Friday 19 July 2013

संसार एक पुस्तक है


पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इंदिरा गांधी को इस तरह दुनिया की दीक्षा दी थी...........

(पुस्तक : पिता के पत्र पुत्री के नाम : जवाहरलाल नेहरू)


जब तुम मेरे साथ रहती हो तो अकसर मुझसे बहुत-सी बातें पूछा करती हो और मैं उनका जवाब देने की कोशिश करता हूँ। लेकिन, अब, जब तुम मसूरी में हो और मैं इलाहाबाद में, हम दोनों उस तरह बातचीत नहीं कर सकते। इसलिए मैंने इरादा किया है कि कभी-कभी तुम्हें इस दुनिया की और उन छोटे-बड़े देशों की जो इन दुनिया में हैं, छोटी-छोटी कथाएँ लिखा करूँ। तुमने हिंदुस्तान और इंग्लैंड का कुछ हाल इतिहास में पढ़ा है। लेकिन इंग्लैंड केवल एक छोटा-सा टापू है और हिंदुस्तान, जो एक बहुत बड़ा देश है, फिर भी दुनिया का एक छोटा-सा हिस्सा है। अगर तुम्हें इस दुनिया का कुछ हाल जानने का शौक है, तो तुम्हें सब देशों का, और उन सब जातियों का जो इसमें बसी हुई हैं, ध्यान रखना पड़ेगा, केवल उस एक छोटे-से देश का नहीं जिसमें तुम पैदा हुई हो।

मुझे मालूम है कि इन छोटे-छोटे खतों में बहुत थोड़ी-सी बातें ही बतला सकता हूँ। लेकिन मुझे आशा है कि इन थोड़ी-सी बातों को भी तुम शौक से पढ़ोगी और समझोगी कि दुनिया एक है और दूसरे लोग जो इसमें आबाद हैं हमारे भाई-बहन हैं। जब तुम बड़ी हो जाओगी तो तुम दुनिया और उसके आदमियों का हाल मोटी-मोटी किताबों में पढ़ोगी। उसमें तुम्हें जितना आनंद मिलेगा उतना किसी कहानी या उपन्यास में भी न मिला होगा।

यह तो तुम जानती ही हो कि यह धरती लाखों करोड़ों, वर्ष पुरानी है, और बहुत दिनों तक इसमें कोई आदमी न था। आदमियों के पहले सिर्फ जानवर थे, और जानवरों से पहले एक ऐसा समय था जब इस धरती पर कोई जानदार चीज न थी। आज जब यह दुनिया हर तरह के जानवरों और आदमियों से भरी हुई है, उस जमाने का खयाल करना भी मुश्किल है जब यहाँ कुछ न था। लेकिन विज्ञान जाननेवालों और विद्वानों ने, जिन्होंने इस विषय को खूब सोचा और पढ़ा है, लिखा है कि एक समय ऐसा था जब यह धरती बेहद गर्म थी और इस पर कोई जानदार चीज नहीं रह सकती थी। और अगर हम उनकी किताबें पढ़ें, पहाड़ों और जानवरों की पुरानी हड्डियों को गौर से देखें तो हमें खुद मालूम होगा कि ऐसा समय जरूर रहा होगा।

तुम इतिहास किताबों में ही पढ़ सकती हो। लेकिन पुराने जमाने में तो आदमी पैदा ही न हुआ था; किताबें कौन लिखता? तब हमें उस जमाने की बातें कैसे मालूम हों? यह तो नहीं हो सकता कि हम बैठे-बैठे हर एक बात सोच निकालें। यह बड़े मजे की बात होती, क्योंकि हम जो चीज चाहते सोच लेते, और सुंदर परियों की कहानियाँ गढ़ लेते। लेकिन जो कहानी किसी बात को देखे बिना ही गढ़ ली जाए वह ठीक कैसे हो सकती है? लेकिन खुशी की बात है कि उस पुराने जमाने की लिखी हुई किताबें न होने पर भी कुछ ऐसी चीजें हैं जिनसे हमें उतनी ही बातें मालूम होती हैं जितनी किसी किताब से होतीं। ये पहाड़, समुद्र, सितारे, नदियाँ, जंगल, जानवरों की पुरानी हड्डियाँ और इसी तरह की और भी कितनी ही चीजें हैं जिनसे हमें दुनिया का पुराना हाल मालूम हो सकता है। मगर हाल जानने का असली तरीका यह नहीं है कि हम केवल दूसरों की लिखी हुई किताबें पढ़ लें, बल्कि खुद संसार-रूपी पुस्तक को पढ़ें। मुझे आशा है कि पत्थरों और पहाड़ों को पढ़ कर तुम थोड़े ही दिनों में उनका हाल जानना सीख जाओगी। सोचो, कितनी मजे की बात है। एक छोटा-सा रोड़ा जिसे तुम सड़क पर या पहाड़ के नीचे पड़ा हुआ देखती हो, शायद संसार की पुस्तक का छोटा-सा पृष्ठ हो, शायद उससे तुम्हें कोई नई बात मालूम हो जाय। शर्त यही है कि तुम्हें उसे पढ़ना आता हो। कोई जबान, उर्दू, हिंदी या अंग्रेजी, सीखने के लिए तुम्हें उसके अक्षर सीखने होते हैं। इसी तरह पहले तुम्हें प्रकृति के अक्षर पढ़ने पड़ेंगे, तभी तुम उसकी कहानी उसकी पत्थरों और चट्टानों की किताब से पढ़ सकोगी। शायद अब भी तुम उसे थोड़ा-थोड़ा पढ़ना जानती हो। जब तुम कोई छोटा-सा गोल चमकीला रोड़ा देखती हो, तो क्या वह तुम्हें कुछ नहीं बतलाता? यह कैसे गोल, चिकना और चमकीला हो गया और उसके खुरदरे किनारे या कोने क्या हुए? अगर तुम किसी बड़ी चट्टान को तोड़ कर टुकड़े-टुकड़े कर डालो तो हर एक टुकड़ा खुरदरा और नोकीला होगा। यह गोल चिकने रोड़े की तरह बिल्कुल नहीं होता। फिर यह रोड़ा कैसे इतना चमकीला, चिकना और गोल हो गया? अगर तुम्हारी ऑंखें देखें और कान सुनें तो तुम उसी के मुँह से उसकी कहानी सुन सकती हो। वह तुमसे कहेगा कि एक समय, जिसे शायद बहुत दिन गुजरे हों, वह भी एक चट्टान का टुकड़ा था। ठीक उसी टुकड़े की तरह, उसमें किनारे और कोने थे, जिसे तुम बड़ी चट्टान से तोड़ती हो। शायद वह किसी पहाड़ के दामन में पड़ा रहा। तब पानी आया और उसे बहा कर छोटी घाटी तक ले गया। वहाँ से एक पहाड़ी नाले ने ढकेल कर उसे एक छोटे-से दरिया में पहुँचा दिया। इस छोटे से दरिया से वह बड़े दरिया में पहुँचा। इस बीच वह दरिया के पेंदे में लुढ़कता रहा, उसके किनारे घिस गए और वह चिकना और चमकदार हो गया। इस तरह वह कंकड़ बना जो तुम्हारे सामने है। किसी वजह से दरिया उसे छोड़ गया और तुम उसे पा गईं। अगर दरिया उसे और आगे ले जाता तो वह छोटा होते-होते अंत में बालू का एक जर्रा हो जाता और समुद्र के किनारे अपने भाइयों से जा मिलता, जहाँ एक सुंदर बालू का किनारा बन जाता, जिस पर छोटे-छोटे बच्चे खेलते और बालू के घरौंदे बनाते।

अगर एक छोटा-सा रोड़ा तुम्हें इतनी बातें बता सकता है, तो पहाड़ों और दूसरी चीजों से, जो हमारे चारों तरफ हैं, हमें और कितनी बातें मालूम हो सकती हैं।

पौड़ी की लोकप्रिय पुस्तकें


आजादी पूर्व के दौर में पौड़ी में रहते हुए जहाँ लेखकों ने इतिहास, संस्कृति पर लिखा वहीं आजादी के बाद लेखकों ने लेखन की दूसरी विधाओं यथा कविता, कहानी, गजल, दोहा, गीत संग्रह, काव्य संग्रह को आजमाया तो संस्कृति, इतिहास, भूगोल, पर्यावरण आदि पर विषयगत पुस्तकों का भी प्रकाशन हुआ। हालांकि कुछेक को छोड़ अधिकतर पुस्तकें हिन्दी व गढ़वाली में लिखी गईं। इनमें सबसे प्रबुद्ध व प्रमुख थे भजनसिंह ‘सिंह’। सैनिक पृष्ठभूमि से होने के साथ-साथ वे चिंतक, अध्येता व सृजनकार भी थे। माना जाता है कि फौज़ी लोग साहित्य, कला, संस्कृति से दूर ही रहते हैं लेकिन वे इसके अपवाद ही रहे। उनकी इतिहास व गढ़वाली भाषा पर रचित पुस्तकें आज सन्दर्भ पुस्तकों का काम करती हैं जिनकी महत्ता आज भी बनी हुई है। सिंह जी की रचनाशीलता उनकी मृत्यु तक बनी रही। यदि वे कुछ और जिये होते तो उनकी कई अन्य अप्रकाशित पुस्तकें भी प्रकाशित हो गई होतीं।
हालांकि सेवाकाल में वे लिखने -पढ़ने लगे थे किन्तु सेना की सेवा की मजबूरी के कारण वे खुल कर सामने न आ सके। इसलिये उनका लेखन सन् 1945 में गढ़वाल राइफल्स से सेवानिवृत्ति के बाद ही सामने आया। पौड़ी के समीप अपने गाँव कोटसाड़ा में आकर वे लेखन में लीन हो गये। सेवाकाल के बाद कई पुस्तकें सामने आती चली गईं। हालांकि इनमें से कुछ लेखन उन्होंने सेवाकाल में ही रचा। इनमें सबसे पहली पुस्तक हिन्दी मुक्तक ‘मेरी वीणा’ थी जो 1950 में प्रकाषित हुई। इसी साल उनकी सबसे चर्चित पुस्तक ‘सिंहनाद’ रही जिसके बाद में कई परिवर्धित संस्करण निकले। पुस्तक ‘सिंह सतसई’ गढ़वाली दोहों का संग्रह थी जिसका 1984 में प्रकाशन हुआ। उनकी कई पुस्तकें अप्रकाशित ही रहीं। इनमें ‘गढ़वाल के इतिहास के अस्पष्ट पृष्ठ’, ‘गढ़वाल के कानूनी ग्रन्थ’, ‘कालिदास के ग्रन्थों में गढ़वाल’ व ‘निबन्ध संग्रह सिंहनाद’ हैं। हिन्दी में उनकी इतिहास पर लिखी सबसे चर्चित पुस्तक ‘आर्यों का आदि निवास मध्य हिमालय’ थी और आज भी संस्कृति व इतिहास का शोधार्थी व लेखक इसके अध्ययन के बाद ही आगे बढ़ता है। इस शोध पुस्तक में सिंह जी ने उत्तराखण्ड हिमालय के समाज, भूगोल, संस्कृति, इतिहास पर पहली बार प्रकाश डालने का प्रयास किया। इसके लिये उन्होंने वेदों, पुराणों, रामायण, महाभारत आदि धार्मिक पुस्तकों से लेकर केदारखण्ड, तत्कालीन पुस्तकों, शिलालेखों, ताम्रपत्रों, यात्रा विवरणों को आधार बनाकर पहली बार इस क्षेत्र पर प्रमाणिक सामग्री देने का प्रयास किया। यह उस दौर की ऐसी पहली पुस्तक थी जिसमें उत्तराखण्ड के आद्य इतिहास पर रोशनी डाली गई थी।
भजनसिंह सिंह लम्बे समय तक जिला पंचायत सदस्य के रूप में सामाजिक जीवन से जुड़े रहे तो पौड़ी में सृजन करने वालों के प्रेरणा श्रोत थे।
सिंह जी के साहित्यिक मित्रों में वाचस्पति गैरोला भी एक थे। एक संयोग ही था कि वे भी कोट विकास खण्ड के मूल निवासी हैं। 1974 में इलाहाबाद से सेवानिवृत्ति के बाद पौड़ी में स्थापित होने का निश्चय किया। यहाँ वे लम्बे समय तक बेहद सक्रिय रहे। यहा पर पहले-पहल उन्होंने एक छापाखाना खोला जहाँ से वे एक साप्ताहिक पत्र ‘गढ़वाल मण्डल’ निकालने लगे। उनकी ज्यादातर कृतियाँ इलाहाबाद में सेवाकाल में ही निकली जो साहित्य, धर्म, दर्शन, कला, संस्कृति, आध्यात्म जैसे गूढ़ विषयों पर लिखी प्रमुख पुस्तकें हैं। पौड़ी में रहते हुए उनके द्वारा ‘गढ़वाल मण्डल’ पत्र का पर्यटन अंक व नेहरू स्मारिका का प्रकाशन किया गया जो अपने में उल्लेखनीय कार्य था। अनेकों सम्मानों से नवाजे गये गैरोला जी आज 84 साल की आयु के हो चुके हैं।
डॉ. यशवन्तसिंह कटोच नगर के तीसरे ऐसे व्यक्ति रहे जिनका रचनाकर्म उन विषयों में मील का पत्थर है। प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृति के बाद उन्होंने पौड़ी की धरती को अपनाया और यहीं से लेखन किया। उनका अधिकांश लेखन सेवानिवृति के बाद ही सामने आया जो उनके उस दौरान किये अध्ययन व स्थल भ्रमण का परिणाम है। आज भी 76 साल की आयु में उनका रचनाकर्म जारी है। पुरातत्त्व के क्षेत्र में उनकी लिखी पुस्तकें उनके लम्बे अध्ययन व सतत शोध का परिणाम हैं जो मध्य हिमालय के इतिहास में मील का पत्थर है। यों तो पुरातत्त्व व इतिहास विषय उनकी विशेषज्ञता रही है किन्तु इनसे भी हटकर उन्होंने कुछ पुस्तकें लिखीं। उनके लेखन का आरम्भ 1981 में उनके शोध ग्रन्थ के ‘मध्य हिमालय का पुरातत्त्व’ के प्रकाशन से आरम्भ हुआ। इसके बाद ‘मध्य हिमालय (1) में ‘संस्कृति के पद चिन्ह’ 1996 में, मध्य हिमालय (2) मध्य हिमालय की कला’ वर्ष 2000 तथा इसके तीसरे खण्ड के रूप में उत्तराखण्ड का नवीन इतिहास 2005 प्रकाशित हुई। उनकी दूसरी पुस्तकों में ‘उत्तराखण्ड की सैन्य परम्परा’ वर्ष 1994 में, ‘सिंह भारती’ वर्ष 2000 में सामने आई। हाल ही में उनके द्वारा हरिकृष्ण रतूड़ी की पुस्तक ‘गढ़वाल का इतिहास’ का संशोधित व संपादित संस्करण प्रकाशित किया है। इसके अलावा वे इन दिनों भारत का ऐतिहासिक शब्द कोश, एटकिंसन के गजेटियर का समीक्षात्मक अध्ययन तथा मध्य हिमालय सिरीज का भाग 4 निकालने जा रहे हैं जिसमें उत्तराखण्ड के इतिहास के पुराभिलेखों की श्रोत सामग्री का विवरण होगा। इतिहास व पुरात्व के अलावा वे गढ़वाली भाषा में भी लिखते आये रहे हैं। (nainitalsamachar.in से साभार)

पतझड़ की आवाज़


कुर्रतुल-एन-हैदर

 सुबह मैं गली के दरवाजे में खड़ी सब्जीवाले से गोभी की कीमत पर झगड़ रही थी। ऊपर रसोईघर में दाल-चावल उबालने के लिए चढा दिये थे। नौकर सौदा लेने के लिए बांजार जा चुका था। गुसलखाने में वकार साहब बेसिन के ऊपर लगे हुए धुंधले-से शीशे में अपना मुंह देखते हुए गुनगुना रहे थे और शेव करते जाते थे। मैं सब्जीवाले के साथ बहस करने के साथ-साथ सोचने में व्यस्त थी कि रात के खाने के लिए क्या-क्या बना लिया जाए। इतने में सामने एक कार आकर रुकी। एक लड़की ने खिड़की में से झांका और दरवाजा खोलकर बाहर उतर आयी। मैं पैसे गिन रही थी, इसलिए मैंने उसे न देखा। वह एक कदम आगे बढ़ी। अब मैंने सिर उठाकर उस पर नंजर डाली।

अरे!...तुम... उसने हक्की-बक्की होकर कहा और ठिठककर रह गयी। ऐसा लगा जैसे वह मुद्दतों से मुझे मरी हुई सोचे बैठी है और अब मेरा भूत उसके सामने खड़ा है।

उसकी आंखों में एक क्षण के लिए जो डर मैंने देखा, उसकी याद ने मुझे बावला-सा कर दिया है। मैं तो सोच-सोचकर पागल हो जाऊंगी।

यह लड़की, इसकी नाम तक मुझे याद नहीं, और इस समय मैंने झेंप के मारे उससे पूछा भी नहीं, वरना वह कितना बुरा मानती! मेरे साथ दिल्ली के क्वीन मेरी स्कूल में पढ़ती थी। यह बीस साल पहले की बात है। मैं उस समय यही कोई सत्रह वर्ष की रही हूंगी लेकिन मेरा स्वास्थ्य इतना अच्छा था कि अपनी उम्र से कहीं बड़ी लगती थी और मेरे सौन्दर्य की धूम मचनी शुरू हो चुकी थी। दिल्ली का रिवांज था कि लड़के वालियां स्कूल-स्कूल घूमकर लड़कियां पसन्द करती फिरती थीं और जो लड़की पसन्द आती थी उसके घर'रुक्का' भिजवा दिया जाता था। उन्हीं दिनों मुझे यह ज्ञात हुआ कि इस लड़की की मां-मौसी आदि ने मुझे पसन्द कर लिया है (स्कूल डे के उत्सव के दिन देखकर) और अब वे मुझे बहू बनाने पर तुली बैठी हैं। ये लोग नूरजहां रोड पर रहते थे और लड़का हाल ही में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया में दो-डेढ़ सौ रुपये मासिक पर नौकर हुआ था। चुनाचे 'रुक्का' मेरे घर भिजवाया गया। लेकिन मेरी अम्माजान मेरे लिए बड़े-बड़े सपने देख रही थीं। मेरे अब्बा दिल्ली से बाहरमेरठ में रहते थे और अभी मेरे विवाह का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था इसलिए वह प्रस्ताव एकदम अस्वीकार कर दिया गया।

इसके बाद यह लड़की कुछ दिन तक मेरे साथ कॉलेज में भी पढ़ी। फिर इसकी शादी हो गयी और यह कॉलेज छोड़कर चली गयी। आज बहुत दिनों बाद माल रोड के पिछवाड़े इस गली में मेरी उससे भेंट हुई। मैंने उससे कहा, ''ऊपर आओ, चाय-वाय पीयो, इत्मीनान से बैठकर बातें करेंगे।'' लेकिन उसने कहा, ''मैं जल्दी में किसी ससुराली रिश्तेदार का मकान ढूंढती हुई इस गली में आ निकली थी। इंशाअल्लाह ! मैं फिर कभी जरूर आऊंगी।'' इसके बाद उसने वहीं खड़े-खड़े जल्दी-जल्दी एक-एक करके सारी पुरानी सहेलियों के किस्से सुनाएकौन कहां है और क्या कर रही है। सलमा अमुक ब्रिगेडियर की पत्नी है, चार बच्चे हैं, परखुदा का पति 'फौरिन सरविस' (विदेश मन्त्रालय) में है, उसकी बड़ी लड़की लन्दन में पढ़ रही है। रेहाना अमुक कॉलेज में प्रिंसिपल हैं। सईदा अमरीका से ढेरों डिग्रियां ले आयी है और कराची में किसी ऊंचे पद पर विराजमान है। कॉलेज की हिन्दू सहेलियों के बारे में भी उसे पता था कि प्रभा का पति इंडियन नेवी में कमांडर है। वह बम्बई में रहती है। सरला ऑल इंडिया रेडियो में स्टेशन डायरेक्टर है और दक्षिण भारत में कहीं है। लोतिका बड़ी प्रसिध्द चित्रकार बन चुकी है और नई दिल्ली में उसका स्टुडियो है, आदि-आदि। वह यह बातें कर रही थी लेकिन उसकी आंखों के डर को मैं न भूल सकी।

उसने कहा, ''मैं, सईदा, रेहाना आदि जब भी कराची में इकट्ठा होती हैं तुम्हें बराबर याद करती है।''

''सचमुच...?'' मैंने खोखली हंसी हंसकर पूछा। मुझे पता था मुझे किन शब्दों में याद किया जाता होगा। पिच्छल परछाइयां ! अरे क्या वे लोग मेरी सहेलियां थीं! स्त्रियां वास्तव में एक-दूसरे के सम्बन्ध में चुडैलें होती हैंकुटनियां कुलटाएं! उसने मुझसे यह नहीं पूछा था कि यहां अंधेरी गली में इस खंडहर जैसे मकान में क्या कर रही हूं। उसे पता था।

स्त्रियों की 'इंटेलीजेंस सर्विस' इतनी तेज होती है कि खुफिया विभाग का विशेषज्ञ भी उसके आगे पानी भरे, और फिर मेरी कहानी तो इतनी दु:ख भरी है। मेरी दशा कोई उल्लेखनीय नहीं। गुमनाम हस्ती हूं इसलिए किसी को मेरी चिन्ता नहीं, स्वयं मुझे भी अपनी चिन्ता नहीं।

मैं तनवीर फातिमा हूं। मेरे मां-बाप मेरठ के रहने वाले थे। वे साधारण स्थिति के व्यक्ति थे। हमारे यहां बड़ा कड़ा पर्दा किया जाता है। स्वयं मेरा अपने चचाजान, फुफेरे भाइयों से पर्दा था। मैं असीम लाड़-प्यार में पली चहेती लड़की थी। जब मैंने स्कूल में बहुत-से वजीफे ले लिये तो मैट्रिक करने के लिए विशेष रूप से मुझे क्वीन मेरी स्कूल में दाखिल कराया गया। इंटर के लिए अलीगढ़ भेज दी गयी। अलीगढ़ गर्ल्स कॉलेज के दिन मेरे जीवन के सबसे अच्छे दिन थे . क्या स्वप्न भरे मदमाते दिन थे। मैं भावुक नहीं, लेकिन अब भी जब कॉलेज का सहन, लॉन, घास के ऊंचे पौधे पेड़ों पर झुकी बारिश, नुमाइश के मैदान में घूमते हुए काले बुर्कों के परे होस्टल के संकरे-संकरे बरामदों, छोटे-छोटे कमरों का वह कठोर वातावरण याद आता है तो जी डूब-सा जाता है। एम.एस-सी. के लिए फिर दिल्ली आ गयी। यहां कॉलेज में मेरे साथ ये ही सब लड़कियां पढ़ती थीं सईदा, रेहाना, प्रभा, फलानी-ढिमाकी। मुझे लड़कियां पसन्द नहीं आयीं मुझे दुनिया में अधिकतर लोग पसन्द नहीं आये। अधिकतर लोग व्यर्थ ही समय नष्ट करने वाले हैं। मैं बहुत दम्भी थी। सौन्दर्य ऐसी चीज है कि आदमी का दिमांग ंखराब होते देर नहीं लगती। फिर मैं तो लाखों में एक थीशीशे का एक झलकता हुआ रंग, लालिमा लिये हुए सुनहरी बाल, एकदम हृष्ट-पुष्ट, बनारसी साड़ी पहन लूं तो बिलकुल कहीं की महारानी लगती थी।

ये विश्वयुध्द के दिन थे या शायद युध्द इसी साल खत्म हुआ था, मुझे ठीक से याद नहीं है। बहरहाल, दिल्ली पर बहार आयी हुई थी। करोड़पति कारोबारियों और भारत-सरकार के बड़े-बड़े अफसरों की लड़कियां हिन्दू-सिख-मुसलमान...लम्बी-लम्बी मोटरों में उड़ी-उड़ी फिरतीं। नित नई पार्टियां, उत्सव, हंगामेआज इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में ड्रामा है, कल मिरांडा हाउस में,परसों लेडी इरविन कॉलेज में संगीत-सभा है। लेडी हार्डिंग और सेंट स्टीफेन्स कॉलेज, चेम्सफोर्ड क्लब, रोशनआरा, अमीरिल जीमखानामतलब यह कि हर ओर अलिफ-लैला के बाल बिखरे पड़े थे हर स्थान पर नौजवान फौजी अफसरों और सिविल सर्विस के अविवाहित पदाधिकारियों के ठट डोलते दिखाई देते। एक हंगामा था।

प्रभा और सरला के साथ एक दिन दिलजीतकौर के यहां, जो एक करोड़पति सिख कांट्रैक्टर की लड़की थी, किंग एडवर्ड रोड की एक शानदार कोठी में गार्डन पार्टी में निमन्त्रित थी।

यहां मेरी भेंट मेजर खुशवक्तसिंह से हुई। वह झांसी की तरफ का चौहान राजपूत था। लम्बा-तगड़ा, काला भुजंग, लम्बी-लम्बी ऊपर को मुड़ी हुई नुकीली मूंछें, बेहद चमकते और खूबसूरत दाँत, हंसता तो बहुत अच्छा लगता। गालिब का उपासक था। बात-बात में शेर पढ़ता, कहकहे लगाता और झुक-झुककर बहुत ही सभ्यतापूर्वक सबसे बातें करता। उसने हम सबको दूसरे दिन सिनेमा चलने का निमन्त्रण दिया। सरला, प्रभा एक ही बददिमांग लड़कियां थीं और अच्छी-खासी रूढिवादी थीं। वे लड़कों के साथ बाहर घूमने बिलकुल नहीं जाती थीं। खुशवक्तसिंह दिलजीत के भाई का मित्र था। मेरी समझ में नहीं आया कि मैं उसे क्या उत्तर दूं कि इतने में सरला ने चुपके से कहा, ''खुशवक्त के साथ हरगिज सिनेमा न जाना, बड़ा लोफर लड़का है।'' मैं चुप हो गयी।

इन दिनों नई दिल्ली के एक-दो आवारा लड़कियों के किस्से बहुत मशहूर हो रहे थे और मैं सोच-सोचकर ही डरा करती थी। शरींफ खानदानों की लड़कियां अपने मां-बाप की आंखों में धूल झोंककर किस तरह लोगों के साथ रंग-रेलियां मनाती हैं। होस्टल से प्राय: इस प्र्रकार की लड़कियों के सम्बन्ध में अटकलें लगाया करतीं। वे बहुत ही अजीब और रहस्यमयी हस्तियां मालूम होती, यद्यपि देखने में वे भी हमारी ही तरह की लड़कियां थीं साड़ियां सलवारें पहने, बाकी सुन्दर और पढ़ी-लिखी।

''लोग बदनाम करते हैं जी'', सईदा दिमाग पर बड़ा जोर डालकर कहती, ''अब ऐसा भी क्या है?''

''वास्तव में हमारी सोसाइटी ही अभी इस योग्य नहीं हुई कि पढ़ी-लिखी लड़कियों को अपने में समो सके।'' सरला कहती।

''होता यह है कि लड़कियां सन्तुलन-भावना को खो बैठती हैं।'' रेहाना अपना मत प्रकट करती।

जो भी हो, किसी भी तरह विश्वास न होता कि हमारी जैसी हमारे ही साथ की कुछ लड़कियां ऐसी-ऐसी भयानक करतूतें किस तरह करती हैं।

दूसरी शाम को मैं लेबोरेटरी की ओर जा रही थी कि निकल्सन मेमोरियल के पास एक किरमिची रंग की लम्बी-सी कार धीरे-से रुक गयी। उसमें से खुशवक्तसिंह ने झांका और अंधेरे में उसके खूबसूरत दाँत झिलमिलाए।

''अजी देवीजी, यों कहिए कि आप अपना कल वाला एप्वाइंटमेंट भूलगयीं।''

''जी...?'' मैंने हड़बड़ाकर कहा।

''हुंजूरेआला चलिए मेरे साथ फौरन! यह शाम का वक्त लेबोरेटरी में घुसकर बैठने का नहीं है। इतना पढ़कर क्या कीजिएगा?''

मैंने बिलकुल यों ही अपने चारों ओर देखा और कार में दुबककर बैठ गयी।

हमने कनॉट प्लेस जाकर एक अंग्रेजी फिल्म देखी।

उसके अगले दिन भी।

इसके बाद मैंने एक हफ्ते तक उसके साथ खूब सैर की। वह 'मेडेंस' में ठहरा हुआ था।

उस सप्ताह के अन्त तक मैं मेजर खुशवक्तसिंह की श्रीमती बन चुकी थी।

मैं साहित्यिक नहीं हूं। मैंने चीनी, जापानी, रूसी, अंग्रेजी या उर्दू कवियों का अध्ययन नहीं किया। साहित्य पढ़ना मेरे विचार से समय बर्बाद करना है। पन्द्रह वर्ष की आयु से विज्ञान ही मेरा ओढ़ना-बिछौना रहा है। मैं नहीं जानती कि आध्यात्मिक कल्पनाएं क्या होती हैं और रहस्यवाद का क्या अर्थ है। काव्य और दर्शन के लिए मेरे पास न तब समय था और न अब है। मैं बड़े-बड़े, उलझे हुए, अस्पष्ट और रहस्यपूर्ण शब्द भी प्रयोग नहीं कर सकती।

बहरहाल, पन्द्रह दिन के अन्दर-अन्दर यह घटना भी कॉलेज में सबको मालूम हो गयी थी, लेकिन मुझमें अपने अन्दर हमेशा से एक विचित्र-सा आत्मविश्वास था। मैंने चिन्ता नहीं की। पहले भी मैं लोगों से बोल-चाल बहुत कम रखती थी। सरला वगैरह का गुट अब मुझे ऐसी निगाहों से देखता जैसे मैं मंगल ग्रह से उतरकर आयी हूं मेरे सिर पर सींग हैं। डाइर्निंग हॉल में मेरे बाहर जाने के बाद घंटों मेरे किस्से दुहराए जाते। अपनी इंटेलीजेन्स सार्विस के जरिए मेरे और खुशवक्त के बारे में उनको पल-पल की खबर रहतीहम लोग शाम को कहां गये, रात को नई दिल्ली के कौन से बालरूम में नाचे (खुशवक्त मार्के का डान्सर था, उसने मुझे नाचना भी सिखा दिया था) खुशवक्त ने मुझे कौन-कौन से तोहंफे, कौन-कौन सी दुकान से खरीद कर दिये।

खुशवक्तसिंह मुझे मारता बहुत था और मुझसे इतना प्यार करता था जितना आज तक दुनिया में किसी भी पुरुष ने किसी भी स्त्री से न किया होगा।

कई महीने बीत गये। मेरी एम. एस-सी. प्रिवियस की परीक्षा सिर पर आ गयी और मैं पढ़ने में जुट गयी। परीक्षाएं होने के बाद उसने कहा, ''जानेमन, दिलरुबा! चलो किसी खामोश-से पहाड़ पर चलेंसोलन, डलहौजी, लेनसाउ।'' मैं कुछ दिन के लिए मेरठ गयी और अब्बा से यह कह कर (अम्माजान का, जब मैं थर्ड ईयर में थी, स्वर्गवास हो गया था) दिल्ली वापस आ गयी कि अन्तिम वर्ष के लिए बेहद पढ़ाई करनी है। उत्तर भारत के पहाड़ी स्थानों पर बहुत-से परिचितों के मिलने की सम्भावना थी, इसलिए हम सुदूर दक्षिण में आउटी चले गये। वहां महीना-भर रहे। खुशवक्त की छुट्टियां खत्म हो गयीं तो दिल्ली वापस आकर तिमारपुर के एक गांव में टिक गये।

कॉलेज खुलने से एक हफ्ता पहले मेरी और खुशवक्त की जबर्दस्त लड़ाई हुई। उसने मुझे खूब मारा। इतना मारा कि मेरा चेहरा लहूलुहान हो गया और मेरी बांहों और पिंडलियों पर नील पड़ गये। लड़ाई का कारण उसकी वह मुरदार ईसाई मंगेतर थी जो न जाने कहां से टपक पड़ी थी और सारे शहर में मेरे खिलांफ जहर उगलती फिर रही थी। अगर उसका बस चलता तो मुझे कच्चा चबा जाती। वह चार सौ बीस लड़की महायुध्द के दिनों में फौज में थी और खुशवक्त को तर्मा के मोर्चे पर मिली थी।

खुशवक्त न जाने किस तरह उसे उसके साथ शादी करने का वचन दे दिया था, पर मुझसे मिलने के बाद वह अब उसकी अंगूठी वापस करने पर तुला बैठा था।

उस रात तिमारपुर के सुनसान बंगले में उसने मेरे हाथ जोड़े और रो रोकर मुझसे कहा कि मैं उससे विवाह कर लूं। अन्यथा वह मर जाएगा। मैंने कहाहरगिंज नहीं, कयामत तक नहीं। मैं शरीफ घराने की सैयदंजादी हूं, भला मैं उस काले तम्बाकू के पिंडे हिन्दू जाति के आदमी से शादी करके खानदान के माथे पर कलंक का टीका लगाती! मैं तो उस सुन्दर और रूपवान किसी बहुत से ऊंचे मुसलमान घराने के कुल-दीप के स्वप्न देख रही थी जो एक दिन देर-सबेर बरात लेकर मुझे ब्याहने आएगा, हमारा आरसी मुसाहिफ होगा, मैं ठाट-बाट से मायके से विदा होकर उसके घर जाऊंगी, छोटी ननदें दरवाजे पर देहली रोककर अपने भाई से नेग के लिए झगड़ेंगी, मीरासिनें ढोलक लिये खड़ी होंगी। क्या-क्या कुछ होगा! मैंने क्या हिन्दू-मुस्लिम शादियों का परिणाम देखा नहीं था। कइयों ने प्रगतिवाद या प्यार की भावना के जोश में हिन्दुओं से शादियां रचायी और सालभर बाद जूतियों में दाल बटी ! बच्चों का भविष्य बिगड़ा वह अलगन इधर के रहे न उधर के। मेरे इनकार करने पर खुशवक्त ने जूते-लातों से मार-मारकर मेरा कचूमर निकाल दिया और तीसरे दिन उस डायन काली बला कैथरिन धर्म-दास के साथ आगरे चला गया जहां उस कमीनी लड़की से सिविल मैरिज कर ली।

जब मैं नई टर्म शुरू होने पर होस्टल पहुंची तो इस हुलिये से कि मेरे सिर और मुंह पर पट्टी बंधी हुई थी। अब्बा को मैंने लिख भेजा कि लेबोरेटरी में एक एक्सपेरीमेंट कर रही थी कि एक खतरनाक एसिड भक से उड़ा और उससे मेरा मुंह थोड़ा-सा जल गया। अब बिलकुल ठीक हूं , आप बिलकुल चिन्ता न करें।

लड़कियों को तो पहले ही सारा किस्सा मालूम था, इसलिए उन्होंने औपचारिक रूप से मेरी खैर-खबर न पूछी। इतने बड़े स्केंडल के बाद मुझे होस्टल में रहने की अनुमति न दी जाती, लेकिन होस्टल की वार्डन खुशवक्त सिंह की गहरी दोस्त थी इसलिए सब खामोश रहे। इसके अतिरिक्त किसी के पास किसी प्रकार का प्रमाण भी न था। कॉलेज की लड़कियों को लोग यों भी खामंखाह बदनाम करने पर तुले रहते है।

मुझे वह वक्त अच्छी तरह याद है, जैसे कल ही की बात हो, सुबह के ग्यारह बजे होंगे। रेलवे स्टेशन से लड़कियों के तांगे आकर फाटक में घुस रहे थे, होस्टल के लॉन पर बरगद के पेड़ के नीचे लड़कियां अपना-अपना सामान उतरवाकर रखवा रही थीं। बड़ी चिल्ल-पों मचा रखी थीं। जिस समय मैं अपने तांगे से उतरी व मेरा ढाठे से बन्धा सफेद चेहरा देखकर इतनी आश्चर्यचकित हुई जैसे सबको सांप सूंघ गया हो। मैंने अपना सामान चौकीदार के सिर पर रखवाया और अपने कमरे की ओर चली गयी। दोपहर को जब मैं खाने की मेज पर आकर बैठी तो उन कुलटाओं ने मुझसे इस ढंग से औपचारिक बातें शुरू की जिनसे भली-भांति यह प्रकट हो जाए कि मेरी इस दुर्घटना का वास्तविक कारण उन्हें पता है और मुझे अपमानित होने से बचाने के लिए उसकी चर्चा ही नहीं कर रहीं है। उनमें से एक ने जो उस चंडाल चौकड़ी का केन्द्र और उन सबकी उस्ताद थी, रात को खाने की मेज पर निर्णय दिया कि मैं एक कामी स्त्री हूं। मेरी जासूसों द्वारा यह सूचना तुरन्त ऊपर मेरे पास पहुंच गयी जहां मैं उस समय अपने कमरे में खिड़की के पास टेबुल लैम्प लगाये पढ़ाई में व्यस्त थी और इस तरह की बातें तो अब आम थीं कि बेपर्दगी आंजादी खतरनाक है और ऊंची शिक्षा बदनाम है आदि-आदि।

मैं अपनी सीमा तक शत-प्रतिशत इन बातों से सहमत थी। मैं स्वयं सोचती थी कि कुछ अच्छी-खासी, भली-चंगी, उच्च शिक्षा-प्राप्त लड़कियां आवारा क्यों हो जाती हैं। एक विचारधारा थी कि वही लड़कियां आवारा होती हैं जिनके पास सूझ-बूझ बहुत कम होती है। मानव-मस्तिष्क कभी भी अपनी बर्बादी की ओर जान-बूझकर कदम नहीं उठाएगा लेकिन मैंने तो अच्छी-खासी समझदार, तेजो-तर्रार लड़कियों को आवारागर्दी करते देखा था। दूसरी विचारधारा थी कि-रुपये-पैसे, ऐशो-आराम का जीवन, कीमती भेंटों का लालच, रोमांस की खोज,साहसिक कार्य करने की अभिलाषा या मात्र उकताहट या पर्दे के बन्धनों के बाद स्वतंत्रता के वातावरण में प्रवेश कर पुराने बन्धनों से विद्रोह इस आवारगी के कुछ कारण है। ये सब बातें अवश्य होंगी, अन्यथा और क्या कारण हो सकता है?

मैं अपनी पहली तिमाही परीक्षा से छूटी थी कि खुशवक्त भी आ पहुंचा। उसने मुझे लेबोरेटरी में फोन किया कि मैं नरूला में छ: बजे उससे मिलूं। मैंने ऐसा ही किया। वह कैथरिन को अपने मां-बाप के पास छोड़कर एक सरकारी काम से दिल्ली आया था। इस बार हम हवाई जहाज से एक सप्ताह के लिए बम्बई चले गये।

इसके बाद हर दूसरे-तीसरे महीने मिलना होता रहा। एक साल बीत गया। इस बार जब वह दिल्ली आया तो उसने अपने एक निकटतम मित्र को मुझे लेने के लिए मोटर लेकर भेजा क्योंकि वह लखनऊ से लाहौर जाते हुए पालम पर कुछ घंटों के लिए ठहरा था। यह मित्र दिल्ली के एक बहुत बड़े मुसलमान व्यापारी का लड़का था। लड़का तो खैर नहीं कहना चाहिए, उस समय वह चालीस के पेटे में रहा होगाबीवी-बच्चोंवाला। ताड़-सा कद। बेहद गलत अंग्रेजी बोलता था, काला, बदसूरत बिलकुल चिड़ीमार की शक्ल, होशो-हवाश ठीक-ठाक।

खुशवक्त इस बार दिल्ली से गया तो फिर कभी वापस न आया क्योंकि अब मैं फारूक की पत्नी बन चुकी थी।

फारूक के साथ अब मैं उसकी मंगेतर की हैसियत से बांकायदा दिल्ली की ऊंची सोसायटी में शामिल हो गयी। मुसलमानों में तो चार शादियां तक उचित हैं, इसलिए कोई बहुत बड़ी बात न थी, अर्थात धर्म की दृष्टि से कि वह अपनी अनपढ़, अधेड़ उम्र की पर्दे की पत्नी के होते हुए एक पढ़ी-लिखी लड़की से शादी करना चाहता था, जो चार आदमियों में ढंग से बैठ सके और फिर धनिक वर्ग में सब कुछ उचित है। यह तो हमारे मध्यवर्गीय समाज के ही नियम हैं कि यह न करो, वह न करो। लम्बी छुट्टियों के दिनों में फारूक ने भी मुझे खूब सैर करायीकलकत्ता, लखनऊ, अजमेरकौन-सी जगह थी जो मैंने उसके साथ न देखी। उसने मुझे हीरे-जवाहरात के गहनों से लाद दिया। अब्बा को लिख भेजती थी कि यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों के साथ 'टूर' पर जा रही हूं या अमुक स्थान पर साइंस कान्फ्रेन्स में भाग लेने के लिए मुझे बुलाया गया है, लेकिन साथ-ही-साथ मुझे अपनी शिक्षा का रिकार्ड ऊंचा रखने की धुन थी। फाइनल परीक्षा में मैंने बहुत ही खराब पर्चे किये और परीक्षाएं समाप्त होते ही घर चली गयी।

उन्हीं दिनों दिल्ली में गड़बड़ी शुरू हुई और लड़ाई-झगड़ों को भूचाल आ गया। फारूक ने मुझे मेरठ पत्र लिखा कि तुम अविलम्ब पाकिस्तान चली जाओ, मैं तुमसे वहीं मिलूंगा। मेरा पहले ही से यह इरादा था। अब्बा भी बेहद परेशान थे और यही चाहते कि इन हालात में मैं हिन्दुस्तान में न रुकूं, यहां मुसलमान लड़कियों की इंज्जतें निश्चित रूप से ंखतरे में हैं। पाकिस्तान अपना इस्लामी देश था, उसकी तो बात ही क्या थी। अब्बा जमीन-जायदाद वगैरह के कारण अभी देश छोड़कर नहीं जा सकते थे। मेरे दोनों भाई बहुत छोटे-छोटे थे और अम्माजान के स्वर्गवास के बाद अब्बा ने उनको मेरी फूफी के पास हैदराबाद दकन भेज दिया था। मेरा परिणाम निकल चुका था और मैं तीसरी श्रेणी में पास हुई थी। मेरा दिल टूट गया। जब बवलों को जोर कुछ कम हुआ तो मैं हवाई जहांज से लाहौर आ गयी। फारूक मेरे साथ आया। उसने यह कार्यक्रम बनाया था कि अपने कारोबार की एक ब्रांच पाकिस्तान में स्थापित करके लाहौर उसका हेड ऑफिस रखेगा। मुझे उसका मालिक बनाएगा और वहीं मुससे शादी कर लेगा। वह दिल्ली छोड़ नहीं रहा था क्योंकि उसके बाप बड़े उदारवादी विचारों के आदमी थे। योजना यह बनी कि वह हर दूसरे-तीसरे महीने दिल्ली से लाहौर आता रहेगा। लाहौर अफरा-तफरी थी। यद्यपि एक-से-एक अच्छी कोठी अलाट हो सकती थी लेकिन फारूक यहां किसी को जानता न था। बहरहाल, सन्तनगर में एक छोटा-सा मकान मेरे नाम अलाट कराके उसने मुझे वहां छोड़ दिया और मेरी देख-भाल, सहायता के लिए अपने एक दूर के रिश्तेदार कुटुम्ब को मेरे पास छोड़ दिया जो शरणार्थी होकर लाहौर आया था और मारे-मारे फिर रहा था।

मैं जीवन के इस अचानक परिवर्तन से इतनी हक्की-बक्की थी कि मेरी समझ में न आता था कि क्या हो गया ! कहां अविभाज्य भारत की वह भरपूर, दिलचस्प, रंगारंग दुनिया, कहां सन् 48 के लाहौर का वह छोटा और अंधेरा मकान! देश त्याग! अल्लाहो-अकबर मैंने कैसे-कैसे दिल हिला देने वाले दिन देखे हैं।

मेरा मस्तिष्क इतना खोखला हो चुका था कि मैंने नौकरी ढूंढ़ने की भी कोई कोशिश नहीं की। रुपये-पैसे की ओर से चिन्ता न थी, क्योंकि फारूक मेरे नाम दस हजार रुपये जमा करा गया थासिर्फ दस हजार, वह स्वयं करोड़ों का आदमी था, लेकिन उस समय मेरी समझ में कुछ न आता था, अब भी नहीं आता।

दिन बीतते गये। मैं सुबह से शाम तक पंलग पर पड़ी फारूक की मौसी या नानी, जो कुछ भी हो वे बड़ी थीं, उनके देश-त्याग की आपत्तियों की रामकहानी और उनकी साबकाए-इमारत के किस्से सुन करती और पान-पर-पान खाती या उनकी पढ़नेवाली बेटी को एलजबरा-ज्योमेट्री सिखाया करती। उनका बेटा बराए नाम फारूक के कारोबार की देखभाल कर रहा था।

फारूक साल में पांच-छ: चक्कर लगा लेता। अब लाहौर का जीवन धीरे-धीरे साधारण होता जा रहा था। उसके आने से मेरे दिन कुछ अच्छी तरह कटते। उसकी मौसी बड़े प्रयत्न से दिल्ली के खाने तैयार करती। मैं माल के हेयर डे्रसर के यहां जाकर अपने बाल सेट करवाती। शाम को हम दोनों जीमखाना क्लब चले जाते और वहां एक कोने की मेज पर बियर के गिलास सामने रखे फारूक मुझे दिल्ली की घटनाएं सुनाता। वह बेथके बोले जाता या कुछ देर के लिए चुप होकर कमरे में आनेवाली अजनबी सूरतों को देखता रहता। उसने शादी की कभी कोई चर्चा नहीं की। मैंने भी उससे नहीं कहा। मैं अब उकता चुकी थी। किसी चीज से कोई अन्तर नहीं पड़ता। जब वह दिल्ली चला जाता तो हर पन्द्रहवें दिन मैं अपनी कुशलता का पत्र और उसके ंकारोबार का हाल लिख भेजती और लिख देती कि इस बार आये तो कनाट प्लेस या चांदनी चौक की अमुक दुकान से अमुक-अमुक प्रकार की साड़ियां लेता आये क्योंकि पाकिस्तान में ऐसी साड़ियां नापैद हैं।

एक दिन मेरठ से चाचा मियां का पत्र आया कि अब्बाजान का स्वर्गवास हो गया।

''जब हमदे मरसल न रहे कौन रहेगा?''

मैं मनोभावों से परिचित नहीं हूं , लेकिन अब्बा मुझ पर जान छिड़कते थे। उनकी मृत्यु का मुझे बड़ा दु:ख हुआसदमा पहुंचा। फारूक ने मुझे बड़े प्यार से दिलासा-भरे पत्र लिखे तो तनिक ढाढ़स बन्धी। उसने लिखा, ''नमांज पढ़ा करो! बहुत बुरा वक्त है। दुनिया में काली आंधी चल रही है, सरज डेढ़ बलम पर आया चाहता है। एक पल का भरोसा नहीं।'' सारे व्यापारियों की तरह वह भी बड़ा धार्मिक और अन्धविश्वासी था। नियमपूर्वक अजमेर शरीफ जाता, निजूमियों, रम्मानों, पंडितों, सियानों, पीरो, फकीरों, शकुन-अपशकुनों, स्वप्नों का परिणामअर्थात प्रत्येक चीज में विश्वास करता था। एकाध महीने मैंने नमांज भी पढ़ी लेकिन जब मैं सिजदा करती तो जी चाहता कि जोर-जोर से हंसू।

देश में साइंस की प्राध्यापिकाओं की बडी मांग थी। जब मुझे एक स्थानीय कॉलेजवालों ने बहुत विवश किया तो मैंने पढ़ाना शुरू कर दिया, यद्यपि टीचरी करने से मुझे सख्त नफरत है। कुछ समय बाद मुझे पंजाब के एक पिछड़े जिले के गर्ल्स कॉलेज में बुला लिया गया। कई साल तक मैंने वहां काम लिया। मुझसे मेरी शिष्याएं प्राय: पूछतीं''हाए अल्लाहे तनवीर आप इतनी प्यारी-सी हैं, आप अपने करोड़पति मंगेतर से शादी क्यों नहीं कर लेती?''

इस प्रश्न का स्वयं मेरे पास भी कोई उत्तर नहीं था।

यह नया देश था, नए लोग, नया सामजिक जीवन यहां किसी को मेरे भूतकाल के बारे में पता न था। कोई भी भला आदमी मुझसे शादी करने को तैयार हो सकता था। (लेकिन भले आदमी, सुन्दर सीधे-सादे सभ्य लोग मुझे पसन्द ही नहीं आते थे, मैं क्या करती!) दिल्ली के किस्से दिल्ली ही में रह गये और फिर मैंने यह देखा है कि एक-से-एक हर्राफा लड़कियां अब ऐसी सदाचारिणी बनी हुई हैं कि देखा ही कीजिए। स्वयं एट्थ हरीराम और रानीखान के उदाहरण मेरे सामने थे।

अब फारूक भी कभी-कभी आता। हम लोग इस तरह मिलते जैसे बीसियों साल के पुराने विवाहित पति-पत्नी हैं जिनके पास सब-के-सब नए विषय खत्म हो चुके हैं और अब शान्ति, विश्राम और ठहराव का समय है। फारूक की बेटी की अभी हाल ही में दिल्ली में शादी हुई है। उसका पति ऑक्सफोर्ड जा चुका है। पत्नी को स्थायी रूप से दमा रहता है। फारूक ने अपने व्यवसाय की शाखाएं बाहर कई देशों में फैला दी हैं। नैनीताल में नया मकान बनवा रहा है। फारूक अपने खानदान के किस्से, व्यवसाय की बातें मुझे विस्तार से सुनाया करता और मैं उसके लिए पान बनाती रहती।

एक बार मैं छुट्टियों में कॉलेज से लाहौर गयी तो फारूक के पुराने दोस्त सैयद वकार हुसैनंखां से मेरी भेंट हुई। लम्बा कद, मोटे-ताजे, काले तवे जैसा रंग, उम्र में पैंतालीस के लगभगअच्छे-खासे देव-पुत्र मालूम होते। उनको पहली बार मैंने नई दिल्ली में देखा था। जहां उनका डांसिंग स्कूल था। ये रामपुर के एक शरीफ घराने के इकलौते बेटे थे, बचपन में घर से भाग गये। सरकसवालों और थियेटर कम्पनियों के साथ देश-विदेश घूमे सिंगापुर, हांगकांग, शंघाई, लन्दन जाने कहां-कहां। अनगिनत जातियों और नस्लों की स्त्रियों से शादियां रचायीं। उनकी वर्तमान पत्नी उड़ीसा के एक मारवाड़ी महाजन की लड़की थी जिसको ये कलकत्ता से उड़ा लाये थे। बारह-पन्द्रह साल पहले मैंने उसे दिल्ली में देखा था। सांवली-सांवली-सी मंझले कद की लड़की थी। उसकी शक्ल पर अजीब तरह का दर्द बरसता, मगर सुना था कि बड़ी पतिव्रता स्त्री थी। पति के दुर्व्यवहार से तंग आकर इधर-उधर भाग जाती लेकिन कुछ दिन बाद फिर वापस आ जाती। खां साहब ने कनॉट सरकस की एक बिल्डिंग की तीसरी मंजिल में अंग्रेजी नाच सिखाने का स्कूल खोल रखा था, जिसमें वे, उनकी पत्नी, दो एंगलोइंडियन लड़कियांस्टॉफ में शामिल थीं। महायुध्द के दिनों में स्कूल पर धन बरसा। हर इतवार की सुबह वहां गयी थी। सुना था कि वकार साहब की पत्नी महासती अनुसूइया का अवतार है कि उनके पति आज्ञा देते हैं कि अमुक-अमुक लड़की से बहनापा गांठों और उसे मुझसे मिलाने के लिए ले आओ और वह नेकबख्त ऐसा ही करती। एक बार वह हमारे होस्टल भी आयी और कुछ लड़कियों के सिर हुई कि वह उसके साथ चलकर बारहखम्बा रोड पर चाय पीएं।

भारत-विभाजन के बाद वकार साहब, उनके कथनानुसार, लुट-लुटा-कर लाहौर आ पहुँचे थे और माल रोड के पीछे एक फ्लैट अलाट कराके उसमें अपना स्कूल खोल लिया था। शुरू-शुरू में तो कारोबार मन्दा रहा। दिलों पर मुर्दनी छायी हुई थी, नाचने-गाने का किसे होश था। इस फ्लैट में भारत-विभाजन से पूर्व आर्यसमाजी हिन्दुओं का संगीत-विद्यालय था। लकड़ी के फर्श का हॉल, बंगले में दो छोटे-छोटे कमरे, गुसलखाना, रसोईघर। सामने लकड़ी की बॉलकनी और टूटा-फूटा हिलता हुआ जीना। 'भारत माता संगीत विद्यालय' का बोर्ड बॉलकनी के जंगले पर अब तक टेढ़ा लटका हुआ था। उसे उतारकर 'वकारंज स्कूल ऑफ बॉलरूम एंड टप डांर्सिंग' का बोर्ड लगा दिया गया। अमरीकन फिल्मी पत्रिकाओं में से काटकर जेन केली, फरीदा स्टीयर, फ्रेंक सीनट्रा, दोर्सडे आदि के रंगीन चित्र हॉल की पुरानी और कमजोर दीवारों पर लगा दी गयी और स्कूल चालू हो गया। रिकार्डों का छोटा-सा पुलन्दा खां साहब दिल्ली से साथ लेते आये थे। ग्रामोफोन और सैकेंडहैंड फर्नीचर फारूक से रुपया कंर्ज लेकर उन्होंने यहां खरीद लिया। कॉलेज के मनचले नौजवान और नई अमीर बनी सोसाइटी की नई फैशनेबल बेंगमों को खुदा सलामत रखे, दो-तीन साल में उनका कारोबार खूब चमक गया।

फारूक की मित्रता के कारण मेरा और उनका सम्बन्ध कुछ भाभी और जेठ का-सा हो गया। वे प्राय: मेरी कुशल-क्षेम पूछने आ जाते। उनकी पत्नी घंटों पकाने-रांधने, सीने-पिरोने की बातें किया करतीं। बेचारी मुझ से बिलकुल देवरानी जैसा स्नेह का व्यवहार करतीं। ये पति-पत्नी नि:सन्तान थे, बड़ा उदास, बेरंग, बेतुका-सा बेलगाव जोड़ा था। ऐसे लोग भी दुनिया में मौजूद हैं।

कॉलेज में नई अमरीकी प्लेटनिक चढ़ी। प्रिंसिपल से मेरा झगड़ा हो गया। अगर वह सेर तो मैं सवा सेर। मैं स्वयं कौन अब्दुल हुसैन तानाशाह से कम थी। मैंने स्तीफा कॉलेज कमेटी के सिर पर मारा और फिर सन्तनगर लाहौर वापस आ गयी। मैं पढ़ाते-पढ़ाते उकता चुकी थी। मैं वजीफा लेकर पी-एच. डी. के लिए बाहर जा सकती थी लेकिन इस इरादे को भी कल पर टालती रही। कल अमरीकनों के दंफ्तर जाऊंगी जहां वे वजीफे बांटते हैं, कल ब्रिटिश काउन्सिल जाऊंगी, कल शिक्षा-मन्त्रालय में स्कॉलरशिप का प्रार्थनापत्र भेजूंगी।

अधिकतर समय बीत गयाक्या करूंगी? कहीं बाहर जाकर कौन-से गढ़ जीत लूंगी? मुझे जाने किस वस्तु की प्रतीक्षा थी, मुझे पता नहीं। इसी बीच एक दिन वकार भाई मेरे पास बड़े निराश होकर आये और कहने लगे, ''तुम्हारी भाभी के दिमांग में फिर कीड़ा उठा। वह वीसा बनवाकर हिन्दुस्तान चली गयी और अब कभी नहीं आएगी।''

''वह कैसे...?'' मैंने तनिक लापरवाही से पूछा और उनके लिए चाय का पानी स्टोव पर रख दिया।

''बात यह हुई कि मैंने उन्हें तलाक दे दिया। उनकी जुबान बहुत बढ़ गयी थी। हर समय टर्र-टर्र-टर्र-टर्र...'' फिर उन्होंने सामने बिछे पलंग पर बैठकर शुध्द पतियोंवाले ढंग से अपनी पत्नी के विरुध्द शिकायतों का दफ्तर खोल दिया औैर स्वयं को निरपराध करने की कोशिश में व्यस्त रहे।

मैं बेपरवाही से वह सारी कथा सुनती रही। जिन्दगी की हर बात एकदम बेरंग, महत्त्वहीन, अनावश्यक और निरर्थक थी।

कुछ समय बाद वे मेरे यहां आकर बड़बड़ाए, ''नौकरों ने नाक में दम कर रखा है। तुमसे कभी इतना भी नहीं होता कि आकर तनिक भाई के घर की दशा ही ठीक कर जाओ,नौकरों के कान उमेठो! मैं स्कूल भी चलाऊं और घर भी!'' उन्होंने इस ढंग से शिकायत-भरे स्वर में कहा जैसे उनके घर का प्रबन्ध करना मेरा कर्तव्यहै।

कुछ दिनों बाद मैं अपना सामान बांधकर वकार साहब के कमरों में जा पहुंची और नृत्य सिखाने के लिए उनकी असिस्टेंट भी बन गयी।

इसके महीने-भर बाद पिछले रविवार को वकार साहब ने एक मौलवी बुलाकर अपने दो चिरकिटों की गवाही में मुझसे निकाह पढ़वा लिया।

अब मैं दिनभर काम-काज में व्यस्त रहती हूं। मेरा रूप-सौन्दर्य भूतकाल की रामकहानियों में शामिल हो चुका है। मुझे शोर-शराबे, पार्टियां, हंगामे बिलकुल पसन्द नहीं लेकिन घर में हर समय चा-चा किल्लियों और रॉक का शोर मचा रहता है। बहरहाल, यही मेरा घर है।

मेरे पास इस समय कई कॉलेजों में कैमिस्ट्री पढ़ाने के ऑफर हैं मगर भला कहीं पारिवारिक धन्धों से फुरसत मिलती है? नौकरों का यह हाल है कि आज रखो, कल गायब। मैंने अधिक की अभिलाषा कभी नहीं की, केवल इतना चाहा कि एक औसत दरजे की कोठी हो और सवारी के लिए मोटर ताकि आराम से आ-जा सकें। समान स्तरवाले लोगों में लज्जित न होना पड़े। चार मिलनेवाले आएं तो बिठाने के लिए ठीक-सी जगह हो, बस!

इस समय हमारी डेढ़-दो हजार रुपये की आय है जो पति-पत्नी के लिए जरूरत से ज्यादा है। आदमी अपने भाग्य से सन्तुष्ट हो जाए तो सारे-के-सारे दु:ख मिट जाते हैं।

शादी हो जाने के बाद लड़की के सिर पर छत-सी पड़ जाती है। आज-कल की लड़कियां जाने किस रौ में बह रही हैं, किस तरह ये हाथों से निकल जाती हैं। जितना सोचो,अजीब-सा लगता है, और आश्चर्य होता है।

मैंने तो कभी किसी से बनावटी प्यार तक नहीं किया। खुशवक्त, फारूक और इस पचास वर्षीय कुरूप और भौंडे आदमी के अतिरिक्त, जो मेरा पति है, मैं किसी चौथे आदमी से परिचित तक नहीं। मैं शायद बदमाश तो नहीं थी। न जाने मैं क्या थी और क्या हूं। रेहाना, सईदा, प्रभा और यह लड़की जिसकी आंखों में मुझे देखकर डर पैदा हुआ, शायद वे मुझ से अधिक अच्छी तरह मुझसे परिचित हों!

अब खुशवक्त को याद करने से फायदा? समय बीत चुका। जाने कब तक वह ब्रिगेडियर मेजर जनरल हो चुका हो। आराम की सीमा पर चीनियों के विरुध्द मोर्चा लगाए बैठा हो या हिन्दुस्तान की किसी हरी-भरी सुन्दर छावनी के मैस में बैठा मूंछों पर ताव दे रहा हो और मुस्कराता हो। शायद वह कब कश्मीर मोर्चे पर मारा जा चुका हो! क्या मालूम। अंधेरी रातों में मैं चुपचाप आंखें खोल पड़ी रहती हूं! विज्ञान ने हमें वर्तमान युग के बहुत-से रहस्यों से परिचित करा दिया है। मैंने कैमिस्ट्री पर अनगिनत किताबें पढ़ी हैं, पहरों सोचा है। पर मुझे बड़ा डर लगता है।

खुशवक्त सिंह! खुशवक्तसिंह तुम्हें अब मुझसे मतलब ?


मार्क्स और आज का समय


एरिक हॉब्सबाम

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एक सर्वेक्षण के अनुसार बी.बी.सी. के कार्यक्रम के श्रोताओं ने कार्ल मार्क्स को महानतम दार्शनिक बताया है। इस बात की सच्चाई को ले कर सवाल उठाए जा सकते हैं लेकिन अगर गूगल के सर्च कालम में मार्क्स का नाम टाइप करके बटन दबाएँ तो आपको मालूम हो जाएगा कि डार्विन और आइन्स्टीन के साथ मार्क्स ही महानतम बुद्धिजीवी के रूप में सामने आएँगे। एडम स्मिथ (पश्चिमी दुनिया के आधुनिक अर्थशास्त्रियों के आदि पूर्वज) और फ्रायड उनसे मीलों पीछे हैं।
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सन 2007 में, मार्क्स के जन्मदिन (14 मार्च) से लगभग दो सप्ताह पहले, एक यहूदी पुस्तक सप्ताह का आयेाजन किया गया था। आयोजन-स्थल उस स्थान से अर्थात ब्रिटिश म्यूजियम के राउण्ड टेबिल रूम से चंद कदमों पर ही था जिसके साथ मार्क्स का नाम अभिन्न रूप से आज भी जुड़ा हुआ है और जो उनका चहेता स्थान था। आयेाजन में दो बिल्कुल ही अलग किस्म के समाजवादियों को अर्थात मुझे और याक अताली को मार्क्स को श्रद्धांजलि देने के लिए खास तौर से बुलाया गया था। लेकिन अगर आयोजन की तारीख और स्थल पर आप विचार करें तो दोनों ही बहुत चौंकानेवाले थे। कोई यह नहीं कह सकता कि 1883 में मार्क्स की मृत्यु एक असफल और हताश व्यक्ति की मृत्यु थी क्योंकि उनका लेखन जर्मन और खासकर रूसी बुद्धिजीवियों पर अपना रंग पहले ही जमाना शुरू कर चुका था और मार्क्स के प्रशंसक और समर्थक जर्मनी के मजदूर आन्दोलन का नेतृत्व सम्हालने की कोशिश में लगे हुए थे। लेकिन 1883 में मार्क्स के लेखन और विचारों को ले कर सुगबुगाहट अपेक्षाकृत काफी कम थी। उन्होंने कुछ बहुत ही प्रखर और मुखर पैम्फलेटों का लेखन कर लिया था और 'पूँजी' का खाका भी तैयार कर लिया था। यह सारा कुछ मार्क्स के जीवन काल के अंतिम दशक तक हो चुका था। और जब उनसे मिलने गए एक व्यक्ति ने उनकी पुस्तकों के बारे में पूछा तो उनका सीधा सा जवाब था, 'कौन-सी पुस्तकें?' 1848 की असफल क्रान्ति के बाद 1864-73 का तथाकथित प्रथम इण्टरनेशनल भी बहुत कुछ उपलब्ध नहीं कर पाया था। उनकी आधी जिदंगी ब्रिटेन में बीती थी लेकिन वहाँ की राजनीति और बौद्धिक परंपरा में वे तब तक अपने लिए कोई खास स्थान नहीं बना पाए थे।

इस सबको देखते हुए उनकी मृत्यु-उपरांत सफलता और ख्याति चकित करती है। उनकी मृत्यु के बीस-पच्चीस वर्षों के भीतर यूरोप के मजदूर वर्गों के हिमायती राजनैतिक दल, जो या तो उनके नाम पर जन्मे थे अथवा जो उनका नाम लिए बिना उनके विचारों से प्रभावित थे, जनतांत्रिक प्रणालीवाले देशों में - ब्रिटेन अपवाद था - चुनावों में 15 से 47 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करने में सफल हो चुके थे। 1918 आते-आते ये दल, जो अभी तक विपक्ष में रहते आए थे, या तो अपने आप सत्ता हथियाने में कामयाब हो चुके थे अथवा सत्ता पक्ष के प्रमुख घटक बन गए थे। फासीवाद के उदय और समाप्ति तक उनकी यह स्थिति बनी रही हालाँकि इनमें से तमाम दल अपनी प्रारंभिक प्रेरणा का नाम लेने से बचने का भी प्रयास करने लगे थे। ये सारे दल आज भी मौजूद हैं। इस बीच मार्क्स से प्रेरणा ग्रहण करनेवाले लोगों ने उन देशों में भी मार्क्स की विचारधारा के आधार पर बनाए गए दलों और समूहों की स्थापना कर ली है जहाँ जनतांत्रिक शासन प्रणालियाँ नहीं थीं / हैं और साथ ही तीसरी दुनिया के देशों में भी उनका विस्तार और प्रचार हुआ है। मार्क्स की मृत्यु के सत्तर वर्ष बाद दुनिया की एक तिहाई आबादी कम्युनिस्ट पार्टियों की सरकारोंवाले देशों में रह रही थी। इन सरकारों का घोषित उद्देश्य था मार्क्स के विचारों को व्यावहारिक स्तर पर साकार करना, उनकी जनोन्मुखी आकांक्षाओं को मूर्त रूप देना। कम्युनिस्ट समर्थित सरकारों और दलों की संख्या घटी है, इसमें कोई शक नहीं, लेकिन दुनिया की लगभग बीस फीसदी आबादी अभी भी मार्क्स-प्रेरित व्यवस्थाओं में रह रही है। बावजूद इसके कि इन व्यवस्थाओं के कर्त्ता-धर्ता और संचालक अपनी नीतियों में मार्क्सवाद से अथवा मार्क्स के विचारों से काफी दूर चलते जा रहे हैं। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि बीसवीं सदी पर अगर किसी एक चिंतक की कभी न मिटनेवाली छाप पड़ी है तो उसका नाम है कार्ल मार्क्स। इग्लैंण्ड में हाईगेट कब्रगाह में हर्बर्ट स्पेंसर और कार्ल मार्क्स एक दूसरे से थोड़ी ही दूरी पर दफनाए हुए हैं। जब दोनों जीवित थे तब हर्बर्ट स्पेंसर को अपने युग का अरस्तू होने का सम्मान प्राप्त था और कार्ल मार्क्स, उन्हें तो बस लोग एक ऐसे मामूली आदमी के रूप में जानते थे जो हैम्पस्टेड के निचले इलाके में एक छोटे से मकान में रहते थे और अपने एक दोस्त की मेहरबानी से अपना खर्चा-पानी चलाते थे। और आज हर्बर्ट स्पेंसर को शायद ही कोई जानता हो जबकि जापान अथवा भारत से आनेवाले उम्रदराज सैलानी मार्क्स की कब्र पर जाए बिना अपनी यात्रा पूरी नहीं मानते और ईरान तथा इराक के निर्वासित कम्युनिस्टों की दिली ख्वाहिश यही होती है कि मरने के बाद उन्हें भी मार्क्स के आस-पास ही दफनाया जाय।

संयुक्त समाजवादी सोवियत गणतंत्र के भहराने के बाद कम्युनिस्ट सरकारों और कम्युनिस्ट राजनैतिक दलों के युग का अंत हो गया लगता है। जहाँ वे आज अस्तित्व में हैं भी जैसे चीन और भारत, में, वहाँ उन्होंने लेनिनवादी-मार्क्सवादी विचारधारा की पुरानी परियोजना को लगभग छोड़ चुके हैं। सोवियत संघ के पतन के बाद कार्ल मार्क्स एक बार फिर 'नो मैन्स लैण्ड' में चले गए। कम्युनिज्म अपने को उनका एक मात्र असली वारिस होने का दावा करता था और मार्क्स के विचारों को मुख्यतः इसी कम्युनिज्म के साथ जोड़ा जाता था। 1956 में जब खुश्चेव ने स्तालिन की निन्दा करते हुए सार्वजनिक तौर पर उनसे अपने को अलग किया तो मार्क्स और लेनिन से असहमति व्यक्त करनेवाली प्रवृत्तियों की बाढ़ सी आ गयी लेकिन इन प्रवृत्तियों को संचालित करने और हवा देनेवाले लोगों में सर्वाधिक ऐसे ही लोग थे जो कभी मार्क्स अथवा लेनिन के नाम की कसमें खाया करते थे अर्थात वे सबके सब भूतपूर्व कम्युनिस्ट थे। इस तरह अपनी मृत्यु की शतवार्षिकी के बाद पहले बीस वर्षों के दौरान उन्हें बीते हुए कल का आदमी माना जाने लगा था जिसकी वर्तमान दुनिया में कोई संगत भूमिका नहीं रह गई थी। जिस आयोजन का उल्लेख मैंने लेख के आरंभ में किया है उसकी चर्चा करते हुए एक पत्रकार ने लिखा कि आयोजकों का उद्देश्य, शायद, इतिहास की रद्दी की टोकरी से मार्क्स को बाहर लाना था। इसके बावजूद मुझे विश्वास है कि मार्क्स इक्कीसवीं सदी के चिंतक हैं।

मेरे विचार से इसके पीछे दो कारण हैं। पहला कारण यह है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद सैद्धांतिक स्तर पर मार्क्स सोवियत संघ के उस सरकारी मार्क्सवाद से मुक्त हो गए जिसे लेनिनवाद से जोड़ कर ही हमेशा देखा जाता था। इसी तरह वे राज्य - व्यावहारिक स्तर पर जहाँ मार्क्सवाद के नाम पर लेनिनवादी अथवा इसी तरह की राज्य-व्यवस्थाएँ बनी थीं, उनसे भी मार्क्स मुक्त हो गए। यह साफ जाहिर हो गया कि दुनिया के बारे में मार्क्स ने जो कुछ कहा-सोचा था उसमें से अभी तक काफी कुछ ऐसा बचा हुआ है जो हमारे लिए महत्वपूर्ण है और काम का है। दूसरा कारण भी बहुत महत्वपूर्ण है। 1990 के दशक में जो भूमण्डलीकृत पूँजीवादी दुनिया उभर कर सामने आई वह बड़े अजीब तरीके से उसी दुनिया की तरह थी जिसका पूर्वानुमान अथवा पूर्वाभास मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणपत्र में किया था। सार्वजनिक रूप से इसका खुलासा तब हुआ जब इस नन्ही-मुन्नी किताब की डेढ़ सौंवी जयंती मनाई जा रही थी अर्थात 1998 में और, संयोग कह लीजिए, यह वही साल था जब भूमण्डलीय अर्थ-व्यवस्था में एक नाटकीय उछाल आया था। विरोधाभास यह था कि इस बार समाजवादियों के बजाय पूँजीवादियों ने मार्क्स का पुनराविष्कार किया क्येांकि समाजवादी इतने हताश और मायूस थे कि उन्होंने अवसर के अनुरूप समारोह भी नहीं मनाया। मुझे आज भी याद करके अचंभा होता है जब मेरे पास संयुक्त राज्य अमेरिका की एक इन-फ्लाइट पत्रिका (ऐसी पत्रिका जो हवाई यात्रा करनेवाले मुसाफिरों के लिए ही होती है) ने मुझसे मार्क्सवाद पर एक लेख लिखने का अनुरोध किया। इस पत्रिका के अस्सी फीसदी पाठक बड़ी-बड़ी कम्पनियों के एग्जीक्यूटिव होते हैं। वास्तव में इस पत्रिका के संपादक ने कहीं मेरा एक छोटा सा लेख घोषणापत्र पर पढ़ा था और उसने सोचा कि पत्रिका के पाठकों को इसमें रुचि हो सकती है। वह नया लेख नहीं चाहता था बल्कि उसी लेख को अपनी पत्रिका में फिर से छापने के लिए मेरी मंजूरी चाहता था। इससे भी अधिक अचंभा मुझे तब हुआ जब नई शताब्दी की शुरुआत में जॉर्ज सोरोस ने मार्क्स के बारे में मेरी राय जानना चाहा। यह जानते हुए कि हमारे विचारों में जमीन-आसमान का अंतर है, मैंने सोरोस को कोई जवाब नहीं दिया। थोड़ी देर बाद सोरोस ने ही कहा, ''उस आदमी ने (मार्क्स ने) डेढ़ सौ साल पहले ही उस पूँजीवाद को देख लिया था जिस पर आज हमें गंभीरता से सोचना चाहिए।'' और सोरोस ने स्वंय मार्क्स को गंभीरता से पढ़ना और उन पर सोचना शुरू किया। उस समय जो लेखक कम्युनिज्म और मार्क्स के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ लिया करते थे उन्होंने भी बाद में अपना रवैया बदल दिया। और इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण नाम है याक अताली का जिन्होंने मार्क्स के जीवन और लेखन पर लिखना शुरू कर दिया। अताली यह भी सोचते हैं कि हम में से वे लोग जो दुनिया का अलग किस्म का और बेहतर रूप देखना चाहते हैं उनसे कहने के लिए मार्क्स के पास बहुत कुछ है। इस हिसाब से भी मार्क्स की ओर लौटने की इच्छा का स्वागत किया जाना चाहिए।

अक्टूबर 2008 में जब लंदन के फाइनेन्सियल टाइम्स में ''पूँजीवाद की मृत्युपीड़ा'' जैसी हेडलाइन छपी तब इस बात में कोई संदेह नहीं रह गया कि मार्क्स सार्वजनिक बौद्धिक परिदृश्य पर वापस आ गए हैं। एक ओर जिस तरह भूमंण्डलीय पूँजीवाद 1930 के दशक के बाद सबसे बड़ी उठा-पटक और संकट से गुजर रहा है उससे यह सिद्ध होता है कि मार्क्स मंच पर बने रहेंगे, दूसरी ओर, नई सदी के मार्क्स पिछली सदी के मार्क्स से निश्चित ही अलग दिखेंगे।

पिछली सदी में लोग मार्क्स के बारे में जो सोच रहे थे उस पर तीन बातों का असर बहुत ज्यादा था। पहला था दुनिया का दो प्रकार के देशों में विभाजन - वे देश जहाँ क्रान्ति उनकी कार्य-सूची में था और वे देश जहाँ ऐसा नहीं था अर्थात उत्तरी अटलांटिक और प्रशांत महासागर क्षेत्र के विकसित पूँजीवादी देश और शेष विश्व के देश। इसी तथ्य से जुड़ा और इसका अनुवर्ती दूसरा तथ्य है - मार्क्स की विरासत स्वाभाविक रूप से जनतांत्रिक और सुधारवादी विरासत और रूसी क्रांति से अत्यधिक प्रभावित क्रान्तिकारी विरासत में विभाजित हो गई। 1917 के पश्चात् तीसरे कारण के चलते यह और अधिक स्पष्ट हो गया : 19वीं सदी के पूँजीवादी और बुर्जुआ समाज का, जिसे मैंने महाविपत्ति का युग कहा है उसमें पर्यवसान जो 1914 और 1940 के बीच के वर्षों में घटित हुआ। संकट इतना जोरदार था कि तमाम लोग यह संदेह करने लगे कि क्या पूँजीवाद इससे कभी भी उभर पाएगा। क्या यह समाजवादी अर्थव्यवस्था के सामने पराजित हो जाएगा जैसा कि मार्क्सवाद से बहुत दूर रहनेवाले जोसेफ शुम्पीटर 1940 में सोच रहे थे? पूँजीवाद फिर उठ खड़ा हुआ लेकिन अपने पुराने रूप को बचा नहीं पाया। इसी समय विकल्प के रूप में सामने आई समाजवादी अर्थव्यवस्था उस समय अभेद्य लग रही थी। 1929 और 1940 के बीच समाजवादी राजनीति को अस्वीकार करनेवाले गैर-समाजवादी लोगों के लिए भी यह विश्वास करना असंगत नहीं लग रहा था कि पूँजीवाद अपनी अंतिम साँसें गिन रहा है और सोवियत संघ यह सिद्ध करने में लगा था कि वह पूँजीवाद को इतिहास में ढकेलने में सफल हो जाएगा। स्पुतनिक उपग्रह के वर्ष में इस विश्वास में काफी दम लग रहा था। लेकिन 1960 के बाद इस विश्वास का खोखलापन धीरे-धीरे लोगों के सामने जाहिर होने लगा।

ये घटनाएँ और नीति तथा सिद्धांत के क्षेत्र में इनका प्रभाव मार्क्स और एंगिल्स की मृत्यु के बाद की कथा का अंश है। मार्क्स के अपने अनुभवों और आकलनों की सीमा से ये बाहर हैं। बीसवीं सदी के मार्क्सवाद का हमारा आकलन स्वंय मार्क्स के चिंतन पर आधारित न हो कर उनके लेखन के उनके मृत्यु-उपरांत की गई व्याख्याओं और संशोधनों पर आधारित है। अधिक से अधिक हम यह दावा कर सकते हैं कि 1890 के अंतिम वर्षों में, अर्थात मार्क्सवाद के पहले बौद्धिक संकट के दौरान, मार्क्सवादियों की पहली पीढ़ी के वे लोग जो मार्क्स और उनसे भी अधिक एंगिल्स के व्यक्तिगत सम्पर्क में आए थे, संशोधनवाद, साम्राज्यवाद और राष्ट्रवाद जैसे बीसवीं शताब्दी में सामने आनेवाले मुद्दों पर बहस प्रारंभ कर चुके थे। मार्क्सवाद से संबंधित बहस का अधिकांश भाग बीसवीं सदी से जुड़ा हुआ है, खासकर समाजवादी अर्थव्यवस्था के भावी स्वरूप को ले कर चलनेवाली बहस जो मुख्य रूप से पहले विश्व युद्ध की अर्थव्यवस्था और युद्धोत्तर वर्षों की अर्ध-क्रांतिकारी अथवा क्रांतिकारी संकटों की उपज थी। इस बहस के रेशे मार्क्स में मौजूद नहीं हैं।

इस तरह मार्क्स यह दावा करने की स्थिति में शायद ही थे कि उत्पादन के साधनों के त्वरित विकास के लिए पूँजीवाद की तुलना में समाजवाद श्रेष्ठ है। यह दावा उस दौर का है जब दोनों विश्व युद्धों के बीच के वर्षों में पूँजीवाद का मुकाबला सोवियत संघ की पंचवर्षीय योजनाओं से हुआ। वास्तव में मार्क्सवाद का दावा यह नहीं था कि उत्पादन के साधनों की पूरी क्षमता को विकसित करने में पूँजीवाद अपनी अंतिम सीमा तक पहुँच गया है। उसका मानना यह था कि पूँजीवादी विकास की अनवरुद्ध लय समय-समय पर अतिउत्पादन का संकट पैदा करती रहती है जो देर-सबेर अर्थव्यवस्था के संचालन से मेल नहीं खाता और यह अतिउत्पादन ऐसे सामाजिक संघर्षों को जन्म देता है जिनसे यह उबर नहीं सकता। अपने स्वभाव के चलते ही पूँजीवाद सामाजिक उत्पादन के बाद की अर्थव्यवस्था को अनुशासित कर सकने में अक्षम होता है। उसका मानना था कि ऐसा करने की क्षमता केवल समाजवाद में है।

इसीलिए इससे अचंभित नहीं होना चाहिए कि कार्ल मार्क्स पर होनेवाली बहसों में और उनके सिद्धांतों के आकलन के केन्द्र में ''समाजवाद'' रहता आया है। इसका कारण यह नहीं था कि समाजवादी अर्थव्यवस्था की प्रायोजना केवल मार्क्सवादी है - ऐसा नहीं है - अपितु मार्क्सवाद से प्रभावित प्रेरित दल इस प्रायोजना में विश्वास रखते थे और अपने को कम्युनिस्ट कहनेवाले दलों ने इसे व्यवहारतः सिद्ध भी कर दिया। अपने बीसवीं सदी के रूप में यह प्रायोजना मृत हो चुकी है। सोवियत संघ और अन्य केन्द्र-नियोजित अर्थव्यवस्थाओं के लिए प्रयुक्त ''समाजवाद'' अर्थात सिद्धांत में बाजार-रहित, राज्य-संचालित और राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्थाएँ परिदृश्य से गायब हो चुकी हैं और उसके फिर लौटने की संभावना नहीं लगती। समाजवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना को ले कर सामाजिक-जनतांत्रिक इच्छाएँ/आकांक्षाएँ हमेशा भविष्य का आदर्श रही हैं लेकिन बीसवीं सदी का अंत आते-आते ये इच्छाएँ भी तिरोहित हो चुकी हैं।

सामाजिक जनतंत्रवादियों के मानस में बसा समाजवाद का मॉडल और कम्युनिस्ट सरकारों द्वारा स्थापित समाजवाद किस सीमा तक मार्क्स के विचारों-चिंतनों का हिस्सा था? यह महत्वपूर्ण है कि समाजवाद की आर्थिक संस्थाओं और अर्थशास्त्र से संबंधित स्पष्ट वक्तव्यों से मार्क्स हमेशा जान-बूझ कर अपने को बचाते रहे और कम्युनिस्ट समाज के मूर्त रूप के बारे में इसके अलावा कभी कुछ नहीं कहा कि इसे निर्मित अथवा यांत्रिक ढंग से उत्पादित नहीं किया जा सकता बल्कि इसका विकास समाजवादी समाज से ही संभव हो पाएगा। इस तरह के सामान्य संकेत मार्क्स के उत्तराधिकारारियों को कोई निश्चित दिशा और रणनीति नहीं दे सकते थे। सच्चाई तो यह है कि क्रांति के पहले इस तरह की बहसें उनके हिसाब से महज अकादमिक ही हो सकती हैं अथवा हवाई। ब्रिटेन की लेबर पार्टी के संविधान के 'नियम चार' का उदाहरण ले कर कहा जा सकता है कि यह ''उत्पादन के साधनों के सामूहिक मालिकाने'' पर आधारित होगा जिसका मतलब यह लगाया गया कि देश के उद्योगों के राष्ट्रीयकरण के माध्यम से इस उद्देश्य को पूरा किया जा सकता है। मजे की बात है कि केन्द्रीकृत सामाजिक अर्थव्यवस्था का पहला सिद्धांत समाजवादियों द्वारा व्याख्यायित किए जाने के बजाय 1908 में इटली के एक गैर-समाजवादी इनरिको बेरोन द्वारा व्याख्यायित किया गया था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद व्यावहारिक राजनीति के एजेण्डा पर इस सिद्धांत के आने के पहले किसी ने भी इसके बारे में नहीं सोचा था। उस समय अर्थव्यवस्था को ले कर जो समस्याएँ पैदा हुईं उनके लिए समाजवादी तैयार नहीं थे क्योंकि उनके सामने अतीत का अथवा कोई अन्य उदाहरण नहीं था।

समाज द्वारा व्यवस्थित होनेवाली किसी भी अर्थव्यवस्था में ''योजना'' अन्तर्निहित होती है लेकिन मार्क्स ने इस बारे में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं दिया है और क्रान्ति के बाद सोवियत संघ में जब इसे आजमाया गया तो इसकी रूपरेखा अधिकांशतः उसी समय बनाई गई थी। सैद्धांतिक रूप से इसे कुछ अवधारणाओं के आधार पर तैयार किया गया था (उदाहरण के लिए, लियांतीफ की निवेश-उत्पादन अवधारणा) और इसके लिए जरूरी आँकड़े भी इकट्ठे किए गए थे। बाद में इन तरीकों को गैर-समाजवादी देशों में भी व्यापक स्तर पर इस्तेमाल किया गया। व्यवहार में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गढ़ी गई युद्ध-अर्थव्यवस्थाओं का भी अनुसरण किया गया, विशेष रूप से जर्मन अर्थव्यवस्था का। बिजली उद्योग पर विशेष ध्यान दिया गया जिसके बारे में जर्मन और अमेरिकी एग्जीक्यूटिवों ने लेनिन को सूचित किया था। सोवियत संघ की योजनाधारित अर्थव्यवस्था का आदर्श यही युद्ध अर्थव्यवस्थाएँ थीं जिनमें पहले से ही कुछ विशेष लक्ष्य निर्धारित कर लिए जाते थे - अत्यधिक शीघ्रता से उद्योगीकरण, युद्ध में विजय, एटम बम का निर्माण अथवा चंद्रमा पर आदमी भेजना और फिर इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए संसाधनों की व्यवस्था करना, इत्यादि। यह सारा कुछ केवल समाजवाद में ही संभव हो सकता है, ऐसी बात नहीं है। पहले से ही निर्धारित लक्ष्यों को ध्यान में रख कर काम करना और कमोबेश अच्छे ढंग से करना संभव होता है लेकिन सोवियत अर्थव्यवस्था वास्तव में इसके आगे कभी गई ही नहीं। हालाँकि इस दिशा में इसने 1960 के बाद लगातार प्रयास जारी रखे लेकिन नौकरशाही द्वारा निर्देशित आर्थिक संरचना में निहित कठिनाइयों से यह अपना पिण्ड कभी भी छुड़ा नहीं पाई।

समाजवादी जनतंत्र ने मार्क्सवाद में अलग तरीके से बदलाव किया और इसके लिए या तो समाजवादी अर्थव्यवस्था के निर्माण को स्थगित रखा अथवा/और सकारात्मक रूप से मिश्रित अर्थव्यवस्था के अलग-अलग रूपों का क्रियान्वयन किया। जब तक सामाजिक जनतंत्रवादी दल एक पूर्ण समाजवादी अर्थव्यवस्था बनाने के लिए प्रतिबद्ध रहे तब तक इसका मतलब था कि इस विषय पर सोच-विचार हो। इस विषय पर सबसे आकर्षक विचार आया फेबियन समाजवाद के गैर-मार्क्सवादी चिंतकों जैसे सिडनी वेब और बियेत्रिस वेब से जिनका मानना था कि पूँजीवाद का समाजवाद में रूपांतरण धीरे-धीरे सुधारों के चलते होगा और इसी लिए वेब-दम्पति ने समाजवाद के सांस्थानिक रूप पर कुछ राजनैतिक विचार प्रस्तुत किए थे हालाँकि इसके आर्थिक पहलुओं पर वे मौन थे। मुख्य मार्क्सवादी 'संशोधनवादी' एडवर्ड बर्नस्टीन ने इस समस्या को रूपांकित किया -- इस आग्रह के साथ कि सुधारवादी आन्दोलन ही सब कुछ है और अंतिम उद्देश्य में कोई व्यावहारिक यथार्थ नहीं होता। वास्तव में अधिकांश सामाजिक जनतंत्रवादी दलों ने, जो पहले विश्व युद्ध के पश्चात सत्ता में आए, संशोधनवादी नीति पर चलते रहे और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को इस शर्त के साथ चलने दिया कि उन्हें श्रमिकों की कुछ माँगों को मानते रहना चाहिए। इस प्रवृत्ति की क्लासिक पुस्तक मानी जाती है 1956 में प्रकाशित एन्थनी क्रासलैण्ड की 'द फ्यूचर ऑफ सोशलिज्म' (समाजवाद का भविष्य) जिसमें दलील दी गई कि क्योंकि 1945 के बाद पूँजीवाद ने समृद्ध समाज के निर्माण की समस्या सुलझा ली है इसलिए सार्वजनिक उद्यम (क्लासिकी रूप में अथवा अन्य प्रकार से राष्ट्रीयकरण) जरूरी नहीं रह गया है और समाजवादियों का एकमात्र कार्य है राष्ट्रीय सम्पदा के समान वितरण को सुनिश्चित करना। ये सारी बातें मार्क्स और मार्क्सवाद से बहुत दूर की थीं और समाजवाद के उस समाजवादी सपने से भी बहुत दूर थीं जिसमें बाजार-मुक्त समाज की कल्पना की गई थी और जिसे शायद मार्क्स भी अपने मन से सँजोए रहे होंगे।

यहाँ मैं यह भी जोड़ना चाहूँगा कि राज्य और सरकारी नियंत्रण में चलनेवाले सार्वजनिक उद्योगों की भूमिका को ले कर आर्थिक नव-उदारवादियों और उनके आलोचकों के बीच हाल के वर्षों में चलनेवाली बहस सिद्धांत रूप में न तो मार्क्सवाद से जुड़ी है और न ही समाजवादी चिंतन से।

1970 के बाद के वर्षों में स्वच्छन्द और मुक्त बाजार का सिद्धांत जोर पकड़ता रहा है और इस विकृति को आर्थिक यथार्थ के रूप में अनूदित करने का प्रयास लगातार किया जा रहा है। इस सिद्धांत के अनुसार राज्य को लाभ कमानेवाले उद्यमों के नियमन और नियंत्रण से अपने को अलग रखना चाहिए। ऊपर जिस बहस का जिक्र किया गया है वह इसी सिद्धांत पर आधारित है। प्रयास है मानव समाज को उस स्व-नियंत्रित और अधिकतम धन अथवा समृद्धि अर्जित करनेवाले बाजार के हाथों सौपने का जो ऐसे लोगों से भरा हुआ है जो अपने हितों की बुद्धिसम्मत रक्षा कर रहे हैं। अमेरिका सहित किसी भी विकसित अर्थव्यवस्थावाले देश में पूँजीवादी विकास के किसी भी प्रारंभिक चरण में उक्त प्रयास की कोई नजीर नहीं मिलती। इस विचारधारा के उन्नायक एडम स्मिथ के लेखन से वैसे ही अतिवादी निष्कर्ष निकाल रहे थे जैसे बोल्शेविक अर्थशास्त्री मार्क्स के लेखन में पूर्णतयः राज्य-निर्देशित अर्थव्यवस्था के सिद्धांत की तलाश कर रहे थे। आश्चर्य नहीं कि यह ''जड़ बाजारवाद'' जो अर्थव्यवस्था के बजाय धर्माचार के अधिक निकट था, अतंतः असफल साबित हुआ।

टूटे मनोबलवाले सामाजिक जनतंत्रवादी दलों की महत्वाकाक्षाओं में बुनियादी तौर पर रूपांतरित समाज के सपने के लोप और साथ ही राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्था के सिद्धांत के लोप ने बीसवीं सदी में समाजवाद को लेकर चलनेवाली बहसों के अधिकांश को व्यर्थ सिद्ध कर दिया है। ये बहसें कार्ल मार्क्स के चिंतन से थोड़ी अलग जरूर थीं लेकिन इनके पीछे प्रेरणा उन्हीं की थी और उन्हीं का नाम लेकर ये बहसें चलाई जाती हैं। दूसरी ओर, मार्क्स के केन्द्रीय महत्व के तीन महत्वपूर्ण आयाम थे : एक आर्थिक चिंतक के रूप में, इतिहास-चिंतक और विश्लेषक के रूप में और दरख़ीम तथा मैक्स वेबर के साथ समाज के आधुनिक चिंतन के सर्वस्वीकृत संस्थापक के रूप में। दार्शनिक के रूप में भी उनका अवदान गंभीर और महत्वपूर्ण है लेकिन उसके सही आकलन की योग्यता मुझमें नहीं है। लेकिन एक बात जो हमेशा प्रासंगिक बनी रही है और बनी रहेगी वह है मानव अर्थव्यवस्था के ऐतिहासिक रूप से एक अल्पकालिक विधि के रूप में पूँजीवाद की, और इसकी अनवरत विस्तार और संकेन्द्रण करनेवाली, संकट उत्पन्न करनेवाली और अपने से अपना रूपांतरण करनेवाली संचालन विधि की उनकी संकल्पना।

21वीं सदी में मार्क्स की प्रासंगिकता एक विचारणीय विषय है। समाजवाद का सोवियत स्वरूप - समाजवादी अर्थव्यवस्था स्थापित करने का अब तक का एकमात्र प्रयास - अब अस्तित्व में नहीं रहा। दूसरी ओर, भूमंडलीकरण का अत्यधिक और त्वरित विकास हुआ है और इसके साथ ही धनोत्पादन की असाधारण मानवीय क्षमता भी सामने आ चुकी है। इस परिघटना ने आर्थिक-सामाजिक क्रिया-कलापों के क्षेत्र में राष्ट्र-राज्यों की ताकत और उसके क्षेत्र-विस्तार को काफी सीमा तक कम कर दिया है और इसके परिणामस्वरूप उन सामाजिक-जनतांत्रिक आन्दोलनों की क्लासिकी नीतियों की ताकत भी घटी है जो राष्ट्रीय राज्य-व्यवस्थाओं को सुधारों के लिए मजबूर करते थे। बाजार-रूढ़िवाद के बढ़ते हुए महत्व के चलते देशों और क्षेत्रों के बीच आर्थिक विषमता में अत्यधिक बढ़ोत्तरी हुई है और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की बुनियादी गति में महाविपत्ति का वैसा ही तत्व फिर से आ गया है जिसके चलते 1930 के बाद का सबसे गंभीर भूमंडलीय खतरा मँडरा रहा है।

हमारी उत्पादन क्षमता ने कम से कम संभावना के रूप में अधिकांश लोगों के लिए आवश्यकता पूर्ति की स्थिति से समृद्धि की स्थिति में पहुँचना आसान कर दिया है, उनके सामने शिक्षा सहित अन्य ऐसे विकल्पों का रास्ता खोल दिया है जिनकी वे पहले कल्पना भी नहीं कर सकते थे हालाँकि दुनिया की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा अभी वहाँ तक नहीं पहुँच पाया है। यह एक सच्चाई है कि बीसवीं सदी की अधिकांश अवधि में समाजवादी आन्दोलनों और सरकारों की भूमिका मूल रूप से आवश्यकता पूर्ति तक ही सीमित रही है और इनमें पश्चिम के अपेक्षाकृत सम्पन्न देशों में भी स्थिति लगभग यही रही है जहाँ दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात लगभग बीस वर्षों में जनसंख्या का एक तबका ऐशो-आराम की जिंदगी गुजारने लायक हो गया था, फिर भी समृद्धि के क्षेत्र में पर्याप्त भोजन, वस्त्र, आवास, आय के स्रोत के रूप में रोजगार और संकट के समय लोगों की सहायता करने में सक्षम कल्याणकारी व्यवस्था के उद्देश्य समाजवादियों के लिए अब पर्याप्त कार्यक्रम नहीं रह गए हैं हालाँकि इनकी जरूरत तो होती ही है।

एक तीसरा पक्ष भी है जो नकारात्मक है। भूमंडलीय अर्थव्यवस्था के आश्चर्यजनक विस्तार ने पर्यावरण को उपेक्षित किया है और इसलिए अंधाधुंध और अनियंत्रित आर्थिक विकास पर लगाम लगाना जरूरी हो गया है। हमारे पर्यावरण पर आर्थिक विकास के खतरनाक प्रभावों को रोकने अथवा नियंत्रित करने और पूँजीवादी बाजार की आवश्यकताओं के बीच एक स्पष्ट द्वन्द्व खुल कर सामने आया है : लाभ की तलाश में विकास की अधिकाधिक निरंतरता। यही पूँजीवाद की सबसे कमजोर कड़ी है। इस समय यह कहना मुश्किल है कि दोनों में से जीत किसकी होगी - पर्यावरण की अथवा लाभ की अनियंत्रित मनोवृत्ति की।

इस परिप्रेक्ष्य में हम कार्ल मार्क्स को कैसे देखें - सम्पूर्ण मानवता के चिंतक के रूप में अथवा इसके किसी एक हिस्से के दार्शनिक के रूप में, अर्थशास्त्री के रूप में, आधुनिक समाज विज्ञान के संस्थापक पिता और मानव इतिहास की बुद्धिसम्मत समझ के मार्गदर्शक के रूप में? यह सब तो ठीक है लेकिन जिस बिन्दु को अताली ने प्रमुखता दी है वह है मार्क्स के चिंतक रूप का सार्वभौमिक विस्तार। पारंपरिक अर्थ में यह 'अन्तर-अनुशासनात्मक' नहीं है अपितु सारे अनुशासनों को एकजुट करता है। अताली का कथन है : ''उनके पहले दार्शनिकों ने मनुष्य को एक साकल्यता के रूप में देखा है लेकिन वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने दुनिया को एक पूर्ण इकाई के रूप में देखा जो एक साथ ही राजनैतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक और दार्शनिक है।''

यह स्पष्ट है कि मार्क्स के लेखन-चिंतन का काफी बड़ा हिस्सा अब पुराना हो चुका है और इसका कुछ हिस्सा अब स्वीकारयोग्य नहीं रह गया है। यह भी स्पष्ट है कि उनका लेखन एक सम्पूर्ण पिण्ड के रूप में नहीं लिया जा सकता अपितु वह एक सतत विकासमान बौद्धिक परियोजना है। डॉग्मा अथवा किसी प्रकार के संस्थान समर्थित रूढ़िवाद के रूप में कोई भी इसे अब मानने के लिए तैयार नहीं है। उनके लेखन-चिंतन को इस रूप में लेना स्वयं मार्क्स के लिए भी अप्रीतिकर होता। लेकिन इसके साथ ही हमें इस विचार को भी खारिज कर देना चाहिए कि एक ''सही'' मार्क्सवाद है और एक ''गलत'' मार्क्सवाद है। मार्क्स की अनुसंधान-विधि से अलग-अलग परिणाम और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य निकल सकते हैं। और ऐसा स्वयं मार्क्स के अनुभव में घटित हो चुका था। ब्रिटेन और नीदरलैण्ड में वे सत्ता-परिवर्तन को अपरिहार्य मानते थे जो घटित नहीं हुआ। ऐसे ही उनका विचार था कि ग्राम समुदाय अतंतः समाजवाद में रूपांतरित हो जाएँगे, यह भी घटित नहीं हुआ। काउत्सकी और वर्नस्टीन मार्क्स के उतने ही अधिक अथवा उतने ही कम उत्तराधिकारी हैं जितने कि प्लेखानोव और लेनिन। और इसीलिए प्रामाणिक मार्क्स और मार्क्स के जीवन काल के पश्चात एंगिल्स, काउत्सकी और लेनिन जैसे उनका सरलीकरण अथवा विकृत करनेवाले लोगों के बीच अताली द्वारा किए गए भेद के प्रति मैं आश्वस्त नहीं हूँ।

सबसे पहले रूसी बुद्धिजीवियों ने मार्क्स का गंभीर अध्ययन करने के पश्चात उनके विचारों को आत्मसात किया और अपने समाज के पिछड़ेपन को दूर करने और पश्चिम के आर्थिक विकास के मॉडल के अनुसार उस समाज का आधुनिकीकरण करने का प्रयास किया। इस क्रम में रूसी बुद्धिजीवियों द्वारा मार्क्स के चिंतन को सामाजिक रूपांतरण का जरिया बनाना जितना वैध था उतना ही वैध था मार्क्स द्वारा यह अनुमान लगाना कि रूसी ग्राम समुदायों के आधार पर सीधे समाजवादी संतरण संभव है अथवा नहीं। शायद मार्क्स के विचारों की सामान्य दिशा के मद्देनजर ऐसा सोचना ठीक ही था। सोवियत प्रयोग के विरुद्ध यह तर्क नहीं दिया जा सकता कि पूरी दुनिया में पूँजीवाद फैल जाने के बाद ही समाजवादी व्यवस्था का निर्माण किया जाय क्येांकि मार्क्स ने ऐसा न कहा था और न ही उनके ऐसा विश्वास करने का कोई प्रमाण मौजूद है। यह अनुभव पर आधारित था। बात यह थी कि रूस इतना पिछड़ा हुआ था कि वह समाजवादी समाज का एक व्यग्य-चित्र अथवा प्लेखानोव के शब्दों में ''एक लाल चीनी साम्राज्य'' के अलावा और कुछ भी नहीं बन सकता था। 1917 में मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों सहित सभी रूसी बुद्धिजीवी प्लेखानोव से सहमत होते। दूसरी ओर, 1890 के दशक के तथाकथित ''कानूनी'' मार्क्सवादियों के खिलाफ भी अनुभववादी दलील दी जाती है क्योंकि ये मार्क्सवादी भी अताली की ही तरह यह मानते थे कि रूस में फलता-फूलता औद्योगिक पूँजीवाद लाना ही मार्क्सवादियों का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। जारशाही के दौरान उदार पूँजीवादी रूस का जन्म हो ही नहीं सकता था।

फिर भी मानव समाज और इतिहास के मार्क्स के विश्लेषण के तमाम केन्द्रीय पक्ष आज भी वैध और संगत हैं। स्पष्ट ही इसमें सर्वप्रथम हैं पूँजीवादी आर्थिक विकास की मोहासिक्त भूमंडलीय गतिकी तथा इसके पूर्व के पारिवारिक संरचना सहित मानवीय अतीत की विरासत के ऐसे सभी अंगों का विनाश करने की इसकी क्षमता का मार्क्स द्वारा किया गया विश्लेषण। मार्क्स ने इस बात पर भी जोर दिया है कि पूँजीवाद अतीत की विरासत के उन अंशों का भी विनाश करने में नहीं हिचकिचाता जिनसे यह स्वयं कभी लाभान्वित हुआ था। दूसरा है आतंरिक अन्तर्विरोध पैदा करनेवाले तनावों के अंतहीन दौर, उनके फौरी समाधान, संकट और परिवर्तन पैदा करनेवाला विकास और इन सबके चलते लगातार विस्तारित हो रहे भूमंडलीय बाजार में आर्थिक संकेद्रण तथा पूँजीवादी विकास के ढाँचे का मार्क्स द्वारा किया गया विश्लेषण। माओ का स्वप्न ऐसे समाज का था जो अनवरत क्रान्ति से अपना निरंतर नवीनीकरण करता रहे : पूँजीवाद ने इस उद्देश्य को परिवर्तन की उस ऐतिहासिक प्रक्रिया द्वारा पूरा कर लिया है जिसे मार्क्स का अनुसरण करते हुए शुम्पीटर ने अंतहीन ''सृजनात्मक विनाश'' कहा है। मार्क्स का मानना था कि इस प्रक्रिया का परिणाम होगा विशाल मात्रा में आर्थिक संकेन्द्रण और अताली जब यह कहते हैं कि इस प्रक्रिया में निर्णय लेनेवाले लोगों की संख्या एक हजार अथवा दस हजार होती है तो उनका भी मतलब ठीक यही होता है। मार्क्स का विश्वास था कि इस तरह का आर्थिक संकेन्द्रण करनेवाले पूँजीवाद को पीछे छोड़ा जा सकता है - एक ऐसी भविष्यवाणी जो संभव तो अभी भी लगती है लेकिन एक अलग अर्थ में, न कि मार्क्स के अर्थ में।

दूसरी ओर, उनकी यह भविष्याणी कि समाज की ओर उन्मुख एक विशाल सर्वहारा द्वारा ''स्वत्ववहरण करनेवालों के स्वत्वहरण'' से यह घटित होगा, पूँजीवाद के ढाँचे के विश्लेषण पर आधारित न हो कर अलग पूर्व-अनुमानित मान्यताओं के विश्लेषण पर आधारित था। अधिक से अधिक यह इस भविष्यवाणी पर आधारित था कि इंग्लैण्ड की तर्ज पर उद्योगीकरण मजदूरों के रूप में काम करनेवाली जनसंख्या को जन्म देगा। एक मध्यम-मार्गी भविष्यवाणी के रूप में इसमें सच्चाई थी लेकिन दूरगामी परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में यह संभव नहीं हो पाएगा। 1840 के दशक के बाद मार्क्स और एंगिल्स भी राजनैतिक क्रान्ति करनेवाले सर्वहारा का बड़ा हिस्सा निर्धनता की ओर नहीं बढ़ रहा है। 1900 के आसपास जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के सम्मेलन पर टिप्पणी करते हुए एक अमेरिकी पत्रकार ने कहा था कि वहाँ जुटे हुए कामरेड गरीब नहीं लग रहे थे। लेकिन दूसरी ओर, दुनिया के अलग-अलग भागों के बीच और वर्गों के बीच आर्थिक विषमता में वृद्धि मार्क्स की कल्पना का ''स्वत्ववहरण करनेवालों के स्वत्वहरण'' का सिद्धांत अपेक्षित परिणाम नहीं पैदा करता। संक्षेप में, मार्क्स के विश्लेषण में भविष्य की आशा का संकेत तो था लेकिन यह विश्लेषण उस आशा का स्रोत नहीं था।

तीसरी बात को बड़े अच्छे ढंग से नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री सर जॉन हिक्स के शब्दों में कही जा सकती है : ''वे लोग जो इतिहास की गति को एक निश्चित स्वरूप देना चाहते हैं उनमें से अधिकांश मार्क्स के प्रवर्गों अथवा इन प्रवर्गों के किंचित संशोधित रूपों का प्रयोग करना चाहेंगे क्योंकि कोई अन्य विकल्प उपलब्ध है ही नहीं।''

इक्कीसवीं सदी में दुनिया के सामने आनेवाली समस्याओं के समाधानों की पूर्व-कल्पना करने की स्थिति में हम नहीं हैं लेकिन अगर इन समाधानों की सफलता का कोई संयोग बनता है तो उन्हें मार्क्स द्वारा पूछे गए प्रश्नों को फिर से पूछना पड़ेगा, चाहे वे मार्क्स के अनेक शिष्यों द्वारा दिए अथवा सुझाए गए उत्तरों से सहमत न भी हों।
अनुवाद - रामकीर्ति शुक्ल

विस्लावा शिम्बोर्स्का की दो कविताएं

आकस्मिक मुलाकात


 हम मिले
बड़े सलीके और शिष्टाचार के साथ ।
हमने कहा- कितनी खुशी हुई
आपको इतने सालों बाद देखकर !

पर हमारे भीतर थककर सो गया था बहुत-कुछ ।
घास खा रहा था शेर,
बाज ने अपनी उड़ान छोड़ दी थी ।
मछलियाँ डूब गई थीं और भेड़िए पिंजरों में बन्द थे ।

हमारे साँप अपनी केंचुल बदल चुके थे ।
मोरों के पंख झड़ गए थे ।
उल्लू तक नहीं उड़ते थे हमारी रातों में ।
हमारे वाक्य टूट कर ख़ामोश हो गए ।

असहाय-सी मुस्कान में खो गई
हमारी इंसानियत
जो नहीं जानती कि आगे क्या कहे !




नफ़रत 


देखो, तो अब भी कितनी चुस्त-दुरुस्त और पुरअसर है
हमारी सदी की नफ़रत,
किस आसानी से चूर-चूर कर देती है
बड़ी-से-बड़ी रुकावटों को!
किस फुर्ती से झपटकर
हमें दबोच लेती है!

यह दूसरे जज़्बों से कितनी अलग है --
एक साथ ही बूढ़ी भी और जवान भी।
यह खुद उन कारणों को जन्म देती है
जिनसे पैदा हुई थी।
अगर यह सोती भी है तो हमेशा के लिए नहीं,
निद्राहीन रातें भी इसे थकाती नहीं,
बल्कि और तर-ओ-ताज़ा कर जाती हैं।

यह मज़हब हो या वह जो भी इसे जगा दे।
यह देश हो या वह जो भी इसे उठा दे।
इंसाफ भी तभी तक अपनी राह चलता है
जब तक नफ़रत इसकी दिशा नहीं बदल देती।
आपने देखा है इसका चेहरा
-- कामोन्माद की विकृत मुद्राओं वाला चेहरा।

ओह! दूसरे जज़्बात इसके सामने
कितनी कमज़ोर और मिमियाते हुए नज़र आते हैं।
क्या भाई-चारे के नाम पर भी किसी ने
भीड़ जुटाई है?
क्या करुणा से भी कोई काम पूरा हुआ है?
क्या संदेह कभी किसी फ़साद की जड़ बन सका है?
यह ताक़त सिर्फ़ नफ़रत में है।
ओह! इसकी प्रतिभा!
इसकी लगन! इसकी मेहनत!

कौन भुला सकता है वे गीत
जो इसने रचे?
वे पृष्ठ जो सिर्फ़ इसकी वजह से
इतिहास में जुड़े!
वे लाशें जिनसे पटे पड़े हैं
हमारे शहर, चौराहे और मैदान!

मानना ही होगा,
यह सौंदर्य के नए-नए आविष्कार कर सकती है,
इसकी अपनी सौंदर्य दृष्टि है।
आकाश के बीच फूटते हुए बमों की लाली
किस सूर्योदय से कम है।
और फिर खंडहरों की भव्य करुणा
जिनके बीच किसी फूहड़ मज़ाक की तरह
खड़ा हुआ विजय-स्तंभ!

नफ़रत में समाहित हैं
जाने कितने विरोधाभास --
विस्फोट के धमाके के बाद मौत की ख़ामोशी,
बर्फ़ीले मैदानों पर छितराया लाल खून।

इसके बावजूद यह कभी दूर नहीं जाती
अपने मूल स्वर से
ख़ून से सने शिकार पर झुके जल्लाद से।
यह हमेशा नई चुनौतियों के लिए तैयार रहती है
भले ही कभी कुछ देर हो जाए
पर आती ज़रूर है।
लोग कहते हैं नफ़रत अंधी होती है।
अंधी! और नफ़रत!
इसके पास तो जनाब, बाज की नज़र है
निर्निमेष देखती हुई भविष्य के आर-पार
जो कोई देख सकता है
तो सिर्फ़ नफ़रत।