Saturday 22 June 2013

क्यों नहीं चमक सकता हिंदी किताबों का बाजार


उमेश चतुर्वेदी

विलायत में भले ही अंग्रेजी किताबों का बाजार दो से तीन फीसदी की दर से बढ़ रहा हो, लेकिन उदारीकरण के दौर के भारत में यह विकास दर 15 से 20 प्रतिशत सालाना है। एक अंग्रेजी अखबार का दावा है कि भारत में अंग्रेजी किताबों का व्यापार करीब आठ हजार करोड़ का हो गया है। यानी उदार भारत के लोगों की उदारता विलायती भाषा की तरफ तेजी से बढ़ रही है। आर्थिक दुनिया में इतना बड़ा बाजार होगा तो खबर भी होगी ही। यही वजह है कि अब अंग्रेजी प्रकाशनों की दुनिया में लोगों की नौकरियां बदलने या फिर नई जिम्मेदारी संभालने की खबरें मुख्यधारा की पत्रकारिता की बड़ी खबरें बन रही हैं। अगर डेविड दाविदार जाने-माने प्रकाशक रूपा द्वारा स्थापित एलेफ नामक प्रकाशन संस्थान के प्रमुख बनते हैं और उसकी खबर अंग्रेजी के जाने-माने अखबारों की सुर्खियां बनती है तो इसी से पता लगाया जा सकता है कि भारत में अंग्रेजी किताबों का कितना बड़ा बाजार खड़ा हो गया है। अभी तक अंग्रेजी लेखन की ही धूम की चर्चा होती थी। अमिताभ घोष, अरूंधती रॉय, विक्रम सेठ, झुंपा लाहिरी, शिव खेड़ा जैसे लेखकों के बहाने अंग्रेजी लेखन की धूम की ही चर्चा रहती थी। लेकिन अब अंग्रेजी के बढ़ते बाजार के चलते अंग्रेजी प्रकाशनों के प्रमुखों के नौकरियां बदलने और मोटे प्रस्तावों को खबर बनाया जाने लगा है। हाल ही में हार्पर कॉलिन्स के प्रबंध संपादक और राइट्स एडिटर सुगत मुखर्जी ने पिकाडोर के प्रकाशक और संपादक का दायित्व संभाला है। पिकाडोर की योजना अगले साल तक 30 शीर्षकों को प्रकाशित करना है। कुछ इसी तरह पिकाडोर की मार्केटिंग और संपादकीय प्रमुख रहीं श्रुति देव ने अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक एजेंसी ऐटकिन एलेक्जेंडर एसोसिएट्स के दिल्ली दफ्तर का कामकाज संभाल लिया है। इसी तरह अंग्रेजी की दुनिया का जाने-माने प्रकाशन संस्थान रैंडम हाउस के बारे में कहा जा रहा है कि वह भारत में अपना कारोबार बढ़ाना चाहता है। इसी तरह चिकी सरकार पेंगुइन के प्रमुख संपादक का दायित्व संभालने जा रहे हैं। इसके पहले यह दायित्व रवि सिंह के पास था, ऐसा माना जा रहा है कि रवि सिंह रूपा की नई सहयोगी कंपनी एलेफ को ज्वाइन कर सकते हैं। अंग्रेजी प्रकाशन की दुनिया में इतनी तेजी इसलिए देखी जा रही है, क्योंकि माना जा रहा है कि भारतीय लेखकों की तरफ दुनिया देख रही है। लेकिन ये भारतीय लेखक असल में अंग्रेजी के ही लेखक हैं। देसी भाषाओं के लेखकों की तरफ दुनिया का ध्यान खास नहीं है। अपने बेहतर या टुटपूंजिए संपर्कों के जरिए भारतीय भाषाओं के एक-आध लेखकों ने अंग्रेजी या पश्चिम के बाजार में दखल देने की कोशिश जरूर की है, लेकिन उनकी पहचान चींटीप्रयास से ज्यादा कुछ नहीं है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाएं बोलने वालों का विशाल इलाका होने के बावजूद उनकी पूछ और परख या बाजार में उनकी वैसी धमक क्यों नहीं बन पा रही है। कारपोरेटीकरण का हिंदी का बुद्धिजीवी समाज सहज विरोधी रहा है। उसे पारंपरिकता की दुनिया ही पसंद आती है। यात्रा बुक जैसे एक-दो प्रयासों को छोड़ दें तो हिंदी प्रकाशन में कारपोरेट संस्कृति विकसित नहीं हो पाई है। यहां अब भी लेखक की वही हैसियत है, जो श्राद्ध के वक्त दान पाने वाले ब्राह्मण की होती है। श्राद्ध पक्ष के ब्राह्मण को दान देकर जैसे दानदाता एक तरह के एहसान करने के बोध से भर जाता है, हिंदी प्रकाशन की दुनिया का अपने लेखक के प्रति भी कुछ वैसा ही हाल है। उसे लगता है कि उसने किताब छापकर लेखक पर एहसान ही किया है। हिंदी का प्रकाशक पाठकों को ध्यान में रखकर लेखक की कृति को प्रकाशित करने से कहीं ज्यादा ध्यान किताब बिकवाने या सरकारी खरीद कराने में लेखक की हैसियत पर होता है। यानी हिंदी प्रकाशन का बाजार सिर्फ और सिर्फ सरकारी या अकादमिक खरीद पर ही टिका है। पाठक से सीधे संवाद से हिंदी प्रकाशन जगत हिचकता है। ऐसे में हिंदी प्रकाशकों और उनके यहां काम करने वाले लोगों की हैसियत वैसी नहीं बन पाती, जो रैंडम, पिकाडोर या पेंगुइन के साथ ही डेविड देविदार या सुगत मुखर्जी की है। चूंकि हैसियत नहीं है, इसलिए मीडिया भी उस पर ध्यान नहीं देता और मीडिया ध्यान नहीं देता तो पाठकों तक सूचना नहीं पहुंचती और जब सूचना पहुंचेगी ही नहीं तो पाठकीयता का निर्माण कैसे होगा। सवाल तो कठिन है, इस पर विचार तो हिंदी वालों को ही करना होगा। (मीडियामीमांसा से साभार)

एक पुस्तक मेले का आंखों देखा हाल


विष्णु शर्मा

दोस्तो, मैं एक बार फिर पुस्तक मेला गया। जैसा कि मैंने कहा था हाल में घूम आया। मैंने किताबें खरीदीं भी और बिखेरीं भी। कुल मिलाकर अच्छा काम किया। 11 नंबर हाल हिंदी भाषा को समर्पित था। हिंदी के जाने माने प्रकाशक अपनी पुस्तकों के साथ यहां मौजूद थे। यदि भीड़ से सफलता को नापा जाए तो कहना होगा कि हिंदी सफल रही। हिन्दी की किताबों के प्रति लोगों का रुझान काफी अच्छा है और लोग किताबों पर पैसे खर्च कर रहे हैं।
संवाद प्रकाशन पिछले सालों के मुकाबले अधिक फैला है यानी गति पकड़ रहा है। पिछले सालों के मुकाबले उसे मेले में अधिक सम्मानित जगह मिली। वह सहज दिखा और किताबें भी अच्छी-खासी। कह सकते हैं कि आने वाले समय में संवाद मेले का एक आकर्षण बन सकता है। इसी स्टाल में हर बार की तरह एक कोना इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान लाल बहादुर वर्मा का। उनके द्वारा अनुदित बहुत सी किताबों के साथ वे अपनी बहुचर्चित दाढ़ी और लम्बे केसों के साथ वहां मौजूद। उनकी एक किताब वहां नहीं दिखी, इतिहास के बारे में। यह उनकी महत्वपूर्ण रचनाओं में से एक है। उन्होंने जॉन होलोवे की किताब 'चेंज द वर्ल्ड विदाउट टेकिंग पावर' का हिंदी अनुवाद भी किया है। इस किताब को उन्होंने नाम दिया है 'चीख'। यदि वे इस किताब को उसके असली नाम से प्रकाशित करते और नीचे पुछल्ला लगा देते 'हिंदी में' तो यह पुस्तक लोगों को और अधिक आकर्षित करती।
अपनी वामपंथी प्रतिबद्धता के लिए इतिहास के पन्नों में नाम दर्ज करा चुके गार्गी प्रकाशन के स्टॉल पर जाना पुराने दिनों को याद करने का सुनहरा अवसर रहा। गार्गी प्रकाशन ने दो साल बाद अपने गोदाम का ताला खोला था और पुरानी किताबों को बेचने के लिए कमर कस ली थी। इस प्रकाशन में नया कम और पुराना बहुत अधिक है। जैसा कि हम जानते हैं वामपंथ की महान यात्रा में रोज नए लोग जुड़ते-बिछड़ते रहते हैं इसलिए लोग वहां भी आते रहे और किताबें खरीदते रहे।
गार्गी प्रकाशन के स्टाल के ठीक सामने गीता बुक हाउस का भव्य स्टॉल। गेरूए रंग की जैकिट में हिंदू धर्म की असंख्य किताबें और उन्हें पूरी श्रद्धा से खरीदते सैकड़ों श्रद्धालु। खरीददारों का उत्साह ऐसा कि देखकर गुरुजी की आंखों से अश्रु ही टपक पड़ते। इसके साथ ही इस्लामी किताबों का भी एक स्टॉल। स्टॉल की खूबी यह कि गैर-मुसलमानों को कुरान की एक प्रति, पैगंबर मौहम्मद की जीवनी और इस्लाम पर प्रकाश डालती एक किताब मुफ्त और मुसलमान भाइयों से प्रति सेट रुपए 300 की मांग। प्रकाशक इस्लाम के बारे में गैर मजहबियों को जानकारी देना चाहते हैं। शायद उनका मानना है कि मोदी, विनय कटियार या फिर स्वामी जैसे लोग जो कहते-करते हैं वह अज्ञानतावश करते हैं और यदि वे ये किताबें पढ़ लें तो उनका ह्रदय परिवर्तन हो जाएगा।
इसके ठीक सामने ग्रंथशिल्पी का अड्डा। सफेद जैकिट वाली ढेरों किताबों की दुकान। हर बार की तरह राय साहब बहुत सी नई किताबों के साथ गप्पे लड़ाते मौजूद। यहां दर्शक तो थे, पर खरीददार नहीं। कारण कि किताबों का महंगा होना। राय साहब का भी मानना था कि शराब जितनी पुरानी हो, उतनी ही कीमती होती है और किताब पढ़ना भी तो एक नशा है।
राय साहब फैलोशिप देकर किताबें लिखवाते तो नहीं हैं, पर फोन करके अनुवाद जरूर करवा लेते हैं। किताबें भी ऐसी जिन पर रायल्टी का कोई झंझट नहीं। फिदेल कास्त्रो के भाषण, चे ग्वारा की डायरी, रोजा लुग्जंबर की किताब और नेपाल के माओवादी नेता प्रचण्ड के साक्षत्कारों का संग्रह। फिर भी राय साहब को महान हस्तियों का सम्मान करना बहुत अच्छी तरह आता है। कहने का मतलब यह कि जितना बड़ा नाम उतने ऊंचे दाम।
राजकमल प्रकाशन का स्टॉल लोगों से खचाखख। किताबें बेशुमार और लोगों के बजट में। 40-50 रुपए में भी अच्छी किताबें। सआदत हसन मंटो की संस्मरण-कृति 'मीना बाजार' और फणीश्वरनाथ रेणु की 'नेपाल क्रांति-कथा’ संग्रहणीय किताबें। इसके अलावा अन्य किताबें भी। दिलीप मंडल की 'मीडिया का अंडरवर्ल्ड' का पेपरबैक संस्करण भी पाठकों के लिए सस्ते में उपलब्ध। इससे बाहर आते ही सामने नेशनल बुक ट्रस्ट का भारतीय भाषाओं का स्टॉल। तो यह था एक पुस्तक मेले का आंखों देखा हाल।

अजित कुमार रचना संचयन


संपादनः गंगाप्रसाद विमल

अजित कुमार का रचना संचयन उनके नए-पुराने पाठकों के लिए प्रीतिकर है. वे एक साथ साहित्य सर्जक, समाज चिंतक और यशस्वी अध्यापक रहे हैं. उनका शालीन व्यक्तित्व, छात्रहितैषी स्वभाव और साहित्यिक मंचों पर उनका प्रसन्न-ह्ढांजल स्वर जहां उन्हें एक ओर विशिष्ट बनाता रहा है, वहीं आत्मीय भी. यही आत्मीयता और अंतरंगता उनकी रचनाओं में भी प्रसन्न मुखर रही है.
कभी ग्यारह पंक्तियों में उनकी बहुचर्चित कवियों का विद्रोह शीर्षक कविता साठ-सत्तर के दशक में 'परंपरा बनाम आधुनिकता' पर चले लंबे विमर्श में लगभग सभी समकालीन आलोचकों द्वारा न जाने कितनी बार उद्धृत की गई थी.
इसी तरह अपने आरंभिक और चर्चित कविता संकलनों अकेले कंठ की पुकार, अंकित होने दो, ये फूल नहीं (1958 से 1970 के बीच छपे), घरौंदा, हिरनी के लिए, घोंघे और ऊसर (1987 से 2001 के बीच छपे) में अजित कुमार अपनी कविता को निरंतर आधुनिक भावबोध के साथ वैचारिक ऊर्जा से उद्दीप्त करते रहे हैं. आत्मबोध के साथ आत्मशोध और संधान का अनुरोध भी उनकी कविताओं में स्पंदित रहता है.
वे अपनी लेखकीयता को पाठक से अलग कर कभी नहीं देखते. इसलिए उनकी बहुत-सी रचनाएं पाठकों से कहीं अधिक स्वयं को संबोधित होती हैं. इस तरह का संवाद कवि-पाठक के बीच के द्वंद्व और दूरी को हटा देता है. आ.जादी शीर्षक कविता इसी बात को एक नए प्रस्थान के साथ दोहराती हैः आज हूं कि सेवक सदा चरणों में रं/आजाद हूं कि जो भी वे कहें, वही कं/आजाद हूं कि संग-संग उनके ही बं/आजाद हूं कि सं सं सं सं सं.''
सर्जक और पाठक के बीच अनुभव का साझा कैसे होता है, उसे अजित कुमार पूरी गंभीरता से समझ्ते हैं. अनुभव का यह भाषा बंधन दोनों के बीच के अंतराल को कैसे पाटता है, यह उनकी अनिवार्यता शीर्षक कविता में उजागर हैः यह समझने, सुनाने, दिखाने के बीच/ जो अंतराल होते हैं/उन्हें भरने के लिए-कितनी ही अपर्याप्त सही/किंतु अनिवार्य है-वही अपनी/जानी-पहचानी, अंतरंग प्रिय भाषा. जिसके बाहर हम जाएं कहीं भी/वापस उसी में लौटेंगे.
इस संचयन में चयनित कविताओं की भाषा अपनी मस्ती और चुस्ती से सराबोर है और सरल-तरल होने के साथ मुहावरेदार भी है. कवि के निजी जीवनानुभव से समृद्ध कुछ आरंभिक कविताएं रोमानी हैं और इनमें दांपत्य जीवन के कुछ मधुर मोहक क्षण और अनछुए बिंब आज भी ताजे लगते हैं.
कई चीजें हैं इस संचयन में. अस्सी कविताएं, छुट्टियां उपन्यास, सुबह का सपना कहानी, कुछ निबंध, यात्रावृत्त, अंकन, संस्मरण आदि. सौ पन्नों का लघु उपन्यास छुट्टियां तो उनकी रचनाधर्मी यात्रा की अजीबोगरीब और विडंबनाओं से जुड़ी एक गाथा है. विद्रोही नामधारी एक पत्रकार के पहाड़ों की सैर के बहाने यह बेहद रोचक और रोमांचक हो गई है.
ऊलजलूल हरकतों, अयाचित पात्रों और अप्रत्याशित घटनाओं के साथ यह सफरी उपन्यास अजित कुमार की जीवंत और मुहावरेदार भाषा के कारण कभी काफी सराहा गया था. इससे एकदम उलट सुबह का सपना कहानी में नरमांस के बेचे जाने का लोमहर्षक उल्लेख है. उस कहानी पर अतियथार्थवादी (सर्रियलिस्टिक) ठप्पा लगाया जा सकता है लेकिन किसी एक मुलायम बांह के हवाले से उसका अंत उसे इतना मधुर, आत्मीय और मानवीय बना देता है कि वह दुःस्वप्न भी प्रिय लगने लगता है.
इस संचयन की ताकत है इसमें संकलित दो निबंध कविता का जीवित संसार और अकविता से कविता की ओर. जगत की गति और कविता की गति के प्रति आश्वस्त कुमार हमें भी आश्वस्ति देते हैं, जब ऋतुराज की कविता (अभी सबसे अच्छी कविता नहीं हुई) को उद्धृत करने के पहले वे कहते हैं: ''इसे मानने में क्या ऐतराज है कि हम बुरी कविता से अच्छी कविता, वहां से बहुत अच्छी कविता और उससे भी आगे सबसे अच्छी कविता के सुदूर लक्ष्य की ओर अग्रसर हो रहे हैं.''
कविवर बच्चन के संपूर्ण काव्य संसार से हमें परिचित कराने वाले अजित कुमार ने अंकित होने दो (1962) में उनसे जुड़े छह प्रसंग उकेरे हैं, जिनमें उनके व्यक्तित्व के कई पहलू देखे जा सकते हैं, विशेषकर 2 फरवरी, 1960 को हिंदी कर्मचारियों की ओर से बच्चन के सभापतित्व में मनाया गया वसंतोत्सव. लेखक ने बताया है कि बच्चन जी किसी भी कवि या रचनाकार की प्रतिष्ठा का मूल मंत्र उसकी प्रतिभा को ही मानते थेः ''लेखक के पास प्रतिभा होगी तो वह हर जगह और हर परिस्थिति में अपनी बात कहने का रास्ता निकाल लेगा. प्रतिभा है तो सब कुछ है और नहीं है तो ठेंगा.'' देवीशंकर अवस्थी पर लिखित संस्मरण संवेदना के स्तर पर अत्यंत मर्मस्पर्शी है. वे कहते हैं, ''...अक्सर मैं यह भूल जाता हूं कि इस जीवन में दोबारा वह नहीं मिलेंगे बल्कि उनकी प्रतीक्षा करता रहता हूं और कभी-कभी तो ऐसा भ्रम हो जाता है कि अपनी चिर-परिचित आवाज में...वे मुझे बुला रहे हैं.''

अकथ कहानी प्रेम की


प्रकाश के रे

प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल की बहुचर्चित किताब है अकथ कहानी प्रेम की। कबीर की कविता और उनका समय का दूसरा संस्करण आना सुखद आश्चर्य की बात है. कहानियों-कविताओं की किताबों या उपन्यासों के छपने के साल भर के भीतर बमुश्किल पुनर्मुद्रण की ज़रुरत पड़ती है. आलोचना-विमर्श की किसी किताब का पहला संस्करण अगर दो-चार साल में बिक जाये, यह बड़ी बात मानी जाती है. आम तौर पर यह धारणा है कि हिन्दी की किताबें कम बिकती हैं और यह बात काफी हद तक सही भी है. कबीर पर गंभीर विमर्श करती इस किताब के पुनर्मुद्रण की ज़रुरत छपने के सात महीने बाद ही पैदा हो जाना एक साहित्यिक घटना है. पिछले लगभग साल भर में जिस तरह से ‘अकथ कहानी प्रेम की’ पर बहस हुई है, वह भी कम अनूठी नहीं है. लेखक और प्रकाशक ने पुनर्मुद्रण की जगह दूसरा संस्करण निकलने का जो निर्णय लिया, वह स्वागतयोग्य है. प्रो अग्रवाल की नयी भूमिका पिछले महीनों की लगभग तमाम बहसों पर विचार करती है और लेखक को अपने तर्कों का सन्दर्भ देने और उन्हें स्पष्ट करने का अवसर देती है. इस भूमिका से किताब और उससे उपजी बहसों को संतुलित दायरा और सही दिशा मिलती है.
अकथ कहानी प्रेम की हमें बताती है कि कबीर अपने समय में हाशिये की आवाज़ नहीं थे. जिस तरह से विद्वानों से लेकर विद्यार्थियों तक इस किताब का स्वागत हुआ, उसको देखते हुए कहा जा सकता है कि कबीर आज भी हाशिये की आवाज़ नहीं हैं. ज़रुरत इतनी भर है कि उन्हें आँख खोल कर पढ़ा जाये. नामवर सिंह ने इसे हजारी प्रसाद द्विवेदी की किताब के बाद कबीर पर सबसे महत्वपूर्ण विमर्श माना तो अशोक वाजपेयी ने इसे कबीर का पुनराविष्कार कहा. मध्यकालीन इतिहास के विद्वान हरबंस मुखिया ने इस बात को रेखांकित किया है कि किताब साहित्य और इतिहास के साथ-साथ समाजशास्त्र, मानवशास्त्र और संस्कृति अध्ययन के स्रोतों और समझदारियों की रौशनी में कबीर और उनके समय को देखती है. ओम थानवी के अनुसार किताब आलोचना की नयी भाषा इज़ाद  करती है. फ़िल्मकार श्याम बेनेगल और पत्रकार-सामाजिक कार्यकर्ता जावेद आनंद का आग्रह है कि इस किताब को जल्दी अंग्रेज़ी और मुख्य भारतीय भाषाओं में लाना चाहिए क्योंकि जिस औपनिवेशिक ज्ञानकाण्ड के षड्यंत्र का भंडाफोड़ यह किताब करती है उसका शिकार सिर्फ़ उत्तर भारत नहीं, बल्कि पूरा भारतीय महाद्वीप रहा है. प्रो अग्रवाल ने एक से अधिक बार यह याद दिलाया है कि इस षड्यंत्र के शिकार तमाम गैर-यूरोपीय समाज रहे हैं. नए संस्करण की भूमिका में उन्होंने अफ़्रीका के अनुभवों की चर्चा की है.
भूमिका में प्रो अग्रवाल ने आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता से संबंधित सुधीर चन्द्र, डेविड लौरेंजन, वागीश शुक्ल, मदन कश्यप आदि विद्वानों द्वारा उठाये गए अवधारणा-मूलक सवालों का विस्तार से जवाब दिया है. इस बहाने भूमिका का यह हिस्सा काफी महत्वपूर्ण है. वैसे तो पुस्तक के पाठ में कोई तब्दीली नहीं की गयी गयी है लेकिन छपाई की यत्र-तत्र गलतियों को ठीक कर दिया गया है. भूमिका में लेखक ने जानकारी दी है कि प्रेमदास उतराधा के 1705 ई0 वाले गुटके में संकलित कबीर-बानी का पाठ दादू जी के प्रत्यक्ष शिष्य और प्रेमदास के दादागुरु बनवारीदास जी ने तैयार किया था. यह बात पहले संस्करण के चौथे अध्याय में तो स्पष्ट थी ही, इस संस्करण  में पहले अध्याय में भी इसे साफ कर दिया गया है. रचना-चयन में दो पद और जोड़ दिए गए हैं- जिउ जल छोड़ बाहर भइयो मीना और दूसरा-काग उड़ावत मेरी बांह पिरानी.
दूसरे संस्करण की भूमिका में लेखक के वे तेवर बरकरार हैं जो पिछले संस्करण की भूमिका और किताब के पाठ में हैं. प्रो अग्रवाल के तर्क और तेवर न सिर्फ़ आलोचना की नया कलेवर देते हैं, बल्कि उसका दायरा दूर तक बढ़ा देते हैं. इनसे प्रो अग्रवाल की उस बेचैनी का भी पता चलता है जो इस समझ से पैदा हुई है कि किस तरह हम अपने को उस दृष्टि से देख रहे रहे हैं जिसकी सृष्टि सुदूर यूरोप के सभ्यतागत स्वार्थों की सिद्धि के लिये हुई थी. यह बेचैनी तब और बढ़ जाती है जब लेखक देखता है कि हम यह जानते हुए भी इस षड्यंत्र को कितनी सहजता से लेते हैं और कई बार तो उसकी तरफ़दारी भी करते हैं. इतिहास की सतत समकालीनता का बोध करती यह किताब सभ्यता-समीक्षा की एक कोशिश है और यह सिर्फ़ इस किताब तक सीमित नहीं है- न तो लेखक के लिये और न ही हमारे लिये.

ब्राउनिंग का नाटकीय एकालाप


रॉबर्ट ब्राउनिंग (7 मई 1812- 1889 ) एक अंग्रेजी कवि एवं नाटककार थे. नाटकीय कविता, विशेषकर नाटकीय एकालापों में अतुल्य दक्षता के कारण उन्हें विक्टोरियन कवियों में अग्रणी स्थान प्राप्त है. ब्राउनिंग अपने माता पिता, रॉबर्ट और सारा एना ब्राउनिंग की पहली संतान थे और उनका जन्म लन्दन, इंग्लैंड के एक उपनगर कैम्बरवैल में हुआ. उनके पिता बैंक ऑफ इंग्लैंड में एक लिपिक थे तथा उन्हें अच्छा वेतन मिलता था. उनकी वार्षिक आय लगभग 150 पाउंड थी.[1]
ब्राउनिंग के दादा सेंट किट्स, वेस्ट इंडीज़ में एक धनाढ्य दास स्वामी थे, परन्तु उनके पिता एक उन्मूलनवादी थे. ब्राउनिंग के पिता को एक चीनी के बागान में काम करने के लिए वेस्ट इंडीज भेजा गया था. ब्राउनिंग की माँ एक संगीतकार थीं. उनकी एक बहन थी, जिसका नाम सेरीऐना था . ऐसी चर्चा आम थी की ब्राउनिंग की दादी जमैका में जन्मी एक मुलातू महिला थीं, जिन्हें विरासत में सेंट किट्स में एक बागान मिला था. (मुलातू उन लोगों को बुलाया जाता था जिनके माता-पिता में से एक ब्रिटिश और एक अफ़्रीकी मूल के हों).
रॉबर्ट के पिता ने एक पुस्तकालय का गठन किया, जिसमे लगभग 6000 किताबों का संग्रह था. इनमें से कई किताबें दुर्लभ थीं. इस प्रकार रॉबर्ट का पालन पोषण एक साहित्यिक संसाधनों से भरे घर में हुआ. उनकी माँ, जिनके वे बहुत निकट थे, बड़े विद्रोही स्वभाव की थीं. साथ ही वे एक प्रतिभा संपन्न संगीतकार भी थीं. उनकी छोटी बहन सारिऐना भी बहुत प्रतिभाशाली थी. बाद के वर्षों में वही ब्राउनिंग की सहयोगी बनी. उनके पिता ने साहित्य और ललित कलाओं में उनकी रूचि बढ़ाई.
बारह वर्ष की आयु होने तक ब्राउनिंग ने कविताओं की एक पुस्तक लिख डाली थी, परन्तु कोई प्रकाशक ना मिलने के कारण उसे स्वयं ही नष्ट कर दिया. ब्राउनिंग ने कई प्राइवेट विद्यालयों में दाखिला लिया परन्तु उन्हें संस्थागत शिक्षा से अरुचि होती गयी. तत्पश्चात उन्होंने घर पर ही एक अध्यापक से अध्ययन करना उचित समझा.
ब्राउनिंग एक मेधावी छात्र थे और चौदह वर्ष की आयु में वे धाराप्रवाह फ्रेंच, ग्रीक, इटालियन और लैटिन बोलने लगे थे. वे रोमांटिक कवियों, खासकर शेली के विशेष प्रशंसक थे. शेली का ही अनुसरण करते हुए वे नास्तिक और शाकाहारी बने, परन्तु बाद में दोनों को त्याग दिया. सोलह वर्ष की आयु में उन्होंने लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज में प्रवेश लिया, लेकिन पहले वर्ष के बाद ही छोड़ गए. उनकी माँ एक प्रखर एवंजेलिकल निष्ठा वाली महिला थीं, जिसके कारण वे कैम्ब्रिज या ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अध्ययन करने नहीं जा सके. उस समय ये दोनों संस्थान इंग्लैंड के चर्च के सदस्यों के लिए ही खुले थे. उनमें संगीत का भी अच्छा कौशल था, तथा उन्होंने कई गीतों की संगीत संरचना की.
1845 में ब्राउनिंग की भेंट एलिज़ाबेथ बैरेट से हुयी, जो विम्पोल स्ट्रीट में अपने पिता के घर में एक अर्ध-मान्य संतान की तरह रहती थीं. समय के साथ दोनों के बीच गहन प्रेम हो गया. 12 सितम्बर 1846 को उन्होंने गुप्त विवाह किया और घर से भाग गए. प्रारम्भ में उन्होंने अपना विवाह गुप्त रखा क्योंकि एलिज़ाबेथ के पिता अपने किसी बच्चे के विवाह की स्वीकृति नहीं देते थे. विवाह के बाद से ही युवा ब्राउनिंग दंपत्ति इटली में रहे, पहले पीसा में और फिर उसी वर्ष कासा गिड्डी (casa guidi), फ्लोरेंस अपने नए अपार्टमेन्ट में. (यह स्थान उनकी याद में अब एक संग्राहलय है).
चितला टोहिया हेमलिन से बाहर बच्चों को ले जाता है. रॉबर्ट ब्राउनिंग संस्करण के लिए केट ग्रीनवे द्वारा इस कथा में चित्रण किया गया है.
उनका इकलौता पुत्र, रॉबर्ट विएडमन बैरेट ब्राउनिंग 1849 में पैदा हुआ. उसका उपनाम उन्होंने "पैनिनी" या "पैन" रखा. इन वर्षों में ही ब्राउनिंग पर इटली की कला और सभ्यता का गहन प्रभाव हुआ तथा उन्होंने यहाँ बहुत कुछ सीखा. बाद के वर्षों में वे कहते नहीं थकते थे कि "इटली ही मेरा विश्वविद्यालय था". ब्राउनिंग ने वेनिस के निकट वेनेटो क्षेत्र के असोलो गाँव में भी एक घर खरीदा था परन्तु विडम्बना यह रही की जिस दिन उनको इस खरीद की नगर कौंसिल से अनुमति मिली, उसी दिन उनकी मृत्यु हो गयी.[2] उनकी पत्नी का देहावसान 1861 में हुआ.
ब्राउनिंग की कविताओं को साहित्य के पारखी तो प्रारम्भ से ही जानते थे परन्तु जन साधारण में एक कवि के रूप में वे केवल अपने मध्य वर्षों में जा कर ही प्रसिद्ध हो पाए. (उस सदी के मध्य में कवि टेनीसन अधिक ख्यातिप्राप्त थे) फ्लोरेंस में ब्राउनिंग ने जो कवितायें लिखीं वो अंततः मैन एंड वूमन नाम से दो खण्डों वाले संग्रह के रूप में प्रकाशित हुयीं. इन किताबों के लेखक के रूप में आज ब्राउनिंग जाने जाते हैं, परन्तु 1865 में जब ये छपी थी तब इनका नाम मात्र भी प्रभाव नहीं हुआ था. 1861 में अपनी पत्नी की मृत्यु के उपरांत जब वे लन्दन लौट आये और साहित्य सभाओं में सम्मिलित होने लगे, तब उनकी प्रतिष्ठा में वृद्धि होने लगी. 1868 में, पांच साल के कार्य के बाद, उन्होंने एक लम्बी ब्लैंक वर्स कविता द रिंग एंड द बुक प्रकाशित की, जिसके बाद उन्हें उचित सम्मान और स्थान प्राप्त हुआ. यह कविता 1690 में रोम में हुई एक जटिल ह्त्या के मामले पर आधारित है. बारह पुस्तकों के रूप लिखी गयी इस कविता में से दस में कहानी के विभिन्न पात्रों द्वारा घटनाओं का अपने-अपने दृष्टिकोण से वर्णन किया गया है. शेष दो में परिचय और निष्कर्ष वर्णित हैं. यह कविता ब्राउनिंग के स्वयं के मानदंडों के अनुसार भी अत्यधिक लम्बी है (20,000 पंक्तियों से अधिक), द रिंग एंड द बुक उनकी सर्वाधिक महत्वाकांक्षी परियोजना थी. नाटकीय कविताओं में इसे टूर द फ़ोर्स (अद्वितीय सृजनात्मक एंड प्रभावशाली कार्य) का दर्जा दिया गया है. नवम्बर 1868 से फरवरी 1869 के बीच यह संग्रह अलग-अलग चार खण्डों में प्रकाशित हुआ, तथा व्यावसायिक और समीक्षात्मक दोनों पक्षों में अत्यधिक सफल रहा. अंततः इस संग्रह ने ब्राउनिंग को वह ख्याति दिलाई जिसकी तलाश उन्हें पिछले चालीस वर्षों से थी और जिसके वे योग्य थे.
रॉबर्ट ब्राउनिंग और एलिजाबेथ ने अपना प्रेम और विवाह गुप्त रखा. ब्राउनिंग से छह वर्ष बड़ी और दुर्बल एलिज़ाबेथ के लिए यह विश्वास करना कठिन था की खूबसूरत और उत्साही ब्राउनिंग उनसे वास्तव में उतना प्रेम करते हैं जितना वे कहते हैं. उन्होंने अपनी कविता सोंनेट्स फ्रॉम दा पॉर्चुगीज़ में अपना यही संदेह व्यक्त किया है. यह कविता उन्होंने अगले दो साल में पूरी की. अंततः प्रेम ने सब संदेहों और मुसीबतों पर विजय हासिल की तथा ब्राउनिंग एवं एलिज़ाबेथ ने सेन्ट मैरिलबोन पैरिश चर्च में गुप्त विवाह कर लिया. ठीक अपने हीरो शेली के पदचिन्हों पर चलते हुए, 1846 में ब्राउनिंग एलिजाबेथ को इटली ले आये, जो जीवनपर्यंत उनका घर बना. एलिजाबेथ की वफादार नर्स, विल्सन, जो चर्च में शादी की साक्षी बनी, उनके साथ इटली आ गयी और उनकी सेवा करती रहीं.'
एलिज़ाबेथ के पिता श्री बैरेट ने एलिज़ाबेथ को अपनी संपत्ति से बेदखल कर दिया. ऐसा उन्होंने अपने उन सभी बच्चों के साथ किया जिन्होंने विवाह करने का दुस्साहस किया. "लोकप्रिय कल्पना में श्रीमती ब्राउनिंग एक मृदु स्वभाव, अबोध नवयुवती थी जिन्हें एक अत्याचारी पिता के हाथों में अंतहीन क्रूरताओं का सामना करना पड़ा, परन्तु भाग्य से जिन्हें सुन्दर और तेज रॉबर्ट ब्राउनिंग नामक कवि का प्रेम और सान्निध्य प्राप्त हुआ. अंततः वे विम्पोल स्ट्रीट के अँधेरे जीवन से भाग कर इटली पहुँच गयीं और वहाँ जीवनपर्यंत हर्ष और उल्लास के साथ रहीं."[3]
एलिजाबेथ को कुछ पैसा विरासत में मिला था, इसलिए वे दोनों इटली में आराम से रहते थे. पति-पत्नी के रूप में उनका रिश्ता संतोषजनक था. ब्राउनिंग दंपत्ति की इटली में बड़ी ख्याति थी और इसी कारण से लोग उन्हें राह चलते रोक लेते थे या उनसे ऑटोग्राफ़ माँगा करते थे. एलिजाबेथ ने स्वास्थ्य लाभ किया और 1849 में, 43 वर्ष की आयु में, उन्होंने एक बेटे, रॉबर्ट वीदमैन बैरेट ब्राउनिंग को जन्म दिया, जिसे वे पैन कहते थे. उनके बेटे ने बाद में विवाह किया पर उसकी किसी वैध संतान का कोई ज्ञान किसी को नहीं है. सुनने में ऐसा भी आता है कि फ्लोरेंस के आसपास के क्षेत्र उनके वंशजों से भरे हुए हैं.
ब्राउनिंग के कई आलोचकों का मानना है कि उन्होंने यह निश्चय किया था की वे एक 'निष्पक्ष (objective) कवि' हैं, और फिर वे एक 'व्यक्ति-निष्ठ (subjective) कवि' की खोज करने लगे ताकि उसके साथ विचार-विमर्श कर के वे अधिक सफल बन पायें.[4] ' अपने पति के आग्रह पर एलिजाबेथ ने अपनी कविताओं के दूसरे संस्करण में लव सौनेट्स को भी शामिल कर दिया. इन सौनेट्स ने एलिज़ाबेथ को प्रसिद्धी और समीक्षकों की प्रशंसा दिलाई. तत्पश्चात वे एक प्रमुख विक्टोरिन कवयित्री के रूप पर उभरीं. 1850 में विलियम वर्डस्वर्थ की मृत्यु के बाद वे पोएट लौरिएट की प्रमुख दावेदार थीं परन्तु यह सम्मान एल्फ्रेड टेनिसन को मिला.'
अपने जीवन के शेष वर्षों में ब्राउनिंग ने काफी यात्रा की. पिछले कुछ समय में ब्राउनिंग के बाद के वर्षों में किये गए कार्य की पुनः समीक्षा की जा रही है. अपनी काव्यात्मक गुणवत्ता और मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि के लिए ये कार्य पाठकों में अत्यंत लोकप्रिय हैं. 1870 के प्रारम्भ में लम्बी कविताओं की एक श्रृंखला छपने के बाद, जिसमें फीफाइन एट द फेयर और रेड कॉटन नाईट-कैप कंट्री को सर्वाधिक प्रशंसा मिली, ब्राउनिंग फिर से छोटी कवितायें लिखने लगे. पेचिअरोत्तो एंड हाउ ही वर्क्ड इन डिसटैम्पर में ब्राउनिंग ने अपने आलोचकों के खिलाफ द्वेषपूर्ण वार किया, विशेषकर पोएट लौरीएट अल्फ्रेड ऑस्टिन के विरुद्ध.
कुछ रिपोर्टों के अनुसार, ब्राउनिंग का लेडी एशबर्टन के साथ रोमांस चला, परन्तु उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया. 1878 में वह एलिजाबेथ के निधन के बाद सत्रह साल में पहली बार इटली लौटे, और उसके बाद कई अवसरों पर इटली आये.
उनके काम की सराहना के लिए 1881 में ब्राउनिंग सोसाइटी की स्थापना की गयी.
1887 में, ब्राउनिंग ने अपने बाद के वर्षो का एक महत्त्वपूर्ण कार्य, पार्लेइंग्स विद सर्टेन पीपल ऑफ इम्पौरटैंस इन देयर डे प्रस्तुत किया. इस कार्य में अंततः ब्राउनिंग खुद अपनी आवाज़ में कुछ भुलाए जा चुके कवियों, दार्शनिक इतिहासकारों और कलाकारों से संवाद करते हैं. एक बार फिर से, विक्टोरियन जनता वह पढ़ कर उनकी कायल हो गयी. इसके बाद ब्राउनिंग फिर से छोटी कवितायें लिखने लगें जो उनके अंतिम वोल्यूम असोलैंडो (1889) में प्रकाशित हुई.
उनका निधन 12 दिसम्बर 1889 को वेनिस में उनके पुत्र के घर का'रेजोनिको (Ca'Reezzonico) में हुआ. उसी दिन असोलान्दो प्रकाशित हो कर आई थी. उन्हें वेस्टमिन्स्टर एब्बी में पोएट्स कॉर्नर में दफनाया गया, जहाँ अल्फ्रेड टेनिसन की मज़ार भी उनके निकट ही है.
आज ब्राउनिंग की ख्याति मुख्यतः उनके नाटकीय एकालापों की वजह से है, जिसमें शब्द न केवल परिदृश्य का वर्णन करते हैं, बल्कि वक्ता के चरित्र को भी प्रकट करते हैं. ब्राउनिंग के ये नाटकीय एकालाप स्वभाषणों से भिन्न हैं. इनमें वक्ता प्रत्यक्ष रूप से अपना पक्ष नहीं रखता अपितु परोक्ष रूप में बिना इस प्रति प्रयास किये जो वह प्रकट कर जाता है, वही उसका वास्तविक ध्येय होता है. इस माध्यम से वह अपने क्रिया कलापों को कविता में निहित उस प्रछन्न परीक्षक के सम्मुख न्यायसंगत सिद्ध कर जाता है. अपने पक्ष को प्रत्यक्ष शब्दों में कहे बिना वह पाठक को अपना पक्ष समझन को बाध्य कर देता है. ब्राउनिंग अपने काव्य में सर्वाधिक अधम और मनोरोगी अपराधियों को पेश करते हैं, जिसका मकसद होता है पाठक के मन में उन पात्रों के प्रति सहानुभूति पैदा करना. हालाँकि वे चरित्र इसके योग्य नहीं होते, परन्तु ऐसा पाठक को उकसाने के लिए लिखा जाता है ताकि वह एक हत्यारे व मनोरोगी को न चाहते हुए भी निर्दोष मानने को बाध्य हो जाएँ. उन का एक
'माय लास्ट डचेस ' ब्राउनिंग के बहुचर्चित एकालापों में से एक है. इसमें प्रत्यक्ष रूप में तो मुख्य पात्र ड्यूक सभ्य व कुलीन है, तथा उसके संवाद भी एक संभ्रांत व्यक्ति के अनुकूल ही हैं. परन्तु एक प्रबुद्ध व सचेत पाठक को यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि इस ऊपरी सभ्यता व संभ्रांत शब्दों के परोक्ष में एक विक्षिप्त दिमाग काम कर रहा है. शीघ्र ही पाठक को यह ज्ञात हो जाता है की डचेस की हत्या बेवफाई के कारण नहीं की गयी, न ही इस कारण कि वह छोटी घटनाओं से प्रसन्नता प्राप्त कर लेती थीं, और अंत में न ही इस लिए की गयी की वह ओहदे के लिए उचित कृतज्ञता नहीं प्रकट कर पायीं. ड्यूक का घमंडी और अमानवीय मन यह तक स्वीकार नहीं कर पाता था कि उसे अपनी पत्नी को एक डचेस की तरह व्यवहार करने के लिए कहना पड़ता था. उसे यह भी अपनी झूठी शान के विपरीत लगता था. इस घमंड के कारण डचेस ड्यूक की पेंटिंग व पुतलों के संग्रह का एक कलात्मक हिस्सा मात्र बन कर रह गयीं. एक अन्य एकालाप फ्रा लिप्पो लिप्पी में ब्राउनिंग एक अरुचिकर और अनैतिक चरित्र का प्रयोग करते हैं और पाठकों को चुनौती देते हैं कि वे उस चरित्र की वह खूबियाँ ढूंढ कर बताएं, जिन्हें ढूँढने में उस समय के न्यायधीशों को भी पसीना आ जाए. रिंग एंड द बुक ब्राउनिंग का एक महाकाव्य है. इसमें एक हत्या के केस के चरित्रों द्वारा बोले गए 12 रिक्त वर्स एकालापों के माध्यम से वे इश्वर के मानव के प्रति प्रेम की विवेचना करते हैं. इन एकालापों ने बाद के कई कवियों को काफी प्रभावित किया जिनमें से टी. एस. इलीअट और एजरा पाउंड प्रमुख हैं. एजरा पाउंड तो ब्राउनिंग की सोर्देलो नामक कविता, जो तेहरवीं शताब्दी के एक असफल व निराश कवि की विकृत मानसिकता का वर्णन है, के विषय में अपनी कविता कैन्तोस में यहाँ तक कह डाला कि ब्राउनिंग के इस संग्रह से इतने प्रभावित हैं कि इससे दूर रहना कठिन हो रहा है .
ध्यान देने योग्य बात यह है कि ब्राउनिंग की जिस शैली को विक्टोरियन पाठकों ने आधुनिक और प्रयोगात्मक माना, वह वास्तव में सत्रहवी शताब्दी के कवि जॉन डन की शैली से प्रभावित है. डन कविता के आकस्मिक प्रारम्भ, आम बोल चाल के शब्दों के प्रयोग और अनियमित लय ताल के लिए प्रसिद्ध थे. ब्राउनिंग परसी शेली के अवरोही प्रशंसक रहे और इसलिए वे सत्रहवी शताब्दी के आत्म केन्द्रित कवियों के द्वारा प्रयोग किये गए मिथ्या दंभ, कटाक्ष और अनुचित शब्द-वाक् युद्ध से दूर रहे. उनमें आधुनिक संवेदनशीलता है और वे अपने एक चरित्र के उस मासूम कथन 'इश्वर स्वर्ग में है; धरती पर सब ठीक है." के विरुद्ध उठने वाले प्रश्नों से भली भांति अवगत हैं. ब्राउनिंग इस कथन का समर्थन करते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि वह सर्वशक्तिमान इश्वर उस उत्कृष्ट स्वर्ग में रहने के बावजूद सांसारिक प्रक्रियाओं से दूर नहीं है और जीवन में आनंद के प्रचुर अवसर व कारण हैं.
7 अप्रैल 1889 को ब्राउनिंग के एक मित्र कलाकार रूडोल्फ लेहमैन के घर पर आयोजित एक रात्रिभोज के समय, एडिसन के ब्रिटिश प्रतिनिधि जॉर्ज गूराड ने व्हाईट वैक्स सिलेंडर पर एक एडिसन सिलेंडर फोनोग्राफ रेकॉर्डिंग की. इस रेकॉर्डिंग में, जो आज भी सुरक्षित है, ब्राउनिंग ने अपनी कविता "हाउ दे ब्रौट दा गुड न्यूज़ फ्रॉम घेंट टू एक्स" के कुछ हिस्से पढ़ कर सुनाये हैं (कविता के कुछ अंश भूलने पर उन्हें क्षमा मांगते हुए भी सुना जा सकता है)[5] जब 1890 में उनकी मृत्यु की वर्षगाँठ पर यह रिकॉर्डिंग उनके प्रशंसकों के मध्य बजाई गयी, तो लोगों ने ऐसा कहा कि "पहली बार किसी की आवाज़ उसकी कब्र के परे से भी सुनाई दी". (विकीपीडिया से साभार)

हम बच्चे ज्यादा, किताबें कम पैदा करते हैं- गुलजार

हिंदी-उर्दू के जाने माने कवि-लेखक और मशहूर फिल्मकार गुलजार लगभग एक दशक पहले 'पटना पुस्तक मेला' में सबके आकर्षण का केंद्र बने हुए थे। यहां राज्य विधान परिषद् के परिसर में आयोजित 'बाल संसद' को भी उन्होंने संबोधित किया था। उसी दौरान गुलजार के साथ बीबीसी की लंबी बातचीत हुई थी। लेकिन दुर्भाग्यवश उस भेंटवार्ता का मात्र छोटा-सा अंश एक रूटीन-रिपोर्ट के तहत प्रसारित हो पाया था। इस कारण काफी दुखी मन से बीबीसी ने पूरी रेकॉर्डेड भेंटवार्ता को सहेज कर रख लिया था ताकि बाद में भी कभी सुनकर इसकी प्रासंगिकता का अनुभव श्रोता और पाठक कर सकें। इस बातचीत में बच्चों और किताबों को लेकर जाहिर की जा रही चिंताओं के अलावा हिंदी भाषा और साहित्य के बदलते रंग-ढंग पर उठ रहे सवालों के प्रति भी गुलजार का अपना खास नजरिया उभर कर सामने आया है।
किसी सवाल पर सहमति या असहमति जाहिर करते समय गुलजार अपने रोचक शब्द- प्रयोग और अपनी खनकती उर्दू जबान की मदद लेने से नहीं चूकते।
मसलन, एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, 'जिंदगी के साथ जद्दोजहद और जिंदगी का रस लेना, वही जिंदा रखता है। तब्दीलियां, परेशानियां हर दौर की अपनी होती हैं। इसको हौसले के साथ स्वीकार करना ही वक्त के साथ चलना है। क्योंकि वक्त तो बहता रहेगा। कितने आपके एंटिनाज खुले हैं और कितना आप जिंदगी के साथ ब्रश कर सकते हैं, वो आप की अपनी सेंसिटिविटी है।'
जब बच्चों के लिए विभिन्न विधाओं के रचना- क्षेत्र में उदासीनता की बात चली तो गुलजार खासे संवेदनशील हो उठे। वह कहने लगे, 'किसी भी भाषा में बच्चों के लिए काम नहीं हो रहा। मैं तो यही कहूंगा कि (लम्बी सांसें खींचते हुए) हम बच्चे ज्यादा पैदा कर रहे हैं, किताबें कम। जबकि होना उल्टा चाहिए।'
बोलचाल की भाषा (उर्दू-अंग्रेजी मिश्रित) हिंदी में हो रहे आज के लेखन या प्रसारण की उन्होंने खूब हिमायत की। टेलीविजन के अधिकांश कार्यक्रमों को उन्होंने सतही बताया और कहा, 'बदकिस्मती की बात है कि टेलीविजन पर लिटरेचर पैदा नहीं हो रहा। जो आज के दौर के सतही एप्रोच को एक्सपोज करता है।'
सबसे दिलचस्प टिप्पणी उन्होंने शायरी के बीते दौर और इस बाबत आज के बदले हुए नजरिए के बारे में की। गुलजार ने कहा, 'देयर इज मच मोर विद द फीमेल, मतलब जुल्फ, लब, आंख और रुखसार के आगे भी है एक औरत। कितने लोगों ने इस पर लिखा? ये आज की जेनरेशन लिखती है और मैं इनसे सहमत हूं।'  (BBC)

क्या हम सभ्य हो रहे हैं ?


सतीश पेडणेकर

स्टीवेन पिंकर जब जयपुर लिटरेरी फेस्टीवल में भाग लेने आए थे तो उन्होंने अपने भाषण में जो कहा उसका लब्बोलुबाब यह था कि आदमी अब इंसान बनता जा रहा है। भयानक हिंसक युद्ध पहले से कम हो गए हैं और इसके साथ समाज में हिंसा कम होती जा रही है। उनका यह दावा नया नहीं है। उन्होंने अपनी बहुचर्चित पुस्तक – द बेटर एजिंल्स आफ अवर नेचर-व्बाय वायलेंस इज डीक्लाइंड- में भी यही दावा किया है। उससे चौंकानवाली बात यह है पिंकर इसके लिए तीन कारकों के त्रिकोण को कारणीभूत मानते हैं वे हैं –मुक्त अर्थव्यवस्था, लोकतंत्र और बाहरी विश्व से रिश्तें। जो लोग बुर्जुआ समृद्धी को पाने की आकांक्षा रखते हैं और मुक्त व्यापार को महत्वपूर्ण मानते हैं वे उन लोगों को मारने के प्रवृत्त नहीं होते जिनके साथ वे व्यापार कर सकते हैं।
स्टीवन पिंकर की युद्ध और हिंसा कम होने की बात को पचा पाना थोड़ा मुश्किल ही है। खून, ह्त्या, बलात्कार ,रोडरेग, नरसंहार, गृहयुद्ध, युद्ध और आंतकवादी हमले – हर अखबार या चैनल पर इस तरह की खबरें देखने को मिल जाती हैं और इन्हें देखकर पहली प्रतिक्रिया यही होती है कि आदमी दिनोंदिन ज्यादा हिंसक और क्रूर होता जा रहा है। इस दुनिया में जीना मुश्किल हो गया  है। किसी बड़े बूढ़े से पूछेंगे तो कहेगा कि कलयुग है घोर कलयुग। लेकिन  इस समय में कोई आपसे यह कहे कि यह कलयुग नहीं सतयुग की शुरूआत है. दुनियां दिनोंदिन बेहतर बनती जा रही है तो आप कहेंगे कि ऐसा तो कोई पागल ही कह सकता है। लेकिन इन दिनों मंदी, पर्यावरण विभीषिका के दौर में अमेरिका और यूरोप में धड़ाधड़ ऐसी किताबें छप रही जिनमें आंकड़ों और तथ्यों के साथ यह दावा किया जा रहा है कि हकीकत वह नहीं है जो हमें नजर आ रही है। आदमी पहली बार इंसान बन रहा है। दुनियां स्वर्ग भले ही न बनी हो पहले से कहीं बेहतर हो गई है और लगातार बेहतर बनती जा रही है। अब युद्धों में पहले जितने लोग नहीं मर रहे, हत्या, बलात्कार, घरेलू हिंसा में कमी आई है। स्वास्थ्य में सुधार हुआ है इसलिए लोगों के जीवन की संभाव्यता में भारी वृद्धि हुई है। यह सब आंकड़ो और तथ्यों के आईने में अपकों दिखा दिया जाए तो आपकों मानना पड़ेगा।
इन दिनों पश्चिमी देशों में आज की दुनिया के बारे में ऐसी आशावादी तस्वीर प्रस्तुत करनेवाली पुस्तकों की बाढ़ आई हुई है। इनमें सबसे चर्चित पुस्तक है स्टीवेन पिंकर की –द बेटर एजिंल्स आफ अवर नेचर-व्बाय वायलेंस इज डीक्लाइंड। इस पुस्तक में पिंकर ने एक बहुत सनसनीखेज दावा किया है कि मध्य पूर्व में आतंकवाद, सूड़ान में नरसंहार और सोमालिया में गृहयुद्ध से कराहती 21वी सदी मानवीय इतिहास की सबसे कम हिंसक और दरिंदगी वाली सदी है। न केवल हत्याएं वरन यातना, गुलामी, घरेलू हिंसा, नफरतजन्य अपराध पहले की तरह बहुत आम नहीं रहे। हालांकि वे स्वयं मानते हैं कि उनके दावे को लोग आसानी से हजम नहीं कर सकते क्योंकि हमें हिंसा के इतने सारे उदाहरण रोज देखने को मिल जाते हैं और हमारी आंखे धोखा खा जाती हैं क्योंकि हम याद उदाहरणों के आधार पर हम संभाव्यताओं का हिसाब लगाते हैं। हमारे पास हर तरफ से हिंसा की खबरें आती हैं। और हम समझते हैं हत्या, बलात्कार, कबीलाई युद्ध और आत्मघाती हमलावर सब हमारे आसपास घूम रहे हैं।
पिंकर की यह भी दलील है कि हमने हिंसा की परिभाषा को भी विस्तार दिया है। कुछ दिनों पहले राष्ट्रपति ओबामा ने बुलिइँग की आलोचना करते हुए भाषण दिया 40 साल पहले लोगों को यह बात अजीब लगती। मृत्युदंड का विरोध, घरेलू हिंसा में पुलिस का हस्तक्षेप ये सब –महान नैतिक उपलब्धियां – हैं। लेकिन इसके साथ पिंकर यह टिप्पणी करना नहीं भूलते इनकी वजह से ही यह धारण भी बनती है कि हिंसा बहुत व्यापक तौर पर फैली हुई है। हम सोचते हैं कि हालात बिगड़ रहे हैं लेकिन असल में हमारी संवेदनशीलता बढ़ गई है और उसका दायरा व्यापक हुआ है।
अपनी दलील की सत्यता को साबित करने के लिए पिंकर आंकड़ों, तथ्यों, तालिकाओं का अंबार लगा देते हैं। थामस हाब्स के जुमले का हवाला देते हैं कि जीवन बहुत खराब, क्रूरतापूर्ण और छोटा था। आंकड़े बताते हैं कि एक आदमी के दूसरे आदमी के हाथों मारे जाने की संभावना बहुत ज्यादा यानी 60प्रतिशत तक थी। यह संभाव्यता 20वी सदी के यूरोप और अमेरिका की तुलना में 50गुना ज्यादा थी। बीसवी सदी वह सदी थी जब यूरोप में दो विश्वयुद्ध भी हुए। यदि कबीलाई युद्धों के काल की मृत्यु दर बीसवी सदी में भी होती तो दस करोड़ लोगों की मौत नहीं दो अरब लोगों की मौत होती।
जब पिंकर से यह सवाल किया जाता है कि पिछली सदी में इतनी हिंसा और युद्ध हुए ऐसे में कोई उनकी बात पर विश्वास कैसे कर सकता है. इसके जवाब में उनका तर्क होता है कि पिछली सदियों के पूरे आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन तब हुई मौतों के बारे में वर्तमान के अनुमानों के आधार पर जब उस समय की जनसंख्या के आधार पर गणना की जाती है तो कम से कम 10 में से 9 अपराधों के मामलों में तो द्वितीय विश्व की तुलना में भी बुरी स्थिति थी। फिर एक सदी तो सौ वर्षों की होती है उसके हिसाब से तो पिछली सदी का पूर्वार्ध भले ही युद्धों और हिंसा से सराबोर रहा हो लेकिन बाद के पचास साल तो शांति का लंबा कालखंड रहा है जिसमें कम युद्ध हुए हैं।
विचारधारा और धर्मों के आधार पर हुए हत्याकांड़ों के बारे में भी वे काफी चौंकानेवाले आंकड़े पेश करते और उसकी बहुत मौलिक तरीके से व्याख्या करते हैं। वे मैथ्यू व्हाइट की पुस्तक – द बिग बुक आफ होरीबल थिंग्स - के हवाले से बताते हैं कि धर्म 100 सामूहीक हत्याओं में से 13 यानी 4 करोड और 70 लाख हत्याओँ के लिए दोषी है। जबकि साम्यवाद 100 में से छह मगर छह करोड़ 70 लाख हत्याओं के लिए दोषी है। वे कहते हैं कि धार्मिक लोग चाहें तो इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि धर्म के नाम पर कम हत्याएं हुईं लेकिन यह कोई बहुत अचछा तर्क नहीं है क्योंकि धर्म के नाम पर हत्याएं ऐसे समय हुई जब विश्व की आबादी बहुत कम थी। मसलन धर्मयोद्धाओं ने 10 लाख लोगों की हत्या तब की जब विश्व की आबादी 40 कोरड थी। उनकी यह नरसंहार की दर नाजी नरसंहार की तुलना में ज्यादा है। इस आधार पर वे इस दलील को गलत ठहराते हैं कि धर्मों की तुलना में सेकुलर विचारधारा के लोगों ने ज्यादा हिंसा की और खून बहाया। उनका कहना है कि जब हिंसा के इतिहास का सवाल आता है तब मुख्य फर्क धार्मिक या अधार्मिक व्यवस्थाओं का नहीं होता यूटोपियाई और दुष्प्रचार पर आधारित विचारधाराओं फासिज्म, कम्युनिज्म और धार्मिक शासनों या सेकुलर और लिबरल लोकतंत्रों के बीच  होता है जो मानव अधिकारों की संकल्पना पर आधरित होते हैं। वे राजनीतिशास्त्री रूडोल्फ रूमेल द्वारा दिए आंकड़ों क आधार पर कहते हैं कि लोकतांत्रिक व्यव्सथा अन्य वैकल्पिक शासन प्रणालियों की तुलना में कम हत्यारी है।
लेखक इस पुस्तक में दो तर्क मुख्यरूप से आते हैं कि पहला कि अतीत जितना हम सोचते हैं उससे ज्यादा हिंसक और कष्टदायक था। जबकि वर्तमान जितना हम सोचते हैं उससे ज्यादा शांतिपूर्ण और कम हिंसक है। वे बुनियादी तैर पर उन विचारकों में से हैं जो यह मानते हैं कि इतिहास प्रगति की गाथा है। इसलिए ही उन्होंने पुस्तक को नाम दिया है –बैटर एंजिल्स आफ अवर नेचर- यह जुमला उन्होंने अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के 150 वर्ष पुराने भाषण से लिया है। उनकी यह दृढ़ मान्यता है कि मानवीय सभ्यता ने अपनी यात्रा के हर चरण में  हिंसा की एक परत को निकाल फेंका है। फिर वह चाहे घूमंतू जातियों की एक स्थान पर बसने और ज्यादा सुरक्षित होने की की प्रवृत्ति हो या राज्य का व्यवस्था स्थापना का मिशन जिसके तहत वह युद्धों और हथियारों पर एकाधिकार कायम करता है। इसके बावजूद छिटपुट हिंसा के बजाय युद्धों का ही इतिहास में हिंसक मौतों का ज्यादा योगदान रहा है। इतिहास में मुख्यरूप से तीन तरह के संघर्ष रहे हैं – गृहयुद्ध, कबीलाई और राजनीतिक समूहों के संघर्ष, और अब आतंकवाद। इसके बावजूद प्राचीन काल से मानवता के लिए अभिशाप रहे इन युद्धों पिछले दो दशकों में लक्षणीय कमी आई है जिसे वे नई शांति कहते हैं। राज्य के द्वारा संचालित संघर्ष दो विश्वयुद्धों में अपने चरम पर पहुंच गए लेकिन बाद में उनके लगतार उनमें गिरावट आ रही है। वे यह भी बताते हैं कि बीसवी सदी के तीन प्रमुख हत्यारे थे हिटलर, स्तालिन और माओ जिन्होंने बडे पैमाने पर नरसंहार किए। इसमें नई तकनालाजी ने उनकी काफी मदद की। परिवहन के तेज गतिवाले साधनों ने उन्हें अपने शिकारों को बड़ी संख्या में निर्जन स्थानों पर मारने के लिए त्वरित गति से ले जाने में मदद की। प्रोफेसर पिंकर हाल ही में हुए इराक, अफगानिस्तान, श्रीलंका, और सूड़ान के संघर्षों का गहन अध्ययन करते हैं और इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि इस सदी के पहले दशक में हुए युद्धों में हुई मौतों 5 प्रति 100000 लाख योद्दा प्रतिवर्ष रही। इसकी मुख्य वजह यह है कि अंतर्राज्यीय युद्धों में 1945 के बाद कमी आती गई। पांचवे दशक के शुरूआत में हुए कोरियाई युद्ध में पहले चार वर्षों में 10 लाख लोग मरे, इसके बाद हुए वियतनाम युद्द में नौ वर्षों में 16 लाख लोग मरे। लेकिन बाद के युद्ध में मृतकों की संख्या में कमी आई 1990-91 में हुए पहले खाड़ी युद्ध में 23000 लोग मरे जबकि ईरिटिया में तीन वर्षों में 50 हजार।
उनका मानना है कि हिंसा के बारे में तुलनात्मक गणना करते समय आप कई तरीकों से सोच सकते हैं लेकिन हम नतीजे पर पहुंचते हैं कि इस मामले  में कुल संख्या के बजाय अनुपात को जानना ज्यादा उपयोगी होगा। क्योंकि यदि आबादी बढ़ती है संभावित हत्यारों, बलात्कारियों, परपीड़कों की संख्या भी बढ़ती है। इसलिए हिंसा के शिकार लोगों की कुल संख्या वही रहती है या बढ़ती है लेकिन अनुपात घटता है तो इसका मतलब है कि निश्चित ही कुछ महत्वपूर्ण घटित हुआ है। जिसके कारण इतने सारे लोग हिंसा से मुक्त रहे।
अपनी पुस्तक में पिंकर कई मिथ्या धारणाओं को ध्वस्त करते है। इनमें एक यह है कि संसाधनों का अभाव युद्ध का कारण बनता है। उनका मानना है कि ज्यादातर युद्ध अन्न या पानी जैसे या अन्य संसाधनों के अभाव के कारण नहीं होते। हाल ही में कई अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि युद्ध विचारधारा या कुशासन के कारण होते हैं।
भविष्य में हिंसा को लेकर उनकी क्या भविष्यवाणी है। उनका मानना है कि निकट भविष्य में तो मानवतावादी आंदोलनों के मजबूत होने से स्थिति सुधरेगी ही। धर्मद्रोहियों को जलाना क्रूरतूपूर्वक मौत देना, रक्त के खेल, गुलामी, कर्जदार को जेल में रखना, पांव बांधना, विकसित देशों में युद्ध आदि की कम से कम निकट भविष्य में वापसी होने के तो कोई आसार नहीं हैं। यह भी संभव है कि मौत की सजा, महिलाओं के खिलाफ हिंसा, बच्चों के साथ जोर जबरदस्ती और मारपीट, समलैंगिकों को परेशान करना आदि मामलों में आनेवाले दशकों में लगातार कमी आती रहेगी। इसकी वजह यह है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गुलामी आदि के खिलाफ जो अभियान चलाए गए वे सफल हुए हैं। उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि क्रूर तानाशाहों की संख्या घटेगी। एटमी हथियार भी खत्म हो सकते हैं। लेकिन आतंकवाद, गृहयुद्ध, और गैर लोकतांत्रिक देशों के बीच युद्ध आदि के बारे में कोई भविष्यवाणी करना मुश्किल होता है क्योंकि वह व्यक्तियों की सोच पर निर्भर रहते हैं। अपराधों की दर के मामले में भी सभी भविष्यवक्ता नाकाम रहे हैं। इसलिए यह पाना मुश्किल है कि भविष्य में उनमें फिर बढ़ोतरी नहीं होगी।
आखिरकार दुनिया में यह सुखद परिवर्तन किस कारण आया है। प्रतिष्ठित पत्रिका इकानामिस्ट के मुताबिक पिंकर इसके लिए कांट के सुप्रसिद्ध तीन कारकों के त्रिकोण को कारणीभूत मानते हैं –मुक्त अर्थव्यवस्था, लोकतंत्र और बाहरी विश्व से रिश्तें। इसके अलावा जो लोग बुर्जुआ समृद्धी को पाने की आकांक्षा रखते हैं और मुक्त व्यापार को महत्वपूर्ण मानते हैं वे उन लोगों को मारने के प्रवृत्त नहीं होते जिनके साथ वे व्यापार कर सकते हैं।

एडम ज़गायेवस्की की कविता ‘आग’ पर कुछ बातें


गीत चतुर्वेदी

संभवत: मैं एक आम मध्य-वर्गीय हूँ
व्यक्ति के निजी अधिकारों में विश्वास करने वाला
आज़ादी बहुत आसान शब्द है मेरे लिए
इसका मतलब किसी वर्ग-विशेष की आज़ादी से नहीं
सियासी तौर पर नादान, शिक्षित औसत दर्जे का
(कभी-कभार कुछ ख़ास लम्हों में मुझे सब कुछ साफ़ दिखने लगता है
यही लम्‍हे मेरी तालीम की रोटी-बोटी हैं)
मैं याद करता हूँ उस आग को
जिसकी चमक की तरफ़ मैं खिंचा चला गया था
जो अपनी तपिश से सुखा देती है
प्यासी भीड़ के होंठ
फूंक देती है किताबों को
झुलसा देती है शहरों की चमड़ी
मैं गुनगुनाता हूँ उसी आग के गीत
और जानता हूँ
दूसरों के साथ-साथ दौड़ना कितना बड़ा काम है
फिर मुँह में घुस आई राख के स्वाद के साथ
मैं सुनता हूँ अपने ही भीतर से निकलती
झूठ की विडंबना भरी आवाज़
और भीड़ की चीख़ें
और जब छूता हूँ अपना सिर
तो लगता है
छू रहा हूँ अपने देश की गोल खोपड़ी को
उसके सख़्त किनारों को.
इस कविता का शीर्षक है आग, और इसके कवि हैं समकालीन पोलिश कविता के बहुचर्चित कवि एडम ज़गायेवस्की. मुझे यह नहीं पता कि ज़गायेवस्की ने यह कविता किसके लिए लिखी, लेकिन जब-जब मैं इसे पढ़ता हूँ, ऐसा लगता है, यह कविता उन्होंने भारतीय मध्य-वर्ग को ध्यान में रख कर लिखी होगी. वर्गों का व्यवहार कमोबेश हर जगह एक-सा ही होता है, जैसा कि कविता की भूमिका हर जगह लगभग एक-सी है.
रेनाता गोर्शिंस्की द्वारा पोलिश से अंग्रेज़ी में किए इसके अनुवाद को पहली बार शायद मैंने पाँच साल पहले पढ़ा था, लेकिन पहली बार में इस कविता के भीतर तक भी नहीं पहुंच पाया था. (पहली बार में ही ऐसा संभव हो जाए, मेरा ऐसा आग्रह भी क़तई नहीं.) मेरी कहानियों की बुनियाद में कोई न कोई कविता होती है. पिछले साल नया ज्ञानोदय में छपी कहानी गोमूत्र इसी कविता से मैप की गई है. इसकी अनुमति लेने के लिए जब मैंने ज़गायेवस्की को ई-मेल किया और एक अदद स्माइली के साथ पूछा कि क्या सच में वह भारतीय मध्य-वर्ग को संबोधित कर रहे थे, जैसा कि मैं पढ़ते हुए संबोधन में हूँ, तो उनके जवाब में भी एक स्माइली थी; यह वही आग है, जो दौड़ो, झपटो, खाओ की तुकें भिड़ाती हुई जीवन को ऐसी अंतहीन दौड़ बना देती है, जिसमें बेतहाशा हांफते हुए हम पाते हैं कि दौड़ते-दौड़ते इतना आगे निकल आए हैं कि हमारी आत्माएँ कहीं पीछे छूट गई हैं, घुटनों के बल झुकी वे हमारे लौट आने का इंतज़ार कर रही हैं. वह कौन-सी आग है, जिसकी तरफ़ हम सब खिंचे चले जाते हैं और जो किताबों को झुलसा देती है, शहरों को राख कर देती है. आक्रामक उपभोक्तावाद की अष्टभुजाओं में फंसे मध्यवर्ग का बाज़ार व अर्थव्यवस्था के साथ संबंध का ध्यान कीजिए, आकर्षित करने वाली आग सब कुछ जला डालती है, यही नहीं, उसकी राख मुँह के भीतर घुस जाती है, आपको एक साथ दो चीज़ें सुनाई देती हैं- अपने भीतर का झूठ और बाहर भीड़ की चीख़, दोनों में सच क्या है?
यह व्यक्ति सियासी तौर पर नादान और औसत दर्जे का शिक्षित है, लेकिन उसे अद्भुत विजन्स आते हैं- जादू या वरदान की तरह कुछ ख़ास लम्हें हैं, जिसमें उसे सब कुछ साफ़ दिखता है, उन्हीं लम्हों में वह राजनीति को पहचान लेता है, उन्हीं में वह अर्थव्यवस्था और समाज में अपनी हिस्सेदारी की मांग करता है, और यही लम्हें जो तादाद में बहुत कम होंगे, क्योंकि वे ‘कभी-कभार’ और ‘कुछ ख़ास’ हैं, वही लम्हें उसे तालीम देते हैं, लेकिन जो इल्म का इस्तेमाल निहायत सुविधा से करता है. उसकी तालीम ही उसे बताती है कि यह आग किताबों को फूंक देती है, शहरों की चमड़ी को झुलसा देती है, लेकिल फिर भी तपिश से सूखे होंठों पर उसी आग के गीत होते हैं. यह व्यक्ति दूसरों के साथ दौड़ रहा है, उस दौड़ की महानता से गौरवान्वित.
कौन नहीं है यह व्यक्ति? यह विलेपार्ले या मयूर विहार में रहने वाला व्यक्ति है, जिसने मकान की कि़स्तें नहीं भरीं, जिसे कभी बुल्स ने मारा, तो कभी बीयर्स ने; यह अंकारा या इस्तांबुल में रहने वाला व्यक्ति है, जो क्रेडिट कार्ड का बिल नहीं भर पाया; यह ह्यूस्टन में रहने वाला व्यक्ति है, जिसकी कार बैंक वाले उठा ले गए. औसत दर्जे के ये सभी शिक्षित, तालीम के ख़ास लम्हों में, जानते-बूझते, एक आग के प्रति आकर्षित हुए थे- उस आग के, जो शहरों की चमड़ी झुलसा देती है…
और अंत में चकराता हुआ अपना सिर, अपना नहीं जान पड़ता. अपने जैसे इतने सारे सिर दिखते हैं कि सिरों से बना हुआ पूरा देश जान पड़ता है. एक त्रासदी का इमपर्सोनेशन शुरू हो जाता है. यहाँ एक एब्‍सेंट यूनिवर्सल अप्रोच है, जो मामूली लक्षणों को कैप्चर कर हर किसी की कविता बना देता है.
यहां आकर कविता के प्रीफेस की चार पंक्तियों का महत्व साफ़ हो जाता है. ज़गायेवस्की की कविता में प्रीफेस एक चाभी की तरह होता है. उसे हटाकर पढ़ें, तो मतलब और न खुले. ‘मध्य-वर्गीय’, ‘निजी अधिकार’, ‘आज़ादी’, ‘वर्ग-विशेष की आज़ादी’ जैसे अत्यंत प्रचलित लोकतंत्रीय शब्द पूरे माहौल में किस क़दर निरर्थक व भ्रामक दिखते हैं, और ये सारे शब्द किस तरह मात्र औज़ार हैं, माहौल और मानसिकता को एक ख़ास दिशा में स्टीयर करने के लिए, यह कविता के ख़त्म होते-होते साफ़ हो जाता है.
मध्यवर्ग की दशा-मनोदशा, इच्छा-अभिलाषा, नियति और त्रासदी पर कोई कविता, इतने कम शब्दों में, इतनी बारीक बुनावट के साथ मेरी नज़र में नहीं आ पाई है, जो इतनी छलिया हो कि गद्य का टुकड़ा-भर लगे, लेकिन जिसमें तमाम लैंडमाइन्स बिछी हुई हों.
एडम ज़गायेवस्की का जन्म 21 जून 1945 को सोवियत संघ के अधीन ल्वूव शहर में हुआ, जो अब यूक्रेन का हिस्सा है. वह पोलिश कविता की उस परंपरा के कवि हैं, जो मिवोश, हर्बर्ट, शिंबोर्स्‍का और रूज़ेविच से बनती है. उनकी शुरुआती कविताएं द्वितीय विश्वयुद्ध और कम्‍युनिस्ट शासन के बाद की निराशा, क्रोध और अवसाद की कविताएं हैं, लेकिन मुझे उनकी बाद की कविताएं, ख़ासकर कैनवस संग्रह (1991) के बाद की, ज़्यादा पसंद हैं, जहां वह सिर्फ़ पोलिश नहीं रह जाते, बल्कि एक एब्सेंट यूनिवर्सल कवि-सा अपील करते हैं. उनकी प्रचुर गद्यात्मकता बरक़रार रहती है, लेकिन उनमें एक अत्यंत प्रासंगिक मिस्टिसिज़्म उभरता है, जो कहीं से भी प्रवचनों की तरह तरल नहीं. एक उन्मादी औघड़ की सनक-भरी बड़बड़ाहट, जो तमाम रहस्यों से भरी होकर भी, दार्शनिक कि़स्म के रहस्यवाद को उपेक्षित करती, बहुत सीधे कनटाप बजाती हुई गुज़र जाती है. भीतरी और बाहरी दुनिया के जवाबों को सवाल की तरह देखती, संतुलन की रस्सियों की तन्यता को जांचती.
कविता पढ़ते समय मैं हमेशा उस दिये की तलाश में रहता हूँ, जिसे कवि ने देहरी पर रख दिया हो, जिसका प्रकाश जितना भीतर जा रहा हो, उतना ही बाहर भी आ रहा हो. उनकी कविताओं में यह रोशनी बराबर बंटी हुई दिखाई देती है.
हालाँकि पोलिश कविता जगत में ही ज़गायेवस्की में आए इस परिवर्तन को सराहा नहीं गया है. एक इंटरव्यू में वह कहते हैं कि पोलैंड के आलोचक सरकारी वकीलों की तरह हैं, उन्हें सिर्फ़ आरोप लगाना आता है. वे मुझे गंभीर कवि भी नहीं मानते, वे कहते हैं कि मैं गूंगी, बेजान चीज़ों की कविता लिखता हूँ.
उनकी कविताओं में आए अध्यात्म को कई बार ‘ईसाईयत के प्रचार´ से भी जोड़ा गया, जिसके बारे में वह कहते हैं, ‘मैं नए दौर का धर्मोन्मादी पगलेट नहीं बनना चाहता, साथ ही ख़ुद को धंधेबाज़ कैथलिक लेखकों से भी दूर रखना चाहता हूँ. मेरा मानना है कि पुराने मेटाफिजिकल सवालों से जूझने के लिए कवि को हमेशा नई भाषा, उपमा और व्यंजना खोजते रहना चाहिए.’
ज़गायेवस्की के यहाँ यह मेटाफिजिक्स एक प्रोडक्ट की तरह भी आता है, जो ग्लोबल व्यवस्था में करोड़ों में बिकता है, जिसकी व्यंजना में वह 9/11 के बाद अद्भुत कविता ट्राय टु प्रेज़ दिस म्यूटिलेटेड वर्ल्ड लिखते हैं, जो आइरनी के विशाल कंगूरों की परिधि मापती है.
उनकी कविताएं इन्हीं गूंगी, बेजान चीज़ों के ज़रिए सवाल करती हैं कि हमने अपनी जि़ंदगी को क्या बना लिया है, हमारे दिनों का स्वाद क्या है और हमारी रातें किस बेनाम बेचैनी और डर की करवट में दबी रहती हैं. वह हमारे निर्वासनों की पड़ताल करती है. आखि़र हम सब एक निर्वासित जीवन जी रहे हैं, ज़रूरी नहीं कि वह भौगोलिक निर्वासन ही हो, हम समय से निर्वासित लोग हैं. (द्विभाषिक पत्रिका ‘प्रतिलिपि’ से साभार)

किताब के बहाने ‘ख्वाब के दो दिन’

किताब के बहाने ‘ख्वाब के दो दिन’

bookhhBookss[5]राजकमल प्रकाशन/ मूल्य-175रु./ पृ.284
दोही तरह की किताबों को पढ़ने में हमें ज्यादा वक़्त लगता है । एक वे जो महत्वपूर्ण तो होती हैं, मगर बुनावट की दृष्टि से बोझिल होती हैं, पाठक को बांध कर नहीं रख पातीं । दूसरी वे जो महत्वपूर्ण तो होती ही हैं साथ ही उनकी भाषा, कथ्य और रचना-विधान भी विशिष्ट होता है । इन सभी चीज़ों का एक साथ आनंद लेते हुए एक बैठक में उस कृति को पढ़ पाना मुश्किल होता है । पहली किस्म की महत्वपूर्ण पुस्तकें कई बार लम्बे लम्बे अंतराल के बाद खत्म की जाती हैं । हाँ, दूसरी किस्म की कृतियों के साथ लम्बा अंतराल तो नहीं आता, मगर उन्हें एक बैठक में भी खत्म नहीं किया जा सकता । क्योंकि वे आपको सोचने का मौका देती हैं । वरिष्ठ पत्रकार यशवंत व्यास की हाल ही में प्रकाशित ‘ ख़्वाब के दो दिन ’ दूसरी किस्म की किताब है ।
yashwant 60यशवंत व्यास 'अहा ज़िंदगी', ‘दैनिक भास्कर’ और ‘नवज्योति’ के सम्पादक रह चुके हैं । इन दिनों ‘अमर उजाला’ के समूह सलाहकार । विभिन्न विषयों पर दस किताबें प्रकाशित
चिन्ताघर और ‘कामरेड गोडसे’ यशवंत व्यास की चर्चित औपन्यासिक कृतियाँ हैं । दोनों के लिए उन्हें अनेक सम्मान – पुरस्कार मिल चुके हैं । ‘चिंताघर’ 1992 में लिखा गया । ज़ाहिर है इसके कथा-फ़लक में 1992 से पहले के दो दशक समाए हुए हैं । इसी तरह ‘कामरेड गोडसे’ 2006 में प्रकाशित हुआ और इसमें भी 2006 से पूर्व के दो दशकों की छाया है । दोनों उपन्यासों में ख़बरनवीसी की दुनिया के समूचे तन्त्र की पड़ताल है ।‘चिंताघर’ से ‘कामरेड गोडसे’ तक का समय धर्मयुग, दिनमान जैसी पत्रिकाओं और नई दुनिया जैसे अखबारों से होते हुए क्षेत्रीय पत्रकारिता के उभार का काल है । इन दोनों उपन्यासों में लेखक ने लीक से हटकर रचे गए कथा-विधान के ज़रिये, उन चूहा सम्पादकों और गोबर ( गणेश ) मालिकों की कारगुज़ारियाँ उजागर की हैं जो सर्कुलेशन के आँकड़ों पर बाजीगरी दिखाते हुए, लोकल से ग्लोबल बनने की होड़ में आपराधिक जोड़-तोड़ से भी गुरेज़ नहीं करते । पत्रकारीय फ़लक पर लिखे गए दोनो कथानकों को अब उन्होंने एक छोटी भूमिका के ज़रिये एक साथ रख दिया है । ख़्वाब के दो दिन एक तरह से दोनों कृतियों का पुनर्पाठ है , जिन्हें  राजकमल प्रकाशन ने शाया किया है ।
बाज दफ़ा लेखक जो कुछ भोगता-देखता है उसे रोचक अंदाज़ में सामने रखता है । कभी वह अलग किस्म का शिल्प-विधान रचता है और कभी सहज क़िस्साग़ोई के ज़रिये कहानी कहता है । यशवंत व्यास का अपना अलग अंदाज़ है । उनके अनुभवों का केनवास बहुत बड़ा है । वे कई आयामों से दुनिया को देखते हैं । कभी दुनिया उनके आगे से गुज़रती है और कभी वे खुद उसका हिस्सा बन जाते हैं । सिर्फ़ कथ्य को समझ लेने की जल्दबाजी वाले गोष्ठीटाइप बुद्धिजीवियों के लिए यह उपन्यास बौद्धिक कसरत साबित हो सकता है । यही नहीं, बहुत मुमकिन है उन्हें रचना-विधान जटिल और अराजक तक नज़र आए । किन्तु पत्रकारीय नज़रिये से समसामयिक राजनीतिक परिदृष्य को समझने वालों और गंभीर लेखन करने वालों के लिए इस पुस्तक में भरपूर आधार-सूत्र मौजूद हैं ।
किसी नए फ़ारमेट के लिए भाषा का तेवर भी अनूठा होना चाहिए सो यशवंत व्यास यहाँ तो जैसे अपने तरकश के सारे तीरों के साथ नज़र आते हैं । ‘चिंताघर’ की जटिल संरचना की जिन्हें शिकायत है सो होती रहे । अपन को उनकी कतई चिन्ता नहीं । ‘ख्वाब के दो दिन’ के पहले ख़्वाब से गुज़रनें में अगर हमने ज्यादा वक़्त लगाया तो इसलिए नहीं क्योंकि वह जटिल था बल्कि इसलिए क्योंकि लेखक के भाषायी तिलिस्म में हम उलझ-उलझ जाते रहे । आलोचक टाईप लोगों के लिए यह उलझाव शब्द नकारात्मक हो सकता है मगर हम सकारात्मक अर्थ में इसे लिख रहे हैं । आप भूलभुलैयाँ में क्यों जाते हैं ? खुद हो कर जाते हैं और बार बार जाते हैं । सुलझाव की खातिर । सुलझाव के मज़े की खातिर । सुलझाव का यह मज़ा दरअसल चिन्ताघर के लेखक द्वारा खुद रचे गए नए मुहावरे को समझने पर आता है । इसीलिए लेखक के भाषायी तिलिस्म को समझने के लिए चिन्ताघर की कई-कई पेढ़ियाँ हमने बार-बार चढ़ीं और बहुत से गलियारों में देर तक ठिठके रहे । रिवायती अंदाज़ में कथानक से परिचित कराना यशवंत व्यास जैसी व्यंग्य दृष्टि रखने वाले लेखकों के लिए दायरे में बंधने जैसा होता है । दायरा तोड़े बिना व्यंग्य का पैनापन नहीं उभर सकता । उनकी भाषा हर बीतते क्षण और रचे जाते वर्तमान में मौजूद व्यंग्य-तत्व को स्कैन कर लेती है । व्यासजी का ऑटोस्कैनर जो नतीजे देता है वे अक्सर मुहावरों और सूक्तियों की शक्ल में सामने आते हैं – हिन्दी को समृद्ध करते नए भाषाई तेवर से आप रूबरू होते हैं । मगर ऐसा प्रयोगशीलता के आग्रह की वजह से नहीं बल्कि इसलिए क्योंकि चिन्ताघर जिस रचना-प्रक्रिया से जन्मा है, उसके बाद इस कृति का रूप यही होना था । वैसे भी इसमें आख्यायिका शैली या वर्णनात्मकता के लिए गुंजाइश नहीं थी ।
भाषायी तेवर की मिसालें ही अगर देना चाहें तो अपन ‘ख्वाब के दो दिन’ की समूची ज़िल्द ही कोट कर देंगे । कुछ बानगियाँ पेश हैं । 1.“मेरे पास प्रतिष्ठा रूपी जो कुछ था उससे एक चूहे को इस क़दर स्वस्थ रख पाना मुश्किल था”2.”साफ़ करने के बाद भी मुँछें अन्तरात्मा की तरह उगना चाहती हैं । जो समझदार होते हैं वे प्रतिदिन शेव करते हैं, इस तरह अन्तरात्मा से भी मुकाबला किया जा सकता है । ” 3.“अच्छा मुख्य अतिथि स्थिर, गम्भीर और (कुछ एक अंगों को छोड़कर ) गतिहीन होता है । उससे उम्मीद की जाती है कि समारोह को गति प्रदान करे ।” 4. “समूचा तन्त्र भक्तिकालीन साहित्य की तरह पवित्र और रसमय हो जाता” 5. “उद्यमशीलता का सार्वजनिक शील प्रतिभावानों से सुरक्षित रहता है । लेकिन प्रतिभा की सार्वजनिक प्रतिष्ठा उद्यम के कुल टर्नओवर से वाजिब दूरी बनाए रखती है । इस प्रकार उद्यमी उद्यमशील बना रहता है और प्रतिभा, प्रतिभा ही रह जाती है – हिन्दी फिल्मों में हीरो की बहन जैसी । ”
bookचिन्ताघर वस्तुतः क्या है ? एक प्रतीक जो किताब के प्रथम सर्ग में छाया हुआ है । ‘चिन्ताघर’ अखबार का न्यूज़ रूम है । किसी औघड़ पत्रकार की खोपड़ी है । ‘चिन्ताघर’ किसी का भी हो सकता है । फ़िक़्रे-दुनिया में सिर खपाते उस आदमी का भी जिसके ख़्वाबों में चांद है और उसका भी जो रोटी के आगे किसी चांद की सच्चाई नहीं जानता । मौजूदा राजनीति के उदारवादी नटनागर भी किन्हीं चिन्ताघरों की रचना जनता को उलझाने के लिए करते हैं । अलबत्ता वहाँ सुलझाव का कोई प्रयत्न उसके नियामकों की तरफ़ से नहीं होता । इसी तरह ‘कामरेड गोडसे’ दरअसल किसी गोडसे और कामरेड का गड़बड़झाला नहीं बल्कि 1947 से पहले के भारतीय मानस का स्वप्नलोक, आज़ादी का यथार्थ और फिर पोस्ट मॉडर्निज्म- यानी ‘उआ युग’ (उत्तर आधुनिकता, जिसे लेखक ने जगह-जगह पोमो कहा है ) के मिले-जुले प्रभाव से पैदा हुआ एक बिम्ब है जिसके और भी कई आयाम पहचाने जाने अभी बाकी हैं । कवि, नेता, पत्रकार, अफ़सर, व्यापारी इन सबकी वीभत्स आकृतियाँ जब एक साथ सत्ता सुंदरी का शृंगार करती नज़र आती हैं तब न गाँधी शब्द चौंकाता है और न गोडसे ।
‘ख्वाब के दो दिन’ में ‘ चिंताघर ’ के रचना-विधान की जटिलता दूसरे सर्ग ‘ कामरेड गोडसे ’ में टूटती है । जैसा कि यशवंत व्यास भूमिका में बताते हैं कि दोनों कृतियों में डेढ़ दशक का लम्बा समयान्तराल है । 14 साल का यह अन्तर केवल पत्रकारिता के संदर्भ में ही नहीं है । भीष्म साहनी के ‘तमस’ का कथानक रावलपिंडी की एक मस्जिद के बाहर कटे सूअर की लाश मिलने के बाद दंगे की आशंका से शुरू होता है । वह 1946 का दौर था । 20वीं सदी के अंतिम दशक में या 21वी सदी के पहले दशक के पूर्वार्ध में ‘कामरेड गोडसे’ की शुरुआत मस्जिद के बाहर एक मुस्लिम सुधारवादी के कत्ल की खबर से होती है । उसकी लाश के पास सूअर का ब्रोशर बरामद होता है जिसे प्रख्यात चित्रकार ने बनाया था । अखबार का राठी रिपोर्टर कहता है कि-“अब सूअर काट कर फेंकने की ज़रूरत नहीं रही । सूअर का एक ब्रोशर ही काफ़ी है।” इस कृति को पढ़ते हुए राजनीति, कला, साहित्य की दुनिया के कई नामी लोगों के हवाले भी मिलते हैं । मगर यह भी मुमकिन है कि आपको अपने इर्द-गिर्द के चेहरे याद आ जाएँ ।
‘ख्वाब के दो दिन’ पढ़ते हुए लगातार धर्मवीर भारती का बहुचर्चित उपन्यास “सूरज का सातवाँ घोड़ा’, कृशन चंदर का ‘एक गधे की आत्मकथा’, श्रीलाल शुक्ल का ‘राग दरबारी’ और मनोहर श्याम जोशी का ‘कुरु कुरु स्वाहा’ याद आता रहा । इसलिए नहीं कि इनके लेखन के स्मृतिचिह्न हमें यशवंत व्यास के लेखन में नज़र आ गए, बल्कि इसलिए क्योंकि आख्यायिका शैली से ऊपर उठते हुए, सपाटबयानी को बरतरफ़ करते हुए ये कृतियाँ अपने अपने समय में नई ज़मीन तोड़ने के लिए चर्चित हुईं । इसी तरह कथ्य के नएपन, भाषायी तेवर और अनूठे रचना विधान के लिए ‘ख़्वाब के दो दिन’ ( चिन्ताघर, कामरेड गोडसे समाहित) हिन्दी कथा साहित्य में महत्वपूर्ण दखल है । पत्रकारिता की उथली सतह पर चहल-क़दमी कर जिन लोगों ने मंच पर वाहवाहियाँ लूटीं, जिनसे पत्रकारिता के नए नए धनुर्धारी प्रेरित होते रहे और उनका अनुकरण कर गौरवान्वित होते रहे, ऐसे द्रोणाचार्यों और उनके एकलव्यों को भी एक बार सही, ‘ख़्वाब के दो दिन’ पढ़ने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए ।  (http://shabdavali.blogspot.in से साभार)

सफलता पर एन्थनी राबिन्स की विश्व प्रसिद्ध कृति अवेकन द जाइन्ट विदिन


जयंती जैन

अधुनातन वैज्ञानिक खोजो के प्रकाश में लिखी सफलता प्राप्ति के साधनों पर सटिक विश्लेषण करने वाली यह विश्व की सर्वोत्तम कृति है। कई वर्षें तक अमेरिका मंे बेस्ट सेलर रही है। पुरानी सफलता सम्बन्धी साहित्य की तरह यह उपदेशात्मक प्रेरक पुस्तक नहीं है। इसमंे सफलता हेतु सरल विधियां दी गई है। क्योंकि व्यक्ति बातों से बहुत धीरे-धीरे बदलता है। राॅबिन्स ने अवचेतन मन की शक्ति, धारणाओं की शक्ति, मानसिक अवस्था की शक्ति एवं लक्ष्य की शक्ति पर जोर दिया है।इन सबका बहुत विस्तृत विश्लेषण वैज्ञानिक शब्दावली मंे किया है। अपनी कृति मंे बहुत सारे सफलता प्राप्त करने के व्यवहारिक अपाय सुझाये है। वे चुटकियों मंे व्यक्ति की आदत बदलनें मंे सक्षम है। भावनाओ ंपर नियन्त्रण की कला भी इसमें बताई है। उन्होंने भाषा का प्रयोग सफलता हेतु नये प्रकार से किया है। यहाँ तक की शक्तिदायक शब्दों की सूची भी उन्होंने दी है। जिनका प्रयोग कर हम अपने आपको बदल सकते है। उन्होने एन एल पी से व्यावहारिक धरातल पर आम आदमी के लाभ हेतु सरल उपाय सुझाए है। एन्थनी राबिन्स दुनिया की सबसे सफलतम प्रेरक गुरु,सक्सेस कोच है। इनको सुनने के लिए हजारों को भीड़ जुटती है। एन्थनी रोबिन्स व्यावहारिक गुरु है। इनकी प्रथम कृति अलिमिटेड पावर ने सफलता के साहित्य में धमाका किया। राॅबिन्स दुनिया भर में सक्सेस पर वर्कशाप लेते है। इनकी वर्कशाप के अन्त में सम्भागीयों को 10 फीट जलते कोयलों पर चलाते है।

बॉडी लैंग्वेज पर एलन पीज की विश्व प्रसिद्ध कृति


जयंती जैन

हाव-भाव से कैसे समझें दूसरों के मन की बातें। ‘‘बाडी लैंग्वेज’’ एलन पीज की देह भाषा पर मौलिक रचना है। देह भाषा पर यह सबसे चर्चित कृति है। शब्दों से अधिक हम शारीरिक हाव भाव एवं मुद्राओं के द्वारा कहते है, जिसे अशाब्दिक संप्रेषण कहते है। शाब्दिक संप्रेषण की बहुत सीमा है।शब्दों से मात्र 7 प्रतिशत ही संप्रेषण होता है। शेष 35 प्रतिशत शब्दों के उच्चारण, टोन, एवं गति पर निर्भर है। विशेषज्ञों के अनुसार 65 प्रतिशत संप्रेषण शब्दों के पार होता है। दुसरों को समझने, साक्षात्कार में सफल होने, ग्राहक को समझने व प्रेेम संकेतों को पकड़ने के सूत्र इस कृति में सचित्र बताये हुए है। लेखक ने किस तरह जानें कि कोई झूठ बोल रहा है, किस तरह खुद को लोगों का चहेता बनायें, किस तरह दूसरों लोगों से सहयोग प्राप्त किया जाए, किस तरह साक्षात्कार ओैर व्यावसायिक चर्चाओं में सफलता प्राप्त की जाए, किस तरह अपने साथी को ढूंढ़ा जाए आदि विषयों पर देह के सकेतों का विस्तृत विश्लेषण बहुत बारीकी से सचित्र किया है। ़संवाद द्वारा समस्याओं पर विजय पाने में यह पुस्तक सहायक है। यह पुस्तक पाठक को अपनी साथी इन्सानों के साथ गहरी अन्तर दृष्टि विकसित करने एवं संवाद स्थापित करने में मदद करती है।
अशाब्दिक संप्रेषण आखिरकार एक जटील प्रक्रिया है जिसमें लोगों के साथ-साथ उनके शब्द, उनकी आवाज की टोन ओैर शरीर की गतिविधियाँ भी शामिल हैं। इसलिए यह पुस्तक पठनीय एवं उपयोगी है। हम अपनी बात करने में इतने व्यस्त हो जाते है कि श्रोता की देह भाषा पर ध्यान नहीं देते। यह पुस्तक बताती है कि श्रोता के शरीर की गतिविधियों को बारीकी से देखकर हम अपनी बात का प्रभाव समझ सकते है। इससे श्रोता के मन को समझने में मदद मिलती है। जब व्यक्ति झूठ बोल रहा हो  तो मस्तिष्क अवचेतन रुप से धोखे के शब्दों को छुपाने की कोशिश में शरीर को आदेश देता है तो हाथ मुँह को ढंक लेता है। इस तरह अनेक उदारहणों द्वारा बताती है। एलन पीज सिडनी, आॅस्ट्रेलिया में स्थित एक मैनेजमेंट कन्सल्टेन्सी कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं। वे देह भाषा के विश्व प्रसिद्ध विशेषज्ञ है तथा दुनिया भर में देह भाषा की सेमिनार लेते है। मंजूल पब्लिशिंग हाउस ने इसका हिन्दी अनुवाद छापा है। यह सार्थक अनुवाद है। डा. सुधीर दीक्षित एक अनुभवी अनुवादक है।

भारत के व‌िश्व प्रसिद्ध साहित्यकार


तुलसीदास
कबीरदास
सूरदास
अकबर इलाहाबादी
अज्ञेय
अनंतमूर्ति
अन्तोन चेखव
अमीर खुसरो
अमृत राय
अमृतलाल नागर
अमृता प्रीतम
अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध
अली सरदार जाफरी
असगर वजाहत
इक़बाल
इब्ने इंशा
इस्मत चुगताई
उपेन्द्र नाथ अश्क
उषा प्रियंवदा
कमलेश्वर
काका हाथरसी
कुर्रतुल एन हैदर
कृष्णा सोबती
केदारनाथ अग्रवाल
कैफ़ी आजमी
खलील जिब्रान
गजानन माधव मुक्तिबोध
गोपालसिंह नेपाली
गोपाल दास नीरज
चंद्रधर शर्मा गुलेरी
जयशंकर प्रसाद
जैनेन्द्र कुमार
दुष्यंत कुमार
धर्मवीर भारती
नागार्जुन
निराला
निर्मला वर्मा
नेत्रा देशपाण्डेय
पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र
प्रेमचंद
फणीश्वर नाथ रेणु
फिराक गोरखपुरी
फैज़ अहमद फैज़
बंकिमचन्द्र
बदीउज्जमा
बिहारीलाल
बहादुर शाह जफ़र
भगवती चरण वर्मा
भवानी प्रसाद मिश्र
भारतेंदु हरिश्चंद्र
भीष्म साहनी
मन्नू भंडारी
मालिक मुह्हमद जायसी
महादेवी वर्मा
महावीर प्रसाद द्विवेदी
महीप सिंह
महेंद्र भटनागर
माखनलाल चतुर्वेदी
मीर तकी मीर
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मोहन राकेश
यशपाल
रघुवीर सहाय
रणजीत कुमार मिश्र
रविन्द्रनाथ ठाकुर
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राजकमल चौधरी
राजिंदर सिंह वेदी
राजीव कुमार वर्मा
रामचन्द्र शुक्ल
रामधारी सिंह दिनकर
रामप्रसाद बिस्मिल
रामविलास शर्मा
राही मासूम रजा
राहुल सांकृत्यायन
विद्यापति
विष्णु प्रभाकर
शमशेर बहादुर सिंह
शरतचन्द्र
श्यामसुंदर दास
शरद जोशी
शिवमंगल सिंह सुमन
शैलेश मटियानी
श्रीलाल शुक्ल
सआदत हसन मंटो
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
साहिर लुधियानवी
सुदर्शन
सुदामा पाण्डेय धूमिल
सुभद्रा कुमारी चौहान
सुमित्रानंदन पन्त
हजारीप्रसाद द्विवेदी
हरिवंश राय बच्चन
हरिशंकर परसाई
वेदप्रताप वैदिक
नज़ीर अकबराबादी

क्या आप जानते हैं

दुनिया की सबसे बड़ी प्रेस

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस दुनिया का सबसे बड़ी विश्वविद्यालय प्रेस है। यह ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय का एक विभाग है और इसका संचालन उपकुलपति द्वारा नियुक्त 15 शिक्षाविदों के एक समूह द्वारा किया जाता है जिन्हें प्रेस प्रतिनिधि के नाम से जाना जाता है। उनका नेतृत्व प्रतिनिधियों के सचिव द्वारा किया जाता है जो ओयूपी के मुख्य कार्यकारी और अन्य विश्वविद्यालय निकायों के प्रमुख प्रतिनिधि की भूमिका निभाता है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय सत्रहवीं सदी के बाद से प्रेस की देखरेख के लिए इसी तरह की प्रणाली का इस्तेमाल करता आ रहा है। विश्वविद्यालय ने 1480 के आसपास मुद्रण व्यापार में कदम रखा और बाइबल, प्रार्थना पुस्तकों और अध्ययनशील रचनाओं का प्रमुख मुद्रक बन गया। इसकी प्रेस द्वारा शुरु की गयी एक परियोजना उन्नीसवीं सदी के अंतिम दौर में ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी बन गई और बढ़ती लागतों से निपटने के लिए इसने अपना विस्तार जारी रखा। अपने शैक्षणिक और धार्मिक शीर्षकों से मेल स्थापित करने के लिए ऑक्सफोर्ड ने पिछले सौ सालों में बच्चों की पुस्तकों, स्कूल की पाठ्य पुस्तकों, संगीत, पत्रिकाओं, वर्ल्ड्स क्लासिक्स सीरीज और सबसे ज्यादा बिकने वाली अंग्रेजी भाषा शिक्षण पाठ्य पुस्तकों का प्रकाशन किया है।

शब्दों का विश्‍व बैंक

आधुनिक काल में हिन्‍दी के पहले शब्‍दकोश ‘समांतर कोश’, ‘द हिंदी-इंग्लिश इंग्लिश-हिंदी थिसारस ऐंड डिक्शनरी’ जैसे महाग्रंथ और ‘अरविंद लैक्सिकन’ के रूप में इंटरनेट पर विश्‍व को हिन्‍दी-अंग्रेजी के शब्‍दों का सबसे बड़ा ऑनलाइन ख़ज़ाना देने वाले अरविंद कुमार अब ‘शब्दों का विश्‍व बैंक’ बनाने की तैयारी में जुटे हैं। उनके डाटाबेस में हिन्‍दी-इंग्लिश के लगभग 10 लाख शब्द हैं। शब्‍दों को लेकर उनका जुनून बरकरार है। कुछ दिन पहले किसी ने उनसे पूछा कि आपके डाटा में ‘तासीर’ शब्द है या नहीं। उन्‍होंने चेक किया। शब्द था ‘प्रभाव’ के अंतर्गत। यह उसका अर्थ होता भी है- जैसे दर्द की ‘तासीर’। वह चाहते तो इससे संतोष कर सकते थे, लेकिन उनका मन नहीं माना। हिन्‍दी में तासीर शब्द को उपयोग आम ज़िंदगी में है तो उसका संदर्भ ‘आहार’ या ‘औषध’ की आंतरिक प्रकृति या स्वास्थ्य पर उसके ‘प्रभाव’ के संदर्भ में होता है। उन्‍हें लगा कि इसके लिए एक अलग मुखशब्द बनाना ठीक रहेगा। उन्‍होंने सटीक इंग्लिश शब्द की तलाश शुरू कर दी। लेकिन इसमें उन्‍हें किसी कोश से कोई सहायता नहीं मिली। प्रोफ़ेसर मैकग्रेगर के ‘आक्सफ़र्ड हिंदी-इंग्लिश कोश’ में मिला– इफेक्ट, ऐक्शन, मैनर ऑफ अपिरिएशन लेकिन ‘तासीर’ के मुखशब्द के तौर इनमें से कोई भी शब्द रखना उन्हें ठीक नहीं लगा। इधर-उधर चर्चा भी की, लेकिन बात नहीं बन रही थी। अंततः वह शब्‍द गढ़ने में लग गये। कई दिन बाद ‘तासीर’ मुखशब्द के साथ अन्य शब्द जोड़ पाए– तासीर, असर, क्रिया, परिणाम, प्रभाव, प्रवृत्ति, वृत्ति, उदाहरण :‘उड़द की तासीर ठंडी होती है अत: इसका सेवन करते समय शुद्ध घी में हींग का बघार लगा लेना चाहिए।’


बुक मार्केट अस्सी अरब 

भारत अंग्रेजी भाषा की किताबों के प्रकाशन में दुनिया में तीसरे स्थान पर पहुंच चुका है। कुल पब्लिकेशन मार्केट 80 अरब रुपये के आंकड़े को छू रहा है। फेडरेशन ऑफ इंडियन पब्लिकेशन्स के मुताबिक भारत में किताब प्रकाशन का बाजार 15 गुना की दर से बढ़ रहा है। आज हर साल विभिन्न भारतीय भाषाओं में करीब दो लाख किताबें छपती हैं, जिनमें से 30 हजार अंग्रेजी की होती हैं। इंग्लिश में भारत से ज्यादा किताबें सिर्फ अमेरिका व इंग्लैंड में ही छपती हैं। पैरिस इंटरनैशनल बुक फेयर व फ्रैंकफर्ट बुक फेयर जैसे बड़े आयोजनों में भारत को 'गेस्ट ऑफ ऑनर' बनाया जाना साबित करता है कि साहित्य की दुनिया में भारत के महत्व को दुनिया भर में स्वीकारा जा रहा है।


अल-बिरूनी की पुस्तकें 

अल-बिरूनी एक महान भाषाविद् था और उसने अनेक पुस्तकें लिखी थीं। अपनी मातृभाषा ख़्वारिज़्मी के अलावा जो उत्तरी क्षेत्र की एक ईरानी बोली थी और जिस पर तुर्की भाषा का प्रबल प्रभाव था, वह इब्रानी, सीरियाई और संस्कृत का भी ज्ञाता था। यूनानी भाषा का उसे कोई प्रत्यक्ष ज्ञान तो न था लेकिन सारियाई और अरबी अनुवादों के माध्यम से उसने प्लेटो तथा अन्य यूनानी आचार्यों के ग्रंथों का अध्ययन किया था। अरबी और फ़ारसी का उसे गहन ज्ञान था और ‘किताब-उल-हिन्द’ सहित उसने अधिकांश पुस्तकें फ़ारसी ही में लिखी थीं क्योंकि वही उस युग की अंतर्राष्ट्रीय भाषा थी। उसी में समस्त सभ्य संसार के वैज्ञानिक ग्रंथ संग्रहीत थे और वही विज्ञान तथा साहित्य की विभिन्न शाखाओं में उपलब्ध बहुमूल्य योगदानों का माध्यम थी। अल-बिरूनी का आरंभिक जीवन एक ऐसे युग में बीता था जिसके दौरान मध्य एशिया में बहुत तेजी के साथ और बड़े प्रचंड राजनीतिक परिवर्तन हुए थे और उनमें से कुछ परिवर्तनों का प्रभाव उसके जीवन और कृतियों पर भी पड़ा था।

इब्नबतूता ने लिखा रिहला 

विश्व-यात्री इब्नबतूता द्वारा अरबी भाषा में लिखा गया उसका यात्रा वृत्तांत जिसे रिह्‌ला कहा जाता है चौदहवीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के विषय में बहुत ही प्रचुर तथा रोचक जानकारियाँ देता है। मोरक्को के इस यात्री का जन्म तैंजियर के सबसे सम्मानित तथा शिक्षित परिवारों में से एक जो इस्लामी कानून अथवा शरियत पर अपनी विशेषज्ञता के लिए प्रसिद्ध था में हुआ था। अपने परिवार की परंपरा के अनुसार इब्नबतूता ने कम उम्र में ही साहित्यिक तथा शास्त्ररूढ़ शिक्षा हासिल की। अपनी श्रेणी के अन्य सदस्यों के विपरीत इब्नबतूता पुस्तकों के स्थान पर यात्राओं से अर्जित अनुभव को ज्ञान का अधिक महत्वपूर्ण स्रोत मानता था। उसे यात्राएँ करने का बहुत शौक था और वह नए-नए देशों और लोगों के विषय में जानने के लिए दूर-दूर के क्षेत्रों तक गया। 1332-33 में भारत के लिए प्रस्थान करने से पहले वह मक्का की तीर्थ यात्राएँ और सीरिया इराक फारस यमन ओमान तथा पूर्वी आफ्रीका के कई तटीय व्यापारिक बंदरगाहों की यात्राएँ कर चुका था। मध्य एशिया के रास्ते होकर इब्नबतूता सन्‌ 1333 में स्थलमार्ग से सिधं पहुंचा। उसने दिल्ली के सुल्तान महुम्मद बिन तुगलक के बारे में सुना था और कला और साहित्य के एक दयाशील संरक्षक के रूप में उसकी ख्याति से आकर्षित हो बतूता ने मुल्तान और उच्छ के रास्ते होकर दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। सुल्तान ने विद्वता से प्रभावित कर उसे दिल्ली का  फाजी या न्यायाधीश नियुक्त कर दिया था।

बारह वर्ष में लिख दी किताब

रॉबर्ट ब्राउनिंग अंग्रेजी कवि एवं नाटककार थे। नाटकीय कविता, विशेषकर नाटकीय एकालापों में अतुल्य दक्षता के कारण उन्हें विक्टोरियन कवियों में अग्रणी स्थान प्राप्त है। ब्राउनिंग अपने माता पिता, रॉबर्ट और सारा एना ब्राउनिंग की पहली संतान थे और उनका जन्म लन्दन, इंग्लैंड के एक उपनगर कैम्बरवैल में हुआ था। उनके पिता बैंक ऑफ इंग्लैंड में एक लिपिक थे तथा उन्हें अच्छा वेतन मिलता था। उनकी वार्षिक आय लगभग 150 पाउंड थी। रॉबर्ट के पिता ने एक पुस्तकालय का गठन किया, जिसमें लगभग 6000 किताबों का संग्रह था। इनमें से कई किताबें दुर्लभ थीं। इस प्रकार रॉबर्ट का पालन पोषण एक साहित्यिक संसाधनों से भरे घर में हुआ। उनकी माँ, जिनके वे बहुत निकट थे, बड़े विद्रोही स्वभाव की थीं। साथ ही वे एक प्रतिभा संपन्न संगीतकार भी थीं। उनकी छोटी बहन सारिऐना भी बहुत प्रतिभाशाली थी। बाद के वर्षों में वही ब्राउनिंग की सहयोगी बनीं। उनके पिता ने साहित्य और ललित कलाओं में उनकी रूचि बढ़ाई। बारह वर्ष की आयु होने तक ब्राउनिंग ने कविताओं की एक पुस्तक लिख डाली थी, परन्तु कोई प्रकाशक ना मिलने के कारण उसे स्वयं ही नष्ट कर दिया।

पुस्तकों की बाढ़

इन दिनों पश्चिमी देशों में आज की दुनिया के बारे में ऐसी आशावादी तस्वीर प्रस्तुत करनेवाली पुस्तकों की बाढ़ आई हुई है। इनमें सबसे चर्चित पुस्तक है स्टीवेन पिंकर की –द बेटर एजिंल्स आफ अवर नेचर-व्बाय वायलेंस इज डीक्लाइंड। इस पुस्तक में पिंकर ने एक बहुत सनसनीखेज दावा किया है कि मध्य पूर्व में आतंकवाद, सूड़ान में नरसंहार और सोमालिया में गृहयुद्ध से कराहती 21वी सदी मानवीय इतिहास की सबसे कम हिंसक और दरिंदगी वाली सदी है। न केवल हत्याएं वरन यातना, गुलामी, घरेलू हिंसा, नफरतजन्य अपराध पहले की तरह बहुत आम नहीं रहे। हालांकि वे स्वयं मानते हैं कि उनके दावे को लोग आसानी से हजम नहीं कर सकते क्योंकि हमें हिंसा के इतने सारे उदाहरण रोज देखने को मिल जाते हैं और हमारी आंखे धोखा खा जाती हैं क्योंकि हम याद उदाहरणों के आधार पर हम संभाव्यताओं का हिसाब लगाते हैं। हमारे पास हर तरफ से हिंसा की खबरें आती हैं। और हम समझते हैं हत्या, बलात्कार, कबीलाई युद्ध और आत्मघाती हमलावर सब हमारे आसपास घूम रहे हैं।


शाहरुख की किताब और किंडल

फिल्म अभिनेता शाहरुख खान भी एक क़िताब पूरी करना चाहते हैं, जिसे वह काफी दिनों से लिख रहे हैं, लेकिन उन्हें अफसोस है कि अक्सर दूसरे कामों में व्यस्त हो जाने के कारण वह इसके लिए समय नहीं निकाल पाते। वह कहते हैं – मेरे पास किंडल है। वह किंडल के बिना घर से बाहर नहीं निकलते हैं। शूटिंग के बाद ज़्यादतर वक़्त या तो बच्चों के साथ बिताते हैं या फिर किंडल के साथ। किंडल 21वीं सदी के तकनीकी चमत्कारों में जुड़ी एक नई कड़ी है। किंडल एक तिहाई इंच से पतली एक मैगज़ीन की तरह है, जिसका वजन एक आम किताब से भी काफी कम होता है। आकार है 6 इंच से लेकर करीब 10 इंच तक और वजन महज तीन सौ ग्राम। तेज़ी से डिजिटल होती दुनिया में इसका इस्तेमाल आने वाले दिनों में हर वह व्यक्ति करता नज़र आ सकता है जिसे किताबों से प्यार है। स्कूलों में ये बच्चों को भारी भरकम बस्तों से निजात दिला सकता है क्योंकि इसमें एक बार में आप डेढ़ हज़ार से लेकर साढ़े तीन हज़ार तक किताबें स्टोर कर सकते हैं। किंडल हमेशा ऑन लाइन रहता है। इसके लिए आपको न तो अलग से कोई इंटरनेट कनेक्शन लेने की ज़रूरत है और न ही कोई मासिक या वार्षिक शुल्क देना है। आप दुनिया में कहीं भी जाएं, ये उपकरण 3 जी तकनीक से हमेशा अपने मदर सर्वर से जुड़ा रहता है। आप को जो भी किताब पढ़नी हो, बस उसे सेलेक्ट करना है और 60 सेकंड में ये किताब आपके किंडल पर डाउनलोड हो जाएगी। इसकी जो खूबी इसे लैप टॉप या पाम टॉप से भी बेहतर बनाती है वो है इसे किसी क़ागज़ की पत्रिका की तरह पढ़े जाने की खूबी। जी हां, इसमें किसी भी तरह की चमक नहीं होती है और तेज़ रोशनी में भी इसका आंखों पर कोई असर नहीं पड़ता। इसे एक बार चार्ज करने के बाद आप पूरे एक हफ्ते तक लगातार किताबें पढ़ सकते हैं और ज़रूरत होने पर अपने ज़रूरी डॉक्यूमेंट्स भी पीडीएफ फॉर्मेट में इसमें ले जा सकते हैं। पांच लाख नई किताबों वाले इसके सर्वर पर रोज़ाना नई किताबें और पत्रिकाएं जुड़ रही हैं। सन 1923 से पहले प्रकाशित हुई करीब 18 लाख किताबें इस पर मुफ्त में पढ़ने के लिए मौजूद हैं।

उन्होंने कहा था


  • भारतीय लेखक बहुत लापरवाह होते हैं, परिश्रम नहीं करते : अल बिरूनी 


  • किताब से ही दुनिया के शुरू का हाल मालूम होता है : जवाहर लाल नेहरू 


  • हम बच्चे ज्यादा, किताबें कम पैदा करते हैं : गुलजार


  • इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हिंदी साहित्य पर भारी पड़ रहा है : पंकज बिष्ट


  • लेखक में प्रतिभा है तो सब कुछ है, और नहीं है तो ठेंगा : हरिवंश राय बच्चन


  • हिंदी के ज्यादातर लेखक अंग्रेजी लेखकों की नकल करते हैं : मैत्रेयी पुष्पा 


  • हिंदी की बाल-पुस्तकें अंग्रेजी बाल-पुस्तकों के बरक्स विश्‍व मानदंड छू रही हैं : रमेश तैलंग 


  • दिल्ली का सादतपुर बाबा नागार्जुन की कविताओं पर टिका है : राधेश्याम तिवारी 
  • एक दिन ऐसा आएगा कि इंटरनेट पर भी हिंदी छा जाएगी : रवींद्र कालिया


किताब और कॅरियर


आप पढ़ने-लिखने का शौक रखते हैं और किताबों की सार-संभाल कर सकते हैं, तो इस शौक को कॅरियर में भी तब्दील कर सकते हैं। लाइब्रेरी साइंस का कोर्स कर आप अपने शौक को रोजगार का जरिया भी बना सकते हैं। निजी या सरकारी और विशेष लाइब्रेरीज में काम करने के अलावा यूनिवर्सिटीज और स्कूल, कॉलेज में अच्छे और प्रोफेशनल लाइब्रेरियन की काफी मांग रहती है। इन दिनों बड़ी-बड़ी लाइब्रेरीज को कई सेगमेंट में बांटा जाता है, जिसमें स्टूडेंट्स लाइब्रेरी एंड इंफॉर्मेशन सिस्टम मैनेजर, क्लासिफिकेशन एंड केटालॉग सिस्टम, डॉक्यूमेंटेशन, बिब्लियोग्राफी, इंडैक्सिंग आदि में काम करने के अच्छे अवसर हैं। फोटो/फिल्म लाइब्रेरीज का भी इन दिनों काफी क्रेज है।

अब आकाश पर 5000 किताबें पढ़ सकेंगे छात्र


बच्चों में पुस्तक पढ़ने की आदत को बढ़ावा देने और शिक्षा सुलभ कराने के लिए किताबों को ई माध्यम से सस्ते टैबलेट आकाश के जरिये पेश किये जा रहे हैं. इस उद्देश्य के लिए आकाश में नया एवं उन्नत साफ्टवेयर स्काईलैब और आकाश पुस्तक खंड जोड़ा गया है. इसके माध्यम से आकाश पर एनसीईआरटी, एनबीटी की पुस्तकें समेत अन्य शैक्षणिक सामग्री डाली जा रही है जिसके लिए अब तक छात्रों को गूगल, यूट्यूब का सहारा लेना पड़ता था.
सूचना संचार प्रौद्योगिकी के जरिये राष्ट्रीय उच्च शिक्षा कार्यक्रम (एनएमईआईसीटी) के सलाहकार प्रदीप शर्मा ने कहा कि आकाश के नये संस्करण में ऐसा सॉफ्टवेयर जोड़ा गया है जिससे छात्र वृहद ऑनलाइन शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं.
उन्होंने बताया कि आकाश पर स्पोकेन ट्यूटोरियल के माध्यम से 18 भाषाओं में बच्चों को पठन पाठन की सुविधा प्रदान की गई है. उन्होंने बताया कि ई-बुक पाठकों के लिए आकाश पुस्तक के जरिये एनसीईआरटी की 5000 किताबों को आकाश पर डाला जा रहा है ताकि स्कूली शिक्षा में इसका लाभ उठाया जा सके. इस पहल के तहत एनसीईआरटी की कई पुस्तकों को आकाश पर लोड कर दिया गया है. नेशनल बुक ट्रस्ट (एनबीटी) ने भी इस पहल को आगे बढाया और अपनी पुस्तकों को ई माध्यम से पेश करने का निर्णय किया है.
एनबीटी के निदेशक एम ए सिकंदर ने कहा कि शहरों में जीवनशैली तेजी से बदल रही है लेकिन इसके बावजूद बच्चों में पुस्तक पढ़ने की आदत कम नहीं हुई है. हालांकि अब बच्चे ई माध्यम से पुस्तक पढ़ने में अधिक रूचि दिखा रहे हैं. उन्होंने कहा कि पुस्तकों को ई माध्यम से पेश करने के संदर्भ में हमने सस्ता टैबलेट आकाश के जरिये किताब पेश करने की योजना बनाई है. इस पहल के लिए हमारी कई मंत्रालयों से बात भी हुई है.
सिकंदर ने कहा कि आकाश पर पुस्तक जारी करने के लिए हमारे पास ई-बुक का डिपोजिटरी होना जरूरी है. इसे ध्यान में रखते हुए हम ई-बुक योजना को आगे बढ़ा रहे हैं. उन्होंने कहा, हमारी ई बुक योजना कापी आगे बढ़ चुकी है और उम्मीद करते हैं कि इसके लिए चुनी गयी कंपनी को जुलाई तक अनुबंध प्रदान कर दिया जायेगा. ई-बुक तैयार होने के बाद ही इसे आकाश पर डाला जा सकता है.
आकाश पर उच्च शिक्षा विशेष तौर पर इंजीनियरिंग से जुड़ी पाठ्यसामग्री लोड की गई है. इसमें 141 कोर्स लोड किये गये हैं जो एचटीएमएल और पीडीएफ प्रारूप में आसानी से खुल सकते हैं.

भारत में ईबुक का बाजार


भारत में बढ़ती जनसंख्या इस बात की गारंटी तो है कि पुस्तक बाजार धीरे धीरे बढ़ता रहेगा और विक्रेताओं को कुछ फायदा भी मिलता रहेगा. लेकिन ईबुक्स और ऑनलाइन पब्लिशिंग किस हद तक भारत में आगे बढ़ रही है? ऐमेजोन का किंडल और सोनी के ई बुक यूरोप और पश्चिमी देशों में काफी लोकप्रिय हो गए हैं. इंटरनेट पर छापी गई किताबों को इनके जरिए पढ़ा जा सकता है. किंडल ई बुक रीडर एक साधारण किताब जितना बड़ा होता है और इसमें औसतन 1,000 किताबें समा जाती हैं. किंडल और गूगल ई बुक पाठकों के लिए खास ऑफर भी देते हैं और इन्हें इंटरनेट पर खरीदने पर 20 प्रतिशत की छूट मिलती है. ई बुक उत्पादकों के मुताबिक सबसे अच्छी बात यह है कि किताबों को रखने के लिए खास जगह बनाने की जरूरत नहीं है.
भारत में अब भी पुस्तकों का बाजार बंटा हुआ है. पार्कसन्स ग्राफिक्स के सुरेंद्र बाबू का कहना है कि भारत के बाजार में शिक्षा की किताबें हैं और बाकी राजनीतिक मुद्दों और साहित्य की किताबें हैं. जहां तक शिक्षा की किताबों का सवाल है, बाजार बढ़ रहा है. बहुत सारी भाषाएं हैं और इन सबमें स्कूल और कॉलेज की किताबें छप रही हैं. जहां तक साहित्य का सवाल है, इन किताबों को ई बुक में परिवर्तित किया जा रहा है. और ईबुक का बाजार भारत में अब बढ़ना शुरू हुआ है. लेकिन सुरेंद्र बाबू कहते हैं कि लोग अब भी साधारण किताबें पढ़ना पसंद करते हैं, युवा शायद ई बुक पढ़ें, लेकिन ज्यादातर लोग अब भी किताबों का मजा उसी पुरानी तरह से उठाना चाहते हैं. ई बुक को भारत में स्थापित होने में 10 से 15 साल तक लगेंगे. वैसे सुरेंद्र बाबू भी मानते हैं कि किताबों के प्रकाशन की मात्रा में पहले के मुकाबले कमी आई है.
वहीं प्रकाशक भी डिजिटल किताबें छापना शुरू कर रहे हैं और इसमें साधारण ऑफसेट प्रिटिंग के मुकाबले कम पैसे लगते हैं. लेकिन भारत में इन्हें बांटने में परेशानी आ रही है क्योंकि भारत में डिजिटल किताबें अब तक इतनी प्रचलित नहीं हैं. मणिपाल प्रेस लिमिटेड के टीआर नागेंद्र राव कहते हैं कि डिजिटल किताबों को पीडीएफ फाइलों के जरिए बेचा जाता है. भारत में टैब्लेट कंप्यूटर और ई बुक रीडर अब भी कम हैं तो इन किताबों को बेचना और बांटना बहुत बड़े स्तर पर नहीं शुरू हुआ है. लेकिन देखा जाए तो अखबार अब डिजिटल बन रहे हैं और लोग इन्हें पढ़ भी रहे हैं. राव कहते हैं, "जिस तरह अंतरराष्ट्रीय हवाई जहाजों में आप लोगों को ई रीडर पढ़ते हुए देखते हैं, भारत में अभी वैसी हालत नहीं आई है."
जंगलों का क्या होगा?
राव की तरह ईबुक बना रहे कई प्रकाशक विदेशी बाजारों के लिए काम कर रहे हैं. अमेरिका और यूरोप में इनकी मांग बहुत बढ़ गई है और भारत में सस्ती मजदूरी और प्रकाशन में कम दाम लगने की वजह से विदेशी कंपनियां फायदे में रहती हैं. राव कहते हैं कि जहां तक भारतीय पाठकों का सवाल है, अब भी बाजार कागज की किताबों पर ध्यान दे रहा है.
जहां तक कागज की किताबों का सवाल है, भारत में रिसाइकल्ड पेपर का बाजार भी बढ़ रहा है. जयंत प्रिंटरी के सौरीन पटेल रिसाइकल्ड कागज अखबारों को बेचते हैं. "रिसाइकल्ड पेपर के लिए मांग काफी बड़ी है. और हम कागज केवल उन जगहों से लेते हैं जहां पेड़ों को खास कागज बनाने के लिए लगाया गया है." लेकिन पटेल का कहना है कि रिसाइकल्ड कागज देखने में अच्छा नहीं होता और ज्यादातर पाठक अच्छे कागज पर छपी किताबें पढ़ना पसंद करते हैं और इन किताबों के लिए फिर ताजे कागज का ही इस्तेमाल करना पड़ता है. मैगजीन और साहित्य की किताबें अकसर इसी तरह के कागज में छपती हैं और अगर पेड़ खास कागज के लिए लगाए जंगलों से भी हों, कांटना तो उन्हें पड़ता ही है. ई बुक की सफलता के बाद शायद पेड़ों और जंगलों को कुछ हद तक बचाया जा सके.
(रिपोर्टः मानसी गोपालकृष्णन / संपादनः महेश झा)

पुस्तकें जीवित मनुष्य और ई-बुक रोबोट



क्या छपी हुई किताबों का भविष्य सुरक्षित नहीं है? क्या इंटरनेट और ई-बुक का बढ़ता चलन किताबों के लिए ताबूत का आखिरी कील साबित होगा? ये सवाल सवाल गूंजते रहते हैं. बांग्लादेशी साहित्यकार और ढाका विश्वविद्यालय में प्रोफेसर अनीसुज्जमां कहते है, "ऑनलाइन की बढ़ती लोकप्रियता चिंताजनक है. लेकिन किताबों और पाठकों के बीच संबंध हमेशा कायम रहेगा." पश्चिम में कई बड़े बुक स्टोर्स बंद हो गए हैं. न्यूजवीक जैसी पत्रिका ने भी प्रिंट संस्करण छापना बंद कर दिया है. यहां तक कि इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका की लंबी परंपरा भी खत्म हो गई है. अनीसुज्जमां का सवाल है कि क्या यह किताबों की मौत के संकेत हैं? लेकिन उनके पास जवाब भी है, "जवाब है, नहीं. किताबों से हम जैसे पुस्तक प्रेमियों का अटूट रिश्ता है. हम किताबों के बिना नहीं जी सकते."
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी इस दलील का समर्थन करती हैं. उनका सवाल है कि टीवी चैनलों की भरमार की वजह से क्या लोगों ने सुबह अखबार पढ़ना बंद कर दिया? वह कहती हैं कि लगातार बढ़ते डिजिटल हमले के बावजूद किताबें लोकप्रिय रहेंगी. नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन कहते हैं, "इस बहस की वास्तविक धरातल पर पड़ताल जरूरी है. देश में कितने लोगों के पास किताबों को ऑनलाइन पढ़ने की सुविधा है? विदेशों में इस सुविधा के बावजूद लाखों की तादाद में किताबें बिक रही हैं. बेस्टसेलर किताबों के तो कई कई संस्करण छापे जाते हैं. इसलिए इंटरनेट से छपी हुई किताबों के अस्तित्व पर खतरे की बात फिलहाल बेमानी है."
कालेज छात्रा इरा बसु को तो किताब हाथ में लेकर पढ़ने में ही संतुष्टि मिलती है, "ऑनलाइन और वर्चुअल रीडिंग में कोई तुलना नहीं हो सकती. छपी हुई पुस्तकें जज्बाती रिश्ता बना लेती हैं. इंटरनेट ऐसी भावनाओं से परे है. वहां आप पढ़ कर भूल जाते हैं. लेकिन बुक शेल्फ में सजी पुस्तक पढ़े जाने के सालों बाद भी आपको अपनी याद दिलाती रहती है. हाथों के स्पर्श से आप उससे जुड़ाव महसूस करते हैं. माउस या कीबोर्ड से यह संभव नहीं."
इरा और उनकी मित्र सपना के पास आईपैड से लेकर ई-बुक रीडर तक है. लेकिन किताबों के प्रति लगाव उन्हें मेले में खींच लाया. सपना कहती हैं, "छपे हुए शब्द आपको बार बार अतीत की याद दिलाते हैं." वह ई-बुक की तुलना किसी फिल्म और टीवी सीरियल से करती हैं जिसे देखने के कुछ समय बाद लोग भुला देते हैं."
आनंद पब्लिशर्स के सुबीर मित्र का कहना है, "ई-बुक के बढ़ते चलन से लोगों की पुस्तक पढ़ने की आदत नहीं बदलेगी, यह तो तय है." दीप प्रकाशन के दीप्तांशु मंडल तो दोनों के बढ़ने की बात करते हैं, "ई-बुक से डरने की जरूरत नहीं. ई-बुक और सोशल नेटवर्किंग साइटों से तो पुस्तक का प्रचार ही होता है." इस बहस में सबसे दिलचस्प मिसाल देते हैं सेवानिवृत प्रोफेसर निर्मल बागची, "पुस्तकें अगर जीवित मनुष्य हैं तो ई-बुक रोबोट है. क्या रोबोट कभी हाड़-मांस के मनुष्य की जगह ले सकता है?"
ज्ञानपीठ पुरस्कार जीत चुकीं बांग्ला की प्रख्यात साहित्यकार महाश्वेता देवी को भी इंटरनेट से डर नहीं लगता, "यह सही है कि खास कर युवा वर्ग में ऑनलाइन पढ़ाई का चलन बढ़ रहा है. लेकिन मेरे ख्याल से स्थिति चिंताजनक नहीं है. ऐसे पाठक भी विकल्प होने पर छपे हुए शब्दों को ही तरजीह देंगे. ऑनलाइन रीडिंग आगे चल कर लोकप्रिय हो सकता है. लेकिन किताबें हमेशा बनी रहेंगी."
पब्लिशर्स एंड बुकसेलर्स गिल्ड तो इंटरनेट को किताबों के लिए फिलहाल कोई खतरा ही नहीं मानता. गिल्ड के महासचिव त्रिदीव चटर्जी कहते हैं, "पुस्तक मेलों में आने वाली भीड़ और किताबों की बिक्री के आंकड़े ही इस खतरे को झुठलाने के लिए काफी हैं." (रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता / संपादनः ए जमाल)

युवराज की किताब से कैंसर का पन्ना


(बीबीसी)

कैंसर से लड़ने के बाद युवराज सिंह ने मैदान पर दोबारा वापसी की
क्लिक करें भारतीय क्रिकेटर युवराज सिंह ने अपनी किताब 'द टेस्ट ऑफ माइ लाइफ' में कैंसर से अपने संघर्ष की दास्तान को पेश किया है.
इस किताब में उन्होंने विस्तार से बताया है कि क्लिक करें कैंसर के कारण उनकी जिंदगी में क्या-क्या बदलाव हुए. ये किताब मंगलवार को रिलीज़ हो रही है.
भारत को 2011 में क्रिकेट वर्ल्ड कप जिताने में अहम भूमिका अदा करने वाले युवराज सिंह को 2012 के शुरुआत में कैंसर होने की बात सामने आई.
अमरीका के बोस्टन शहर में दो महीनों से भी ज्यादा समय तक उनका इलाज चला. ये उनका जज्बा ही था कि भारत वापसी के चंद महीनों बाद युवराज की क्रिकेट टीम में वापसी हुई और उन्होंने श्रीलंका में टी20 वर्ल्ड कप में हिस्सा लिया.
संघर्ष की कहानी
कैंसर से सफलतापूर्वक जूझने वाले युवराज सिंह लिखते हैं, "जब आप बीमार होते हैं, जब आप पूरी तरह निराश होने लगते हैं, तो कुछ सवाल एक भयावह सपने की तरह बार बार आपको सता सकते हैं. लेकिन आपको सीना ठोंक कर खड़ा होना चाहिए और इन मुश्किल सवालों का सामना करना चाहिए."
अमरीका से इलाज कराने के बाद भारत लौटने के अनुभवों को उन्होंने विस्तार से अपनी किताब में लिखा है.
वो लिखते हैं, "मेरी मुलाकात दिल्ली में इंडियन कैंसर सोसाइटी की मानद सचिव से हुई. उन्होंने कहा, ‘युवी, जिस तरह आपने खुल कर अपनी लड़ाई लड़ी है, आप जाने अंजाने कैंसर से बचने वाले लोगों के लिए एम्बेसडर बन गए हैं. इस देश में जहां कैंसर के पचास लाख मरीज हैं, वहां ये मानना मुश्किल लगता है कि किसी सिलेब्रिटी को कभी ये बीमारी नहीं हुई. इससे पहले कैंसर से पीड़ित कोई जानी मानी हस्ती मेरे दिमाग आती है तो वो हैं नरगिस दत्त.’"
युवराज सिंह
2011 के वर्ल्ड कप में भारत की खिताबी जीत में युवराज सिंह का खासा योगदान रहा
युवराज का कहना है कि उन्होंने पूरी हिम्मत के साथ इस बात को स्वीकारा कि उन्हें कैंसर है.
टीम इंडिया के धांसू बल्लेबाज रहे युवराज सिंह लिखते हैं, "खूबसूरत नरगिस दत्त के कैंसर से ग्रस्त होने के बाद देश में क्या मैं पहला व्यक्ति था जिसे ये बीमारी हुई? मुझे ऐसा नहीं लगता. हो सकता है कि शायद मैं भारत में पहला ऐसा व्यक्ति हूँ जिसे कैंसर के साथ जीने और इसके बारे में बात करने, इसे अपनाने, इसकी वजह से बाल चले जाने और इससे लड़ने से डर नहीं लगता है."
अपनी किताब का मकसद वो वो यूं बयान करते हैं, "ये कहानी है मेरी कैंसर से पहले की जिंदगी, कैंसर के दौरान जिंदगी और कैंसर के बाद वाली जिंदगी की...ये कहानी है संघर्ष की, इनकार की, कबूलने की और उसके बाद नए संघर्षों की."
तकदीर का खेल
युवराज ने अपनी किताब में जिक्र किया है कि कैंसर से जंग जीतने के बाद उन्हें इस बात की चिंता सताती रहती थी कि वो क्लिक करें क्रिकेट में कब और कैसे वापसी करेंगे. ऐसे में इस किताब को लिखना उन्हें सुकून देता था.
युवराज कहते हैं कि मशहूर साइक्लिस्ट लांस आर्मस्ट्रांग की किताब ‘It’s Not About The Bike’ ने उन्हें खूब हिम्मत दी. युवराज के लिए उनकी किताब ने एक दोस्त और एक मार्गदर्शक का बखूबी काम किया.
युवी लिखते हैं, "कुछ साल पहले मैंने लांस आर्मस्ट्रांग की किताब ‘It’s Not About The Bike’ पढ़नी शुरू की लेकिन इसे पूरी नहीं पढ़ पाया था.हो सकता है, जैसा कि अकसर कहा जाता है, यही तकदीर में लिखा था. शायद मुझे वापस लांस की तरफ आना था और किसी और समय इस किताब को पूरा पढ़ना था."
सुख नहीं, दुख बांटने भी जरूरी
आर्मस्ट्रांग और युवराज
युवराज को आर्मस्ट्रांग ने बहुत प्रभावित किया
युवराज के अनुसार वो अपनी किताब के जरिए अपनी कहानी इसलिए लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं ताकि ऐसे हालात में जी रही लोग ये न समझें कि वो अकेले हैं.
युवराज लिखते हैं, "जिस तरह हम अपनी जीत और सुख को दूसरों के साथ बाँटते हैं, उसी तरह हमें अपना दुख भी बाँटना चाहिए ताकि जो और लोग दुख झेल रहे हों, वो भी महसूस कर सकें कि वो अकेले नहीं हैं. अगर अपनी कहानी बता कर मैं किसी एक व्यक्ति की भी मदद कर पाऊँ, तो मुझे खुशी होगी. ठीक वैसे ही जैसे लांस आर्मस्ट्रांग की कैंसर की कहानी ने मेरी मदद की थी."
युवराज आगे लिखते हैं, "मुझे प्रतीत होगा कि मेरी जिंदगी का जो साल गुम गया, वह बर्बाद नहीं गया."

किताबें पढ़ने वाली औरतें


सुनील दीपक

आशा पूर्णा देवी के उपन्यास सुवर्णलता की नायका सुवर्ण अच्छी औरत नहीं. सब गलत मलत काम करती है. जब सबके सामने नहीं कर सकती तो छुप कर करती है. समाज में रहना नहीं जानती, उसके नियम नहीं समझती, जब कुछ नहीं मानना चाहती तो उसे चुप रहना नहीं आता. बार बार मार खा कर फ़िर अपनी इच्छा बताने नहीं घबराती. खुला आसमान, बारामदा, खिड़की, सीढ़ियाँ, समुद्र, किताबें, घर से बाहर दुनिया में क्या हो रहा है इसके बारे में जानना सोचना, सब उसकी इच्छाएँ हैं जिनको नहीं स्वीकारा जा सकता, क्योंकि यह सब बातें अच्छे घर की औरतों को शोभा नहीं देती. (सुवर्णलता, आशापूर्णा देवी, अनुवादक हंसकुमार तिवारी, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 2001):
"यह नाटक, उपन्यास पढ़ना बंद कराना ज़रुरी है. उसी से सारा अनर्थ घर में आता है."
इसलिए प्रबोध ने स्त्री को काली माई की, अपनी कसम दी है. रात की निश्चिंत्ता में समझाया था कि उपन्यास पढ़ने में क्या क्या बुराईयाँ हैं.
किन्तु बेहया सुवर्ण उस भयंकर घड़ी में भी एक अदभुत बात बोल बैठी थी. कहा था, "ठीक है, तो तुम भी एक कसम खाओ."
"मैं? मैं किस लिए कसम खाऊँ? मैं क्या चोरी में पकड़ा गया हूँ?"
"नहीं तुम क्यों पकड़े जाओगे, चोरी में तो स्त्रियाँ ही पकड़ी गयी हैं? क्यों, बता सकते हो क्यों?"
"क्यों? यह क्या बात हुई?" इसके अलावा प्रबोध को उत्तर नहीं जुटा.
सुवर्ण नें झट प्रबोध का हाथ सोये हुए भानू के सिर से छुआ कर कहा, "तो तुम भी कसम खाओ कि अब ताश नहीं खेलोगे?"
"ताश नहीं खेलूँगा? मतलब?"
"मतलब कुछ नहीं, मेरा नशा है किताब पढ़ना, तुम्हारा नशा है ताश खेलना. यदि मुझे छोड़ना पड़े, तो तुम भी देखो, नशा छोड़ना क्या होता है? बोलो, अब कभी ताश नहीं खेलोगे?"
प्रबोध के सामने आसन्न रात.
और बहुतेरी लांछनाओं से जर्जर स्त्री के बारे में काँपते कलेजे का आतंक.
कौन कह सकता है, फ़िर कौन सा घिनौना कर बैठे.
फ़िर भी साहस बटोर कर बोल उठा, "खूब, मूढ़ी-मिसरी का एक ही भाव!"
सुवर्णलता तीखे स्वर में बोल उठी थी, "कौन मूढ़ी है कौन मिसरी, इसका हिसाब किसने किया था, उसकी दर ही किस विधाता ने तय की थी, यह बता सकते हो?"
गजब है, इतनी लानत मलामत से भी औरत दबती नहीं. उलटे कहती है, "बल्कि यह सोचो कि शर्म आनी चाहिये तुम लोगों को."
लाचार प्रबोध ने कह दिया था, "ठीक है बाबा, ठीक है. खाता हूँ कसम."
"अब कभी नहीं खेलोगे न?"
"नहीं खेलूँगा. हो गया? खैर मेरा तो हुआ, अब तुम्हारी प्रतिज्ञा?"
"कह तो दिया, तुम अगर ताश न खेलो तो मैं भी किताब नहीं पढ़ूँगी"
एक पश्चिमी चित्रकला की किताब देखी जिसका विषय था, "किताबें पढ़ने वाली लड़कियाँ" तो सुवर्णलता की याद आ गयी. इस किताब में विभिन्न पश्चिमी चित्रकारों के इस विषय पर बनी तस्वीरें थीं और उनके संदर्भ का विश्लेषण था.
पश्चिमी समाज में भी पहले यही सोचा जाता था कि पढ़ना लिखना औरतों को बिगाड़ देता है और यह तस्वीरें इस बात को समझने में सहायता करती हैं कि क्यों पृतसत्तीय समाज को इससे क्या खतरा था और क्यों पृतसत्तीय समाज आज भी स्त्री को घर में रखने, बाहर न निकलने, परदा करने, कहानी उपन्यास न पढ़ने की बात करते हैं. किताबों की होली जलाने वाले अफगानी तलिबान इसका हिंसक और कट्टर रूप दिखते हैं. पाराम्परिक भारतीय समाज में भी यह धारणा थी कि पढ़ी लिखी लड़की, घर से बाहर निकल जाती है, उसका चरित्र ठीक नहीं रहता, वह पराये मर्दों से बात और सम्बंध रखने लगती है, वह घर की रीति मर्यादा को भूल जाती है. आज इस तरह की सोच में छोटे बड़े शहरों में कुछ बदलाव आया है पर फ़िर भी इसे आर्थिक मजबूरी के रूप में अधिक देखा जाता है, वाँछनीय विकास के रूप में कम.
किताब पढ़ने वाली स्त्रियों के विषय पर कुछ प्रसिद्ध चित्रकारों की कृतियाँ प्रस्तुत हैं -
पहली कृति है जगप्रसिद्ध इतालवी चित्रकार और शिल्पकार माईकल एँजेलो की जो रोम में वेटीकेन में सिस्टीन चेपल में बनी है. माईकल एँजेलो की कृति मोनालिजा को सब पहचानते हैं. सिस्टीन चेपल के बारे में सोचिये तो भगवान की ओर बढ़ती मानव उँगली के दृश्य को अधिकतर लोग जानते हैं पर इसी कृति का एक अन्य भाग है जिसमें बनी है सिबिल्ला की कहानी. भविष्य देखने वाली सिबिल्ला को भगवान से एक हजार वर्ष तक जीने का वरदान मिला था पर यह वरदान माँगते समय वह चिरयौवन की बात कहना भूल गयी इसलिए उसकी कहानी वृद्धावस्था के दुखों की कहानी है. इस चित्र में सिबिल्ला को बूढ़ी लेकिन हट्टा कट्टा दिखाया गया है जबकि उसकी भविष्य देखने वाली किताब के पन्नों पर कुछ नहीं लिखा.
दूसरी कृति है हालैंड के चित्रकार जेकब ओख्टरवेल्ट की जो उन्होंने 1670 में बनायी थी. उस समय हालैंड दुनिया के सबसे साक्षर देशों में से था, स्त्री और पुरुष दोनो ने ही पढ़ना लिखना सीखा था. किताबे पढ़ने के अतिरिक्त चिट्ठी लिखने का चलन हो रहा है. इस चित्र में उस समय के संचार के तीन माध्यमों को दिखाया गया - बात चीत, पुस्तक और पत्र. नवयुवक युवती को अपने प्रेम का निवेदन कर रहा है और नवयुवती किताब पढ़ने का नाटक कर रही है. यही प्रेम संदेश मेज पर रखे पत्र में भी है.
आप का क्या विचार है कि क्या वह नवयुवती इस प्रेम निवेदन को स्वीकार करेगी? यही चित्रकार की दक्षता है कि वह चेहरे के भावों को इतनी बारीकी से पकड़ता है कि बिना कुछ कहे ही हम बात समझ जाते हैं.
तीसरी कृति भी हालैंड से ही है, चित्रकार पीटर जानसेन एलिंगा की जो कि 1670 के आसपास की है. इस कृति की नायिका घर में काम करने वाली नौकरानी है. शायद वह मालकिन के कमरे में सफाई करने आयी थी. मालकिन के जूते एक तरफ़ बिखरे पड़े हैं. फ़ल की प्लेट को जल्दबाजी में कुर्सी पर रखा गया है. खिड़की से आती रोशनी के पास कुर्सी खींच कर पाठिका प्रेमकथा पढ़ने में मग्न है.
इस कृति से समझ में आने लगता है कि क्यों पृतसत्तीय समाज को स्त्रियों का किताबें पढ़ना ठीक नहीं लगा था. किताबों की दुनिया स्त्रियों को बाहर निकलने का रास्ता दिखाती थीं, उन्हें अपना कल्पना का संसार बनाने का मौका मिल जाता था जो समाज के बँधनों से मुक्त था, उनमें अपना सोचने समझने की बात आने लगती थी.
इसी मुक्त व्यक्तिगत संसार की सृष्टि वाली बात को चौथी और अंतिम चित्र दिखाता है. कृति है हालैंड के जगप्रसिद्ध चित्रकार विन्सेंट वान गोग की जो 1888 में बनायी गयी. इसमें किताब पढ़ने वाली स्त्री की दृष्टि किताब पर नहीं, बल्कि सोच में डूबी है, शायद उसने कुछ ऐसा पढ़ा जिसने उसे सोचने को मजबूर किया?
भारत में लड़कियों, स्त्रियों की दशा तो दुनिया में सबके सामने है. एक तरफ़ नेता, अभिनेता, लेखक, वैज्ञानिक, अधिकारों के लिए लड़ने वाली आधुनिक युग की चुनौतियों को स्वीकारती. दूसरी ओर अनपढ़, कमजोर, जो जन्म से पहले ही मार दी जाती है, जिसे बोझ समझा जाता है, जिसका विवाह करना ही सबसे बड़ा धर्म है, जो दहेज के लिए जला दी जाती है. स्त्री साक्षरता को बढ़ाना इसके लिए बहुत आवश्यक है. मेरे विचार में आज विकास के रास्ते पर चले भारत की यही सबसे बड़ी आवश्यकता है. आर्थिक विकास के बावजूद पिछले वर्षों में भारत के सम्पन्न राज्यों में पैदा होने वाले बच्चों में लड़कियों का अनुपात बढ़ने के बजाय और घटा है. इन आकणों को देखा जाये तो अनुमान लगा सकते हैं कि हर वर्ष भारत में करीब दस से पंद्रह लाख बच्चियों को गर्भपात के जरिये से जन्म लेने से पहले मार दिया जाता है.
दुनिया के देशों में अगर देखा जाये कि सरकारें स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए देश की आय का कितना प्रतिशत लगाती है तो भारत सबसे पीछे दिखता है, बहुत सारे अफ्रीकी देशों से भी पीछे. जब तक यह नहीं बदलेगा, भारत सच में विकसित देश नहीं बन पायेगा. (कल्पना डॉट इट)

दिलचस्प पुस्तक संसार


जवाहरलाल नेहरू

जवाहरलाल नेहरू से उनकी पुत्री इंदिरा प्रियदर्शिनी को पठन-पाठन के संस्कार भी मिले थे। नेहरू जी ने उन्हें बचपन से ही बताया था कि दुनिया के बारे में जानना है, तो न सिर्फ किताबें पढ़नी होंगी, बल्कि संसार को ही एक किताब की तरह पढ़ना होगा। नेहरू जी ने पत्रों के माध्यम से उन्हें इतिहास और सभ्यता से परिचित कराया था।
ये पत्र उन्होंने तब हालांकि इंदिरा के बालमन के अनुसार लिखे थे, लेकिन इनमें इतिहास के बारे में गहरी समझ और वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है, जो सभी के काम आ सकता है। मूल अंग्रेजी में ‘लैटर्स फ्रॉम अ फादर टु हिज डॉटर’ नामक किताब में संकलित इन पत्रों का अनुवाद हिंदी के मशहूर लेखक प्रेमचंद ने उतनी ही सरल-सहज शैली और भाषा में किया है। प्रस्तुत हैं, शुरुआती पत्र के संपादित अंश।
.......
अगर तुम्हें इस दुनिया का कुछ हाल जानने का शौक है, तो तुम्हें सब देशों का, और उन सब जातियों का जो इसमें बसी हुई हैं, ध्यान रखना पड़ेगा, केवल उस एक छोटे-से देश का नहीं जिसमें तुम पैदा हुई हो। मुझे मालूम है कि इन छोटे-छोटे खतों में बहुत थोड़ी-सी बातें ही बतला सकता हूं। लेकिन मुझे आशा है कि इन थोड़ी-सी बातों को भी तुम शौक से पढ़ोगी और समझोगी कि दुनिया एक है और दूसरे लोग जो इसमें आबाद हैं, हमारे भाई-बहन हैं। जब तुम बड़ी हो जाओगी, तो तुम दुनिया और उसके आदमियों का हाल मोटी-मोटी किताबों में पढ़ोगी। उसमें तुम्हें जितना आनंद मिलेगा, उतना किसी कहानी या उपन्यास में भी न मिला होगा।..
तुम इतिहास किताबों में ही पढ़ सकती हो। लेकिन पुराने जमाने में तो आदमी पैदा ही न हुआ था, किताबें कौन लिखता? तब हमें उस जमाने की बातें कैसे मालूम हों? यह तो नहीं हो सकता कि हम बैठे-बैठे हर एक बात सोच निकालें। यह बड़े मजे की बात होती, क्योंकि हम जो चीज चाहते सोच लेते और सुंदर परियों की कहानियां गढ़ लेते। लेकिन जो कहानी किसी बात को देखे बिना ही गढ़ ली जाए, वह ठीक कैसे हो सकती है? लेकिन खुशी की बात है कि उस पुराने जमाने की लिखी हुई किताबें न होने पर भी कुछ ऐसी चीजें हैं, जिनसे हमें उतनी ही बातें मालूम होती हैं, जितनी किसी किताब से होतीं। ये पहाड़, समुद्र, सितारे, नदियां, जंगल, जानवरों की पुरानी हड्डियां और इसी तरह की और भी कितनी ही चीजें हैं, जिनसे हमें दुनिया का पुराना हाल मालूम हो सकता है। मगर हाल जानने का असली तरीका यह नहीं है कि हम केवल दूसरों की लिखी हुई किताबें पढ़ लें, बल्कि खुद संसार-रूपी पुस्तक को पढ़ें। मुझे आशा है कि पत्थरों और पहाड़ों को पढ़ कर तुम थोड़े ही दिनों में उनका हाल जानना सीख जाओगी। सोचो, कितनी मजे की बात है। एक छोटा-सा रोड़ा जिसे तुम सड़क पर या पहाड़ के नीचे पड़ा हुआ देखती हो, शायद संसार की पुस्तक का छोटा-सा पृष्ठ हो, शायद उससे तुम्हें कोई नई बात मालूम हो जाए। शर्त यही है कि तुम्हें उसे पढ़ना आता हो।.. अगर एक छोटा-सा रोड़ा तुम्हें इतनी बातें बता सकता है, तो पहाड़ों और दूसरी चीजों से, जो हमारे चारों तरफ हैं, हमें और कितनी बातें मालूम हो सकती हैं।