Wednesday 28 December 2016

भारत के राष्ट्रपति के नाम 4400वां पत्र

तेम्हुआ, 20-12-2016
 सेवा में,
आदरणीय महामहिम भारतीय राष्ट्रपति जी, चरणस्पर्श।
हम सही नहीं हैं मगर आपकी सलामती की कामना
करते हैं। हे राष्ट्रपति जी, पिछले बारह [12] वर्षों से हर रोज आपके
नाम हम पत्र लिख रहे हैं और यह हमारा 4400 वां पत्र है। हर पत्र में
मैंने लिखा है कि-"प्लीज हमें आपसे मिलने के लिए थोड़ा -सा वक़्त दिया जाय
तथा हमारे गांव के उन ग़रीबों को उनका वाज़िब हक़ दिया जाय जिनके परिवार के लोग
बिमारी के कारण असमय मर चुके हैं।" मगर आज तक आपने हमें मिलने का वक़्त
नहीं दिया है।
बेशक,मैं उस भवन से बातें करना चाहता हूँ जिस भवन की मुंडेर पर लहराता
तिरंगा यह संदेशा देता है कि उसके अंदर के तख्तोताज पर बैठा व्यक्ति
एक-एक हिंदुस्तानी नागरिक का प्रतिनिधित्व करता है तथा जिनके कन्धों पर
125 करोड़ नागरिकों की जान की हिफाजत करने की जिम्मेदारी है। इसलिए मेरा
मानना है कि हिंदुस्तान के हर नागरिक को यह अधिकार होनी चाहिए कि वह
समानता की ज़मीन पर बैठकर अपने सम्राट से बातें कर सके और उसी समानता की
ज़मीन पर बैठकर मैं आपसे बातें करना चाहता हूँ। अहम् जरूरियात तथा
सनसनीखेज मसलों पर आपसे चर्चा करना चाहता हूँ। अपने विचारों से आपको अवगत
कराना चाहता हूँ। अपने नजरिये से आपको हिंदुस्तान के सच्चे हालात से
वाकिफ कराना चाहता हूँ। क्योंकि दिशाहीन भविष्य की ऊँगली थामकर मैं चलने
को तैयार नहीं हूँ। मेरा
मानना है कि अँधेरे भविष्य को कन्धा देना मूर्खता के सिवा कुछ नहीं है और
मेरी रूहानी ख्वाहिश है कि मैं अपनी दोनों बाहें फैलाकर एक मुक्कम्मल तथा
मजबूत हिंदुस्तान का इस्तकवाल करूँ।
लिहाज़ा मैं आपकी आँखों में ऑंखें डालकर आपसे यह प्रश्न पूछूँगा कि हे भारतवर्ष के सम्राट,आप लोकतंत्र को फ़ांसी के फंदे पर झूलने के लिए मजबूर क्यों कर रहे हैं? पिछले 70 सालों से लोकतंत्र के छाँव में जो करोड़ों लोग साँसें ले रहे हैं उसे आप अपनी
कर्तव्यहीनता की तलवार से क़त्ल क्यों कर रहे हैं? आप अपनी जनता का सुकून
छीनकर एक जहरीली हुकूमत की घाटी में साँसें लेने के लिए उन्हें विवश
क्यों कर रहे हैं? आप दुःख और गरीबी की चादर में लिपटी मौत को जिंदगी
क्यों समझ रहे हैं? क्या हिंदुस्तान के तख़्त पे आप इसीलिए बैठे हैं कि
अपने पुत्र समान जनता के सपनोँ की हत्या कर दें? अगर "हाँ" तो क्यों और
अगर "नहीं" तो फिर हमारे द्वारा हजारों चिट्ठियाँ लिखने के बावजूद आपने
अभी तक हमें मिलने की इजाजत क्यों नहीं दी हैं? आपके जवाब के इंतजार में-------
आपका विश्वासी
दिलीप अरुण "तेम्हुआवाला"
सीतामढ़ी (बिहार)
+919334405517
--------------------
और इससे पहले.....

भारत के राष्ट्रपति के नाम 4300 वां पत्र
तेम्हुआ
11-09-2016
 सेवा में,
आदरणीय महामहिम भारतीय राष्ट्रपति जी, चरणस्पर्श।
हम सही नहीं हैं मगर आपकी सलामती की कामना
करते हैं। हे राष्ट्रपति जी, पिछले ग्यारह [11] वर्षों से हर रोज आपके
नाम हम पत्र लिख रहे हैं और यह हमारा 4300 वां पत्र है। हर पत्र में
मैंने लिखा है कि-"प्लीज हमें आपसे मिलने के लिए थोड़ा -सा वक़्त दिया जाय
तथा हमारे गांव के उन ग़रीबों को उनका वाज़िब हक़ दिया जाय जिनके परिवार के लोग
बिमारी के कारण असमय मर चुके हैं।" मगर आज तक आपने हमें मिलने का वक़्त
नहीं दिया है।
हे मेरे पितातुल्य सम्राट,हम अपने दिल और
दिमाग की दहलीज़ पर दस्तक दे रहे इन सवालों का जवाब तलाश रहे हैं क़ि
संवैधानिक जवाबदेही कुबूल करने वाली "गणतांत्रिक हुकूमत" के बावजूद हमारे
हजारों अर्जीनामा की नामंजूरी क्यों हो रही है? जनता की सेवा तथा कल्याण
में निरत रहने की कसमें खानेवाली "लोकतान्त्रिक हुकूमत" के बावजूद हमारे
हजारों गुजारिशनामा की इनकारी क्यों हो रही है? मुल्क में पिछले 70 सालों
की "खुदमुख़्तारी" के बावजूद हमारे हजारों दरख़्वास्तनामा की नजर अंदाजी
क्यों हो रही है?
बेशक, 15 अगस्त 1947 के दिन ब्रिटानी हुकूमत के हाथों से
सत्ता की बागडोर छीनकर आपके हाथों में इसलिए नहीं सौंपा गया था कि 4300 चिट्ठी लिखने के बावजूद एक प्रजा को अपने राजा से मिलने का मौका न मिल सके। साम्राज्यवादी
राजतंत्र का मुकुट हटाकर आपके सर पर "प्रजातंत्र का ताज" इसलिए नहीं सजाया
गया था कि 4300 चिट्ठी लिखने के बावजूद एक नागरिक को अपने नरेश का दीदार
न हो सके। भारत के तक़दीर का फैसला लन्दन के "बकिंघम पैलेस" के बदले
दिल्ली के "रायसीना हिल्स" से करने का निर्णय इसलिए नहीं लिया गया था कि
4300 चिट्ठी लिखने के बावजूद एक अवाम
अपने सम्राट की चौखट को न चुम सके। अंग्रेजी राज की घोषणा करने वाले
भारतीय आकाश पर लहराते "यूनियन जैक" को नीचे उतारकर वहां अपना "तिरंगा"
इसलिए नहीं लहराया गया था कि 4300 चिट्ठी लिखने के बावजूद एक जनता को
अपने जहाँपनाह का दर्शन न हो सके।
 हे हिन्द सल्तनत के सुल्तान,मैं पूछता हूँ आपसे कि ग़ुलामी के दिनों में
भी एक भारतीय को अपने "वायसराय" से मिलने में मुश्किलों का सामना करना
पड़ता था और आज आज़ादी के दिनों में भी एक नागरिक को अपने  "सम्राट" से
मिलने के लिए "रायसीना हिल्स" की सीढियाँ चढ़ना मुश्किल हो रहा है,तो क्या
यह मान लिया जाय कि हिंदुस्तान के सम्राट इंकार के दरख़्तों के नीचे सो
रहे हैं? क्या यह मान लिया जाय कि हिंदुस्तान के सम्राट की रगों में
जमहूरियत का बुनियादी विचार नहीं दौड़ रहा है? क्या यह मान लिया जाय कि
हिंदुस्तान के सम्राट के दिल में रहम और जज़्बात की आंधियां नहीं उठ रही
है? क्या यह मान लिया जाय कि हिंदुस्तान के सम्राट की आत्मा अपनी पुत्रवत
जनता की करुणा भरी पुकार से नहीं कांप रही है? क्या यह मान लिया जाय कि
हम एक मानवीय बसेरों वाले देश के बाशिंदे नहीं हैं? अगर "हाँ " तो क्यों
और अगर "नहीं " तो हे भारतवर्ष के बादशाह, अगर आपको मुझसे मिलने के लिए
वक़्त नहीं है तो आज मैं आपसे यह प्रश्न कर रहा हूँ कि प्लीज़ बताइये--
"मुल्क की वह अंतिम खिड़की कौन है जहाँ एक मरता हुआ इंसान अपनी जान बचाने
की खातिर रहम की फ़रियाद लगा सके?" आपके जवाब के इंतजार में--
आपका विश्वासी
दिलीप अरुण "तेम्हुआवाला"
सीतामढ़ी (बिहार)
+919334405517

नोटबन्‍दी : जनता की गाढ़ी कमाई से तिजोरियाँ भरने का बन्दोबस्त / मुकेश त्यागी

8 नवम्बर को भारत सरकार ने 500 और 1000 हज़ार रुपये के चालू नोट प्रचलन से हटा लिये और उनकी जगह 500 और 2000 के नये नोट चालू करने का ऐलान किया जो 10 नवम्बर से चलन में आये। सरकार द्वारा शुरू में इस फ़ैसले के मक़सद बताये गये थे – काले धन पर हमला,  भ्रष्टाचार को रोकना और नक़ली नोटों का चलन रोककर इन्हें इस्तेमाल करने वाले आतंकवादियों की कमर तोड़ना। लेकिन जब इन उद्देश्यों के पूरा होने पर सवाल उठने लगे तो अब सरकार के सुर बदल गये हैं, अब सरकार इन सबकी बात को पीछे कर कैशलेस लेनदेन की व्यवस्था चालू करने पर मुख्य ज़ोर दे रही है। सरकार ने यह भी नहीं बताया है कि अगर इन नोटों की वजह से ही देश में काला धन, भ्रष्टाचार और अपराध-आतंकवाद होता है तो फिर इनको स्थाई रूप से ख़त्म करने के बजाय वापस चालू करने का क्या मतलब है? और दो हज़ार का और भी बड़ा नोट ले आने से क्या और ज़्यादा काला धन पैदा नहीं होगा?
करेंसी नोटों को बन्द करने के इस फ़ैसले से होने वाली तबाही और मौतों की ख़बरें पूरे देश भर से आ रही हैं। एक ऐसे देश में जहाँ कुल लेनदेन का 98 फ़ीसदी नक़दी के ज़रिये किया जाता है, कुल करेंसी में से 86.4 फ़ीसदी मूल्य के नोटों को अचानक बन्द करने से भारी अफ़रा-तफ़री पैदा होना लाजि़मी था। अभी तक 100 से ज़्यादा मौतों की ख़बरें आ चुकी हैं। पूरी की पूरी असंगठित अर्थव्यवस्था ठप पड़ी हुई है, जो भारत की कुल कार्यशक्ति के 93 फ़ीसदी रोज़़गार देती है और सकल घरेलू उत्पाद का 45 फ़ीसदी हिस्सा भी है। पहले से बदहाली झेल रही शहरी-ग्रामीण जनता इस बात से भी डरी हुई है कि उसके बचाये हुए पैसे रद्दी काग़ज़ में तब्दील हो रहे हैं। बैंकों के बाहर अपनी ख़ून-पसीने की कमाई को पकड़े हुए लोगों की लम्बी क़तारें पूरे देश भर में देखी जा सकती हैं। इन क़तारों में लगे लोग अपना काम-धन्धा या मज़दूरी छोड़कर आते हैं और दिनोंदिन ख़ाली हाथ लौट जाने को मजबूर हैं। अपने पैसे ही न निकाल पाना और ऊपर से अपनी दैनिक कमाई से भी वंचित होना आम लोगों के लिए दोहरी तक़लीफ़ का सबब बना हुआ है।
फिर इस नोटबन्दी का क्या मतलब है? इसके लिए समझना होगा कि जहाँ तक बड़े सम्पत्तिशाली और संगठित कारोबारी तबक़े का सवाल है पूँजीवादी व्यवस्था में धन-सम्पदा नोटों के रूप में नहीं बल्कि ज़मीन-मकान, जंगल, ख़ान, कारख़ानों, सोना-चाँदी, हीरे-मोती, जैसे दिखायी देने वाले रूपों से भी ज़्यादा देशी-विदेशी कम्पनियों के शेयरों-बॉन्ड्स, देशी-विदेशी बैंक खातों, पनामा-सिंगापुर जैसे टैक्स चोरी के अड्डों में स्थापित काग़ज़ी कम्पनियों और बैंक खातों, मॉरीशस की काग़ज़ी कम्पनियों के पी-नोट्स, वग़ैरह जटिल रूपों में भी रहती है। मौजूद व्यवस्था में जिन के पास असली सम्पत्ति है वह असल में इसे नोटों के रूप में भरकर नहीं रखते क्योंकि उससे यह सम्पत्ति बढ़ती नहीं बल्कि इसके रखने में कुछ ख़र्च ही होता है और चोरी जाने का ख़तरा भी होता है| इसके बजाय वह इसे उपरोक्त विभिन्न रूपों-कारोबारों में निवेश करते हैं जिससे उनकी सम्पत्ति लगातार बढ़ती रहे। बल्कि ऐसे लोग तो आजकल बैंक नोटों का रोज़़मर्रा के कामकाज में भी ज़्यादा इस्तेमाल नहीं करते क्योंकि ये अपना ज़्यादा काम डेबिट-क्रेडिट कार्ड या ऑनलाइन लेन-देन के ज़रिये करते हैं। इनके लिए करेंसी नोट के रूप में मुद्रा का इस्तेमाल बहुत सीमित है और सम्पत्ति की ख़रीद-फ़रोख्त़ में टैक्स बचाने, रिश्वत देने, राजनीतिक दलों को देने या ऐसे ही कुछ और कार्यों के लिए ही उसे अस्थाई तौर पर नोटों में बदला जाता है।
इसके विपरीत देश की अर्थव्यवस्था में 45% हिस्सा रखने वाला एक अनौपचारिक-असंगठित क्षेत्र है जिसमें छोटे उद्योग, व्यवसाय, पटरी-रेहडी दुकानदार, छोटे-मध्यम किसान और कुल मज़दूरों का अधिकांश हिस्सा आता है। इनके लिए नक़दी कारोबार और जीविका का अनिवार्य-अटूट अंग है। इन कारोबारों के लिए नक़दी उनकी कुल चालू पूँजी है क्योंकि इनका सारा लेन-देन कैश में ही होता है। ये इस नक़द चालू पूँजी से ही कच्चा माल ख़रीदते हैं, कल-पुर्जों का मेण्टेनेंस करते हैं, मज़दूरी का भुगतान करते हैं और फिर तैयार माल बेचकर इस चक्र को चलाते रहते हैं। इसी चक्र में से अपने मुनाफ़े का हिस्सा निकालकर अपने ख़र्च में भी लगाते हैं। अगर इस पूँजी का कोई हिस्सा किसी वजह से कहीं अटक जाये तो उस हद तक इनका कारोबार ही रुक जाता है जो अगर कुछ वक़्त ले तो इन्हें कारोबार को बन्द करना होता है। अगर कारोबार कुछ समय बन्द रह जाये तो ये अपनी पूँजी को ही खाने लगते हैं और दोबारा कारोबार शुरू करना मुश्किल होता जाता है। काम बन्द होते ही इनके कामगार सड़क पर आ जाते हैं और उनके लिए भूखे मरने की नौबत आ जाती है। इसीलिए नोटबन्दी के कुछ दिन बाद से ही देश के हर कोने से – तिरुपुर का हौज़री, भिवण्डी-इछलकरंजी का पावरलूम, लुधियाना का साइकिल-हौज़री, आगरा का जूता-पेठा, फि़रोज़़ाबाद का काँच-चूड़ी, मुरादाबाद का बर्तन, बंगाल का जूट-चाय बाग़ान, बनारस-भदोही का साड़ी-क़ालीन, आदि हर तरफ़़ से एक ही ख़बर है कि 50 से 70% तक कारोबार बन्द है, हर जगह लाखों मज़दूरों को काम पर ना आने के लिए कह दिया गया है।
लगभग 93% भारतीय श्रमिक असंगठित, अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं और इनकी पूरी आमदनी नक़दी में है। नक़दी के अभाव से इनके छोटे धन्धे बन्द हो रहे हैं या इनका रोज़़गार छिन जा रहा है। इन मज़दूरों और छोटे कारोबारियों दोनों को ही इसकी वजह से या तो और भी कम मज़दूरी पर काम करने को मजबूर होना पड़ रहा है या अपना माल बड़े कारोबारियों को उनकी मनमानी क़ीमतों पर बेचकर नुक़सान उठाना पड़ रहा है। नहीं तो सूदखोरों के पास जाकर अपनी भविष्य की कमाई का एक हिस्सा सूद के रूप में उनके नाम लिख देने के साथ किसी तरह कुछ बचाकर इकठ्ठा की गयी एकाध बहुमूल्य वस्तु गिरवी भी रखने की मज़बूरी है जो फिर वापस न आने की बड़ी सम्भावना है।
यही स्थिति गाँवों के छोटे-मध्यम किसानों की है। ये किसान अपनी एक फ़सल बेचकर जो नक़दी पाते हैं, उससे ना सिर्फ़़़ अपने परिवार के ख़र्च का इन्तज़ाम करते हैं बल्कि अगली फ़सल बोने का भी। इनके पास ऐसी क्षमता नहीं है कि वे अपनी फ़सल को कुछ समय भी रोक सकें। अब नोटबन्दी की वजह से नक़दी की कमी के बहाने धान, आलू, टमाटर, प्याज, सेव, कपास, आदि सभी फ़सलों की क़ीमतों में मण्डी के ख़रीदार आढ़तियों ने 40-50 फ़ीसदी तक की कमी कर दी है। इन हालात में इन्हें एक और तो अपनी ख़रीफ़ की फ़सल को नक़दी की कमी में औने-पौने दाम बेचने की मज़बूरी है, वहीं अगली फ़सल की बुआई के लिए साधन जुटाने वास्ते सूदखोरों से 30-50% के सूद पर क़र्ज़ लेना मज़बूरी है जिसके लिए खेत और गहने भी गिरवी रखे जाते हैं। धनी किसानों-कारोबारियों (यही सूद का धन्धा भी करते हैं) के अपने समर्थक वर्ग आधार की मदद करने के लिए सरकार ने सहकारी बैंकों/समितियों पर भारी रुकावटें भी लगा दी हैं क्योंकि इनसे कुछ मध्यम-छोटे किसानों को कुछ क़र्ज़ मिलता था, अब वह रास्ता भी बन्द हो गया है। इस प्रक्रिया में बहुत से ग़रीब किसान अपनी ज़मीनों से हाथ धो बैठेंगे। पिछले तीन वर्षों में खेती-किसानी के संकट और सूखे ने पहले ही कृषि ज़मीनों की क़ीमतों में भारी कमी कर दी है।  कुछ क्षेत्रों में तो खेती लायक ज़मीनों की क़ीमतें 40% तक नीचे आयी हैं। ऐसे हालात में क़र्ज़ लेने वाले किसानों के लिए स्थिति और भी ख़राब होने वाली है, कम क़र्ज़ के लिए ज़्यादा खेत गिरवी तथा संकट की स्थिति में ज़मीन बेचने पर और कम क़ीमत मिलने की मज़बूरी। इस स्थिति में छोटे-मध्यम किसानों की ज़मीनों को इन धनी किसानों-कारोबारियों द्वारा ख़रीदकर उन्हें मज़दूर बनाने की प्रक्रिया में और भी तेज़ी आयेगी।
ऊपर से सरकार ने पुराने नोटों को बदलने के जो नियम बनाये हैं उसमें बहुत से ग़रीब लोग अपने थोडे से पुराने नोटों को बदलवाने में भी असमर्थ हैं। याद रखें कि अभी भी 5 करोड़ से ज़्यादा वयस्क लोगों के पास आधार या और कोई पहचान नहीं है। जनधन योजना में खुले 25 करोड़ खातों (जिनमें से 6 करोड़ में अभी भी शून्य राशि जमा है!) के बाद भी कुल जनसंख्या के मात्र 53% वयस्कों के बैंक खाते हैं। इनमें से भी 40 फ़ीसदी अर्थात हर 5 में से 2 खाते निष्क्रिय हैं अर्थात सालों से उनमें कोई गतिविधि नहीं हुई। असल में तो सिर्फ़़़ 15 फ़ीसदी खातों में ही लेन-देन होता है। कुल जनसंख्या के 60% लोग ऐसी जगहों पर रहते हैं जहाँ कोई बैंक शाखा नहीं है अर्थात ये लोग बैंक में कुछ करना चाहें तो इन्हें अपना काम-धन्धा छोड़कर मीलों चलकर जाना होता है। ऊपर से सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में पाये जाने वाले सहकारी बैंकों को नोट बदलने से रोक दिया। अब तो 31 दिसम्बर तक पुराने नोट बदल पाने के अपने पहले ऐलान से मुकरकर सरकार ने 24 नवम्बर को ही नोट बदलने का काम बन्द कर दिया। इससे ज़ाहिर है कि बहुत सारे खाता-पहचान पत्र विहीन ग़रीब लोगों को अपने पुराने नोटों को बदलवा पाने में असमर्थ रहने पर अपने 500 के नोटों को 200-300 रुपये में बेचने पर मजबूर होना पड़ रहा है जो इनके लिए एक कमरतोड़ नुक़सान है। मेहनतकश लोगों में भी सबसे ज़्यादा शोषित मज़दूर स्त्रियाँ होती हैं जिन्हें श्रम के शोषण के साथ पुरुषवादी समाज का भी अत्याचार झेलना होता है। शराबी, अपराधी, ग़ैरजि़म्मेदार मर्दों से विवाहित स्त्रियों के लिए नक़दी के रूप में रखी कुछ छिपायी हुई रक़म मुसीबत के वक़्त का सहारा होती है। अब यह रक़म इनमें से ज़्यादातर के हाथ से निकल गयी है।
साथ ही जो नक़दी जनता के बड़े हिस्से को अपने छोटे कारोबारों की चालू पूँजी या वक़्त ज़रूरत की बचत को बैंकों में जमा करने के लिए मजबूर किया गया है उस पर बैंकों ने तुरन्त ही ब्याज़ दरें घटा दी हैं मतलब एक और नुक़सान! कुल मिलाकर देखें तो नोटबन्दी की पूरी प्रक्रिया में आम मेहनतकश जनता की थोडी बहुत सम्पत्ति का एक बडा हिस्सा उनके हाथ से निकलकर सम्पत्तिशाली तबक़े के हाथ में हस्तान्तरित हो जाने वाला है। भारत पहले ही एक बेहद असमानता वाला समाज है – 10% शीर्ष तबक़े के पास 81% सम्पत्ति है (इसमें भी 1% शीर्ष तबक़े के पास ही 58% सम्पदा है), जबकि नीचे के 50% के पास सिर्फ़़ 2% सम्पत्ति है। ऐसे समाज में नोटबन्दी का नतीजा असमानता को और भी ज़्यादा बढ़ायेगा तथा निम्न मध्य तबक़े की 40% जनसंख्या को भी और ग़रीबी-कंगाली की ओर धकेलने की प्रक्रिया को और तेज़ करेगा। जहाँ तक इन कुछ बेहतर स्थिति वाले निम्न मध्यवर्गीय अर्द्ध श्रमिकों-छोटे कारोबारियों का सवाल है, उन्हें पहले ही घटते निर्यात और घरेलू माँग में कमी से कम होते निवेश की वजह से नौकरियों से हाथ धोना पड़ रहा है। अब नक़दी के अभाव से माँग और निवेश में मन्दी से यह प्रक्रिया और तेज़ होगी। एक अनुमान के अनुसार सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में एक फ़ीसदी की गिरावट से 20 लाख से ज़्यादा लोग बेरोज़़गार होंगे। इस आधार पर सकल घरेलू उत्पाद दर में गिरावट के विभिन्न अनुमानों के आधार पर 50 लाख से 1 करोड़ लोग तक अपने रोज़़गार से हाथ धो सकते हैं। और ज़्यादातर अर्थशास्त्रियों के अनुमानानुसार यह स्थिति सिर्फ़़ कुछ महीने नहीं बल्कि एक साल या उससे भी ज़्यादा तक रह सकती है। इस ज़बरदस्ती लाद दी गयी बेरोज़़गारी से अपनी थोड़ी सी जमा-पूँजी खोकर कंगाल हुए बहुत से मेहनतकश लोगों के लिए तो यह बदहाली स्थाई भी बन सकती है।
इसके विपरीत हम पूँजीपति और अमीर तबक़े की स्थिति पर नज़र डालते हैं। सस्ती ब्याज़ दरों पर जमा की रक़म से अब बैंक क़र्ज़ की ब्याज़ दरों को भी कुछ हद तक घटाया जा रहा है। यह क़र्ज़ कौन लेता है? बैंकों से क़र्ज़ का 80% हिस्सा पूँजीपतियों और उच्च मध्यम वर्ग के अमीरों द्वारा निवेश से और कमाई के लिए लिया जाता है। अब सस्ती ब्याज़ दरों से इन्हें तुरन्त इसका फ़ायदा होगा, उनकी पूँजी की लागत कम होने से मुनाफ़ा बढ़ेगा। दस बड़े पूँजीपति घरानों ने ही 7.3 लाख करोड़ रुपये बैंकों से क़र्ज़ लिया है। अगर ब्याज़ दर 0.1% भी कम हो तो इन्हें 730 करोड़ रुपये का लाभ होगा जो इन ग़रीब जमा करने वालों की जेब से आयेगा। इसीलिए यह सब पूँजीपति इसके समर्थन में खड़े हैं।
अब ज़मीन-मकान आदि सम्पत्ति की क़ीमतें कम होने के सवाल पर आते हैं। हमें समझना चाहिए कि क़ीमतें बढ़ने और कम होने दोनों चक्रों का फ़ायदा उसी तबक़े को होता है जिसके पास पूँजी, सूचना और पहुँच होती है। पिछले सालों में जिन बहुत से लोगों ने क़र्ज़ लेकर महँगी क़ीमतों पर ज़मीन-मकान ख़रीदे हैं अब नौकरियाँ-मज़दूरी कम होने की स्थिति में इनको ही कम क़ीमतों पर बेचने को मजबूर होना पड़ेगा न कि रियल एस्टेट के कारोबारियों को। बल्कि ये कारोबारी ही फिर से सस्ती क़ीमतों पर सम्पत्ति ख़रीदकर अगले क़ीमत वृद्धि चक्र में मुनाफ़ा कमाने की स्थिति में होंगे, न कि अमीर बनने के सपने देखते निम्न मध्य वर्गीय लोग। अमेरिका में वित्तीय संकट के दौरान यही हुआ था। निम्न मध्य वर्गीय लोगों ने क़र्ज़ लेकर जो घर महँगे दामों पर ख़रीदे थे, रोज़़गार छिन जाने से जब उनकी किश्तें जमा ना हुईं तो बैंकों ने उन्हें अपने क़ब्ज़े में लेकर नीलाम कर दिया जिसे सम्पत्ति के कारोबारियों ने औने-पौने दामों ख़रीदा तथा अब फिर से इनकी क़ीमतें 2008 के स्तर पर आने से भारी मुनाफ़ा कमाया। डूबे क़र्ज़ सस्ते में ख़रीद कर मुनाफ़ा कमाने का भी एक बड़ा कारोबार है जिसके लिए कई कम्पनियाँ भारत में भी खड़ी हो चुकी हैं।
अब समझते हैं कि काला धन असल में होता क्या है, क्यों और कैसे पैदा होता है और इसका क्या किया जाता है। काले धन का अर्थ है ग़ैरक़ानूनी कार्यों तथा टैक्स चोरी से हासिल किया गया धन। इसको कुछ उदाहरणों से समझते हैं। पिछले दिनों ही बिजली उत्पादन करने वाली बड़ी कम्पनियों द्वारा 60 हज़ार करोड़ रुपये काला धन का मामला सामने आया था। इन कम्पनियों, जिनमें जिन्दल, अनिल अम्बानी और गौतम अडानी की कम्पनियाँ भी हैं, ने ऑस्ट्रेलिया से कोयला आयात किया लेकिन ऑस्ट्रेलिया की कम्पनी से सौदा इन कम्पनियों ने नहीं, बल्कि इनकी ही दुबई या सिंगापुर स्थित कम्पनियों ने किया, कहें कि 50 डॉलर प्रति टन पर और फिर अपनी इस कम्पनी से इन कम्पनियों ने यही कोयला मान लीजिये 100 डॉलर प्रति टन पर ख़रीद लिया। तो भारत से 100 डॉलर बाहर गया लेकिन ऑस्ट्रेलिया 50 डॉलर ही पहुँचा। बीच का 50 डॉलर दुबई/सिंगापूर में इनकी अपनी कम्पनी के पास ही रह गया – यह काला धन है! इससे इन कम्पनियों को क्या फ़ायदा हुआ? इनकी भारतीय कम्पनी ने ज़्यादा लागत और कम मुनाफ़ा दिखाकर टैक्स बचाया; लागत ज़्यादा दिखाकर बिजली के दाम बढ़वाये और उपभोक्ताओं को लूटा; कई बार घाटा दिखाकर बैंक का क़र्ज़ मार लिया जो बाद में आधा या पूरा बट्टे खाते में डाल दिया गया। ऐसे ही अडानी पॉवर ने दक्षिण कोरिया से मशीनरी मँगाने में 5 हज़ार करोड़ रुपया ज़्यादा का बिल दिखाकर इतना काला धन विदेश में रख लिया। आयात में की गयी इस गड़बड़ी को ओवर इन्वॉयसिंग या अधिक क़ीमत का फ़र्ज़ी बिल बनवाना कह सकते हैं। निर्यात में इसका उल्टा या अण्डर इन्वॉयसिंग किया जाता है अर्थात सामान ज़्यादा क़ीमत का भेजा गया और बिल कम क़ीमत का बनवा कर अन्तर विदेश में रख लिया गया। रिज़र्व बैंक ने अभी कुछ दिन पहले ही बताया कि 40 साल में इस तरीक़़़े से 170 खरब रुपया काला धन विदेश में भेज दिया गया।
विदेश में रख लिया गया यह काला धन ही स्विस बैंकों या पनामा जैसे टैक्स चोरी की पनाहगाहों में जमा होता है और बाद में घूम-फिरकर मॉरीशस आदि जगहों में स्थापित काग़ज़ी कम्पनियों के पी-नोट्स में लग जाता है और विदेशी निवेश के तौर पर बिना कोई टैक्स चुकाये भारत पहुँच जाता है। विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के नाम पर भारत सरकार इस पर फिर से होने वाली कमाई पर भी टैक्स छूट तो देती ही है, यह हज़ारों करोड़ रुपया किसका है यह सवाल भी नहीं पूछती!
फिर देश के अन्दर भी विभिन्न तरह से काला धन पैदा होता है। जैसे बेलारी/गोवा आदि में लौह खनन करने वाले रेड्डी बन्धुओं जैसे माफि़या कारोबारियों ने जितना लौह अयस्क निकालकर बेचा उससे बहुत कम खातों में दिखाया और बाक़ी काले धन के रूप में रह गया। इसके अतिरिक्त किराये, निवेश और बॉण्ड आदि गतिविधियों (राजनेता, पुलिस, नौकरशाह) और आमदनी छुपाने के अनेक तरीक़़ों (रियल एस्टेट कारोबारी, निजी अस्पताल, शिक्षा के सेठ) के ज़रिये भी काला धन बनाया जाता है। लेकिन कुछ अपवादस्वरूप कंजूस कि़स्म के व्यक्तियों को छोड़कर यह काला धन बैंक नोटों के रूप में नहीं रखा जाता बल्कि ज़मीन-मकान जैसी सम्पत्तियों, बहुमूल्य धातुओं, तथा कि़स्म-कि़स्म की कम्पनियाँ-ट्रस्ट-सोसायटी, आदि बनाकर और कारोबार में लगा दिया जाता है जिससे और भी कमाई होती रहे। इस धन को क़ानूनी बनाने के अनेक उपाय हैं, इसमें इन्हें टैक्स वकीलों, चार्टर्ड एकाउण्टेण्टों और ख़ुुद सरकारी अमले की मदद भी मिलती है। इन तरीक़़ों का इस्तेमाल करते हुए छुटभैयों (काग़ज़ों पर चलने वाली अनेक खैराती संस्थाएँ यही काम करती हैं) से लेकर बड़ी मछलियाँ तक करों की छूट वाले देशों के ज़रिये भारत में सीधे विदेशी निवेश के रूप में वापस ले आती हैं। ग़ैरक़ानूनी धन पैदा करने और चलाने के इन उपायों पर नोटबन्दी का कोई असर नहीं पड़ेगा।
उपरोक्त से यह तो साफ़़ ही है कि घरों में नोटों के ढेर न लगाकर, बैंकों के ज़रिये ही यह काला या चोरी का धन विभिन्न कारोबार में लग जाता है। अनेक विश्लेषकों ने बख़ूूबी दिखाया है कि पिछली छापामारी के आँकड़े दिखाते हैं कि सिर्फ़़ 5% काला धन ही नक़दी (जिसमें जेवर भी शामिल हैं) के रूप में रहता है। इसलिए नोटबन्दी से कालाधन वाले असली कारोबारियों को न तो कुछ नुक़सान होने वाला है न ही इनका काले धन का चोरी का कारोबार रुकने वाला है। अगर इनके पास तात्कालिक ज़रूरत के लिए कुछ नोट इकठ्ठा हों भी तो भी वर्तमान व्यवस्था में राजनेताओं, अफ़सरों, पुलिस, वित्तीय व्यवस्था में इनका रुतबा और पहुँच इतनी गहरी है कि उन्हें खपाने में इन्हें कोई ख़ास दिक़्क़त नहीं आती। कुछ कमीशन – सुविधा शुल्क देकर उनके काले धन को ठिकाने लगाने में इन्हें कोई तक़लीफ़ पेश आने वाली नहीं है।
जहाँ तक पूँजीवादी तबक़े की मीडिया और विश्लेषकों का सवाल है, वे इसे अस्थाई तक़लीफ़ के बाद टैक्स चोरी पर रोक लगने के तर्क से उचित ठहरा रहे हैं। लेकिन अगर टैक्स चोरी को ही रोकना है तो वोडाफ़ोन का 20 हज़ार करोड़ का टैक्स (केर्न, वेदान्ता, आदि भी हैं) इस सरकार ने माफ़ क्यों किया? अभी साढ़े चार हज़ार करोड़ के बग़ैर नियम के टैक्स छूट को सीएजी ने उजागर किया, वह कैसे? विदेशी निवेशकों और पी-नोट्स के पैसे पर टैक्स छूट क्यों? इन सब बड़े टैक्स चोरों को पकड़ने में क्या ऐतराज़ है? अगर वर्तमान शासकों को काला धन वास्तव में ही ज़ब्त करना या बन्द करना होता तो ऊपर दिये गये उदाहरणों वाले कारोबारियों की जाँच करते, उसमें पैदा काले धन का पता लगाते और उसे ज़ब्त कर इनको सज़ा दिलवाते। लेकिन सब सामने होते हुए भी इन मामलों में कुछ न कर पुराने नोटों को बन्द कर नये चलाने की नौटंकी से काले धन और भ्रष्टाचार से लड़ने की नौटंकी की जा रही है। असल में तो शासन में बैठे लोग इस पूँजीपति वर्ग के ही प्रतिनिधि हैं और उनके धन से ही चुनाव लड़कर सत्ता प्राप्त कर उनकी सेवा करते हैं तो उनसे इनके ि‍ख़‍लाफ़  कोई क़दम की उम्मीद करना ही बेमानी है। अब जबकि इस नौटंकी की पोल खुलने लगी है तो आयकर विभाग द्वारा छापे मारकर काला धन पकड़ने का प्रचार शुरु किया गया है लेकिन हमें जानना चाहिए कि यह छापामारी आयकर विभाग का एक नियमित कार्य है जिसको प्रचारित कर काले धन के ि‍ख़‍लाफ़  लड़ने का यह छद्म प्रचार ही चल रहा है। अगर यह करने से ही काला धन निकलने वाला था तो इसके लिए पूरे देश की जनता को परेशन किये बग़ैर 2 साल पहले ही किया जा सकता था। लेकिन ऐसा करने का कोई वस्तविक इरादा नहीं है, नहीं तो कई लाख करोड़ के टैक्स डिफॉल्टरों और बैंक क़र्ज़ दबाये बैठे पूँजीपतियों की सम्पत्ति क्यों नहीं ज़ब्त कर ली जाती?
इनको राहत देने के लिए तो पहले एक 45 फ़ीसदी टैक्स वाली स्कीम आयी थी काला धन बाहर लाने वाली; मोदी-जेतली जोड़ी ने खु़द ही वाहवाही भी कर ली थी कि 65 हज़ार करोड़ का काला धन घोषित हो गया। अब उसमें से 24 हज़ार करोड़ के दावे तो फ़र्ज़ी निकल आये हैं तथा ऐसे ही और भी निकल सकते हैं।  फिर नोटबन्दी आयी; इस बार कहा गया 5 लाख करोड़ काली कमाई नष्ट कर देगा मोदी जी का ब्रह्मास्त्र! यह सब रिज़र्व बैंक सरकार को देगा जिससे मोदी जी देश में अच्छे दिन ला देंगे। अब पूरा एक महीना अभी बाक़ी है और बस 3 लाख करोड़ ही बाहर बचा है। यह तीर भी ख़ाली गया। अब फि़फ़्टी-फि़फ़्टी का फ़ार्मूला लाया गया है मामले को सँभालने के लिए। लगता है कि आखि़र के दिनों में इसमें भी बड़ी रक़म घोषित होने के ऐलान होंगे, चाहे बाद में फ़र्ज़ी ही निकलें! इससे फिर प्रचार किया जायेगा कि मोदी जी की सख्ती से सब काले धन वाले डर गये और खु़द ही बाहर आ गये। इसीलिए आजकल इनकम टैक्स की रेड में नोट और सोना बरामदगी की कहानियाँ ख़ूब प्रचारित हो रही हैं। थोड़ी अधिक उम्र वाले जिन लोगों को इमरजेंसी की थोड़ी याद होगी वो जानते हैं कि उस दौरान भी रेडियो/अख़बार में इनकम टैक्स छापों या सूदखोरों के पकड़े जाने की ख़बरें भरी होती थीं।  वैसे इनकम टैक्स में एक डिपार्टमेण्ट ही है जिसका काम ही साल भर यह छापे मारना है, उसमें से कुछ ख़बरें रोज़़ छपवाना कोई बड़ी बात नहीं। लेकिन जिस तरह से यह प्रचार चल रहा है उससे मोदी की ग़रीबों के लिए काली कमाई वाले अमीर लोगों के ि‍ख़‍लाफ़  जान की बाजी लगाकर लड़ने वाली इमेज के लिए ज़रूरी है कि किसी तरह यह दिखाना कि बड़ी मात्रा में काला धन ज़ब्त हुआ है।
यह आम तजुर्बे और ज्ञान का विषय है कि जहाँ भी अफ़सरशाही के नियन्त्रण में जीवन की गतिविधि आती हैं उसमें बेईमानी और कालाबाज़ारी बढ़ती ही जाती है। यह नियन्त्रण केरोसिन तेल पर हो या चीनी, सीमेण्ट या सोने या रुपये पर हो, नतीजा यही होता है। इसलिए नोटबन्दी से पैदा की गयी मुद्रा की नक़ली कमी से भी कालाबाज़ारी का एक बड़ा और नया धन्धा खड़ा होना ही था, जो अब हम सबके सामने है। लेकिन इन छापों में करोड़ों पकड़े जाने से यह धन्धा बन्द नहीं होता। इससे तो निजी गिरोहों द्वारा शुरू किये जाने वाले इस धन्धे में पुलिस-अफ़सरशाही-जजों और उनके ज़रिये राजनीतिक तन्त्र – सरकार की हिस्सेदारी और तालमेल स्थापित होता है। ऐसे ही सरकारी तन्त्र से लेकर निजी कारोबारियों और अपराधी गिरोहों की साँठ-गाँठ की गिरोहबन्दी पूरे प्रशासनिक-आर्थिक-राजनीतिक ताने-बाने को अपने नियन्त्रण में लेती है। अभी आयकर-पुलिस की जो छापेमारी चल रही है, मोदी जी जो चेतावनी जारी कर रहे हैं, उसका इंगित यही है – काला धन्धा करना है तो हमसे बचकर नहीं कर पाओगे! हमारा हिस्सा, चुनाव के समय हमारी मदद, सामाजिक गतिविधियों पर नियन्त्रण के लिए गुण्डा दल की व्यवस्था और रसद-पानी – यह सब करो तभी कर पाओगे। और यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है, इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व में ठीक यही काम कांग्रेस एक ज़माने में कर चुकी है। हाँ, अब वाला फासीवादी शासक गिरोह उससे भी अधिक नियन्त्रण स्थापित करना चाहता है।
वे भारत को भ्रष्टाचार और गन्दे धन से मुक्त कराने का दावा करते हैं। उनके सत्ता में आने के लिए वोट मिलने की वजहों में से एक पिछली संप्रग दो सरकार के दौरान घोटालों की लहर भी थी, जिसका कारगर तरीक़़े से इस्तेमाल करते हुए उन्होंने देश को पारदर्शी बनाने और ‘बहुत कम सरकारी दख़ल के साथ अधिकतम प्रशासन’ का वादा किया था। वे अपना आधा कार्यकाल बिता चुके हैं और उनके शासन में ऊँचे कि़स्म के भ्रष्टाचार की फ़सल भरपूर लहलहाती हुई दिख रही है। भ्रष्टाचार के मुहाने यानी राजनीतिक दल अभी भी अपारदर्शी हैं और सूचना का अधिकार के दायरे से बाहर हैं। ‘पनामा लिस्ट’ में दिये गये 648 काले धन वालों के नाम अभी भी जारी नहीं किये गये हैं। उनकी सरकार ने बैंकों द्वारा दिये गये 1.14 लाख करोड़ रुपये के कॉरपोरेट क़र्ज़ों को नन-परफ़ॉर्मिंग असेट्स (एनपीए) कहकर माफ़ कर दिया है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए 11 लाख करोड़ है, लेकिन कॉरपोरेट लुटेरों के ि‍ख़‍लाफ़  कोई भी कार्रवाई नहीं की जा रही है। कॉरपोरेट अरबपतियों का सीधा कर बकाया 5 लाख करोड़ से ऊपर चला गया है, लेकिन मोदी ने कभी भी इसके ि‍ख़‍लाफ़  ज़ुबान तक नहीं खोली। पिछले दशक के दौरान उनको करों से छूट 40 लाख करोड़ से ऊपर चली गयी, जिसकी सालाना दर मोदी के कार्यकाल के दौरान 6 लाख करोड़ को पार कर चुकी है, जो संप्रग सरकार के दौरान 5 लाख करोड़ थी। मोदी अपने आप में कॉरपोरेट भ्रष्टाचार के भारी समर्थक रहे हैं, जो ग़ैरक़ानूनी धन का असली जन्मदाता है।
यहाँ तक कि यह भी सन्देह किया जा रहा है कि नोटबन्दी में भी भारी भ्रष्टाचार हुआ है। इस फ़ैसले को लेकर जो नाटकीय गोपनीयता बरती गयी, वह असल में लोगों को दिखाने के लिए थी। इस फ़ैसले के बारे में भाजपा के अन्दरूनी दायरे को पहले से ही पता था, जिसमें राजनेता, नौकरशाह और बिज़नेसमेन शामिल हैं। इसको 30 सितम्बर को ख़त्म होने वाली तिमाही के दौरान बैंकों में पैसे जमा करने में आने वाली उछाल में साफ़़-साफ़़ देखा जा सकता है। विभिन्न राज्यों से ख़बरें आ रही हैं कि भाजपा ने नोटबन्दी के पहले के महीनों में बड़े पैमाने पर ज़मीन-मकान ख़रीदे। इसमें इस्तेमाल होने वाले धन का स्रोत क्या था? ख़बरों के मुताबिक़़ भाजपा की पश्चिम बंगाल ईकाई ने घोषणा से कुछ घण्टों पहले अपने बैंक खाते में कुल 3 करोड़ रुपए जमा किये। एक भाजपा नेता ने नोटबन्दी के काफ़ी पहले ही 2000 रुपये के नोटों की गड्डियों की तस्वीरें पोस्ट कर दी थी और एक डिजिटल पेमेण्ट कम्पनी ने 8 नवम्बर 2016 की रात 8 बजे होने वाली घोषणा की अगली सुबह एक अख़बार में नोटबन्दी की तारीफ़़ करते हुए पूरे पन्ने का विज्ञापन प्रकाशिक कराया। असल में, नोटबन्दी ने बन्द किये गये नोटों को कमीशन पर बदलने का एक नया धन्धा ही शुरू कर दिया है। इसलिए इसमें कोई हैरानी नहीं है कि ट्रांसपेरेंसी इण्टरनेशनल द्वारा भारत की रैंकिंग में मोदी के राज में कोई बदलाव नहीं आया है जो 168 देशों में 76वें स्थान पर बना हुआ है।
जहाँ तक नक़ली नोटों का रोक लगने का सवाल है अब तो ख़ुद सरकार ने भी इसकी बात करनी कम कर दी है क्योंकि ‘द हिन्दू’ और ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ (11 नवम्बर 2016) की रिपोर्ट के अनुसार NIA जैसी केन्द्रीय एजेंसियों और भारतीय सांख्यिकी संस्थान, कोलकाता (ISI) के अनुसार हर वर्ष 70 करोड़ रुपये के नक़ली नोट प्रचलन में आते हैं और देश में कुल नक़ली करेंसी की मात्रा 400 करोड़ रुपये या 10 लाख नोटों में 250 नोट आँकी गयी है। अब इसको ख़त्म करने के लिए पूरी करेंसी को बदलने पर 15-20 हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च करना अगर मूर्खता भी नहीं तो अविवेकी फ़ैसला तो कहा ही जायेगा जैसे सड़क पर चींटी मारने के लिए रोड रोलर चलाना! वैसे रिज़र्व बैंक का यह भी कहना है कि छापने की जल्दी के कारण इन नये नोटों में कोई सुरक्षा उपाय नहीं जोड़े जा सके। मतलब इनके नक़ली नोट छापना और भी आसान होगा। इसीलिए नये नोट बाज़ार में आने के चन्द दिनों के अन्दर ही इनके नक़ली नोट भी बड़ी मात्रा में देश के विभिन्न कोनों से पकड़े जाने शुरू हो गये हैं।
वर्तमान पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्था का आधार ही मेहनतकशों के श्रम द्वारा उत्पादित मूल्य को हथियाकर अधिकतम मुनाफ़ा और निजी सम्पत्ति इकठ्ठा करना है, जिसमें एक और आधी से ज़्यादा सम्पत्ति के मालिक 1% लोग हैं और दूसरी और ग़रीब लोगों की बहुसंख्या। इतनी भयंकर असमानता और शोषण वाले समाज में न भ्रष्टाचार ख़त्म हो सकता है न अपराध। इनको ख़त्म करने के लिए तो पूँजीवाद को ही समाप्त करना होगा।  हाँ, वास्तविक समस्याओं से जनता का ध्यान हटाने के लिए ऐसे नाटक दुनिया भर में बहुत देशों में पहले भी ख़ूब हुए हैं और आगे भी होते रहेंगे। ख़ास तौर पर मोदी सरकार जो विकास, रोज़़गार, आदि के बड़े वादे कर सत्ता में आयी थी जो बाद में सिर्फ़़ जुमले निकले, उसके लिए एक के बाद एक ऐसे कुछ मुद्दे और ख़बरें पैदा करते रहना ज़रूरी है जिससे उसके समर्थकों में उसका दिमाग़ी सम्मोहन टूटने न पाये क्योंकि असलियत में तो इसके आने के बाद भी जनता के जीवन में किसी सुधार-राहत के बजाय और नयी-नयी मुसीबतें ही पैदा हुई हैं। इससे काला धन/भ्रष्टाचार/अपराध/आतंकवाद ख़त्म हो जायेगा – यह कहना शेखचिल्ली के कि़स्से सुनाने से ज़्यादा कुछ नहीं।
जहाँ तक कैशलेस लेन-देन का सवाल है, अब जबकि सरकार को यह स्वीकार करना पड़ा है कि अवैध घोषित सब नोट वापस बैंक में जमा हो जाने वाले हैं और जनता को बेहद तक़लीफ़ देने के बाद भी लगभग नगण्य काला धन बाहर आयेगा तो मोदी ने नया राग अलापना शुरू कर दिया है कि वह देश में कैशलेस व्यवस्था लाना चाहते हैं। तर्क दिया जा रहा है कि नक़दी के बजाय डिजिटल लेन-देन बढ़ने से रिकॉर्ड रहेगा, खातों में पारदर्शिता बढ़ेगी, भ्रष्टाचार और काला धन कम होगा, इससे ज़्यादा टैक्स वसूल होगा, जिसे सरकार समाज कल्याण के कार्यों पर ख़र्च करेगी।
जहाँ तक कैश के कम इस्तेमाल से काला धन कम होने का सवाल है, यह बात सही है कि आम लोगों द्वारा किये गये लेन-देन का रिकॉर्ड रहेगा लेकिन इससे काले धन के कारोबारियों पर रोक लगेगी ऐसा कोई अर्थशास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इसके विपरीत बग़ैर कैश के भी काला धन पैदा होने के बहुत से उदाहरण हैं। जैसे, शेयरों के सट्टाबाज़ार स्टॉक एक्सचेंज का काम-काज पूरी तरह ‘कैशलेस’ होता है।  फिर भी काले धन का यह प्रमुख अड्डा है, सबसे ज़्यादा स्कैम, घपले, ठगी, आदि यहीं होती है। 1995 के हर्षद मेहता गिरोह ने तो पूरे बैंकिंग सिस्टम के ही घुटने टिकवा दिये थे। 2001 में केतन पारीख गिरोह ने फिर से बैंकिंग सिस्टम को तगड़ा झटका दिया था। पर इन दोनों ने कैश क़तई इस्तेमाल नहीं किया था, यह सब कुछ बैंकिंग चैनल के ज़रिये हुआ था। शायद मोदी सरकार की नज़र में यह घपला था ही नहीं, इन दोनों को तो ईनाम मिलना चाहिए, कैशलेस के ब्राण्ड एम्बेसडर होने का! आयात में क़ीमत से ज़्यादा बिल और निर्यात में क़ीमत से कम बिल द्वारा काला धन पैदा करने वाले तरीक़़े जो ऊपर बताये गये वे भी ‘कैशलेस’ और डिजिटल तरीक़़े से ही चलते हैं। इसका पैसा जब मॉरीशस-सिंगापुर होते हुए बिना पहचान वाले पी-नोट्स के ज़रिये विदेशी निवेश के रूप में आता है तो वह भी कैशलेश और डिजिटल होता है। बड़े प्रोज़ेक्ट्स बढ़ी-चढ़ी लागत के फ़र्ज़ी बिलों के ज़रिये जो बैंक क़र्ज़ लिया और बाद में कम्पनी को बीमार कर मारा जाता है वह भी सब कैशलेस ही होता है। विजय माल्या ने जो 9 हज़ार करोड़ का चूना बैंकों को लगाया वह भी तो पक्का कैशलेस और डिजिटल था, बोरी में नक़दी भरकर नहीं भागा वह!
अगर दुनिया के और देशों का भी उदाहरण देखें तो दक्षिण कोरिया और नाइजीरिया जैसे देशों में सकल घरेलू उत्पाद में नक़दी की मात्रा बहुत कम – लगभग 4% – है लेकिन दोनों में भ्रष्टाचार कम होने का कोई प्रमाण नहीं बल्कि दक्षिण कोरिया की राष्ट्रपति को तो फि़लहाल ही भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते पद से हटने के लिए मजबूर किया जा रहा है। इसके विपरीत जापान में भारत के 11.7% के मुकाबले 20% नक़दी है लेकिन वहाँ भारत से बहुत ज़्यादा भ्रष्टाचार का कोई प्रमाण नहीं।
फिर मात्र आम लोगों के लेन-देन का रिकॉर्ड रखने में सरकार इतनी दिलचस्पी क्यों दिखा रही है? इसकी एक बड़ी वजह है कि इससे लोगों के ऊपर निगाह रखना, उनकी जासूसी करने का एक मजबूत तन्त्र खड़ा होगा। हाल के वक़्त में दुनिया के सभी पूँजीवादी देशों की सरकारें भिन्न विचार रखने वाले, अधिनायकवादी प्रवृत्तियों का विरोध करने वाले व्यक्तियों पर निगहबानी का शिकंजा कसने में बहुत निवेश कर रही हैं जिससे जनवादी आन्दोलनों को नियन्त्रित किया जा सके। इसका एक दूसरा उपयोग ऐसे कार्यकर्ताओं को बदनाम करने के लिए उनके किसी पुराने लेन-देन, किसी वस्तु की ख़रीद को बग़ैर सन्दर्भ बताये प्रचारित करने में भी किया जाता है। गुजरात के 2002 के साम्प्रदायिक दंगों में मोदी की भूमिका की विरोधी कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ को बदनाम करने के लिए अभी कुछ ही समय पहले गुजरात पुलिस ने ऐसे ही उनके क्रेडिट कार्ड के रिकॉर्ड का प्रयोग किया था।
इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण नक़दी रहित मात्र इलेक्ट्रॉनिक मुद्रा की स्थिति में किसी व्यक्ति ही नहीं बल्कि पूरे इलाक़़े के जनसमुदाय के जीवन को मात्र कीबोर्ड पर कुछ बटन दबाकर पंगु बना देना भी शासक तबक़े के लिए बहुत आसान हो जायेगा। अभी ही हम देखते हैं कि किसी भी आन्दोलन की स्थिति में प्रशासन सबसे पहले मोबाइल-इण्टरनेट को ही बन्द करता है। पिछले एक साल में हरि‍याणा के जाट आन्दोलन, गुजरात के पाटीदार आन्दोलन, कश्मीर, झारखण्ड, उत्तर-पूर्व आदि में कुल जोडें तो 250 दिन तक इण्टरनेट/मोबाइल पर रोक लगायी जा चुकी है। कैशलेस डिजीटल लेन-देन पर निर्भरता की स्थिति में प्रशासन के लिए किसी भी क्षेत्र के समस्त जनसमुदाय को उनके धन तथा वस्तुओं की ख़रीद-फ़रोख्त़ की आम सुविधा से भी वंचित कर पाना बेहद आसान होगा। ऐसी स्थिति किसी भी देश की जनता के लिए क़तई स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह उनके स्वतन्त्रता और जनवादी अधिकारों के हनन का रास्ता खोल देगी।
इसलिए नोटबन्दी मात्र किसी नीति के ग़लत क्रियान्वयन और कुप्रबन्ध से जनता को होने वाली तक़लीफ़ का ही सवाल नहीं है बल्कि ग़रीब, कमजोर, वंचित, शोषित, मेहनतकश बहुसंख्यक तबक़े से ताक़तवर और पहुँच वाले पूँजीपति और उच्च मध्यम वर्ग को धन/सम्पदा के बड़े और स्थाई हस्तान्तरण, साफ़़ शब्दों में कहें तो लूट और डकैती, का बड़ा सवाल है। लेकिन बुर्जुआ विपक्षी पार्टियाँ, कुछ संसदीय ‘वामपन्थी’ दलों समेत, नोटबन्दी के इस मुद्दे को मात्र कुप्रबन्ध/असुविधा के सवाल तक सीमित करना चाहते हैं क्योंकि वह जनता के गुस्से को पूँजीवादी शासन व्यवस्था के ही ि‍ख़‍लाफ़  जाने से रोकने के लिए प्रयासरत हैं।  इसके असली जनविरोधी स्वरूप के सवाल को ये पार्टियाँ नहीं उठाना चाहतीं क्योंकि अन्त में ये सब सरमायेदार तबक़े की ही सेवा करती हैं।

Monday 19 December 2016

ज़रूर पढ़िए - पे टी एम् करो देश बेचो / आसिफ अंसारी

आज आपको पेटीएम की वो असलियत बता रहा हूँ, जो वास्तव मे हर भारतीय को जान लेना चाहिए .....मै चाहूंगा कि हफ़्तों की मेहनत से लिखे गए इस लेख को आप पूरा पढ़े .....और सहमत हो तो शेयर भी करे.......
एक बात तो आप सभी मानेंगे कि नोटबंदी से सबसे अधिक फायदा पेटीएम को ही पुहंचा है.......पेटीएम से रोजाना 70 लाख सौदे होने लगे हैं जिनका मूल्य करीब 120 करोड़ रपये तक पहुंच गया है,पेटीएम हर ट्रांसिक्शन मे मोटा कमीशन वसूल रही हैं......सौदों में आई भारी तेजी से कंपनी को अपने पांच अरब डॉलर मूल्य की सकल उत्पाद बिक्री (जीएमवी) लक्ष्य को तय समय से चार महीने पहले ही प्राप्त कर लिया है.........
पर पेटीएम कंपनी है क्या?.........
एक वक्त था जब पेटीएम एक भारतीय स्टार्ट अप कंपनी हुआ करती थी पर आज यह कंपनी चीन के उद्योगपति जैक मा के हाथों का खिलौना बन चुकी है .........पर यह तो सभी जानते है कि अलीबाबा की पेटीएम मे हिस्सेदारी है पर यह आधा सच है............
पूरी कहानी समझने के लिए थोड़ा फ्लैश बैक मे जाना होगा जब जैक मा ने 1998 में अलीबाबा नामक ई कामर्स कंपनी की स्थापना की तो उनको बहुत सी बाधाओं का सामना करना पड़ा। पहले तीन सालों तक इस ब्रैंड से उनको कोई लाभ नहीं हुआ। कंपनी की सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि इसके पास भुगतान के रास्ते नहीं थे और बैंक इसके साथ काम करने को तैयार नहीं थे...........
मा ने अलीपे के नाम से खुद का पेमेंट प्रोग्राम शुरू करने का निर्णय किया। इसके तहत अंतरराष्ट्रीय खरीदारों और विक्रेताओं के बीच अलग-अलग करंसीज के पेमेंट्स को ट्रांसफर किया जाता है........
पूरा सच यह है कि अलीबाबा का अलीपे ही पेटीएम का सबसे बड़ा हिस्सेदार है दरअसल चीन या चीन के उद्योगपति भारत के व्यवसाय की "सेवा उन्मुख व्यवसाय आपूर्ति श्रंखला"(सप्लाई चेन)को तोड़ना चाहते है, ताकि वह आसानी से अपना माल भारत के बड़े बाजार मे खपा सके ......
इसके लिए उन्हें अपने नियंत्रण वाली खुद की एक सुरक्षित रसद श्रृंखला (लॉजिस्टिक्स चेन) शुरू करना है........ और चीन के विक्रेता चीन के ही किसी पेमेंट गेटवे का इस्तेमाल कर भारत मे माल बेचने मे अपने आपको सहज महसूस करेंगे ......
जो पेटीएम उन्हें उपलब्ध करा रहा है.........
पेटीएम का मूल उद्देश्य अलीबाबा और चीनी उद्योगपतियों के लिए रास्ता साफ करना है,अलीबाबा के ग्लोबल मैनेजिंग डायरेक्टर के गुरु गौरप्पन को पिछले महीने पेटीएम के बोर्ड में एडिशनल डायरेक्टर के तौर पर शामिल किया गया है ............और नोट बंदी के ठीक 4 दिन पहले अलीबाबा के सारे टॉप मैनेजर पेटीएम के नोएडा ऑफिस मे कमान सँभाल चुके थे............
अलीबाबा को चीन का पहला प्राइवेट बैंक खोलने की अनुमति मिल गयी है और भारत मे अलीबाबा के पेटीएम को भी पेमेंट बैंक खोलने की अनुमति रिजर्व बैंक ने दे दी है........
यानी एक ही कंपनी अलीबाबा ने दोनों देशों मे खुद का बैंक और खुद का पेमेंट गेटवे खोल लिया है ...
नोट बंदी के बाद 1 महीने मे छोटे और मध्यम उद्योग धंधो की जो बर्बादी हो रही है उस पुरे वैक्यूम को चीनी सामानों ला लाकर भारतीय बाजार मे पाट दिया जायेगा.........
और देश देखते देखते नयी गुलामी की तरफ बढ़ता चला जायेगा........
जो व्यापार से जुड़े लोग है वह तुरंत समझ जाएंगे क़ि यह खेल क्या है..........
आप को अब भी शायद लग रहा है कि पेटीएम इतनी बड़ी कंपनी नहीं है चलिये ये भ्रम भी आपका दूर कर देते है ...............
पेटीएम ने दुनिया की सबसे बड़ी कैब टैक्सी कंपनी उबर से हाथ मिला लिया है दिल्ली और मुंबई मेट्रो के टिकट पेटीएम के मार्फ़त ख़रीदे बेचे जा रहे है Irctc यानि रेलवे के टिकट पेटीएम से ख़रीदे बेचे जा रहे हैआईआरसीटीसी ने पेमेंट गेटवे के लिए पेटीएम के साथ साझेदारी की है और पेटीएम देश की सबसे बड़ी ट्रैवल बुकिंग प्लैटफॉर्म बनने के लिए पूरी तरह से तैयार है.........
पेटीएमने बीसीसीआई से भारत में होने वाले अंतर्राष्ट्रीय एवं घरेलू मैचों के 2015 से 2019 तक के लिए क़रीब 84 अंतरराष्ट्रीय मैचों का क़रार किया गया है।...अब रणजी ट्राफी भी पेटीएम के नाम से खेली जायेगी........
इतना ही नहीं मीडिया को भी अपने शिकंजे मे लेने की पूरी तैयारी की गयी है एनडीटीवी के गैजेट्स 360° के लिए पेटीएम की मालिक कंपनी, वन97 कम्युनिकेशंस ने पूरा निवेश किया है.........
सुबह शाम न्यूज़ चैनलों को मन भर के विज्ञापन दिए जा रहे है और तो और सरकारी न्यूज चैनल डी डी न्यूज़ भी पेटीएम का प्रचार कर रहा है............
खुदरा क्षेत्र के फ्यूचर समूह ने पेटीएम के साथ समझौता किया है। इसके तहत फ्यूचर समूह पेटीएम के मंच का प्रयोग बिग बाजार के सामान को ऑनलाइन बेचने के लिए करेगा। इस समझौते में पेटीएम के मार्केटप्लेस पर बिग बाजार एक प्रमुख स्टोर बन जाएगा..........
सरकार खुद बड़े करेंसी नोट के डीमॉनेटाइजेशन के बाद जनकल्याणकारी योजनाओं के जरिए फंड ट्रांसफर के लिए पेटीएम से हाथ मिलाने को तैयार बैठी है..........
सरकार किस हद तक पेटीएम का समर्थन कर रही है उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है पेटीएम से की गई मात्र सवा छः लाख की धोखाधड़ी की जांच सीधी सीबीआई से करायी जा रही है..............
ऐसा भी नहीं है कि इस और किसी का ध्यान नहीं है
आरएसएस की आर्थिक शाखा भी पेटीएम के चीनी संबंध पर बारीक नजर रखे हुए है। आरएसएस से जुड़ा स्वेदशी जागरण मंच (एसजेएम) चीनी उत्पाद और निवेश के खिलाफ लंबे समय से आंदोलन चला रहा है लेकिन इस बार सरकार खुद आगे बढ़कर देश को कैशलेस बनाकर चीनी उद्योगपतियों के खतरनाक मंसूबो को कामयाब बना रही है .............
बागड़ ही खेत हड़प रही है भारत की कैशलेस व्यवस्था को जब चीनी कंपनियां नियंत्रित करेंगी, तब आप खुद सोचिये अंजाम क्या होगा.........
याद रखिए पार्टी के प्रति निष्ठा या किसी नेता की भक्ति से कही अधिक बड़ा देश का हित होता है.............

Thursday 1 December 2016

कवि-विश्व की नई दस्तक 'कविकुंभ'

'गंगा-जमुनी शब्द आओ मेरे पास, जो बुलाएं, जाओ उनके पास भी',.........आज के घिरे-बिखरे शब्द-समय में सृजन-विश्व के लिए यह है, मासिक हिंदी पत्रिका 'कविकुंभ' का प्रथम भावाचमन। सविनय आवाहन। आप सुधी, सुरुचि के रचनाधर्मी हैं। आशा है, ये शब्द आपके लिए भी विश्वसनीय और स्वीकार्य होंगे। अपने नवोदित शब्द-प्रवाह में हिंदी कवियों, साहित्यकारों की यह पहली ऐसी मासिक पत्रिका है। लेखनी और मंच का पहला विश्व समागम। एक सुखद साझा महाभियान। तो आइए, आप भी, 'कविकुंभ' के इस महान अभियान में अपने शब्दों के साथ। देश के हिंदी-उर्दू बहुल बारह राज्यों में अपने शब्दों के एक साथ पढ़े जाने पर आप को भी अपने रचनाकर्म पर गर्व, प्रसन्नता होगी। हमारी आकांक्षा है कि इस नये शब्द-विश्व में देश-विदेश के लोकप्रिय कवयित्री-कवियों, शायरा-शायरों साहित्यकारों के साथ आपका भी शब्द-सहकार 'कविकुंभ' परिवार का संबल बने। भिन्न सामग्री-संचयन और विशिष्ट पहचान लिए 'कविकुंभ' शब्दों का नया जनज्वार है। अपनी अनवरत, अबाध उपस्थिति के लिए इसकी पृथक-पृथक ऐच्छिक, आजीवन, वार्षिक सहयोग राशि अपेक्षित है। आपकी सहर्ष सहमति 'कविकुंभ' परिवार की प्रेरणास्रोत होगी। [RNI REFERENCE NO.: 1297933  DM NO.: 456]    
ई-मेल संपर्कः kavikumbh@gmail.com
संपादक, 'कविकुंभ'

Monday 21 November 2016

यह किताब जरूर पढ़िए- सुब्बाराव

पिछले दिनो दिल्ली में अलख घुमक्कड़ एवं देश-विदेश के लाखों युवाओं के प्रेरणा स्त्रोत एस एन सुब्बराव (सेलम नानजुदैया सुब्बराव) से मुलाकात हुई। मेरी पुस्तक 'मीडिया हूं मैं' के पन्ने उलटने-पलटने के बाद उनकी टिप्पणी थी- 'अपने समय की सच्चाई जानने के लिए मीडिया के बारे में निर्भीकता से लिखी यह किताब आज के युवाओं को एक बार जरूर पढ़ लेनी चाहिए।' सुब्बाराव अपनी शिविर-यात्राओं के दौरान होटलों या गेस्ट हाउस में नहीं, युवा साथियों के घर में ठहरते हैं। वह बताते हैं कि पिछले दिनो तिब्बत-नेपाल आदि के साढ़े चार सौ बच्चों को उन्होंने शिक्षकों एवं परिजनों के दबाव से कुछ दिन मुक्त रखने के लिए छत्तीसगढ़ बुलाया, उन्हें साढ़े चार सौ घरों में अलग-अलग ठहराया ताकि वह हमारे देश की सांस्कृतिक समरसता में घुल मिल सकें। वे बच्चों विभिन्न समुदायों के थे। एक जमाने में सुब्बाराव की चंबल घाटी के डाकुओं के आत्मसमर्पण कराने में भी उल्लेखनीय भूमिका रही है। उन्होंने अपने भजन सुनाकर, परिजनों को रोजगार दिलाकर माधो सिंह, मोहर सिंह जैसे डाकुओं का दिल जीता था। सीमित संसाधनों में जीने वाले सुब्बाराव ने विवाह नहीं किया।, न अपना घर बनाया, बसाया। वह एक साथ 25 हजार नौजवानों तक के शिविर लगा चुके हैं। वह अमेरिका, जर्मनी, जापान, स्वीटजरलैंड आदि के अप्रवासी भारतीय परिवारों के युवाओं के बीच भी सक्रिय रहते हैं। वह किसी भी तरह के पुरस्कार एवं सम्मान से दूर रहते हैं। वह अपने लिए जिंदाबाद का नारा लगाने का सख्त विरोध करते हैं। कहते हैं कि जो जिंदा है, उसका क्यों जिंदाबाद।

हिंदुस्तानी भाषा अकादमी सम्मान

हिंदुस्तानी भाषा अकादमी की ओर से पिछले दिनो 19 नवंबर 2016 को दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान सभागार में देश के कवियों, पत्रकारों को सम्मानित किया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि पद्मश्री कवि सुरेंद्र शर्मा से समादृत होने की एक झलक।

Friday 11 November 2016

कालाधन के खेल पर प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक का यह लेख जरूर पढ़ें

काला धन वह नहीं है, जिसे हम बक्सों में, या तकिए के कवर में या जमीन के अंदर गाडक़र रखते हैं. काला धन कमाने वाले लोग भी इसे बढ़ाना चाहते हैं और इस पैसे को बाजार में या प्रचलन में लाया जाता है. मोदी सरकार ने जो किया है, वह आधुनिक भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ. यहां तक कि अंग्रेजों के शासनकाल में भी कोई बड़ा फैसला करने के पहले आम लोगों को होने वाली दिक्कतों का ध्यान रखा जाता था. काली कमाई को रोकने की दलील देकर लिए गए मोदी सरकार के इस फैसले से आम आदमी को बहुत ज्यादा परेशानी से जूझना पड़ रहा है. जाली नोटों को प्रचलन से बाहर करने की दलील भी छपाई तकनीक से जुड़ी है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार रात 8 बजे राष्ट्रीय टेलीविजन पर घोषणा की कि 8 नवंबर को आधी रात के बाद से 500 और 1000 के नोट अवैध हो जाएंगे. उस वक्त सरकार की समय सीमा खत्म होने में सिर्फ 4 घंटे बाकी बचे थे. इसे न्यायोचित ठहराने के लिए दलील दी गई कि यह काले धन के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक है. इसके अलावा यह भी कहा गया कि इससे आतंकवादियों द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे नकली नोटों को भी प्रचलन से बाहर करने में मदद मिलेगी. सरकार के कुछ उत्साही समर्थक तो इसे आतंकवाद के खिलाफ मोदी सरकार की सर्जिकल स्ट्राइक कहने से भी नहीं चूके.
नकली नोटों के मुद्दे पर हम कुछ देर बाद आएंगे. पहले बात करेंगे काले धन के बारे में सरकार के दावे की, जिसका राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी तक ने समर्थन कर दिया. सरकार ने अपनी इस दलील में यह बताने की कोशिश की थी कि 500 और 1000 रुपए के नोटों को अवैध करार दिए जाने से काले धन को रोकने में काफी मदद मिलेगी. यह बात थोड़ी बचकानी लगती है, क्योंकि तरह की दलील देने के पहले हम को यह समझना होगा कि काला धन होता क्या है? काला धन वह नहीं है, जिसे हम बक्सों में, या तकिए के कवर में या जमीन के अंदर गाडक़र रखते हैं. कुछ लोगों का यही मानना है कि और 500, 1000 के नोटों को अवैध घोषित कर दिए जाने के बाद लोग भारी मात्रा में ऐसे पुराने नोट लेकर बैंक और डाकघरों में बदलवाने के लिए पहुंचेंगे. और इस तरह की किसी संदिग्ध गतिविधि को देखते ही बैंक आयकर या दूसरी ऐसे विभागों को सूचना दे देंगे, जो टैक्स चोरी के मामलों को देखते हैं. कर अधिकारी ऐसे अपराधियों को गिरफ्तार कर पाएंगे, जो कालेधन लेकर आ रहे हैं. इससे काली कमाई हमें आई और भविष्य में इसे रोकने में भी मदद मिलेगी.
हम बात करेंगे सरकार की दलील के दूसरे हिस्से की. अगर हम इस बात को मान भी लें कि काली कमाई ढेर सारे नोटों की शक्ल में है, तो भी इससे बहुत ज्यादा लाभ होने की उम्मीद नहीं है. उदाहरण के लिए अगर हम मान लें कि किसी व्यक्ति के पास 20 करोड़ रुपए काला धन के रूप में है, जो कि 500 और 1000 रुपए के नोटों की शक्ल में है. ऐसी सूरत में भी यह बात तो तय है कि वह 20 करोड़ रुपए एक साथ लेकर किसी बैंक में बदलवाने तो नहीं जाएगा. पुराने नोटों को नए नोटों से इस तरह बदलने की अनुमति भी नहीं मिलेगी. इन हालात में वह अपने करीबी या पहचान के लोगों को थोड़ी सी रकम लेकर बैंक भेजेगा. वैसे भी सरकार ने पुराने नोटों को बदलने के लिए 30 दिसंबर तक का वक्त दिया है. शायद इतनी सारी कवायद की जरूरत ही नहीं पड़े, क्योंकि तब तक ऐसा कोई न कोई सिस्टम तलाश लिया जाएगा, जिसमें पुराने नोटों के बदले नए नोट हासिल करने का रास्ता बना लिया जाएगा. कई टीवी चैनलों में इस तरह की बातें विशेषज्ञों ने करना भी चालू कर दिया है. अगर ऐसा होता है, तो पांच और हजार रुपए के पुराने नोटों को रद्द करके कालेधन को सामने लाने की केंद्र सरकार की मंशा शायद पूरी नहीं होगी.
काली कमाई को लेकर हमारी धारणा भी गलत है. आमतौर पर हम यह मानते हैं कि काली कमाई नोटों के ढेर की शक्ल में होती है. जिसे हम सरकार या टैक्स एजेंसी की नजरों से छिपाकर बैंक की जगह कहीं और रखते हैं. वास्तव में जब हम काले धन की बात करते हैं, तो इसमें वह सारी गतिविधियां आती हैं, जिनको हम कानूनी तौर पर गलत मानते हैं. इसमें तस्करी, ड्रग का कारोबार और आतंकियों को हथियारों की सप्लाई भी शामिल है. यही नहीं कानूनी सीमा से ज्यादा किसी चीज को रखना भी ब्लैक एक्टिविटी में शामिल होता है. उदाहरण के लिए अगर हम किसी खदान से 100 टन खनिज निकालते हैं, पर 80 टन को ही घोषित करते हैं, तो हमारे पास काली कमाई आ जाती है. इसी तरह अगर हम सौ डॉलर कि किसी चीज का आयात करते हैं और सिर्फ 80 डॉलर की दस्तावेजों में घोषणा करने के बाद 20 डॉलर को स्विस बैंक में जमा करते देते हैं, तो वह एक तरह से काली कमाई का स्वरूप है. इसके अलावा हवाला के माध्यम से रुपए को विदेशी करंसी में बदल कर उसे विदेश में रखना भी एक तरह से काली कमाई जुटाना है. संक्षेप में काली कमाई का मतलब वह सारी गतिविधियां हैं, जिसे हम अघोषित रूप से करते हैं.
काली कमाई का मतलब रुपए का संग्रहण नहीं बल्कि उस को गति देना है. इसे हमें समझना होगा कि वाइट एक्टिविटीज की तरह ब्लैक एक्टिविटी भी ज्यादा से ज्यादा कमाई करने के लिए होती है. साफ है कि इसमें पैसों को जमा करके रखने से कोई लाभ नहीं होता. जानेमाने चिंतक कार्ल मार्क्स ने भी इस बात का जिक्र किया था कि लाभ पैसे को जमा करने से नहीं बल्कि उसे प्रचलन में या सरकुलेशन में लाने से होता है. यह बात हम को समझनी होगी कि ब्लैक एक्टिविटीज में शामिल लोग पूंजीवादी हैं. किसी भी कारोबारी गतिविधि में रणनीति या सोच के तहत पैसा कम और ज्यादा अवधि लिए रुका जाता है. यह धारणा भी गलत है कि काली कमाई को रोककर केवल वाइट मनी सर्कुलेशन में लाई जाती है. यही वजह है कि काली कमाई का पता लगाने के लिए बहुत ईमानदार और गंभीर कोशिशों की जरूरत होती है.
कंप्यूटर आने से काफी पहले यह माना जाता था कि ब्रिटिश इंटरनल रवेन्यू सर्विस के अधिकारी केवल अपनी जांच के आधार पर टैक्स चोरों को पकड़ लेते हैं. यह बात सही है कि भारत की तुलना में ब्रिटेन एक छोटा देश है, लेकिन अगर हम देश के आकार और आबादी के हिसाब से कर प्रबंधन देखने वाले लोगों की टीम को बढ़ाएं, तो कम से कम घरेलू अर्थव्यवस्था में हो रही टैक्स चोरी को कहीं बेहतर तरीके से पकड़ा जा सकता है. कुछ लोग मानते हैं कि काले धन का एक बड़ा हिस्सा स्विस बैंक या विदेशी बैंकों में है. चुनाव के पहले खुद नरेंद्र मोदी ने विदेशी बैंकों में जमा काली कमाई को भारत लाने की बात की थी. उनका कहना था कि बहुत बड़ी मात्रा में काला धन विदेशों में जमा है. अगर इसे मान भी लिया जाए, तो सवाल यह है कि इससे 500 और 1000 रुपए के पुराने नोटों को रद्द करने के सरकार के फैसले से क्या असर पड़ेगा, जिसने आम आदमी को परेशान किया.
यह पहली बार नहीं है जब भारत की अर्थव्यवस्था में प्रचलित नोटों को वापस लेने का फैसला हुआ है. जनवरी 1946 में भी 1,000 और 10,000 के नोटों को अवैध घोषित किया गया था. उसके बाद 1978 में मोरारजी देसाई की सरकार में भी 1000, 5000 और 10,000 के नोटों को 16 जनवरी की मध्यरात्रि से रद्द करने का निर्णय लिया था. 1946 के फैसले को छोड़ दे दिया जाए, तो 1978 में भी पुराने नोटों को रद्द करने के सरकार के फैसले से आम लोगों को कोई परेशानी नहीं हुई थी. 1978 की बात की जाए, तो उन दिनों 1000 रुपए बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी. आम लोग तो कई बार इस नोट की शकल ही नहीं देख पाते थे. देसाई सरकार के कदम से आम आदमी को परेशानी नहीं हुई, लेकिन इसके बावजूद काले धन इससे नहीं रुका. इससे ठीक उलट काली कमाई को रोकने की दलील देकर लिए गए मोदी सरकार के इस फैसले से आम आदमी को बहुत ज्यादा परेशानी से जूझना पड़ रहा है.
कुछ लोग इसे कैशलेस इकानॉमी से जोड़ सकते हैं. पर फिलहाल यह दूर की कौड़ी लगती है. यह सोच ऐसे लोगों की है, जिनको क्रेडिट कार्ड या डेबिट कार्ड हासिल करने या बैंक खाता खोलने में आम आदमी को होने वाली दिक्कतों के बारे में पता ही नहीं है. सरकार यह दलील भी दे रही है कि इससे आतंकियों के पास मौजूद जाली नोटों को रोकने में मदद मिलेगी. यह तर्क छपाई की तकनीक से जुड़ा हुआ है. यह दावा इस बात पर आधारित है कि नोटों की छपाई की नई टेक्नालॉजी की नकल नहीं की जा सकती. सरकार के इस तर्क को हम मान लेते हैं, तो ऐसा नहीं है कि इस तथ्य का पता अचानक सरकार को लगा. 8 नवंबर को जिस तरह के हालात बनें, उसे संभाला जा सकता था.

Monday 24 October 2016

सत्ता संघर्ष और मुलायम सिंह की प्रेम कहानी : एक मीडिया रिपोर्ट

इस घरेलू जंग की जड़ें कहीं और हैं, जिससे मुलायम और अखिलेश के बीच दरार पड़ी है। अमर सिंह और शिवपाल गुप्त परिवार के रास्ते गुप्त सुरंग अर्से से बिछा रहे थे। मुलायम अपनी इच्छा से यह सब नहीं कर रहे हैं, बल्कि उनसे यह सब करवाया जा रहा है। मुलायम जैसी शख़्सियत से यह सब कराने की क्षमता किसके पास है। यह भी समझने की बात है। एक जमाने में जब जब मुलायम उत्तर प्रदेश की शक्तिशाली नेता के रूप में उभरे थे तो उनके जीवन में अचानक उनकी दूसरी पत्नी साधना गुप्ता की एंट्री हुई। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक मुलायम सिंह और साधना गुप्ता की प्रेम कहानी कब शुरू हुई इस बारे में अधिकृत ब्यौरा किसी के पास नहीं है। कहा जाता है कि 1982 में जब मुलायम लोकदल के अध्यक्ष बने तब एक दिन उनकी नज़र अचानक पार्टी की गई युवा पदाधिकारी साधना पर पड़ी। तरुणी साधना बला की ख़ूबसूरत थीं, इतनी ख़ूबसूरत कि जो भी उन्हें देखता, सुध-बुध खोकर बस उन्हें देखता ही रह जाता था। मुलायम भी अपवाद नहीं थे। पहली मुलाक़ात में वह उम्र में 20 साल छोटी अद्भुत फिज़िकल फीचर वाली साधना गुप्ता को दिल दे बैठे। खास बात यह थी कि मुलायम की तरह खुद साधना भी शादीशुदा थी और उनकी शादी फर्रुखाबाद जिले के छोटे से व्‍यापारी चुंद्रप्रकाश गुप्‍ता से हुई थी। बाद में वह उनसे अलग हो गई और उसके बाद यहीं से मुलायम-साधना की अनोखी प्रेम कहानी शुरू हुई, जो तीस-बत्तीस साल बाद अंततः देश के सबसे ताक़तवर राजनीतिक परिवार में विभाजन की वजह बन रही है। अस्सी के दशक में साधना गुप्ता और मुलायम सिंह के बीच क्या चल रहा है, इसकी भनक लंबे समय तक किसी को नहीं लगी। इसी दौरान 1988 में साधना ने एक पुत्र प्रतीक गुप्ता (अब प्रतीक यादव) को जन्म दिया। कहते हैं कि साधना गुप्ता के साथ प्रेम संबंध की भनक मुलायम की पहली पत्नी और अखिलेश की मां मालती देवी को लग गई। वह बहुत ही आकर्षक और दान-धर्म में यक़ीन करने वाली महिला थीं। यहां यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि मुलायम का पूरा परिवार अगर एकजुट बना रहा है, तो इसका सारा श्रेय मालती देवी को ही जाता है। मुलायम राजनीति में सक्रिय थे। उस दौरान वे एक दूसरे को शायद ही कभी-भार देख पाते थे, लेकिन मालती देवी अपने परिवार और 1973 में जन्मे बेटे अखिलेश यादव का पूरा ख़्याल रख रही थीं। नब्बे के दशक (दिसंबर 1989) में जब मुलायम मुख्यमंत्री बने तो धीरे-धीरे बात फैलने लगी कि उनकी दो पत्नियां हैं, लेकिन वह इतने ताक़तवर नेता थे कि किसी की मुंह खोलने की हिम्मत ही नहीं पड़ती थी। बहरहाल, नब्बे के दशक के अंतिम दौर में अखिलेश को साधना गुप्ता और प्रतीक गुप्ता के बारे में पता चला। उन्हें यकीन नहीं हुआ, लेकिन बात सच थी। उस समय मुलायम साधना गुप्ता की कमोबेश हर बात मानने लगे थे, इसीलिए मुलायम के शासन (1993-2007) में साधना गुप्ता ने अकूत संपत्ति बनाई। आय से अधिक संपत्ति का उनका केस आयकर विभाग के पास लंबित है।

बहरहाल, 2003 में अखिलेश की मां मालती देवी की बीमारी से निधन हो गया और मुलायम का सारा ध्यान साधना गुप्ता पर आ गया। हालांकि वह इस रिश्ते को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं थे।
मुलायम और साधना के संबंध की जानकारी मुलायम परिवार के अलावा अमर सिंह को थी। मालती देवी के निधन के बाद साधना चाहने लगी कि मुलायम उन्हें अपना आधिकारिक पत्नी मान लें, लेकिन पारिवारिक दबाव, ख़ासकर अखिलेश यादव के चलते मुलायम इस रिश्ते को कोई नाम नहीं देना चहते थे।
इस बीच साधना 2006 में गुप्ता अमर सिंह से मिलने लगीं और उनसे आग्रह करने लगीं कि वह नेताजी को मनाए। लिहाज़ा, अमर सिंह नेताजी को साधना गुप्ता और प्रतीक गुप्ता को अपनाने के लिए मनाने लगे। 2007 में अमर सिंह ने सार्वजनिक मंच से मुलायम से साधना को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने का आग्रह किया और इस बार मुलायम उनकी बात मानने के लिए तैयार हो गए। जो भी हो, अमर सिंह के बयान से मुलायम परिवार में फिर खलबली मच गई। लोग साधना को अपनाने के लिए तैयार ही नहीं थे। इधर, अखिलेश के विरोध को नज़रअंदाज़ करते हुए मुलायम ने अपने ख़िलाफ़ चल रहे आय से अधिक संपत्ति से संबंधित मुक़दमे में सुप्रीम कोर्ट में एक शपथपत्र दिया, जिसमें उन्होंने साधना गुप्ता को पत्नी और प्रतीक के रूप में स्वीकार कर लिया। उसके बाद साधना गुप्ता, साधना यादव और प्रतीक गुप्ता प्रतीक यादव हो गए। अखिलेश ने साधना गुप्ता के अपने परिवार में एंट्री के लिए अमर सिंह को ज़िम्मेदार माना। तब से वह अमर सिंह से चिढ़ने लगे थे। वह मानते हैं कि साधना गुप्ता और अमर सिंह के चलते उनके पिताजी उनकी मां के साथ न्याय नहीं किया।
बहरहाल, मार्च सन् 2012 में मुख्यमंत्री बनने पर अखिलेश यादव शुरू में साधना गुप्ता को कतई घास नहीं डालते थे। इससे मुलायम नाराज़ हो गए और अखिलेश को झुकना पड़ा। इस तरह साधना गुप्ता ने मुलायम के ज़रिए मुख्यमंत्री पर शिकंजा कस दिया और अपने चहेते अफ़सरों को मन पसंद पोस्टिंग दिलाने लगीं। ‘द संडे गार्डियन’ ने सितंबर 2012 में साधना गुप्ता की सिफारिश पर मलाईदार पोस्टिंग पाने वाले अधिकारियों की पूरी फेहरिस्त छाप दी, तब साधना गुप्ता पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आईं। अब यह साफ़ हो गया है कि मुलायम की विरासत को लेकर चल रहे मौजूदा संघर्ष में अखिलेश की लड़ाई सीधे लीड्स यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने वाले अपने सौतेले भाई प्रतीक यादव से है। लखनऊ में रियल इस्टेट के बेताज बादशाह बन चुके प्रतीक को अपनी माता साधना गुप्ता का समर्थन मिल रहा है। चूंकि साधना नेताजी के साथ रहती हैं और उनकी बात मुलायम टाल ही नहीं सकते। यानी कह सकते हैं कि बाहरवाली से घरवाली बनी साधना गुप्ता की बात टालना फ़िलहाल मुलायम सिंह के वश में नहीं है।
लखनऊ के गलियारे में साधना गुप्ता को कैकेयी कहा जा रहा है। आमतौर पर परदे के पीछे रहने वाली साधना अखिलेश से तब से बहुत ज़्यादा नाराज़ चल रही हैं, जब अखिलेश ने उनके आदमी गायत्री प्रजापति को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया। दरअसल, प्रतीक के बहुत ख़ासमख़ास गायत्री प्रजापति को मुलायम के कहने पर खनन जैसा मलाईदार महकमा दिया गया था। यह विभाग हुक्मरानों को हर महीने दो सौ करोड़ की अवैध उगाही करवाता है।
इधर, जब इसकी भनक अखिलेश को लगी तो वह प्रतीक के रसूख और कमाई के स्रोतों पर हथौड़ा चलाने लगे। यह बात साधना को बहुत बुरी लगी। नाराज़ साधना गुप्ता को मनाने के लिए ही मुलायम ने पार्टी प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी अखिलेश से छीनकर साधना खेमे के शिवपाल यादव को दे दी। अब उसी के चलते अब बाप-बेटे यानी अखिलेश और मुलायम आमने-सामने आ गए हैं। इटावा जिले के सैफई में 22 नवंबर, 1939 को स्व. सुधर सिंह यादव और स्व. मूर्ति देवी के यहां जन्मे और पांच भाइयों में तीसरे नंबर के मुलायम सिंह यादव तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे, लेकिन उत्तर प्रदेश के लिए कुछ नहीं किया। उन्होंने कुछ किया तो केवल और केवल अपने परिवार के लिए किया। परिवार को उन्होंने राजनीतिक और आर्थिक रूप से इतना ताक़तवर बना दिया है कि आने वाले साल में उनके कुटुंब के सैकड़ों लोग सांसद या विधायक होंगे।
फ़िलहाल मुलायम समेत उनके परिवार में छह सांसद और तीन विधायक समेत 21 लोग महत्वपूर्ण पदों पर क़ाबिज़ हैं। भारतीय राजनीति में वंशवाद की तोहमत कांग्रेस पर लगती है, लेकिन यूपी में मुलायम परिवार ने कांग्रेस को मीलों पीछे छोड़ दिया है।
बहरहाल, इस मुद्दे पर मुलायम सिंह को समर्थन नहीं मिलने वाला, क्योंकि उन्होंने मुलसमानों को ख़ुश करने और अपने परिवार के ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को राजनीति में प्रमोट करने के अलावा कुछ नहीं किया। समाजवादी पार्टी के संस्थापक भी वह भले हों, लेकिन इस पार्टी का भविष्य अखिलेश यादव ही हैं।
यकीनन, 2012 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को जो जनादेश मिला था, वह मायावती की स्टैट्यू पॉलिटिक्स के नाराज़गी और अखिलेश की ज़मीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं में जान फूंकने से हुई। राजनीतिक टीकाकार मानते हैं कि मुलायम सिंह के लिए बेतहर होगा कि वह अखिलेश खेमे में रहे, क्योंकि शिवपाल-साधना की इमैज राज्य में अच्छे नेता की नहीं है। आम धारणा भी यही है, कि लूट-खसोट करने के आदी हो चुके शिवपाल-साधना के नैक्सस ने अखिलेश को स्वतंत्र रूप से काम ही नहीं करने दिया।

यश भारती सम्मान के लिए नाम घोषित

उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से यश भारती सम्मान के लिए नाम घोषित कर दिए गए हैं। साहित्यिक क्षेत्र में बशीर बद्र, महेश्वर तिवारी, सर्वेश अस्थाना, ओमा दिपक, मणेंद्र कुमार मिश्र, राजकृष्ण मिश्र, गीतकार मनोज मुंतसिर, स्वरुप कुमार बख्शी, संतोष आनंद को 11 लाख रुपए पुरस्कार एवं आजीवन 50 हजार रुपए पेंशन से नवाजा जाएगा। पत्रकारिता के लिए योगेश मिश्रा और अशोक निगम को यश भारती से सम्मानित किया जाएगा।

Thursday 22 September 2016

बंद करो तकरार/जयप्रकाश त्रिपाठी

ठगा विश्व-बंधुत्व है, अदभुत युद्धम-युद्ध।
बड़े-बड़ों में फिर कलह, बच्चा-बच्चा क्रुद्ध।
किसके दिल में प्यार है, किसके दिल में खोट,
सच सबको मालूम है, मत कर खुद पर चोट।
छिपकर सीमा पार से क्यों करते हो वार,
तहस-नहस हो जाओगे, बंद करो तकरार ।
घर की भूंजी भांग का लगा रहे हो रेट,
बम, गोला, बारूद से भरता किसका पेट।
अपने घर का हाल भी रहा नहीं अनुकूल,
कृपया ऐसे वक्त में बकें न ऊल-जुलूल।
मानवता के दुश्मनों ! भरो न यूं हुंकार,
खून-खून हो जाएगा यह सुंदर संसार।

एक अविस्मरणीय पश्चाताप

कभी-कभी कोई-कोई पश्चाताप जीवन भर पीछा करता रहता है। एक ऐसा ही वाकया मेरे भी अतीत का हिस्सा रहा है। दरअसल, कल एक मित्र 'पिंक' को सराहते हुए मुझे भी सिनेमाहाल खींच ले गए। लौटते समय 'वह वाकया' घुमड़ने लगा। साहित्य और सिनेमा पर दिमाग दौड़ते-दौड़ते पहुंच गया मुंशी प्रेमचंद से जुड़े एक पांडुलिपि प्रकरण पर।
उन दिनो मैं 'आज' अखबार आगरा में कार्यरत था। वहां के कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी पीठ में एक प्रोफेसर थे त्रिवेदीजी। उनके आकस्मिक देहावसान के बाद उनके चार बच्चों के सामने रोजी-रोटी का संकट आ गया। सबसे बड़ी बेटी थी। मृत्यु के बाद नेपाल में कार्यरत रहे एक प्रोफेसर की निगाह त्रिवेदीजी के अथाह संग्रहालय पर जा टिकी। वह त्रिवेदीजी की बेटी से येन केन प्रकारेण पूरा संग्रहालय खरीदना चाहते थे। उस संग्रहालय में दुर्लभ पांडुलिपियां थीं। एक व्यक्ति त्रिवेदीजी के बेटे को नौकरी लगवाने के लिए आज अखबार के कार्यालय ले आया। उसे प्रशिक्षित करने के लिए मेरे हवाले कर दिया गया। उसने एक दिन बताया कि उसकी बहन पापा की सारी किताबें बेचने वाली है। फिर पूरा वाकया बताया। अगले दिन मैं उसके घर गया। उस घरेलू संग्रहालय में एक दुर्लभ पांडुलिपि मिली।
त्रिवेदीजी की बेटी ने बताया कि पापा को इसे कवि जयशंकर प्रसाद ने टाइप करवाकर छपवाने के लिए दिया था। आग्रहकर वह पांडुलिपि मैं इस उद्देश्य से ले आया कि अगर कहीं नेपाल वाला प्रोफेसर इसे ले गया तो इस दुर्लभ सामग्री का जाने क्या हाल हो। किसी तरह फोन नंबर प्राप्त कर पांडुलिपि के संबंध में मैंने दो-तीन बाद जयशंकर प्रसाद जी के परिजन से संपर्क किया। उन्होंने दो टूक कह दिया कि ऐसी कोई पांडुलिपि है ही नहीं।
उसके बाद मैंने वह पांडुलिपि आगरा विश्वविद्यालय के एक मित्र प्रोफेसर को देखने के लिए दी। उन्होंने उसे कुलपति को दिखाने के बहाने लापता कर दिया। लंबे समय तक लौटाने का आग्रह करता, पर मिली नहीं। अब तो वह प्रोफेसर भी इस दुनिया में नहीं रहे। उस पांडुलिपि में हिंदी के अनेकशः शीर्ष साहित्यकारों (प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, निरालाजी, नंददुलारे वाजपेयी, पंत आदि) के जयशंकर प्रसाद से हुए पत्राचार की मूल प्रतियां थीं। उसी में एक लंबा पत्र मुंशी प्रेमचंद का था, जो उन्होंने बंबई (मुंबई) की फिल्मी दुनिया से लौटने के बाद लिखा था। काश, वह पांडुलिपि प्रकाशित होकर हिंदी पाठकों को उपलब्ध हो सकी थी। वह दुख आज तक टीसता है।

Monday 12 September 2016

14 सितंर हिंदी दिवस : भारतेंदु हरिश्चंद्र/प्रो.मैनेजर पांडेय

हिन्दी नवजागरण से अभिप्राय सन् १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारत के हिन्दी प्रदेशों में आये राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जागरण से है। हिन्दी-नवजागरण की सबसे प्रमुख विशेषता हिन्दी-प्रदेश की जनता में स्वातंत्र्य-चेतना का जागृत होना है। इसका पहला चरण स्वयं १८५७ का विद्रोह था। इसका दूसरा चरण भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से शुरू हुआ और तीसरा चरण महावीर प्रसाद द्विवेदी से शुरू हुआ।
यह मान्‍यता तो बहुत पहले से प्रचलित रही है कि भारतेंदु हरिश्‍चंद्र के उदय के साथ हिंदी में एक नए युग का आरंभ हुआ, किंतु इस नए युग को 'नवजागरण' नाम देने का श्रेय हिंदी में डॉ. रामविलास शर्मा को है। 'महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण' (1977) नामक पुस्‍तक के द्वारा उन्‍होंने 'नवजागरण' की नहीं बल्कि 'हिंदी नवजागरण' की संकल्‍पना प्रस्‍तुत की। इससे पहले भारत में नवजागरण की चर्चा प्राय: 'बंगाल नवजागरण' के रूप में ही होती रही है।
वरिष्ठ आलोचक प्रो. मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं-
हिंदी में राष्ट्रीय स्तर पर जन-जागरण संबंधी सोच और धारणा का इतिहास लंबा है. 1939 ई. में शिवदान सिंह चौहान ने एक निबंध लिखा था – ‘छायावादी कविता में असंतोष भावना’. इस निबंध के आरंभ में उन्होंने लिखा है, “भारत के नवोत्थित पूँजीवाद द्वारा प्रेरित राष्ट्रीय जागरण की प्रथम स्वाभाविक प्रतिक्रिया साहित्य में भारतेन्दु काल से द्विवेदी काल तक की इतिवृत्तात्मक कविता के रूप में व्यक्त हुई. कतिपय राजनीतिक और सामाजिक सुधार ही मुक्ति भावना के चरम लक्ष्य थे. सामाजिक जीवन के संगठन में आमूल परिवर्तनों और उनके अनुकूल ही समाज चेतना के नूतन संस्कार की आवश्यकता का अनुभव अभी तक स्पष्ट रेखाएँ नहीं बना पाया था.’’ (भारत में प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता, संपादित, पृ.42) शिवदान सिंह चैहान के इस कथन में दो बातें ध्यान देने लायक हैं. एक तो यह कि वे राष्ट्रीय जागरण का प्रेरणा स्रोत नवोदित पूँजीवाद को मानते हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि भारत में चूँकि पूँजीवाद का आगमन अंग्रेजी राज के कारण हुआ इसलिए राष्ट्रीय जागरण के मूल में अंग्रेजी राज है. दूसरी बात यह कि चैहान जी राष्ट्रीय जागरण की हिंदी साहित्य में प्रथम अभिव्यक्ति भारतेन्दु युग में देखते हैं, लेकिन वे राष्ट्रीय जागरण से अलग हिंदी नवजागरण की बात नहीं करते. शिवदान सिंह चैहान ने 1952 में एक निबंध लिखा था ‘साहित्य के इतिहास की समस्या’, जिसमें उन्होंने लिखा है, “सभी जानते हैं कि देश की अन्य प्रमुख भाषाओं के आधुनिक साहित्यों की तरह हिंदी का आधुनिक साहित्य भी हमारे राष्ट्रीय जागरण के युग की पैदावार है या कहें कि राष्ट्रीय जागरण ही आधुनिक युग में भारतीय सांस्कृतिक नवजागरण (रिनेसां) की अंतःप्रेरणा बना है.’’ (भारत में प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता, संपादित, पृ.242)
हिंदी साहित्य के आधुनिक युग को नवजागरण युग सबसे पहले राहुल सांकृत्यायन ने कहा था, 1944 ई. में. राहुल जी की पुस्तक ’हिंदी काव्य-धारा’ 1945 में छपी थी. उसकी भूमिका उन्होंने 1944 में लिखी थी. उस भूमिका में राहुल जी ने हिंदी साहित्य के इतिहास का एक नया काल विभाजन किया है, जो इस प्रकार है-पहला सिद्ध-सामंत युग; दूसरा, सूफी-युग; तीसरा, भक्त -युग; चैथा, दरबारी-युग और पाँचवा, नवजागरण-युग. राहुल जी ने हिंदी काव्य-धारा में केवल सिद्ध-सामंत युग के बारे में विस्तार से लिखा है परंतु उन्होंने शेष चार युगों के बारे में कुछ नहीं लिखा. इसलिए नवजागरण से उनका आशय क्या है, यह बहुत स्पष्ट नहीं है. फिर भी यह मानना चाहिए कि वे आधुनिक युग को नवजागरण युग कहने वाले पहले व्यक्ति हैं.
हिंदी में नवजागरण की बात करने वाले एक और आलोचक हैं प्रकाशचन्द्र गुप्त. उनकी एक पुस्तक है-’साहित्य-धारा’, जो 1956 ई. में छपी थी. उसमें एक निबंध है ’हिंदी कविता में नवजागरण’. पुस्तक में इस बात का उल्लेख नहीं है कि यह निबंध पहली बार कब और कहाँ छपा था. इस निबंध में गुप्त जी ने लिखा है, ’’हिंदी में राष्ट्रीय भावना भारतेन्दु युग से मिलती है.’’ इस निबंध में वे यह भी लिखते  हैं कि ’अंग्रेजी शासन के साथ औद्योगिक क्रांति का भारत में प्रवेश हुआ.’ इसका अर्थ यह है कि अंग्रेजी राज के कारण भारत में राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ और राष्ट्रीय जागरण का भी. प्रकाशचन्द्र गुप्त यह भी मानते हैं कि ’’इस नई व्यवस्था के विरुद्ध जो विप्लव सन् सत्तावन में हुआ, उसमें हम भारतीय सामंतों की प्रमुखता पाएँगे. मध्य वर्ग की सत्ता भारतीय राष्ट्र के निर्माण के साथ मिलेगी.’’ इसका अर्थ यह भी है कि 1857 का विद्रोह सामंतों का विद्रोह था और भारत का उस समय का मध्यवर्ग अंग्रेजी राज के साथ था जो भारतीय राष्ट्र का निर्माण कर रहा था.
हिंदी नवजागरण की धारणा, उसकी ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया, उसके स्वरूप, उसकी विशेषताओं और भारत के अन्य क्षेत्रों के नवजागरणों से उसकी स्वतंत्र पहचान का सुचिंतित, सुव्यवस्थित तथा विस्तृत विवेचन रामविलास शर्मा ने किया है. उन्होंने ’महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ (1977) नाम की पुस्तक में हिंदी नवजागरण के स्वरूप के बारे में विस्तार से लिखा है. इस पुस्तक का पहला वाक्य यह है-’’हिंदी प्रदेश में नवजागरण 1857 ई. के स्वाधीनता संग्राम से शुरू होता है.’’ इस कथन में दो स्थापनाएँ हैं - पहली यह कि हिंदी नवजागरण का आरंभ 1857 के महाविद्रोह से होता है और दूसरा यह कि 1857 का महाविद्रोह भारत का स्वाधीनता संग्राम था. इससे यह मान्यता भी सामने आती है कि हिंदी नवजागरण अंगे्रजी राज के कारण नहीं बल्कि उसके विरुद्ध विकसित हुआ.
डा. शर्मा ने इसी पुस्तक में  लिखा है कि ’’सन् 1857 का स्वाधीनता संग्राम हिंदी प्रदेश के नवजागरण की पहली मंजिल है. दूसरी मंजिल भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का युग है. तीसरी मंजिल महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनका युग है तो चैथी मंजिल छायावाद और निराला का साहित्य.’’ उन्होंने यह स्पष्ट लिखा है कि ’’जो नवजागरण 1857 के स्वाधीनता संग्राम से आरंभ हुआ, वह भारतेन्दु युग में और व्यापक बना, उसकी साम्राज्य-विरोधी, सामंत-विरोधी प्रवृत्तियाँ द्विवेदी युग में और पुष्ट हुईं. फिर निराला के साहित्य में कलात्मक स्तर पर तथा उनकी विचारधारा में ये प्रवृत्तियाँ क्रांतिकारी रूप में व्यक्त हुई.’’ (महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, पृ.19)
रामविलास जी ने 1984 ई. में हिंदी नवजागरण संबंधी अपने चिंतन को और अधिक व्यापक तथा सुस्पष्ट बनाते हुए ’भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएँ’ नाम की पुस्तक में लिखा है, ’’भारतेन्दु युग उत्तर भारत में जनजागरण का पहला या प्रारंभिक दौर नहीं है; वह जनजागरण की पुरानी परंपरा का एक खास दौर है. जनजागरण की शुरूआत तब होती है जब यहाँ बोलचाल की भाषाओं में साहित्य रचा जाने लगता है, जब यहाँ के विभिन्न प्रदेशों में आधुनिक जातियों का गठन होता है. यह सामन्त विरोधी जनजागरण है. भारत में अंग्रेजी राज कायम करने के सिलसिले में पलासी की लड़ाई से 1857 के स्वाधीनता संग्राम तक जो युद्ध हुए, वे जनजागरण के दूसरे दौर के अंतर्गत हैं. यह दौर पहले से भिन्न है, मुख्य लड़ाई विदेशी शत्रु से है. यह साम्राज्यविरोधी जनजागरण है.’’ (पृ. 13)
हिंदी समाज, हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य के आधुनिक काल से संबंधित रामविलास शर्मा के संपूर्ण चिंतन और लेखन के कंेद्र में है उनकी हिंदी नवजागरण की अवधारणा. चाहे 1857 ई. का स्वाधीनता संग्राम हो या हिंदी जाति की धारणा, चाहे हिंदी में आधुनिकता के उदय का सवाल हो या हिंदी-उर्दू के संबंध का, चाहे देश में राजनीतिक चेतना के जागरण का प्रश्न हो या समाज सुधार का; इन सभी प्रश्नों पर विचार करते हुए वे हिंदी नवजागरण संबंधी अपनी मान्यताओं को ध्यान में रखते हैं.
रामविलास शर्मा की हिंदी नवजागरण की अवधारणा मूलतः और मुख्यतः साम्राज्यवाद-विरोधी है; क्योंकि उसका मूल स्रोत वे 1857 के महाविद्रोह को मानते हैं और वे उसे प्रथम राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम भी कहते हैं. निश्चय ही 1857 ई. के स्वाधीनता संग्राम का केंद्र हिंदी प्रदेश था. वह आमतौर पर भारतीय जनता और खासतौर पर हिंदी जनता के साम्राज्यवाद-विरोध की उदात्त अभिव्यक्ति था. जो लोग हिंदी नवजागरण की दूसरी, तीसरी और चैथी मंजिल के साहित्य में 1857 के विद्रोह की अभिव्यक्ति या अनुगूँज न पाकर 1857 के संग्राम को हिंदी नवजागरण की पहली मंजिल होने पर संदेह करते हैं उन्हें भगतसिंह के साथी भगवानदास माहौर के शोधग्रंथ ’1857 के स्वाधीनता संग्राम का हिंदी साहित्य पर प्रभाव’ (1976) को पढ़ना चाहिए. इस पुस्तक में 1857 ई. के महाविद्रोह के हिंदी साहित्य के साथ ही हिंदी क्षेत्र की लोकभाषाओं के साहित्य पर प्रभावों का विस्तृत विवेचन किया गया है, जिससे यह साबित होता है कि सन् 1857 ई. के संग्राम का हिंदी साहित्य और हिंदी भाषी जनता के मानस पर कितना व्यापक असर था. डा. माहौर ने हिंदी और उसकी लोकभाषाओं के अलावा उर्दू, मराठी, बांग्ला और गुजराती में प्रकाशित तथा अप्रकाशित विभिन्न विधाओं की असंख्य रचनाओं का उल्लेख किया है. इस सबसे यह साबित होता है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में 1857 का व्यापक प्रभाव मौजूद है.
जो लोग भारतेन्दु युग से छायावाद तक के हिंदी साहित्य में 1857 ई. के महाविद्रोह का मनचाहा उल्लेख न पाकर उस काल के लेखकों की निंदा करते हैं वे या तो यह नहीं जानते या जान बूझकर भूल जाते हैं कि 1857 के संग्राम के बाद अंग्रेजी राज के प्रेस और प्रकाशन संबंधी दमनकारी कानूनों के कारण 1857 के विद्रोह के पक्ष में कुछ भी लिखना और प्रकाशित करना कितना कठिन था. खासतौर से 1878 के दमनकारी कानून के बाद कुछ भी ऐसा लिखना और छपना असंभव हो गया जिससे सरकार सहमत न हो.  प्रेस और प्रकाशन संबंधी दमन और पाबंदी की प्रक्रिया क्रमशः कठोर हुई. यहाँ तक कि देशभक्ति और स्वाधीनता के पक्ष में लिखना-छपना मुश्किल हो गया. इसी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप प्रेमचंद के दो कहानी संग्रहों पर पाबंदी लगी. भगतसिंह और उनके साथियों ने 1933 ई. में 1857 से संबंधित दो पुस्तिकाएँ प्रकाशित कराईं. इन दोनों पर पाबंदी लगा दी गई. 1857 ई. के संग्राम पर लिखी अनेक साहित्यिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक पुस्तकों तथा पुस्तिकाओं पर पाबंदी लगी. यहाँ तक कि झाँसी की रानी पर छपे एक ऐसे पोस्टकार्ड पर पाबंदी लगी जिसके एक ओर झाँसी की रानी का चित्र था और दूसरी और क्रांतिकारी चुनौती.
वैसे तो रामविलास शर्मा का साम्राज्यवाद-विरोधी दृष्टिकोण उनकी प्रत्येक पुस्तक में मौजूद है लेकिन उसका प्रखरतम रूप उनकी पुस्तक ’सन् सत्तावन की राजक्रांति और मार्क्सवाद’ में प्रकट हुआ है. उन्होंने उस पुस्तक में लिखा है कि ’सन् सत्तावन का संघर्ष एक महान जनक्रांति था. वह जनक्रांति इसलिए भी था क्योंकि उसमें जनता ने सक्रिय रूप से भाग लिया था.’’ (पृ. 299) इस क्रांति की मूलधारा अंग्रेजी राज के विरुद्ध थी. इसका मूल उद्देश्य राजनीतिक था- अंग्रेजों को निकालकर देश में अपनी सत्ता कायम करना. इस राजनीतिक उद्देश्य के अंतर्गत और भी सामाजिक उद्देश्य थे (पृ.299)
हिंदी में और हिंदी के बाहर भी ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो यह मानते हैं कि भारत में आधुनिकता और प्रगति का आगमन अंग्रेजी राज के साथ हुआ. इसके ठीक विपरीत रामविलास शर्मा भारतीय समाज और संस्कृति के विकास में अंग्रेजी राज की कोई सार्थक भूमिका नहीं मानते. दुनिया भर के पिछले 500 वर्षों का साम्राज्यवाद का इतिहास यह साबित करता है कि साम्राज्यवाद ने जिन देशों पर कब्जा किया वहाँ के समाज, संस्कृति और जनता का विनाश किया है. यही नहीं वहाँ अपनी भाषा, संस्कृति और सभ्यता का प्रभुत्व स्थापित किया है. भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद इस प्रवृति का अपवाद नहीं प्रमाण है. अंगे्रजों ने भारत पर कब्जा करने के बाद क्या-क्या किया यह रामविलास शर्मा के शब्दों में देखिए, ’’अंग्रेजों ने हिन्दुस्तानियों को राजभक्ति सिखाई, उनके अन्दर फूट की आग सुलगाई, उन्हें एक-दूसरे का खून बहाना सिखाया, यहाँ की संस्कृति और भाषाओं को पैरो तले रौंदा और यहाँ से जितना धन लूटकर ले गए, उतना अपने बाकी विश्वव्यापी साम्राज्य से न ले गए.’’ (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, पृ.24)
रामविलास शर्मा वर्षों से यह कहते और लिखते रहे हैं कि भारत में अंग्रेजी राज के आरंभ के बहुत पहले से, लगभग बारहवीं सदी से, बोलचाल की भाषाओं में साहित्य की रचना के साथ ही आधुनिकता का उदय होता है. सुखद आश्चर्य की बात यह है कि अब सेन पोलक और गेल आम्बिड जैसे अंग्रेजी में लिखने वाले लोग भी यह मानने लगे हैं कि भारत में बोलचाल की देशी भाषाओं के उत्थान के साथ ही आधुनिकता या आरंभिक आधुनिकता का उदय होता है.
अब यह भी अनेक व्यक्ति मानने लगे हैं कि दुनिया भर में साम्राज्यवाद जिन देशों पर कब्जा करता है वहाँ दलाल संस्कृति निर्मित करता है और उसके सहारे अपना राजकाज चलाता है. भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद देशी दलाल संस्कृति के सहारे चलता था-यह बात हिंदी नवजागरण के लेखक और रामविलास शर्मा पहचानते हैं. अंग्रेजी राज अपने दलालों को तरह-तरह के खिताब, पदवी, सम्मान और सनद देता था- यह भारतेन्दु हरिश्चन्द्र भी जानते थे.  रामविलास शर्मा ने ’भारतेन्दु हरिश्चन्द्र’ पुस्तक में लिखा है, ’’खिताब पाने के लिए हिन्दुस्तानियों को किस तरह आत्मसम्मान बेचना पड़ता था, इस पर सबसे सुन्दर और तीखी टिप्पणी 20 जुलाई, 1874 की ’कवि वचनसुधा’ में छपी है. शीर्षक है, ’खिताब का भाव बहुत उतरैगा.’ नीचे लिखा है:
बंगाल में काल पड़ा है इससे इसके समाप्त होने पर खिताब का भाव निस्संदेह बहुत सस्ता हो जाएगा यहाँ तक कि टके सेर बिकै तो आश्चर्य नहीं, हम ग्राहकों को समाचार देते हैं कि वे प्रस्तुत हो रहैं. केवल थोड़ा-सा कागज रंगने, झूठी-मीठी रिपोर्ट कर देने पर खिताब मिल जाएगा पर ढंगबाजी की शर्त है रायबहादुर राजा नौव्वाब स्टार सब बाजार में आवेंगे ग्राहक लोग मियानी खोल रक्खें.’’ ( भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पृ.27)
इस प्रसंग के अंत में रामविलास जी ने लिखा है कि ’’अंग्रेजों ने सम्मान की एक कसौटी बना रखी थी- जनता से दगा करो, हमारी सेवा करो.’’ (पृ.27)
रामविलास शर्मा ने महावीरप्रसाद द्विवेदी के साम्राज्यवाद-विरोधी दृष्टिकोण का विवेचन करते हुए लिखा है, ’’साम्राज्यवाद का अर्थतंत्र क्या है, उसके राजनीतिक दाँव-पेंच क्या हैं, विश्वसाम्राज्यवादी व्यवस्था में भारत का स्थान क्या है, इस व्यवस्था में भारत पराधीन कैसे बना, अंग्रेजी राज कायम होने से पहले यहाँ के अर्थतंत्र की क्या दशा थी, भारतीय इतिहास को देखते हुए अंग्रेजी राज की भूमिका क्या थी, साम्राज्यवाद द्वारा विजित और शासित भारत में मुख्य प्रश्न किस वर्ग का था, खेतिहर देश में किसानों की भूमिका क्या थी, भारत में पूँजीवाद की विशेषता क्या थी, इस विशेषता को देखते हुए मजदूर वर्ग कौन सी भूमिका निभा रहा था, इस सारी परिस्थिति में मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के कर्तव्य क्या थे, इस विश्वसाम्राज्यवादी व्यवस्था के विरुद्ध लोग कहाँ-कहाँ लड़ रहे हैं, भारत को अपने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध किन देशों से कायम करने चाहिए, साम्राज्यवादी घेरा कहाँ टूट रहा है और उससे हमें क्या सीखना चाहिए, स्वयं अपने इतिहास से स्वाधीनता-संग्राम के लिए कैसे प्रेरणा लेनी चाहिए, इस सभी और ऐसी ही अन्य समस्याओं की ओर द्विवेदी जी और उनके सहयोगियों ने ध्यान दिया और साम्राज्यविरोधी दृष्टि से उनका विवेचन किया.’’ (महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, पृ.106)
अंग्रेजी राज ने जो दलाल संस्कृति विकसित की थी उसकी और उसके सरदारों की जैसी अचूक पहचान प्रेमचंद को थी वैसी उस युग के किसी अन्य लेखक को नहीं थी. रामविलास शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि ’’हिंदुस्तान की सामंती ताकतें विदेशी प्रभुत्व का आधार थीं, इसलिए प्रेमचंद के लिए आजादी का मतलब था, इस आधार को खत्म करना.’’ (प्रेमचंद और उनका युग, पृ.46)
जमींदार अंग्रेजों के दलाल हैं, इस बात को बहुत ही स्पष्ट शब्दों में प्रेमचंद ने ’प्रेमाश्रम’ में राय कमलानंद से कहलाया है. कमलानंद कहते हैं, ’’यह ज़ायदाद नहीं है, इसे रियासत कहना भूल है, यह निरी दलाली है. इस भूमि पर मेरा क्या अधिकार है. मैंने इसे बाहुबल से नहीं लिया. नवाबों के ज़माने में किसी सूबेदार ने इलाक़े की आमदनी वसूल करने के लिऐ मेरे दादा को नियुक्त किया था. मेरे पिता पर भी नवाबों की बड़ी कृपादृष्टि रही. इसके बाद अंग्रेजों का ज़माना आया और यह अधिकार पिताजी के हाथ से निकल गया. लेकिन राजद्रोह के समय पिताजी ने तन-मन से अंग्रेजों की सहायता की. शक्ति स्थापित होने पर हमें वही पुराना अधिकार फिर मिल गया. यही इस रियासत की हकीकत है.’’ (पृ.46)
यही वह दलाल समुदाय है जिसकी मदद से अंग्रेजों ने 1857 ई. के संग्राम में भारतीय विद्रोहियों को हराया था. विश्वास न हो रहा हो तो एक अंग्रेज इतिहासकार विलियम केई की गवाही पढ़िये, ’’यह ’ग़दर-युद्ध’ की एक अदभुत विशेषता थी कि हालांकि अंग्रेज़ स्थानीय नस्लों के विरुद्ध लड़ रहे थे, पर उन्हें वास्तविकता में इसी देश के स्थानीय लोगों ने समर्थन दिया. ये समर्थक जिन्हें हम अपना राष्ट्रीय शत्रु मानते थे उनकी सहायता के बिना हम एक दिन भी जीवित नहीं रह सकते थे.’’ (जासूसों के खतूत, पृ.33)
रामविलास शर्मा ने हिंदी नवजागरण की चौथी मंजिल के कवि और लेखक निराला के साम्राज्यवाद-विरोधी दृष्टिकोण के बारे में लिखा है, ’’निराला के चिन्तन की विशेषता यह थी कि उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आर्थिक नीति, उसके राजनीतिक दाँव-पेंच, सांस्कृतिक मामलों मे उसके हस्तक्षेप को पहचाना, गहराई से उसका विश्लेषण किया, देश की राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रगति के लिए एक मार्ग निश्चित किया.’’ (निराला की साहित्य साधना-2, पृ.14)
स्वयं निराला ने साम्राज्यवाद का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखा है, ’’साम्राज्यवाद इंग्लैंड की राजनीति का मूल है. पूँजी के द्वारा वणिक् शक्ति की वृद्धि के इतिहास के साथ-साथ साम्राज्यवाद का इतिहास इंग्लैंड के साथ गुँथा हुआ है. पूँजी की ही तरह यह हृदयहीन है. अंग्रेज़ों की शक्ति का समस्त संसार पर प्रभाव है. साथ-साथ अपनी वृत्ति या जातीय साम्राज्यवाद-जीवन के कारण इंग्लैंड संसार भर में बदनाम है. इतिहास के जानकार जानते हैं कि इंग्लैंड की सरकार पूँजीपतियों की सरकार है और साम्राज्यवाद उसकी जीवनी-शक्ति, मूल आधार.’’ (निराला की साहित्य साधना-2, पृ.15)
’निराला की साहित्य साधना-2’ में ही रामविलास जी ने एक बार फिर दलाल संस्कृति को याद करते हुए लिखा है, ’’1857 में भारतीय जनता के संघर्ष को दबाने में अंग्रेजा़ें को कश्मीर, पंजाब, हैदराबाद, बंगाल आदि प्रदेशों के राजाओं और ज़मींदारों से बड़ी सहायता मिली. 1858 के बाद अंग्रेजों ने अपनी नीति में परिवर्तन किया कि देशी रियासतों को ब्रिटिश भारत में मिलाने के बदले वे उनके मालिकों को अपने सहायक के रूप में पालने लगे. साधारणतः इन रियासतों में उद्योग-धन्धों का विकास ब्रिटिश भारत की तुलना में भी कम हुआ, यहाँ निरक्षरता और निर्धनता का प्रसार ब्रिटिश भारत से भी अधिक था, यहाँ निरंकुश अत्याचार, सामाजिक उत्पीड़न, धार्मिक अन्धविश्वास ब्रिटिश भारत से भी अधिक थे. लड़ाई के दिनों में ये राजा अंग्रेजी फौज में रंगरूट भर्ती कराते थे, शान्ति के समय गोलमेज सम्मेलनों में अपने प्रतिनिधि भेजकर स्वाधीनता-आन्दोलन का विरोध करते थे. भारत में अंग्रेजी राज के प्रमुख सहायक थे यहाँ के राज और नवाब. साम्राज्यवाद के इस देशी आधार को ढहाये बिना भारतीय स्वाधीनता की लड़ाई पूरी न हो सकती थी.’’ (वही, पृ.20)
हिंदी नवजागरण के बारे में रामविलास शर्मा के संपूर्ण चिंतन और लेखन से कुछ समस्याएँ पैदा होती हैं, जिन पर विचार के बिना हिंदी नवजागरण की पूरी और बेहतर समझ नहीं बन सकती. पहली समस्या तो यही है कि रामविलास शर्मा ने हिंदी नवजागरण की विशिष्टता पर इतना जोर दिया है कि देश के दूसरे क्षेत्रों के नवजागरण से हिंदी नवजागरण के संबंध का बोध उपेक्षित हो गया है. हिंदी नवजागरण पर विचार करने वाले अधिकांश व्यक्ति यह जानते हैं कि हिंदी नवजागरण के एक अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का बांग्ला नवजागरण से कितना गहरा संबंध था. भारतेन्दु इतनी बांग्ला जानते थे कि वे बांग्ला में कविताएँ लिखते थे, उन्होंने अनेक बांग्ला नाटकों का हिंदी में अनुवाद भी किया था. यही नहीं उनकी अनेक रचनाएँ बांग्ला रचनाओं से प्रभावित हैं. भारतेन्दु के अतिरिक्त बांग्ला नवजागरण से निराला का भी गहरा संबंध था. यह भी ध्यान देने की बात है कि बांग्ला में उपन्यास का उदय और विकास हिंदी से पहले हुआ था, इसलिए आरंभिक दिनों में बांग्ला के उपन्यासों के अनुवाद हिंदी में छपे, जिनका हिंदी उपन्यासों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है. यही नहीं ’जाति’ शब्द हिंदी में बांग्ला से ही आया है, भारतेन्दु के माध्यम से.
हिंदी नवजागरण के दूसरे निर्माता है महावीर प्रसाद द्विवेदी. उनका मराठी नवजागरण से गहरा संबंध है. द्विवेदी जी ने मराठी नवजागरण से संबद्ध दस से अधिक लेखकों, विचारकों, कलाकारों, आंदोलनकारियों, गायकों, पुरुषों और स्त्रियों की जीवनियाँ लिखी हैं. द्विवेदी जी ने महाराष्ट्र की अनेक तेजस्वी और संघर्षशील स्त्रियों की भी जीवनियाँ लिखी हैं, जिनमें ताराबाई, रुख्माबाई, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, कुमारी गोदावरी बाई मुख्य हैं.
नवजागरण काल में एक भारतीय भाषा की रचनाओं के दूसरी भारतीय भाषाओं में जो अनुवाद हुए उनसे विचारों के आदान-प्रदान की एक प्रक्रिया विकसित हुई. उन सब पर ध्यान देने से विभिन्न नवजागरण के आपसी रिश्तों की पहचान हो सकती है. 1904 ई. में बांग्ला में एक क्रांतिकारी किताब लिखी गई थी, जिसका नाम था ’देसेर कथा’. उसका पहला हिंदी अनुवाद 1908 में छपा और नाम था ’देश की बात’. उसका दूसरा हिंदी अनुवाद 1910 में छपा. यह किताब हिंदी क्षेत्र में इतनी लोकप्रिय थी कि हिंदी में इस पर एक कविता भी लिखी गई. हिंदी क्षेत्र में उसके व्यापक प्रभाव का एक प्रमाण यह भी है कि सत्यभक्त ने अपने एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया है कि उन्हें देशभक्ति की प्रेरणा ’देश की बात’ पुस्तक से मिली. क्या इस व्यापक प्रभाव की उपेक्षा करके हिंदी नवजागरण को समझा जा सकता है?
रामविलास शर्मा के नवजागरण संबंधी लेखन से जुड़ी दूसरी समस्या यह है कि हिंदी नवजागरण कितना मूलगामी है और कितना मध्यमार्गी . हिंदी नवजागरण की दो धाराएँ हैं, एक है मूलगामी धारा और दूसरी मध्यमार्गी. मूलगामी धारा के प्रतिनिधि भारतीय समाज में मूलगामी परिवर्तन चाहते थे, केवल अंग्रेजी राज से मुक्ति ही नहीं बल्कि तरह-तरह की पराधीनताओं से भारतीय जनता की मुक्ति और मध्यमार्गी वे थे जो समझौते के रास्ते से सुधार और विकास की कोशिश करते थे. हिंदी नवजागरण की मूलगामी धारा के प्रतिनिधि हैं राधामोहन गोकुल जी, सत्यभक्त, प्रेमचंद और राहुल सांकृत्यायन. ये सभी साम्राज्यवाद की भारत से मुक्ति के साथ ही देशी सामंतवाद से स्त्रियों और दलितों की मुक्ति के भी पक्षधर थे. यही नहीं ये किसानों तथा मजदूरों के संघर्षों के साथ थे. रामविलास शर्मा ने राधामोहन गोकुल जी, सत्यभक्त और प्रेमचंद पर लिखा तो है पर उन्हें वे हिंदी नवजागरण के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार नहीं करते. हिंदी नवजागरण की प्रक्रिया में एक प्रवृत्ति ऐसी भी रही है जो इतिहास के प्रसंग में अतीतवादी, भाषा के प्रसंग में अलगाववादी, संस्कृति के प्रसंग में संस्कृतवादी और मानसिकता के प्रसंग में आध्यात्मवादी-रहस्यवादी. यद्यपि यह कभी भी हिंदी नवजागरण की मुख्य धारा नहीं बन पाई परंतु उसका प्रभाव तो था ही.
तीसरी समस्या यह है कि रामविलास जी ने हिंदी नवजागरण की विचारधारा का तो विस्तृत विवेचन किया है, लेकिन टेक्नालाजी से उसके सम्बन्धों पर ध्यान नहीं दिया. यहाँ टेक्नालाजी से मेरा आशय प्रेस और प्रकाशन की प्रक्रिया से है. इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप हिंदी साहित्य की और आधुनिक भारतीय साहित्य की भी पूरी संस्कृति बदल गई. एक तो पुस्तक बाजार के अस्तित्व में आने और पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशित होने के कारण पाठ और पाठक का संबंध बदला. पुराने सारे विधि-निषेध ध्वस्त हो गए. पुस्तक पढ़ने पर किसी प्रकार का भेदभाव कायम न रह सका. इस तरह साहित्य की दुनिया में लोकतंत्र आया. पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के कारण साहित्य का स्वरूप बदला और अनेक नई विधाओं का जन्म हुआ. यही कारण है कि स्वयं रामविलास शर्मा ने महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ में लिखा है कि
 ’’आधुनिक साहित्य का जन्म उन्नीसवं शताब्दी में हुआ. समाचार पत्र, मासिक पत्रिकाएँ, उपन्यास, नाटक, जीवन-चरित्र और समालोचना, इन सबका विकास इसी समय हुआ.’’ (पृ.321) इस कथन को पढ़ने के बाद मन में एक सवाल आता है कि ऐसा क्यों और कैसे हुआ कि भारत में आधुनिकता तो आई बारहवीं सदी में लेकिन आधुनिक साहित्य पैदा हुआ उन्नीसवीं सदी में.
रामविलास शर्मा के नवजागरण संबंधी लेखन से जुड़ी चैथी समस्या यह है कि हिंदी नवजागरण के किन निर्माताओं का किसानों तथा मजदूरों के आंदोलनों से क्या और कितना संबंध था.  यह जाहिर है कि राधामोहन गोकुल जी, सत्यभक्त और राहुल जी का किसानों तथा मजदूरों के आंदोलनों से संबंध तो था परंतु रामविलास शर्मा के अनुसार हिंदी नवजागरण के निर्माताओं - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी और निराला का किसानों और मजदूरों के आंदोलनों से विशेष संबंध नहीं था.
पाँचवीं समस्या यह है कि रामविलास जी ने हिंदी नवजागरण की चैथी मंजिल के प्रतिनिधि के रूप में निराला को रखा प्रेमचंद को क्यों नहीं. रामविलास जी का जितना लगाव निराला से था लगभग उतना ही प्रेमचंद से भी था. प्रेमचंद पर भी उन्होंने दो आलोचनात्मक पुस्तकें लिखी हैं. अगर रामविलास जी प्रेमचंद को हिंदी नवजागरण की चैथी मंजिल का प्रतिनिधि मानते तो भारतीय समाज, हिंदी समाज, हिंदी जाति और हिंदी संस्कृति से जुड़ी अनेक समस्याओं और अंतर्विरोधों का विवेचन संभव होता. प्रेमचंद का लेखन एक तो हिंदू-मुस्लिम संबंध, दूसरे भारतीय जाति व्यवस्था, तीसरे हिंदी-उर्दू के अंतर्विरोध और चैथे भारतीय स्त्री की पराधीनता और स्वाधीनता के प्रश्नों से जुड़ा हुआ है. इन सभी समस्याओं और सवालों पर प्रेमचंद के लेखन के माध्यम से सोच-विचार करना संभव होता और समाधान खोजना भी. प्रेमचंद हिंदी नवजागरण की चिंताओं के विकास की लगभग चरम परिणति भी है.

14 सितंबर हिंदी दिवस : नामवर सिंह

भारतेंदु हरिश्‍चंद्र के उदय के साथ हिंदी में एक नए युग का आरंभ हुआ, यह मान्‍यता तो बहुत पहले से प्रचलित रही है; किंतु इस नए युग को 'नवजागरण' नाम देने का श्रेय हिंदी में डॉ. रामविलास शर्मा को है। 'महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण' (1977) नामक पुस्‍तक के द्वारा उन्‍होंने 'नवजागरण' की नहीं बल्कि 'हिंदी नवजागरण' की संकल्‍पना प्रस्‍तुत की। इससे पहले भारत में नवजागरण की चर्चा प्राय: 'बंगाल नवजागरण' के रूप में ही होती रही है। शब्‍द के प्रयोग पर प्रकाश डालते हुए डॉ. शर्मा ने कुछ वर्ष बाद 'भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्‍याएँ, (1984) नामक एक अन्‍य पुस्‍तक के तीसरे संस्‍करण की भूमिका में लिखा है कि 'नवजागरण' यह शब्‍दबंध नया था, धारणा पुरानी थी। पुरानी धारणा से तात्पर्य संभवत: 'रिनेसांस' से है।
हिंदी साहित्‍य के पुराने इतिहास ग्रंथों को देखने से पता चलता है कि पादरी एफ.ई. के ने 1920 ई. में ही इस 'रिनेसांस' की चर्चा की थी। अपनी छोटी-सी पुस्‍तक 'ए हिस्‍ट्री ऑफ हिंदी लिट्रेचर' के पहले अध्‍याय में ही के ने लिखा है : 'उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के आरंभ में यूरोप की संस्कृति के संपर्क के द्वारा हिंदी साहित्‍य में एक नया प्रभाव आया।... इसी समय के आसपास भारत में एक सशक्‍त साहित्यिक नवजागरण शुरू हुआ जो अब तक प्रगतिपर है।'
कहते हैं कि उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के भारतीय नवजागरणके अग्रदूत राजा राममोहन राय स्‍वयं भी उस समय की नई सांस्‍कृतिक चेतना को एक 'रिनेसांस' समझते थे। पादरी अलेक्‍जेंडर डफ से एक बार उन्‍होंने कहा था : 'मुझे ऐसा लगने लगा कि यहाँ भारत में यूरोपीय रिनेसांस से मिलता-जुलता कुछ घटित हो रहा है।'
लेकिन उसी नवजागरण की एक अन्‍य महान विभूति बंकिमचंद्रचट्​टोपाध्‍याय की दृष्टि में 'रिनेसांस' पंद्रहवीं शताब्‍दी के भारत का सांस्कृतिक जागरण था। अपने निबंध 'बाड्लार इतिहास संबंधे कयेकटि कथन' (1980) में उन्‍होंने लिखा है : 'यूरोप कितना पहले सभ्‍य हुआ? सिर्फ चार सौ साल पहले पंद्रहवीं सदी तक यूरोप हमसे अधिक असभ्‍य था। सभ्‍यता यूरोप में एक घटना से आई। अकस्‍मात् यूरोप ने चिर-विस्‍मृत ग्रीक संस्‍कृति का पुनराविष्‍कार किया।... पेट्रार्क, लूथर, गैलिलियो, बेकन; अकस्‍मात् यूरोप का भाग्‍योदय हो गया। हमारे यहाँ भी एक बार वही दिन आया था। अकस्‍मात् नवद्वीप में चैतन्‍य चंद्रोदय, उसके बाद रूप सनातन प्रभूति असंख्‍य कवि धर्मतत्त्वविद् पंडित। दर्शन में रघुनाथ शिरोमणि, गदाधर, जगदीश: स्‍मृति में रघुनंदन एवं उनके अनुयायी। फिर बंगला काव्‍य का जलोच्‍छ्​वास। विद्यापति, चंडीदास, चैतन्‍य के पूर्वगामी। किंतु उसके बाद जो चैतन्‍य परवर्तिनी बंगला कृष्‍णविषयक कविता लिखी गई वह अपरिमेय तेजस्विनी और जगत में अतुलनीय है। यह सब कहाँ से आया? हमारा यह 'रिनेसांस' कैसे घटित हुआ? सहसा जाति की यह मानसिक उद्​दीप्ति कहाँ से हुई?'
प्रसंग बंगाल के इतिहास का था, इसलिए बंकिम के सारे उदाहरण भी स्‍वभावत: बंगाल तक ही सीमित हैं। फिर भी इस कथन का विस्‍तार पूरे भारत के व्‍यापक संदर्भ में किया जा सकता है, जिससे स्‍पष्‍ट निष्‍कर्ष निकलता है कि यूरोप के 'रिनेसांस' के समान भारत में भी पंद्रहवीं शताब्‍दी में नवजागरण की लहर उठी थी। सामान्‍यत: इसे अपने यहाँ भक्ति आंदोलन कहा जाता है। सवाल यह है कि 'रिनेसांस' किसे कहा जाए-पंद्रहवीं शताब्‍दी के भक्ति आंदोलन को या उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के सांस्‍कृतिक नवजागरण को?
यदि केवल शब्‍द के स्‍तर पर ही देखें तो स्‍वयं यूरोप में भी समस्‍या इतनी स्‍पष्‍ट न थी। 'प्रकृति का द्वंद्ववाद' नामक पुस्‍तक में 'महान रिनेसांस' का वर्णन करते हुए एंगेल्‍स ने लिखा है : 'प्रकृति की आधुनिक खोज... हाल के समूचे इतिहास की भाँति उस महान युग से आरंभ होती है, जिसे हम जर्मन अपने ऊपर आई राष्‍ट्रीय विपदा के नाम पर 'रिफार्मेशन' का काल कहते हैं और फ्रांसीसी लोग 'रिनेसांस' कहते हैं तथा इतावली लोग 'चिंक्‍वेचेंती' कहते हैं, य‍द्यपि इनमें से कोई भी नाम उसके सार को पूर्णत: अभिव्‍यक्‍त नहीं करता। यह वह युग था जिसका उदय पंद्रहवीं शताब्‍दी के उत्तरार्ध में हुआ था।
कहने की आवश्‍यकता नहीं कि भारतीय भाषाओं में भी उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के नवजागरण के लिए पुनरुत्‍थान, नवजागरण, प्रबोधन, समाज सुधार आदि अनेक शब्‍द प्रचलित हैं। निस्संदेह इनमें से प्रत्‍येक शब्‍द के साथ एक निश्चित अर्थ, एक निश्चित प्रत्‍यय जुड़ा है। किंतु मुख्‍य प्रश्‍न तो यह है कि यदि भारत का उन्‍नीसवीं शताब्‍दी का सांस्‍कृतिक नवजागरण 'रिनेसांस' था तो पंद्रहवीं शताब्‍दी का सांस्‍कृतिक नवजागरण क्‍या था?
उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के भारतीय नवजागरण को 'रिनेसांस' कहने में एक कठिनाई तो यही है कि इस युग के भारतीय विचारकों और साहित्‍यकारों के प्रेरणा-स्‍त्रोत यूरोप के पंद्रहवीं शताब्‍दी के चिंतक और साहित्‍यकार न थे। बल्कि इसके विपरीत प्रेरणा-स्‍त्रोत के रूप में अधिकांश विचारक उस काल के थे जिसे यूरोप में 'एनलाइटेनमेंट' का काल तथा उसके बाद का काल कहा जाता है। स्‍वयं बंकिम की सहानुभूति रूसो और प्रूधों के साथ थी और वे कोन्‍त, जान स्‍टुअर्ट मिल तथा हर्बर्ट स्‍पेंसर से प्रभावित दिखाई पड़ते हैं। कमोबेश यही ‍स्थिति बंगाल में राममोहन राय, ईश्‍वरचंद्र विद्यासागर, देरोजियो आदि की दिखती है और हिंदी में महावीरप्रसाद द्विवेदी तथा रामचंद्र शुक्‍ल की भी। उल्‍लेखनीय है कि महावीरप्रसाद द्विवेदी की 'सरस्‍वती' ज्ञान की पत्रिका कही गई है और उनका गद्य हिंदी साहित्‍य का ज्ञानकांड। इस प्रकार भारत का उन्‍नीसवीं शताब्‍दी का नवजागरण यूरोप के 'एनलाइटेनमेंट' अथवा 'ज्ञानोदय' की चेतना के अधिक निकट प्रतीत होता है और पंद्रहवीं शताब्‍दी का नवजागरण 'रिनेसांस' के तुल्‍य। अब यदि यह अंतर प्रत्‍यय के स्‍तर पर स्‍पष्‍ट हो तो दोनों के लिए अलग-अलग नाम निश्चित करने में विशेष कठिनाई नहीं रहती। संभवत: इस अंतर को ध्‍यान में रखकर ही डॉ.रामविलास शर्मा ने पंद्रहवीं शताब्‍दी के भक्ति आंदोलन के लिए 'लोकजागरण' और उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के सांस्‍कृतिक जागरण के लिए 'नवजागरण' शब्‍द का प्रयोग किया है। इन शब्‍दों के बदले और नए शब्‍द गढ़ने की अपेक्षा इन्‍हीं शब्‍दों को प्रचलित करना बेहतर है और सुविधाजनक भी। 'लोक जागरण' और 'नवजागरण' से पंद्रहवीं शताब्‍दी और उन्‍नीसवीं शताब्‍दी की सांस्‍कृतिक प्रतिक्रियाओं के बीच परंपरा का संबंध भी बना रहता है और अंतर भी स्‍पष्‍ट हो जाता है। इसके अतिरिक्‍त यूरोपीय इतिहास के अनावश्‍यक अनुषंग से मुक्ति भी मिल जाती है। क्‍या अपने इतिहास की व्‍याख्‍या के लिए हम हमेशा अंग्रेजी प्रत्‍ययों का अनुवाद ही करते रहेंगे?
उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के नवजागरण पर ठीक से विचार करने के लिए पंद्रहवीं शताब्‍दी के लोकजागरण के बारे में भी स्‍पष्‍टता आवश्‍यक है। नवजागरण, लोकजागरण का पुनरुत्‍थान मात्र नहीं है, किंतु एक में दूसरे की चेतना अंशत: विद्यमान है। बंकिमचंद्र ने ब्राह्मों विचारकों को वेदों और उपनिषदों तक दौड़ लगाते देखकर साफ शब्‍दों में कहा था कि 'समतावादी और आधुनिक मूल्‍यों के लिए वेदों और उपनिषदों की दूरी तक दौड़ लगाना क्‍यों जरूरी है जबकि बंगाल ने चैतन्य जैसे समाज-सुधारक को जन्‍म दिया जिन्‍होंने अभी सोलहवीं शताब्‍दी में ही जातिगत असमानता और धार्मिक असहिष्‍णुता की भर्त्‍सना की है।' हिंदी से उदाहरण लें तो भारतेंदु की वैष्‍णव-निष्‍ठा सर्वविदित ही है। सन् 1884 ई. में जीवन के अंतिम दिनों में उन्‍होंने 'वैष्‍णवता और भारतवर्ष' शीर्षक एक लंबा लेख लिखकर सप्रमाण सिद्ध करने का प्रयत्‍न किया था कि ' वैष्‍णव मत ही भारतवर्ष का मत है और वह भारतवर्ष की हड्​डी, लहू में मिल गया है।' ऐसे उदाहरण उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अंतर्गत अन्‍य भाषाओं के साहित्‍यकारों में भी मिल जाएँगे।
उन्‍नीसवीं शताब्‍दी का नवजागरण भक्तिकालीन लोकजागरण से भिन्‍न इस बात में है कि यह उपनिवेशवादी दौर की उपज है, इसलिए इसकी ऐतिहासिक अंतर्वस्‍तु भी भिन्‍न है। यह उस लोकजागरण से इसलिए भी भिन्‍न है कि इसके पुरस्‍कर्ता और विचारक नए शिक्षित मध्‍यवर्ग के हैं, जिन्‍हें बंगाल में 'भद्रलोक' की संज्ञा दी गई है। यह नया भद्रलोक भक्‍त कवियों की तरह न तो सामान्‍यलोक के बीच से आया था और न लोकजीवन के साथ घुल-मिल पाने में ही सफल हो सका। इनमें से कुछ विचारों में लोकोन्‍मुख अवश्‍य थे, लेकिन आचार में लोक के साथ तादात्‍म्‍य स्‍थापित न कर पाए। इसलिए भक्तिकालीन लोकजागरण की तुलना में इस नवजागरण का प्रसार भी सीमित था। इसका प्रभाव बहुत कुछ नए नगरों तक ही सीमित था।
उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के भारतीय नवजागरण की चर्चा के क्रम में यूरोपीय 'रिनेसांस' का जिक्र इतना आया है कि उसे एकदम स्‍मृति-पटल से मिटा देना मुश्किल है, और उसे शाश्‍वत-सार्वभौम मान लेने का एक प्रलोभन भी है किंतु हमारे नवजागरण की एक देन वह 'आलोचनात्‍मक' दृष्टि भी है जो यूरोप के 'प्राच्‍यविद्यावाद' (ओरिएंटलिज्‍म) के इस उपनिवेशवादी मायापाश को छिन्‍न करने की चेतावनी देती है।
भारतीय नवजागरण की मूल समस्‍या है भारतेंदु के शब्‍दों में 'स्‍वत्‍व निज भारत गहै।' यह 'स्‍वत्‍व' वही है जिसे आजकल 'अस्मिता' कहते हैं। राजनीतिक स्वाधीनता इस 'स्‍वत्व' की पहली शर्त है। नवजागरण के उन्‍नायक इस आवश्‍यकता का अनुभव करते रहे होंगे, यह सोचना कठिन है, फिर भी तथ्‍य यही है कि नवजागरणकालीन प्रकाशित साहित्‍य में राज‍नीतिक स्‍वाधीनता का स्‍पष्‍ट स्‍वर कम ही सुनाई पड़ता है। पहले ईस्‍ट इंडिया कंपनी और फिर महारानी विक्‍टोरिया के शासन-काल में राज के विरुद्ध निश्‍चय ही किसानों के छिटपुट विद्रोह बराबर होते रहे, जिनमें सबसे संगठित और सशक्‍त सन् सत्तावन की राजक्रांति है, फिर भी समकालीन शिष्‍ट साहित्‍य में उसकी गूँज सुनाई नहीं पड़ती-लोक साहित्‍य भले ही प्रचुर मात्रा में मौखिक रूप में रचा गया हो। यह स्थिति सन् सत्तावन के पहले तो थी ही, उसके बाद भी कम-से-कम तीन दशकों तक बनी रही। आर्थिक शोषण के खिलाफ जरूर लिखा गया, पुलिस तथा अन्‍य अफसरों के अत्‍याचार और अन्‍याय की भी शिकायत की गई, पर राजसत्ता पलटने के विचार को जैसे अंतर्गुहावास दे दिया गया। निश्‍चय ही इसका एक कारण-और बहुत बड़ा कारण था राजा का दमन से पैदा होनेवाला आतंक। भारतेंदु के शब्‍दों में 'जेहि भय भय सिर न हिलाय सकत कहुँ भारतवासी।' फिर भी देशभक्ति के साथ राजभक्त्‍िा नवजागरण का अभिन्‍न स्‍वर है - इतना अभिन्‍न कि इससे किसी प्रदेश और किसी भाषा का कोई भी लेखक अछूता नहीं है। यह कटु सत्‍य है और इसके लिए किसी प्रकार की क्षमायाचना आज आवश्‍यक नहीं है और न कोई सफाई ही जरूरी है। सच तो यह है कि अधिकांश लेखक सुरक्षा, सुशासन, शिक्षा, उन्‍नति और शांति के लिए ब्रिटिश राज के प्रति उपकृत अनुभव करते हैं - विशेष रूप से मुगलों के शासन की तुलना में। इस प्रवृत्ति के अवशेष बीसवीं शताब्‍दी के दूसरे दशक तक मैथिलीशरण गुप्‍त की 'भारत भारती' जैसी राष्‍ट्रीय कही जानेवाली काव्‍य-कृति में भी मिलती है। यहाँ तक कि कभी-कभी तो नवजागरण के अनेक उन्‍नायक राजसत्ता के साथ सहयोग करते भी दिखाई पड़ते है। अब इसे कोई चाहे तो नवजागरण के उन्‍नायकों का मध्‍यवर्गीय अथवा भद्रलोक चरित्रकह ले, अथवा किसी संगठित राजनीतिक प्रतिरोध के अभाव के द्वारा इस निरुपायता की व्‍याख्‍या कर ले, किंतु हर हालत में यह तथ्‍य विस्‍मृत न हो कि कु ल मिलाकर था यह मूलत: नवजागरण ही - सांसकृतिक नवजागरण, जिसे राष्‍ट्रीय स्‍वाधीनता संघर्ष का पूर्व रंग भले कह लें किंतु उसका पर्याय न समझें।
जैसा कि सच्चिदानंद वात्‍स्‍यायन ने मैथिलीशरण गुप्‍त के प्रसंग में एक जगह कहा है, 'हम यह तो कह सकते हैं कि अंग्रेजी सरकार का विरोध किए बिना भारतीयता की प्र‍तिष्‍ठा चाहनेवाले हेतु और हेतुमत् का सही रिश्‍ता नहीं पहचान पाए थे। ... पर आर्थिक-राजनीतिक आधार को स्‍वीकार कर लेने पर भी यह बात नहीं कटती कि बिना एक जीवंत और प्रेरणाप्रद आत्‍म-बिंब के वह लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती थी जो लड़ी गई; न वैसे लड़ी जा सकती थी जैसे लड़ी गई।'
यह बात कम मूल्‍यवान नहीं है कि राजनीति‍क मुक्ति का मार्ग अवरुद्ध पाकर नवजागरण के उन्‍नायक हाथ-पर-हाथ धरकर बैठ नहीं गए, बल्कि उन्‍होंने स्‍वत्व-रक्षा के अन्‍य मोर्चों पर संघर्ष जारी रखा। यह संघर्ष था सांस्‍कृतिक मोर्चे का-सांस्‍कृतिक मोर्च पर औपनिवेशक मानसिकता और दिमागी गुलामी के खिलाफ संघर्ष। कहना न होगा कि यह संघर्ष राजनीतिक संघर्ष से कम कठिन न था। उपनिवेशवाद की छाया में भारतीय संस्‍कृति के लोप का खतरा था। इ‍सलिए अपनी संस्‍कृति की रक्षा का प्रश्‍न स्‍वत्व-रक्षा का प्रश्‍न बन गया था। 1840 में अक्षयकुमार दत्त ने एक ब्राह्मों सभा में भाषण देते हुए कहा था : 'हम एक विदेशी शासन के अधीन हैं, एक विदेशी भाषा में शिक्षा प्राप्‍त करते हैं, और विदेशी दमन झेल रहे हैं, जबकि ईसाई धर्म इतना प्रभावशाली हो चला है गोया वह इस देश का राष्‍ट्रीय धर्म हो। …मेरा हृदय यह सोचकर फटने लगता है कि हिंदू शब्‍द भुला दिया जाएगा और हम लोग एक विदेशी नाम से पुकारे जाएँगे।'
इस उद्धरण से स्‍पष्‍ट हो जाता है कि भारतीय नवजागरण धार्मिक रूप लेने के लिए क्‍यों विवश हुआ। नवजागरण काल का शायद ही कोई लेखक या विचारक हो जिसने धार्मिक प्रश्‍नों पर न लिखा हो। जब स्‍वयं उपनिवेशवादी राजसत्ता का दमन ही धार्मिक रूप ले रहा था तो प्रतिरोध का धार्मिक रूप में प्रकट होना अनिवार्य था। माक्‍स म्यूलर ने इस धार्मिक दमन के आँकड़े देकर बताया था कि 1885 तक भारत में 38 ईसाई मिशन-समाज काम कर रहे थे, जिनके विदेशी सदस्‍यों की संख्‍या 887 थी और देशी प्रचारक 751 तथा गैर-ईसाई सहायक 2856 थे। ये ईसाई मिशन अन्‍य साधनों के अतिरिक्‍त स्‍कूलों और अस्‍पतालों के जरिए भी धर्मपरिवर्तन करवा रहे थे। ऐसे वातावरण में स्‍वत्त्व का प्रश्‍न धर्म का प्रश्‍न बन गया था।
भारतीय अस्मिता समाप्‍त करने के लिए अंग्रेजी सरकार की ओर से भारत के इतिहास को भी तोड़-मरोड़कर पेश करने की कोशिश की गई। उपनिवेशवाद ने एक ओर तो भारत के प्राचीन इतिहास की सामग्री को खोज-खोदकर एकत्र किया और दूसरी ओर उसका उपयोग अपनिवेशवादी सत्ता के हक में किया। यह था उपकार के आवरण में अपकार का षड्​यंत्र। भारतीय अस्मिता को एक बड़ा खतरा इस 'प्राच्‍य-विद्या' (ओरिएंटलिज्‍म) से था जिसने पश्चिम से भिन्‍न एक ऐसे 'पूर्व' का मिथक गढ़ा जो अनंत काल तक गुलाम रहने के लिए अभिशप्‍त था। इस 'प्राच्‍य - विद्यावाद' के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए भारतीय नवजागरण ने इतिहास की प्रतिदृष्टि विकसित की। बंकिमचंद्र ने एक जगह लिखा है कि : 'कोई राष्‍ट्र अपने इतिहास में अस्तित्‍व ग्रहण करता है; इसलिए अपने इतिहास का ज्ञान ही किसी जाति का आत्‍मज्ञान है।' आकस्मिक नहीं है कि नवजागरण के अधिकांश लेखक किसी-न-किसी स्‍तर पर इतिहासकार भी थे। नवजागरण की एक बहुत बड़ी देन संभवत: वह इतिहास दृष्टि है जिससे अपने अतीत को शत्रु से मुक्‍त करके उसके विरुद्ध वर्तमान में इस्‍तेमाल करने की कला आती है और भविष्‍य के लिए एक स्‍वप्‍नदृष्टि भी मिलती है।
स्‍वत्व-संघर्ष में उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के नवजागरण का सबसे निर्णायक कदम भाषा के क्षेत्र में उठा।यह आकस्मिक नहीं है कि जिस भारतेंदु ने 'स्‍वत्व निज भारत गहै' की आवाज बुलंद की उन्‍हीं ने 'निज भाषा उन्‍नति अहै सब उन्‍नति कौ मूल' की भी घोषणा की। भारतीय भाषाओं को नवजागरण की सबसे मूल्‍यवान देन गद्य है और निराला के शब्‍दों में 'गद्य जीवन-संग्राम की भाषा है।' विदेशी भाषा के विरुद्ध अपनी भाषा की रक्षा और विकास विदेशी सत्ता के विरुद्ध स्‍वदेशी का जातीय अस्‍त्र है। वस्‍तुत: भाषा-विकास का स्‍तर वह कसौटी है जिस पर भारत के किसी प्रदेश के नवजागरण की गहराई और व्‍यापकता जाँची जा सकती है। उदाहरण के लिए, हिंदी की तुलना में बंगला और मराठी गद्य का विकास चार-पाँच दशक पहले हो गया तो इसलिए कि वहाँ नवजागरण भी पहले हुआ। बंगला को उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के मध्‍य में ही ईश्‍वरचंद्र विद्यासागर मिल गए और उत्तरार्ध में पहले बंकिमचंद्र, फिर रवींद्रनाथ। मराठी एक तो मराठा राज के जमाने से ही राजकाज की भाषा थी, दूसरे 1840 तक मराठी माध्‍यम से शिक्षा देनेवाले सत्तावन स्‍कूल खुल गए थे। इसके अतिरिक्‍त मराठी का मानक रूप स्थिर करने में बंबई सरकार ने महत्‍वपूर्ण भूमिका अदा की। इस प्रक्रिया में कोश-निर्माण का स्‍थान विशेष रूप से महत्त्‍वपूर्ण है। मराठी-मराठी 'पंडित कोश' 1829 में, मोल्‍सवर्थ का मराठी-अंग्रेजी कोश 1831 में सरकारी सहायता से छप चुका था। आगे चलकर मराठी को विष्‍णु शास्‍त्री चिपलूणकर, महात्‍मा ज्‍योतिबा फुले, आगरकर, रानाडे और लोकमान्‍य तिलक - जैसे प्रश्‍स्‍त गद्यकार मिले। यदि बंकिम का गद्य बंगला नवजागरण के वर्चस्‍व का दर्पण है तो चिपलूणकर का गद्य मराठी नवजागरण की प्रखरता का प्रमाण।
यदि हिंदी गद्य बंगला और मराठी का पिछलगुआ रहा तो इसकी जड़ें जितनी प्रतिकूल राजनीतिक परिस्थिति में है उतनी ही हिंदी प्रदेश के विलंबित नवजागरण में। स्‍वयं भारतेंदु के अनुसार 1873 में हिंदी 'नए चाल में ढली'। एक तो पाँच शताब्दियों तक राजभाषा के रूप में फारसी का दबाव, फिर अंग्रेज सरकार द्वारा उर्दू को बढ़ावा,हिंदी को अस्मिता के लिए सबसे लंबा संघर्ष करना पड़ा। बिहार में हिंदी 1881 ई. में कचहरियों की भाषा स्‍वीकृत हुई और यू.पी. में 1900 ई. में। उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अंतिम पाँच दशक भाषा तो भाषा, नागरी लिपि के स्‍वत्व की रक्षा के संघर्ष में खप गए। इन बाधाओं के बावजूद उन्‍नीसवीं शताब्‍दी में जैसा जानदार हिंदी गद्य लिखा गया, वह आज भी स्‍पर्धा का विषय है।
भाषा के क्षेत्र में भारतीय नवजागरण के स्‍वत्व के लिए जो संघर्ष किया उसका सबसे शानदार पहलू है प्रत्‍येक जातीय भाषा के विकास के साथ आपसी आदान-प्रदान के लिए एक अखिल भारतीय भाषा का विकास। बंगला नवजागरण के उन्‍नायकों ने, चाहे वे ब्राह्म हो या गैर-ब्राह्म सनातनी, बंगला के साथ ही हिंदी को भी बढ़ावा दिया; यहाँ तक कि संस्‍कृ‍त के पंडित और गुजराती दयानंद सरस्‍वती को संस्‍कृत छोड़ हिंदी में बोलने और लिखने की नेक सलाह कलकत्ते में केशवचंद्र सेन से ही मिली।
हिंदी प्रदेश के नवजागरण की अपनी विशिष्‍टता का निरूपण नवजागरण के इस अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्‍य में ही समीचीन है। यदि हिंदी नवजागरण के अग्रदूत भारतेंदु बंगाल नवजागरण से प्रेरणा प्राप्‍त कर रहे थे तो उसके समर्थ सार्थवाह महावीरप्रसाद द्विवेदी की निष्‍पलक दृष्टि मराठी नवजागरण के अंतर्गत चलनेवाले 'संशोधन' पर थी। प्रसंगवश यह भी उल्‍लेखनीय है कि हिंदी प्रदेश में नवजागरण का कार्य मुख्‍यत: स्‍वयं लेखकों और साहित्‍यकारों को ही संपन्‍न करना पड़ा क्‍योंकि यहाँ बंगाल और महाराष्‍ट्र की तरह प्रखर समाज-सुधारक और विचारक अगुआई करने के लिए नहीं मिले। हिंदी प्रदेश को मिले भी तो दयानंद सरस्‍वती जिनकी भूमिका का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उन्‍नीसवीं शताब्दी के बड़े हिंदी लेखकों में से एक भी उनसे प्रभावित न हो सका। स्‍वयं भारतेंदु दयानन्‍द की अपेक्षा बंगाल के केशवचंद्र सेन को श्रेयस्‍कर समझते थे। 1885 ई. में लिखित 'स्‍वर्ग में विचार सभा का अधिवेशन' शीर्षक लेख में भारतेंदु दयानंद के बारे में यह निर्णय देते हैं कि उन्‍होंने 'जाल, को छुरी से न काटकर जाल ही से काटना चाहा,' जबकि केशव ने इनके विरुद्ध जाल काटकर परिष्‍कृत पथ प्रकट किया।' केशवचंद्र सेन के महत्तर होने का कारण यह है कि भारतेंदु के मन के अनुकूल केशव ने 'अपनी भक्ति की उच्‍छलित लहरों में लोगों का चित्त आर्द्र कर दिया।'
बंगाल नवजागरण से हिंदी नवजागरण को अलगाते समय यह न भूलना चाहिए कि भारतेंदु का सीधा संपर्क ईश्‍वरचंद्र विद्यासागर, केशवचंद्र सेन, बंकिमचंद्र, राजेंद्रलाल मित्र और सुरेंद्रनाथ बैनर्जी से था। भारतेंदु ने बँगला नवजागरण की मनपसंद रचनाओं से छाया ग्रहण तो की ही, अपने नाटकों में जहाँ उन्‍हें क्रांतिकारी विचारो को व्‍यक्‍त करना होता था, प्राय: बंगाली चरित्रों की अवतारणा करते थे और उन्‍हीं को प्रवक्‍ता भी बनाते थे।
इन तथ्‍य को देखते हुए हिंदी नवजागरण की विशिष्‍टता बतलाने के लिए सन् सत्तावन की राजक्रांति को उसका बीज मानना कठिन है। भारतेंदु तथा उनके मंडल के लेखक सन् सत्तावन की राजक्रांति की अपेक्षा बंगाल के उस नवजागरण से प्रेरणा प्राप्‍त कर रहे थे जो उससे पहले ही शुरू हो चुका था। कारण यह कि भारतेंदु और उनके मंडल के लेखकों की दृष्टि में अंग्रेजी राज की चुनौती राज‍नीतिक से अधिक सांस्‍कृतिक थी और इस सांस्‍कृतिक संघर्ष में बंगाल नवजागरण से अस्‍त्र-शस्‍त्र मिलने की संभावना अधिक थी।
सन् सत्‍तावन की राजक्रांति को हिंदी नवजागरण का गोमुख मानने में एक कठिनाई यह भी है कि राजक्रांति के नितांत असांप्रदायिक पक्ष का संदेश हिंदी नवजागरण तक पूरा-पूरा नहीं पहुँच सका। हिंदी प्रदेश के नवजागरण के संमुख यह बहुत गंभीर प्रश्‍न है कि यहाँ का नवजागरण हिंदू और मुस्लिम दो धाराओं में क्‍यों विभक्‍त हो गया। जिस प्रदेश में हिंदू-मुस्लि‍म दोनों धर्मों के लोग एक साथ मिलकर सन् सत्तावन में अंग्रेजी राज के खिलाफ लड़े वहाँ दस वर्ष बाद ही जो नवजागरण शुरू हुआ वह हिंदू और मुस्लिम दो अलग-अलग खानों में कैसे बँट गया? यह प्रश्‍न इसलिए भी गंभीर है कि बंगाल और महाराष्‍ट्र का नवजागरण इस प्रकार विभक्‍त नहीं हुआ। हैरानी की बात यह है कि हिंदी प्रदेश का नवजागरण धर्म, इतिहास, भाषा सभी स्‍तरों पर दो टुकड़े हो गया। स्‍वत्व रक्षा के प्रयास धर्म तथा संप्रदाय की जमीन से किए गए।
यदि हिंदी नवजागरण को सन् सत्तावन की राजक्रांति का उत्तराधिकारी कहने का अर्थ यह है कि वह अंग्रेजी राज का विरोध करने में सबसे आगे थे तो इसके लिए भी पर्याप्‍त प्रमाण नहीं मिलते। इस दृष्टि से वस्‍तुत: बंगला और महाराष्‍ट्र की तरह हिंदी प्रदेश के भी उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के लेखकों में दो वर्ग दिखाई पड़ते हैं। एक वर्ग उन लेखकों का है जो अंग्रेजी राज का घोर विरोधी है तो दूसरा वर्ग इस मामले में कुछ नरम दिखाई पड़ता है। विचित्र बात यह है कि अंग्रेजी राज का घोर विरोध करनेवाला वर्ग धर्म-संस्‍कृति आदि नैतिक-सामाजिक मान्‍यताओं में या तो मूलगामी है या फिर सुधारवादी। प्रथम भारतीय होने का दावा करता है तो दूसरा पश्चिमोन्‍मुख है। यह ढाँचा लगभग समूचे भारतीय नवजागरण का है। यदि हिंदी नवजागरण में पश्चिमोन्‍मुख लोग कम दिखते हैं और इस कारण अंग्रेजपरस्‍तों की संख्‍या कम है तो उसका एक कारण वह अंग्रेजी शिक्षा हो सकती है जो इस प्रदेश में देर से पहुँची और उसका प्रसार भी बहुत सीमित रहा। किंतु एक बात तय है कि हिंदी नवजागरण के अंग्रेज-विरोध का स्‍त्रोत सन् सत्‍तावन की राजक्रांति में स्‍पष्‍ट नहीं है।
इसी प्रकार हिंदी नवजागरण में प्रखर बुद्धिवाद की प्रधानता भी संदिग्‍ध ही दिखाई पड़ती है। इस नवजागरण के अग्रदूत स्‍वयं भारतेंदु में वैष्‍णव भावुकता कहीं अधिक है। निश्‍चय ही उनमें बौद्धिकता भी है जो व्‍यंग्‍य-रचनाओं में पूरी प्रखरता के साथ व्‍यक्‍त होती है किंतु पद्य के साथ ही उनके अधिकांश गद्य में कृष्‍ण-भक्ति की भावुकता अधिक मुखर है और कहना न होगा कि यह स्‍त्रोत बंगाल से अधिक स्‍वयं हिंदी के अपने कृष्‍ण-भक्ति काव्‍य में है। भारतेंदु की यह भावुकता यदि उनकी दुर्बलता है तो उससे अधिक उनके मानवतावाद का उत्‍स है और साथ ही उस मस्‍ती और स्‍वाभिमान का भी सुदृढ़ आधार है जो उन्हें अंग्रेजों के कोप की उपेक्षा करने का साहस प्रदान करता है। भारतेंदु की इस वैष्णव भावुकता ने उन्‍हें दयानंद के आर्यसमाजी खंडन-मंडनवाले बुद्धिवाद से दूर रखा था। भावुकता की यह प्रधानता भारतेंदु-मंडल के प्रतापनारायण मिश्र, प्रेमघन, जगमोहन सिंह आदि अन्‍य सदस्‍यों में भी दिखाई पड़ती है।
निश्‍चय ही एक विशेष प्रकार की बौद्धिकता महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनके मंडल के मैथिलीशरण गुप्‍त सदृश कवियों में अधिक है, जिसका दुखद परिणाम 'इतिवृत्तात्‍मकता' है। लेकिन द्विवेदी मंडल समूचा हिंदी नवजागरण नहीं है और न उसकी मुख्‍य धारा है। श्रीधर पाठक से रामनरेश त्रिपाठी तक जो तथाकथित स्‍वच्‍छंदवादी कवियों की धारा है तथा सरदार पूर्णसिंह, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बालमुकुंद गुप्‍त-जैसे विदग्‍ध गद्यलेखकों की जो लंबी परंपरा है वह कोरी बौद्धिकता की कोटि में नहीं आती।
इसी प्रकार जिस रहस्‍यवाद को हिंदी नवजागरण पर बंगाल के प्रभाव के रूप में निरूपित किया जाता है वह भी एक तरह से समूचे भारतीय नवजागारण का अभिन्‍न अंग है। यह रहस्‍यवाद उस नववेदांत की देन है जिसका एक रूप रवींद्रनाथ में विकसित हुआ तो दूसरा रामकृष्‍ण परमहंस और विवेकानंद में। हिंदी के प्रमुख छायावादी कवियों में कितनों ने रवींद्रनाथ से रहस्‍यवाद ग्रहण किया, इस विषय में संदेह भले ही हो पर इसमें संदेह की गुंजाइश कम ही है कि निराला के रहस्‍यवाद का आधार विवेकानंद का नववेदांत था और प्रसाद के रहस्‍यवाद का आधार शैवागम। यह सच है कि यह नववेदांत हिंदी में उसी तरह बंगाल से आया जैसे हिंदी नवजागरण में और भी बहुत-सी बातें बंगाल से आईं। किंतु इस नववेदांत के सहारे निराला और प्रसाद ने जिस प्रकार सामंत-विरोधी और साम्राज्‍य-विरोधी संघर्ष का साहित्‍य रचा वह रहस्‍यवाद-विरोधी बौद्धिकता द्वारा रचे हुए साहित्‍य से घटकर है, ऐसा कहने का साहस कम ही लोग करेंगे।
वास्‍तविकता यह है कि भावबोध और विचारबोध की दृष्टि से समूचा भारतीय नवजागरण एक संश्लि‍ष्‍ट प्रक्रिया है जिसमें बौद्धिकता के साथ भावुकता है, ऐहिकता के साथ आमुष्मिकता भी है और यथार्थवाद के साथ ही रहस्‍यवाद के भी तत्त्व घुले-मिले हैं। यूरोप के 'एनलाइटेनमेंट' अथवा 'ज्ञानोदय' दौर के विचारकों से प्रेरणा लेने के बावजूद भारत का उन्‍नीसवीं शताब्‍दी का नवजागरण नितांत बुद्धिवादी न हो सका, क्‍योंकि स्‍वयं यूरोपीय 'ज्ञानोदय' भी इतना इकहरा न था। अंतर्विरोध इस नवजागरण की प्रक्रिया में भी थे और कहने की आवश्‍यकता नहीं कि यह अनिवार्यत: नवजागरण की दुर्बलता नहीं बल्कि एक तरह से उसकी समृद्धि का सूचक है।
आज उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के भारतीय नवजागरण के इस संश्‍लि‍ष्‍ट रूप पर बल देने की आवश्‍यकता विशेष रूप से इसलिए आ पड़ी है कि इकहरे साँचे में ढालकर तरह-तरह से हस्‍तगत करने की कोशिश की जा रही है। नव-उपनिवेशवादी प्राच्‍यविद्याविद् इसे एकदम 'अंग्रेजी राज का सबसे मूल्‍यवान उपहार' बता रहे हैं तो आधुनिकतावादियों की दृष्टि में यह मुख्‍यत: आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का श्रीगणेश है, जिसमें विज्ञान, औद्योगीकरण, बुद्धिवाद, प्रगति, धर्मनिरपेक्षता आदि मूल्‍य प्रधान हैं। दूसरी ओर भिन्‍न पक्ष के विचारक इन्‍हीं बातों के लिए इस नवजागरण को तिरस्‍कृत करने की कोशिश कर रहे हैं। अति वामपंथी दृष्टि में यह नवजागरण एक परजीवी और वर्ग-सहयोगी मध्‍य वर्ग कारनामा होने के कारण ऐतिहासिक 'धोखा' है तो उत्तर-आधुनिकतावादी विचारकों के लेखे 'छद्​मचेतना' है - ऐसी 'छद्​मचेतना' जो यूरोप की ऐतिहासिक चेतना के प्रभाव में देश को एक अमानुषिक केंद्रीकृत राजसत्ता की ओर ठेल रही है। तात्‍पर्य यह है कि आज की समस्त समस्‍याओं के लिए यदि कोई जिम्‍मेदार है तो उन्‍नीसवीं शताब्‍दी का नवजागरण। यदि आज के बुद्धिजीवियों में औपनिवेशिक मानसिकता है तो नवजागरण के फलस्‍वरूप; अध्‍यात्‍मवाद, रहस्‍यवाद, अंधविश्‍वास आदि में वृद्धि हो रही है तो वह भी उसी के कारण। हिंदू-मुस्लिम-सिख सांप्रदायिकता के विष-बीज भी वहीं के हैं और भाषायी झगड़ों और क्षेत्रीय अलगावाद की जड़ें भी ढूँढ़कर उन्‍नीसवीं शताब्‍दी में बतायी जा रही हैं।
अंतत: ये तमाम बातें उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अंतर्गत अंग्रेजी उपनिवेशवाद और भारतीय सभ्‍यता के बीच चलनेवाले उस वस्‍तुगत संघर्ष की जटिलता और संश्‍लि‍ष्‍टता की ओर संकेत करती हैं। इस विषम युद्ध में मुख्‍य प्रश्‍न स्‍वत्‍व रक्षा का था, जिसे बचाने की छटपटाहट में परंपरा के वे प्रेत भी जग गए जो आगे चलकर खतरनाक साबित हुए; फिर प्रगति की आकांक्षा से हड़बड़ी में पश्चिम से ऐसे भी उपकरण लिए गए जिनके दूरगामी परिणामों की समझ न थी। आज उस रंगभूमि में उतरनेवाले पूर्व सूरियों पर राय देते समय अपने गरेबाँ में मुँह डालकर देख लेना भी जरूरी है। वैसे इस नवजागरण से भी अपनी-अपनी पसंद के मूल्‍य अथवा व्‍यक्ति चुनने के लिए हर कोई स्‍वतंत्र है लेकिन शर्त यह है कि खंड को ही समग्र न कहने का आग्रह न किया जाए। न इतिहास कल्‍पवृक्ष है और न नवजागरण कामधेनु! [1986]