत 1826 में हुई थी। इस समय तक अंग्रेरजी पत्रकारिता देश के बड़े शहरों में अपना पैर जमा चुकी थी। हिंदी पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी का आइना है.‘उदंत मार्तण्ड’ साप्ताहिक समाचार पत्र था। इसमें मध्य देशीय भाषा का प्रयोग होता था। इसके संपादक पंडित जुगल किशोर ने बड़ी मेहनत से इसका प्रचार-प्रसार किया, लेकिन एक साल बाद ही 1827 में इसका प्रकाशन बंद हो गया। क्योंकि उन दिनों बिना सरकारी सहायता के किसी भी समाचार पत्र को चलाना अंसभव था।
अंग्रेजों के लिए काम करने वाली कंपनी सरकार ने मिशनरी अखबारों के लिए हर तरह की सुविधाएं दे रखी थीं। हिंदी अखबार को कोई सुविधा नहीं मिली थी। यहां तक कि डाक से भेजने की सुविधा भी नहीं थी। ‘उदंत मार्तण्ड’ इसी साजिश का शिकार होकर एक साल में ही बंद हो गया। यह बात और थी कि इसके बाद हिंदी के अलावा बांगला और उर्दू में भी अखबार निकालने की शुरुआत होने लगी थी।हिंदी पत्रकारिता की असल शुरुआत 1873 में हुई, जब भारतेंन्दु ने ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ की शुरुआत की। एक साल बाद इसका नाम ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ हो गया। इसके बाद एक के बाद एक कई अखबार शुरू हुए, जो दैनिक, साप्ताहिक और मासिक थे। जानेमाने अखबारों में नागरीप्रचारिणी सभा का ‘सरस्वती’ सबसे प्रमुख अखबार था। 1873 से 1900 के बीच 300 से 350 अखबारों का प्रकाशन होने लगा था। ये सभी 15 पृष्ठों के बीच होते थे और इन्हें एक तरह से विचारपत्र कहा जाता था।
उदंत मार्तंड के बाद प्रमुख पत्र हैं :
बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तंड पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846),मालवा अखबार (1849), जगद्दीप भास्कर (1849), सुधाकर (1850), साम्यदंड मार्तंड (1850),मजहरुलसरूर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजेट (1853), समाचार सुधावर्षण (1854), दैनिक कलकत्ता, प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश (1861), जगलाभचिंतक (1861),सर्वोपकारक (1861), प्रजाहित (1861), लोकमित्र (1835), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866), सोमप्रकाश (1866), सत्यदीपक (1866), वृत्तांतविलास (1867),ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृत्तांतदर्पण (1867),विद्यादर्श (1869), ब्रह्मज्ञानप्रकाश (1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870), हिंदू प्रकाश (1871), प्रयाग दूत (1871), बुंदेलखंड अखबारर (1871), प्रेमपत्र (1872), और बोधा समाचार (1872)।
साप्ताहिक पत्रों में समाचारों और उन पर की जाने वाली टिप्पणियों का अपना खास महत्व था। दैनिक समाचार पत्रों के प्रति कोई खास रुझान उस समय नहीं होता था। भारतेंदु की पत्रकारिता के 25 साल हिंदी पत्रकारिता के आदर्श माने जाते हैं। उनकी टीका-टिप्पणी से अंग्रेज सरकार के अफसर तक घबराते थे। एक टिप्पणी पर घबराकर काशी के मिजस्ट्रेट ने भारतेंदु के पत्र ‘कविवचनसुध’ को शिक्षा विभाग में लेना ही बंद करा दिया था। भारतेंदु ने सिखाया कि पत्रकार को किस तरह से निर्भीक होना चाहिए।
भारतेंदु के बाद जो पत्रकार आए, वे भी उनकी शुरुआत को आगे बढ़ाते गए। इसके साथ हिंदी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकिसत होती गई। पहले के पत्र शिक्षा और धर्म प्रचार तक ही सीमित थे। समय के साथ-साथ इसमें राजनीतिक, साहित्यक और सामाजिक विषयों को भी शामिल किया जाने लगा। एक समय ऐसा भी आया जब विभिन्न वर्गों और संप्रदाय के सुधर के लिए समाचार पत्रों की शुरुआत हो गई। इसमें धर्म का प्रचार और आलोचना दोनों को ही पूरा मौका मिलने लगा। 1921 के बाद हिंदी पत्रकारिता का समसामयिक युग शुरू हुआ। इस समय तक हिंदी का प्रवेश विश्वविद्यालयों में हो चुका था। आजादी के आंदोलन में हिंदी पत्रकारिता ने अपना अहम रोल दिखाना शुरू कर दिया था।
अब तक राजनीतिक क्षेत्र में पत्र-पत्रिकाओं की धमक बढ़ने लगी थी और ये जनमन के निर्माण में भी अपना अहम रोल निभाने लगे थे। राजनीतिक पत्रकारिता में हिंदी अखबार ‘आज’ और उसके संपादक बाबूराव विष्णु पराड़कर का सबसे प्रमुख स्थान था। इसके बाद हिंदी पत्रकारिता के विकास में तेजी आई। आजादी के बाद सरकार ने इसके विकास में अहम रोल अदा किया। धीरे-धीरे देश में तमाम तरह के अखबार और  पत्रिकाओं की धूम मच गई। इनके अपने विचार होते थे।  उस समय पाठकों के बलबूते पर ही इनका खर्च निकाला जाता था। सरकार ने सुविधाएं देनी शुरू कीं तो पत्रकारिता पर अपना अघोषित दबाव भी बना दिया। सरकार ने अखबारों को सुविधाएं देने के नाम पर सस्ते मूल्य पर कागज और विज्ञापन देना शुरू किया। यही वह खास मोड़ था जहां से अखबारों पर व्यवसायिकता हावी होने लगी।
1990 के दशक तक अखबारों में संस्करण कम निकलते थे. इसके बाद तो सभी अखबारों के नगर और कस्बे तक के संस्करण निकलने लगे। अब अखबार को उपभोक्ता वस्तु की तरह बेचा जाने लगा। राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण को देखें तो हिंदी अखबारों की प्रसार संख्या तेजी से बढ़ी है। इसके बावजूद सुविधओं का यहां पूरी तरह अभाव है। आज भी राज्य सरकारों ने अपनी नीति बना रखी है। चंद अखबारों और उनके पत्रकारों को सरकारी सुविधाओं का लाभ दिया जाता है। बदले में यह बंदिश होती है कि वह सरकार के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते समय सावधानी बरतें। जिन पत्रकारों को सत्ता का बरदहस्त हासिल है सही मायनों में उनको ही पत्रकार माना जाता है। बाकी के लिए न सरकार के पास कोई नीति है और न अखबार मालिकों के पास।
हिंदी समाचार पत्रों और उनमें काम करने वाले पत्रकारों के लिए कई तरह के वेतनमान आए और चले गए, लेकिन हिंदी पत्रकारिता की हालत में कोई सुधार नहीं आया। अखबार का मालिक अब इसे व्यवसाय के रूप में परिवर्तित कर चुका है। सरकारी सुविधाओं का लाभ केवल समाचार पत्रों के कुछ लोगों तक ही सीमति रह गया है। मासिक, पाक्षिक और साप्ताहिक की हालत खराब है। सरकार के पास इसकी कोई नीति नहीं है। कहने के लिए केंद्र से प्रदेश सरकारों तक के पास सूचना विभाग का भारीभरकम बजट और स्टाफ है पर यह सब एक तरह की चाटुकारिता को भी बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। इसके बाद भी हिंदी पत्रकारिता प्रगति की राह पर है। आज हिंदी ने मीडिया और इंटरनेट पर भी अपना कब्जा जमा लिया है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि हिंदी केवल भाषा नहीं इस देश के प्राण में बसती है।
नए युग में सरकार की उपेक्षा के बाद भी बहुत सारी पत्रिकाएं बाजार में हैं। यह प्राइवेट विज्ञापनों के भरोसे अपने को बाजार में बनाए हुए हैं। देश में अंग्रेजी का समर्थक एक बड़ा वर्ग है। जो हिंदी पत्रकारिता को नुकसान पहुंचाने के लिए अपने मीडिया प्लान में अंग्रेजी अखबारों को ही रखता है। जिसका व्यवसायिक नुकसान हिंदी पत्रकारिता को हो रहा है। आज जरूरत इस बात की है कि हिंदी पत्रकारिता  नई चुनौतियों से रूबरू हो। अपनी पहचान बनाए। आने वाला समय हिंदी का है, इसमें कोई दो राय नहीं है। जरूरत इस बात की है कि इस दौर में हिंदी पत्रकारिता अपने को आगे बढ़ाने लायक माहौल बनाने का काम करे।
लेकिन 187 साल बाद भी हमारी चुनौतियां जस की तस हैं। आज हमें अंग्रेजी के साथ-साथ सरकारी पालने में पल रही हिंदी पत्रकारिता से भी मुकाबला करना पड़ रहा है। काम सरल नहीं है पर अंसभव भी कुछ नहीं है। जरूरत इस बात की है कि हम भारतेंदु के पद चिन्हों पर चलते हुए हालात का मुकाबला करें। आधुनिक युग में फैली व्यवसायिकता की चुनौती को स्वीकार करते हुए हमें आगे बढ़ना है। हिंदी पत्रकारिता की ताकत हिंदी और उसके पाठक हैं। हमें केवल अपनी बात सही तरह से उनके सामने प्रस्तुत करने भर की जरूरत है। हिंदी के पत्रकारों को हिंदी की आकांक्षाओं को विस्तार देने का काम करना है। प्रगति की चेतना के साथ समाज की निचली कतार में बैठे लोग हिंदी समाचार पत्र और पत्रिकाओं की ओर देख रहे हैं। जिस तरह से हिंदी ने चिकित्सा, टेक्नोलॉजी पर अपनी छाप छोड़ी है, उसी तरह से हिंदी के पत्रकारों को भी अपने कदम आगे बढ़ाने हैं। जिससे उस जगह को हासिल किया जा सके जिसके हम हकदार हैं।

पत्रकारिता और करियर / कमल शर्मा

आईआईएमसी से पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद 1988 में जब मैंने अपने करियर की शुरुआत की थी तब बिजनेस जर्नलिज्म से जुड़ने का फैसला किया था। उस समय अनेक दिग्गज पत्रकारों ने मेरे इस विचार को सही न ठहराते हुए राजनीतिक पत्रकारिता में अपना करियर बनाने की सलाह दी थी। लेकिन, मेरा यह मानना था कि देश में आर्थिक प्रगति का चक्र जब तेज गति से दौड़ना शुरू करेगा, वह समय बिजनेस पत्रकारिता का होगा एवं उस समय तक अपने को तैयार कर चुके बिजनेस पत्रकारों की अहमियत बढ़ेगी। अपने निर्णय पर दृढ़ रहते हुए मैंने सभी सीनियर की सलाह को न मानते हुए अपना करियर बिजनेस पत्रकार के रूप में ही बनाने का फैसला किया।
यद्यपि, उन दिनों अखबारों में बिजनेस खबरें काफी कम हुआ करती थीं एवं शेयर बाजार और कृषि बाजारों के भाव ही अखबारों में प्रमुखता से प्रकाशित होते थे। लेकिन, जून 1991 में केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनी और इसकी कमान पीवी नरसिम्हाम राव ने संभाली। वित्त मंत्री मनमोहनसिंह बने। इस सरकार ने देश में आर्थिक सुधारों की शुरुआत की। इन सुधारों का कितना अनुकूल असर पड़ा और ये कितने प्रतिकूल रहे, मैं इसकी तह में इस समय नहीं जाना चाहता लेकिन इस सरकार के आने के साथ देश भर के अखबारों में बिजनेस खबरें पहले पेज पर आने लगी एवं राजनीतिक खबरों की अहमियत धीरे-धीरे कम होने लगी। टीवी चैनलों ने भी बिजनेस खबरों के बुलेटिन शुरू किए एवं आम जन भी आर्थिक आंकडों की बातें करने लगा। मीडिया घरानों में बिजनेस पत्रकारों की तेजी से मांग बढ़ी एवं वेतन भी अन्यत विद्या जानने वाले पत्रकारों से ज्यादा मिलने लगा।
इसी तरह दूसरा फैसला मैंने अपने करियर में वर्ष 1997 में लिया एवं भारत में आए नए मीडिया जिसे वेब मीडिया के नाम से पुकारा गया, में जुड़ने का मौका मिला। उस समय तीन वेबसाइट वेबदुनिया, रीडिफ और इंडियाइंफो ने खबरों को इंटरनेट के माध्यम से जनता तक पहुंचाने की शुरुआत की। मैं इंडियाइंफो डॉट कॉम से कंटेंट मैनेजर के रूप में जुड़ा। उस समय भी अनेक मित्रों ने कहा कि भारत में इंटरनेट कनेक्शन गिने चुने हैं और काफी कम लोगों के पास ही कंप्यूटर है। ऊपर से यह माध्यम बिल्कुल नया है, अखबार और टीवी चैनलों के रहते इसकी सफलता बेहद मुश्किल जान पड़ती है। क्यों इस तरह की रिस्क लेना चाहते हो। लेकिन, मेरा यह मानना था कि यही रास्ता ऐसा है जो समाचारों और विचारों को आने वाले समय में समूचे विश्व तक पहुंचा सकता है। यद्यपि, वर्ष 2000 की शुरुआत में डॉट कॉम बबल फटा एवं मीडिया के इस नए चेहरे का रंग बदरंग हुआ। लेकिन, अनेक साहसी इसकी अहमियत को पहचानते थे और कठिनाइयों से उबरते हुए फिर से इसने अपनी जगह बनाई एवं आज हम जीवन में इस मीडिया के बढ़े महत्व को नजरअंदाज नहीं कर सकते। इस मीडिया के महत्व को हमें जानने के लिए कुछ पहलुओं को देखना होगा।
लागत : वेब मीडिया जिसे हम न्यूज मीडिया भी कहते हैं, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का सबसे उम्दा विकल्प है। एक टीवी चैनल की शुरुआत के लिए लाइसेंस फीस, नेटवर्थ, परफोरमेंस बैंक गारंटी, अपलिंकिंग शुल्क, हर एक भाषा के लिए अलग से शुल्क, मशीनरी, स्टूडियो, स्टॉफ का खर्चा, वितरण एवं संचालन के अन्यक खर्च इतनी बड़ी राशि होती है जिसे वहन करना हर किसी के बूते की बात नहीं है। ऐसा ही खर्च एक रेडियो स्टेशन स्थापित करने पर भी आता है। अखबार की बात करें तो वहां छोटे या स्थानीय स्तरर पर किए गए प्रयास में पैसा कुछ कम लगता है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर या राज्य स्तर पर की गई शुरुआत काफी महंगी बैठती है। मीडिया के इन माध्यमों में बड़ी धनराशि खर्च करने के बाद भी यह तय नहीं है कि पहुंच जन-जन तक हो, अथवा सीमांत और दूरस्थ क्षेत्रों तक पहुंच बन पाए। जबकि, न्यूज मीडिया में ऐसा नहीं है। इस क्षेत्र में लागत कुछ हजार ही रहती है। अपनी इच्छा के नाम के साथ मामूली फीस अदाकर सिर्फ एक कंप्यूटर, कैमरा, स्कैनर, इंटरनेट कनेक्शन और सर्वर स्पेस के साथ इसकी शुरुआत कर सकते हैं। लंबे चौड़े आफिस स्पेस की कतई जरूरत नहीं है। लेकिन आपकी पहुंच समूची दुनिया तक होगी, इसकी गारंटी है जो अन्य मीडिया माध्यमों के साथ नहीं है।
बढ़ती अहमियत : मौजूदा स्थिति को देखें तो दुनिया के हरेक मीडिया हाउस ने यह मान लिया है कि बगैर वेब में गए उनका उद्धार नहीं हैं। हमारे देश में इसका जिस तेज गति से विस्तार हो रहा है उसे देखते हुए अगले दो से तीन साल बाद किसी भी अखबार, टीवी चैनल का मुख्य चेहरा यही होगा। मैं दो साल पहले एक राष्ट्रीय अखबार के संपादकीय हैड से मिला था। उनका कहना था कि हम अब केवल प्रिंट माध्यम का काम जानने वालों को नौकरी नहीं दे रहे। अब हम न्यूज लिखने की कला के अलावा कैमरे का उपयोग करने में निपुण और वेब माध्यम की आवश्यकताओं को समझने वाले मीडियाकर्मियों की ही भर्ती कर रहे हैं। हमारा लक्ष्य वर्ष 2015 में अखबार के बजाय वेब के जरिये लोगों तक पहुंचना है। बदले समय और बदली रुचि में हरेक अखबार, टीवी चैनल की यह जरूरत बन गई है कि सारी खबरों को टैक्स्ट के अलावा ऑडियो-वीडियो फार्म में वेब पर लाया जाए। बदले माहौल में खासकर युवाओं के पास कतई समय नहीं है कि वे अखबार को बैठकर पढ़ें या टीवी के सामने सभी कामधाम छोड़कर न्यूज जानने के लिए बैठ रहें और अपनी पसंद की खबरों के आने तक इंतजार करें। वर्ष 2020 तक देश की 64 फीसदी जनसंख्या कामकाजी वर्ग की होगी जिसका मकसद कम समय में तेजी से सूचनाएं जानना होगा। वेब में आप जब जी चाहे और जो पसंदीदा खबर हो उसे देख सकते हैं जबकि टीवी में एक खबर के बाद ही दूसरी खबर को आने में वक्त लगता है और इस बीच विज्ञापन आ जाए तो अगली खबर में काफी देरी हो जाती है।
मोबाइल से आई जोरदार क्रांति : भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में सबसे बड़ी क्रांति एटीएम (ऑटोमैटिक टेलर मशीन) मशीन के आने से हुई एवं बैंकिंग जगत को जो चेहरा बदला उसकी कल्पना इससे पहले शायद ही किसी ने की होगी जब हर आदमी अपने वित्तीय लेनदेन के लिए बैंक की शाखा खुलने का इंतजार करता रहता था। ठीक इसी तरह, न्यूज मीडिया में जोरदार क्रांति का जनक मोबाइल को माना जा सकता है। मोबाइल खासकर स्मार्ट फोन के आने के बाद लोगों की आदतों में तेजी से बदलाव आया और इंटरनेट कनेक्शन के माध्येम से वे चलते फिरते, आफिस में काम करते अथवा कहीं भी, कभी भी समाचार जान सकते हैं, अपने मनपसंदीदा कार्यक्रम को देख या सुन सकते हैं। इस सच से कोई इनकार नहीं कर सकता कि शहरों, कस्बों और गांवों तक मोबाइल ने अपनी पहुंच बना ली है। सस्ते स्मार्ट फोन आपको आबादी के बड़े हिस्से के हाथों में देखने को मिल जाएंगे। यद्यपि, हमारे देश में बिजली एक बड़ी समस्या है जिसकी वजह से हर समय टीवी देख पाने में दिक्कत आती है। आजादी के इतने साल बीत जाने के बावजूद खराब परिवहन व्यवस्था की वजह से कई कई गांवों तक अखबार नहीं पहुंच पाए हैं लेकिन मोबाइल, टेबलेट और नेटबुक ने अपनी पहुंच बनाकर लोगों को खबरों के संसार से जोड़ दिया है। इस तरह, वेब मीडिया प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक पर भारी पड़ता जा रहा है।
पहुंच और संवाद : एक अखबार, टीवी चैनल या रेडियो स्टेशन की पहुंच की एक सीमा होती है और वह क्षेत्र विशेष में ही अपनी पहुंच बना पाते हैं जबकि वेब मीडिया में ऐसा नहीं है। आप दुनिया के किसी भी कोने में रहे लेकिन मनचाही सूचनाओं को वहीं पा सकते हैं। मसलन आप मध्यप्रदेश के रहने वाले हैं, लेकिन आप केरल में हैं तो संभव है आपको आपके क्षेत्र की सूचनाएं वहां किसी अखबार या टीवी चैनल पर न मिले लेकिन वेब मीडिया ने इस समस्या को दूर कर दिया है। अपने देश से बाहर रहते हुए भी आप वेब मीडिया की बदौलत अपने को उन सभी खबरों से अपडेट रख सकते हैं जो आप चाहते हैं। अनेक लोगों को यह भ्रम है कि जिस तरह अखबार खरीदने या टीवी चैनल को देखने के लिए शुल्क अदा करना होता है वैसा वेब में नहीं है। लेकिन मैं आपको यह बता दूं कि वेब मीडिया में आपको हर सूचना मुफ्त में नहीं मिलती। अनेक वेब साइट्‍स अपने पाठकों से रिसर्च रिपोर्ट, अहम आंकड़े उपलब्ध कराने के बदले शुल्क वसूल करती हैं।
अखबार तक आम आदमी को बात पहुंचाने के लिए पत्र लिखने होते हैं या ईमेल करने होते हैं जिसके सही समय पर प्रकाशन की कोई गारंटी नहीं है। टीवी चैनल तो केवल अपनी बात ही कहते हैं वहां अपने दर्शकों से सीधे फीडबैक की कोई सुविधा नहीं है जबकि वेब मीडिया में आप किसी समाचार को पढ़ने या कार्यक्रम को देखने के बाद तत्काल अपनी टिप्पणी दे सकते हैं और वह उसी समय प्रकाशित हो जाती है। यह माध्यम सीधे अपने यूजर्स से संवाद स्थापित करता है जिसकी वजह से यूजर स्वयं रिपोर्टर की भूमिका निभा सकता है। यूजर अपने आसपास घटने वाली घटनाओं की जानकारी तत्काल वीडियो, ऑडियो या टैक्स्ट के माध्यरम से संपादक या उसके सहयोगियों को दे सकता है एवं समूची दुनिया इसे जान सकती है।
स्पेस ही स्पेस : वेब मीडिया में स्पेस की कोई समस्या नहीं है। जबकि, एक अखबार जो आठ से बीस-चौबीस पेज का निकलता है, हरेक तरह की न्यू‍ज और व्यूज के लिए निश्चित जगह रखता है। इस वजह से अनेक समाचार-विचार छपने से वंचित रह जाते हैं। टीवी चैनल में तो यह समस्या इससे भी ज्यादा बड़ी है। वहां हम देखें तो एक चैनल कई कई घंटे तक सिर्फ पांच से छह खबरों में खेलते रहते हैं। इन खबरों का भी पूरा कवरेज नहीं होता या किसी मसले का गहराई से विश्लेषण नहीं किया जाता। एक समाचार को कुछ सैकंड से लेकर दो मिनट में निपटा दिया जाता है। जबकि, वेब में स्पेस की कोई दिक्कसत नहीं होती। यहां दो लाइन से लेकर हजारों लाइन तक की खबरें जारी की जा सकती हैं। इन समाचारों को अधिक आकर्षक एवं प्रामाणिक बनाने के लिए फोटो एवं वीडियो का साथ ही उपयोग किया जा सकता है। आप एक टीवी चैनल की तुलना में कहीं तेज गति से यहां ब्रेकिंग न्यूज दे सकते हैं। टीवी चैनल एक रिपोर्ट को शूट कर जब तक इसका प्रसारण करता है आप वेब मीडिया में उससे कई गुना तेजी से पूरी खबर को समूची दुनिया के सामने पेश कर बाजी मार सकते हैं। कई बड़ी घटनाओं और दुर्घटनाओं की सूचना जितनी तेजी से इस माध्याम से दी जा सकती है, वह मीडिया के अन्य किसी रूप में संभव नहीं है।
खबरों के अलावा भी बहुत कुछ : पर्यटन, होटल बुकिंग, रेल-हवाई टिकट, बीमा, कर्ज, बैंकिंग सेवाएं, शॉपिंग, कारोबार, जॉब, शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन सुविधाएं पाने के अलावा और तो और शादी-विवाह तक की झंझट से मुक्ति दिलाने में वेब मीडिया ने अहम भूमिका निभाई है। असल में ग्लोबलाइजेशन का अहम औजार वेब है जिसकी वजह से हम न केवल अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा कर पा रहे हैं बल्कि हर किसी को जानने, समझने के लिए हजारों किलोमीटर की यात्रा और खर्च से बचकर मिनटों में यह कार्य निपटा पा रहे हैं।
दिक्कतें : वेब मीडिया के विकास में अभी भी कुछ बाधाएं हैं। सबसे बड़ी दिक्कत इंटरनेट की दूरस्थ इलाकों में पहुंच न बन पाना, इंटरनेट की स्पीड का धीमा होना और बिजली की कमी है। साथ ही, कंप्यूपटर, लैपटॉप या नेटबुक के दाम अभी भी आम आदमी की पहुंच में नहीं है। आम आदमी पहले अपनी जरूरत घर को समझता है एवं वहां के खर्चों से बचने के बाद वह कंप्यूटर, लैपटॉप या बेहतर स्मार्ट फोन लेने की प्लानिंग करता है। अब बात हो रही है 4जी की लेकिन असलियत यह है कि देश में 2जी और 3जी का अमल भी ढंग से नहीं हुआ है। यदि यह अमल ईमानदारी और तत्परता से होता तो विकास की गति बेहतर रहती। इसके अलावा, वेब में मिल रही सूचनाओं की प्रामाणिकता पर भी सवाल उठते हैं। ऐसी कई वेबसाइटस हैं जिनमें पुरानी सूचनाएं ही उपलब्ध हैं और इन्हें किसी न किसी कमी की वजह से अपडेट नहीं किया गया या यह भी सवाल उठ जाता है कि जो लिख रहा है वह उस योग्यता का है भी या नहीं। ऐसे में प्रामाणिकता को लेकर काफी मेहनत की जरूरत है। कई बार सही सामग्री खोजने में भी दिक्कत का सामना करना पड़ता है, जिसे आसान बनाना होगा और ऐसे ऐसे नए सर्च इंजन विकसित करने होंगे जो एक विषय विशेष पर भरपूर सामग्री से भरे हों।
आसान आय : हम यदि आय की बात करें तो वेब मीडिया में इसकी स्थिति दिन प्रतिदिन सुधर रही है। सरकारी और निजी कंपनियां गांव गांव तक अपनी पहुंच बनाने के लिए वेब विज्ञापन का सहारा ले रही हैं। प्रिंट और टीवी चैनल में विज्ञापन की ऊंची दरें और सीमित पहुंच ने विज्ञापनदाताओं का नजरिया बदलना शुरू किया है। प्रिंट एवं टीवी चैनल में विज्ञापन लाने के लिए भी एक पूरी टीम रखनी होती है, लेकिन वेब में एक व्यक्ति खुद ही विज्ञापन के लिए बगैर कहीं गए सिर्फ एक ईमेल के जरिए अप्रोच कर सकता है। गूगल, जेडो, मैनहटन, कोमली सहित अनेक ऐसी एजेंसियां हैं जो वेबसाइटों के लिए विज्ञापन जारी करती हैं एवं उनके भुगतान सीधे बैंक खातों में करती हैं। केंद्र सरकार और अनेक राज्य सरकारें भी अब वेबसाइटों को विज्ञापन दे रही हैं, जिनसे इनके संचालकों को अच्छी खासी आय हो रही है। इसी तरह, यूट्‍यूब चैनल के माध्यम से आप अपने वीडियो पर रेवेन्यू पा सकते हैं। इंटरनेट एडवरटाइजिंग ब्यूरो के मुताबिक वर्ष 2011 में इंटरनेट विज्ञापन बाजार का आकार 72.18 अरब डॉलर था जो वर्ष 2013 में 31.5 फीसदी बढ़कर 94.97 अरब डॉलर पहुंच जाने की उम्मीद है। अखबार में समाचार और विज्ञापन का एक अनुपात है जिससे ज्यादा विज्ञापन लेने पर पाठकों की संख्या कम होने का डर रहता है जबकि टीवी चैनल में नियामक संस्था ट्राई ने यह आदेश जारी किया है कि कोई भी टीवी चैनल आने वाले अक्टूबर महीने से एक घंटे में 12 मिनट से ज्यादा के विज्ञापन नहीं दिखा सकेगा। जबकि वेब मीडिया में इस तरह की कोई सीमा नहीं है। यहां आपकी मेहनत और नए आइडिया आपको मनचाही आय दिला सकते हैं।
आपको मैं एक लघु कथा यहां बताना चाहता हूं। एक आभूषण निर्माता का बेटा रोज नए नए आभूषण बनाकर अपने पिता को दिखाता था लेकिन उसके पिता का हर बार यही जवाब होता था कि इसे और बेहतर बनाया जा सकता था जैसा कि उसके दोस्त का बेटा बनाता है। एक दिन उस लड़के ने पिता को एक आभूषण दिखाया और कहा कि यह उनके दोस्त के बेटे का बनाया हुआ है। पिता ने कहा इसे कहते हैं आभूषण। तब बेटे ने कहा कि पिताजी यह तो मैंने ही बनाया था। पिता ने मायूस होकर कहा- मेरे हर बार टोकने का अर्थ यह था कि मैं चाहता था तुम दुनिया के सबसे बेहतरीन कलाकार बनो, तुम्हारी कला में और निखार आए लेकिन तुम अब वह मेहनत नहीं कर पाओगे जो करनी चाहिए थी।
आप चाहे कंटेट राइटर, रिपोर्टर, एडिटर, ग्राफिक्स निर्माता, मल्टी मीडिया पर्सन, विज्ञापन लेखक सहित किसी भी रूप में अपना करियर चुनें लेकिन जिस भी क्षेत्र में जाना चाहते हैं, रोज जमकर अभ्यास करें। अपनी भूलों को सुधारें, नए आइडिया खोजें, उन पर काम करें, कम बोलें, अधिक सुनें, आम जन का आदर करें। आपको शानदार करियर बनाने से कोई नहीं रोक पाएगा।

हिंदी के लिए गूगल का नया मंच

इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं के कंटेंट को बढ़ावा देने के लिए गूगल ने एक ऐसा मंच तैयार किया है, जो हिंदी वेबसाइट्स का अड्डा होगा। इसके लिए गूगल ने ‘भारतीय भाषा इंटरनेट गठबंधन’ का ऐलान किया है, जो वेब पर हिंदी कंटेंट मुहैया कराएगा। गूगल के कंटेंट पार्टनर में हिंदी के कई अखबार और समाचार चैनलों के अलावा सरकारी एजेंसियां शामिल हैं।

अंग्रेजी में वॉयस सर्च उपलब्ध करा रहा गूगल ने हिंदी भाषा में भी इस सेवा को जोड़ा है। इसके अलावा तमिल, मराठी और बंगाली जैसी दूसरी भाषाएं भी गूगल की सूची में हैं। इस मौके पर गूगल ने हिंदी में वॉयस सर्च, हिंदी की-बोर्ड का प्रदर्शन किया और वेबसाइट 'डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू.हिंदीवेब.कॉम' को लॉन्च किया। इस वेब मंच पर हिंदी की तमाम वेबसाइट्स एक साथ मिलेंगी और कंटेंट उपलब्ध कराएंगी। गूगल का यह कदम उन 30 करोड़ भारतीयों को वर्ष 2017 तक इंटरनेट से जोड़ने की कोशिश है,जो सिर्फ हिंदी का इस्तेमाल करते हैं।
सोमवार को नई दिल्‍ली में आयोजित एक कार्यक्रम में गूगल ने इस बाबत घोषनाएं की, जिसमें केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने भी हिस्‍सा लिया। केंद्रीय मंत्री ने कहा, 'भारतीय तकनीक को पसंद करते हैं। आज हर किसी के पास फेसबुक अकाउंट है, लेकिन इस ओर और भी बहुत कुछ किया जा सकता है। अगर तकनीक यूजर फ्रैंडली हो तो लाखों-करोड़ों लोग इंटरनेट से जुड़ना चाहेंगे।'

मोदी का अंग्रेजी प्रेम

पीएम नरेंद्र मोदी तीन नवंबर को अंग्रेजी के दस बड़े अखबारों के संपादकों (टाइम्स ऑफ इंडिया के एडिटर-इन-चीफ जयदीप बोस, हिन्दुस्तान टाइम्स के एडिटर-इन-चीफ संजॉय नारायण, संडे गार्जियन के एडिटोरियल डायरेक्टर एन मोनू नलपत,  टेलिग्राफ के संपादक मानिनी चटर्जी, द हिंदू की एडिटर मालिनी पार्थसारथी,  इंडियन एक्सप्रेस के चीफ एडिटर राजकमल झा, इंडिया टुडे ग्रुप के एडिटोरियल एडवाइजर शेखर गुप्ता, डेक्कन क्रॉनिकल के टी.वी.रेड्डी,  द ट्रिब्यून के राज चेनगप्पा और द इंडियन एक्सप्रेस के एडिटोरियल डायरेक्टर प्रभु चावला) से मिले। मुलाकातियों ने इसे ऑफ द रेकॉर्ड कहा। इससे पहले पीएम हिंदी अखबारों के संपादकों, पत्रकारों से मिले थे। अंग्रेजी अखबारों के संपादकों से खास भेंट भाजपा के (हिंदी) भाषा प्रेम की कलई खोलती है। (फोटो में मुकेश अंबानी के साथ उन्मुक्त ठहाका लगाते हुए)

सेक्स रैकेट में फंसी अभिनेत्री श्वेता उन पत्रकारों को खोज रही जिन्होंने उसके नाम से गलत बातें फैलाईं

सेक्स रैकेट में संलिप्तता को लेकर गिरफ्तार किए जाने के बाद घर लौटीं अभिनेत्री श्वेता बसु प्रसाद ने पहली बार अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा है कि इस मामले में अगर उन्हें किसी से शिकायत है तो उन पत्रकारों से है जिन्होंने उनके नाम पर एक गलत बयान जारी किया। उन्होंने कहा कि गिरफ्तार होने के बाद मीडिया में जो बयान उनके नाम से छपे, उसके बारे में उन्हें कोई जानकारी तक नहीं थी। मेरे नाम से जो बयान जारी किया गया उसके बारे में मुझे कोई जानकारी तक नहीं थी क्योंकि पिछले दो महीने से मैं कस्टडी में थी और वहां मुझे कोई अखबार या वेबसाइट उपलब्ध नहीं थ। मुझे तो अपने माता-पिता तक से बातचीत करने की अनुमति नहीं थी। पत्रकारों द्वारा जारी बयान जिसमें मेरे द्वारा कहा गया है, ‘लोगों ने पैसा कमाने के लिए मुझे वेश्यावृत्ति करने को प्रोत्साहित किया’  बिल्कुल झूठ है और अपमानजनक है ये बयान मैंने कभी दिए ही नहीं।
एनडीटीवी से बात करते हुए अभिनेत्री श्वेता ने कहा कि पूछताछ के दौरान पुलिस ने हमे वेश्यावृत्ति में शामिल अन्य अभिनेत्रियों के नाम बताने को कहा लेकिन उन्होंने पुलिस से कहा  ‘जब मैं कई अभिनेत्रियों के नाम तक नहीं जानती थी तो फिर मैं कैसे किसी अभिनेत्री के बारे में बयान दे सकती थी, उन्होंने कहा कि उन लोगों को शर्म आनी चाहिए जिन्होंने कहा कि मुझ पर मेरे परिवार ने अपनी जिंदगी जीने के लिए इस तरह के काम करने के लिए दबाव बनाया था’।
डीएनए को इंटरव्यू देने के दौरान श्वेता ने कहा कि वे खुद और उनका परिवार उन पत्रकारों को खोज रहे हैं जिन्होंने ये बयान जारी कर उन्हे इस केस में फंसाया है। गौरतलब है कि श्वेता बसु प्रसाद वही अभिनेत्री हैं जिन्होंने महज 10 साल की उम्र में फिल्म ‘मकड़ी’ में अपनी भूमिक से नेशनल अवार्ड जैसा प्रतिष्ठित सम्मान हासिल किया था। इसके बाद उन्हें ‘इकबाल’ में भी काम करने के लिए प्रशंसा मिली थी।
(समाचार4मीडिया से साभार)

फ़िल्म 'हैप्पी न्यू ईयर' पर बेटे अभिषेक बच्चन से बोलीं जया बच्चन - 'बीते कुछ सालों में मैंने हैप्पी न्यू ईयर जैसी बेवक़ूफ़ाना फ़िल्म नहीं देखी. मैंने तो ये बात फ़िल्म के मुख्य कलाकारों को भी बताई. मैंने ये फ़िल्म इसलिए देखी क्योंकि अभिषेक भी इसमें थे. मैंने उससे कहा कि तुम सचमुच अच्छे कलाकार हो क्योंकि कैमरे के सामने इतनी मूर्खतापूर्ण हरकतें करना भी एक साहस की बात है..'


बेतिया (बिहार) में उदेश महतो ने कार्ड छपवाकर बैंडबाजे के साथ रामू बंदर से रामदुलारी बंदरिया की शादी रचाई..

 (सूचना और चित्र बीबीसी हिंदी से साभार)