Thursday 15 February 2018

चोंच जी ने कहा - सुधारूंगा या सिधारूंगा

'सांड़', 'सूंढ़', 'चकाचक', 'झंड', 'भंड' जैसे नाना प्रकार के विकालांग नामों वाले आज तो तमाम कवि सुर्खियों में रहते हैं। आज क्या, पिछले कई दशकों से। इन ऐसों-वैसों के नाम गूंजते चले आ रहे हैं और अब तो हंसोड़ जोकर और मदारी कवि के रूप में मंचों से भांड़-भंड़ैती करते रहते हैं, कथित कविता की हर लाइन पर श्रोताओं से तालियों की भीख मांगते रहते हैं, लेकिन स्वस्थ हास्य का भी एक ऐसा जमाना गुजरा है, जिस पर हिंदी साहित्य को गर्व है। हमारे वैसे ही पुरखों में एक थे हास्यकवि कांतानाथ पांडेय 'चोंच'। आज भी 'चोंच बनारसी' के नाम से उन्हें बड़े आदर के साथ याद किया जाता है। वह अत्यंत प्रतिभा संपन्न 'आशु कवि' भी थे। 'आशु कवि' यानी किसी भी परिवेश पर, किसी भी विषय पर तुरंत कविता लिख देने में निपुण। हमारे उस जमाने के पुरखा कवि सिर्फ अच्छी कविताएं ही नहीं लिखते थे, वह अपनी जीवनचर्या से भी समाज को सीख देते थे।
कवि चोंच बनारसी के साथ घटा एक अत्यंत दुखद वाकया उसका एक जीवंत साक्ष्य है। जब उन्होंने वाराणसी के हरिश्चंद्र डिग्री कॉलेज में प्रिंसिपल का पद संभाला तो उस वक्त परिसर का माहौल काफी खराब था। कोई भी समझदार अभिभावक उस कॉलेज में अपने बच्चे को पढ़ने नहीं देना चाहता था। चार्ज संभालते ही चोंचजी ने शपथ ली कि वह कॉलेज का बिगड़ा माहौल या तो सुधारेंगे, या वहां से सिधारेंगे यानी चले जाएंगे। सबसे पहला काम उन्होंने यह किया कि कॉलेज में अराजक छात्रों का एडमिशन तुरंत सख्ती से रोक दिया। इससे पूरे बनारस में हड़कंप सा मच गया। चूंकि उन दिनों काशी नगरी कवियों, साहित्यकारों का गढ़ हुआ करती थी, चोंचजी के सख्त फरमान से यह चर्चा पूरे पूर्वांचल के कवि-लेखकों के बीच भी फैल गयी। चोंचजी के दुस्साहस पर तरह-तरह की बातें होने लगीं।
कॉलेज में एक छात्र ऐसा भी था, जो बार-बार फेल होने के बावजूद गुंडई के बल पर वर्षों से वहां जमा हुआ था। किसी की हिम्मत नहीं थी कि कोई उसे कॉलेज से निकाल दे, उसे परिसर में न आने दे। जब चोंचजी का नोटिस सार्वजनिक हुआ तो वह अगले ही दिन चैंबर में बड़े ताव से आ धमका। पांव पटकते हुए उन पर खूब गुर्राया। आपे से बाहर हुआ। जान लेने की धमकी तक दे गया। लेकिन चोंचजी ने भी उसी की भाषा में उसे समझाते हुए किसी भी कीमत पर उसे प्रवेश न देने की ठान ली। इससे परिसर का माहौल काफी तनावपूर्ण हो गया। उस अराजक छात्र के जब साम-दाम-दंड-भेद, सारे जतन विफल हो गए, एक दिन उसने कॉलेज से रिक्शे पर घर लौटते समय चोंचजी पर पीछे से खूनी वार कर दिया। चाकू उनकी रीढ़ की हड्डी में लगा। घटना के बाद वह तो भाग गया, चोंच जी गंभीर रूप से घायल हो गए। उसी रिक्शे से उन्हें तुरंत अस्पताल पहुंचाया गया।
इस घटना के बाद काशी के कवि-लेखकों में रोष फैल गया। जैसे पूरा बौद्धिक वर्ग विरोध में मुखर हो उठा। हर तरफ से प्रशासन की फजीहत होने लगी। पुलिस हमलावर का पता लगाने में जुट गई। उसी दौरान पुलिस की टीम बार-बार चोंच जी के ठिकाने पर भी पूछताछ के लिए पहुंचने लगी। पुलिस चाहती थी कि हमलावर के खिलाफ पीड़ित (चोंचजी) की ओर से नामजद रिपोर्ट दर्ज करायी जाये। चोंचजी किसी भी कीमत पर छात्र का नाम बताने को तैयार नहीं ते। उनका कहना था कि गुनाह उस छात्र का नहीं, कॉलेज के माहौल का है, जिसे समय से ठीक करने का प्रयास नहीं किया गया। इसके लिए वे अभिभावक भी जिम्मेदार हैं, जिनके बच्चे कॉलेज के इतने खराब माहौल में भी अब तक पढ़ने के लिए भेजे जाते रहे हैं। आखिरकार, उस घटना के छह महीने बाद घायल चोंचजी की मौत हो गई। अंत तक उन्होंने हमलावर का नाम अपनी जुबान पर नहीं आने दिया तो नहीं ही आने दिया। चोंचजी सिधार जरूर गए लेकिन उसके बाद कॉलेज का माहौल सुधर गया।
आजकल के शिक्षकों अथवा कवि-सम्मेलनी जोकरों, मदारियों से समाज अथवा परिसरों के बिगड़ते माहौल में उस तरह की कुर्बानियों की उम्मीद करना नासमझी होगी। मंच के हंसोड़ों को तो पैसा बटोरने से फुर्सत नहीं है। जरूरत तो आज भी है चोंचजी जैसे कवि-लेखकों, शिक्षकों की, हमारे सामने हर पल। लेकिन अब वैसा साहस कहां। उसमें हम कहां हैं, कैसे हैं, किस भूमिका में हैं, बात गौरतलब लगती है। साहित्यिक सन्नाटे में आज सबसे बड़े गुनहगार वे लगते हैं, जो नई पीढ़ी को सही राह दिखाने में लापता हैं। यही वजह है कि पिछले दो दशकों में कविता की एक भी ऐसी किताब नहीं आयी है, जिसके बारे में आम पाठकों के मुंह से कुछ सुनाई पड़े। ऐसों-वैसों के बारे में खिन्नमना तीक्ष्णता से इतना भर कहा जा सकता है कि वे सिर्फ.... 'परस्परम् प्रशंसति, अहो रूपम्, अहो ध्वनिः।'

कवि-मित्र का पुत्र मोस्ट वांटेड !

मेरे एक साहित्यिक मित्र थे। वीर रस की कविताएं लिखते थे। पेशे से टीचर थे। अभी हैं लेकिन अब न कवि हैं, न मित्र हैं, न टीचर हैं। जो हैं, सो हैं। बड़ी सांसत में हैं।
मित्रता के दिनो में उन्हे जब रत्ननुमा-पुत्र की प्राप्ति हुई तो उनका पूरा गांव उल्लास में शामिल हो गया था। दूर-दूर से नाते-रिश्ते के लोग जुटे। खूब बधाइयां मिलीं। तब आजकल की तरह गिफ्टबाजी नहीं होती थी। पहुंचना, स्नेहालाप, मित्रालाप ही पर्याप्त रहता था। पेशे के चक्कर में अपना गांव-पुर, कस्बा-शहर छूटा तो उस जन्मोत्सव के दशकों बाद दोबारा उनसे मुलाकात संभव न हो सकी।
वह मुझसे उम्र में काफी बड़े थे। बड़े पूजा-पाठ, मन्नतों के बाद वह इकलौता पुत्र पैदा हुआ था। पिता की ही तरह हृष्ट-पुष्ट। अपने शिक्षक पिता की साइकिल पर आगे बैठ कर रोजाना मैंने उसे बड़ा होकर स्कूल जाते देखा था। मुद्दत बाद अपने गांव-पुर पहुंचा तो पुराने दोस्तों-मित्रों के संबंध में हाल-चाल लेने लगा। जिनसे अब तक इक्का-दुक्का निभती रही थी, उन्हीं में एक मित्र ने उस सत्तर-अस्सी के दशक वाले साहित्यिक मित्र का दर्दनाक वाकया भी कह सुनाया, आह-उह करते हुए कि अरे उन महोदय की वीर-कविताई की तो ऐसी-तैसी हो चुकी है।
संक्षिप्ततः पूर्व साहित्यिक मित्र का ताजा एक दशक का जिंदगीनामा कुछ इस तरह है। पूर्व कविमित्र का इकलौता बेटा बड़ा होकर मोस्ट वांटेड हो गया। पुलिस की टॉप टेन लिस्ट में पहले नंबर पर। पूरा इलाका कांपने लगा। थानेदार को गोली से उड़ा दिया। ठेके पर मर्डर करने लगा। गिरफ्तार होकर जेल गया तो एक डिप्टी जेलर को ठिकाने लगा दिया। इस तरह वह जिले का सबसे बड़ा गुंडा बन गया। वीररस के कवि का वीर पुत्र।
उस दिन मित्र ने बताया कि अब तो बेचारे कविजी फिरौती के पैसे ठिकाने लगाते हैं। वीरपुत्र नेता बन गया है। जेल से ही नेतागीरी करता है। वीरकवि की बहू विधानसभा चुनाव लड़ने वाली है। एक माफिया उसे टिकट दिलाने वाला है। शायद ही कभी कोई अचंभे में रो पड़ा हो। उस दिन मैं पूर्व कविमित्र की व्यथा-कथा सुन कर अचंभे से रो पड़ा था।
कितनी अच्छी कविताएं लिखते थे वह। एक देशविख्यात महाकवि के सबसे प्रिय शिष्यों में गिने जाते रहे हैं। अब अपने पुत्र की माफिया-राजनीतिक यश-प्रतिष्ठा से काफी आह्लादित रहते हैं। दूर-दूर तक नयी पीढ़ी के लोग जानते हैं कि वो फलाने सिंह के पिता हैं।
जिले के साहित्यकारों को अब कोई आंख नहीं दिखा सकता है। उनके पास सब-कुछ है, बस कविता नहीं है।